भागसूचना
अष्टपञ्चाशत्तमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
राजा शिबिके यज्ञ और दानकी महत्ता
मूलम् (वचनम्)
नारद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
शिबिमौशीनरं चापि मृतं सृञ्जय शुश्रुम।
य इमां पृथिवीं सर्वां चर्मवत् पर्यवेष्टयत् ॥ १ ॥
मूलम्
शिबिमौशीनरं चापि मृतं सृञ्जय शुश्रुम।
य इमां पृथिवीं सर्वां चर्मवत् पर्यवेष्टयत् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजी कहते हैं— सृंजय! जिन्होंने इस सम्पूर्ण पृथ्वीको चमड़ेकी भाँति लपेट लिया था, (सर्वथा अपने अधीन कर लिया था) वे उशीनरपुत्र राजा शिबि भी मरे थे, यह हमने सुना है॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
साद्रिद्वीपार्णववनां रथघोषेण नादयन् ।
स शिबिर्वै रिपून् नित्यं मुख्यान् निघ्नन् सपत्नजित् ॥ २ ॥
मूलम्
साद्रिद्वीपार्णववनां रथघोषेण नादयन् ।
स शिबिर्वै रिपून् नित्यं मुख्यान् निघ्नन् सपत्नजित् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा शिबिने पर्वत, द्वीप, समुद्र और वनोंसहित इस पृथ्वीको अपने रथकी घरघराहटसे प्रतिध्वनित करते हुए प्रधान-प्रधान शत्रुओंको मारकर सदा ही अपने विपक्षियोंपर विजय प्राप्त की थी॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेन यज्ञैर्बहुविधैरिष्टं पर्याप्तदक्षिणैः ।
स राजा वीर्यवान् धीमानवाप्य वसु पुष्कलम् ॥ ३ ॥
सर्वमूर्धाभिषिक्तानां सम्मतः सोऽभवद् युधि।
अयजच्चाश्वमेधैर्यो विजित्य पृथिवीमिमाम् ॥ ४ ॥
मूलम्
तेन यज्ञैर्बहुविधैरिष्टं पर्याप्तदक्षिणैः ।
स राजा वीर्यवान् धीमानवाप्य वसु पुष्कलम् ॥ ३ ॥
सर्वमूर्धाभिषिक्तानां सम्मतः सोऽभवद् युधि।
अयजच्चाश्वमेधैर्यो विजित्य पृथिवीमिमाम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने प्रचुर दक्षिणाओंसे युक्त नाना प्रकारके यज्ञोंका अनुष्ठान किया था। वे पराक्रमी और बुद्धिमान् नरेश पर्याप्त धन पाकर युद्धमें सम्पूर्ण मूर्धाभिषिक्त राजाओंकी दृष्टिमें सम्माननीय वीर हो गये थे। उन्होंने इस पृथ्वीको जीतकर अनेक अश्वमेध-यज्ञ किये थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निरर्गलैर्बहुफलैर्निष्ककोटिसहस्रदः ।
हस्त्यश्वपशुभिर्धान्यैर्मृगैर्गोऽजाविभिस्तथा ॥ ५ ॥
विविधां पृथिवीं पुण्यां शिबिर्ब्राह्मणसात्करोत्।
मूलम्
निरर्गलैर्बहुफलैर्निष्ककोटिसहस्रदः ।
हस्त्यश्वपशुभिर्धान्यैर्मृगैर्गोऽजाविभिस्तथा ॥ ५ ॥
विविधां पृथिवीं पुण्यां शिबिर्ब्राह्मणसात्करोत्।
अनुवाद (हिन्दी)
उनके वे यज्ञ प्रचुर फल देनेवाले थे और सदा निर्बाध-रूपसे चलते रहते थे। उन्होंने सहस्रकोटि स्वर्णमुद्राओंका दान किया था। राजा शिबिने हाथी, घोड़े, मृग, गौ, भेड़ और बकरी आदि पशुओं तथा धान्योंसहित नाना प्रकारके पवित्र भूखण्ड ब्राह्मणोंके अधीन कर दिये थे॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यावत्यो वर्षतो धारा यावत्यो दिवि तारकाः ॥ ६ ॥
यावत्यः सिकता गाङ्ग्यो यावन्मेरोर्महोपलाः।
उदन्वति च यावन्ति रत्नानि प्राणिनोऽपि च ॥ ७ ॥
तावतीरददद् गा वै शिबिरौशीनरोऽध्वरे।
मूलम्
यावत्यो वर्षतो धारा यावत्यो दिवि तारकाः ॥ ६ ॥
यावत्यः सिकता गाङ्ग्यो यावन्मेरोर्महोपलाः।
उदन्वति च यावन्ति रत्नानि प्राणिनोऽपि च ॥ ७ ॥
तावतीरददद् गा वै शिबिरौशीनरोऽध्वरे।
अनुवाद (हिन्दी)
बरसते हुए मेघसे जितनी धाराएँ गिरती हैं, आकाशमें जितने नक्षत्र दिखायी देते हैं, गंगाके किनारे जितने बालूके कण हैं, सुमेरु पर्वतमें जितने स्थूल प्रस्तरखण्ड हैं तथा महासागरमें जितने रत्न और प्राणी निवास करते हैं, उतनी गौएँ उशीनरपुत्र शिबिने यज्ञमें ब्राह्मणोंको दी थीं॥६-७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नो यन्तारं धुरस्तस्य कञ्चिदन्यं प्रजापतिः ॥ ८ ॥
भूतं भव्यं भवन्तं वा नाध्यगच्छन्नरोत्तमम्।
मूलम्
नो यन्तारं धुरस्तस्य कञ्चिदन्यं प्रजापतिः ॥ ८ ॥
भूतं भव्यं भवन्तं वा नाध्यगच्छन्नरोत्तमम्।
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजापतिने भी अपनी सृष्टिमें भूत, भविष्य और वर्तमान कालके किसी भी दूसरे नरश्रेष्ठ राजाको ऐसा नहीं पाया जो शिबिके कार्यभारको सँभाल सकता हो॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्यासन् विविधा यज्ञाः सर्वकामैः समन्विताः ॥ ९ ॥
हेमयूपासनगृहा हेमप्राकारतोरणाः ।
मूलम्
तस्यासन् विविधा यज्ञाः सर्वकामैः समन्विताः ॥ ९ ॥
हेमयूपासनगृहा हेमप्राकारतोरणाः ।
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने नाना प्रकारके बहुत-से यज्ञ किये, जिनमें प्रार्थियोंकी सम्पूर्ण कामनाएँ पूर्ण की जाती थीं। उन यज्ञोंमें यज्ञस्तम्भ, आसन, गृह, परकोटे और दरवाजे सुवर्णके बने हुए थे॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शुचि स्वाद्वन्नपानं च ब्राह्मणाः प्रयुतायुताः ॥ १० ॥
नानाभक्ष्यैः प्रियकथाः पयोदधिमहाह्रदाः ।
तस्यासन् यज्ञवाटेषु नद्यः शुभ्रान्नपर्वताः ॥ ११ ॥
मूलम्
शुचि स्वाद्वन्नपानं च ब्राह्मणाः प्रयुतायुताः ॥ १० ॥
नानाभक्ष्यैः प्रियकथाः पयोदधिमहाह्रदाः ।
तस्यासन् यज्ञवाटेषु नद्यः शुभ्रान्नपर्वताः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन यज्ञोंमें खाने-पीनेकी वस्तुएँ पवित्र और स्वादिष्ट होती थीं। वहाँ दूध-दहीके बड़े-बड़े सरोवर बने हुए थे। वहाँ हजारों और लाखों ब्राह्मण भाँति-भाँतिके खाद्य पदार्थ पाकर प्रसन्नता प्रकट करनेवाली बातें कहते थे। उनकी यज्ञशालाओंमें पीनेयोग्य पदार्थोंकी नदियाँ बहती थीं और शुद्ध अन्नके पर्वतोंके समान ढेर लगे रहते थे॥१०-११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पिबत स्नात खादध्वमिति यद् रोचते जनाः।
यस्मै प्रादाद् वरं रुद्रस्तुष्टः पुण्येन कर्मणा ॥ १२ ॥
अक्षयं ददतो वित्तं श्रद्धा कीर्तिस्तथा कियाः।
यथोक्तमेव भूतानां प्रियत्वं स्वर्गमुत्तमम् ॥ १३ ॥
मूलम्
पिबत स्नात खादध्वमिति यद् रोचते जनाः।
यस्मै प्रादाद् वरं रुद्रस्तुष्टः पुण्येन कर्मणा ॥ १२ ॥
अक्षयं ददतो वित्तं श्रद्धा कीर्तिस्तथा कियाः।
यथोक्तमेव भूतानां प्रियत्वं स्वर्गमुत्तमम् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ सबके लिये यह घोषणा की जाती थी कि ‘सज्जनो! स्नान करो और जिसकी जैसी रुचि हो उसके अनुसार अन्न-पान लेकर खूब खाओ-पीओ’। भगवान् शिवने राजा शिबिके पुण्यकर्मसे प्रसन्न होकर उन्हें यह वर दिया था कि राजन्! सदा दान करते रहनेपर भी तुम्हारा धन क्षीण नहीं होगा, तुम्हारी श्रद्धा, कीर्ति और पुण्यकर्म भी अक्षय होंगे। तुम्हारे कहनेके अनुसार ही सब प्राणी तुमसे प्रेम करेंगे और अन्तमें तुम्हें उत्तम स्वर्गलोककी प्राप्ति होगी॥१२-१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एताल्ँलब्ध्वा वरानिष्टान्
शिबिः काले दिवं गतः।
स चेन्ममार सृञ्जय
चतुर्भद्रतरस्त्वया ॥ १४ ॥
पुत्रात् पुण्यतरस्तुभ्यं
मा पुत्रमनुतप्यथाः ।
अयज्वानमदाक्षिण्य-
मभि श्वैत्येत्युदाहरत् ॥ १५ ॥
मूलम्
एताल्ँलब्ध्वा वरानिष्टान्
शिबिः काले दिवं गतः।
स चेन्ममार सृञ्जय
चतुर्भद्रतरस्त्वया ॥ १४ ॥
पुत्रात् पुण्यतरस्तुभ्यं
मा पुत्रमनुतप्यथाः ।
अयज्वानमदाक्षिण्य-
मभि श्वैत्येत्युदाहरत् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन अभीष्ट वरोंको पाकर राजा शिबि समय आनेपर स्वर्गलोकमें गये। सृंजय! वे तुम्हारी अपेक्षा पूर्वोक्त चारों बातोंमें बहुत बढ़े-चढ़े थे। तुम्हारे पुत्रसे भी अधिक पुण्यात्मा थे। श्वित्यनन्दन! जब वे शिबि भी मर गये, तब तुम्हें यज्ञ और दानसे रहित अपने पुत्रके लिये इस प्रकार शोक नहीं करना चाहिये। नारदजीने राजा सृंजयसे यही बात कही॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि षोडशराजकीये अष्टपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५८ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत षोडशराजकीयोपाख्यानविषयक अट्ठावनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५८॥