०५३ मृत्युकथने

भागसूचना

त्रिपञ्चाशत्तमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

शंकर और ब्रह्माका संवाद, मृत्युकी उत्पत्ति तथा उसे समस्त प्रजाके संहारका कार्य सौंपा जाना

मूलम् (वचनम्)

स्थाणुरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रजासर्गनिमित्तं हि कृतो यत्नस्त्वया विभो।
त्वया सृष्टाश्च वृद्धाश्च भूतग्रामाः पृथग्विधाः ॥ १ ॥

मूलम्

प्रजासर्गनिमित्तं हि कृतो यत्नस्त्वया विभो।
त्वया सृष्टाश्च वृद्धाश्च भूतग्रामाः पृथग्विधाः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्थाणु (रुद्रदेव)-ने कहा— प्रभो! आपने प्रजाकी सृष्टिके लिये स्वयं ही यत्न किया है। आपने ही नाना प्रकारके प्राणिसमुदायकी सृष्टि एवं वृद्धि की है॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तास्तवेह पुनः क्रोधात् प्रजा दह्यन्ति सर्वशः।
ता दृष्ट्त्वा मम कारुण्यं प्रसीद भगवन् प्रभो ॥ २ ॥

मूलम्

तास्तवेह पुनः क्रोधात् प्रजा दह्यन्ति सर्वशः।
ता दृष्ट्त्वा मम कारुण्यं प्रसीद भगवन् प्रभो ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपकी वे ही सारी प्रजाएँ पुनः आपके ही क्रोधसे यहाँ दग्ध हो रही हैं। इससे उनके प्रति मेरे हृदयमें करुणा भर आयी है। अतः भगवन्! प्रभो! आप उन प्रजाओंपर कृपादृष्टि करके प्रसन्न होइये॥२॥

मूलम् (वचनम्)

ब्रह्मोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

संहर्तुं न च मे काम एतदेवं भवेदिति।
पृथिव्या हितकामं तु ततो मां मन्युराविशत् ॥ ३ ॥

मूलम्

संहर्तुं न च मे काम एतदेवं भवेदिति।
पृथिव्या हितकामं तु ततो मां मन्युराविशत् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्माजी बोले— रुद्र! मेरी इच्छा यह नहीं है कि इस प्रकार इस जगत्‌का संहार हो। वसुधाके हितके लिये ही मेरे मनमें क्रोधका आवेश हुआ था॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इयं हि मां सहा देवी भारार्ता समचूचुदत्।
संहारार्थं महादेव भारेणाभिहता सती ॥ ४ ॥

मूलम्

इयं हि मां सहा देवी भारार्ता समचूचुदत्।
संहारार्थं महादेव भारेणाभिहता सती ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महादेव! इस पृथ्वीदेवीने भारसे पीड़ित होकर मुझे जगत्‌के संहारके लिये प्रेरित किया था। यह सती-साध्वी देवी महान् भारसे दबी हुई थी॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽहं नाधिगच्छामि तथा बहुविधं तदा।
संहारमप्रमेयस्य ततो मां मन्युराविशत् ॥ ५ ॥

मूलम्

ततोऽहं नाधिगच्छामि तथा बहुविधं तदा।
संहारमप्रमेयस्य ततो मां मन्युराविशत् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैंने अनेक प्रकारसे इस अनन्त जगत्‌के संहारके उपायपर विचार किया, परंतु मुझे कोई उपाय सूझ न पड़ा। इसीलिये मुझमें क्रोधका आवेश हो गया॥५॥

मूलम् (वचनम्)

रुद्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

संहारार्थं प्रसीदस्व मा रुषो वसुधाधिप।
मा प्रजाः स्थावराश्चैव जंगमाश्च व्यनीनशः ॥ ६ ॥

मूलम्

संहारार्थं प्रसीदस्व मा रुषो वसुधाधिप।
मा प्रजाः स्थावराश्चैव जंगमाश्च व्यनीनशः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रुद्रने कहा— वसुधाके स्वामी पितामह! आप रोष न कीजिये। जगत्‌का संहार बंद करनेके लिये प्रसन्न होइये। इन स्थावर-जंगम प्राणियोंका विनाश न कीजिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तव प्रसादाद् भगवन्निदं वर्तेत् त्रिधा जगत्।
अनागतमतीतं च यच्च सम्प्रति वर्तते ॥ ७ ॥

मूलम्

तव प्रसादाद् भगवन्निदं वर्तेत् त्रिधा जगत्।
अनागतमतीतं च यच्च सम्प्रति वर्तते ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवन्! आपकी कृपासे यह जगत् भूत, भविष्य और वर्तमान—तीन रूपोंमें विभक्त हो जाय॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगवन् क्रोधसंदीप्तः क्रोधादग्निमवासृजत् ।
स दहत्यश्मकूटानि द्रुमांश्च सरितस्तथा ॥ ८ ॥

मूलम्

भगवन् क्रोधसंदीप्तः क्रोधादग्निमवासृजत् ।
स दहत्यश्मकूटानि द्रुमांश्च सरितस्तथा ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! आपने क्रोधसे प्रज्वलित होकर क्रोधपूर्वक जिस अग्निकी सृष्टि की है, वह पर्वत-शिखरों, वृक्षों और सरिताओंको दग्ध कर रही है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पल्वलानि च सर्वाणि सर्वांश्चैव तृपोलपान्।
स्थावरं जङ्गमं चैव निःशेषं कुरुते जगत् ॥ ९ ॥
तदेतद् भस्मसाद्भूतं जगत् स्थावरजङ्गमम्।
प्रसीद भगवन् स त्वं रोषो न स्याद् वरो मम॥१०॥

मूलम्

पल्वलानि च सर्वाणि सर्वांश्चैव तृपोलपान्।
स्थावरं जङ्गमं चैव निःशेषं कुरुते जगत् ॥ ९ ॥
तदेतद् भस्मसाद्भूतं जगत् स्थावरजङ्गमम्।
प्रसीद भगवन् स त्वं रोषो न स्याद् वरो मम॥१०॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह समस्त छोटे-छोटे जलाशयों, सब प्रकारके तृण और लताओं तथा स्थावर और जंगम जगत्‌को सम्पूर्णरूपसे नष्ट कर रही है। इस प्रकार यह सारा चराचर जगत् जलकर भस्म हो गया। भगवन्! आप प्रसन्न होइये। आपके मनमें रोष न हो, यही मेरे लिये आपकी ओरसे वर प्राप्त हो॥९-१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वे हि सृष्टा नश्यन्ति तव देव कथंचन।
तस्मान्निवर्ततां तेजस्त्वय्येवेदं प्रलीयताम् ॥ ११ ॥

मूलम्

सर्वे हि सृष्टा नश्यन्ति तव देव कथंचन।
तस्मान्निवर्ततां तेजस्त्वय्येवेदं प्रलीयताम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देव! आपके रचे हुए समस्त प्राणी किसी-न-किसी रूपमें नष्ट होते चले जा रहे हैं; अतः आपका यह तेजस्वरूप क्रोध जगत्‌के संहारसे निवृत्त हो आपमें ही विलीन हो जाय॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत् पश्य देव सुभृशं प्रजानां हितकाम्यया।
यथेमे प्राणिनः सर्वे निवर्तेरंस्तथा कुरु ॥ १२ ॥

मूलम्

तत् पश्य देव सुभृशं प्रजानां हितकाम्यया।
यथेमे प्राणिनः सर्वे निवर्तेरंस्तथा कुरु ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! आप प्रजावर्गके अत्यन्त हितकी इच्छासे इनकी ओर कृपापूर्ण दृष्टिसे देखिये, जिससे ये समस्त प्राणी नष्ट होनेसे बच जायँ, वैसा कीजिये॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभावं नेह गच्छेयुरुत्सन्नजननाः प्रजाः।
आदिदेव नियुक्तोऽस्मि त्वया लोकेषु लोककृत् ॥ १३ ॥

मूलम्

अभावं नेह गच्छेयुरुत्सन्नजननाः प्रजाः।
आदिदेव नियुक्तोऽस्मि त्वया लोकेषु लोककृत् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संतानोंका नाश हो जानेसे इस जगत्‌के सम्पूर्ण प्राणियोंका अभाव न हो जाय। आदिदेव! आपने सम्पूर्ण लोकोंमें मुझे लोकस्रष्टाके पदपर नियुक्त किया है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मा विनश्येज्जगन्नाथ जगत् स्थावरजङ्गमम्।
प्रसादाभिमुखं देवं तस्मादेवं ब्रवीम्यहम् ॥ १४ ॥

मूलम्

मा विनश्येज्जगन्नाथ जगत् स्थावरजङ्गमम्।
प्रसादाभिमुखं देवं तस्मादेवं ब्रवीम्यहम् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जगन्नाथ! यह चराचर जगत् नष्ट न हो, इसीलिये सदा कृपा करनेको उद्यत रहनेवाले प्रभुके सामने मैं ऐसी प्रार्थना कर रहा हूँ॥१४॥

मूलम् (वचनम्)

नारद उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुत्वा हि वचनं देवः प्रजानां हितकारणे।
तेजः संधारयामास पुनरेवान्तरात्मनि ॥ १५ ॥

मूलम्

श्रुत्वा हि वचनं देवः प्रजानां हितकारणे।
तेजः संधारयामास पुनरेवान्तरात्मनि ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नारदजी कहते हैं— राजन्! प्रजाके हितके लिये महादेवका यह वचन सुनकर भगवान् ब्रह्माने पुनः अपनी अन्तरात्मामें ही उस तेज (क्रोध)-को धारण कर लिया॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽग्निमुपसंहृत्य भगवाल्ँलोकसत्कृतः ।
प्रवृत्तं च निवृत्तं च कथयामास वै प्रभुः ॥ १६ ॥

मूलम्

ततोऽग्निमुपसंहृत्य भगवाल्ँलोकसत्कृतः ।
प्रवृत्तं च निवृत्तं च कथयामास वै प्रभुः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब विश्ववन्दित भगवान् ब्रह्माने उस अग्निका उपसंहार करके मनुष्योंके लिये प्रवृत्ति (कर्म) और निवृत्ति (ज्ञान) मार्गोंका उपदेश दिया॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपसंहरतस्तस्य तमग्निं रोषजं तथा।
प्रादुर्बभूव विश्वेभ्यो गोभ्यो नारी महात्मनः ॥ १७ ॥
कृष्णरक्ता तथा पिङ्गरक्तजिह्वास्यलोचना ।
कुण्डलाभ्यां च राजेन्द्र तप्ताभ्यां तप्तभूषणा ॥ १८ ॥

मूलम्

उपसंहरतस्तस्य तमग्निं रोषजं तथा।
प्रादुर्बभूव विश्वेभ्यो गोभ्यो नारी महात्मनः ॥ १७ ॥
कृष्णरक्ता तथा पिङ्गरक्तजिह्वास्यलोचना ।
कुण्डलाभ्यां च राजेन्द्र तप्ताभ्यां तप्तभूषणा ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस क्रोधाग्निका उपसंहार करते समय महात्मा ब्रह्माजीकी सम्पूर्ण इन्द्रियोंसे एक नारी प्रकट हुई, जो काले और लाल रंगकी थी। उसकी जिह्वा, मुख और नेत्र पीले और लाल रंगके थे। राजेन्द्र! वह तपाये हुए सोनेके कुण्डलोंसे सुशोभित थी और उसके सभी आभूषण तप्त सुवर्णके बने हुए थे॥१७-१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा निःसृत्य तथा खेभ्यो दक्षिणां दिशमाश्रिता।
स्मयमाना च सावेक्ष्य देवौ विश्वेश्वरावुभौ ॥ १९ ॥

मूलम्

सा निःसृत्य तथा खेभ्यो दक्षिणां दिशमाश्रिता।
स्मयमाना च सावेक्ष्य देवौ विश्वेश्वरावुभौ ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह उनकी इन्द्रियोंसे निकलकर दक्षिण दिशामें खड़ी हुई और उन दोनों देवताओं एवं जगदीश्वरोंकी ओर देखकर मन्द-मन्द मुसकराने लगी॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तामाहूय तदा देवो लोकादिनिधनेश्वरः।
(उक्तवान् मधुरं वाक्यं सान्त्वयित्वा पुनः पुनः।)
मृत्यो इति महीपाल जहि चेमाः प्रजा इति ॥ २० ॥

मूलम्

तामाहूय तदा देवो लोकादिनिधनेश्वरः।
(उक्तवान् मधुरं वाक्यं सान्त्वयित्वा पुनः पुनः।)
मृत्यो इति महीपाल जहि चेमाः प्रजा इति ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महीपाल! उस समय सम्पूर्ण लोकोंके आदि और अन्तके स्वामी ब्रह्माजीने उस नारीको अपने पास बुलाकर उसे बारंबार सान्त्वना देते हुए मधुर वाणीमें ‘मृत्यो’ (हे मृत्यु) कह करके पुकारा और कहा—‘तू इन समस्त प्रजाओंका संहार कर॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वं हि संहारबुद्ध्याथ प्रादुर्भूता रुषो मम।
तस्मात् संहर सर्वांस्त्वं प्रजाः सजडपण्डिताः ॥ २१ ॥
मम त्वं हि नियोगेन ततः श्रेयो ह्यवाप्स्यसि।

मूलम्

त्वं हि संहारबुद्ध्याथ प्रादुर्भूता रुषो मम।
तस्मात् संहर सर्वांस्त्वं प्रजाः सजडपण्डिताः ॥ २१ ॥
मम त्वं हि नियोगेन ततः श्रेयो ह्यवाप्स्यसि।

अनुवाद (हिन्दी)

‘देवि! तू संहारबुद्धिसे मेरे रोषद्वारा प्रकट हुई है, इसलिये मूर्ख और पण्डित सभी प्रजाओंका संहार करती रह, मेरी आज्ञासे तुझे यह कार्य करना होगा। इससे तू कल्याण प्राप्त करेगी’॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्ता तु सा तेन मृत्युः कमललोचना ॥ २२ ॥
दध्यौ चात्यर्थमबला प्ररुरोद च सुस्वरम्।

मूलम्

एवमुक्ता तु सा तेन मृत्युः कमललोचना ॥ २२ ॥
दध्यौ चात्यर्थमबला प्ररुरोद च सुस्वरम्।

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्माजीके ऐसा कहनेपर वह मृत्युनामवाली कमललोचना अबला अत्यन्त चिन्तामग्न हो गयी और फूट-फूटकर रोने लगी॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाणिभ्यां प्रतिजग्राह तान्यश्रूणि पितामहः।
सर्वभूतहितार्थाय तां चाप्यनुनयत् तदा ॥ २३ ॥

मूलम्

पाणिभ्यां प्रतिजग्राह तान्यश्रूणि पितामहः।
सर्वभूतहितार्थाय तां चाप्यनुनयत् तदा ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पितामह ब्रह्माने उसके उन आँसुओंको समस्त प्राणियोंके हितके लिये अपने दोनों हाथोंमें ले लिया और उस नारीको भी अनुनयसे प्रसन्न किया॥२३॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि मृत्युकथने त्रिपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५३ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत अभिमन्युवधपर्वमें मृत्युवर्णनविषयक तिरपनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५३॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठका श्लोक मिलाकर कुल २३ श्लोक हैं)