भागसूचना
अष्टचत्वारिंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
अभिमन्युद्वारा अश्वकेतु, भोज और कर्णके मन्त्री आदिका वध एवं छः महारथियोंके साथ घोर युद्ध और उन महारथियोंद्वारा अभिमन्युके धनुष, रथ, ढाल और तलवारका नाश
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
स कर्णं कर्णिना कर्णे पुनर्विव्याध फाल्गुनिः।
शरैः पञ्चाशता चैनमविध्यत् कोपयन् भृशम् ॥ १ ॥
मूलम्
स कर्णं कर्णिना कर्णे पुनर्विव्याध फाल्गुनिः।
शरैः पञ्चाशता चैनमविध्यत् कोपयन् भृशम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— राजन्! तदनन्तर अर्जुनकुमार अभिमन्युने एक बाणद्वारा कर्णके कानमें पुनः चोट पहुँचायी और उसे क्रोध दिलाते हुए उसने पचास बाण मारकर अत्यन्त घायल कर दिया॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रतिविव्याध राधेयस्तावद्भिरथ तं पुनः।
शरैराचितसर्वाङ्गो बह्वशोभत भारत ॥ २ ॥
मूलम्
प्रतिविव्याध राधेयस्तावद्भिरथ तं पुनः।
शरैराचितसर्वाङ्गो बह्वशोभत भारत ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन! तब राधापुत्र कर्णने भी अभिमन्युको उतने ही बाणोंसे बींध डाला। उसका सारा अंग बाणोंसे व्याप्त होनेके कारण वह बड़ी शोभा पा रहा था॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्णं चाप्यकरोत् क्रुद्धो रुधिरोत्पीडवाहिनम्।
कर्णोऽपि विबभौ शूरः शरैश्छिन्नोऽसृगाप्लुतः ॥ ३ ॥
(संध्यानुगतपर्यन्तः शरदीव दिवाकरः ।)
मूलम्
कर्णं चाप्यकरोत् क्रुद्धो रुधिरोत्पीडवाहिनम्।
कर्णोऽपि विबभौ शूरः शरैश्छिन्नोऽसृगाप्लुतः ॥ ३ ॥
(संध्यानुगतपर्यन्तः शरदीव दिवाकरः ।)
अनुवाद (हिन्दी)
फिर क्रोधमें भरे हुए अभिमन्युने कर्णको भी बाणोंसे क्षत-विक्षत करके उसे रक्तकी धारा बहानेवाला बना दिया। उस समय शूरवीर कर्ण भी बाणोंसे छिन्न-भिन्न और खूनसे लथपथ हो बड़ी शोभा पाने लगा, मानो शरत्कालका सूर्य संध्याके समय सम्पूर्णरूपसे लाल दिखायी दे रहा हो॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तावुभौ शरचित्राङ्गौ रुधिरेण समुक्षितौ।
बभूवतुर्महात्मानौ पुष्पिताविव किंशुकौ ॥ ४ ॥
मूलम्
तावुभौ शरचित्राङ्गौ रुधिरेण समुक्षितौ।
बभूवतुर्महात्मानौ पुष्पिताविव किंशुकौ ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन दोनोंके शरीर बाणोंसे व्याप्त होनेके कारण विचित्र दिखायी देते थे। दोनों ही रक्तसे भींग गये तथा वे दोनों महामनस्वी वीर फूलोंसे भरे हुए पलाश-वृक्षके समान प्रतीत होते थे॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ कर्णस्य सचिवान् षट् शूरांश्चित्रयोधिनः।
साश्वसूतध्वजरथान् सौभद्रो निजघान ह ॥ ५ ॥
मूलम्
अथ कर्णस्य सचिवान् षट् शूरांश्चित्रयोधिनः।
साश्वसूतध्वजरथान् सौभद्रो निजघान ह ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर सुभद्राकुमारने कर्णके विचित्र युद्ध करनेवाले छः शूरवीर मन्त्रियोंको उनके घोड़े, सारथि, रथ तथा ध्वजसहित मार डाला॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथेतरान् महेष्वासान् दशभिर्दशभिः शरैः।
प्रत्यविध्यदसम्भ्रान्तस्तदद्भुतमिवाभवत् ॥ ६ ॥
मूलम्
तथेतरान् महेष्वासान् दशभिर्दशभिः शरैः।
प्रत्यविध्यदसम्भ्रान्तस्तदद्भुतमिवाभवत् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इतना ही नहीं, उसने बिना किसी घबराहटके दस-दस बाणोंद्वारा अन्य महाधनुर्धरोंको भी आहत कर दिया। वह अद्भुत-सी बात थी॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मागधस्य तथा पुत्रं हत्वा षड्भिरजिह्मगैः।
साश्वं ससूतं तरुणमश्वकेतुमपातयत् ॥ ७ ॥
मूलम्
मागधस्य तथा पुत्रं हत्वा षड्भिरजिह्मगैः।
साश्वं ससूतं तरुणमश्वकेतुमपातयत् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार उसने मगधराजके तरुण पुत्र अश्वकेतुको छः बाणोंद्वारा मारकर उसे घोड़ों और सारथिसहित रथसे नीचे गिरा दिया॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मार्तिकावतकं भोजं ततः कुञ्जरकेतनम्।
क्षुरप्रेण समुन्मथ्य ननाद विसृजन् शरान् ॥ ८ ॥
मूलम्
मार्तिकावतकं भोजं ततः कुञ्जरकेतनम्।
क्षुरप्रेण समुन्मथ्य ननाद विसृजन् शरान् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् हाथीके चिह्नसे युक्त ध्वजावाले मार्तिकावतक नरेश भोजको एक क्षुरप्रद्वारा नष्ट करके अभिमन्युने बाणोंकी वर्षा करते हुए सिंहनाद किया॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य दौःशासनिर्विद्ध्वा चतुर्भिश्चतुरो हयान्।
सूतमेकेन विव्याध दशभिश्चार्जुनात्मजम् ॥ ९ ॥
मूलम्
तस्य दौःशासनिर्विद्ध्वा चतुर्भिश्चतुरो हयान्।
सूतमेकेन विव्याध दशभिश्चार्जुनात्मजम् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब दुःशासनकुमारने चार बाणोंद्वारा अभिमन्युके चारों घोड़ोंको घायल करके एकसे सारथिको और दस बाणोंद्वारा स्वयं अभिमन्युको बींध डाला॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो दौःशासनिं कार्ष्णिर्विद्ध्वा सप्तभिराशुगैः।
संरम्भाद् रक्तनयनो वाक्यमुच्चैरथाब्रवीत् ॥ १० ॥
मूलम्
ततो दौःशासनिं कार्ष्णिर्विद्ध्वा सप्तभिराशुगैः।
संरम्भाद् रक्तनयनो वाक्यमुच्चैरथाब्रवीत् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह देख अर्जुनकुमारने क्रोधसे लाल आँखें करके सात बाणोंद्वारा दुःशासनपुत्रको बींध डाला और उच्च स्वरसे यह बात कही—॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पिता तवाहवं त्यक्त्वा गतः कापुरुषो यथा।
दिष्ट्या त्वमपि जानीषे योद्धुं न त्वद्य मोक्ष्यसे ॥ ११ ॥
मूलम्
पिता तवाहवं त्यक्त्वा गतः कापुरुषो यथा।
दिष्ट्या त्वमपि जानीषे योद्धुं न त्वद्य मोक्ष्यसे ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अरे! तेरा पिता कायरकी भाँति युद्ध छोड़कर भाग गया है। सौभाग्यकी बात है कि तू भी युद्ध करना जानता है; किंतु आज तू जीवित नहीं छूट सकेगा’॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतावदुक्त्वा वचनं कर्मारपरिमार्जितम् ।
नाराचं विससर्जास्मै तं द्रौणिस्त्रिभिराच्छिनत् ॥ १२ ॥
मूलम्
एतावदुक्त्वा वचनं कर्मारपरिमार्जितम् ।
नाराचं विससर्जास्मै तं द्रौणिस्त्रिभिराच्छिनत् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह वचन कहकर अभिमन्युने कारीगरके माँजे हुए एक नाराचको दुःशासनपुत्रपर चलाया; परंतु अश्वत्थामाने तीन बाण मारकर उसे बीचमें ही काट दिया॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्यार्जुनिर्ध्वजं छित्त्वा शल्यं त्रिभिरताडयत्।
तं शल्यो नवभिर्बाणैर्गार्ध्रपत्रैरताडयत् ॥ १३ ॥
हृद्यसम्भ्रान्तवद् राजंस्तदद्भुतमिवाभवत् ।
मूलम्
तस्यार्जुनिर्ध्वजं छित्त्वा शल्यं त्रिभिरताडयत्।
तं शल्यो नवभिर्बाणैर्गार्ध्रपत्रैरताडयत् ॥ १३ ॥
हृद्यसम्भ्रान्तवद् राजंस्तदद्भुतमिवाभवत् ।
अनुवाद (हिन्दी)
तब अर्जुनकुमारने अश्वत्थामाका ध्वज काटकर शल्यको तीन बाण मारे। राजन्! शल्यने भी मनमें तनिक भी सम्भ्रम या घबराहटका अनुभव न करते हुए-से गीधके पंखसे युक्त नौ बाणोंद्वारा अभिमन्युको आहत कर दिया। वह एक अद्भुत-सी बात हुई॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्यार्जुनिर्ध्वजं छित्त्वा हत्वोभौ पार्ष्णिसारथी ॥ १४ ॥
तं विव्याधायसैः षड्भिः सोपाक्रामद् रथान्तरम्।
मूलम्
तस्यार्जुनिर्ध्वजं छित्त्वा हत्वोभौ पार्ष्णिसारथी ॥ १४ ॥
तं विव्याधायसैः षड्भिः सोपाक्रामद् रथान्तरम्।
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय अभिमन्युने शल्यके ध्वजको काटकर उनके दोनों पार्श्वरक्षकोंको भी मार डाला और उनको भी लोहेके बने हुए छः बाणोंसे बींध दिया; फिर तो शल्य भागकर दूसरे रथपर चले गये॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शत्रुंजयं चन्द्रकेतुं मेघवेगं सुवर्चसम् ॥ १५ ॥
सूर्यभासं च पञ्चैतान् हत्वा विव्याध सौबलम्।
तं सौबलस्त्रिभिर्विद्ध्वा दुर्योधनमथाब्रवीत् ॥ १६ ॥
मूलम्
शत्रुंजयं चन्द्रकेतुं मेघवेगं सुवर्चसम् ॥ १५ ॥
सूर्यभासं च पञ्चैतान् हत्वा विव्याध सौबलम्।
तं सौबलस्त्रिभिर्विद्ध्वा दुर्योधनमथाब्रवीत् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् शत्रुंजय, चन्द्रकेतु, मेघवेग, सुवर्चा और सूर्यभास—इन पाँच वीरोंको मारकर अभिमन्युने सुबलपुत्र शकुनिको भी घायल कर दिया। तब शकुनिने भी तीन बाणोंसे अभिमन्युको घायल करके दुर्योधनसे इस प्रकार कहा—॥१५-१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्व एनं विमथ्नीमः पुरैकैकं हिनस्ति नः।
अथाब्रवीत् पुनर्द्रोणं कर्णो वैकर्तनो रणे ॥ १७ ॥
मूलम्
सर्व एनं विमथ्नीमः पुरैकैकं हिनस्ति नः।
अथाब्रवीत् पुनर्द्रोणं कर्णो वैकर्तनो रणे ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! यह एक-एकके साथ युद्ध करके हमें मारे, इसके पहले ही हम सब लोग मिलकर इस अभिमन्युको मथ डालें।’ तदनन्तर विकर्तनपुत्र कर्णने रणक्षेत्रमें पुनः द्रोणाचार्यसे पूछा—॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरा सर्वान् प्रमथ्नाति ब्रूह्यस्य वधमाशु नः।
ततो द्रोणो महेष्वासः सर्वांस्तान् प्रत्यभाषत ॥ १८ ॥
मूलम्
पुरा सर्वान् प्रमथ्नाति ब्रूह्यस्य वधमाशु नः।
ततो द्रोणो महेष्वासः सर्वांस्तान् प्रत्यभाषत ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आचार्य! अभिमन्यु हमलोगोंको मार डाले’ इसके पहले ही हमें शीघ्र यह बताइये कि इसका वध किस प्रकार होगा?’ तब महाधनुर्धर द्रोणाचार्यने उन सबसे कहा—॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्ति वास्यान्तरं किंचित् कुमारस्याथ पश्यत।
अण्वप्यस्यान्तरं ह्यद्य चरतः सर्वतोदिशम् ॥ १९ ॥
मूलम्
अस्ति वास्यान्तरं किंचित् कुमारस्याथ पश्यत।
अण्वप्यस्यान्तरं ह्यद्य चरतः सर्वतोदिशम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘देखो, क्या इस कुमार अभिमन्युमें कहीं कोई दुर्बलता या छिद्र है? सम्पूर्ण दिशाओंमें विचरते हुए अभिमन्युमें आज कोई छोटा-सा भी छिद्र हो तो देखो॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शीघ्रतां नरसिंहस्य पाण्डवेयस्य पश्यत।
धनुर्मण्डलमेवास्य रथमार्गेषु दृश्यते ॥ २० ॥
संदधानस्य विशिखान् शीघ्रं चैव विमुञ्चतः।
मूलम्
शीघ्रतां नरसिंहस्य पाण्डवेयस्य पश्यत।
धनुर्मण्डलमेवास्य रथमार्गेषु दृश्यते ॥ २० ॥
संदधानस्य विशिखान् शीघ्रं चैव विमुञ्चतः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस पुरुषसिंह पाण्डवपुत्रकी शीघ्रता तो देखो। शीघ्रतापूर्वक बाणोंका संधान करते और छोड़ते समय रथके मार्गोंमें इसके धनुषका मण्डलमात्र दिखायी देता है॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आरुजन्नपि मे प्राणान् मोहयन्नपि सायकैः ॥ २१ ॥
प्रहर्षयति मां भूयः सौभद्रः परवीरहा।
अति मां नन्दयत्येष सौभद्रो विचरन् रणे ॥ २२ ॥
मूलम्
आरुजन्नपि मे प्राणान् मोहयन्नपि सायकैः ॥ २१ ॥
प्रहर्षयति मां भूयः सौभद्रः परवीरहा।
अति मां नन्दयत्येष सौभद्रो विचरन् रणे ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘शत्रुवीरोंका संहार करनेवाला सुभद्राकुमार अभिमन्यु यद्यपि अपने बाणोंद्वारा मेरे प्राणोंको अत्यन्त कष्ट दे रहा है, मुझे मूर्च्छित किये देता है, तथापि बारंबार मेरा हर्ष बढ़ा रहा है। रणक्षेत्रमें विचरता हुआ सुभद्राका यह पुत्र मुझे अत्यन्त आनन्दित कर रहा है॥२१-२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्तरं यस्य संरब्धा न पश्यन्ति महारथाः।
अस्यतो लघुहस्तस्य दिशः सर्वा महेषुभिः ॥ २३ ॥
न विशेषं प्रपश्यामि रणे गाण्डीवधन्वनः।
मूलम्
अन्तरं यस्य संरब्धा न पश्यन्ति महारथाः।
अस्यतो लघुहस्तस्य दिशः सर्वा महेषुभिः ॥ २३ ॥
न विशेषं प्रपश्यामि रणे गाण्डीवधन्वनः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘क्रोधमें भरे हुए महारथी इसके छिद्रको नहीं देख पाते हैं। यह शीघ्रतापूर्वक हाथ चलाता हुआ अपने महान् बाणोंसे सम्पूर्ण दिशाओंको व्याप्त कर रहा है। मैं युद्धस्थलमें गाण्डीवधारी अर्जुन और इस अभिमन्युमें कोई अन्तर नहीं देख पाता हूँ’॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ कर्णः पुनर्द्रोणमाहार्जुनिशराहतः ॥ २४ ॥
स्थातव्यमिति तिष्ठामि पीड्यमानोऽभिमन्युना ।
मूलम्
अथ कर्णः पुनर्द्रोणमाहार्जुनिशराहतः ॥ २४ ॥
स्थातव्यमिति तिष्ठामि पीड्यमानोऽभिमन्युना ।
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर कर्णने अभिमन्युके बाणोंसे आहत होकर पुनः द्रोणाचार्यसे कहा—‘आचार्य! मैं अभिमन्युके बाणोंसे पीड़ित होता हुआ भी केवल इसलिये यहाँ खड़ा हूँ कि युद्धके मैदानमें डटे रहना ही क्षत्रियका धर्म है (अन्यथा मैं कभी भाग गया होता)॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेजस्विनः कुमारस्य शराः परमदारुणाः ॥ २५ ॥
क्षिण्वन्ति हृदयं मेऽद्य घोराः पावकतेजसः।
तमाचार्योऽब्रवीत् कर्णं शनकैः प्रहसन्निव ॥ २६ ॥
मूलम्
तेजस्विनः कुमारस्य शराः परमदारुणाः ॥ २५ ॥
क्षिण्वन्ति हृदयं मेऽद्य घोराः पावकतेजसः।
तमाचार्योऽब्रवीत् कर्णं शनकैः प्रहसन्निव ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तेजस्वी कुमार अभिमन्युके ये अत्यन्त दारुण और अग्निके समान तेजस्वी घोर बाण आज मेरे वक्षःस्थलको विदीर्ण किये देते हैं।’ यह सुनकर द्रोणाचार्य ठहाका मारकर हँसते हुए-से धीरे-धीरे कर्णसे इस प्रकार बोले—॥२५-२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभेद्यमस्य कवचं युवा चाशुपराक्रमः।
उपदिष्टा मया चास्य पितुः कवचधारणा ॥ २७ ॥
तामेष निखिलां वेत्ति ध्रुवं परपुरंजयः।
शक्यं त्वस्य धनुश्छेत्तुं ज्यां च बाणैः समाहितैः ॥ २८ ॥
मूलम्
अभेद्यमस्य कवचं युवा चाशुपराक्रमः।
उपदिष्टा मया चास्य पितुः कवचधारणा ॥ २७ ॥
तामेष निखिलां वेत्ति ध्रुवं परपुरंजयः।
शक्यं त्वस्य धनुश्छेत्तुं ज्यां च बाणैः समाहितैः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कर्ण! अभिमन्युका कवच अभेद्य है। यह तरुण वीर शीघ्रतापूर्वक पराक्रम प्रकट करनेवाला है। मैंने इसके पिताको कवच धारण करनेकी विधि बतायी है। शत्रुनगरीपर विजय पानेवाला यह वीर कुमार निश्चय ही वह सारी विधि जानता है (अतः इसका कवच तो अभेद्य ही है); परंतु मनोयोगपूर्वक चलाये हुए बाणोंसे इसके धनुष और प्रत्यंचाको काटा जा सकता है॥२७-२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभीषूंश्च हयांश्चैव तथोभौ पार्ष्णिसारथी।
एतत् कुरु महेष्वास राधेय यदि शक्यते ॥ २९ ॥
मूलम्
अभीषूंश्च हयांश्चैव तथोभौ पार्ष्णिसारथी।
एतत् कुरु महेष्वास राधेय यदि शक्यते ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘साथ ही इसके घोड़ोंकी वागडोरोंको, घोड़ोंको तथा दोनों पार्श्वरक्षकोंको भी नष्ट किया जा सकता है। महाधनुर्धर राधापुत्र! यदि कर सको तो यही करो॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथैनं विमुखीकृत्य पश्चात् प्रहरणं कुरु।
सधनुष्को न शक्योऽयमपि जेतुं सुरासुरैः ॥ ३० ॥
मूलम्
अथैनं विमुखीकृत्य पश्चात् प्रहरणं कुरु।
सधनुष्को न शक्योऽयमपि जेतुं सुरासुरैः ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अभिमन्युको युद्धसे विमुख करके पीछे इसके ऊपर प्रहार करो, धनुष लिये रहनेपर तो इसे सम्पूर्ण देवता और असुर भी जीत नहीं सकते॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विरथं विधनुष्कं च कुरुष्वैनं यदीच्छसि।
तदाचार्यवचः श्रुत्वा कर्णो वैकर्तनस्त्वरन् ॥ ३१ ॥
अस्यतो लघुहस्तस्य पृषत्कैर्धनुराच्छिनत् ।
अश्वानस्यावधीद् भोजो गौतमः पार्ष्णिसारथी ॥ ३२ ॥
मूलम्
विरथं विधनुष्कं च कुरुष्वैनं यदीच्छसि।
तदाचार्यवचः श्रुत्वा कर्णो वैकर्तनस्त्वरन् ॥ ३१ ॥
अस्यतो लघुहस्तस्य पृषत्कैर्धनुराच्छिनत् ।
अश्वानस्यावधीद् भोजो गौतमः पार्ष्णिसारथी ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदि तुम इसे परास्त करना चाहते हो तो इसके रथ और धनुषको नष्ट कर दो।’ आचार्यकी यह बात सुनकर विकर्तनपुत्र कर्णने बड़ी उतावलीके साथ अपने बाणोंद्वारा शीघ्रतापूर्वक हाथ चलाते हुए अस्त्रोंका प्रयोग करनेवाले अभिमन्युके धनुषको काट दिया। भोजवंशी कृतवर्माने उसके घोड़े मार डाले और कृपाचार्यने दोनों पार्श्वरक्षकोंका काम तमाम कर दिया॥३१-३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शेषास्तु च्छिन्नधन्वानं शरवर्षैरवाकिरन् ।
त्वरमाणास्त्वराकाले विरथं षण्महारथाः ॥ ३३ ॥
शरवर्षैरकरुणा बालमेकमवाकिरन् ।
मूलम्
शेषास्तु च्छिन्नधन्वानं शरवर्षैरवाकिरन् ।
त्वरमाणास्त्वराकाले विरथं षण्महारथाः ॥ ३३ ॥
शरवर्षैरकरुणा बालमेकमवाकिरन् ।
अनुवाद (हिन्दी)
शेष महारथी धनुष कट जानेपर अभिमन्युके ऊपर बाणोंकी वर्षा करने लगे। इस प्रकार शीघ्रता करनेके अवसरपर शीघ्रता करनेवाले छः निर्दय महारथी एक रथहीन बालकपर बाणोंकी बौछार करने लगे॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स च्छिन्नधन्वा विरथः स्वधर्ममनुपालयन् ॥ ३४ ॥
खड्गचर्मधरः श्रीमानुत्पपात विहायसा ।
मूलम्
स च्छिन्नधन्वा विरथः स्वधर्ममनुपालयन् ॥ ३४ ॥
खड्गचर्मधरः श्रीमानुत्पपात विहायसा ।
अनुवाद (हिन्दी)
धनुष कट जाने और रथ नष्ट हो जानेपर तेजस्वी वीर अभिमन्यु अपने धर्मका पालन करते हुए ढाल और तलवार हाथमें लेकर आकाशमें उछल पड़ा॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मार्गैः सकौशिकाद्यैश्च लाघवेन बलेन च ॥ ३५ ॥
आर्जुनिर्व्यचरद् व्योम्नि भृशं वै पक्षिराडिव।
मूलम्
मार्गैः सकौशिकाद्यैश्च लाघवेन बलेन च ॥ ३५ ॥
आर्जुनिर्व्यचरद् व्योम्नि भृशं वै पक्षिराडिव।
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुनकुमार अभिमन्यु कौशिक आदि मार्गों (पैतरों) द्वारा तथा शीघ्रकारिता और बल-पराक्रमसे पक्षिराज गरुडकी भाँति भूतलकी अपेक्षा आकाशमें ही अधिक विचरण करने लगा॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मय्येव निपतत्येष सासिरित्यूर्ध्वदृष्टयः ॥ ३६ ॥
विव्यधुस्तं महेष्वासं समरे छिद्रदर्शिनः।
मूलम्
मय्येव निपतत्येष सासिरित्यूर्ध्वदृष्टयः ॥ ३६ ॥
विव्यधुस्तं महेष्वासं समरे छिद्रदर्शिनः।
अनुवाद (हिन्दी)
समरांगणमें छिद्र देखनेवाले योद्धा ‘जान पड़ता है यह मेरे ही ऊपर तलवार लिये टूटा पड़ता है’ इस आशंकासे ऊपरकी ओर दृष्टि करके महाधनुर्धर अभिमन्युको बींधने लगे॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य द्रोणोऽच्छिनन्मुष्टौ खड्गं मणिमयत्सरुम् ॥ ३७ ॥
क्षुरप्रेण महातेजास्त्वरमाणः सपत्नजित् ।
मूलम्
तस्य द्रोणोऽच्छिनन्मुष्टौ खड्गं मणिमयत्सरुम् ॥ ३७ ॥
क्षुरप्रेण महातेजास्त्वरमाणः सपत्नजित् ।
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय शत्रुओंपर विजय पानेवाले महातेजस्वी द्रोणाचार्यने शीघ्रता करते हुए एक क्षुरप्रके द्वारा अभिमन्युकी मुट्ठीमें स्थित हुए मणिमय मूठसे युक्त खड्गको काट डाला॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राधेयो निशितैर्बाणैर्व्यधमच्चर्म चोत्तमम् ॥ ३८ ॥
व्यसिचर्मेषुपूर्णाङ्गः सोऽन्तरिक्षात् पुनः क्षितिम्।
आस्थितश्चक्रमुद्यम्य द्रोणं क्रुद्धोऽभ्यधावत ॥ ३९ ॥
मूलम्
राधेयो निशितैर्बाणैर्व्यधमच्चर्म चोत्तमम् ॥ ३८ ॥
व्यसिचर्मेषुपूर्णाङ्गः सोऽन्तरिक्षात् पुनः क्षितिम्।
आस्थितश्चक्रमुद्यम्य द्रोणं क्रुद्धोऽभ्यधावत ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राधानन्दन कर्णने अपने पैने बाणोंद्वारा उसके उत्तम ढालके टुकड़े-टुकड़े कर डाले। ढाल और तलवारसे वंचित हो जानेपर बाणोंसे भरे हुए शरीरवाला अभिमन्यु पुनः आकाशसे पृथ्वीपर उतर आया और चक्र हाथमें ले कुपित हो द्रोणाचार्यकी ओर दौड़ा॥३८-३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स चक्ररेणूज्ज्वलशोभिताङ्गो
बभावतीवोज्ज्वलचक्रपाणिः ।
रणेऽभिमन्युः क्षणमास रौद्रः
स वासुदेवानुकृतिं प्रकुर्वन् ॥ ४० ॥
मूलम्
स चक्ररेणूज्ज्वलशोभिताङ्गो
बभावतीवोज्ज्वलचक्रपाणिः ।
रणेऽभिमन्युः क्षणमास रौद्रः
स वासुदेवानुकृतिं प्रकुर्वन् ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अभिमन्युका शरीर चक्रकी प्रभासे उज्ज्वल तथा धूलराशिसे सुशोभित था। उसके हाथमें तेजोमय उज्ज्वल चक्र प्रकाशित हो रहा था। इससे उसकी बड़ी शोभा हो रही थी। उस रणक्षेत्रमें चक्रधारणद्वारा भगवान् श्रीकृष्णका अनुकरण करता हुआ अभिमन्यु क्षणभरके लिये बड़ा भयंकर प्रतीत होने लगा॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्रुतरुधिरकृतैकरागवस्त्रो
भ्रुकुटिपुटाकुटिलोऽतिसिंहनादः ।
प्रभुरमितबलो रणेऽभिमन्यु-
र्नृपवरमध्यगतो भृशं व्यराजत् ॥ ४१ ॥
मूलम्
स्रुतरुधिरकृतैकरागवस्त्रो
भ्रुकुटिपुटाकुटिलोऽतिसिंहनादः ।
प्रभुरमितबलो रणेऽभिमन्यु-
र्नृपवरमध्यगतो भृशं व्यराजत् ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अभिमन्युके वस्त्र उसके शरीरसे बहनेवाले एकमात्र रुधिरके रंगमें रँग गये थे। भौंहें टेढ़ी होनेसे उसका मुख-मण्डल सब ओरसे कुटिल प्रतीत होता था और वह बड़े जोर-जोरसे सिंहनाद कर रहा था। ऐसी अवस्थामें प्रभावशाली अनन्त बलवान् अभिमन्यु उस रणक्षेत्रमें पूर्वोक्त नरेशोंके बीचमें खड़ा होकर अत्यन्त प्रकाशित हो रहा था॥४१॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि अभिमन्युविरथकरणे अष्टचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४८ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत अभिमन्युवधपर्वमें अभिमन्युको रथहीन करनेसे सम्बन्ध रखनेवाला अड़तालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥४८॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका श्लोक मिलाकर कुल ४१ श्लोक हैं।)