०६० षोडशराजकीये

भागसूचना

षष्टितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

राजा भगीरथका चरित्र

मूलम् (वचनम्)

नारद उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगीरथं च राजानं मृतं सृञ्जय शुश्रुम।
(परित्राणाय पूर्वेषां येन गङ्गावतारिता।
यस्येन्द्रो बाहुवीर्येण प्रीतो राज्ञो महात्मनः॥
योऽश्वमेधशतैरीजे समाप्तवरदक्षिणैः ।
हविर्मन्त्रान्नसम्पन्नैर्देवानामादधान्मुदम् ॥
यस्येन्द्रो वितते यज्ञे सोमं पीत्वा मदोत्कटः।
असुराणां सहस्राणि बहूनि च सुरेश्वरः॥
अजयद् बाहुवीर्येण भगवाल्ँलोकपूजितः ।)
येन भागीरथी गङ्गा चयनैः काञ्चनैश्चिता ॥ १ ॥

मूलम्

भगीरथं च राजानं मृतं सृञ्जय शुश्रुम।
(परित्राणाय पूर्वेषां येन गङ्गावतारिता।
यस्येन्द्रो बाहुवीर्येण प्रीतो राज्ञो महात्मनः॥
योऽश्वमेधशतैरीजे समाप्तवरदक्षिणैः ।
हविर्मन्त्रान्नसम्पन्नैर्देवानामादधान्मुदम् ॥
यस्येन्द्रो वितते यज्ञे सोमं पीत्वा मदोत्कटः।
असुराणां सहस्राणि बहूनि च सुरेश्वरः॥
अजयद् बाहुवीर्येण भगवाल्ँलोकपूजितः ।)
येन भागीरथी गङ्गा चयनैः काञ्चनैश्चिता ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नारदजी कहते हैं— सृंजय! हमारे सुननेमें आया है कि राजा भगीरथ भी मर गये, जिन्होंने अपने पूर्वजोंका उद्धार करनेके लिये इस भूतलपर गंगाजीको उतारा था। जिन महामना नरेशके बाहुबलसे इन्द्र बहुत प्रसन्न थे, जिन्होंने प्रचुर एवं उत्तम दक्षिणासे युक्त हविष्य, मन्त्र और अन्नसे सम्पन्न सौ अश्वमेध यज्ञोंका अनुष्ठान किया और देवताओंका आनन्द बढ़ाया, जिनके महान् यज्ञमें इन्द्र सोमरस पीकर मदोन्मत्त हो उठे थे तथा जिनके यहाँ रहकर लोकपूजित भगवान् देवेन्द्रने अपने बाहुबलसे अनेक सहस्र असुरोंको पराजित किया, उन्हीं राजा भगीरथने यज्ञ करते समय गंगाके दोनों किनारोंपर सोनेकी ईंटोंके घाट बनवाये थे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यः सहस्रं सहस्राणां कन्या हेमविभूषिताः।
राज्ञश्च राजपुत्रांश्च ब्राह्मणेभ्यो ह्यमन्यत ॥ २ ॥

मूलम्

यः सहस्रं सहस्राणां कन्या हेमविभूषिताः।
राज्ञश्च राजपुत्रांश्च ब्राह्मणेभ्यो ह्यमन्यत ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इतना ही नहीं, उन्होंने कितने ही राजाओं तथा राजपुत्रोंको जीतकर उनके यहाँसे सुवर्णमय आभूषणोंसे विभूषित दस लाख कन्याएँ लाकर उन्हें ब्राह्मणोंको दान किया था॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वा रथगताः कन्या रथाः सर्वे चतुर्युजः।
रथे रथे शतं नागाः सर्वे वै हेममालिनः ॥ ३ ॥

मूलम्

सर्वा रथगताः कन्या रथाः सर्वे चतुर्युजः।
रथे रथे शतं नागाः सर्वे वै हेममालिनः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे सभी कन्याएँ रथोंमें बैठी थीं। उन सभी रथोंमें चार-चार घोड़े जुते थे। प्रत्येक रथके पीछे सोनेके हारोंसे अलंकृत सौ-सौ हाथी चलते थे॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सहस्रमश्वाश्चैकैकं गजानां पृष्ठतोऽन्वयुः ।
अश्वे अश्वे शतं गावो गवां पश्चादजाविकम् ॥ ४ ॥

मूलम्

सहस्रमश्वाश्चैकैकं गजानां पृष्ठतोऽन्वयुः ।
अश्वे अश्वे शतं गावो गवां पश्चादजाविकम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक-एक हाथीके पीछे हजार-हजार घोड़े जा रहे थे और एक-एक घोड़ेके साथ सौ-सौ गौएँ एवं गौओंके पीछे भेड़ और बकरियोंके झुंड चलते थे॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेनाक्रान्ता जलौघेन दक्षिणा भूयसीर्ददत्।
उपह्वरेऽतिव्यथिता तस्याङ्के निषसाद ह ॥ ५ ॥

मूलम्

तेनाक्रान्ता जलौघेन दक्षिणा भूयसीर्ददत्।
उपह्वरेऽतिव्यथिता तस्याङ्के निषसाद ह ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा भगीरथ गंगाके तटपर भूयसी (प्रचुर) दक्षिणा देते हुए निवास करते थे। अतः उनके संकल्पकालिक जलप्रवाहसे आक्रान्त होकर गंगादेवी मानो अत्यन्त व्यथित हो उठीं और समीपवर्ती राजाके अंकमें आ बैठीं॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा भागीरथी गङ्गा उर्वशी चाभवत् पुरा।
दुहितृत्वं गता राज्ञः पुत्रत्वमगमत् तदा ॥ ६ ॥

मूलम्

तथा भागीरथी गङ्गा उर्वशी चाभवत् पुरा।
दुहितृत्वं गता राज्ञः पुत्रत्वमगमत् तदा ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार भगीरथकी पुत्री होनेसे गंगाजी भागीरथी कहलायीं और उनके ऊरुपर बैठनेके कारण उर्वशी नामसे प्रसिद्ध हुईं। राजाके पुत्रीभावको प्राप्त होकर उनका नरकसे त्राण करनेके कारण वे उस समय पुत्रभावको भी प्राप्त हुईं॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तां तु गाथां जगुः प्रीता गन्धर्वाः सूर्यवर्चसः।
पितृदेवमनुष्याणां शृण्वतां वल्गुवादिनः ॥ ७ ॥

मूलम्

तां तु गाथां जगुः प्रीता गन्धर्वाः सूर्यवर्चसः।
पितृदेवमनुष्याणां शृण्वतां वल्गुवादिनः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूर्यके समान तेजस्वी और मधुरभाषी गन्धर्वोंने प्रसन्न होकर देवताओं, पितरों और मनुष्योंके सुनते हुए यह गाथा गायी थी॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगीरथं यजमानमैक्ष्वाकुं भूरिदक्षिणम् ।
गङ्गा समुद्रगा देवी वव्रे पितरमीश्वरम् ॥ ८ ॥

मूलम्

भगीरथं यजमानमैक्ष्वाकुं भूरिदक्षिणम् ।
गङ्गा समुद्रगा देवी वव्रे पितरमीश्वरम् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यज्ञ करते समय भूयसी दक्षिणा देनेवाले इक्ष्वाकुवंशी ऐश्वर्यशाली राजा भगीरथको समुद्रगामिनी गंगादेवीने अपना पिता मान लिया था॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य सेन्द्रैः सुरगणैर्देवैर्यबः स्वलङ्कृतः।
सम्यक्परिगृहीतश्च शान्तविघ्नो निरामयः ॥ ९ ॥

मूलम्

तस्य सेन्द्रैः सुरगणैर्देवैर्यबः स्वलङ्कृतः।
सम्यक्परिगृहीतश्च शान्तविघ्नो निरामयः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवताओंने उनके यज्ञको सुशोभित किया था। उसमें प्राप्त हुए हविष्यको भलीभाँति ग्रहण करके उसके विघ्नोंको शान्त करते हुए उसे निर्बाधरूपसे पूर्ण किया था॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यो य इच्छेत विप्रो वै यत्र यत्रात्मनः प्रियम्।
भगीरथस्तदा प्रीतस्तत्र तत्राददद् वशी ॥ १० ॥

मूलम्

यो य इच्छेत विप्रो वै यत्र यत्रात्मनः प्रियम्।
भगीरथस्तदा प्रीतस्तत्र तत्राददद् वशी ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस-जिस ब्राह्मणने जहाँ-जहाँ अपने मनको प्रिय लगनेवाली जिस-जिस वस्तुको पाना चाहा, जितेन्द्रिय राजाने वहीं-वहीं प्रसन्नतापूर्वक वह वस्तु उसे तत्काल समर्पित की॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नादेयं ब्राह्मणस्यासीद्‌ यस्य यत्स्यात् प्रियं धनम्।
सोऽपि विप्रप्रसादेन ब्रह्मलोकं गतो नृपः ॥ ११ ॥

मूलम्

नादेयं ब्राह्मणस्यासीद्‌ यस्य यत्स्यात् प्रियं धनम्।
सोऽपि विप्रप्रसादेन ब्रह्मलोकं गतो नृपः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके पास जो भी प्रिय धन था, वह ब्राह्मणके लिये अदेय नहीं था। राजा भगीरथ ब्राह्मणोंकी कृपासे ब्रह्मलोकको प्राप्त हुए॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

येन यातौ मखमुखौ दिशाशाविह पादपाः।
तेनावस्थातुमिच्छन्ति तं गत्वा राजमीश्वरम् ॥ १२ ॥

मूलम्

येन यातौ मखमुखौ दिशाशाविह पादपाः।
तेनावस्थातुमिच्छन्ति तं गत्वा राजमीश्वरम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुओंकी दशा और आशाका हनन करनेवाले सृंजय! राजा भगीरथने यज्ञोंमें प्रधान ज्ञानयज्ञ और ध्यानयज्ञको ग्रहण किया था। इसलिये किरणोंका पान करनेवाले महर्षिगण भी उस ब्रह्मलोकमें जितेन्द्रिय राजा भगीरथके निकट जाकर उसी स्थानपर रहनेकी इच्छा करते थे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स चेन्ममार सृञ्जय चतुर्भद्रतरस्त्वया।
पुत्रात् पुण्यतरस्तुभ्यं मा पुत्रमनुतप्यथाः ॥ १३ ॥
अयज्वानमदाक्षिण्यमभि श्वैत्येत्युदाहरत् ।

मूलम्

स चेन्ममार सृञ्जय चतुर्भद्रतरस्त्वया।
पुत्रात् पुण्यतरस्तुभ्यं मा पुत्रमनुतप्यथाः ॥ १३ ॥
अयज्वानमदाक्षिण्यमभि श्वैत्येत्युदाहरत् ।

अनुवाद (हिन्दी)

श्वैत्य सृंजय! वे भगीरथ उपर्युक्त चारों बातोंमें तुमसे बहुत बढ़कर थे। तुम्हारे पुत्रकी अपेक्षा उनका पुण्य बहुत अधिक था। जब वे भी जीवित न रह सके, तब दूसरोंकी तो बात ही क्या है? अतः तुम यज्ञानुष्ठान और दान-दक्षिणासे रहित अपने पुत्रके लिये शोक न करो। नारदजीने राजा सृंजयसे यही बात कही॥१३॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि षोडशराजकीये षष्टितमोऽध्यायः ॥ ६० ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत अभिमन्युवधपर्वमें षोडशराजकीयोपाख्यानविषयक साठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥६०॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ३ श्लोक मिलाकर कुल १७ श्लोक हैं)