०७२ अर्जुनकोपे

भागसूचना

(प्रतिज्ञापर्व)
द्विसप्ततितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

अभिमन्युकी मृत्युके कारण अर्जुनका विषाद और क्रोध

मूलम् (वचनम्)

(धृतराष्ट्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ संशप्तकैः सार्धं युध्यमाने धनंजये।
अभिमन्यौ हते चापि बाले बलवतां वरे॥
महर्षिसत्तमे याते युधिष्ठिरपुरोगमाः ।
पाण्डवाः किमथाकार्षुः शोकेन हतचेतसः॥
कथं संशप्तकेभ्यो वा निवृत्तो वानरध्वजः।
केन वा कथितः तस्य प्रशान्तः सुतपावकः॥
एतन्मे शंस तत्त्वेन सर्वमेवेह संजय।)

मूलम्

अथ संशप्तकैः सार्धं युध्यमाने धनंजये।
अभिमन्यौ हते चापि बाले बलवतां वरे॥
महर्षिसत्तमे याते युधिष्ठिरपुरोगमाः ।
पाण्डवाः किमथाकार्षुः शोकेन हतचेतसः॥
कथं संशप्तकेभ्यो वा निवृत्तो वानरध्वजः।
केन वा कथितः तस्य प्रशान्तः सुतपावकः॥
एतन्मे शंस तत्त्वेन सर्वमेवेह संजय।)

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्रने पूछा— संजय! जब अर्जुन संशप्तकोंके साथ युद्ध कर रहे थे, जब बलवानोंमें श्रेष्ठ बालक अभिमन्यु मारा गया और जब महर्षियोंमें श्रेष्ठ व्यास (युधिष्ठिरको सान्त्वना देकर) चले गये, तब शोकसे व्याकुल चित्तवाले युधिष्ठिर और अन्य पाण्डवोंने क्या किया? कपिध्वज अर्जुन संशप्तकोंकी ओरसे कैसे लौटे तथा किसने उनसे कहा कि तुम्हारा अग्निके समान तेजस्वी पुत्र सदाके लिये शान्त हो गया। इन सब बातोंको तुम यथार्थरूपसे मुझे बताओ।

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिन्नहनि निर्वृत्ते घोरे प्राणभृतां क्षये।
आदित्येऽस्तं गते श्रीमान् संध्याकाल उपस्थिते ॥ १ ॥
व्यपयातेषु वासाय सर्वेषु भरतर्षभ।
हत्वा संशप्तकव्रातान् दिव्यैरस्त्रैः कपिध्वजः ॥ २ ॥
प्रायात् स शिबिरं जिष्णुर्जैत्रमास्थाय तं रथम्।
गच्छन्नेव च गोविन्दं साश्रुकण्ठोऽभ्यभाषत ॥ ३ ॥

मूलम्

तस्मिन्नहनि निर्वृत्ते घोरे प्राणभृतां क्षये।
आदित्येऽस्तं गते श्रीमान् संध्याकाल उपस्थिते ॥ १ ॥
व्यपयातेषु वासाय सर्वेषु भरतर्षभ।
हत्वा संशप्तकव्रातान् दिव्यैरस्त्रैः कपिध्वजः ॥ २ ॥
प्रायात् स शिबिरं जिष्णुर्जैत्रमास्थाय तं रथम्।
गच्छन्नेव च गोविन्दं साश्रुकण्ठोऽभ्यभाषत ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय बोले— भरतश्रेष्ठ! प्राणधारियोंका संहार करनेवाले उस भयंकर दिनके बीत जानेपर जब सूर्यदेव अस्ताचलको चले गये और संध्याकाल उपस्थित हुआ, उस समय समस्त सैनिक जब शिविरमें विश्रामके लिये चल दिये, तब विजयशील श्रीमान् कपिध्वज अर्जुन अपने दिव्यास्त्रोंद्वारा संशप्तकसमूहोंका वध करके अपने उस विजयी रथपर बैठे हुए शिविरकी ओर चले। चलते-चलते ही वे अश्रुगद्‌गदकण्ठ हो भगवान् गोविन्दसे इस प्रकार बोले—॥१—३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं नु मे हृदयं त्रस्तं वाक् च सज्जति केशव।
स्पन्दन्ति चाप्यनिष्टानि गात्रं सीदति चाप्युत ॥ ४ ॥

मूलम्

किं नु मे हृदयं त्रस्तं वाक् च सज्जति केशव।
स्पन्दन्ति चाप्यनिष्टानि गात्रं सीदति चाप्युत ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘केशव! न जाने क्यों आज मेरा हृदय धड़क रहा है, वाणी लड़खड़ा रही है, अनिष्ट-सूचक बायें अंग फड़क रहे हैं और शरीर शिथिल होता जा रहा है॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनिष्टं चैव मे श्लिष्टं हृदयान्नापसर्पति।
भुवि ये दिक्षु चात्युग्रा उत्पातास्त्रासयन्ति माम् ॥ ५ ॥

मूलम्

अनिष्टं चैव मे श्लिष्टं हृदयान्नापसर्पति।
भुवि ये दिक्षु चात्युग्रा उत्पातास्त्रासयन्ति माम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मेरे हृदयमें अनिष्टकी चिन्ता घुसी हुई है, जो किसी प्रकार वहाँसे निकलती ही नहीं है। पृथ्वीपर तथा सम्पूर्ण दिशाओंमें होनेवाले भयंकर उत्पात मुझे डरा रहे हैं॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बहुप्रकारा दृश्यन्ते सर्व एवाघशंसिनः।
अपि स्वस्ति भवेद् राज्ञः सामात्यस्य गुरोर्मम ॥ ६ ॥

मूलम्

बहुप्रकारा दृश्यन्ते सर्व एवाघशंसिनः।
अपि स्वस्ति भवेद् राज्ञः सामात्यस्य गुरोर्मम ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ये उत्पात अनेक प्रकारके दिखायी देते हैं और सब-के-सब भारी अमंगलकी सूचना दे रहे हैं। क्या मेरे पूज्य भ्राता राजा युधिष्ठिर अपने मन्त्रियोंसहित सकुशल होंगे?’॥६॥

मूलम् (वचनम्)

वासुदेव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्यक्तं शिवं तव भ्रातुः सामात्यस्य भविष्यति।
मा शुचः किञ्चिदेवान्यत् तत्रानिष्टं भविष्यति ॥ ७ ॥

मूलम्

व्यक्तं शिवं तव भ्रातुः सामात्यस्य भविष्यति।
मा शुचः किञ्चिदेवान्यत् तत्रानिष्टं भविष्यति ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्ण बोले— अर्जुन! शोक न करो। मुझे स्पष्ट जान पड़ता है कि मन्त्रियोंसहित तुम्हारे भाईका कल्याण ही होगा। इस अपशकुनके अनुसार कोई दूसरा ही अनिष्ट हुआ होगा॥७॥

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः संध्यामुपास्यैव वीरौ वीरावसादने।
कथयन्तौ रणे वृत्तं प्रयातौ रथमास्थितौ ॥ ८ ॥

मूलम्

ततः संध्यामुपास्यैव वीरौ वीरावसादने।
कथयन्तौ रणे वृत्तं प्रयातौ रथमास्थितौ ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— राजन्! तदनन्तर वे दोनों वीर उस वीरसंहारक रणभूमिमें संध्या-वन्दन करके पुनः रथपर बैठकर युद्धसम्बन्धी बातें करते हुए आगे बढ़े॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः स्वशिबिरं प्राप्तौ हतानन्दं हतत्विषम्।
वासुदेवोऽर्जुनश्चैव कृत्वा कर्म सुदुष्करम् ॥ ९ ॥

मूलम्

ततः स्वशिबिरं प्राप्तौ हतानन्दं हतत्विषम्।
वासुदेवोऽर्जुनश्चैव कृत्वा कर्म सुदुष्करम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर श्रीकृष्ण और अर्जुन जो अत्यन्त दुष्कर कर्म करके आ रहे थे, अपने शिविरके निकट आ पहुँचे। उस समय वह शिविर आनन्दशून्य और श्रीहीन दिखायी देता था॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ध्वस्ताकारं समालक्ष्य शिबिरं परवीरहा।
बीभत्सुरब्रवीत् कृष्णमस्वस्थहृदयस्ततः ॥ १० ॥

मूलम्

ध्वस्ताकारं समालक्ष्य शिबिरं परवीरहा।
बीभत्सुरब्रवीत् कृष्णमस्वस्थहृदयस्ततः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपनी छावनीको विध्वस्त हुई-सी देखकर शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले अर्जुनका हृदय चिन्तित हो उठा। अतः वे भगवान् श्रीकृष्णसे इस प्रकार बोले—॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नदन्ति नाद्य तूर्याणि मङ्गल्यानि जनार्दन।
मिश्रा दुन्दुभिनिर्घोषैः शङ्खाश्चाडम्बरैः सह ॥ ११ ॥

मूलम्

नदन्ति नाद्य तूर्याणि मङ्गल्यानि जनार्दन।
मिश्रा दुन्दुभिनिर्घोषैः शङ्खाश्चाडम्बरैः सह ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जनार्दन! आज इस शिविरमें मांगलिक बाजे नहीं बज रहे हैं। दुन्दुभिनाद तथा तुरहीके शब्दोंके साथ मिली हुई शंखध्वनि भी नहीं सुनायी देती है॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वीणा नैवाद्य वाद्यन्ते शम्यातालस्वनैः सह।
मङ्गल्यानि च गीतानि न गायन्ति पठन्ति च ॥ १२ ॥
स्तुतियुक्तानि रम्याणि ममानीकेषु बन्दिनः।

मूलम्

वीणा नैवाद्य वाद्यन्ते शम्यातालस्वनैः सह।
मङ्गल्यानि च गीतानि न गायन्ति पठन्ति च ॥ १२ ॥
स्तुतियुक्तानि रम्याणि ममानीकेषु बन्दिनः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘ढाक और करतारकी ध्वनिके साथ आज वीणा भी नहीं बज रही है। मेरी सेनाओंमें वन्दीजन न तो मंगलगीत गा रहे हैं और न स्तुतियुक्त मनोहर श्लोकोंका ही पाठ करते हैं॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

योधाश्चापि हि मां दृष्ट्वा निवर्तन्ते ह्यधोमुखाः ॥ १३ ॥
कर्माणि च यथापूर्वं कृत्वा नाभिवदन्ति माम्।
अपि स्वस्ति भवेदद्य भ्रातृभ्यो मम माधव ॥ १४ ॥

मूलम्

योधाश्चापि हि मां दृष्ट्वा निवर्तन्ते ह्यधोमुखाः ॥ १३ ॥
कर्माणि च यथापूर्वं कृत्वा नाभिवदन्ति माम्।
अपि स्वस्ति भवेदद्य भ्रातृभ्यो मम माधव ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मेरे सैनिक मुझे देखकर नीचे मुख किये लौट जाते हैं। पहलेकी भाँति अभिवादन करके मुझसे युद्धका समाचार नहीं बता रहे हैं। माधव! क्या आज मेरे भाई सकुशल होंगे?’॥१३-१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हि शुद्‌ध्यति मे भावो दृष्ट्वा स्वजनमाकुलम्।
अपि पाञ्चालराजस्य विराटस्य च मानद ॥ १५ ॥
सर्वेषां चैव योधानां सामग्र्यं स्यान्ममाच्युत।

मूलम्

न हि शुद्‌ध्यति मे भावो दृष्ट्वा स्वजनमाकुलम्।
अपि पाञ्चालराजस्य विराटस्य च मानद ॥ १५ ॥
सर्वेषां चैव योधानां सामग्र्यं स्यान्ममाच्युत।

अनुवाद (हिन्दी)

‘आज इन स्वजनोंको व्याकुल देखकर मेरे हृदयकी आशंका नहीं दूर होती है। दूसरोंको मान देनेवाले अच्युत श्रीकृष्ण! राजा द्रुपद, विराट तथा मेरे अन्य सब योद्धाओंका समुदाय तो सकुशल होगा न?॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न च मामद्य सौभद्रः प्रहृष्टो भ्रातृभिः सह।
रणादायान्तुमुचितं प्रत्युद्याति हसन्निव ॥ १६ ॥

मूलम्

न च मामद्य सौभद्रः प्रहृष्टो भ्रातृभिः सह।
रणादायान्तुमुचितं प्रत्युद्याति हसन्निव ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आज प्रतिदिनकी भाँति सुभद्राकुमार अभिमन्यु अपने भाइयोंके साथ हर्षमें भरकर हँसता हुआ-सा युद्धसे लौटते हुए मेरी उचित अगवानी करने नहीं आ रहा है (इसका क्या कारण है?)’॥१६॥

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं संकथयन्तौ तौ प्रविष्टौ शिबिरं स्वकम्।
ददृशाते भृशास्वस्थान् पाण्डवान् नष्टचेतसः ॥ १७ ॥

मूलम्

एवं संकथयन्तौ तौ प्रविष्टौ शिबिरं स्वकम्।
ददृशाते भृशास्वस्थान् पाण्डवान् नष्टचेतसः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— राजन्! इस प्रकार बातें करते हुए उन दोनोंने शिविरमें पहुँचकर देखा कि पाण्डव अत्यन्त व्याकुल और हतोत्साह हो रहे हैं॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्ट्वा भ्रातॄंश्च पुत्रांश्च विमना वानरध्वजः।
अपश्यंश्चैव सौभद्रमिदं वचनमब्रवीत् ॥ १८ ॥

मूलम्

दृष्ट्वा भ्रातॄंश्च पुत्रांश्च विमना वानरध्वजः।
अपश्यंश्चैव सौभद्रमिदं वचनमब्रवीत् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भाइयों तथा पुत्रोंको इस अवस्थामें देख और सुभद्राकुमार अभिमन्युको वहाँ न पाकर कपिध्वज अर्जुनका मन अत्यन्त उदास हो गया तथा वे इस प्रकार बोले—॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुखवर्णोऽप्रसन्नो वः सर्वेषामेव लक्ष्यते।
न चाभिमन्युं पश्यामि न च मां प्रतिनन्दथ ॥ १९ ॥

मूलम्

मुखवर्णोऽप्रसन्नो वः सर्वेषामेव लक्ष्यते।
न चाभिमन्युं पश्यामि न च मां प्रतिनन्दथ ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आज आप सभी लोगोंके मुखकी कान्ति अप्रसन्न दिखायी दे रही है, इधर मैं अभिमन्युको नहीं देख पाता हूँ और आपलोग भी मुझसे प्रसन्नतापूर्वक वार्तालाप नहीं कर रहे हैं॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मया श्रुतश्च द्रोणेन चक्रव्यूहो विनिर्मितः।
न च वस्तस्य भेत्तास्ति विना सौभद्रमर्भकम् ॥ २० ॥

मूलम्

मया श्रुतश्च द्रोणेन चक्रव्यूहो विनिर्मितः।
न च वस्तस्य भेत्तास्ति विना सौभद्रमर्भकम् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैंने सुना है कि आचार्य द्रोणने चक्रव्यूहकी रचना की थी। आपलोगोंमेंसे बालक अभिमन्युके सिवा दूसरा कोई उस व्यूहका भेदन नहीं कर सकता था॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चोपदिष्टस्तस्यासीन्मयानीकाद् विनिर्गमः ।
कच्चिन्न बालो युष्माभिः परानीकं प्रवेशितः ॥ २१ ॥

मूलम्

न चोपदिष्टस्तस्यासीन्मयानीकाद् विनिर्गमः ।
कच्चिन्न बालो युष्माभिः परानीकं प्रवेशितः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘परंतु मैंने उसे उस व्यूहसे निकलनेका ढंग अभी नहीं बताया था। कहीं ऐसा तो नहीं हुआ कि आपलोगोंने उस बालकको शत्रुके व्यूहमें भेज दिया हो?॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भित्त्वानीकं महेष्वासः परेषां बहुशो युधि।
कच्चिन्न निहतः संख्ये सौभद्रः परवीरहा ॥ २२ ॥

मूलम्

भित्त्वानीकं महेष्वासः परेषां बहुशो युधि।
कच्चिन्न निहतः संख्ये सौभद्रः परवीरहा ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शत्रुवीरोंका संहार करनेवाला महाधनुर्धर सुभद्राकुमार अभिमन्यु युद्धमें शत्रुओंके उस व्यूहका अनेकों बार भेदन करके अन्तमें वहीं मारा तो नहीं गया?॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोहिताक्षं महाबाहुं जातं सिंहमिवाद्रिषु।
उपेन्द्रसदृशं ब्रूत कथमायोधने हतः ॥ २३ ॥

मूलम्

लोहिताक्षं महाबाहुं जातं सिंहमिवाद्रिषु।
उपेन्द्रसदृशं ब्रूत कथमायोधने हतः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पर्वतोंमें उत्पन्न हुए सिंहके समान लाल नेत्रोंवाले, श्रीकृष्णतुल्य पराक्रमी महाबाहु अभिमन्युके विषयमें आपलोग बतावें। वह युद्धमें किस प्रकार मारा गया?॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुकुमारं महेष्वासं वासवस्यात्मजात्मजम् ।
सदा मम प्रियं ब्रूत कथमायोधने हतः ॥ २४ ॥

मूलम्

सुकुमारं महेष्वासं वासवस्यात्मजात्मजम् ।
सदा मम प्रियं ब्रूत कथमायोधने हतः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इन्द्रके पौत्र तथा मुझे सदा प्रिय लगनेवाले सुकुमार शरीर महाधनुर्धर अभिमन्युके विषयमें बताइये। वह युद्धमें कैसे मारा गया?॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुभद्रायाः प्रियं पुत्रं द्रौपद्याः केशवस्य च।
अम्बायाश्च प्रियं नित्यं कोऽवधीत् कालमोहितः ॥ २५ ॥

मूलम्

सुभद्रायाः प्रियं पुत्रं द्रौपद्याः केशवस्य च।
अम्बायाश्च प्रियं नित्यं कोऽवधीत् कालमोहितः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सुभद्रा और द्रौपदीके प्यारे पुत्र अभिमन्युको, जो श्रीकृष्ण और माता कुन्तीका सदा दुलारा रहा है, किसने कालसे मोहित होकर मारा है?॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सदृशो वृष्णिवीरस्य केशवस्य महात्मनः।
विक्रमश्रुतमाहात्म्यैः कथमायोधने हतः ॥ २६ ॥

मूलम्

सदृशो वृष्णिवीरस्य केशवस्य महात्मनः।
विक्रमश्रुतमाहात्म्यैः कथमायोधने हतः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वृष्णिकुलके वीर महात्मा केशवके समान पराक्रमी, शास्त्रज्ञ और महत्त्वशाली अभिमन्यु युद्धमें किस प्रकार मारा गया है?॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वार्ष्णेयीदयितं शूरं मया सततलालितम्।
यदि पुत्रं न पश्यामि यास्यामि यमसादनम् ॥ २७ ॥

मूलम्

वार्ष्णेयीदयितं शूरं मया सततलालितम्।
यदि पुत्रं न पश्यामि यास्यामि यमसादनम् ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सुभद्राके प्राणप्यारे शूरवीर पुत्रको, जिसको मैंने सदा लाड़-प्यार किया है, यदि नहीं देखूँगा तो मैं भी यमलोक चला जाऊँगा॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मृदुकुञ्चितकेशान्तं बालं बालमृगेक्षणम् ।
मत्तद्विरदविक्रान्तं शालपोतमिवोद्‌गतम् ॥ २८ ॥
स्मिताभिभाषिणं शान्तं गुरुवाक्यकरं सदा।
बाल्येऽप्यतुलकर्माणं प्रियवाक्यममत्सरम् ॥ २९ ॥
महोत्साहं महाबाहुं दीर्घराजीवलोचनम् ।
भक्तानुकम्पिनं दान्तं न च नीचानुसारिणम् ॥ ३० ॥
कृतज्ञं ज्ञानसम्पन्नं कृतास्त्रमनिवर्तिनम् ।
युद्धाभिनन्दिनं नित्यं द्विषतां भयवर्धनम् ॥ ३१ ॥
स्वेषां प्रियहिते युक्तं पितॄणां जयगृद्धिनम्।
न च पूर्वं प्रहर्तारं संग्रामे नष्टसम्भ्रमम् ॥ ३२ ॥
यदि पुत्रं न पश्यामि यास्यामि यमसादनम्।

मूलम्

मृदुकुञ्चितकेशान्तं बालं बालमृगेक्षणम् ।
मत्तद्विरदविक्रान्तं शालपोतमिवोद्‌गतम् ॥ २८ ॥
स्मिताभिभाषिणं शान्तं गुरुवाक्यकरं सदा।
बाल्येऽप्यतुलकर्माणं प्रियवाक्यममत्सरम् ॥ २९ ॥
महोत्साहं महाबाहुं दीर्घराजीवलोचनम् ।
भक्तानुकम्पिनं दान्तं न च नीचानुसारिणम् ॥ ३० ॥
कृतज्ञं ज्ञानसम्पन्नं कृतास्त्रमनिवर्तिनम् ।
युद्धाभिनन्दिनं नित्यं द्विषतां भयवर्धनम् ॥ ३१ ॥
स्वेषां प्रियहिते युक्तं पितॄणां जयगृद्धिनम्।
न च पूर्वं प्रहर्तारं संग्रामे नष्टसम्भ्रमम् ॥ ३२ ॥
यदि पुत्रं न पश्यामि यास्यामि यमसादनम्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘जिसके केशप्रान्त कोमल और घुँघराले थे, दोनों नेत्र मृगछौनेके समान चंचल थे, जिसका पराक्रम मतवाले हाथीके समान और शरीर नूतन शालवृक्षके समान ऊँचा था, जो मुसकराकर बातें करता था, जिसका मन शान्त था, जो सदा गुरुजनोंकी आज्ञाका पालन करता था, बाल्यावस्थामें भी जिसके पराक्रमकी कोई तुलना नहीं थी, जो सदा प्रिय वचन बोलता और किसीसे ईर्ष्या-द्वेष नहीं रखता था, जिसमें महान् उत्साह भरा था, जिसकी भुजाएँ बड़ी-बड़ी और दोनों नेत्र विकसित कमलके समान सुन्दर एवं विशाल थे, जो भक्तजनोंपर दया करता, इन्द्रियोंको वशमें रखता और नीच पुरुषोंका साथ कभी नहीं करता था, जो कृतज्ञ, ज्ञानवान्, अस्त्र-विद्यामें पारंगत, युद्धसे मुँह न मोड़नेवाला, युद्धका अभिनन्दन करनेवाला तथा सदा शत्रुओंका भय बढ़ानेवाला था, जो स्वजनोंके प्रिय और हितमें तत्पर तथा अपने पितृकुलकी विजय चाहनेवाला था, संग्राममें जिसे कभी घबराहट नहीं होती थी और जो शत्रुपर पहले प्रहार नहीं करता था, अपने उस पुत्र बालक अभिमन्युको यदि नहीं देखूँगा तो मैं भी यमलोककी राह लूँगा॥२८—३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रथेषु गण्यमानेषु गणितं तं महारथम् ॥ ३३ ॥
मयाध्यर्धगुणं संख्ये तरुणं बाहुशालिनम्।
प्रद्युम्नस्य प्रियं नित्यं केशवस्य ममैव च ॥ ३४ ॥
यदि पुत्रं न पश्यामि यास्यामि यमसादनम्।

मूलम्

रथेषु गण्यमानेषु गणितं तं महारथम् ॥ ३३ ॥
मयाध्यर्धगुणं संख्ये तरुणं बाहुशालिनम्।
प्रद्युम्नस्य प्रियं नित्यं केशवस्य ममैव च ॥ ३४ ॥
यदि पुत्रं न पश्यामि यास्यामि यमसादनम्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘रथियोंकी गणना होते समय जो महारथी गिना गया था, जिसे युद्धमें मेरी अपेक्षा ड्यौढ़ा समझा जाता था तथा अपनी भुजाओंसे सुशोभित होनेवाला जो तरुण वीर प्रद्युम्नको, श्रीकृष्णको और मुझे भी सदैव प्रिय था, उस पुत्रको यदि मैं नहीं देखूँगा तो यमराजके लोकमें चला जाऊँगा॥३३-३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनसं सुललाटान्तं स्वक्षिभ्रूदशनच्छदम् ॥ ३५ ॥
अपश्यतस्तद्वदनं का शान्तिर्हृदयस्य मे।

मूलम्

सुनसं सुललाटान्तं स्वक्षिभ्रूदशनच्छदम् ॥ ३५ ॥
अपश्यतस्तद्वदनं का शान्तिर्हृदयस्य मे।

अनुवाद (हिन्दी)

‘जिसकी नासिका, ललाटप्रान्त, नेत्र, भौंह तथा ओष्ठ—ये सभी परम सुन्दर थे, अभिमन्युके उस मुखको न देखनेपर मेरे हृदयमें क्या शान्ति होगी?॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तन्त्रीस्वनसुखं रम्यं पुंस्कोकिलसमध्वनिम् ॥ ३६ ॥
अशृण्वतः स्वनं तस्य का शान्तिर्हृदयस्य मे।

मूलम्

तन्त्रीस्वनसुखं रम्यं पुंस्कोकिलसमध्वनिम् ॥ ३६ ॥
अशृण्वतः स्वनं तस्य का शान्तिर्हृदयस्य मे।

अनुवाद (हिन्दी)

‘अभिमन्युका स्वर वीणाकी ध्वनिके समान सुखद, मनोहर तथा कोयलकी काकलीके तुल्य मधुर था। उसे न सुननेपर मेरे हृदयको क्या शान्ति मिलेगी?॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रूपं चाप्रतिमं तस्य त्रिदशैश्चापि दुर्लभम् ॥ ३७ ॥
अपश्यतो हि वीरस्य का शान्तिर्हृदयस्य मे।

मूलम्

रूपं चाप्रतिमं तस्य त्रिदशैश्चापि दुर्लभम् ॥ ३७ ॥
अपश्यतो हि वीरस्य का शान्तिर्हृदयस्य मे।

अनुवाद (हिन्दी)

‘उसके रूपकी कहीं तुलना नहीं थी। देवताओंके लिये भी वैसा रूप दुर्लभ है। यदि वीर अभिमन्युके उस रूपको नहीं देख पाता हूँ तो मेरे हृदयको क्या शान्ति मिलेगी?॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिवादनदक्षं तं पितॄणां वचने रतम् ॥ ३८ ॥
नाद्याहं यदि पश्यामि का शान्तिर्हृदयस्य मे।

मूलम्

अभिवादनदक्षं तं पितॄणां वचने रतम् ॥ ३८ ॥
नाद्याहं यदि पश्यामि का शान्तिर्हृदयस्य मे।

अनुवाद (हिन्दी)

‘प्रणाम करनेमें कुशल और पितृवर्गकी आज्ञाका पालन करनेमें तत्पर अभिमन्युको यदि आज मैं नहीं देखता हूँ तो मेरे हृदयको क्या शान्ति मिलेगी?॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुकुमारः सदा वीरो महार्हशयनोचितः ॥ ३९ ॥
भूमावनाथवच्छेते नूनं नाथवतां वरः।

मूलम्

सुकुमारः सदा वीरो महार्हशयनोचितः ॥ ३९ ॥
भूमावनाथवच्छेते नूनं नाथवतां वरः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो सदा बहुमूल्य शय्यापर सोनेके योग्य और सुकुमार था, वह सनाथशिरोमणि वीर अभिमन्यु आज निश्चय ही अनाथकी भाँति पृथ्वीपर सो रहा है॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शयानं समुपासन्ति यं पुरा परमस्त्रियः ॥ ४० ॥
तमद्य विप्रविद्धाङ्गमुपासन्त्यशिवाः शिवाः ।

मूलम्

शयानं समुपासन्ति यं पुरा परमस्त्रियः ॥ ४० ॥
तमद्य विप्रविद्धाङ्गमुपासन्त्यशिवाः शिवाः ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘आजसे पहले सोते समय परम सुन्दरी स्त्रियाँ जिसकी उपासना करती थीं, अपने क्षत-विक्षत अंगोंसे पृथ्वीपर पड़े हुए उस अभिमन्युके पास आज अमंगलजनक शब्द करनेवाली सियारिनें बैठी होंगी॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यः पुरा बोध्यते सुप्तः सूतमागधवन्दिभिः ॥ ४१ ॥
बोधयन्त्यद्य तं नूनं श्वापदा विकृतैः स्वनैः।

मूलम्

यः पुरा बोध्यते सुप्तः सूतमागधवन्दिभिः ॥ ४१ ॥
बोधयन्त्यद्य तं नूनं श्वापदा विकृतैः स्वनैः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘जिसे पहले सो जानेपर सूत, मागध और बन्दीजन जगाया करते थे, उसी अभिमन्युको आज निश्चय ही हिंसक जन्तु अपने भयंकर शब्दोंद्वारा जगाते होंगे॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

छत्रच्छायासमुचितं तस्य तद् वदनं शुभम् ॥ ४२ ॥
नूनमद्य रजोध्वस्तं रणरेणुः करिष्यति।

मूलम्

छत्रच्छायासमुचितं तस्य तद् वदनं शुभम् ॥ ४२ ॥
नूनमद्य रजोध्वस्तं रणरेणुः करिष्यति।

अनुवाद (हिन्दी)

‘उसका वह सुन्दर मुख सदा छत्रकी छायामें रहने योग्य था; परंतु आज युद्धभूमिमें उड़ती हुई धूल उसे आच्छादित कर देगी॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हा पुत्रकावितृप्तस्य सततं पुत्रदर्शने ॥ ४३ ॥
भाग्यहीनस्य कालेन यथा मे नीयसे बलात्।

मूलम्

हा पुत्रकावितृप्तस्य सततं पुत्रदर्शने ॥ ४३ ॥
भाग्यहीनस्य कालेन यथा मे नीयसे बलात्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘हा पुत्र! मैं बड़ा भाग्यहीन हूँ। निरन्तर तुम्हें देखते रहनेपर भी मुझे तृप्ति नहीं होती थी, तो भी काल आज बलपूर्वक तुम्हें मुझसे छीनकर लिये जा रहा है॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा च संयमनी नूनं सदा सुकृतिनां गतिः ॥ ४४ ॥
स्वभाभिर्भासिता रम्या त्वयात्यर्थं विराजते।

मूलम्

सा च संयमनी नूनं सदा सुकृतिनां गतिः ॥ ४४ ॥
स्वभाभिर्भासिता रम्या त्वयात्यर्थं विराजते।

अनुवाद (हिन्दी)

‘निश्चय ही वह संयमनी पुरी सदा पुण्यवानोंका आश्रय है; जो आज अपनी प्रभासे प्रकाशित और मनोहारिणी होती हुई भी तुम्हारे द्वारा अत्यन्त उद्भासित हो उठी होगी॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नूनं वैवस्वतश्च त्वां वरुणश्च प्रियातिथिम् ॥ ४५ ॥
शतक्रतुर्धनेशश्च प्राप्तमर्चन्त्यभीरुकम् ।

मूलम्

नूनं वैवस्वतश्च त्वां वरुणश्च प्रियातिथिम् ॥ ४५ ॥
शतक्रतुर्धनेशश्च प्राप्तमर्चन्त्यभीरुकम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘अवश्य ही आज वैवस्वत यम, वरुण, इन्द्र और कुबेर वहाँ तुम-जैसे निर्भय वीरको अपने प्रिय अतिथिके रूपमें पाकर तुम्हारा बड़ा आदर-सत्कार करते होंगे’॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं विलप्य बहुधा भिन्नपोतो वणिग् यथा ॥ ४६ ॥
दुःखेन महताऽऽविष्टो युधिष्ठिरमपृच्छत ।

मूलम्

एवं विलप्य बहुधा भिन्नपोतो वणिग् यथा ॥ ४६ ॥
दुःखेन महताऽऽविष्टो युधिष्ठिरमपृच्छत ।

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार बारंबार विलाप करके टूटे हुए जहाजवाले व्यापारीकी भाँति महान् दुःखसे व्याप्त हो अर्जुनने युधिष्ठिरसे इस प्रकार पूछा—॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कच्चित्स कदनं कृत्वा परेषां कुरुनन्दन ॥ ४७ ॥
स्वर्गतोऽभिमुखः संख्ये युध्यमानो नरर्षभैः।

मूलम्

कच्चित्स कदनं कृत्वा परेषां कुरुनन्दन ॥ ४७ ॥
स्वर्गतोऽभिमुखः संख्ये युध्यमानो नरर्षभैः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘कुरुनन्दन! क्या उन श्रेष्ठ वीरोंके साथ युद्ध करता हुआ अभिमन्यु रणभूमिमें शत्रुओंका संहार करके सम्मुख मारा जाकर स्वर्गलोकमें गया है?॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स नूनं बहुभिर्यत्तैर्युध्यमानो नरर्षभैः ॥ ४८ ॥
असहायः सहायार्थी मामनुध्यातवान् ध्रुवम्।

मूलम्

स नूनं बहुभिर्यत्तैर्युध्यमानो नरर्षभैः ॥ ४८ ॥
असहायः सहायार्थी मामनुध्यातवान् ध्रुवम्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘अवश्य ही बहुत-से श्रेष्ठ एवं सावधानीके साथ प्रयत्नपूर्वक युद्ध करनेवाले योद्धाओंके साथ अकेले लड़ते हुए अभिमन्युने सहायताकी इच्छासे मेरा बारंबार स्मरण किया होगा॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पीड्‌यमानः शरैस्तीक्ष्णैः कर्णद्रोणकृपादिभिः ॥ ४९ ॥
नानालिङ्गैः सुधौताग्रैर्मम पुत्रोऽल्पचेतनः ।
इह मे स्यात् परित्राणं पितेति स पुनः पुनः॥५०॥
इत्येवं विलपन् मन्ये नृशंसैर्भुवि पातितः।

मूलम्

पीड्‌यमानः शरैस्तीक्ष्णैः कर्णद्रोणकृपादिभिः ॥ ४९ ॥
नानालिङ्गैः सुधौताग्रैर्मम पुत्रोऽल्पचेतनः ।
इह मे स्यात् परित्राणं पितेति स पुनः पुनः॥५०॥
इत्येवं विलपन् मन्ये नृशंसैर्भुवि पातितः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘जब कर्ण, द्रोण और कृपाचार्य आदिने चमकते हुए अग्रभागवाले नाना प्रकारके तीखे बाणोंद्वारा मेरे पुत्रको पीड़ित किया होगा और उसकी चेतना मन्द होने लगी होगी, उस समय अभिमन्युने बारंबार विलाप करते हुए यह कहा होगा कि यदि यहाँ मेरे पिताजी होते तो मेरे प्राणोंकी रक्षा हो जाती। मैं समझता हूँ, उसी अवस्थामें उन निर्दयी शत्रुओंने उसे पृथ्वीपर मार गिराया होगा॥४९-५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथवा मत्प्रसूतः स स्वस्रीयो माधवस्य च ॥ ५१ ॥
सुभद्रायां च सम्भूतो न चैवं वक्तुमर्हति।

मूलम्

अथवा मत्प्रसूतः स स्वस्रीयो माधवस्य च ॥ ५१ ॥
सुभद्रायां च सम्भूतो न चैवं वक्तुमर्हति।

अनुवाद (हिन्दी)

‘अथवा वह मेरा पुत्र, श्रीकृष्णका भानजा था, सुभद्राकी कोखसे उत्पन्न हुआ था; इसलिये ऐसी दीनतापूर्ण बात नहीं कह सकता था॥५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वज्रसारमयं नूनं हृदयं सुदृढं मम ॥ ५२ ॥
अपश्यतो दीर्घबाहुं रक्ताक्षं यन्न दीर्यते।

मूलम्

वज्रसारमयं नूनं हृदयं सुदृढं मम ॥ ५२ ॥
अपश्यतो दीर्घबाहुं रक्ताक्षं यन्न दीर्यते।

अनुवाद (हिन्दी)

‘निश्चय ही मेरा यह हृदय अत्यन्त सुदृढ़ एवं वज्रसारका बना हुआ है, तभी तो लाल नेत्रोंवाले महाबाहु अभिमन्युको न देखनेपर भी यह फट नहीं जाता है॥५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं बाले महेष्वासा नृशंसा मर्मभेदिनः ॥ ५३ ॥
स्वस्रीये वासुदेवस्य मम पुत्रेऽक्षिपन् शरान्।

मूलम्

कथं बाले महेष्वासा नृशंसा मर्मभेदिनः ॥ ५३ ॥
स्वस्रीये वासुदेवस्य मम पुत्रेऽक्षिपन् शरान्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘उन क्रूरकर्मा महान् धनुर्धरोंने श्रीकृष्णके भानजे और मेरे बालक पुत्रपर मर्मभेदी बाणोंका प्रहार कैसे किया?॥५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यो मां नित्यमदीनात्मा प्रत्युद्‌गम्याभिनन्दति ॥ ५४ ॥
उपायान्तं रिपून् हत्वा सोऽद्य मां किं न पश्यति।

मूलम्

यो मां नित्यमदीनात्मा प्रत्युद्‌गम्याभिनन्दति ॥ ५४ ॥
उपायान्तं रिपून् हत्वा सोऽद्य मां किं न पश्यति।

अनुवाद (हिन्दी)

‘जब मैं शत्रुओंको मारकर शिविरको लौटता था, उस समय जो प्रतिदिन प्रसन्नचित्त हो आगे बढ़कर मेरा अभिनन्दन करता था, वह अभिमन्यु आज मुझे क्यों नहीं देख रहा है?॥५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नूनं स पातितः शेते धरण्यां रुधिरोक्षितः ॥ ५५ ॥
शोभयन् मेदिनीं गात्रैरादित्य इव पातितः।

मूलम्

नूनं स पातितः शेते धरण्यां रुधिरोक्षितः ॥ ५५ ॥
शोभयन् मेदिनीं गात्रैरादित्य इव पातितः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘निश्चय ही शत्रुओंने उसे मार गिराया है और वह खूनसे लथपथ होकर धरतीपर पड़ा सो रहा है एवं आकाशसे नीचे गिराये हुए सूर्यकी भाँति वह अपने अंगोंसे इस भूमिकी शोभा बढ़ा रहा है॥५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुभद्रामनुशोचामि या पुत्रमपलायिनम् ॥ ५६ ॥
रणे विनिहतं श्रुत्वा शोकार्ता वै विनङ्क्ष्यति।

मूलम्

सुभद्रामनुशोचामि या पुत्रमपलायिनम् ॥ ५६ ॥
रणे विनिहतं श्रुत्वा शोकार्ता वै विनङ्क्ष्यति।

अनुवाद (हिन्दी)

‘मुझे बारंबार सुभद्राके लिये शोक हो रहा है, जो युद्धसे मुँह न मोड़नेवाले अपने वीर पुत्रको रणभूमिमें मारा गया सुनकर शोकसे आतुर हो प्राण त्याग देगी॥५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुभद्रा वक्ष्यते किं मामभिमन्युमपश्यती ॥ ५७ ॥
द्रौपदी चैव दुःखार्ते ते च वक्ष्यामि किं न्वहम्।

मूलम्

सुभद्रा वक्ष्यते किं मामभिमन्युमपश्यती ॥ ५७ ॥
द्रौपदी चैव दुःखार्ते ते च वक्ष्यामि किं न्वहम्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘अभिमन्युको न देखकर सुभद्रा मुझे क्या कहेगी? द्रौपदी भी मुझसे किस प्रकार वार्तालाप करेगी? इन दोनों दुःखकातर देवियोंको मैं क्या जवाब दूँगा?॥५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वज्रसारमयं नूनं हृदयं यन्न यास्यति ॥ ५८ ॥
सहस्रधा वधूं दृष्ट्वा रुदतीं शोककर्शिताम्।

मूलम्

वज्रसारमयं नूनं हृदयं यन्न यास्यति ॥ ५८ ॥
सहस्रधा वधूं दृष्ट्वा रुदतीं शोककर्शिताम्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘निश्चय ही मेरा हृदय वज्रसारका बना हुआ है, जो शोकसे कातर हुई बहू उत्तराको रोती देखकर सहस्रों टुकड़ोंमें विदीर्ण नहीं हो जाता?॥५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृप्तानां धार्तराष्ट्राणां सिंहनादो मया श्रुतः ॥ ५९ ॥
युयुत्सुश्चापि कृष्णेन श्रुतो वीरानुपालभन्।

मूलम्

दृप्तानां धार्तराष्ट्राणां सिंहनादो मया श्रुतः ॥ ५९ ॥
युयुत्सुश्चापि कृष्णेन श्रुतो वीरानुपालभन्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैंने घमंडमें भरे हुए धृतराष्ट्रपुत्रोंका सिंहनाद सुना है और श्रीकृष्णने यह भी सुना है कि युयुत्सु उन कौरववीरोंको इस प्रकार उपालम्भ दे रहा था॥५९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अशक्नुवन्तो बीभत्सुं बालं हत्वा महारथाः ॥ ६० ॥
किं मोदध्वमधर्मज्ञाः पाण्डवं दृश्यतां बलम्।

मूलम्

अशक्नुवन्तो बीभत्सुं बालं हत्वा महारथाः ॥ ६० ॥
किं मोदध्वमधर्मज्ञाः पाण्डवं दृश्यतां बलम्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘युयुत्सु कह रहा था, धर्मको न जाननेवाले महारथी कौरवो! अर्जुनपर जब तुम्हारा वश न चला, तब तुम एक बालककी हत्या करके क्यों आनन्द मना रहे हो? कल पाण्डवोंका बल देखना॥६०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं तयोर्विप्रियं कृत्वा केशवार्जुनयोर्मृधे ॥ ६१ ॥
सिंहवन्नदथ प्रीताः शोककाल उपस्थिते।

मूलम्

किं तयोर्विप्रियं कृत्वा केशवार्जुनयोर्मृधे ॥ ६१ ॥
सिंहवन्नदथ प्रीताः शोककाल उपस्थिते।

अनुवाद (हिन्दी)

‘रणक्षेत्रमें श्रीकृष्ण और अर्जुनका अपराध करके तुम्हारे लिये शोकका अवसर उपस्थित है, ऐसे समयमें तुमलोग प्रसन्न होकर सिंहनाद कैसे कर रहे हो?॥६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आगमिष्यति वः क्षिप्रं फलं पापस्य कर्मणः ॥ ६२ ॥
अधर्मो हि कृतस्तीव्रः कथं स्यादफलश्चिरम्।

मूलम्

आगमिष्यति वः क्षिप्रं फलं पापस्य कर्मणः ॥ ६२ ॥
अधर्मो हि कृतस्तीव्रः कथं स्यादफलश्चिरम्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम्हारे पापकर्मका फल तुम्हें शीघ्र ही प्राप्त होगा। तुमलोगोंने घोर पाप किया है। उसका फल मिलनेमें अधिक विलम्ब कैसे हो सकता है?॥६२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति तान् परिभाषन् वै वैश्यापुत्रो महामतिः ॥ ६३ ॥
अपायाच्छस्त्रमुत्सृज्य कोपदुःखसमन्वितः ।

मूलम्

इति तान् परिभाषन् वै वैश्यापुत्रो महामतिः ॥ ६३ ॥
अपायाच्छस्त्रमुत्सृज्य कोपदुःखसमन्वितः ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजा धृतराष्ट्रकी वैश्यजातीय पत्नीका परम बुद्धिमान् पुत्र युयुत्सु कोप और दुःखसे युक्त हो कौरवोंसे उपर्युक्त बातें कहकर शस्त्र त्यागकर चला आया है’॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किमर्थमेतन्नाख्यातं त्वया कृष्ण रणे मम ॥ ६४ ॥
अधाक्षं तानहं क्रूरांस्तदा सर्वान् महारथान्।

मूलम्

किमर्थमेतन्नाख्यातं त्वया कृष्ण रणे मम ॥ ६४ ॥
अधाक्षं तानहं क्रूरांस्तदा सर्वान् महारथान्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘श्रीकृष्ण! आपने रणक्षेत्रमें ही यह बात मुझसे क्यों नहीं बता दी? मैं उसी समय उन समस्त क्रूर महारथियोंको जलाकर भस्म कर डालता’॥६४॥

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुत्रशोकार्दितं पार्थं ध्यायन्तं साश्रुलोचनम् ॥ ६५ ॥
निगृह्य वासुदेवस्तं पुत्राधिभिरभिप्लुतम् ।
मैवमित्यब्रवीत् कृष्णस्तीव्रशोकसमन्वितम् ॥ ६६ ॥

मूलम्

पुत्रशोकार्दितं पार्थं ध्यायन्तं साश्रुलोचनम् ॥ ६५ ॥
निगृह्य वासुदेवस्तं पुत्राधिभिरभिप्लुतम् ।
मैवमित्यब्रवीत् कृष्णस्तीव्रशोकसमन्वितम् ॥ ६६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— महाराज! इस प्रकार अर्जुनको पुत्रशोकसे पीड़ित और उसीका चिन्तन करते हुए नेत्रोंसे आँसू बहाते देख भगवान् श्रीकृष्णने उन्हें पकड़कर सँभाला। वे पुत्रवियोगके कारण होनेवाली गहरी मनोव्यथामें डूबे हुए थे और तीव्र शोक उन्हें संतप्त कर रहा था। भगवान् बोले—‘मित्र! ऐसे व्याकुल न होओ॥६५-६६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वेषामेष वै पन्थाः शूराणामनिवर्तिनाम्।
क्षत्रियाणां विशेषेण येषां युद्धेन जीविका ॥ ६७ ॥

मूलम्

सर्वेषामेष वै पन्थाः शूराणामनिवर्तिनाम्।
क्षत्रियाणां विशेषेण येषां युद्धेन जीविका ॥ ६७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘युद्धमें पीठ न दिखानेवाले सभी शूरवीरोंका यही मार्ग है। विशेषतः उन क्षत्रियोंको, जिनकी युद्धसे जीविका चलती है, इस मार्गसे जाना ही पड़ता है॥६७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एषा वै युध्यमानानां शूराणामनिवर्तिनाम्।
विहिता सर्वशास्त्रज्ञैर्गतिर्मतिमतां वर ॥ ६८ ॥

मूलम्

एषा वै युध्यमानानां शूराणामनिवर्तिनाम्।
विहिता सर्वशास्त्रज्ञैर्गतिर्मतिमतां वर ॥ ६८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ वीर! जो युद्धसे कभी पीछे नहीं हटते हैं, उन युद्धपरायण शूरवीरोंके लिये सम्पूर्ण शास्त्रज्ञोंने यही गति निश्चित की है॥६८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ध्रुवं हि युद्धे मरणं शूराणामनिवर्तिनाम्।
गतः पुण्यकृतां लोकानभिमन्युर्न संशयः ॥ ६९ ॥

मूलम्

ध्रुवं हि युद्धे मरणं शूराणामनिवर्तिनाम्।
गतः पुण्यकृतां लोकानभिमन्युर्न संशयः ॥ ६९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पीछे पैर न हटानेवाले शूरवीरोंका युद्धमें मरण अवश्यम्भावी है। अभिमन्यु पुण्यात्मा पुरुषोंके लोकमें गया है, इसमें संशय नहीं है॥६९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतच्च सर्ववीराणां काङ्क्षितं भरतर्षभ।
संग्रामेऽभिमुखो मृत्युं प्राप्नुयादिति मानद ॥ ७० ॥

मूलम्

एतच्च सर्ववीराणां काङ्क्षितं भरतर्षभ।
संग्रामेऽभिमुखो मृत्युं प्राप्नुयादिति मानद ॥ ७० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘दूसरोंको मान देनेवाले भरतश्रेष्ठ! संग्राममें सम्मुख युद्ध करते हुए वीरको मृत्युकी प्राप्ति हो, यही सम्पूर्ण शूरवीरोंका अभीष्ट मनोरथ हुआ करता है॥७०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स च वीरान् रणे हत्वा राजपुत्रान् महाबलान्।
वीरैराकाङ्क्षितं मृत्युं सम्प्राप्तोऽभिमुखं रणे ॥ ७१ ॥

मूलम्

स च वीरान् रणे हत्वा राजपुत्रान् महाबलान्।
वीरैराकाङ्क्षितं मृत्युं सम्प्राप्तोऽभिमुखं रणे ॥ ७१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अभिमन्युने रणक्षेत्रमें महाबली वीर राजकुमारोंका वध करके वीर पुरुषोंद्वारा अभिलषित संग्राममें सम्मुख मृत्यु प्राप्त की है॥७१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मा शुचः पुरुषव्याघ्र पूर्वैरेष सनातनः।
धर्मकृद्भिः कृतो धर्मः क्षत्रियाणां रणे क्षयः ॥ ७२ ॥

मूलम्

मा शुचः पुरुषव्याघ्र पूर्वैरेष सनातनः।
धर्मकृद्भिः कृतो धर्मः क्षत्रियाणां रणे क्षयः ॥ ७२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पुरुषसिंह! शोक न करो। प्राचीन धर्मशास्त्रकारोंने संग्राममें वध होना क्षत्रियोंका सनातनधर्म नियत किया है॥७२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इमे ते भ्रातरः सर्वे दीना भरतसत्तम।
त्वयि शोकसमाविष्टे नृपाश्च सुहृदस्तव ॥ ७३ ॥

मूलम्

इमे ते भ्रातरः सर्वे दीना भरतसत्तम।
त्वयि शोकसमाविष्टे नृपाश्च सुहृदस्तव ॥ ७३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भरतश्रेष्ठ! तुम्हारे शोकाकुल हो जानेसे ये तुम्हारे सभी भाई, नरेशगण तथा सुहृद् दीन हो रहे हैं॥७३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतांश्च वचसा साम्ना समाश्वासय मानद।
विदितं वेदितव्यं ते न शोकं कर्तुमर्हसि ॥ ७४ ॥

मूलम्

एतांश्च वचसा साम्ना समाश्वासय मानद।
विदितं वेदितव्यं ते न शोकं कर्तुमर्हसि ॥ ७४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मानद! इन सबको अपने शान्तिपूर्ण वचनसे आश्वासन दो। तुम्हें जाननेयोग्य तत्त्वका ज्ञान हो चुका है। अतः तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये’॥७४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमाश्वासितः पार्थः कृष्णेनाद्‌भुतकर्मणा ।
ततोऽब्रवीत्‌ तदा भ्रातॄन् सर्वान्‌ पार्थः सगद्‌गदान् ॥ ७५ ॥

मूलम्

एवमाश्वासितः पार्थः कृष्णेनाद्‌भुतकर्मणा ।
ततोऽब्रवीत्‌ तदा भ्रातॄन् सर्वान्‌ पार्थः सगद्‌गदान् ॥ ७५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अद्‌भुत कर्म करनेवाले श्रीकृष्णके इस प्रकार समझाने-बुझानेपर अर्जुन उस समय वहाँ गद्‌गद कण्ठवाले अपने सब भाइयोंसे बोले—॥७५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स दीर्घबाहुः पृथ्वंसो दीर्घराजीवलोचनः।
अभिमन्युर्यथावृत्तः श्रोतुमिच्छाम्यहं तथा ॥ ७६ ॥

मूलम्

स दीर्घबाहुः पृथ्वंसो दीर्घराजीवलोचनः।
अभिमन्युर्यथावृत्तः श्रोतुमिच्छाम्यहं तथा ॥ ७६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मोटे कंधों, बड़ी भुजाओं तथा कमलसदृश विशाल नेत्रोंवाला अभिमन्यु संग्राममें जिस प्रकार लड़ा था, वह सब वृत्तान्त मैं सुनना चाहता हूँ॥७६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सनागस्यन्दनहयान् द्रक्ष्यध्वं निहतान् मया।
संग्रामे सानुबन्धांस्तान् मम पुत्रस्य वैरिणः ॥ ७७ ॥

मूलम्

सनागस्यन्दनहयान् द्रक्ष्यध्वं निहतान् मया।
संग्रामे सानुबन्धांस्तान् मम पुत्रस्य वैरिणः ॥ ७७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कल आपलोग देखेंगे कि मेरे पुत्रके वैरी अपने हाथी, रथ, घोड़े और सगे-सम्बन्धियोंसहित युद्धमें मेरे द्वारा मार डाले गये॥७७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं च वः कृतास्त्राणां सर्वेषां शस्त्रपाणिनाम्।
सौभद्रो निधनं गच्छेद् वज्रिणापि समागतः ॥ ७८ ॥

मूलम्

कथं च वः कृतास्त्राणां सर्वेषां शस्त्रपाणिनाम्।
सौभद्रो निधनं गच्छेद् वज्रिणापि समागतः ॥ ७८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आप सब लोग अस्त्रविद्याके पण्डित और हाथमें हथियार लिये हुए थे। सुभद्राकुमार अभिमन्यु साक्षात् वज्रधारी इन्द्रसे भी युद्ध करता हो तो भी आपके सामने कैसे मारा जा सकता था?॥७८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद्येवमहमज्ञास्यमशक्तान् रक्षणे मम ।
पुत्रस्य पाण्डुपञ्चालान् मया गुप्तो भवेत् ततः ॥ ७९ ॥

मूलम्

यद्येवमहमज्ञास्यमशक्तान् रक्षणे मम ।
पुत्रस्य पाण्डुपञ्चालान् मया गुप्तो भवेत् ततः ॥ ७९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यदि मैं ऐसा जानता कि पाण्डव और पांचाल मेरे पुत्रकी रक्षा करनेमें असमर्थ हैं तो मैं स्वयं उसकी रक्षा करता॥७९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं च वो रथस्थानां शरवर्षाणि मुञ्चताम्।
नीतोऽभिमन्युर्निधनं कदर्थीकृत्य वः परैः ॥ ८० ॥

मूलम्

कथं च वो रथस्थानां शरवर्षाणि मुञ्चताम्।
नीतोऽभिमन्युर्निधनं कदर्थीकृत्य वः परैः ॥ ८० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आपलोग रथपर बैठे हुए बाणोंकी वर्षा कर रहे थे तो भी शत्रुओंने आपकी अवहेलना करके कैसे अभिमन्युको मार डाला?॥८०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहो वः पौरुषं नास्ति न च वोऽस्ति पराक्रमः।
यत्राभिमन्युः समरे पश्यतां वो निपातितः ॥ ८१ ॥

मूलम्

अहो वः पौरुषं नास्ति न च वोऽस्ति पराक्रमः।
यत्राभिमन्युः समरे पश्यतां वो निपातितः ॥ ८१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अहो! आपलोगोंमें पुरुषार्थ नहीं है और पराक्रम भी नहीं है; क्योंकि समरभूमिमें आपलोगोंके देखते-देखते अभिमन्यु मार डाला गया॥८१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आत्मानमेव गर्हेयं यदहं वै सुदुर्बलान्।
युष्मानाज्ञाय निर्यातो भीरूनकृतनिश्चयान् ॥ ८२ ॥

मूलम्

आत्मानमेव गर्हेयं यदहं वै सुदुर्बलान्।
युष्मानाज्ञाय निर्यातो भीरूनकृतनिश्चयान् ॥ ८२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैं अपनी ही निन्दा करूँगा; क्योंकि आपलोगोंको अत्यन्त दुर्बल, डरपोक और सुदृढ़ निश्चयसे रहित जानकर भी मैं (अभिमन्युको आपलोगोंके भरोसे छोड़कर) अन्यत्र चला गया॥८२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आहोस्विद् भूषणार्थाय वर्म शस्त्रायुधानि वः।
वाचस्तु वक्तुं संसत्सु मम पुत्रमरक्षताम् ॥ ८३ ॥

मूलम्

आहोस्विद् भूषणार्थाय वर्म शस्त्रायुधानि वः।
वाचस्तु वक्तुं संसत्सु मम पुत्रमरक्षताम् ॥ ८३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अथवा आपलोगोंके ये कवच और अस्त्र-शस्त्र क्या शरीरका आभूषण बनानेके लिये हैं? मेरे पुत्रकी रक्षा न करके वीरोंकी सभामें केवल बातें बनानेके लिये हैं?’॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्त्वा ततो वाक्यं तिष्ठंश्चापवरासिमान्।
न स्माशक्यत बीभत्सुः केनचित्प्रसमीक्षितुम् ॥ ८४ ॥

मूलम्

एवमुक्त्वा ततो वाक्यं तिष्ठंश्चापवरासिमान्।
न स्माशक्यत बीभत्सुः केनचित्प्रसमीक्षितुम् ॥ ८४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा कहकर फिर अर्जुन धनुष और श्रेष्ठ तलवार लेकर खड़े हो गये। उस समय कोई उनकी ओर आँख उठाकर देख भी न सका॥८४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमन्तकमिव क्रुद्धं निःश्वसन्तं मुहुर्मुहुः।
पुत्रशोकाभिसंतप्तमश्रुपूर्णमुखं तदा ॥ ८५ ॥

मूलम्

तमन्तकमिव क्रुद्धं निःश्वसन्तं मुहुर्मुहुः।
पुत्रशोकाभिसंतप्तमश्रुपूर्णमुखं तदा ॥ ८५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे यमराजके समान कुपित हो बारंबार लंबी साँसें छोड़ रहे थे। उस समय पुत्रशोकसे संतप्त हुए अर्जुनके मुखपर आँसुओंकी धारा बह रही थी॥८५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न भाषितुं शक्नुवन्ति द्रष्टुं वा सुहृदोऽर्जुनम्।
अन्यत्र वासुदेवाद्वा ज्येष्ठाद्वा पाण्डुनन्दनात् ॥ ८६ ॥

मूलम्

न भाषितुं शक्नुवन्ति द्रष्टुं वा सुहृदोऽर्जुनम्।
अन्यत्र वासुदेवाद्वा ज्येष्ठाद्वा पाण्डुनन्दनात् ॥ ८६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस अवस्थामें वसुदेवनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण अथवा ज्येष्ठ पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरको छोड़कर दूसरे सगे-सम्बन्धी न तो उनसे कुछ बोल सकते थे और न तो देखनेका ही साहस करते थे॥८६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वास्ववस्थासु हितावर्जुनस्य मनोनुगौ ।
बहुमानात् प्रियत्वाच्च तावेनं वक्तुमर्हतः ॥ ८७ ॥

मूलम्

सर्वास्ववस्थासु हितावर्जुनस्य मनोनुगौ ।
बहुमानात् प्रियत्वाच्च तावेनं वक्तुमर्हतः ॥ ८७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीकृष्ण और युधिष्ठिर सभी अवस्थाओंमें अर्जुनके हितैषी और उनके मनके अनुकूल चलनेवाले थे; क्योंकि अर्जुनके प्रति उनका बड़ा आदर और प्रेम था। अतः वे ही दोनों इनसे उस समय कुछ कहनेका अधिकार रखते थे॥८७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तं पुत्रशोकेन भृशं पीडितमानसम्।
राजीवलोचनं क्रुद्धं राजा वचनमब्रवीत् ॥ ८८ ॥

मूलम्

ततस्तं पुत्रशोकेन भृशं पीडितमानसम्।
राजीवलोचनं क्रुद्धं राजा वचनमब्रवीत् ॥ ८८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर मन-ही-मन पुत्रशोकसे अत्यन्त पीड़ित हुए क्रोधभरे कमलनयन अर्जुनसे राजा युधिष्ठिरने इस प्रकार कहा—॥८८॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि प्रतिज्ञापर्वणि अर्जुनकोपे द्विसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७२ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत प्रतिज्ञापर्वमें अर्जुनकोपविषयक बहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥७२॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ३ श्लोक मिलाकर कुल ९१ श्लोक हैं।)