०३१ नीलवधे

भागसूचना

एकत्रिंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

कौरव-पाण्डव-सेनाओंका घमासान युद्ध तथा अश्वत्थामाके द्वारा राजा नीलका वध

मूलम् (वचनम्)

धृतराष्ट्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेष्वनीकेषु भग्नेषु पाण्डुपुत्रेण संजय।
चलितानां द्रुतानां च कथमासीन्मनो हि वः ॥ १ ॥

मूलम्

तेष्वनीकेषु भग्नेषु पाण्डुपुत्रेण संजय।
चलितानां द्रुतानां च कथमासीन्मनो हि वः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्रने पूछा— संजय! पाण्डुपुत्र अर्जुनके द्वारा पराजित हो जब सारी सेनाएँ भाग खड़ी हुईं, उस समय विचलित हो पलायन करते हुए तुमलोगोंके मनकी कैसी अवस्था हो रही थी?॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनीकानां प्रभग्नानामवस्थानमपश्यताम् ।
दुष्करं प्रतिसंधानं तन्ममाचक्ष्व संजय ॥ २ ॥

मूलम्

अनीकानां प्रभग्नानामवस्थानमपश्यताम् ।
दुष्करं प्रतिसंधानं तन्ममाचक्ष्व संजय ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भागती हुई सेनाओंको जब अपने ठहरनेके लिये कोई स्थान नहीं दिखायी देता हो, उस समय उन सबको संगठित करके एक स्थानपर ले आना बड़ा कठिन काम होता है। अतः संजय! तुम मुझे वह सब समाचार ठीक-ठीक बताओ॥२॥

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथापि तव पुत्रस्य प्रियकामा विशाम्पते।
यशः प्रवीरा लोकेषु रक्षन्तो द्रोणमन्वयुः ॥ ३ ॥

मूलम्

तथापि तव पुत्रस्य प्रियकामा विशाम्पते।
यशः प्रवीरा लोकेषु रक्षन्तो द्रोणमन्वयुः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजयने कहा— प्रजानाथ! यद्यपि सेनाओंमें भगदड़ पड़ गयी थी, तथापि बहुत-से विश्वविख्यात वीरोंने आपके पुत्रका प्रिय करनेकी इच्छा रखकर अपने यशकी रक्षा करते हुए उस समय द्रोणाचार्यका साथ दिया॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समुद्यतेषु चास्त्रेषु सम्प्राप्ते च युधिष्ठिरे।
अकुर्वन्नार्यकर्माणि भैरवे सत्यभीतवत् ॥ ४ ॥
अन्तरं भीमसेनस्य प्रापतन्नमितौजसः ।
सात्यकेश्चैव वीरस्य धृष्टद्युम्नस्य वा विभो ॥ ५ ॥

मूलम्

समुद्यतेषु चास्त्रेषु सम्प्राप्ते च युधिष्ठिरे।
अकुर्वन्नार्यकर्माणि भैरवे सत्यभीतवत् ॥ ४ ॥
अन्तरं भीमसेनस्य प्रापतन्नमितौजसः ।
सात्यकेश्चैव वीरस्य धृष्टद्युम्नस्य वा विभो ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! वह भयंकर संग्राम छिड़ जानेपर समस्त योद्धा निर्भय-से होकर आर्यजनोचित्त पुरुषार्थ प्रकट करने लगे। जब सब ओरसे हथियार उठे हुए थे और राजा युधिष्ठिर सामने आ पहुँचे थे, उस दशामें भीमसेन, सात्यकि अथवा वीर धृष्टद्युम्नकी असावधानीका लाभ उठाकर अमिततेजस्वी कौरवयोद्धा पाण्डव-सेनापर टूट पड़े॥४-५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्रोणं द्रोणमिति क्रूराः पञ्चालाः समचोदयन्।
मा द्रोणमिति पुत्रास्ते कुरून् सर्वानचोदयन् ॥ ६ ॥

मूलम्

द्रोणं द्रोणमिति क्रूराः पञ्चालाः समचोदयन्।
मा द्रोणमिति पुत्रास्ते कुरून् सर्वानचोदयन् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्रूर स्वभाववाले पांचालसैनिक एक-दूसरेको प्रेरित करने लगे, अरे! द्रोणाचार्यको पकड़ लो, द्रोणाचार्यको बंदी बना लो और आपके पुत्र समस्त कौरवोंको आदेश दे रहे थे कि देखना, द्रोणाचार्यको शत्रु पकड़ न पावें॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्रोणं द्रोणमिति ह्येके मा द्रोणमिति चापरे।
कुरूणां पाण्डवानां च द्रोणद्यूतमवर्तत ॥ ७ ॥

मूलम्

द्रोणं द्रोणमिति ह्येके मा द्रोणमिति चापरे।
कुरूणां पाण्डवानां च द्रोणद्यूतमवर्तत ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक ओरसे आवाज आती थी ‘द्रोणको पकड़ो, द्रोणको पकड़ो।’ दूसरी ओरसे उत्तर मिलता, ‘द्रोणाचार्यको कोई नहीं पकड़ सकता।’ इस प्रकार द्रोणाचार्यको दाँवपर रखकर कौरव और पाण्डवोंमें युद्धका जूआ आरम्भ हो गया था॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यं यं प्रमथते द्रोणः पञ्चालानां रथव्रजम्।
तत्र तत्र तु पाञ्चाल्यो धृष्टद्युम्नोऽभ्यवर्तत ॥ ८ ॥

मूलम्

यं यं प्रमथते द्रोणः पञ्चालानां रथव्रजम्।
तत्र तत्र तु पाञ्चाल्यो धृष्टद्युम्नोऽभ्यवर्तत ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पांचालोंके जिस-जिस रथसमुदायको द्रोणाचार्य मथ डालनेका प्रयत्न करते, वहाँ-वहाँ पांचालराजकुमार धृष्टद्युम्न उनका सामना करनेके लिये आ जाता था॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा भागविपर्यासैः संग्रामे भैरवे सति।
वीराः समासदन् वीरान् कुर्वन्तो भैरवं रवम् ॥ ९ ॥

मूलम्

तथा भागविपर्यासैः संग्रामे भैरवे सति।
वीराः समासदन् वीरान् कुर्वन्तो भैरवं रवम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार भागविपर्ययद्वारा भयंकर संग्राम आरम्भ होनेपर भैरव-गर्जना करते हुए उभय पक्षके वीरोंने विपक्षी वीरोंपर आक्रमण किया॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अकम्पनीयाः शत्रूणां बभूवुस्तत्र पाण्डवाः।
अकम्पयन्ननीकानि स्मरन्तः क्लेशमात्मनः ॥ १० ॥

मूलम्

अकम्पनीयाः शत्रूणां बभूवुस्तत्र पाण्डवाः।
अकम्पयन्ननीकानि स्मरन्तः क्लेशमात्मनः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय पाण्डवोंको शत्रुदलके लोग विचलित न कर सके। वे अपनेको दिये गये क्लेशोंको याद करके आपके सैनिकोंको कँपा रहे थे॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते त्वमर्षवशं प्राप्ता ह्रीमन्तः सत्त्वचोदिताः।
त्यक्त्वा प्राणान् न्यवर्तन्त घ्नन्तो द्रोणं महाहवे ॥ ११ ॥

मूलम्

ते त्वमर्षवशं प्राप्ता ह्रीमन्तः सत्त्वचोदिताः।
त्यक्त्वा प्राणान् न्यवर्तन्त घ्नन्तो द्रोणं महाहवे ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डव लज्जाशील, सत्त्वगुणसे प्रेरित और अमर्षके अधीन हो रहे थे। वे प्राणोंकी परवा न करके उस महान् समरमें द्रोणाचार्यका वध करनेके लिये लौट रहे थे॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयसामिव सम्पातः शिलानामिव चाभवत्।
दीव्यतां तुमुले युद्धे प्राणैरमिततेजसाम् ॥ १२ ॥

मूलम्

अयसामिव सम्पातः शिलानामिव चाभवत्।
दीव्यतां तुमुले युद्धे प्राणैरमिततेजसाम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस भयंकर युद्धमें प्राणोंकी बाजी लगाकर खेलनेवाले अमिततेजस्वी वीरोंका संघर्ष लोहों तथा पत्थरोंके परस्पर टकरानेके समान भयंकर शब्द करता था॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न तु स्मरन्ति संग्राममपि वृद्धास्तथाविधम्।
दृष्टपूर्वं महाराज श्रुतपूर्वमथापि वा ॥ १३ ॥

मूलम्

न तु स्मरन्ति संग्राममपि वृद्धास्तथाविधम्।
दृष्टपूर्वं महाराज श्रुतपूर्वमथापि वा ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! बड़े-बूढ़े लोग भी पहलेके देखे अथवा सुने हुए किसी भी वैसे संग्रामका स्मरण नहीं करते हैं॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राकम्पतेव पृथिवी तस्मिन् वीरावसादने।
निवर्तता बलौघेन महता भारपीडिता ॥ १४ ॥

मूलम्

प्राकम्पतेव पृथिवी तस्मिन् वीरावसादने।
निवर्तता बलौघेन महता भारपीडिता ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वीरोंका विनाश करनेवाले उस युद्धमें लौटते हुए विशाल सैनिकसमूहके महान् भारसे पीड़ित हो यह पृथ्वी काँपने-सी लगी॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

घूर्णतोऽपि बलौघस्य दिवं स्तब्ध्वेव निःस्वनः।
अजातशत्रोस्तत्सैन्यमाविवेश सुभैरवः ॥ १५ ॥

मूलम्

घूर्णतोऽपि बलौघस्य दिवं स्तब्ध्वेव निःस्वनः।
अजातशत्रोस्तत्सैन्यमाविवेश सुभैरवः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ सब ओर चक्कर काटते हुए सैन्यसमूहका अत्यन्त भयंकर कोलाहल आकाशको स्तब्ध-सा करके अजातशत्रु युधिष्ठिरकी सेनामें व्याप्त हो गया॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समासाद्य तु पाण्डूनामनीकानि सहस्रशः।
द्रोणेन चरता संख्ये प्रभग्नानि शितैः शरैः ॥ १६ ॥

मूलम्

समासाद्य तु पाण्डूनामनीकानि सहस्रशः।
द्रोणेन चरता संख्ये प्रभग्नानि शितैः शरैः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रणभूमिमें विचरते हुए द्रोणाचार्यने पाण्डव-सेनामें प्रवेश करके अपने तीखे बाणोंद्वारा सहस्रों सैनिकोंके पाँव उखाड़ दिये॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषु प्रमथ्यमानेषु द्रोणेनाद्भुतकर्मणा ।
पर्यवारयदासाद्य द्रोणं सेनापतिः स्वयम् ॥ १७ ॥

मूलम्

तेषु प्रमथ्यमानेषु द्रोणेनाद्भुतकर्मणा ।
पर्यवारयदासाद्य द्रोणं सेनापतिः स्वयम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अद्भुत पराक्रम करनेवाले द्रोणाचार्यके द्वारा जब उन सेनाओंका मन्थन होने लगा, उस समय स्वयं सेनापति धृष्टद्युम्नने द्रोणके पास पहुँचकर उन्हें रोका॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदद्भुतमभूद् युद्धं द्रोणपाञ्चालयोस्तथा ।
नैव तस्योपमा काचिदिति मे निश्चिता मतिः ॥ १८ ॥

मूलम्

तदद्भुतमभूद् युद्धं द्रोणपाञ्चालयोस्तथा ।
नैव तस्योपमा काचिदिति मे निश्चिता मतिः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ द्रोणाचार्य और धृष्टद्युम्नमें अद्भुत युद्ध होने लगा, जिसकी कहीं कोई तुलना नहीं थी, यह मेरा निश्चित मत है॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो नीलोऽनलप्रख्यो ददाह कुरुवाहिनीम्।
शरस्फुलिङ्गश्चापार्चिर्दहन् कक्षमिवानलः ॥ १९ ॥

मूलम्

ततो नीलोऽनलप्रख्यो ददाह कुरुवाहिनीम्।
शरस्फुलिङ्गश्चापार्चिर्दहन् कक्षमिवानलः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर अग्निके समान कान्तिमान् नील बाणरूपी चिनगारियों तथा धनुषरूपी लपटोंका विस्तार करते हुए कौरव-सेनाको दग्ध करने लगे, मानो आग घास-फूसके ढेरको जला रही हो॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं दहन्तमनीकानि द्रोणपुत्रः प्रतापवान्।
पूर्वाभिभाषी सुश्लक्ष्णं स्मयमानोऽभ्यभाषत ॥ २० ॥

मूलम्

तं दहन्तमनीकानि द्रोणपुत्रः प्रतापवान्।
पूर्वाभिभाषी सुश्लक्ष्णं स्मयमानोऽभ्यभाषत ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा नीलको कौरव-सेनाका दहन करते देख प्रतापी द्रोणपुत्र अश्वत्थामाने, जो पहले स्वयं ही वार्तालाप आरम्भ करनेवाला था, मुसकराते हुए मधुर वचनोंमें कहा—॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नील किं बहुभिर्दग्धैस्तव योधैः शरार्चिषा।
मयैकेन हि युध्यस्व क्रुद्धः प्रहर चाशु माम् ॥ २१ ॥

मूलम्

नील किं बहुभिर्दग्धैस्तव योधैः शरार्चिषा।
मयैकेन हि युध्यस्व क्रुद्धः प्रहर चाशु माम् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नील! तुमको बाणोंकी ज्वालासे इन बहुत-से योद्धाओंको दग्ध करनेसे क्या लाभ? तुम अकेले मुझसे ही युद्ध करो और कुपित होकर मेरे ऊपर शीघ्र प्रहार करो’॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं पद्मनिकराकारं पद्मपत्रनिभेक्षणम् ।
व्याकोशपद्माभमुखो नीलो विव्याध सायकैः ॥ २२ ॥

मूलम्

तं पद्मनिकराकारं पद्मपत्रनिभेक्षणम् ।
व्याकोशपद्माभमुखो नीलो विव्याध सायकैः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नीलका मुख विकसित कमलके समान कान्तिमान् था। उन्होंने पद्मसमूहकी-सी आकृति तथा कमल-दलके सदृश नेत्रोंवाले अश्वत्थामाको अपने बाणोंसे बींध डाला॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेनापि विद्धः सहसा दौणिर्भल्लैः शितैस्त्रिभिः।
धनुर्ध्वजं च छत्रं च द्विषतः स न्यकृन्तत ॥ २३ ॥

मूलम्

तेनापि विद्धः सहसा दौणिर्भल्लैः शितैस्त्रिभिः।
धनुर्ध्वजं च छत्रं च द्विषतः स न्यकृन्तत ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके द्वारा घायल होकर अश्वत्थामाने सहसा तीन तीखे भल्लोंद्वारा अपने शत्रु नीलके धनुष, ध्वज तथा छत्रको काट डाला॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स प्लुतः स्यन्दनात्तस्मान्नीलश्चर्मवरासिभृत् ।
द्रौणायनेः शिरः कायाद्धर्तुमैच्छत् पतत्रिवत् ॥ २४ ॥

मूलम्

स प्लुतः स्यन्दनात्तस्मान्नीलश्चर्मवरासिभृत् ।
द्रौणायनेः शिरः कायाद्धर्तुमैच्छत् पतत्रिवत् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब नील ढाल और सुन्दर तलवार हाथमें लेकर उस रथसे कूद पड़े। जैसे पक्षी किसी मनचाही वस्तुको लेनेके लिये झपट्टा मारता है, उसी प्रकार नीलने भी अश्वत्थामाके धड़से उसका सिर उतार लेनेका विचार किया॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्योन्नतांसं सुनसं शिरः कायात् सकुण्डलम्।
भल्लेनापाहरद् द्रौणिः स्मयमान इवानघ ॥ २५ ॥

मूलम्

तस्योन्नतांसं सुनसं शिरः कायात् सकुण्डलम्।
भल्लेनापाहरद् द्रौणिः स्मयमान इवानघ ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

निष्पाप नरेश! उस समय अश्वत्थामाने मुसकराते हुए-से भल्ल मारकर उसके द्वारा नीलके ऊँचे कंधों, सुन्दर नासिकाओं तथा कुण्डलोंसहित मस्तकको धड़से काट गिराया॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सम्पूर्णचन्द्राभमुखः पद्मपत्रनिभेक्षणः ।
प्रांशुरुत्पलपत्राभो निहतो न्यपतद् भुवि ॥ २६ ॥

मूलम्

सम्पूर्णचन्द्राभमुखः पद्मपत्रनिभेक्षणः ।
प्रांशुरुत्पलपत्राभो निहतो न्यपतद् भुवि ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पूर्णचन्द्रमाके समान कान्तिमान् मुख और कमलदलके समान सुन्दर नेत्रवाले राजा नील बड़े ऊँचे कदके थे। उनकी अंगकान्ति नीलकमल-दलके समान श्याम थी। वे अश्वत्थामाद्वारा मारे जाकर पृथ्वीपर गिर पड़े॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्रविव्यथे सेना पाण्डवी भृशमाकुला।
आचार्यपुत्रेण हते नीले ज्वलिततेजसि ॥ २७ ॥

मूलम्

ततः प्रविव्यथे सेना पाण्डवी भृशमाकुला।
आचार्यपुत्रेण हते नीले ज्वलिततेजसि ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आचार्यपुत्रके द्वारा प्रज्वलित तेजवाले राजा नीलके मारे जानेपर पाण्डव-सेना अत्यन्त व्याकुल और व्यथित हो उठी॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अचिन्तयंश्च ते सर्वे पाण्डवानां महारथाः।
कथं नो वासविस्त्रायाच्छत्रुभ्य इति मारिष ॥ २८ ॥

मूलम्

अचिन्तयंश्च ते सर्वे पाण्डवानां महारथाः।
कथं नो वासविस्त्रायाच्छत्रुभ्य इति मारिष ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आर्य! उस समय समस्त पाण्डव महारथी यह सोचने लगे कि इन्द्रकुमार अर्जुन शत्रुओंके हाथसे हमारी रक्षा कैसे कर सकते हैं?॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दक्षिणेन तु सेनायाः कुरुते कदनं बली।
संशप्तकावशेषस्य नारायणबलस्य च ॥ २९ ॥

मूलम्

दक्षिणेन तु सेनायाः कुरुते कदनं बली।
संशप्तकावशेषस्य नारायणबलस्य च ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे बलवान् अर्जुन तो इस सेनाके दक्षिण भागमें बचे-खुचे संशप्तकों और नारायणी सेनाके सैनिकोंका संहार कर रहे हैं॥२९॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि संशप्तकवधपर्वणि नीलवधे एकत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३१ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत संशप्तकवधपर्वमें नीलवधविषयक इकतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३१॥