०६१ षोडशराजकीये

भागसूचना

एकषष्टितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

राजा दिलीपका उत्कर्ष

मूलम् (वचनम्)

नारद उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिलीपं चेदैलविलं मृतं सृञ्जय शुश्रुम।
यस्य यज्ञशतेष्वासन् प्रयुतायुतशो द्विजाः।
तन्त्रज्ञानार्थसम्पन्ना यज्वानः पुत्रपौत्रिणः ॥ १ ॥

मूलम्

दिलीपं चेदैलविलं मृतं सृञ्जय शुश्रुम।
यस्य यज्ञशतेष्वासन् प्रयुतायुतशो द्विजाः।
तन्त्रज्ञानार्थसम्पन्ना यज्वानः पुत्रपौत्रिणः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नारदजी कहते हैं— सृंजय! इलविलाके पुत्र राजा दिलीपकी भी मृत्यु सुनी गयी है, जिनके सौ यज्ञोंमें लाखों ब्राह्मण नियुक्त थे। वे सभी ब्राह्मण वेदोंके कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्डके तात्पर्यको जाननेवाले, यज्ञकर्ता तथा पुत्र-पौत्रोंसे सम्पन्न थे॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

य इमां वसुसम्पूर्णां वसुधां वसुधाधिपः।
ईजानो वितते यज्ञे ब्राह्मणेभ्यो ह्यमन्यत ॥ २ ॥

मूलम्

य इमां वसुसम्पूर्णां वसुधां वसुधाधिपः।
ईजानो वितते यज्ञे ब्राह्मणेभ्यो ह्यमन्यत ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पृथ्वीपति दिलीपने यज्ञ करते समय अपने विशाल यज्ञमें धन-धान्यसे सम्पन्न इस सारी पृथ्वीको ब्राह्मणोंके लिये दान कर दिया था॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिलीपस्य तु यज्ञेषु कृतः पन्था हिरण्मयः।
तं धर्म इव कुर्वाणाः सेन्द्रा देवाः समागमन् ॥ ३ ॥

मूलम्

दिलीपस्य तु यज्ञेषु कृतः पन्था हिरण्मयः।
तं धर्म इव कुर्वाणाः सेन्द्रा देवाः समागमन् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा दिलीपके यज्ञोंमें सोनेकी सड़कें बनायी गयी थीं। इन्द्र आदि देवता मानो धर्मकी प्राप्तिके लिये उन्हें अलंकृत करते हुए उनके यहाँ पधारते थे॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सहस्रं यत्र मातङ्गा गच्छन्ति पर्वतोपमाः।
सौवर्णं चाभवत् सर्वं सदः परमभास्वरम् ॥ ४ ॥

मूलम्

सहस्रं यत्र मातङ्गा गच्छन्ति पर्वतोपमाः।
सौवर्णं चाभवत् सर्वं सदः परमभास्वरम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ पर्वतोंके समान विशालकाय सहस्रों गजराज विचरा करते थे। राजाका सभामण्डप सोनेका बना हुआ था, जो सदा देदीप्यमान रहता था॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रसानां चाभवन् कुल्या भक्ष्याणां चापि पर्वताः।
सहस्रव्यामा नृपते यूपाश्चासन् हिरण्मयाः ॥ ५ ॥

मूलम्

रसानां चाभवन् कुल्या भक्ष्याणां चापि पर्वताः।
सहस्रव्यामा नृपते यूपाश्चासन् हिरण्मयाः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ रसकी नहरें बहती थीं और अन्नके पहाड़ों-जैसे ढेर लगे हुए थे। राजन्! उनके यज्ञमें सहस्र व्याम-विस्तृत सुवर्णमय यूप सुशोभित होते थे॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चषालं प्रचषालं च यस्य यूपे हिरण्मये।
नृत्यन्तेऽप्सरसस्तस्य षट् सहस्राणि सप्त च ॥ ६ ॥

मूलम्

चषालं प्रचषालं च यस्य यूपे हिरण्मये।
नृत्यन्तेऽप्सरसस्तस्य षट् सहस्राणि सप्त च ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके यूपमें सुवर्णमय 1चषाल और प्रचषाल लगे हुए थे। उनके यहाँ तेरह हजार अप्सराएँ नृत्य करती थीं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्र वीणां वादयति प्रीत्या विश्वावसुः स्वयम्।
सर्वभूतान्यमन्यन्त राजानं सत्यशीलिनम् ॥ ७ ॥

मूलम्

यत्र वीणां वादयति प्रीत्या विश्वावसुः स्वयम्।
सर्वभूतान्यमन्यन्त राजानं सत्यशीलिनम् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय वहाँ साक्षात् गन्धर्वराज विश्वावसु प्रेमपूर्वक वीणा बजाते थे। समस्त प्राणी राजा दिलीपको सत्यवादी मानते थे॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रागखाण्डवभोज्यैश्च मत्ताः पथिषु शेरते।
तदेतदद्भुतं मन्ये अन्यैर्न सदृशं नृपैः ॥ ८ ॥
यदप्सु युध्यमानस्य चक्रे न परिपेततुः।

मूलम्

रागखाण्डवभोज्यैश्च मत्ताः पथिषु शेरते।
तदेतदद्भुतं मन्ये अन्यैर्न सदृशं नृपैः ॥ ८ ॥
यदप्सु युध्यमानस्य चक्रे न परिपेततुः।

अनुवाद (हिन्दी)

उनके यहाँ आये हुए अतिथि ‘रागखाण्डव’ नामक मोदक और विविध भोज्यपदार्थ खाकर मतवाले हो सड़कोंपर लेट जाते थे। मेरे मतमें उनके यहाँ यह एक अद्भुत बात थी, जिसकी दूसरे राजाओंसे तुलना नहीं हो सकती थी। राजा दिलीप युद्ध करते समय जलमें भी चले जाते तो उनके रथके पहिये वहाँ डूबते नहीं थे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजानं दृढधन्वानं
दिलीपं सत्यवादिनम् ॥ ९ ॥
येऽपश्यन् भूरिदाक्षिण्यं
तेऽपि स्वर्गजितो नराः ।

मूलम्

राजानं दृढधन्वानं
दिलीपं सत्यवादिनम् ॥ ९ ॥
येऽपश्यन् भूरिदाक्षिण्यं
तेऽपि स्वर्गजितो नराः ।

अनुवाद (हिन्दी)

सुदृढ़ धनुष धारण करनेवाले तथा प्रचुर दक्षिणा देनेवाले सत्यवादी राजा दिलीपका जो लोग दर्शन कर लेते थे, वे मनुष्य भी स्वर्गलोकके अधिकारी हो जाते थे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पञ्च शब्दा न जीर्यन्ति खट्‌वाङ्गस्य निवेशने ॥ १० ॥
स्वाध्यायघोषो ज्याघोषः पिबताश्नीत खादत।

मूलम्

पञ्च शब्दा न जीर्यन्ति खट्‌वाङ्गस्य निवेशने ॥ १० ॥
स्वाध्यायघोषो ज्याघोषः पिबताश्नीत खादत।

अनुवाद (हिन्दी)

खट्‌वांग (दिलीप)-के भवनमें ये पाँच प्रकारके शब्द कभी बंद नहीं होते थे—वेद-शास्त्रोंके स्वाध्यायका शब्द, धनुषकी प्रत्यंचाकी ध्वनि तथा अतिथियोंके लिये कहे जानेवाले ‘खाओ, पीओ और अन्न ग्रहण करो’ ये तीन शब्द॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स चेन्ममार सृञ्जय चतुर्भद्रतरस्त्वया ॥ ११ ॥
पुत्रात् पुण्यतरस्तुभ्यं मा पुत्रमनुतप्यथाः।
अयज्वानमदाक्षिण्यमभि श्वैत्येत्युदाहरत् ॥ १२ ॥

मूलम्

स चेन्ममार सृञ्जय चतुर्भद्रतरस्त्वया ॥ ११ ॥
पुत्रात् पुण्यतरस्तुभ्यं मा पुत्रमनुतप्यथाः।
अयज्वानमदाक्षिण्यमभि श्वैत्येत्युदाहरत् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्वैत्य सृंजय! वे दिलीप धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य—इन चारों कल्याणकारी गुणोंमें तुमसे बहुत बढ़े-चढ़े थे, तुम्हारे पुत्रसे भी अधिक पुण्यात्मा थे। जब वे भी मर गये तब औरोंकी क्या बात है? अतः जिसने कभी यज्ञ नहीं किया, दक्षिणाएँ नहीं बाँटीं, अपने उस पुत्रके लिये तुम शोक न करो—इस प्रकार नारदजीने कहा॥११-१२॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि षोडशराजकीये एकषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६१ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत अभिमन्युवधपर्वमें षोडशराजकीयोपाख्यानविषयक इकसठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥६१॥


  1. यज्ञीय यूप या स्तम्भके ऊपर लगाये जानेवाले काठके छल्लेको ‘चषाल’ कहते हैं, इसीका उत्कृष्ट रूप ‘प्रचषाल’ है। ↩︎