भागसूचना
अष्टात्रिंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
अभिमन्युके द्वारा शल्यके भाईका वध तथा द्रोणाचार्यकी रथसेनाका पलायन
मूलम् (वचनम्)
धृतराष्ट्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा प्रमथमानं तं महेष्वासानजिह्मगैः।
आर्जुनिं मामकाः संख्ये के त्वेनं समवारयन् ॥ १ ॥
मूलम्
तथा प्रमथमानं तं महेष्वासानजिह्मगैः।
आर्जुनिं मामकाः संख्ये के त्वेनं समवारयन् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धृतराष्ट्रने पूछा— संजय! अर्जुनकुमार अभिमन्यु जब इस प्रकार अपने बाणोंद्वारा बड़े-बड़े धनुर्धरोंको मथ रहा था, उस समय मेरे पक्षके किन योद्धाओंने उसे युद्धमें रोका था?॥१॥
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
शृणु राजन् कुमारस्य रणे विक्रीडितं महत्।
बिभित्सतो रथानीकं भारद्वाजेन रक्षितम् ॥ २ ॥
मूलम्
शृणु राजन् कुमारस्य रणे विक्रीडितं महत्।
बिभित्सतो रथानीकं भारद्वाजेन रक्षितम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजयने कहा— राजन्! रणक्षेत्रमें कुमार अभिमन्यु-की विशाल रणक्रीड़ाका वर्णन सुनिये। वह द्रोणाचार्य-द्वारा सुरक्षित रथियोंकी सेनाको विदीर्ण करना चाहता था॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मद्रेशं सादितं दृष्ट्वा सौभद्रेणाशुगै रणे।
शल्यादवरजः क्रुद्धः किरन् बाणान् समभ्ययात् ॥ ३ ॥
मूलम्
मद्रेशं सादितं दृष्ट्वा सौभद्रेणाशुगै रणे।
शल्यादवरजः क्रुद्धः किरन् बाणान् समभ्ययात् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुभद्राकुमारने रणभूमिमें अपने शीघ्रगामी बाणोंद्वारा घायल करके मद्रराज शल्यको धराशायी कर दिया, यह देखकर उनका छोटा भाई कुपित हो बाणोंकी वर्षा करता हुआ अभिमन्युपर चढ़ आया॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स विद्ध्वा दशभिर्बाणैः साश्वयन्तारमार्जुनिम्।
उदक्रोशन्महाशब्दं तिष्ठ तिष्ठेति चाब्रवीत् ॥ ४ ॥
मूलम्
स विद्ध्वा दशभिर्बाणैः साश्वयन्तारमार्जुनिम्।
उदक्रोशन्महाशब्दं तिष्ठ तिष्ठेति चाब्रवीत् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसने दस बाणोंद्वारा घोड़े और सारथिसहित अभिमन्युको क्षत-विक्षत करके बड़े जोरसे गर्जना की और कहा—‘अरे! खड़ा रह, खड़ा रह’॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्यार्जुनिः शिरोग्रीवं पाणिपादं धनुर्हयान्।
छत्रं ध्वजं नियन्तारं त्रिवेणुं तल्पमेव च ॥ ५ ॥
चक्रं युगं च तूणीरं ह्यनुकर्षं च सायकैः।
पताकां चक्रगोप्तारौ सर्वोपकरणानि च ॥ ६ ॥
लघुहस्तः प्रचिच्छेद ददृशे तं न कश्चन।
स पपात क्षितौ क्षीणः प्रविद्धाभरणाम्बरः ॥ ७ ॥
वायुनेव महाशैलः सम्भग्नोऽमिततेजसा ।
मूलम्
तस्यार्जुनिः शिरोग्रीवं पाणिपादं धनुर्हयान्।
छत्रं ध्वजं नियन्तारं त्रिवेणुं तल्पमेव च ॥ ५ ॥
चक्रं युगं च तूणीरं ह्यनुकर्षं च सायकैः।
पताकां चक्रगोप्तारौ सर्वोपकरणानि च ॥ ६ ॥
लघुहस्तः प्रचिच्छेद ददृशे तं न कश्चन।
स पपात क्षितौ क्षीणः प्रविद्धाभरणाम्बरः ॥ ७ ॥
वायुनेव महाशैलः सम्भग्नोऽमिततेजसा ।
अनुवाद (हिन्दी)
तब शीघ्रतापूर्वक हाथ चलानेवाले अर्जुनकुमारने अपने सायकोंद्वारा शल्यके भाईके मस्तक, ग्रीवा, हाथ, पैर, धनुष, अश्व, छत्र, ध्वज, सारथि, त्रिवेणु, तल्प (शय्या), पहिये, जूआ, तरकश, अनुकर्ष, पताका, चक्ररक्षक तथा अन्य समस्त उपकरणोंको काट डाला। उस समय कोई भी उसे देख न सका। जैसे वायुके वेगसे कोई महान् पर्वत टूटकर गिर पड़े, उसी प्रकार अमिततेजस्वी अभिमन्युका मारा हुआ वह शल्यराजका भाई छिन्न-भिन्न होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा। उसके वस्त्र और आभूषणोंके टुकड़े-टुकड़े हो गये थे॥५—७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनुगास्तस्य वित्रस्ताः प्राद्रवन् सर्वतो दिशः ॥ ८ ॥
आर्जुनेः कर्म तद् दृष्ट्वा सम्प्रणेदुः समन्ततः।
नादेन सर्वभूतानि साधु साध्विति भारत ॥ ९ ॥
मूलम्
अनुगास्तस्य वित्रस्ताः प्राद्रवन् सर्वतो दिशः ॥ ८ ॥
आर्जुनेः कर्म तद् दृष्ट्वा सम्प्रणेदुः समन्ततः।
नादेन सर्वभूतानि साधु साध्विति भारत ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके सेवक भयभीत होकर सम्पूर्ण दिशाओंमें भाग गये। भारत! अर्जुनकुमारके उस अद्भुत पराक्रमको देखकर समस्त प्राणी साधुवाद देते हुए सब ओर हर्षध्वनि करने लगे॥८-९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शल्यभ्रातर्यथारुग्णे बहुशस्तस्य सैनिकाः ।
कुलाधिवासनामानि श्रावयन्तोऽर्जुनात्मजम् ॥ १० ॥
अभ्यधावन्त संक्रुद्धा विविधायुधपाणयः ।
मूलम्
शल्यभ्रातर्यथारुग्णे बहुशस्तस्य सैनिकाः ।
कुलाधिवासनामानि श्रावयन्तोऽर्जुनात्मजम् ॥ १० ॥
अभ्यधावन्त संक्रुद्धा विविधायुधपाणयः ।
अनुवाद (हिन्दी)
शल्यके भाईके मारे जानेपर उसके बहुत-से सैनिक अपने कुल और निवासस्थानके नाम सुनाते हुए कुपित हो हाथोंमें नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्र लिये अर्जुनकुमार अभिमन्युकी ओर दौड़े॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रथैरश्वैर्गजैश्चान्ये पद्भिश्चान्ये बलोत्कटाः ॥ ११ ॥
बाणशब्देन महता रथनेमिस्वनेन च।
हुंकारैः क्ष्वेडितोत्क्रुष्टैः सिंहनादैः सगर्जितैः ॥ १२ ॥
ज्यातलत्रस्वनैरन्ये गर्जन्तोऽर्जुननन्दनम् ।
ब्रुवन्तश्च न नो जीवन् मोक्ष्यसे जीवितादिति ॥ १३ ॥
मूलम्
रथैरश्वैर्गजैश्चान्ये पद्भिश्चान्ये बलोत्कटाः ॥ ११ ॥
बाणशब्देन महता रथनेमिस्वनेन च।
हुंकारैः क्ष्वेडितोत्क्रुष्टैः सिंहनादैः सगर्जितैः ॥ १२ ॥
ज्यातलत्रस्वनैरन्ये गर्जन्तोऽर्जुननन्दनम् ।
ब्रुवन्तश्च न नो जीवन् मोक्ष्यसे जीवितादिति ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कितने ही वीर रथ, घोड़े और हाथीपर सवार होकर आये। दूसरे बहुत-से प्रचण्ड बलशाली योद्धा पैदल ही दौड़ पड़े। बाणोंकी सनसनाहट, रथके पहियोंकी जोर-जोरसे होनेवाली घर्घराहट, हुंकार, कोलाहल, ललकार, सिंहनाद, गर्जना, धनुषकी टंकार तथा हस्तत्राणके चट-चट शब्दके साथ गर्जन-तर्जन करते हुए अन्यान्य बहुत-से योद्धा अर्जुनकुमार अभिमन्युपर यह कहते हुए टूट पड़े, ‘अब तू हमारे हाथसे जीवित नहीं छूट सकता। तुझे जीवनसे ही हाथ धोना पड़ेगा’॥११—१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तांस्तथा ब्रुवतो दृष्ट्वा सौभद्रः प्रहसन्निव।
यो योऽस्मै प्राहरत् पूर्वं तं तं विव्याध पत्रिभिः॥१४॥
मूलम्
तांस्तथा ब्रुवतो दृष्ट्वा सौभद्रः प्रहसन्निव।
यो योऽस्मै प्राहरत् पूर्वं तं तं विव्याध पत्रिभिः॥१४॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनको ऐसा कहते देख सुभद्राकुमार अभिमन्यु मानो जोर-जोरसे हँसने लगा और जिस-जिस योद्धाने उसपर पहले प्रहार किया, उस-उसको उसने भी अपने पंखयुक्त बाणोंद्वारा घायल कर दिया॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संदर्शयिष्यन्नस्त्राणि विचित्राणि लघूनि च।
आर्जुनिः समरे शूरो मृदुपूर्वमयुध्यत ॥ १५ ॥
मूलम्
संदर्शयिष्यन्नस्त्राणि विचित्राणि लघूनि च।
आर्जुनिः समरे शूरो मृदुपूर्वमयुध्यत ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शूरवीर अर्जुनकुमारने समरांगणमें अपने विचित्र एवं शीघ्रगामी अस्त्रोंका प्रदर्शन करते हुए पहले मृदुभावसे ही युद्ध किया॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वासुदेवादुपात्तं यदस्त्रं यच्च धनंजयात्।
अदर्शयत तत् कार्ष्णिः कृष्णाभ्यामविशेषवत् ॥ १६ ॥
मूलम्
वासुदेवादुपात्तं यदस्त्रं यच्च धनंजयात्।
अदर्शयत तत् कार्ष्णिः कृष्णाभ्यामविशेषवत् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्ण तथा अर्जुनसे अभिमन्युने जो-जो अस्त्र प्राप्त किये थे, उनका उन्हीं दोनोंकी भाँति वह युद्धस्थलमें प्रदर्शन करने लगा॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दूरमस्य गुरुं भारं साध्वसं च पुनः पुनः।
संदधद् विसृजंश्चेषून् निर्विशेषमदृश्यत ॥ १७ ॥
मूलम्
दूरमस्य गुरुं भारं साध्वसं च पुनः पुनः।
संदधद् विसृजंश्चेषून् निर्विशेषमदृश्यत ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारी भार और भय उससे दूर हो गया था। वह बारंबार बाणोंका संधान करता और छोड़ता हुआ एक-सा दिखायी देता था॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चापमण्डलमेवास्य विस्फुरद् दिक्ष्वदृश्यत ।
सुदीप्तस्य शरत्काले सवितुर्मण्डलं यथा ॥ १८ ॥
मूलम्
चापमण्डलमेवास्य विस्फुरद् दिक्ष्वदृश्यत ।
सुदीप्तस्य शरत्काले सवितुर्मण्डलं यथा ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे शरद्-ऋतुमें अत्यन्त प्रकाशित होनेवाले सूर्यदेवका मण्डल दृष्टिगोचर होता है, उसी प्रकार अभिमन्युका मण्डलाकार धनुष ही सम्पूर्ण दिशाओंमें उद्भासित होता दिखायी देता था॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्याशब्दः शुश्रुवे तस्य तलशब्दश्च दारुणः।
महाशनिमुचः काले पयोदस्येव निःस्वनः ॥ १९ ॥
मूलम्
ज्याशब्दः शुश्रुवे तस्य तलशब्दश्च दारुणः।
महाशनिमुचः काले पयोदस्येव निःस्वनः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके धनुषकी प्रत्यंचा और हथेलीका शब्द वर्षाकालमें महान् वज्र गिरानेवाले मेघकी गर्जनाके समान भयंकर सुनायी पड़ता था॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ह्रीमानमर्षी सौभद्रो मानकृत् प्रियदर्शनः।
सम्मिमानयिषुर्वीरानिष्वस्त्रैश्चाप्ययुध्यत ॥ २० ॥
मूलम्
ह्रीमानमर्षी सौभद्रो मानकृत् प्रियदर्शनः।
सम्मिमानयिषुर्वीरानिष्वस्त्रैश्चाप्ययुध्यत ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
लज्जाशील, अमर्षी, दूसरोंको मान देनेवाला और देखनेमें प्रिय लगनेवाला सुभद्राकुमार अभिमन्यु विपक्षी वीरोंका सम्मान करनेकी इच्छासे धनुष-बाणोंद्वारा युद्ध करता रहा॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मृदुर्भूत्वा महाराज दारुणः समपद्यत।
वर्षाभ्यतीतो भगवाञ्छरदीव दिवाकरः ॥ २१ ॥
मूलम्
मृदुर्भूत्वा महाराज दारुणः समपद्यत।
वर्षाभ्यतीतो भगवाञ्छरदीव दिवाकरः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! जैसे वर्षाकाल बीतनेपर शरत्कालमें भगवान् सूर्य प्रचण्ड हो उठते हैं, उसी प्रकार अभिमन्यु पहले मृदु होकर अन्तमें शत्रुओंके लिये अति उग्र हो उठा॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शरान् विचित्रान् सुबहून् रुक्मपुङ्खाञ्छिलाशितान्।
मुमोच शतशः क्रुद्धो गभस्तीनिव भास्करः ॥ २२ ॥
मूलम्
शरान् विचित्रान् सुबहून् रुक्मपुङ्खाञ्छिलाशितान्।
मुमोच शतशः क्रुद्धो गभस्तीनिव भास्करः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे सूर्य अपनी सहस्रों किरणोंको सब ओर बिखेर देते हैं, उसी प्रकार क्रोधमें भरा हुआ अभिमन्यु सानपर चढ़ाकर तेज किये हुए सुवर्णमय पंखसे युक्त सैकड़ों विचित्र एवं बहुसंख्यक बाणोंकी वर्षा करने लगा॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षुरप्रैर्वत्सदन्तैश्च विपाठैश्च महायशाः ।
नाराचैरर्धचन्द्राभैर्भल्लैरञ्जलिकैरपि ॥ २३ ॥
अवाकिरद् रथानीकं भारद्वाजस्य पश्यतः।
ततस्तत्सैन्यमभवद् विमुखं शरपीडितम् ॥ २४ ॥
मूलम्
क्षुरप्रैर्वत्सदन्तैश्च विपाठैश्च महायशाः ।
नाराचैरर्धचन्द्राभैर्भल्लैरञ्जलिकैरपि ॥ २३ ॥
अवाकिरद् रथानीकं भारद्वाजस्य पश्यतः।
ततस्तत्सैन्यमभवद् विमुखं शरपीडितम् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस महायशस्वी वीरने द्रोणाचार्यके देखते-देखते उनकी रथसेनापर क्षुरप्र, वत्सदन्त, विपाठ, नाराच, अर्धचन्द्राकार बाण, भल्ल एवं अंजलिक आदिकी वर्षा आरम्भ कर दी। इससे उन बाणोंद्वारा पीड़ित हुई वह सेना युद्धसे विमुख होकर भाग चली॥२३-२४॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि अभिमन्युपराक्रमे अष्टात्रिंशोऽध्यायः ॥ ३८ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत अभिमन्युवधपर्वमें अभिमन्यु-पराक्रमविषयक अड़तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३८॥