०५४ मृत्युप्रजापतिसंवादे

भागसूचना

चतुःपञ्चाशत्तमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

मृत्युकी घोर तपस्या, ब्रह्माजीके द्वारा उसे वरकी प्राप्ति तथा नारद-अकम्पन-संवादका उपसंहार

मूलम् (वचनम्)

नारद उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

विनीय दुःखमबला आत्मन्येव प्रजापतिम्।
उवाच प्राञ्जलिर्भूत्वा लतेवावर्जिता पुनः ॥ १ ॥

मूलम्

विनीय दुःखमबला आत्मन्येव प्रजापतिम्।
उवाच प्राञ्जलिर्भूत्वा लतेवावर्जिता पुनः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नारदजी कहते हैं— राजन्! तदनन्तर वह अबला अपने भीतर ही उस दुःखको दबाकर झुकायी हुई लताके समान विनम्र हो हाथ जोड़कर ब्रह्माजीसे बोली॥

मूलम् (वचनम्)

मृत्युरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वया सृष्टा कथं नारी ईदृशी वदतां वर।
क्रूरं कर्माहितं कुर्यां तदेव किमु जानती ॥ २ ॥

मूलम्

त्वया सृष्टा कथं नारी ईदृशी वदतां वर।
क्रूरं कर्माहितं कुर्यां तदेव किमु जानती ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मृत्युने कहा— वक्ताओंमें श्रेष्ठ प्रजापते! आपने मुझे ऐसी नारीके रूपमें क्यों उत्पन्न किया? मैं जान-बूझकर वही क्रूरतापूर्ण अहितकर कर्म कैसे करूँ?॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिभेम्यहमधर्माद्धि प्रसीद भगवन् प्रभो।
प्रियान् पुत्रान्‌ वयस्यांश्च भ्रातॄन् मातॄः पितॄन् पतीन् ॥ ३ ॥
अपध्यास्यन्ति मे देव मृतेष्वेभ्यो बिभेम्यहम्।

मूलम्

बिभेम्यहमधर्माद्धि प्रसीद भगवन् प्रभो।
प्रियान् पुत्रान्‌ वयस्यांश्च भ्रातॄन् मातॄः पितॄन् पतीन् ॥ ३ ॥
अपध्यास्यन्ति मे देव मृतेष्वेभ्यो बिभेम्यहम्।

अनुवाद (हिन्दी)

भगवन्! मैं पापसे डरती हूँ। प्रभो! मुझपर प्रसन्न होइये। जब मैं लोगोंके प्यारे पुत्रों, मित्रों, भाइयों, माताओं, पिताओं तथा पतियोंको मारने लगूँगी, देव! उस समय उनके सम्बन्धी इन लोगोंके मेरे द्वारा मारे जानेपर सदा मेरा अनिष्ट-चिन्तन करेंगे। अतः मैं इन सबसे बहुत डरती हूँ॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृपणानां हि रुदतां ये पतन्त्यश्रुबिन्दवः ॥ ४ ॥
तेभ्योऽहं भगवन् भीता शरणं त्वाहमागता।

मूलम्

कृपणानां हि रुदतां ये पतन्त्यश्रुबिन्दवः ॥ ४ ॥
तेभ्योऽहं भगवन् भीता शरणं त्वाहमागता।

अनुवाद (हिन्दी)

भगवन्! रोते हुए दीन-दुःखी प्राणियोंके नेत्रोंसे जो आँसुओंकी बूँदें गिरती हैं, उनसे भयभीत होकर मैं आपकी शरणमें आयी हूँ॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यमस्य भवनं देव गच्छेयं न सुरोत्तम ॥ ५ ॥
कायेन विनयोपेता मूर्ध्नोदग्रनखेन च।
एतदिच्छाम्यहं कामं त्वत्तो लोकपितामह ॥ ६ ॥

मूलम्

यमस्य भवनं देव गच्छेयं न सुरोत्तम ॥ ५ ॥
कायेन विनयोपेता मूर्ध्नोदग्रनखेन च।
एतदिच्छाम्यहं कामं त्वत्तो लोकपितामह ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देव! सुरश्रेष्ठ! लोकपितामह! मैं शरीर और मस्तकको झुकाकर, हाथ जोड़कर विनीतभावसे आपकी शरणागत होकर केवल इसी अभिलाषाकी पूर्ति चाहती हूँ कि मुझे यमराजके भवनमें न जाना पड़े॥५-६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इच्छेयं त्वत्प्रसादाद्धि तपस्तप्तुं प्रजेश्वर।
प्रदिशेमं वरं देव त्वं मह्यं भगवन् प्रभो ॥ ७ ॥

मूलम्

इच्छेयं त्वत्प्रसादाद्धि तपस्तप्तुं प्रजेश्वर।
प्रदिशेमं वरं देव त्वं मह्यं भगवन् प्रभो ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रजेश्वर! मैं आपकी कृपासे तपस्या करना चाहती हूँ। देव! भगवन्! प्रभो! आप मुझे यही वर प्रदान करें॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वया ह्युक्ता गमिष्यामि धेनुकाश्रममुत्तमम्।
तत्र तप्स्ये तपस्तीव्रं तवैवाराधने रता ॥ ८ ॥

मूलम्

त्वया ह्युक्ता गमिष्यामि धेनुकाश्रममुत्तमम्।
तत्र तप्स्ये तपस्तीव्रं तवैवाराधने रता ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपकी आज्ञा लेकर मैं उत्तम धेनुकाश्रमको चली जाऊँगी और वहाँ आपकी ही आराधनामें तत्पर रहकर कठोर तपस्या करूँगी॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हि शक्ष्यामि देवेश प्राणान् प्राणभृतां प्रियान्।
हर्तुं विलपमानानामधर्मादभिरक्ष माम् ॥ ९ ॥

मूलम्

न हि शक्ष्यामि देवेश प्राणान् प्राणभृतां प्रियान्।
हर्तुं विलपमानानामधर्मादभिरक्ष माम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवेश्वर! मैं रोते-विलखते प्राणियोंके प्यारे प्राणोंका अपहरण नहीं कर सकूँगी, आप इस अधर्मसे मुझे बचावें॥९॥

मूलम् (वचनम्)

ब्रह्मोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

मृत्यो संकल्पितासि त्वं प्रजासंहारहेतुना।
गच्छ संहर सर्वास्त्वं प्रजा मा ते विचारणा ॥ १० ॥

मूलम्

मृत्यो संकल्पितासि त्वं प्रजासंहारहेतुना।
गच्छ संहर सर्वास्त्वं प्रजा मा ते विचारणा ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्माजीने कहा— मृत्यो! प्रजाके संहारके लिये ही मेरे द्वारा संकल्पपूर्वक तेरी सृष्टि की गयी है। जा, तू सारी प्रजाका संहार कर। तेरे मनमें कोई अन्यथा विचार नहीं होना चाहिये॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भविता त्वेतदेवं हि नैतज्जात्वन्यथा भवेत्।
भव त्वनिन्दिता लोके कुरुष्व वचनं मम ॥ ११ ॥

मूलम्

भविता त्वेतदेवं हि नैतज्जात्वन्यथा भवेत्।
भव त्वनिन्दिता लोके कुरुष्व वचनं मम ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह बात इसी प्रकार होनेवाली है। इसमें कभी कोई परिवर्तन नहीं हो सकता। तू लोकमें निन्दित न हो, मेरी आज्ञाका पालन कर॥११॥

मूलम् (वचनम्)

नारद उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्ताभवत् प्रीता प्राञ्जलिर्भगवन्मुखी ।
संहारे नाकरोद् बुद्धिं प्रजानां हितकाम्यया ॥ १२ ॥

मूलम्

एवमुक्ताभवत् प्रीता प्राञ्जलिर्भगवन्मुखी ।
संहारे नाकरोद् बुद्धिं प्रजानां हितकाम्यया ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नारदजी कहते हैं— राजन्! भगवान् ब्रह्माजीके ऐसा कहनेपर उन्हींकी ओर मुँह करके हाथ जोड़े खड़ी हुई वह नारी मन-ही-मन बहुत प्रसन्न हुई; परंतु उसने प्रजाके हितकी कामनासे संहार-कार्यमें मन नहीं लगाया॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तूष्णीमासीत् तदा देवः प्रजानामीश्वरेश्वरः।
प्रसादं चागमत् क्षिप्रमात्मनैव प्रजापतिः ॥ १३ ॥

मूलम्

तूष्णीमासीत् तदा देवः प्रजानामीश्वरेश्वरः।
प्रसादं चागमत् क्षिप्रमात्मनैव प्रजापतिः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब प्रजेश्वरोंके भी स्वामी भगवान् ब्रह्मा चुप हो गये। फिर वे भगवान् प्रजापति तुरंत अपने-आप ही प्रसन्नताको प्राप्त हुए॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्मयमानश्च देवेशो लोकान् सर्वानवेक्ष्य च।
लोकास्त्वासन् यथापूर्वं दृष्टास्तेनापमन्युना ॥ १४ ॥

मूलम्

स्मयमानश्च देवेशो लोकान् सर्वानवेक्ष्य च।
लोकास्त्वासन् यथापूर्वं दृष्टास्तेनापमन्युना ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवेश्वर ब्रह्मा सम्पूर्ण लोकोंकी ओर देखकर मुसकराये। उन्होंने क्रोधशून्य होकर देखा, इसलिये वे सभी लोक पहलेके समान हरे-भरे हो गये॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निवृत्तरोषे तस्मिंस्तु भगवत्यपराजिते ।
सा कन्यापि जगामाथ समीपात् तस्य धीमतः ॥ १५ ॥

मूलम्

निवृत्तरोषे तस्मिंस्तु भगवत्यपराजिते ।
सा कन्यापि जगामाथ समीपात् तस्य धीमतः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन अपराजित भगवान् ब्रह्माका रोष निवृत्त हो जानेपर वह कन्या भी उन परम बुद्धिमान् देवेश्वरके निकटसे अन्यत्र चली गयी॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपसृत्याप्रतिश्रुत्य प्रजासंहरणं तदा ।
त्वरमाणा च राजेन्द्र मृत्युर्धेनुकमभ्यगात् ॥ १६ ॥

मूलम्

अपसृत्याप्रतिश्रुत्य प्रजासंहरणं तदा ।
त्वरमाणा च राजेन्द्र मृत्युर्धेनुकमभ्यगात् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! उस समय प्रजाका संहार करनेके विषयमें कोई प्रतिज्ञा न करके मृत्यु वहाँसे हट गयी और बड़ी उतावलीके साथ धेनुकाश्रममें जा पहुँची॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा तत्र परमं तीव्रं चचार व्रतमुत्तमम्।
सा तदा ह्येकपादेन तस्थौ पद्मानि षोडश ॥ १७ ॥
पञ्च चाब्दानि कारुण्यात् प्रजानां तु हितैषिणी।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यः प्रियेभ्यः संनिवर्त्य सा ॥ १८ ॥

मूलम्

सा तत्र परमं तीव्रं चचार व्रतमुत्तमम्।
सा तदा ह्येकपादेन तस्थौ पद्मानि षोडश ॥ १७ ॥
पञ्च चाब्दानि कारुण्यात् प्रजानां तु हितैषिणी।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यः प्रियेभ्यः संनिवर्त्य सा ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसने वहाँ अत्यन्त कठोर और उत्तम व्रतका पालन आरम्भ किया। उस समय वह दयावश प्रजावर्गका हित करनेकी इच्छासे अपनी इन्द्रियोंको प्रिय विषयोंसे हटाकर इक्कीस पद्म वर्षोंतक एक पैरपर खड़ी रही॥१७-१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्त्वेकेन पादेन पुनरन्यानि सप्त वै।
तस्थौ पद्मानि षट् चैव सप्त चैकं च पार्थिव॥१९॥

मूलम्

ततस्त्वेकेन पादेन पुनरन्यानि सप्त वै।
तस्थौ पद्मानि षट् चैव सप्त चैकं च पार्थिव॥१९॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! तदनन्तर पुनः अन्य इक्कीस पद्म वर्षोंतक वह एक पैरसे खड़ी होकर तपस्या करती रही॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः पद्मायुतं तात मृगैः सह चचार सा।
पुनर्गत्वा ततो नन्दां पुण्यां शीतामलोदकाम् ॥ २० ॥
अप्सु वर्षसहस्राणि सप्त चैकं च सानयत्।

मूलम्

ततः पद्मायुतं तात मृगैः सह चचार सा।
पुनर्गत्वा ततो नन्दां पुण्यां शीतामलोदकाम् ॥ २० ॥
अप्सु वर्षसहस्राणि सप्त चैकं च सानयत्।

अनुवाद (हिन्दी)

तात! इसके बाद दस हजार पद्म वर्षोंतक वह मृगोंके साथ विचरती रही, फिर शीतल एवं निर्मल जलवाली पुण्यमयी नन्दानदीमें जाकर उसके जलमें उसने आठ हजार वर्ष व्यतीत किये॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धारयित्वा तु नियमं नन्दायां वीतकल्मषा ॥ २१ ॥
सा पूर्वं कौशिकीं पुण्यां जगाम नियमैधिता।
तत्र वायुजलाहारा चचार नियमं पुनः ॥ २२ ॥

मूलम्

धारयित्वा तु नियमं नन्दायां वीतकल्मषा ॥ २१ ॥
सा पूर्वं कौशिकीं पुण्यां जगाम नियमैधिता।
तत्र वायुजलाहारा चचार नियमं पुनः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार नन्दानदीमें नियमोंके पालनपूर्वक रहकर वह निष्पाप हो गयी। तदनन्तर व्रत-नियमोंसे सम्पन्न हो मृत्यु पहले पुण्यमयी कौशिकीनदीके तटपर गयी और वहाँ वायु तथा जलका आहार करती हुई पुनः कठोर नियमोंका पालन करने लगी॥२१-२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पञ्चगङ्गासु सा पुण्या कन्या वेतसकेषु च।
तपोविशेषैर्बहुभिः कर्षयद् देहमात्मनः ॥ २३ ॥

मूलम्

पञ्चगङ्गासु सा पुण्या कन्या वेतसकेषु च।
तपोविशेषैर्बहुभिः कर्षयद् देहमात्मनः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस पवित्र कन्याने पंचगंगामें तथा वेतसवनमें बहुत-सी भिन्न-भिन्न तपस्याओंद्वारा अपने शरीरको अत्यन्त दुर्बल कर दिया॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो गत्वा तु सा गङ्गां महामेरुं च केवलम्।
तस्थौ चाश्मेव निश्चेष्टा प्राणायामपरायणा ॥ २४ ॥

मूलम्

ततो गत्वा तु सा गङ्गां महामेरुं च केवलम्।
तस्थौ चाश्मेव निश्चेष्टा प्राणायामपरायणा ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद वह गंगाजीके तट और प्रमुख तीर्थ महामेरुके शिखरपर जाकर प्राणायाममें तत्पर हो प्रस्तर-मूर्तिकी भाँति निश्चेष्ट भावसे बैठी रही॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुनर्हिमवतो मूर्ध्नि यत्र देवाः पुरायजन्।
तत्राङ्‌गुष्ठेन सा तस्थौ निखर्वं परमा शुभा ॥ २५ ॥

मूलम्

पुनर्हिमवतो मूर्ध्नि यत्र देवाः पुरायजन्।
तत्राङ्‌गुष्ठेन सा तस्थौ निखर्वं परमा शुभा ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर हिमालयके शिखरपर जहाँ पहले देवताओंने यज्ञ किया था, वहाँ वह परम शुभलक्षणा कन्या एक निखर्व वर्षोंतक अँगूठेके बलपर खड़ी रही॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुष्करेष्वथ गोकर्णे नैमिषे मलये तथा।
अपाकर्षत् स्वकं देहं नियमैर्मानसप्रियैः ॥ २६ ॥

मूलम्

पुष्करेष्वथ गोकर्णे नैमिषे मलये तथा।
अपाकर्षत् स्वकं देहं नियमैर्मानसप्रियैः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर पुष्कर, गोकर्ण, नैमिषारण्य तथा मलयाचलके तीर्थोंमें रहकर मनको प्रिय लगनेवाले नियमोंद्वारा उसने अपने शरीरको अत्यन्त क्षीण कर दिया॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनन्यदेवता नित्यं दृढभक्ता पितामहे।
तस्थौ पितामहं चैव तोषयामास धर्मतः ॥ २७ ॥

मूलम्

अनन्यदेवता नित्यं दृढभक्ता पितामहे।
तस्थौ पितामहं चैव तोषयामास धर्मतः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दूसरे किसी देवतामें मन न लगाकर वह सदा पितामह ब्रह्मामें ही सुदृढ़ भक्तिभाव रखती थी। उस कन्याने अपने धर्माचरणसे पितामहको संतुष्ट कर लिया॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तामब्रवीत् प्रीतो लोकानां प्रभवोऽव्ययः।
सौम्येन मनसा राजन् प्रीतः प्रीतमनास्तदा ॥ २८ ॥

मूलम्

ततस्तामब्रवीत् प्रीतो लोकानां प्रभवोऽव्ययः।
सौम्येन मनसा राजन् प्रीतः प्रीतमनास्तदा ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! तब लोकोंकी उत्पत्तिके कारणभूत अविनाशी ब्रह्मा उस समय मन-ही-मन अत्यन्त प्रसन्न हो सौम्य हृदयसे प्रीतिपूर्वक उससे बोले—॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मृत्यो किमिदमत्यन्तं तपांसि चरसीति ह।
ततोऽब्रवीत् पुनर्मृत्युर्भगवन्तं पितामहम् ॥ २९ ॥

मूलम्

मृत्यो किमिदमत्यन्तं तपांसि चरसीति ह।
ततोऽब्रवीत् पुनर्मृत्युर्भगवन्तं पितामहम् ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मृत्यो! तू किसलिये इस प्रकार अत्यन्त कठोर तपस्या कर रही है?’ तब मृत्युने भगवान् पितामहसे फिर इस प्रकार कहा—॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाहं हन्यां प्रजा देव स्वस्थाश्चाक्रोशतीस्तथा।
एतदिच्छामि सर्वेश त्वत्तो वरमहं प्रभो ॥ ३० ॥

मूलम्

नाहं हन्यां प्रजा देव स्वस्थाश्चाक्रोशतीस्तथा।
एतदिच्छामि सर्वेश त्वत्तो वरमहं प्रभो ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘देव! प्रभो! सर्वेश्वर! मैं आपसे यही वर पाना चाहती हूँ कि मुझे रोती-चिल्लाती हुई स्वस्थ प्रजाओंका वध न करना पड़े॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अधर्मभयभीतास्मि ततोऽहं तप आस्थिता।
भीतायास्तु महाभाग प्रयच्छाभयमव्यय ॥ ३१ ॥

मूलम्

अधर्मभयभीतास्मि ततोऽहं तप आस्थिता।
भीतायास्तु महाभाग प्रयच्छाभयमव्यय ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाभाग! मैं अधर्मके भयसे बहुत डरती हूँ, इसीलिये तपस्यामें लगी हुई हूँ। अविनाशी परमेश्वर! मुझ भयभीत अबलाको अभय-दान दीजिये॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आर्ता चानागसी नारी याचामि भव मे गतिः।
तामब्रवीत् ततो देवो भूतभव्यभविष्यवित् ॥ ३२ ॥

मूलम्

आर्ता चानागसी नारी याचामि भव मे गतिः।
तामब्रवीत् ततो देवो भूतभव्यभविष्यवित् ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नाथ! मैं एक निरपराध नारी हूँ और आपके सामने आर्तभावसे याचना करती हूँ, आप मेरे आश्रयदाता हों।’ तब भूत, भविष्य और वर्तमानके ज्ञाता भगवान् ब्रह्माने उससे कहा—॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अधर्मो नास्ति ते मृत्यो संहरन्त्या इमाः प्रजाः।
मया चोक्तं मृषा भद्रे भविता न कथंचन ॥ ३३ ॥

मूलम्

अधर्मो नास्ति ते मृत्यो संहरन्त्या इमाः प्रजाः।
मया चोक्तं मृषा भद्रे भविता न कथंचन ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मृत्यो! इन प्रजाओंका संहार करनेसे तुझे अधर्म नहीं होगा। भद्रे! मेरी कही हुई बात किसी प्रकार झूठी नहीं हो सकती॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मात् संहर कल्याणि प्रजाः सर्वाश्चतुर्विधाः।
धर्मः सनातनश्च त्वां सर्वथा पावयिष्यति ॥ ३४ ॥

मूलम्

तस्मात् संहर कल्याणि प्रजाः सर्वाश्चतुर्विधाः।
धर्मः सनातनश्च त्वां सर्वथा पावयिष्यति ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इसलिये कल्याणि! तू चार श्रेणियोंमें विभाजित समस्त प्राणियोंका संहार कर। सनातनधर्म तुझे सब प्रकारसे पवित्र बनाये रखेगा॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोकपालो यमश्चैव सहाया व्याधयश्च ते।
अहं च विबुधाश्चैव पुनर्दास्याम ते वरम् ॥ ३५ ॥
यथा त्वमेनसा मुक्ता विरजाः ख्यातिमेष्यसि।

मूलम्

लोकपालो यमश्चैव सहाया व्याधयश्च ते।
अहं च विबुधाश्चैव पुनर्दास्याम ते वरम् ॥ ३५ ॥
यथा त्वमेनसा मुक्ता विरजाः ख्यातिमेष्यसि।

अनुवाद (हिन्दी)

‘लोकपाल, यम तथा नाना प्रकारकी व्याधियाँ तेरी सहायता करेंगी। मैं और सम्पूर्ण देवता तुझे पुनः वरदान देंगे, जिससे तू पापमुक्त हो अपने निर्मल स्वरूपसे विख्यात होगी’॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सैवमुक्ता महाराज कृताञ्जलिरिदं विभुम् ॥ ३६ ॥
पुनरेवाब्रवीद् वाक्यं प्रसाद्य शिरसा तदा।

मूलम्

सैवमुक्ता महाराज कृताञ्जलिरिदं विभुम् ॥ ३६ ॥
पुनरेवाब्रवीद् वाक्यं प्रसाद्य शिरसा तदा।

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! उनके ऐसा कहनेपर मृत्यु हाथ जोड़ मस्तक झुकाकर भगवान् ब्रह्माको प्रसन्न करके उस समय पुनः यह वचन बोली—॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद्येवमेतत् कर्तव्यं मया न स्याद् विना प्रभो ॥ ३७ ॥
तवाज्ञा मूर्ध्नि मे न्यस्ता यत्‌ ते वक्ष्यामि तच्छृणु।

मूलम्

यद्येवमेतत् कर्तव्यं मया न स्याद् विना प्रभो ॥ ३७ ॥
तवाज्ञा मूर्ध्नि मे न्यस्ता यत्‌ ते वक्ष्यामि तच्छृणु।

अनुवाद (हिन्दी)

‘प्रभो! यदि इस प्रकार यह कार्य मेरे बिना नहीं हो सकता तो आपकी आज्ञा मैंने शिरोधार्य कर ली है, परंतु इसके विषयमें मैं आपसे जो कुछ कहती हूँ, उसे (ध्यान देकर) सुनिये॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोभः क्रोधोऽभ्यसूयेर्ष्या द्रोहो मोहश्च देहिनाम् ॥ ३८ ॥
अह्रीश्चान्योन्यपरुषा देहं भिन्द्युः पृथग्विधाः।

मूलम्

लोभः क्रोधोऽभ्यसूयेर्ष्या द्रोहो मोहश्च देहिनाम् ॥ ३८ ॥
अह्रीश्चान्योन्यपरुषा देहं भिन्द्युः पृथग्विधाः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘लोभ, क्रोध, असूया, ईर्ष्या, द्रोह, मोह, निर्लज्जता और एक-दूसरेके प्रति कही हुई कठोर वाणी—ये विभिन्न दोष ही देहधारियोंकी देहका भेदन करें’॥३८॥

मूलम् (वचनम्)

ब्रह्मोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा भविष्यते मृत्यो साधु संहर भोः प्रजाः।
अधर्मस्ते न भविता नापध्यास्याम्यहं शुभे ॥ ३९ ॥

मूलम्

तथा भविष्यते मृत्यो साधु संहर भोः प्रजाः।
अधर्मस्ते न भविता नापध्यास्याम्यहं शुभे ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्माजीने कहा— मृत्यो! ऐसा ही होगा। तू उत्तम रीतिसे प्राणियोंका संहार कर। शुभे! इससे तुझे पाप नहीं लगेगा और मैं भी तेरा अनिष्ट-चिन्तन नहीं करूँगा॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यान्यश्रुबिन्दूनि करे ममासं-
स्ते व्याधयः प्राणिनामात्मजाताः ।
ते मारयिष्यन्ति नरान् गतासून्
नाधर्मस्ते भविता मा स्म भैषीः ॥ ४० ॥

मूलम्

यान्यश्रुबिन्दूनि करे ममासं-
स्ते व्याधयः प्राणिनामात्मजाताः ।
ते मारयिष्यन्ति नरान् गतासून्
नाधर्मस्ते भविता मा स्म भैषीः ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तेरे आँसुओंकी बूँदें, जिन्हें मैंने हाथमें ले लिया था, प्राणियोंके अपने ही शरीरोंसे उत्पन्न हुई व्याधियाँ बनकर गतायु प्राणियोंका नाश करेंगी। तुझे अधर्मकी प्राप्ति नहीं होगी; इसलिये तू भय न कर॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाधर्मस्ते भविता प्राणिनां वै
त्वं वै धर्मस्त्वं हि धर्मस्य चेशा।
धर्म्या भूत्वा धर्मनित्या धरित्री
तस्मात् प्राणान्‌ सर्वथेमान् नियच्छ ॥ ४१ ॥

मूलम्

नाधर्मस्ते भविता प्राणिनां वै
त्वं वै धर्मस्त्वं हि धर्मस्य चेशा।
धर्म्या भूत्वा धर्मनित्या धरित्री
तस्मात् प्राणान्‌ सर्वथेमान् नियच्छ ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

निश्चय ही, तुझे पाप नहीं लगेगा। तू प्राणियोंका धर्म और उस धर्मकी स्वामिनी होगी। अतः सदा धर्ममें तत्पर रहनेवाली और धर्मानुकूल जीवन बितानेवाली धरित्री होकर इन समस्त जीवोंके प्राणोंका नियन्त्रण कर॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वेषां वै प्राणिनां कामरोषौ
संत्यज्य त्वं संहरस्वेह जीवान्।
एवं धर्मस्त्वां भविष्यत्यनन्तो
मिथ्यावृत्तान् मारयिष्यत्यधर्मः ॥ ४२ ॥

मूलम्

सर्वेषां वै प्राणिनां कामरोषौ
संत्यज्य त्वं संहरस्वेह जीवान्।
एवं धर्मस्त्वां भविष्यत्यनन्तो
मिथ्यावृत्तान् मारयिष्यत्यधर्मः ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

काम और क्रोधका परित्याग करके इस जगत्‌के समस्त प्राणियोंके प्राणोंका संहार कर। ऐसा करनेसे तुझे अक्षय धर्मकी प्राप्ति होगी। मिथ्याचारी पुरुषोंको तो उनका अधर्म ही मार डालेगा॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेनात्मानं पावयस्वात्मना त्वं
पापेऽऽत्मानं मज्जयिष्यन्त्यसत्यात् ।
तस्मात् कामं रोषमप्यागतं त्वं
संत्यज्यान्तः संहरस्वेति जीवान् ॥ ४३ ॥

मूलम्

तेनात्मानं पावयस्वात्मना त्वं
पापेऽऽत्मानं मज्जयिष्यन्त्यसत्यात् ।
तस्मात् कामं रोषमप्यागतं त्वं
संत्यज्यान्तः संहरस्वेति जीवान् ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तू धर्माचरणद्वारा स्वयं ही अपने-आपको पवित्र कर। असत्यका आश्रय लेनेसे प्राणी स्वयं अपने-आपको पापपंकमें डुबो लेंगे। इसलिये अपने मनमें आये हुए काम और क्रोधका त्याग करके तू समस्त जीवोंका संहार कर॥४३॥

मूलम् (वचनम्)

नारद उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा वै भीता मृत्युसंज्ञोपदेशा-
च्छापाद् भीता बाढमित्यब्रवीत्‌ तम्।
सा च प्राणं प्राणिनामन्तकाले
कामक्रोधौ त्यज्य हरत्यसक्ता ॥ ४४ ॥

मूलम्

सा वै भीता मृत्युसंज्ञोपदेशा-
च्छापाद् भीता बाढमित्यब्रवीत्‌ तम्।
सा च प्राणं प्राणिनामन्तकाले
कामक्रोधौ त्यज्य हरत्यसक्ता ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नारदजी कहते हैं— राजन्! वह मृत्यु नामवाली नारी ब्रह्माजीके उस उपदेशसे और विशेषतः उनके शापके भयसे भीत होकर उनसे बोली—‘बहुत अच्छा, आपकी आज्ञा स्वीकार है’। वही मृत्यु अन्तकाल आनेपर काम और क्रोधका परित्याग करके अनासक्तभावसे समस्त प्राणियोंके प्राणोंका अपहरण करती है॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मृत्युस्त्वेषां व्याधयस्तत्प्रसूता
व्याधी रोगो रुज्यते येन जन्तुः।
सर्वेषां च प्राणिनां प्रायणान्ते
तस्माच्छोकं मा कृथा निष्फलं त्वम् ॥ ४५ ॥

मूलम्

मृत्युस्त्वेषां व्याधयस्तत्प्रसूता
व्याधी रोगो रुज्यते येन जन्तुः।
सर्वेषां च प्राणिनां प्रायणान्ते
तस्माच्छोकं मा कृथा निष्फलं त्वम् ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यही प्राणियोंकी मृत्यु है, इसीसे व्याधियोंकी उत्पत्ति हुई है। व्याधि नाम है रोगका, जिससे प्राणी रुग्ण होता है (उसका स्वास्थ्य भंग होता है)। आयु समाप्त होनेपर सभी प्राणियोंकी मृत्यु इसी प्रकार होती है। अतः राजन्! तुम व्यर्थ शोक न करो॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वे देवाः प्राणिभिः प्रायणान्ते
गत्वा वृत्ताः संनिवृत्तास्तथैव ।
एवं सर्वे प्राणिनस्तत्र गत्वा
वृत्ता देवा मर्त्यवद् राजसिंह ॥ ४६ ॥

मूलम्

सर्वे देवाः प्राणिभिः प्रायणान्ते
गत्वा वृत्ताः संनिवृत्तास्तथैव ।
एवं सर्वे प्राणिनस्तत्र गत्वा
वृत्ता देवा मर्त्यवद् राजसिंह ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आयुके अन्तमें सारी इन्द्रियाँ प्राणियोंके साथ परलोकमें जाकर स्थित होती हैं और पुनः उनके साथ ही इस लोकमें लौट आती हैं। नृपश्रेष्ठ! इस प्रकार सभी प्राणी देवलोकमें जाकर वहाँ देवस्वरूपमें स्थित होते हैं तथा वे कर्मदेवता मनुष्योंकी भाँति भोगोंकी समाप्ति होनेपर पुनः इस लोकमें लौट आते हैं॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वायुर्भीमो भीमनादो महौजा
भेत्ता देहान् प्राणिनां सर्वगोऽसौ।
नो वाऽऽवृतिं नैव वृत्तिं कदाचित्
प्राप्नोत्युग्रोऽनन्ततेजोविशिष्टः ॥ ४७ ॥

मूलम्

वायुर्भीमो भीमनादो महौजा
भेत्ता देहान् प्राणिनां सर्वगोऽसौ।
नो वाऽऽवृतिं नैव वृत्तिं कदाचित्
प्राप्नोत्युग्रोऽनन्ततेजोविशिष्टः ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भयंकर शब्द करनेवाला महान् बलशाली भयानक प्राणवायु प्राणियोंके शरीरोंका ही भेदन करता है (चेतन आत्माका नहीं, क्योंकि) वह सर्वव्यापी, उग्र प्रभावशाली और अनन्त तेजसे सम्पन्न है। उसका कभी आवागमन नहीं होता॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वे देवा मर्त्यसंज्ञाविशिष्टा-
स्तस्मात् पुत्रं मा शुचो राजसिंह।
स्वर्गं प्राप्तो मोदते ते तनूजो
नित्यं रम्यान् वीरलोकानवाप्य ॥ ४८ ॥

मूलम्

सर्वे देवा मर्त्यसंज्ञाविशिष्टा-
स्तस्मात् पुत्रं मा शुचो राजसिंह।
स्वर्गं प्राप्तो मोदते ते तनूजो
नित्यं रम्यान् वीरलोकानवाप्य ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजसिंह! सम्पूर्ण देवता भी मर्त्य (मरणधर्मा) नामसे विभूषित हैं, इसलिये तुम अपने पुत्रके लिये शोक न करो। तुम्हारा पुत्र स्वर्गलोकमें जा पहुँचा है और नित्य रमणीय वीर-लोकोंमें रहकर आनन्दका अनुभव करता है॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्यक्त्वा दुःखं संगतः पुण्यकृद्भि-
रेषा मृत्युर्देवदिष्टा प्रजानाम् ।
प्राप्ते काले संहरन्ती यथावत्
स्वयं कृता प्राणहरा प्रजानाम् ॥ ४९ ॥

मूलम्

त्यक्त्वा दुःखं संगतः पुण्यकृद्भि-
रेषा मृत्युर्देवदिष्टा प्रजानाम् ।
प्राप्ते काले संहरन्ती यथावत्
स्वयं कृता प्राणहरा प्रजानाम् ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह दुःखका परित्याग करके पुण्यात्मा पुरुषोंसे जा मिला है। प्राणियोंके लिये यह मृत्यु भगवान्‌की ही दी हुई है; जो समय आनेपर यथोचितरूपसे (प्रजाजनोंका) संहार करती है। प्रजावर्गके प्राण लेनेवाली इस मृत्युको स्वयं ब्रह्माजीने ही रचा है॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आत्मानं वै प्राणिनो घ्नन्ति सर्वे
नैतान् मृत्युर्दण्डपाणिर्हिनस्ति ।
तस्मान्मृतान् नानुशोचन्ति धीरा
मृत्युं ज्ञात्वा निश्चयं ब्रह्मसृष्टम्।
इत्थं सृष्टिं देवक्लृप्तां विदित्वा
पुत्रान्नष्टाच्छोकमाशु त्यजस्व ॥ ५० ॥

मूलम्

आत्मानं वै प्राणिनो घ्नन्ति सर्वे
नैतान् मृत्युर्दण्डपाणिर्हिनस्ति ।
तस्मान्मृतान् नानुशोचन्ति धीरा
मृत्युं ज्ञात्वा निश्चयं ब्रह्मसृष्टम्।
इत्थं सृष्टिं देवक्लृप्तां विदित्वा
पुत्रान्नष्टाच्छोकमाशु त्यजस्व ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सब प्राणी स्वयं ही अपने-आपको मारते हैं। मृत्यु हाथमें डंडा लेकर इनका वध नहीं करती है। अतः धीर पुरुष मृत्युको ब्रह्माजीका रचा हुआ निश्चित विधान समझकर मरे हुए प्राणियोंके लिये कभी शोक नहीं करते हैं। इस प्रकार ब्रह्माजीकी बनायी हुई सारी सृष्टिको ही मृत्युके वशीभूत जानकर तुम अपने पुत्रके मर जानेसे प्राप्त होनेवाले शोकका शीघ्र परित्याग कर दो॥५०॥

मूलम् (वचनम्)

द्वैपायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतच्छ्रुत्वार्थवद् वाक्यं नारदेन प्रकाशितम्।
उवाचाकम्पनो राजा सखायं नारदं तथा ॥ ५१ ॥

मूलम्

एतच्छ्रुत्वार्थवद् वाक्यं नारदेन प्रकाशितम्।
उवाचाकम्पनो राजा सखायं नारदं तथा ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

व्यासजी कहते हैं— युधिष्ठिर! नारदजीकी कही हुई यह अर्थभरी बात सुनकर राजा अकम्पन अपने मित्र नारदसे इस प्रकार बोले—॥५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्यपेतशोकः प्रीतोऽस्मि भगवन्नृषिसत्तम ।
श्रुत्वेतिहासं त्वत्तस्तु कृतार्थोऽस्म्यभिवादये ॥ ५२ ॥

मूलम्

व्यपेतशोकः प्रीतोऽस्मि भगवन्नृषिसत्तम ।
श्रुत्वेतिहासं त्वत्तस्तु कृतार्थोऽस्म्यभिवादये ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भगवन्! मुनिश्रेष्ठ! आपके मुँहसे यह इतिहास सुनकर मेरा शोक दूर हो गया। मैं प्रसन्न और कृतार्थ हो गया हूँ और आपके चरणोंमें प्रणाम करता हूँ॥५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथोक्तो नारदस्तेन राज्ञा ऋषिवरोत्तमः।
जगाम नन्दनं शीघ्रं देवर्षिरमितात्मवान् ॥ ५३ ॥

मूलम्

तथोक्तो नारदस्तेन राज्ञा ऋषिवरोत्तमः।
जगाम नन्दनं शीघ्रं देवर्षिरमितात्मवान् ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा अकम्पनके इस प्रकार कहनेपर ऋषियोंमें श्रेष्ठतम अमितात्मा देवर्षि नारद शीघ्र ही नन्दन वनको चले गये॥५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुण्यं यशस्यं स्वर्ग्यं च धन्यमायुष्यमेव च।
अस्येतिहासस्य सदा श्रवणं श्रावणं तथा ॥ ५४ ॥

मूलम्

पुण्यं यशस्यं स्वर्ग्यं च धन्यमायुष्यमेव च।
अस्येतिहासस्य सदा श्रवणं श्रावणं तथा ॥ ५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो इस इतिहासको सदा सुनता और सुनाता है, उसके लिये यह पुण्य, यश, स्वर्ग, धन तथा आयु प्रदान करनेवाला है॥५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतदर्थपदं श्रुत्वा तदा राजा युधिष्ठिर।
क्षत्रधर्मं च विज्ञाय शूराणां च परां गतिम् ॥ ५५ ॥
सम्प्राप्तोऽसौ महावीर्यः स्वर्गलोकं महारथः।

मूलम्

एतदर्थपदं श्रुत्वा तदा राजा युधिष्ठिर।
क्षत्रधर्मं च विज्ञाय शूराणां च परां गतिम् ॥ ५५ ॥
सम्प्राप्तोऽसौ महावीर्यः स्वर्गलोकं महारथः।

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर! उस समय महारथी महापराक्रमी राजा अकम्पन इस उत्तम अर्थको प्रकाशित करनेवाले वृत्तान्तको सुनकर तथा क्षत्रियधर्म एवं शूरवीरोंकी परम गतिके विषयमें जानकर यथासमय स्वर्गलोकको प्राप्त हुए॥५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिमन्युः परान् हत्वा प्रमुखे सर्वधन्विनाम् ॥ ५६ ॥
युध्यमानो महेष्वासो हतः सोऽभिमुखो रणे।
असिना गदया शक्त्या धनुषा च महारथः।
विरजाः सोमसूनुः स पुनस्तत्र प्रलीयते ॥ ५७ ॥

मूलम्

अभिमन्युः परान् हत्वा प्रमुखे सर्वधन्विनाम् ॥ ५६ ॥
युध्यमानो महेष्वासो हतः सोऽभिमुखो रणे।
असिना गदया शक्त्या धनुषा च महारथः।
विरजाः सोमसूनुः स पुनस्तत्र प्रलीयते ॥ ५७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाधनुर्धर अभिमन्यु पूर्वजन्ममें चन्द्रमाका पुत्र था, वह महारथी वीर समरांगणमें समस्त धनुर्धरोंके सामने शत्रुओंका वध करके खड्‌ग, शक्ति, गदा और धनुषद्वारा सम्मुख युद्ध करता हुआ मारा गया है तथा दुःखरहित हो पुनः चन्द्रलोकमें ही चला गया है॥५६-५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मात् परां धृतिं कृत्वा भ्रातृभिः सह पाण्डव।
अप्रमत्तः सुसंनद्धः शीघ्रं योद्धुमुपाक्रम ॥ ५८ ॥

मूलम्

तस्मात् परां धृतिं कृत्वा भ्रातृभिः सह पाण्डव।
अप्रमत्तः सुसंनद्धः शीघ्रं योद्धुमुपाक्रम ॥ ५८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः पाण्डुनन्दन! तुम भाइयोंसहित उत्तम धैर्य धारण करके प्रमाद छोड़कर भलीभाँति कवच आदिसे सुसज्जित हो पुनः शीघ्र ही युद्धके लिये तैयार हो जाओ॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते द्रणेपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि मृत्युप्रजापतिसंवादे चतुःपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५४ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत अभिमन्युवधपर्वमें मृत्युप्रजापतिसंवादविषयक चौवनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५४॥