भागसूचना
त्रिषष्टितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
राजा ययातिका उपाख्यान
मूलम् (वचनम्)
नारद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ययातिं नाहुषं चैव मृतं सृञ्जय शुश्रुम।
राजसूयशतैरिष्ट्वा सोऽश्वमेधशतेन च ॥ १ ॥
पुण्डरीकसहस्रेण वाजपेयशतैस्तथा ।
अतिरात्रसहस्रेण चातुर्मास्यैश्च कामतः ।
अग्निष्टोमैश्च विविधैः सत्रैश्च प्राज्यदक्षिणैः ॥ २ ॥
मूलम्
ययातिं नाहुषं चैव मृतं सृञ्जय शुश्रुम।
राजसूयशतैरिष्ट्वा सोऽश्वमेधशतेन च ॥ १ ॥
पुण्डरीकसहस्रेण वाजपेयशतैस्तथा ।
अतिरात्रसहस्रेण चातुर्मास्यैश्च कामतः ।
अग्निष्टोमैश्च विविधैः सत्रैश्च प्राज्यदक्षिणैः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजी कहते हैं— सृंजय! नहुषनन्दन राजा ययातिकी भी मृत्यु हुई थी, यह मैंने सुना है। राजाने सौ राजसूय, सौ अश्वमेध, एक हजार पुण्डरीक याग, सौ वाजपेय-यज्ञ, एक सहस्र अतिरात्र याग तथा अपनी इच्छाके अनुसार चातुर्मास्य और अग्निष्टोम आदि नाना प्रकारके प्रचुर दक्षिणावाले यज्ञोंका अनुष्ठान किया॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अब्राह्मणानां यद् वित्तं पृथिव्यामस्ति किंचन।
तत् सर्वं परिसंख्याय ततो ब्राह्मणसात्करोत् ॥ ३ ॥
मूलम्
अब्राह्मणानां यद् वित्तं पृथिव्यामस्ति किंचन।
तत् सर्वं परिसंख्याय ततो ब्राह्मणसात्करोत् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस पृथ्वीपर ब्राह्मणद्रोहियोंके पास जो कुछ धन था, वह सब उनसे छीनकर उन्होंने ब्राह्मणोंके अधीन कर दिया॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरस्वती पुण्यतमा नदीनां
तथा समुद्राः सरितः साद्रयश्च।
ईजानाय पुण्यतमाय राज्ञे
घृतं पयो दुदुहुर्नाहुषाय ॥ ४ ॥
मूलम्
सरस्वती पुण्यतमा नदीनां
तथा समुद्राः सरितः साद्रयश्च।
ईजानाय पुण्यतमाय राज्ञे
घृतं पयो दुदुहुर्नाहुषाय ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नदियोंमें परम पवित्र सरस्वती नदी, समुद्रों, पर्वतों तथा अन्य सरिताओंने यज्ञमें लगे हुए परम पुण्यात्मा राजा ययातिको घी और दूध प्रदान किये॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्यूढे देवासुरे युद्धे कृत्वा देवसहायताम्।
चतुर्धा व्यभजत् सर्वां चतुर्भ्यः पृथिवीमिमाम् ॥ ५ ॥
यज्ञैर्नानाविधैरिष्ट्वा प्रजामुत्पाद्य चोत्तमाम् ।
देवयान्यां चौशनस्यां शर्मिष्ठायां च धर्मतः ॥ ६ ॥
देवारण्येषु सर्वेषु विजहारामरोपमः ।
आत्मनः कामचारेण द्वितीय इव वासवः ॥ ७ ॥
मूलम्
व्यूढे देवासुरे युद्धे कृत्वा देवसहायताम्।
चतुर्धा व्यभजत् सर्वां चतुर्भ्यः पृथिवीमिमाम् ॥ ५ ॥
यज्ञैर्नानाविधैरिष्ट्वा प्रजामुत्पाद्य चोत्तमाम् ।
देवयान्यां चौशनस्यां शर्मिष्ठायां च धर्मतः ॥ ६ ॥
देवारण्येषु सर्वेषु विजहारामरोपमः ।
आत्मनः कामचारेण द्वितीय इव वासवः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवासुरसंग्राम छिड़ जानेपर उन्होंने देवताओंकी सहायता करके नाना प्रकारके यज्ञोंद्वारा परमात्माका यजन किया और इस सारी पृथ्वीको चार भागोंमें विभक्त करके उसे ऋत्विज, अध्वर्यु, होता तथा उद्गाता—इन चार प्रकारके ब्राह्मणोंको बाँट दिया। फिर शुक्रकन्या देवयानी और दानवराजकी पुत्री शर्मिष्ठाके गर्भसे धर्मतः उत्तम संतान उत्पन्न करके वे देवोपम नरेश दूसरे इन्द्रकी भाँति समस्त देवकाननोंमें अपनी इच्छाके अनुसार विहार करते रहे॥५—७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा नाभ्यगमच्छान्तिं कामानां सर्ववेदवित्।
ततो गाथामिमां गीत्वा सदारः प्राविशद् वनम् ॥ ८ ॥
मूलम्
यदा नाभ्यगमच्छान्तिं कामानां सर्ववेदवित्।
ततो गाथामिमां गीत्वा सदारः प्राविशद् वनम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब भोगोंके उपभोगसे उन्हें शान्ति नहीं मिली, तब सम्पूर्ण वेदोंके ज्ञाता राजा ययाति निम्नांकित गाथाका गान करके अपनी पत्नियोंके साथ वनमें चले गये॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत् पृथिव्यां व्रीहियवं हिरण्यं पशवः स्त्रियः।
नालमेकस्य तत् सर्वमिति मत्वा शमं व्रजेत् ॥ ९ ॥
मूलम्
यत् पृथिव्यां व्रीहियवं हिरण्यं पशवः स्त्रियः।
नालमेकस्य तत् सर्वमिति मत्वा शमं व्रजेत् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह गाथा इस प्रकार है—इस पृथ्वीपर जितने भी धान, जौ, सुवर्ण, पशु और स्त्री आदि भोग्य पदार्थ हैं, वे सब एक मनुष्यको भी संतोष करानेके लिये पर्याप्त नहीं हैं; ऐसा समझकर मनको शान्त करना चाहिये॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं कामान् परित्यज्य ययातिर्धृतिमेत्य च।
पूरुं राज्ये प्रतिष्ठाप्य प्रयातो वनमीश्वरः ॥ १० ॥
मूलम्
एवं कामान् परित्यज्य ययातिर्धृतिमेत्य च।
पूरुं राज्ये प्रतिष्ठाप्य प्रयातो वनमीश्वरः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार ऐश्वर्यशाली राजा ययातिने धैर्यका आश्रय ले कामनाओंका परित्याग करके अपने पुत्र पूरुको राज्यसिंहासनपर बिठाकर वनको प्रस्थान किया॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स चेन्ममार सृञ्जय चतुर्भद्रतरस्त्वया।
पुत्रात् पुण्यतरस्तुभ्यं मा पुत्रमनुतप्यथाः।
अयज्वानमदाक्षिण्यमभि श्वैत्येत्युदाहरत् ॥ ११ ॥
मूलम्
स चेन्ममार सृञ्जय चतुर्भद्रतरस्त्वया।
पुत्रात् पुण्यतरस्तुभ्यं मा पुत्रमनुतप्यथाः।
अयज्वानमदाक्षिण्यमभि श्वैत्येत्युदाहरत् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्वैत्य सृंजय! वे धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य—इन चारों कल्याणकारी गुणोंमें तुमसे बहुत बढ़े-चढ़े थे और तुम्हारे पुत्रसे भी अधिक पुण्यात्मा थे। जब वे भी जीवित न रह सके, तब औरोंकी तो बात ही क्या है? अतः तुम अपने उस पुत्रके लिये शोक न करो, जिसने न तो यज्ञ किया था और न दक्षिणा ही दी थी। ऐसा नारदजीने कहा॥११॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि षोडशराजकीये त्रिषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६३ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत अभिमन्युवधपर्वमें षोडशराजकीयोपाख्यानविषयक तिरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥६३॥