भागसूचना
(अभिमन्युवधपर्व)
त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
दुर्योधनका उपालम्भ, द्रोणाचार्यकी प्रतिज्ञा और अभिमन्युवधके वृत्तान्तका संक्षेपसे वर्णन
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूर्वमस्मासु भग्नेषु फाल्गुनेनामितौजसा ।
द्रोणे च मोघसंकल्पे रक्षिते च युधिष्ठिरे ॥ १ ॥
सर्वे विध्वस्तकवचास्तावका युधि निर्जिताः।
रजस्वला भृशोद्विग्ना वीक्षमाणा दिशो दश ॥ २ ॥
अवहारं ततः कृत्वा भारद्वाजस्य सम्मते।
लब्धलक्ष्यैः शरैर्भिन्ना भृशावहसिता रणे ॥ ३ ॥
मूलम्
पूर्वमस्मासु भग्नेषु फाल्गुनेनामितौजसा ।
द्रोणे च मोघसंकल्पे रक्षिते च युधिष्ठिरे ॥ १ ॥
सर्वे विध्वस्तकवचास्तावका युधि निर्जिताः।
रजस्वला भृशोद्विग्ना वीक्षमाणा दिशो दश ॥ २ ॥
अवहारं ततः कृत्वा भारद्वाजस्य सम्मते।
लब्धलक्ष्यैः शरैर्भिन्ना भृशावहसिता रणे ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— महाराज! जब अमित तेजस्वी अर्जुनने पहले ही हम सब लोगोंको भगा दिया, द्रोणाचार्यका संकल्प व्यर्थ हो गया तथा राजा युधिष्ठिर सर्वथा सुरक्षित रह गये, तब आपके समस्त सैनिक द्रोणाचार्यकी सम्मतिसे युद्ध बंद करके भयसे अत्यन्त उद्विग्न हो दसों दिशाओंकी ओर देखते हुए शिविरकी ओर चल दिये। वे सब-के-सब युद्धमें पराजित होकर धूलमें भर गये थे। उनके कवच छिन्न-भिन्न हो गये थे तथा कभी न चूकनेवाले अर्जुनके बाणोंसे विदीर्ण होकर वे रणक्षेत्रमें अत्यन्त उपहासके पात्र बन गये॥१—३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्लाघमानेषु भूतेषु फाल्गुनस्यामितान् गुणान्।
केशवस्य च सौहार्दे कीर्त्यमानेऽर्जुनं प्रति ॥ ४ ॥
मूलम्
श्लाघमानेषु भूतेषु फाल्गुनस्यामितान् गुणान्।
केशवस्य च सौहार्दे कीर्त्यमानेऽर्जुनं प्रति ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
समस्त प्राणी अर्जुनके असंख्य गुणोंकी प्रशंसा तथा उनके प्रति भगवान् श्रीकृष्णके सौहार्दका बखान कर रहे थे॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभिशस्ता इवाभूवन् ध्यानमूकत्वमास्थिताः ।
ततः प्रभातसमये द्रोणं दुर्योधनोऽब्रवीत् ॥ ५ ॥
मूलम्
अभिशस्ता इवाभूवन् ध्यानमूकत्वमास्थिताः ।
ततः प्रभातसमये द्रोणं दुर्योधनोऽब्रवीत् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय आपके महारथीगण कलंकित-से हो रहे थे। वे ध्यानस्थसे होकर मूक हो गये थे। तदनन्तर प्रातःकाल दुर्योधन द्रोणाचार्यके पास जाकर उनसे कुछ कहनेको उद्यत हुआ॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रणयादभिमानाच्च द्विषद्वृद्ध्या च दुर्मनाः।
शृण्वतां सर्वयोधानां संरब्धो वाक्यकोविदः ॥ ६ ॥
मूलम्
प्रणयादभिमानाच्च द्विषद्वृद्ध्या च दुर्मनाः।
शृण्वतां सर्वयोधानां संरब्धो वाक्यकोविदः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुओंके अभ्युदयसे वह मन-ही-मन बहुत दुःखी हो गया था। द्रोणाचार्यके प्रति उसके हृदयमें प्रेम था। उसे अपने शौर्यपर अभिमान भी था। अतः अत्यन्त कुपित हो बातचीतमें कुशल राजा दुर्योधनने समस्त योद्धाओंके सुनते हुए इस प्रकार कहा—॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नूनं वयं वध्यपक्षे भवतो द्विजसत्तम।
तथा हि नाग्रहीः प्राप्तं समीपेऽद्य युधिष्ठिरम् ॥ ७ ॥
मूलम्
नूनं वयं वध्यपक्षे भवतो द्विजसत्तम।
तथा हि नाग्रहीः प्राप्तं समीपेऽद्य युधिष्ठिरम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘द्विजश्रेष्ठ! निश्चय ही हमलोग आपकी दृष्टिमें शत्रुवर्गके अन्तर्गत हैं। यही कारण है कि आज आपने अत्यन्त निकट आनेपर भी राजा युधिष्ठिरको नहीं पकड़ा है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इच्छतस्ते न मुच्येत चक्षुःप्राप्तो रणे रिपुः।
जिघृक्षतो रक्ष्यमाणः सामरैरपि पाण्डवैः ॥ ८ ॥
मूलम्
इच्छतस्ते न मुच्येत चक्षुःप्राप्तो रणे रिपुः।
जिघृक्षतो रक्ष्यमाणः सामरैरपि पाण्डवैः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘रणक्षेत्रमें कोई शत्रु आपके नेत्रोंके समक्ष आ जाय और उसे आप पकड़ना चाहें तो सम्पूर्ण देवताओंके साथ रहे सारे पाण्डव उसकी रक्षा क्यों न कर रहे हों, निश्चय ही वह आपसे छूटकर नहीं जा सकता॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वरं दत्त्वा मम प्रीतः पश्चाद् विकृतवानसि।
आशाभङ्गं न कुर्वन्ति भक्तस्यार्याः कथंचन ॥ ९ ॥
मूलम्
वरं दत्त्वा मम प्रीतः पश्चाद् विकृतवानसि।
आशाभङ्गं न कुर्वन्ति भक्तस्यार्याः कथंचन ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आपने प्रसन्न होकर पहले तो मुझे वर दिया और पीछे उसे उलट दिया; परंतु श्रेष्ठ पुरुष किसी प्रकार भी अपने भक्तकी आशा भंग नहीं करते हैं’॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽप्रीतस्तथोक्तः सन् भारद्वाजोऽब्रवीन्नृपम् ।
नाईसे मां तथा ज्ञातुं घटमानं तव प्रिये ॥ १० ॥
मूलम्
ततोऽप्रीतस्तथोक्तः सन् भारद्वाजोऽब्रवीन्नृपम् ।
नाईसे मां तथा ज्ञातुं घटमानं तव प्रिये ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुर्योधनके ऐसा कहनेपर द्रोणाचार्यको तनिक भी प्रसन्नता नहीं हुई। वे दुःखी होकर राजासे इस प्रकार बोले—‘राजन्! तुमको मुझे इस प्रकार प्रतिज्ञा भंग करनेवाला नहीं समझना चाहिये। मैं अपनी पूरी शक्ति लगाकर तुम्हारा प्रिय करनेकी चेष्टा कर रहा हूँ॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ससुरासुरगन्धर्वाः सयक्षोरगराक्षसाः ।
नालं लोका रणे जेतुं पाल्यमानं किरीटिना ॥ ११ ॥
मूलम्
ससुरासुरगन्धर्वाः सयक्षोरगराक्षसाः ।
नालं लोका रणे जेतुं पाल्यमानं किरीटिना ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘परंतु एक बात याद रखो, किरीटधारी अर्जुन रणक्षेत्रमें जिसकी रक्षा कर रहे हों, उसे देवता, असुर, गन्धर्व, यक्ष, नाग तथा राक्षसोंसहित सम्पूर्ण लोक भी नहीं जीत सकते॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वसृग् यत्र गोविन्दः पृतनानीस्तथार्जुनः।
तत्र कस्य बलं क्रामेदन्यत्र त्र्यम्बकात् प्रभोः ॥ १२ ॥
मूलम्
विश्वसृग् यत्र गोविन्दः पृतनानीस्तथार्जुनः।
तत्र कस्य बलं क्रामेदन्यत्र त्र्यम्बकात् प्रभोः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जहाँ जगत्स्रष्टा भगवान् श्रीकृष्ण तथा अर्जुन सेनानायक हों, वहाँ भगवान् शंकरके सिवा दूसरे किस पुरुषका बल काम कर सकता है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्यं तात ब्रवीम्यद्य नैतज्जात्वन्यथा भवेत्।
अद्यैकं प्रवरं कंचित् पातयिष्ये महारथम् ॥ १३ ॥
मूलम्
सत्यं तात ब्रवीम्यद्य नैतज्जात्वन्यथा भवेत्।
अद्यैकं प्रवरं कंचित् पातयिष्ये महारथम् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तात! आज मैं एक सच्ची बात कहता हूँ, यह कभी झूठी नहीं हो सकती। आज मैं पाण्डवपक्षके किसी श्रेष्ठ महारथीको अवश्य मार गिराऊँगा॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं च व्यूहं विधास्यामि योऽभेद्यस्त्रिदशैरपि।
योगेन केनचिद् राजन्नर्जुनस्त्वपनीयताम् ॥ १४ ॥
मूलम्
तं च व्यूहं विधास्यामि योऽभेद्यस्त्रिदशैरपि।
योगेन केनचिद् राजन्नर्जुनस्त्वपनीयताम् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! आज उस व्यूहका निर्माण करूँगा, जिसे देवता भी तोड़ नहीं सकते; परंतु किसी उपायसे अर्जुनको यहाँसे दूर हटा दो॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न ह्यज्ञातमसाध्यं वा तस्य संख्येऽस्ति किंचन।
तेन ह्युपात्तं सकलं सर्वज्ञानमितस्ततः ॥ १५ ॥
मूलम्
न ह्यज्ञातमसाध्यं वा तस्य संख्येऽस्ति किंचन।
तेन ह्युपात्तं सकलं सर्वज्ञानमितस्ततः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘युद्धके सम्बन्धमें कोई ऐसी बात नहीं है, जो अर्जुनके लिये अज्ञात अथवा असाध्य हो। उन्होंने इधर-उधरसे युद्धविषयक सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया है’॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रोणेन व्याहृते त्वेवं संशप्तकगणाः पुनः।
आह्वयन्नर्जुनं संख्ये दक्षिणामभितो दिशम् ॥ १६ ॥
मूलम्
द्रोणेन व्याहृते त्वेवं संशप्तकगणाः पुनः।
आह्वयन्नर्जुनं संख्ये दक्षिणामभितो दिशम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्रोणाचार्यके ऐसा कहनेपर पुनः संशप्तकगणोंने दक्षिण दिशामें जा अर्जुनको युद्धके लिये ललकारा॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽर्जुनस्याथ परैः सार्धं समभवद् रणः।
तादृशो यादृशो नान्यः श्रुतो दृष्टोऽपि वा क्वचित् ॥ १७ ॥
मूलम्
ततोऽर्जुनस्याथ परैः सार्धं समभवद् रणः।
तादृशो यादृशो नान्यः श्रुतो दृष्टोऽपि वा क्वचित् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ अर्जुनका शत्रुओंके साथ ऐसा घोर संग्राम हुआ, जैसा दूसरा कोई कहीं न तो देखा गया है और न सुना ही गया है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र द्रोणेन विहितो व्यूहो राजन् व्यरोचत।
चरन् मध्यंदिने सूर्यः प्रतपन्निव दुर्दृशः ॥ १८ ॥
मूलम्
तत्र द्रोणेन विहितो व्यूहो राजन् व्यरोचत।
चरन् मध्यंदिने सूर्यः प्रतपन्निव दुर्दृशः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! उस समय वहाँ द्रोणाचार्यने जिस व्यूहका निर्माण किया, वह मध्याह्नकालमें विचरते हुए सूर्यकी भाँति शत्रुओंको संताप देता-सा सुशोभित हो रहा था। उसे जीतना तो दूर रहा, उसकी ओर आँख उठाकर देखना भी अत्यन्त कठिन था॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं चाभिमन्युर्वचनात् पितुर्ज्येष्ठस्य भारत।
बिभेद दुर्भिदं संख्ये चक्रव्यूहमनेकधा ॥ १९ ॥
मूलम्
तं चाभिमन्युर्वचनात् पितुर्ज्येष्ठस्य भारत।
बिभेद दुर्भिदं संख्ये चक्रव्यूहमनेकधा ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! यद्यपि उस चक्रव्यूहका भेदन करना अत्यन्त दुष्कर कार्य था तो भी वीर अभिमन्युने अपने ताऊ युधिष्ठिरकी आज्ञासे उस व्यूहका बारंबार भेदन किया॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स कृत्वा दुष्करं कर्म हत्वा वीरान् सहस्रशः।
षट्सु वीरेषु संसक्तो दौःशासनिवशं गतः ॥ २० ॥
मूलम्
स कृत्वा दुष्करं कर्म हत्वा वीरान् सहस्रशः।
षट्सु वीरेषु संसक्तो दौःशासनिवशं गतः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अभिमन्युने वह दुष्कर कर्म करके सहस्रों वीरोंका वध किया और अन्तमें छः वीरोंके साथ अकेला ही उलझकर दुःशासनपुत्रके हाथसे मारा गया॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सौभद्रः पृथिवीपाल जहौ प्राणान् परंतपः।
वयं परमसंहृष्टाः पाण्डवाः शोककर्शिताः।
सौभद्रे निहते राजन्नवहारमकुर्महि ॥ २१ ॥
मूलम्
सौभद्रः पृथिवीपाल जहौ प्राणान् परंतपः।
वयं परमसंहृष्टाः पाण्डवाः शोककर्शिताः।
सौभद्रे निहते राजन्नवहारमकुर्महि ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भूपाल! शत्रुओंको संताप देनेवाले सुभद्राकुमारने जब प्राण त्याग दिये, उस समय हमलोगोंको बड़ा हर्ष हुआ और पाण्डव शोकसे व्याकुल हो गये। राजन्! सुभद्रा-कुमारके मारे जानेपर हमलोगोंने युद्ध बंद कर दिया॥२१॥
मूलम् (वचनम्)
धृतराष्ट्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुत्रं पुरुषसिंहस्य संजयाप्राप्तयौवनम् ।
रणे विनिहतं श्रुत्वा भृशं मे दीर्यते मनः ॥ २२ ॥
मूलम्
पुत्रं पुरुषसिंहस्य संजयाप्राप्तयौवनम् ।
रणे विनिहतं श्रुत्वा भृशं मे दीर्यते मनः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धृतराष्ट्र बोले— संजय! पुरुषसिंह अर्जुनका वह पुत्र अभी युवावस्थामें भी नहीं पहुँचा था। उसे युद्धमें मारा गया सुनकर मेरा हृदय अत्यन्त विदीर्ण हो रहा है॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दारुणः क्षत्रधर्मोऽयं विहितो धर्मकर्तृभिः।
यत्र राज्येप्सवः शूरा बाले शस्त्रमपातयन् ॥ २३ ॥
मूलम्
दारुणः क्षत्रधर्मोऽयं विहितो धर्मकर्तृभिः।
यत्र राज्येप्सवः शूरा बाले शस्त्रमपातयन् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मशास्त्रके निर्माताओंने यह क्षत्रिय-धर्म अत्यन्त कठोर बनाया है, जिसमें स्थित होकर राज्यके लोभी शूर-वीरोंने एक बालकपर अस्त्र-शस्त्रोंका प्रहार किया॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बालमत्यन्तसुखिनं विचरन्तमभीतवत् ।
कृतास्त्रा बहवो जघ्नुर्ब्रूहि गावल्गणे कथम् ॥ २४ ॥
मूलम्
बालमत्यन्तसुखिनं विचरन्तमभीतवत् ।
कृतास्त्रा बहवो जघ्नुर्ब्रूहि गावल्गणे कथम् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय! वह अत्यन्त प्रसन्न रहनेवाला बालक जब निर्भय-सा होकर युद्धमें विचर रहा था, उस समय अस्त्रविद्याके पारंगत बहुसंख्यक शूरवीरोंने उसका वध कैसे किया? यह मुझे बताओ॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिभित्सता रथानीकं सौभद्रेणामितौजसा ।
विक्रीडितं यथा संख्ये तन्ममाचक्ष्व संजय ॥ २५ ॥
मूलम्
बिभित्सता रथानीकं सौभद्रेणामितौजसा ।
विक्रीडितं यथा संख्ये तन्ममाचक्ष्व संजय ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय! अमित तेजस्वी सुभद्राकुमारने युद्धके मैदानमें रथियोंकी सेनाको विदीर्ण करनेकी इच्छासे जिस प्रकार युद्धका खेल किया था, वह सब मुझे बताओ॥२५॥
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यन्मां पृच्छसि राजेन्द्र सौभद्रस्य निपातनम्।
तत् ते कार्त्स्न्येन वक्ष्यामि शृणु राजन् समाहितः ॥ २६ ॥
मूलम्
यन्मां पृच्छसि राजेन्द्र सौभद्रस्य निपातनम्।
तत् ते कार्त्स्न्येन वक्ष्यामि शृणु राजन् समाहितः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजयने कहा— राजेन्द्र! आप जो मुझसे सुभद्राकुमारके मारे जानेका वृत्तान्त पूछ रहे हैं, वह सब मैं आपको पूर्णरूपसे बताऊँगा। राजन्! आप एकाग्रचित्त होकर सुनें॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विक्रीडितं कुमारेण यथानीकं बिभित्सता।
आरुग्णाश्च यथा वीरा दुःसाध्याश्चापि विप्लवे ॥ २७ ॥
मूलम्
विक्रीडितं कुमारेण यथानीकं बिभित्सता।
आरुग्णाश्च यथा वीरा दुःसाध्याश्चापि विप्लवे ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपकी सेनाके व्यूहका भेदन करनेकी इच्छासे कुमार अभिमन्युने जिस प्रकार रणक्रीड़ा की थी और उस प्रलयंकर संग्राममें जैसे-जैसे दुर्जय वीरोंके भी पाँव उखाड़ दिये थे, वह सब बता रहा हूँ॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दावाग्न्यभिपरीतानां भूरिगुल्मतृणद्रुमे ।
वनौकसामिवारण्ये त्वदीयानामभूद् भयम् ॥ २८ ॥
मूलम्
दावाग्न्यभिपरीतानां भूरिगुल्मतृणद्रुमे ।
वनौकसामिवारण्ये त्वदीयानामभूद् भयम् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे प्रचुर लता-गुल्म, घास-पात और वृक्षोंसे भरे हुए वनमें दावानलसे घिरे हुए वनवासियोंको महान् भयका सामना करना पड़ता है, उसी प्रकार अभिमन्युसे आपके सैनिकोंको अत्यन्त भय प्राप्त हुआ था॥२८॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि अभिमन्युवधसंक्षेपकथने त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३३ ॥
Misc Detail
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत अभिमन्युवधपर्वमें अभिमन्युवधका संक्षेपसे वर्णनविषयक तैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३३॥