भागसूचना
एकोनसप्ततितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
राजा पृथुका चरित्र
मूलम् (वचनम्)
नारद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
पृथुं वैन्यं च राजानं मृतं सृञ्जय शुश्रुम।
यमभ्यषिञ्चन् साम्राज्ये राजसूये महर्षयः ॥ १ ॥
मूलम्
पृथुं वैन्यं च राजानं मृतं सृञ्जय शुश्रुम।
यमभ्यषिञ्चन् साम्राज्ये राजसूये महर्षयः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजी कहते हैं— सृंजय! वेनके पुत्र राजा पृथु भी जीवित नहीं रह सके; यह हमने सुना है। महर्षियोंने राजसूययज्ञमें उन्हें सम्राट्के पदपर अभिषिक्त किया था॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्नतः प्रथितेत्यूचुः सर्वानभिभवन् पृथुः।
क्षतान्नस्त्रास्यते सर्वानित्येवं क्षत्त्रियोऽभवत् ॥ २ ॥
मूलम्
यत्नतः प्रथितेत्यूचुः सर्वानभिभवन् पृथुः।
क्षतान्नस्त्रास्यते सर्वानित्येवं क्षत्त्रियोऽभवत् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ये समस्त शत्रुओंको पराजित करके अपने प्रयत्नसे प्रथित (विख्यात) होंगे’—ऐसा महर्षियोंने कहा था। इसलिये वे ‘पृथु’ कहलाये। ऋषियोंने यह भी कहा कि ‘ये क्षतसे हमारा त्राण करेंगे’, इसलिये वे ‘क्षत्रिय’ इस सार्थक नामसे प्रसिद्ध हुए॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पृथुं वैन्यं प्रजा दृष्ट्वा रक्ताः स्मेति यदब्रुवन्।
ततो राजेति नामास्य अनुरागादजायत ॥ ३ ॥
मूलम्
पृथुं वैन्यं प्रजा दृष्ट्वा रक्ताः स्मेति यदब्रुवन्।
ततो राजेति नामास्य अनुरागादजायत ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वेनकुमार पृथुको देखकर प्रजाने कहा, हम इनमें अनुरक्त हैं। इसलिये उस प्रजारंजनजनित अनुरागके कारण उनका नाम ‘राजा’ हुआ॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अकृष्टपच्या पृथिवी आसीद् वैन्यस्य कामधुक्।
सर्वाः कामदुघा गावः पुटके पुटके मधु ॥ ४ ॥
मूलम्
अकृष्टपच्या पृथिवी आसीद् वैन्यस्य कामधुक्।
सर्वाः कामदुघा गावः पुटके पुटके मधु ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वेननन्दन पृथुके लिये यह पृथ्वी कामधेनु हो गयी थी। उनके राज्यमें बिना जोते ही पृथ्वीसे अनाज पैदा होता था। उस समय सभी गौएँ कामधेनुके समान थीं। पत्ते-पत्तेमें मधु भरा रहता था॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसन् हिरण्मया दर्भाः सुखस्पर्शाः सुखावहाः।
तेषां चीराणि संवीताः प्रजास्तेष्वेव शेरते ॥ ५ ॥
मूलम्
आसन् हिरण्मया दर्भाः सुखस्पर्शाः सुखावहाः।
तेषां चीराणि संवीताः प्रजास्तेष्वेव शेरते ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुश सुवर्णमय होते थे। उनका स्पर्श कोमल था और वे सुखद जान पड़ते थे। उन्हींके चीर बनाकर प्रजा उनसे अपना शरीर ढकती थी तथा उन कुशोंकी ही चटाइयोंपर सोती थी॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
फलान्यमृतकल्पानि स्वादूनि च मधूनि च।
तेषामासीत् तदाहारो निराहाराश्च नाभवन् ॥ ६ ॥
मूलम्
फलान्यमृतकल्पानि स्वादूनि च मधूनि च।
तेषामासीत् तदाहारो निराहाराश्च नाभवन् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वृक्षोंके फल अमृतके समान मधुर और स्वादिष्ट होते थे। उन दिनों उन फलोंका ही आहार किया जाता था। कोई भी भूखा नहीं रहता था॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अरोगाः सर्वसिद्धार्था मनुष्या ह्यकुतोभयाः।
न्यवसन्त यथाकामं वृक्षेषु च गुहासु च ॥ ७ ॥
मूलम्
अरोगाः सर्वसिद्धार्था मनुष्या ह्यकुतोभयाः।
न्यवसन्त यथाकामं वृक्षेषु च गुहासु च ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सभी मनुष्य नीरोग थे। सबकी सारी इच्छाएँ पूर्ण होती थीं और उन्हें कहींसे भी कोई भय नहीं था। वे अपनी इच्छाके अनुसार वृक्षोंके नीचे और पर्वतोंकी गुफाओंमें निवास करते थे॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रविभागो न राष्ट्राणां पुराणां चाभवत् तदा।
यथासुखं यथाकामं तथैता मुदिताः प्रजाः ॥ ८ ॥
मूलम्
प्रविभागो न राष्ट्राणां पुराणां चाभवत् तदा।
यथासुखं यथाकामं तथैता मुदिताः प्रजाः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय राष्ट्रों और नगरोंका विभाग नहीं था। सबको इच्छानुसार सुख और भोग प्राप्त थे। इससे यह सारी प्रजा प्रसन्न थी॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य संस्तम्भिता ह्यापः समुद्रमभियास्यतः।
पर्वताश्च ददुर्मार्गं ध्वजभङ्गश्च नाभवत् ॥ ९ ॥
मूलम्
तस्य संस्तम्भिता ह्यापः समुद्रमभियास्यतः।
पर्वताश्च ददुर्मार्गं ध्वजभङ्गश्च नाभवत् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा पृथु जब समुद्रमें यात्रा करते थे, तब पानी थम जाता था और पर्वत उन्हें जानेके लिये मार्ग दे देते थे। उनके रथकी ध्वजा कभी खण्डित नहीं हुई थी॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं वनस्पतयः शैला देवासुरनरोरगाः।
सप्तर्षयः पुण्यजना गन्धर्वाप्सरसोऽपि च ॥ १० ॥
पितरश्च सुखासीनमभिगम्येदमब्रुवन् ।
सम्राडसि क्षत्रियोऽसि राजा गोप्ता पितासि नः ॥ ११ ॥
देह्यस्मभ्यं महाराज प्रभुः सन्नीप्सितान् वरान्।
यैर्वयं शाश्वतीस्तृप्तीर्वर्तयिष्यामहे सुखम् ॥ १२ ॥
मूलम्
तं वनस्पतयः शैला देवासुरनरोरगाः।
सप्तर्षयः पुण्यजना गन्धर्वाप्सरसोऽपि च ॥ १० ॥
पितरश्च सुखासीनमभिगम्येदमब्रुवन् ।
सम्राडसि क्षत्रियोऽसि राजा गोप्ता पितासि नः ॥ ११ ॥
देह्यस्मभ्यं महाराज प्रभुः सन्नीप्सितान् वरान्।
यैर्वयं शाश्वतीस्तृप्तीर्वर्तयिष्यामहे सुखम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक दिन सुखपूर्वक बैठे हुए राजा पृथुके पास वनस्पति, पर्वत, देवता, असुर, मनुष्य, सर्प, सप्तर्षि, पुण्यजन (यक्ष), गन्धर्व, अप्सरा तथा पितरोंने आकर इस प्रकार कहा—‘महाराज! तुम हमारे सम्राट् हो, क्षत्रिय हो तथा राजा, रक्षक और पिता हो। तुम हमें अभीष्ट वर दो, जिससे हमलोग अनन्त कालतक तृप्ति और सुखका अनुभव करें। तुम ऐसा करनेमें समर्थ हो’॥१०—१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथेत्युक्त्वा पृथुर्वैन्यो गृहीत्वाऽऽजगवं धनुः।
शरांश्चाप्रतिमान् घोरांश्चिन्तयित्वाब्रवीन्महीम् ॥ १३ ॥
मूलम्
तथेत्युक्त्वा पृथुर्वैन्यो गृहीत्वाऽऽजगवं धनुः।
शरांश्चाप्रतिमान् घोरांश्चिन्तयित्वाब्रवीन्महीम् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘बहुत अच्छा’ ऐसा ही होगा, यह कहकर वेनकुमार पृथुने अपना आजगव नामक धनुष और जिनकी कहीं तुलना नहीं थी, ऐसे भयंकर बाण हाथमें ले लिये और कुछ सोचकर पृथ्वीसे कहा—॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एह्येहि वसुके क्षिप्रं क्षरैभ्यः काङ्क्षितं पयः।
ततो दास्यामि भद्रं ते अन्नं यस्य यथेप्सितम् ॥ १४ ॥
मूलम्
एह्येहि वसुके क्षिप्रं क्षरैभ्यः काङ्क्षितं पयः।
ततो दास्यामि भद्रं ते अन्नं यस्य यथेप्सितम् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वसुधे! तुम्हारा कल्याण हो। आओ-आओ, इन प्रजाजनोंके लिये शीघ्र ही मनोवांछित दूधकी धारा बहाओ। तब मैं जिसका जैसा अभीष्ट अन्न है, उसे वैसा दे सकूँगा’॥१४॥
मूलम् (वचनम्)
वसुधोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुहितृत्वेन मां वीर संकल्पयितुमर्हसि।
तथेत्युक्त्वा पृथुः सर्वं विधानमकरोद् वशी ॥ १५ ॥
मूलम्
दुहितृत्वेन मां वीर संकल्पयितुमर्हसि।
तथेत्युक्त्वा पृथुः सर्वं विधानमकरोद् वशी ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वसुधा बोली— वीर! तुम मुझे अपनी पुत्री मान लो, तब जितेन्द्रिय राजा पृथुने ‘तथास्तु’ कहकर वहाँ सारी आवश्यक व्यवस्था की॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो भूतनिकायास्तां वसुधां दुदुहुस्तदा।
तां वनस्पतयः पूर्वं समुत्तस्थुर्दुधुक्षवः ॥ १६ ॥
मूलम्
ततो भूतनिकायास्तां वसुधां दुदुहुस्तदा।
तां वनस्पतयः पूर्वं समुत्तस्थुर्दुधुक्षवः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर प्राणियोंके समुदायने उस समय वसुधाको दुहना आरम्भ किया। सबसे पहले दूधकी इच्छावाले वनस्पति उठे॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सातिष्ठद् वत्सला वत्सं दोग्धृपात्राणि चेच्छती।
वत्सोऽभूत् पुष्पितः शालः प्लक्षो दोग्धाभवत् तदा ॥ १७ ॥
छिन्नप्ररोहणं दुग्धं पात्रमौदुम्बरं शुभम्।
मूलम्
सातिष्ठद् वत्सला वत्सं दोग्धृपात्राणि चेच्छती।
वत्सोऽभूत् पुष्पितः शालः प्लक्षो दोग्धाभवत् तदा ॥ १७ ॥
छिन्नप्ररोहणं दुग्धं पात्रमौदुम्बरं शुभम्।
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय गोरूपधारिणी पृथ्वी वात्सल्य-स्नेहसे परिपूर्ण हो बछड़े, दुहनेवाले और दुग्धपात्रकी इच्छा करती हुई खड़ी हो गयी। वनस्पतियोंमेंसे खिला हुआ शालवृक्ष बछड़ा हो गया। पाकरका पेड़ दुहनेवाला बन गया। गूलर सुन्दर दुग्धपात्रका काम देने लगा। कटनेपर पुनः पनप जाना यही दूध था॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उदयः पर्वतो वत्सो मेरुर्दोग्धा महागिरिः ॥ १८ ॥
रत्नान्योषधयो दुग्धं पात्रमश्ममयं तथा।
मूलम्
उदयः पर्वतो वत्सो मेरुर्दोग्धा महागिरिः ॥ १८ ॥
रत्नान्योषधयो दुग्धं पात्रमश्ममयं तथा।
अनुवाद (हिन्दी)
पर्वतोंमें उदयाचल बछड़ा, महागिरि मेरु दुहनेवाला, रत्न और ओषधि दूध तथा प्रस्तर ही दुग्धपात्र था॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दोग्धा चासीत् तदा देवो दुग्धमूर्जस्करं प्रियम् ॥ १९ ॥
मूलम्
दोग्धा चासीत् तदा देवो दुग्धमूर्जस्करं प्रियम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवताओंमें भी उस समय कोई दुहनेवाला और कोई बछड़ा बन गया। उन्होंने पुष्टिकारक अमृतमय प्रिय दूध दुह लिया॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
असुरा दुदुहुर्मायामामपात्रे तु ते तदा।
दोग्धा द्विमूर्धा तत्रासीद् वत्सश्चासीद् विरोचनः ॥ २० ॥
मूलम्
असुरा दुदुहुर्मायामामपात्रे तु ते तदा।
दोग्धा द्विमूर्धा तत्रासीद् वत्सश्चासीद् विरोचनः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
असुरोंने कच्चे बर्तनमें मायामय दूधका ही दोहन किया। उस समय द्विमूर्धा दुहनेवाला और विरोचन बछड़ा बना था॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृषिं च सस्यं च नरा दुदुहुः पृथिवीतले।
स्वायम्भुवो मनुर्वत्सस्तेषां दोग्धाभवत् पृथुः ॥ २१ ॥
मूलम्
कृषिं च सस्यं च नरा दुदुहुः पृथिवीतले।
स्वायम्भुवो मनुर्वत्सस्तेषां दोग्धाभवत् पृथुः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भूतलके मनुष्योंने कृषिकर्म और खेतीकी उपजको ही दूधके रूपमें दुहा। उनके बछड़ेके स्थानपर स्वायम्भू मनु थे और दुहनेका कार्य पृथुने किया॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अलाबुपात्रे च तथा विषं दुग्धा वसुंधरा।
धृतराष्ट्रोऽभवद् दोग्धा तेषां वत्सस्तु तक्षकः ॥ २२ ॥
मूलम्
अलाबुपात्रे च तथा विषं दुग्धा वसुंधरा।
धृतराष्ट्रोऽभवद् दोग्धा तेषां वत्सस्तु तक्षकः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सर्पोंने तुम्बीके बर्तनमें पृथ्वीसे विषका दोहन किया। उनकी ओरसे दुहनेवाला धृतराष्ट्र और बछड़ा तक्षक था॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सप्तर्षिभिर्ब्रह्म दुग्धा तथा चाक्लिष्टकर्मभिः।
दोग्धा बृहस्पतिः पात्रं छन्दो वत्सश्च सोमराट् ॥ २३ ॥
मूलम्
सप्तर्षिभिर्ब्रह्म दुग्धा तथा चाक्लिष्टकर्मभिः।
दोग्धा बृहस्पतिः पात्रं छन्दो वत्सश्च सोमराट् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अक्लिष्टकर्मा सप्तर्षियोंने ब्रह्म (वेद एवं तप)-का दोहन किया। उनके दोग्धा बृहस्पति, पात्र छन्द और बछड़ा राजा सोम थे॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्तर्धानं चामपात्रे दुग्धा पुण्यजनैर्विराट्।
दोग्धा वैश्रवणस्तेषां वत्सश्चासीद् वृषध्वजः ॥ २४ ॥
मूलम्
अन्तर्धानं चामपात्रे दुग्धा पुण्यजनैर्विराट्।
दोग्धा वैश्रवणस्तेषां वत्सश्चासीद् वृषध्वजः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यक्षोंने कच्चे बर्तनमें पृथ्वीसे अन्तर्धान विद्याका दोहन किया। उनके दोग्धा कुबेर और बछड़ा महादेवजी थे॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुण्यगन्धान् पद्मपात्रे गन्धर्वाप्सरसोऽदुहन् ।
वत्सश्चित्ररथस्तेषां दोग्धा विश्वरुचिः प्रभुः ॥ २५ ॥
मूलम्
पुण्यगन्धान् पद्मपात्रे गन्धर्वाप्सरसोऽदुहन् ।
वत्सश्चित्ररथस्तेषां दोग्धा विश्वरुचिः प्रभुः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गन्धर्वों और अप्सराओंने कमलके पात्रमें पवित्र गन्धको ही दूधके रूपमें दुहा। उनका बछड़ा चित्ररथ और दुहनेवाले गन्धर्वराज विश्वरुचि थे॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वधां रजतपात्रेषु दुदुहुः पितरश्च ताम्।
वत्सो वैवस्वतस्तेषां यमो दोग्धान्तकस्तदा ॥ २६ ॥
मूलम्
स्वधां रजतपात्रेषु दुदुहुः पितरश्च ताम्।
वत्सो वैवस्वतस्तेषां यमो दोग्धान्तकस्तदा ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पितरोंने पृथ्वीसे चाँदीके पात्रमें स्वधारूपी दूधका दोहन किया। उस समय उनकी ओरसे वैवस्वत यम बछड़ा और अन्तक दुहनेवाले थे॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं निकायैस्तैर्दुग्धा पयोऽभीष्टं हि सा विराट्।
यैर्वर्तयन्ति ते ह्यद्य पात्रैर्वत्सैश्च नित्यशः ॥ २७ ॥
मूलम्
एवं निकायैस्तैर्दुग्धा पयोऽभीष्टं हि सा विराट्।
यैर्वर्तयन्ति ते ह्यद्य पात्रैर्वत्सैश्च नित्यशः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सृंजय! इस प्रकार सभी प्राणियोंने बछड़ों और पात्रोंकी कल्पना करके पृथ्वीसे अपने अभीष्ट दूधका दोहन किया था, जिससे वे आजतक निरन्तर जीवन-निर्वाह करते हैं॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यज्ञैश्च विविधैरिष्ट्वा पृथुर्वैन्यः प्रतापवान्।
संतर्पयित्वा भूतानि सर्वैः कामैर्मनःप्रियैः ॥ २८ ॥
मूलम्
यज्ञैश्च विविधैरिष्ट्वा पृथुर्वैन्यः प्रतापवान्।
संतर्पयित्वा भूतानि सर्वैः कामैर्मनःप्रियैः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर प्रतापी वेनकुमार पृथुने नाना प्रकारके यज्ञोंद्वारा यजन करके मनको प्रिय लगनेवाले सम्पूर्ण भोगोंकी प्राप्ति कराकर सब प्राणियोंको तृप्त किया॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हैरण्यानकरोद् राजा ये केचित् पार्थिवा भुवि।
तान् ब्राह्मणेभ्यः प्रायच्छदश्वमेधे महामखे ॥ २९ ॥
मूलम्
हैरण्यानकरोद् राजा ये केचित् पार्थिवा भुवि।
तान् ब्राह्मणेभ्यः प्रायच्छदश्वमेधे महामखे ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भूतलपर जो कोई भी पार्थिव पदार्थ हैं, उनकी सोनेकी आकृति बनवाकर राजा पृथुने महायज्ञ अश्वमेधमें उन्हें ब्राह्मणोंको दान किया॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
षष्टिनागसहस्राणि षष्टिनागशतानि च ।
सौवर्णानकरोद् राजा ब्राह्मणेभ्यश्च तान् ददौ ॥ ३० ॥
मूलम्
षष्टिनागसहस्राणि षष्टिनागशतानि च ।
सौवर्णानकरोद् राजा ब्राह्मणेभ्यश्च तान् ददौ ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाने छाछठ हजार सोनेके हाथी बनवाये और उन्हें ब्राह्मणोंको दे दिया॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इमां च पृथिवीं सर्वां
मणिरत्नविभूषिताम् ।
सौवर्णीमकरोद् राजा
ब्राह्मणेभ्यश्च तां ददौ ॥ ३१ ॥
मूलम्
इमां च पृथिवीं सर्वां
मणिरत्नविभूषिताम् ।
सौवर्णीमकरोद् राजा
ब्राह्मणेभ्यश्च तां ददौ ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा पृथुने इस सारी पृथ्वीकी भी मणि तथा रत्नोंसे विभूषित सुवर्णमयी प्रतिमा बनवायी और उसे ब्राह्मणोंको दे दिया॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स चेन्ममार सृञ्जय
चतुर्भद्रतरस्त्वया ।
पुत्रात् पुण्यतरस्तुभ्यं
मा पुत्रमनुतप्यथाः ।
अयज्वानमदाक्षिण्य-
मभि श्वैत्येत्युदाहरत् ॥ ३२ ॥
मूलम्
स चेन्ममार सृञ्जय
चतुर्भद्रतरस्त्वया ।
पुत्रात् पुण्यतरस्तुभ्यं
मा पुत्रमनुतप्यथाः ।
अयज्वानमदाक्षिण्य-
मभि श्वैत्येत्युदाहरत् ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्वैत्य सृंजय! चारों कल्याणकारी गुणोंमें वे तुमसे बहुत बढ़े-चढ़े थे और तुम्हारे पुत्रसे भी अधिक पुण्यात्मा थे। जब वे भी मर गये तब दूसरोंकी क्या गिनती है? अतः तुम यज्ञानुष्ठान और दान-दक्षिणासे रहित अपने पुत्रके लिये शोक न करो। ऐसा नारदजीने कहा॥३२॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि षोडशराजकीये एकोनसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ६९ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत अभिमन्युवधपर्वमें षोडशराजकीयो-पाख्यानविषयक उनहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥६९॥