भागसूचना
एकोनपञ्चाशत्तमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
अभिमन्युका कालिकेय, वसाति और कैकय रथियोंको मार डालना एवं छः महारथियोंके सहयोगसे अभिमन्युका वध और भागती हुई अपनी सेनाको युधिष्ठिरका आश्वासन देना
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
विष्णोः स्वसुर्नन्दकरः स विष्ण्वायुधभूषणः।
रराजातिरथः संख्ये जनार्दन इवापरः ॥ १ ॥
मूलम्
विष्णोः स्वसुर्नन्दकरः स विष्ण्वायुधभूषणः।
रराजातिरथः संख्ये जनार्दन इवापरः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— राजन्! भगवान् श्रीकृष्णकी बहिन सुभद्राको आनन्दित करनेवाला तथा श्रीकृष्णके ही समान चक्ररूपी आयुधसे सुशोभित होनेवाला अतिरथी वीर अभिमन्यु उस युद्धस्थलमें दूसरे श्रीकृष्णके समान प्रकाशित हो रहा था॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारुतोद्धूतकेशान्तमुद्यतारिवरायुधम् ।
वपुः समीक्ष्य पृथ्वीशा दुःसमीक्ष्यं सुरैरपि ॥ २ ॥
तच्चक्रं भृशमुद्विग्नाः संचिच्छिदुरनेकधा ।
मूलम्
मारुतोद्धूतकेशान्तमुद्यतारिवरायुधम् ।
वपुः समीक्ष्य पृथ्वीशा दुःसमीक्ष्यं सुरैरपि ॥ २ ॥
तच्चक्रं भृशमुद्विग्नाः संचिच्छिदुरनेकधा ।
अनुवाद (हिन्दी)
हवा उसके केशान्तभागको हिला रही थी। उसने अपने हाथमें चक्रनामक उत्तम आयुध उठा रखा था। उस समय उसके शरीर और उस चक्रको—जिसकी ओर दृष्टिपात करना देवताओंके लिये भी अत्यन्त कठिन था—देखकर समस्त भूपालगण अत्यन्त उद्विग्न हो उठे और उन सबने मिलकर उस चक्रके टुकड़े-टुकड़े कर दिये॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महारथस्ततः कार्ष्णिः संजग्राह महागदाम् ॥ ३ ॥
विधनुःस्यन्दनासिस्तैर्विचक्रश्चारिभिः कृतः ।
अभिमन्युर्गदापाणिरश्वत्थामानमार्दयत् ॥ ४ ॥
मूलम्
महारथस्ततः कार्ष्णिः संजग्राह महागदाम् ॥ ३ ॥
विधनुःस्यन्दनासिस्तैर्विचक्रश्चारिभिः कृतः ।
अभिमन्युर्गदापाणिरश्वत्थामानमार्दयत् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब महारथी अभिमन्युने एक विशाल गदा हाथमें ले ली। शत्रुओंने उसे धनुष, रथ, खड्ग और चक्रसे भी वंचित कर दिया था। इसलिये गदा हाथमें लिये हुए अभिमन्युने अश्वत्थामापर धावा किया॥३-४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स गदामुद्यतां दृष्ट्वा ज्वलन्तीमशनीमिव।
अपाक्रामद् रथोपस्थाद् विक्रमांस्त्रीन् नरर्षभः ॥ ५ ॥
मूलम्
स गदामुद्यतां दृष्ट्वा ज्वलन्तीमशनीमिव।
अपाक्रामद् रथोपस्थाद् विक्रमांस्त्रीन् नरर्षभः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रज्वलित वज्रके समान उस गदाको ऊपर उठी हुई देख नरश्रेष्ठ अश्वत्थामा अपने रथकी बैठकसे तीन पग पीछे हट गया॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्याश्वान् गदया हत्वा तथोभौ पार्ष्णिसारथी।
शराचिताङ्गः सौभद्रः श्वाविद्वत् समदृश्यत ॥ ६ ॥
मूलम्
तस्याश्वान् गदया हत्वा तथोभौ पार्ष्णिसारथी।
शराचिताङ्गः सौभद्रः श्वाविद्वत् समदृश्यत ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस गदासे अश्वत्थामाके चारों घोड़ों तथा दोनों पार्श्वरक्षकोंको मारकर बाणोंसे भरे हुए शरीरवाला सुभद्राकुमार साहीके समान दिखायी देने लगा॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः सुबलदायादं कालिकेयमपोथयत् ।
जघान चास्यानुचरान् गान्धारान् सप्तसप्ततिम् ॥ ७ ॥
मूलम्
ततः सुबलदायादं कालिकेयमपोथयत् ।
जघान चास्यानुचरान् गान्धारान् सप्तसप्ततिम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर उसने सुबलपुत्र कालिकेयको मार गिराया और उसके पीछे चलनेवाले सतहत्तर गान्धारोंका भी संहार कर डाला॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुनश्चैव वसातीयाञ्जघान रथिनो दश।
केकयानां रथान् सप्त हत्वा च दश कुञ्जरान् ॥ ८ ॥
दौःशासनिरथं साश्वं गदया समपोथयत्।
मूलम्
पुनश्चैव वसातीयाञ्जघान रथिनो दश।
केकयानां रथान् सप्त हत्वा च दश कुञ्जरान् ॥ ८ ॥
दौःशासनिरथं साश्वं गदया समपोथयत्।
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद दस वसातीय रथियोंको मार डाला। केकयोंके सात रथों और दस हाथियोंको मारकर दुःशासनकुमारके घोड़ोंसहित रथको भी गदाके आघातसे चूर-चूर कर डाला॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो दौःशासनिः क्रुद्धो गदामुद्यम्य मारिष ॥ ९ ॥
अभिदुद्राव सौभद्रं तिष्ठ तिष्ठेति चाब्रवीत्।
मूलम्
ततो दौःशासनिः क्रुद्धो गदामुद्यम्य मारिष ॥ ९ ॥
अभिदुद्राव सौभद्रं तिष्ठ तिष्ठेति चाब्रवीत्।
अनुवाद (हिन्दी)
आर्य! इससे दुःशासनपुत्र कुपित हो गदा हाथमें लेकर अभिमन्युकी ओर दौड़ा और इस प्रकार बोला—‘अरे! खड़ा रह, खड़ा रह’॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तावुद्यतगदौ वीरावन्योन्यवधकाङ्क्षिणौ ॥ १० ॥
भ्रातृव्यौ सम्प्रजह्राते पुरेव त्र्यम्बकान्धकौ।
मूलम्
तावुद्यतगदौ वीरावन्योन्यवधकाङ्क्षिणौ ॥ १० ॥
भ्रातृव्यौ सम्प्रजह्राते पुरेव त्र्यम्बकान्धकौ।
अनुवाद (हिन्दी)
वे दोनों वीर एक-दूसरेके शत्रु थे। अतः गदा हाथमें लेकर एक-दूसरेका वध करनेकी इच्छासे परस्पर प्रहार करने लगे। ठीक उसी तरह, जैसे पूर्वकालमें भगवान् शंकर और अन्धकासुर परस्पर गदाका आघात करते थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तावन्योन्यं गदाग्राभ्यामाहत्य पतितौ क्षितौ ॥ ११ ॥
इन्द्रध्वजाविवोत्सृष्टौ रणमध्ये परंतपौ ।
मूलम्
तावन्योन्यं गदाग्राभ्यामाहत्य पतितौ क्षितौ ॥ ११ ॥
इन्द्रध्वजाविवोत्सृष्टौ रणमध्ये परंतपौ ।
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुओंको संताप देनेवाले वे दोनों वीर रणक्षेत्रमें गदाके अग्रभागसे एक-दूसरेको चोट पहुँचाकर नीचे गिराये हुए दो इन्द्र-ध्वजोंके समान पृथ्वीपर गिर पड़े॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दौःशासनिरथोत्थाय कुरूणां कीर्तिवर्धनः ॥ १२ ॥
उत्तिष्ठमानं सौभद्रं गदया मूर्ध्न्यताडयत्।
मूलम्
दौःशासनिरथोत्थाय कुरूणां कीर्तिवर्धनः ॥ १२ ॥
उत्तिष्ठमानं सौभद्रं गदया मूर्ध्न्यताडयत्।
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् कुरुकुलकी कीर्ति बढ़ानेवाले दुःशासनपुत्रने पहले उठकर उठते हुए सुभद्राकुमारके मस्तकपर गदाका प्रहार किया॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गदावेगेन महता व्यायामेन च मोहितः ॥ १३ ॥
विचेता न्यपतद् भूमौ सौभद्रः परवीरहा।
एवं विनिहतो राजन्नेको बहुभिराहवे ॥ १४ ॥
मूलम्
गदावेगेन महता व्यायामेन च मोहितः ॥ १३ ॥
विचेता न्यपतद् भूमौ सौभद्रः परवीरहा।
एवं विनिहतो राजन्नेको बहुभिराहवे ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गदाके उस महान् वेग और परिश्रमसे मोहित होकर शत्रुवीरोंका नाश करनेवाला अभिमन्यु अचेत हो पृथ्वीपर गिर पड़ा। राजन्! इस प्रकार उस युद्धस्थलमें बहुत-से योद्धाओंने मिलकर एकाकी अभिमन्युको मार डाला॥१३-१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षोभयित्वा चमूं सर्वां नलिनीमिव कुञ्जरः।
अशोभत हतो वीरो व्याधैर्वनगजो यथा ॥ १५ ॥
मूलम्
क्षोभयित्वा चमूं सर्वां नलिनीमिव कुञ्जरः।
अशोभत हतो वीरो व्याधैर्वनगजो यथा ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे हाथी कभी सरोवरको मथ डालता है, उसी प्रकार सारी सेनाको क्षुब्ध करके व्याधोंके द्वारा जंगली हाथीकी भाँति मारा गया वीर अभिमन्यु वहाँ अद्भुत शोभा पा रहा था॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं तथा पतितं शूरं तावकाः पर्यवारयन्।
दावं दग्ध्वा यथा शान्तं पावकं शिशिरात्यये ॥ १६ ॥
विमृद्य नगशृङ्गाणि संनिवृत्तमिवानिलम् ।
अस्तंगतमिवादित्यं तप्त्वा भारतवाहिनीम् ॥ १७ ॥
उपप्लुतं यथा सोमं संशुष्कमिव सागरम्।
पूर्णचन्द्राभवदनं काकपक्षवृताक्षिकम् ॥ १८ ॥
तं भूमौ पतितं दृष्ट्वा तावकास्ते महारथाः।
मुदा परमया युक्ताश्चुक्रुशुः सिंहवन्मुहुः ॥ १९ ॥
मूलम्
तं तथा पतितं शूरं तावकाः पर्यवारयन्।
दावं दग्ध्वा यथा शान्तं पावकं शिशिरात्यये ॥ १६ ॥
विमृद्य नगशृङ्गाणि संनिवृत्तमिवानिलम् ।
अस्तंगतमिवादित्यं तप्त्वा भारतवाहिनीम् ॥ १७ ॥
उपप्लुतं यथा सोमं संशुष्कमिव सागरम्।
पूर्णचन्द्राभवदनं काकपक्षवृताक्षिकम् ॥ १८ ॥
तं भूमौ पतितं दृष्ट्वा तावकास्ते महारथाः।
मुदा परमया युक्ताश्चुक्रुशुः सिंहवन्मुहुः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार रणभूमिमें गिरे हुए शूरवीर अभिमन्युको आपके सैनिकोंने चारों ओरसे घेर लिया। जैसे ग्रीष्म-ऋतुमें जंगलको जलाकर आग बुझ गयी हो, जिस प्रकार वायु वृक्षोंकी शाखाओंको तोड़-फोड़कर शान्त हो रही हो, जैसे संसारको संतप्त करके सूर्य अस्ताचलको चले गये हों, जैसे चन्द्रमापर ग्रहण लग गया हो तथा जैसे समुद्र सूख गया हो, उसी प्रकार समस्त कौरव-सेनाको संतप्त करके पूर्ण चन्द्रमाके समान मुखवाला अभिमन्यु पृथ्वीपर पड़ा था; उसके सिरके बड़े-बड़े बालों (काकपक्ष)-से उसकी आँखें ढक गयी थीं। उस दशामें उसे देखकर आपके महारथी बड़ी प्रसन्नताके साथ बारंबार सिंहनाद करने लगे॥१६—१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसीत् परमको हर्षस्तावकानां विशाम्पते।
इतरेषां तु वीराणां नेत्रेभ्यः प्रापतज्जलम् ॥ २० ॥
मूलम्
आसीत् परमको हर्षस्तावकानां विशाम्पते।
इतरेषां तु वीराणां नेत्रेभ्यः प्रापतज्जलम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजानाथ! आपके पुत्रोंको तो बड़ा हर्ष हुआ; परंतु पाण्डववीरोंके नेत्रोंसे आँसू बहने लगा॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्तरिक्षे च भूतानि प्राक्रोशन्त विशाम्पते।
दृष्ट्वा निपतितं वीरं च्युतं चन्द्रमिवाम्बरात् ॥ २१ ॥
मूलम्
अन्तरिक्षे च भूतानि प्राक्रोशन्त विशाम्पते।
दृष्ट्वा निपतितं वीरं च्युतं चन्द्रमिवाम्बरात् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! उस समय अन्तरिक्षमें खड़े हुए प्राणी आकाशसे गिरे हुए चन्द्रमाके समान वीर अभिमन्युको रणभूमिमें पड़ा देख उच्च स्वरसे आपके महारथियोंकी निन्दा करने लगे॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रोणकर्णमुखैः षड्भिर्धार्तराष्ट्रैर्महारथैः ।
एकोऽयं निहतः शेते नैष धर्मो मतो हि नः॥२२॥
मूलम्
द्रोणकर्णमुखैः षड्भिर्धार्तराष्ट्रैर्महारथैः ।
एकोऽयं निहतः शेते नैष धर्मो मतो हि नः॥२२॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्रोण और कर्ण आदि छः कौरव महारथियोंके द्वारा असहाय अवस्थामें मारा गया यह एक बालक यहाँ सो रहा है। हमारे मतमें यह धर्म नहीं है॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन् विनिहते वीरे बह्वशोभत मेदिनी।
द्यौर्यथा पूर्णचन्द्रेण नक्षत्रगणमालिनी ॥ २३ ॥
मूलम्
तस्मिन् विनिहते वीरे बह्वशोभत मेदिनी।
द्यौर्यथा पूर्णचन्द्रेण नक्षत्रगणमालिनी ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वीर अभिमन्युके मारे जानेपर वह रणभूमि पूर्ण चन्द्रमासे युक्त तथा नक्षत्रमालाओंसे अलंकृत आकाशकी भाँति बड़ी शोभा पा रही थी॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रुक्मपुङ्खैश्च सम्पूर्णा रुधिरौघपरिप्लुता ।
उत्तमाङ्गैश्च शूराणां भ्राजमानैः सकुण्डलैः ॥ २४ ॥
विचित्रैश्च परिस्तोभैः पताकाभिश्च संवृता।
चामरैश्च कुथाभिश्च प्रविद्धैश्चाम्बरोत्तमैः ॥ २५ ॥
तथाश्वनरनागानामलंकारैश्च सुप्रभैः ।
खड्गैः सुनिशितैः पीतैर्निर्मुक्तैर्भुजगैरिव ॥ २६ ॥
चापैश्च विविधैश्छिन्नैः शक्त्यृष्टिप्रासकम्पनैः ।
विविधैश्चायुधैश्चान्यैः संवृता भूरशोभत ॥ २७ ॥
मूलम्
रुक्मपुङ्खैश्च सम्पूर्णा रुधिरौघपरिप्लुता ।
उत्तमाङ्गैश्च शूराणां भ्राजमानैः सकुण्डलैः ॥ २४ ॥
विचित्रैश्च परिस्तोभैः पताकाभिश्च संवृता।
चामरैश्च कुथाभिश्च प्रविद्धैश्चाम्बरोत्तमैः ॥ २५ ॥
तथाश्वनरनागानामलंकारैश्च सुप्रभैः ।
खड्गैः सुनिशितैः पीतैर्निर्मुक्तैर्भुजगैरिव ॥ २६ ॥
चापैश्च विविधैश्छिन्नैः शक्त्यृष्टिप्रासकम्पनैः ।
विविधैश्चायुधैश्चान्यैः संवृता भूरशोभत ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुवर्णमय पंखवाले बाणोंसे वहाँकी भूमि भरी हुई थी। रक्तकी धाराओंमें डूबी हुई थी। शूरवीरोंके कुण्डल-मण्डित तेजस्वी मस्तकों, हाथियोंके विचित्र झूलों, पताकाओं, चामरों, हाथीकी पीठपर बिछाये जानेवाले कम्बलों, इधर-उधर पड़े हुए उत्तम वस्त्रों, हाथी, घोड़े और मनुष्योंके चमकीले आभूषणों, केंचुलसे निकले हुए सर्पोंके समान पैने और पानीदार खड्गों, भाँति-भाँतिके कटे हुए धनुषों, शक्ति, ऋष्टि, प्रास, कम्पन तथा अन्य नाना प्रकारके आयुधोंसे आच्छादित हुई रणभूमिकी अद्भुत शोभा हो रही थी॥२४—२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वाजिभिश्चापि निर्जीवैः श्वसद्भिः शोणितोक्षितैः।
सारोहैर्विषमा भूमिः सौभद्रेण निपातितैः ॥ २८ ॥
मूलम्
वाजिभिश्चापि निर्जीवैः श्वसद्भिः शोणितोक्षितैः।
सारोहैर्विषमा भूमिः सौभद्रेण निपातितैः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुभद्राकुमार अभिमन्युके द्वारा मार गिराये हुए रक्तस्नात निर्जीव और सजीव घोड़ों और घुड़सवारोंके कारण वह भूमि विषम एवं दुर्गम हो गयी थी॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
साङ्कुशैः समहामात्रैः सवर्मायुधकेतुभिः ।
पर्वतैरिव विध्वस्तैर्विशिखैर्मथितैर्गजैः ॥ २९ ॥
पृथिव्यामनुकीर्णैश्च व्यश्वसारथियोधिभिः ।
ह्रदैरिव प्रक्षुभितैर्हतनागै रथोत्तमैः ॥ ३० ॥
पदातिसंघैश्च हतैर्विविधायुधभूषणैः ।
भीरूणां त्रासजननी घोररूपाभवन्मही ॥ ३१ ॥
मूलम्
साङ्कुशैः समहामात्रैः सवर्मायुधकेतुभिः ।
पर्वतैरिव विध्वस्तैर्विशिखैर्मथितैर्गजैः ॥ २९ ॥
पृथिव्यामनुकीर्णैश्च व्यश्वसारथियोधिभिः ।
ह्रदैरिव प्रक्षुभितैर्हतनागै रथोत्तमैः ॥ ३० ॥
पदातिसंघैश्च हतैर्विविधायुधभूषणैः ।
भीरूणां त्रासजननी घोररूपाभवन्मही ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अंकुश, महावत, कवच, आयुध और ध्वजाओंसहित बड़े-बड़े गजराज बाणोंद्वारा मथित होकर भहराये हुए पर्वतोंके समान जान पड़ते थे। जिन्होंने बड़े-बड़े गजराजोंको मार डाला था, वे श्रेष्ठ रथ घोड़े, सारथि और योद्धाओंसे रहित हो मथे गये सरोवरोंके समान चूर-चूर होकर पृथ्वीपर बिखरे पड़े थे। नाना प्रकारके आयुधों और आभूषणोंसे युक्त पैदल सैनिकोंके समूह भी उस युद्धमें मारे गये थे। इन सबके कारण वहाँकी भूमि अत्यन्त भयानक तथा भीरु पुरुषोंके मनमें भय उत्पन्न करनेवाली हो गयी थी॥२९-३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं दृष्ट्वा पतितं भूमौ चन्द्रार्कसदृशद्युतिम्।
तावकानां परा प्रीतिः पाण्डूनां चाभवद् व्यथा ॥ ३२ ॥
मूलम्
तं दृष्ट्वा पतितं भूमौ चन्द्रार्कसदृशद्युतिम्।
तावकानां परा प्रीतिः पाण्डूनां चाभवद् व्यथा ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
चन्द्रमा और सूर्यके समान कान्तिमान् अभिमन्युको पृथ्वीपर पड़ा देख आपके पुत्रोंको बड़ी प्रसन्नता हुई और पाण्डवोंकी अन्तरात्मा व्यथित हो उठी॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभिमन्यौ हते राजन् शिशुकेऽप्राप्तयौवने।
सम्प्राद्रवच्चमूः सर्वा धर्मराजस्य पश्यतः ॥ ३३ ॥
मूलम्
अभिमन्यौ हते राजन् शिशुकेऽप्राप्तयौवने।
सम्प्राद्रवच्चमूः सर्वा धर्मराजस्य पश्यतः ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! जो अभी युवावस्थाको प्राप्त नहीं हुआ था, उस बालक अभिमन्युके मारे जानेपर धर्मराज युधिष्ठिरके देखते-देखते उनकी सारी सेना भागने लगी॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दीर्यमाणं बलं दृष्ट्वा सौभद्रे विनिपातिते।
अजातशत्रुस्तान् वीरानिदं वचनमब्रवीत् ॥ ३४ ॥
मूलम्
दीर्यमाणं बलं दृष्ट्वा सौभद्रे विनिपातिते।
अजातशत्रुस्तान् वीरानिदं वचनमब्रवीत् ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुभद्राकुमारके धराशायी होनेपर अपनी सेनामें भगदड़ पड़ी देख अजातशत्रु युधिष्ठिरने अपने पक्षके उन वीरोंसे यह वचन कहा—॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वर्गमेष गतः शूरो यो हतो न पराङ्मुखः।
संस्तम्भयत मा भैष्ट विजेष्यामो रणे रिपून् ॥ ३५ ॥
मूलम्
स्वर्गमेष गतः शूरो यो हतो न पराङ्मुखः।
संस्तम्भयत मा भैष्ट विजेष्यामो रणे रिपून् ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यह शूरवीर अभिमन्यु जो प्राणोंपर खेल गया, परंतु युद्धमें पीठ न दिखा सका, निश्चय ही स्वर्गलोकमें गया है। तुम सब लोग धैर्य धारण करो। भयभीत न होओ। हमलोग रणक्षेत्रमें शत्रुओंको अवश्य जीतेंगे’॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्येवं स महातेजा दुःखितेभ्यो महाद्युतिः।
धर्मराजो युधां श्रेष्ठो ब्रुवन् दुःखमपानुदत् ॥ ३६ ॥
मूलम्
इत्येवं स महातेजा दुःखितेभ्यो महाद्युतिः।
धर्मराजो युधां श्रेष्ठो ब्रुवन् दुःखमपानुदत् ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महातेजस्वी और परम कान्तिमान् योद्धाओंमें श्रेष्ठ धर्मराज युधिष्ठिरने अपने दुःखी सैनिकोंसे ऐसा कहकर उनके दुःखका निवारण किया॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
युद्धे ह्याशीविषाकारान् राजपुत्रान् रणे रिपून्।
पूर्वं निहत्य संग्रामे पश्चादार्जुनिरभ्ययात् ॥ ३७ ॥
मूलम्
युद्धे ह्याशीविषाकारान् राजपुत्रान् रणे रिपून्।
पूर्वं निहत्य संग्रामे पश्चादार्जुनिरभ्ययात् ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युद्धमें विषधर सर्पके समान भयंकर शत्रुरूप राजकुमारोंको पहले मारकर पीछेसे अर्जुनकुमार अभिमन्यु स्वर्गलोकमें गया था॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हत्वा दश सहस्राणि कौसल्यं च महारथम्।
कृष्णार्जुनसमः कार्ष्णिः शक्रलोकं गतो ध्रुवम् ॥ ३८ ॥
मूलम्
हत्वा दश सहस्राणि कौसल्यं च महारथम्।
कृष्णार्जुनसमः कार्ष्णिः शक्रलोकं गतो ध्रुवम् ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दस हजार रथियों और महारथी कोसलनरेश बृहद्बलको मारकर श्रीकृष्ण और अर्जुनके समान पराक्रमी अभिमन्यु निश्चय ही इन्द्रलोकमें गया है॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रथाश्वनरमातङ्गान् विनिहत्य सहस्रशः ।
अवितृप्तः स संग्रामादशोच्यः पुण्यकर्मकृत्।
गतः पुण्यकृतां लोकान् शाश्वतान् पुण्यनिर्जितान् ॥ ३९ ॥
मूलम्
रथाश्वनरमातङ्गान् विनिहत्य सहस्रशः ।
अवितृप्तः स संग्रामादशोच्यः पुण्यकर्मकृत्।
गतः पुण्यकृतां लोकान् शाश्वतान् पुण्यनिर्जितान् ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रथ, घोड़े, पैदल और हाथियोंका सहस्रोंकी संख्यामें संहार करके भी वह युद्धसे तृप्त नहीं हुआ था। पुण्यकर्म करनेके कारण अभिमन्यु शोकके योग्य नहीं है। वह पुण्यात्माओंके पुण्योपार्जित सनातन लोकोंमें जा पहुँचा है॥३९॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि अभिमन्युवधे एकोनपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ४९ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत अभिमन्युवधपर्वमें अभिमन्युवधविषयक उनचासवाँ अध्याय पूरा हुआ॥४९॥