भागसूचना
पञ्चाशत्तमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
तीसरे (तेरहवें) दिनके युद्धकी समाप्तिपर सेनाका शिविरको प्रस्थान एवं रणभूमिका वर्णन
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
वयं तु प्रवरं हत्वा तेषां तैः शरपीडिताः।
निवेशायाभ्युपायामः सायाह्ने रुधिरोक्षिताः ॥ १ ॥
मूलम्
वयं तु प्रवरं हत्वा तेषां तैः शरपीडिताः।
निवेशायाभ्युपायामः सायाह्ने रुधिरोक्षिताः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— राजन्! हमलोग शत्रुओंके उस प्रमुख वीरका वध करके उनके बाणोंसे पीड़ित हो संध्याके समय शिविरमें विश्रामके लिये चले आये। उस समय हमलोगोंके शरीर रक्तसे भीग गये थे॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निरीक्षमाणास्तु वयं परे चायोधनं शनैः।
अपयाता महाराज ग्लानिं प्राप्ता विचेतसः ॥ २ ॥
मूलम्
निरीक्षमाणास्तु वयं परे चायोधनं शनैः।
अपयाता महाराज ग्लानिं प्राप्ता विचेतसः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! हम और शत्रुपक्षके लोग युद्धस्थलको देखते हुए धीरे-धीरे वहाँसे हट गये। पाण्डवदलके लोग अत्यन्त शोकग्रस्त हो अचेत हो रहे थे॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो निशाया दिवसस्य चाशिवः
शिवारुतैः संधिरवर्तताद्भुतः ।
कुशेशयापीडनिभे दिवाकरे
विलम्बमानेऽस्तमुपेत्य पर्वतम् ॥ ३ ॥
मूलम्
ततो निशाया दिवसस्य चाशिवः
शिवारुतैः संधिरवर्तताद्भुतः ।
कुशेशयापीडनिभे दिवाकरे
विलम्बमानेऽस्तमुपेत्य पर्वतम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय जब सूर्य अस्ताचलपर पहुँचकर ढल रहे थे, कमलनिर्मित मुकुटके समान जान पड़ते थे। दिन और रात्रिकी संधिरूप वह अद्भुत संध्या सियारिनोंके भयंकर शब्दोंसे अमंगलमयी प्रतीत हो रही थी॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वरासिशक्त्यृष्टिवरूथचर्मणां
विभूषणानां च समाक्षिपन् प्रभाः।
दिवं च भूमिं च समानयन्निव
प्रियां तनुं भानुरुपैति पावकम् ॥ ४ ॥
मूलम्
वरासिशक्त्यृष्टिवरूथचर्मणां
विभूषणानां च समाक्षिपन् प्रभाः।
दिवं च भूमिं च समानयन्निव
प्रियां तनुं भानुरुपैति पावकम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूर्यदेव श्रेष्ठ तलवार, शक्ति, ऋष्टि, वरूथ, ढाल और आभूषणोंकी प्रभाको छीनते तथा आकाश और पृथ्वीको समान अवस्थामें लाते हुए-से अपने प्रिय शरीर—अग्निमें प्रवेश कर रहे थे॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महाभ्रकूटाचलशृङ्गसंनिभै-
र्गजैरनेकैरिव वज्रपातितैः ।
स वैजयन्त्यङ्कुशवर्मयन्तृभि-
र्निपातितैर्नष्टगतिश्चिता क्षितिः ॥ ५ ॥
मूलम्
महाभ्रकूटाचलशृङ्गसंनिभै-
र्गजैरनेकैरिव वज्रपातितैः ।
स वैजयन्त्यङ्कुशवर्मयन्तृभि-
र्निपातितैर्नष्टगतिश्चिता क्षितिः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महान् मेघोंके समुदाय तथा पर्वतशिखरोंके समान विशालकाय बहुसंख्यक हाथी इस प्रकार पड़े थे, मानो वज्रसे मार गिराये गये हों। वैजयन्ती पताका, अंकुश, कवच और महावतोंसहित धराशायी किये गये उन गजराजोंकी लाशोंसे सारी धरती पट गयी थी, जिसके कारण वहाँ चलने-फिरनेका मार्ग बंद हो गया था॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हतेश्वरैश्चूर्णितपत्त्युपस्करै-
र्हताश्वसूतैर्विपताककेतुभिः ।
महारथैर्भूः शुशुभे विचूर्णितैः
पुरैरिवामित्रहतैर्नराधिप ॥ ६ ॥
मूलम्
हतेश्वरैश्चूर्णितपत्त्युपस्करै-
र्हताश्वसूतैर्विपताककेतुभिः ।
महारथैर्भूः शुशुभे विचूर्णितैः
पुरैरिवामित्रहतैर्नराधिप ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! शत्रुओंके द्वारा तहस-नहस किये गये विशाल नगरोंके समान बड़े-बड़े रथ चूर-चूर होकर गिरे थे। उनके घोड़े और सारथि मार दिये गये थे तथा ध्वजा-पताकाएँ नष्ट कर दी गयी थीं। इसी प्रकार उनके सवार मरे पड़े थे, पैदल सैनिक तथा युद्धसम्बन्धी अन्य उपकरण चूर-चूर हो गये थे। इन सबके द्वारा उस रणभूमिकी अद्भुत शोभा हो रही थी॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रथाश्ववृन्दैः सह सादिभिर्हतैः
प्रविद्धभाण्डाभरणैः पृथग्विधैः ।
निरस्तजिह्वादशनान्त्रलोचनै-
र्धरा बभौ घोरविरूपदर्शना ॥ ७ ॥
मूलम्
रथाश्ववृन्दैः सह सादिभिर्हतैः
प्रविद्धभाण्डाभरणैः पृथग्विधैः ।
निरस्तजिह्वादशनान्त्रलोचनै-
र्धरा बभौ घोरविरूपदर्शना ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रथों और अश्वोंके समूह सवारोंके साथ नष्ट हो गये थे। भिन्न-भिन्न प्रकारके भाण्ड और आभूषण छिन्न-भिन्न होकर पड़े थे। मनुष्यों और पशुओंकी जिह्वा, दाँत, आँत और आँखें बाहर निकल आयी थीं। इन सबसे वहाँकी भूमि अत्यन्त घोर और विकराल दिखायी देती थी॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रविद्धवर्माभरणाम्बरायुधा
विपन्नहस्त्यश्वरथानुगा नराः ।
महार्हशय्यास्तरणोचितास्तदा
क्षितावनाथा इव शेरते हताः ॥ ८ ॥
मूलम्
प्रविद्धवर्माभरणाम्बरायुधा
विपन्नहस्त्यश्वरथानुगा नराः ।
महार्हशय्यास्तरणोचितास्तदा
क्षितावनाथा इव शेरते हताः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
योद्धाओंके कवच, आभूषण, वस्त्र और आयुध छिन्न-भिन्न हो गये। हाथी, घोड़े तथा रथोंका अनुसरण करनेवाले पैदल मनुष्य अपने प्राण खोकर पड़े थे। जो राजा और राजकुमार बहुमूल्य शय्याओं तथा बिछौनोंपर शयन करनेके योग्य थे, वे ही उस समय मारे जाकर अनाथकी भाँति पृथ्वीपर पड़े थे॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतीव हृष्टाः श्वशृगालवायसा
बकाः सुपर्णाश्च वृकास्तरक्षवः ।
वयांस्यसृक्पान्यथ रक्षसां गणाः
पिशाचसंघाश्च सुदारुणा रणे ॥ ९ ॥
मूलम्
अतीव हृष्टाः श्वशृगालवायसा
बकाः सुपर्णाश्च वृकास्तरक्षवः ।
वयांस्यसृक्पान्यथ रक्षसां गणाः
पिशाचसंघाश्च सुदारुणा रणे ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुत्ते, सियार, कौए, बगुले, गरुड़, भेड़िये, तेंदुए, रक्त पीनेवाले पक्षी, राक्षसोंके समुदाय तथा अत्यन्त भयंकर पिशाचगण उस रणभूमिमें बहुत प्रसन्न हो रहे थे॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वचो विनिर्भिद्य पिबन् वसामसृक्
तथैव मज्जाः पिशितानि चाश्नुवन्।
वपां विलुम्पन्ति हसन्ति गान्ति च
प्रकर्षमाणाः कुणपान्यनेकशः ॥ १० ॥
मूलम्
त्वचो विनिर्भिद्य पिबन् वसामसृक्
तथैव मज्जाः पिशितानि चाश्नुवन्।
वपां विलुम्पन्ति हसन्ति गान्ति च
प्रकर्षमाणाः कुणपान्यनेकशः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे मृतकोंकी त्वचा विदीर्ण करके उनके वसा तथा रक्तको पी रहे थे, मज्जा और मांस खा रहे थे, चर्बियोंको काटकर चबा लेते थे तथा बहुत-से मृतकोंको इधर-उधर खींचते हुए वे हँसते और गीत गाते थे॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शरीरसंघातवहा ह्यसृग्जला
रथोडुपा कुञ्जरशैलसङ्कटा ।
मनुष्यशीर्षोपलमांसकर्दमा
प्रविद्धनानाविधशस्त्रमालिनी ॥ ११ ॥
भयावहा वैतरणीव दुस्तरा
प्रवर्तिता योधवरैस्तदा नदी ।
उवाह मध्येन रणाजिरे भृशं
भयावहा जीवमृतप्रवाहिनी ॥ १२ ॥
मूलम्
शरीरसंघातवहा ह्यसृग्जला
रथोडुपा कुञ्जरशैलसङ्कटा ।
मनुष्यशीर्षोपलमांसकर्दमा
प्रविद्धनानाविधशस्त्रमालिनी ॥ ११ ॥
भयावहा वैतरणीव दुस्तरा
प्रवर्तिता योधवरैस्तदा नदी ।
उवाह मध्येन रणाजिरे भृशं
भयावहा जीवमृतप्रवाहिनी ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय श्रेष्ठ योद्धाओंने रणभूमिमें रक्तकी नदी बहा दी, जो वैतरणीके समान दुष्कर एवं भयंकर प्रतीत होती थी। उसमें जलकी जगह रक्तकी ही धारा बहती थी। ढेर-के-ढेर शरीर उसमें बह रहे थे। उसमें तैरते हुए रथ नावके समान जान पड़ते थे। हाथियोंके शरीर वहाँ पर्वतकी चट्टानोंके समान व्याप्त हो रहे थे। मनुष्योंकी खोपड़ियाँ प्रस्तरखण्डोंके समान और मांस कीचड़के समान जान पड़ते थे। वहाँ टूटे-फूटे पड़े हुए नाना प्रकारके शस्त्रसमूह मालाओंके समान प्रतीत होते थे। वह अत्यन्त भयंकर नदी रणक्षेत्रके मध्यभागमें बहती और मृतकों तथा जीवितोंको भी बहा ले जाती थी॥११-१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पिबन्ति चाश्नन्ति च यत्र दुर्दृशाः
पिशाचसंघास्तु नदन्ति भैरवाः ।
सुनन्दिताः प्राणभृतां क्षयङ्कराः
समानभक्षाः श्वशृगालपक्षिणः ॥ १३ ॥
मूलम्
पिबन्ति चाश्नन्ति च यत्र दुर्दृशाः
पिशाचसंघास्तु नदन्ति भैरवाः ।
सुनन्दिताः प्राणभृतां क्षयङ्कराः
समानभक्षाः श्वशृगालपक्षिणः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिनकी ओर देखना भी कठिन था, ऐसे भयंकर पिशाचसमूह वहाँ खाते-पीते और गर्जना करते थे। समस्त प्राणियोंका विनाश करनेवाले वे पिशाच बहुत ही प्रसन्न थे। कुत्तों, सियारों और पक्षियोंको भी समानरूपसे भोजनसामग्री प्राप्त हुई थी॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा तदायोधनमुग्रदर्शनं
निशामुखे पितृपतिराष्ट्रवर्धनम् ।
निरीक्षमाणाः शनकैर्जहुर्नराः
समुत्थिता नृत्तकबन्धसंकुलम् ॥ १४ ॥
मूलम्
तथा तदायोधनमुग्रदर्शनं
निशामुखे पितृपतिराष्ट्रवर्धनम् ।
निरीक्षमाणाः शनकैर्जहुर्नराः
समुत्थिता नृत्तकबन्धसंकुलम् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रदोषकालमें यमराजके राज्यकी वृद्धि करनेवाली वह युद्धभूमि बड़ी भयंकर दिखायी देती थी। वहाँ सब ओर नाचते हुए कबन्ध (धड़) व्याप्त हो रहे थे। यह सब देखते हुए उभय पक्षके योद्धाओंने वहाँसे धीरे-धीरे चलकर उस युद्धस्थलको त्याग दिया॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपेतविध्वस्तमहार्हभूषणं
निपातितं शक्रसमं महाबलम् ।
रणेऽभिमन्युं ददृशुस्तदा जना
व्यपोढहव्यं सदसीव पावकम् ॥ १५ ॥
मूलम्
अपेतविध्वस्तमहार्हभूषणं
निपातितं शक्रसमं महाबलम् ।
रणेऽभिमन्युं ददृशुस्तदा जना
व्यपोढहव्यं सदसीव पावकम् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय लोगोंने देखा, इन्द्रके समान महाबली अभिमन्यु रणक्षेत्रमें गिरा दिया गया है। उसके बहुमूल्य आभूषण छिन्न-भिन्न होकर शरीरसे दूर जा पड़े हैं और वह यज्ञवेदीपर हविष्यरहित अग्निके समान निस्तेज हो गया है॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि तृतीयदिवसावहारे समरभूमिवर्णने पञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५० ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत अभिमन्युवधपर्वमें तीसरे दिनके युद्धमें सेनाके शिविरमें प्रस्थान करते समय समरभूमिका वर्णनविषयक पचासवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५०॥