०२९ भगदत्तवधे

भागसूचना

एकोनत्रिंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

अर्जुन और भगदत्तका युद्ध, श्रीकृष्णद्वारा भगदत्तके वैष्णवास्त्रसे अर्जुनकी रक्षा तथा अर्जुनद्वारा हाथीसहित भगदत्तका वध

मूलम् (वचनम्)

धृतराष्ट्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा क्रुद्धः किमकरोद् भगदत्तस्य पाण्डवः।
प्राग्ज्योतिषो वा पार्थस्य तन्मे शंस यथातथम् ॥ १ ॥

मूलम्

तथा क्रुद्धः किमकरोद् भगदत्तस्य पाण्डवः।
प्राग्ज्योतिषो वा पार्थस्य तन्मे शंस यथातथम् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्रने पूछा— संजय! उस समय क्रोधमें भरे हुए पाण्डुकुमार अर्जुनने भगदत्तका और भगदत्तने अर्जुनका क्या किया? यह मुझे ठीक-ठीक बताओ॥१॥

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राग्ज्योतिषेण संसक्तावुभौ दाशार्हपाण्डवौ ।
मृत्युदंष्ट्रान्तिकं प्राप्तौ सर्वभूतानि मेनिरे ॥ २ ॥

मूलम्

प्राग्ज्योतिषेण संसक्तावुभौ दाशार्हपाण्डवौ ।
मृत्युदंष्ट्रान्तिकं प्राप्तौ सर्वभूतानि मेनिरे ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजयने कहा— राजन्! भगदत्तसे युद्धमें उलझे हुए श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनोंको समस्त प्राणियोंने मौतकी दाढ़ोंमें पहुँचा हुआ ही माना॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा तु शरवर्षाणि पातयत्यनिशं प्रभो।
गजस्कन्धान्महाराज कृष्णयोः स्यन्दनस्थयोः ॥ ३ ॥

मूलम्

तथा तु शरवर्षाणि पातयत्यनिशं प्रभो।
गजस्कन्धान्महाराज कृष्णयोः स्यन्दनस्थयोः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शक्तिशाली महाराज! हाथीकी पीठसे भगदत्त रथपर बैठे हुए श्रीकृष्ण और अर्जुनपर निरन्तर बाणोंकी वर्षा कर रहे थे॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ कार्ष्णायसैर्बाणैः पूर्णकार्मुकनिःसृतैः ।
अविध्यद् देवकीपुत्रं हेमपुङ्खैः शिलाशितैः ॥ ४ ॥

मूलम्

अथ कार्ष्णायसैर्बाणैः पूर्णकार्मुकनिःसृतैः ।
अविध्यद् देवकीपुत्रं हेमपुङ्खैः शिलाशितैः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने धनुषको पूर्णरूपसे खींचकर छोड़े हुए लोहेके बने और शानपर चढ़ाकर तेज किये हुए सुवर्णमय पंखयुक्त बाणोंसे देवकीपुत्र श्रीकृष्णको घायल कर दिया॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अग्निस्पर्शसमास्तीक्ष्णा भगदत्तेन चोदिताः ।
निर्भिद्य देवकीपुत्रं क्षितिं जग्मुः सुवाससः ॥ ५ ॥

मूलम्

अग्निस्पर्शसमास्तीक्ष्णा भगदत्तेन चोदिताः ।
निर्भिद्य देवकीपुत्रं क्षितिं जग्मुः सुवाससः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगदत्तके चलाये हुए अग्निके र्स्पशके समान तीक्ष्ण और सुन्दर पंखवाले बाण देवकीपुत्र श्रीकृष्णके शरीरको छेदकर धरतीमें समा गये॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य पार्थो धनुश्छित्त्वा परिवारं निहत्य च।
लालयन्निव राजानं भगदत्तमयोधयत् ॥ ६ ॥

मूलम्

तस्य पार्थो धनुश्छित्त्वा परिवारं निहत्य च।
लालयन्निव राजानं भगदत्तमयोधयत् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब अर्जुनने राजा भगदत्तका धनुष काटकर उनके परिवारको मार डाला और उन्हें लाड़ लड़ाते हुए-से उनके साथ युद्ध आरम्भ किया॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽर्करश्मिनिभांस्तीक्ष्णांस्तोमरान् वै चतुर्दश ।
अप्रेषयत् सव्यसाची द्विधैकैकमथाच्छिनत् ॥ ७ ॥

मूलम्

सोऽर्करश्मिनिभांस्तीक्ष्णांस्तोमरान् वै चतुर्दश ।
अप्रेषयत् सव्यसाची द्विधैकैकमथाच्छिनत् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगदत्तने सूर्यकी किरणोंके समान तीखे चौदह तोमर चलाये, परंतु सव्यसाची अर्जुनने उनमेंसे प्रत्येकके दो-दो टुकड़े कर डाले॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो नागस्य तद् वर्म व्यधमत् पाकशासनिः।
शरजालेन महता तद् व्यशीर्यत भूतले ॥ ८ ॥

मूलम्

ततो नागस्य तद् वर्म व्यधमत् पाकशासनिः।
शरजालेन महता तद् व्यशीर्यत भूतले ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब इन्द्रकुमारने भारी बाण-वर्षाके द्वारा उस हाथीके कवचको काट डाला, जिससे कवच जीर्ण-शीर्ण होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शीर्णवर्मा स तु गजः शरैः सुभृशमर्दितः।
बभौ धारानिपाताक्तो व्यभ्रः पर्वतराडिव ॥ ९ ॥

मूलम्

शीर्णवर्मा स तु गजः शरैः सुभृशमर्दितः।
बभौ धारानिपाताक्तो व्यभ्रः पर्वतराडिव ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कवच कट जानेपर हाथीको बाणोंके आघातसे बड़ी पीड़ा होने लगी। वह खूनकी धारासे नहा उठा और बादलोंसे रहित एवं (गैरिकमिश्रित) जलधारासे भीगे हुए गिरिराजके समान शोभा पाने लगा॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्राग्ज्योतिषः शक्तिं हेमदण्डामयस्मयीम्।
व्यसृजद् वासुदेवाय द्विधा तामर्जुनोऽच्छिनत् ॥ १० ॥

मूलम्

ततः प्राग्ज्योतिषः शक्तिं हेमदण्डामयस्मयीम्।
व्यसृजद् वासुदेवाय द्विधा तामर्जुनोऽच्छिनत् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब भगदत्तने वसुदेवनन्दन श्रीकृष्णको लक्ष्य करके सुवर्णमय दण्डसे युक्त लोहमयी शक्ति चलायी। परंतु अर्जुनने उसके दो टुकड़े कर डाले॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततश्छत्रं ध्वजं चैव छित्त्वा राज्ञोऽर्जुनः शरैः।
विव्याध दशभिस्तूर्णमुत्स्मयन् पर्वतेश्वरम् ॥ ११ ॥

मूलम्

ततश्छत्रं ध्वजं चैव छित्त्वा राज्ञोऽर्जुनः शरैः।
विव्याध दशभिस्तूर्णमुत्स्मयन् पर्वतेश्वरम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर अर्जुनने अपने बाणोंद्वारा राजा भगदत्तके छत्र और ध्वजको काटकर मुसकराते हुए दस बाणोंद्वारा तुरंत ही उन पर्वतेश्वरको बींध डाला॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽतिविद्धोऽर्जुनशरैः सुपुङ्खैः कङ्कपत्रिभिः ।
भगदत्तस्ततः क्रुद्धः पाण्डवस्य जनाधिपः ॥ १२ ॥

मूलम्

सोऽतिविद्धोऽर्जुनशरैः सुपुङ्खैः कङ्कपत्रिभिः ।
भगदत्तस्ततः क्रुद्धः पाण्डवस्य जनाधिपः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुनके कंकपत्रयुक्त सुन्दर पाँखवाले बाणोंद्वारा अत्यन्त घायल हो राजा भगदत्त उन पाण्डुपुत्रपर कुपित हो उठे॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्यसृजत्‌ तोमरान् मूर्ध्नि श्वेताश्वस्योन्ननाद च।
तैरर्जुनस्य समरे किरीटं परिवर्तितम् ॥ १३ ॥

मूलम्

व्यसृजत्‌ तोमरान् मूर्ध्नि श्वेताश्वस्योन्ननाद च।
तैरर्जुनस्य समरे किरीटं परिवर्तितम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने श्वेतवाहन अर्जुनके मस्तकपर तोमरोंका प्रहार किया और जोरसे गर्जना की। उन तोमरोंने समरभूमिमें अर्जुनके किरीटको उलट दिया॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परिवृत्तं किरीटं तद् यमयन्नेव पाण्डवः।
सुदृष्टः क्रियतां लोक इति राजानमब्रवीत् ॥ १४ ॥

मूलम्

परिवृत्तं किरीटं तद् यमयन्नेव पाण्डवः।
सुदृष्टः क्रियतां लोक इति राजानमब्रवीत् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उलटे हुए किरीटको ठीक करते हुए पाण्डुपुत्र अर्जुनने भगदत्तसे कहा—‘राजन्! अब इस संसारको अच्छी तरह देख लो’॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तस्तु संक्रुद्धः शरवर्षेण पाण्डवम्।
अभ्यवर्षत् सगोविन्दं धनुरादाय भास्वरम् ॥ १५ ॥

मूलम्

एवमुक्तस्तु संक्रुद्धः शरवर्षेण पाण्डवम्।
अभ्यवर्षत् सगोविन्दं धनुरादाय भास्वरम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुनके ऐसा कहनेपर भगदत्तने अत्यन्त कुपित हो एक तेजस्वी धनुष हाथमें लेकर श्रीकृष्णसहित अर्जुनपर बाणोंकी वर्षा प्रारम्भ कर दी॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य पार्थो धनुश्छित्त्वा तूणीरान् संनिकृत्य च।
त्वरमाणो द्विसप्तत्या सर्वमर्मस्वताडयत् ॥ १६ ॥

मूलम्

तस्य पार्थो धनुश्छित्त्वा तूणीरान् संनिकृत्य च।
त्वरमाणो द्विसप्तत्या सर्वमर्मस्वताडयत् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुनने उनके धनुषको काटकर उनके तूणीरोंके भी टुकड़े-टुकड़े कर दिये। फिर तुरंत ही बहत्तर बाणोंसे उनके सम्पूर्ण मर्मस्थानोंमें गहरी चोट पहुँचायी॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विद्धस्ततोऽतिव्यथितो वैष्णवास्त्रमुदीरयन् ।
अभिमन्त्र्याङ्कुशं क्रुद्धो व्यसृजत्‌ पाण्डवोरसि ॥ १७ ॥

मूलम्

विद्धस्ततोऽतिव्यथितो वैष्णवास्त्रमुदीरयन् ।
अभिमन्त्र्याङ्कुशं क्रुद्धो व्यसृजत्‌ पाण्डवोरसि ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन बाणोंसे घायल हो अत्यन्त पीड़ित होकर भगदत्तने वैष्णवास्त्र प्रकट किया। उसने कुपित हो अपने अंकुशको ही वैष्णवास्त्रसे अभिमन्त्रित करके पाण्डुनन्दन अर्जुनकी छाती पर छोड़ दिया॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विसृष्टं भगदत्तेन तदस्त्रं सर्वघाति वै।
उरसा प्रतिजग्राह पार्थं संच्छाद्य केशवः ॥ १८ ॥

मूलम्

विसृष्टं भगदत्तेन तदस्त्रं सर्वघाति वै।
उरसा प्रतिजग्राह पार्थं संच्छाद्य केशवः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगदत्तका छोड़ा हुआ वह अस्त्र सबका विनाश करनेवाला था। भगवान् श्रीकृष्णने अर्जुनको ओटमें करके स्वयं ही अपनी छातीपर उसकी चोट सह ली॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वैजयन्त्यभवन्माला तदस्त्रं केशवोरसि ।
पद्मकोशविचित्राढ्या सर्वर्तुकुसुमोत्कटा ॥ १९ ॥
ज्वलनार्केन्दुवर्णाभा पावकोज्ज्वलपल्लवा ।
तया पद्मपलाशिन्या वातकम्पितपत्रया ॥ २० ॥
शुशुभेऽभ्यधिकं शौरिरतसीपुष्पसंनिभः ।
(केशवः केशिमथनः शार्ङ्गधन्वारिमर्दनः ।
संध्याभ्रैरिव संछन्नः प्रावृट्काले नगोत्तमः॥)

मूलम्

वैजयन्त्यभवन्माला तदस्त्रं केशवोरसि ।
पद्मकोशविचित्राढ्या सर्वर्तुकुसुमोत्कटा ॥ १९ ॥
ज्वलनार्केन्दुवर्णाभा पावकोज्ज्वलपल्लवा ।
तया पद्मपलाशिन्या वातकम्पितपत्रया ॥ २० ॥
शुशुभेऽभ्यधिकं शौरिरतसीपुष्पसंनिभः ।
(केशवः केशिमथनः शार्ङ्गधन्वारिमर्दनः ।
संध्याभ्रैरिव संछन्नः प्रावृट्काले नगोत्तमः॥)

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णकी छातीपर आकर वह अस्त्र वैजयन्ती मालाके रूपमें परिणत हो गया। वह माला कमलकोशकी विचित्र शोभासे युक्त तथा सभी ऋतुओंके पुष्पोंसे सम्पन्न थी। उससे अग्नि, सूर्य और चन्द्रमाके समान प्रभा फैल रही थी। उसका एक-एक दल अग्निके समान प्रकाशित हो रहा था। कमलदलोंसे सुशोभित तथा हवासे हिलते हुए दलोंवाली उस वैजयन्ती मालासे तीसीके फूलोंके समान श्यामवर्णवाले केशिहन्ता, शूरसेननन्दन, शार्ङ्गधन्वा, शत्रुसूदन भगवान् केशव अधिकाधिक शोभा पाने लगे, मानो वर्षाकालमें संध्याके मेघोंसे आच्छादित श्रेष्ठ पर्वत सुशोभित हो रहा हो॥१९-२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽर्जुनः क्लान्तमनाः केशवं प्रत्यभाषत ॥ २१ ॥
अयुध्यमानस्तुरगान् संयन्तास्मीति चानघ ।
इत्युक्त्वा पुण्डरीकाक्ष प्रतिज्ञां स्वां न रक्षसि ॥ २२ ॥
यद्यहं व्यसनी वा स्यामशक्तो वा निवारणे।
ततस्त्वयैवं कार्यं स्यान्न तत्कार्यं मयि स्थिते ॥ २३ ॥

मूलम्

ततोऽर्जुनः क्लान्तमनाः केशवं प्रत्यभाषत ॥ २१ ॥
अयुध्यमानस्तुरगान् संयन्तास्मीति चानघ ।
इत्युक्त्वा पुण्डरीकाक्ष प्रतिज्ञां स्वां न रक्षसि ॥ २२ ॥
यद्यहं व्यसनी वा स्यामशक्तो वा निवारणे।
ततस्त्वयैवं कार्यं स्यान्न तत्कार्यं मयि स्थिते ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय अर्जुनके मनमें बड़ा क्लेश हुआ। उन्होंने भगवान् श्रीकृष्णसे इस प्रकार कहा—‘अनघ! आपने तो प्रतिज्ञा की है कि मैं युद्ध न करके घोड़ोंको काबूमें रखूँगा—केवल सारथिका काम करूँगा; किंतु कमलनयन! आप वैसी बात कहकर भी अपनी प्रतिज्ञाका पालन नहीं कर रहे हैं। यदि मैं संकटमें पड़ जाता अथवा अस्त्रका निवारण करनेमें असमर्थ हो जाता तो उस समय आपका ऐसा करना उचित होता। जब मैं युद्धके लिये तैयार खड़ा हूँ, तब आपको ऐसा नहीं करना चाहिये॥२१—२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सबाणः सधनुश्चाहं ससुरासुरमानुषान् ।
शक्तो लोकानिमाञ्जेतुं तच्चापि विदितं तव ॥ २४ ॥

मूलम्

सबाणः सधनुश्चाहं ससुरासुरमानुषान् ।
शक्तो लोकानिमाञ्जेतुं तच्चापि विदितं तव ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आपको तो यह भी विदित है कि यदि मेरे हाथमें धनुष और बाण हो तो मैं देवता, असुर और मनुष्योंसहित इन सम्पूर्ण लोकोंपर विजय पा सकता हूँ’॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽर्जुनं वासुदेवः प्रत्युवाचार्थवद् वचः।
शृणु गुह्यमिदं पार्थ पुरा वृत्तं यथानघ ॥ २५ ॥

मूलम्

ततोऽर्जुनं वासुदेवः प्रत्युवाचार्थवद् वचः।
शृणु गुह्यमिदं पार्थ पुरा वृत्तं यथानघ ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब वसुदेवनन्दन भगवान् श्रीकृष्णने अर्जुनसे ये रहस्यपूर्ण वचन कहे—‘अनघ! कुन्तीनन्दन! इस विषयमें यह गोपनीय रहस्यकी बात सुनो, जो पूर्वकालमें घटित हो चुकी है॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चतुर्मूर्तिरहं शश्वल्लोकत्राणार्थमुद्यतः ।
आत्मानं प्रविभज्येह लोकानां हितमादधे ॥ २६ ॥

मूलम्

चतुर्मूर्तिरहं शश्वल्लोकत्राणार्थमुद्यतः ।
आत्मानं प्रविभज्येह लोकानां हितमादधे ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैं चार स्वरूप धारण करके सदा सम्पूर्ण लोकोंकी रक्षाके लिये उद्यत रहता हूँ। अपनेको ही यहाँ अनेक रूपोंमें विभक्त करके समस्त संसारका हित-साधन करता हूँ॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एका मूर्तिस्तपश्चर्यां कुरुते मे भुवि स्थिता।
अपरा पश्यति जगत् कुर्वाणं साध्वसाधुनी ॥ २७ ॥

मूलम्

एका मूर्तिस्तपश्चर्यां कुरुते मे भुवि स्थिता।
अपरा पश्यति जगत् कुर्वाणं साध्वसाधुनी ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मेरी एक मूर्ति इस भूमण्डलपर (बदरिकाश्रममें नर-नारायणके रूपमें) स्थित हो तपश्चर्या करती है। दूसरी (परमात्मस्वरूपा) मूर्ति शुभाशुभकर्म करनेवाले जगत्‌को साक्षीरूपसे देखती रहती है॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपरा कुरुते कर्म मानुषं लोकमाश्रिता।
शेते चतुर्थी त्वपरा निद्रां वर्षसहस्रिकम् ॥ २८ ॥

मूलम्

अपरा कुरुते कर्म मानुषं लोकमाश्रिता।
शेते चतुर्थी त्वपरा निद्रां वर्षसहस्रिकम् ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तीसरी मूर्ति (मैं स्वयं जो) मनुष्यलोकका आश्रय ले नाना प्रकारके कर्म करती है और चौथी मूर्ति वह है, जो सहस्र युगोंतक एकार्णवके जलमें शयन करती है॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यासौ वर्षसहस्रान्ते मूर्तिरुत्तिष्ठते मम।
वरार्हेभ्यो वरान् श्रेष्ठांस्तस्मिन् काले ददाति सा ॥ २९ ॥

मूलम्

यासौ वर्षसहस्रान्ते मूर्तिरुत्तिष्ठते मम।
वरार्हेभ्यो वरान् श्रेष्ठांस्तस्मिन् काले ददाति सा ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सहस्रयुगके पश्चात् मेरा वह चौथा स्वरूप जब योगनिद्रासे उठता है, उस समय वर पानेके योग्य श्रेष्ठ भक्तोंको उत्तम वर प्रदान करता है॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं तु कालमनुप्राप्तं विदित्वा पृथिवी तदा।
अयाचत वरं यन्मां नरकार्थाय तच्छृणु ॥ ३० ॥

मूलम्

तं तु कालमनुप्राप्तं विदित्वा पृथिवी तदा।
अयाचत वरं यन्मां नरकार्थाय तच्छृणु ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘एक बार जब कि वही समय प्राप्त था, पृथ्वीदेवीने अपने पुत्र नरकासुरके लिये मुझसे जो वर माँगा, उसे सुनो॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवानां दानवानां च अवध्यस्तनयोऽस्तु मे।
उपेतो वैष्णवास्त्रेण तन्मे त्वं दातुमर्हसि ॥ ३१ ॥

मूलम्

देवानां दानवानां च अवध्यस्तनयोऽस्तु मे।
उपेतो वैष्णवास्त्रेण तन्मे त्वं दातुमर्हसि ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मेरा पुत्र वैष्णवास्त्रसे सम्पन्न होकर देवताओं और दानवोंके लिये अवध्य हो जाय, इसलिये आप कृपापूर्वक मुझे वह अपना अस्त्र प्रदान करें’॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं वरमहं श्रुत्वा जगत्यास्तनये तदा।
अमोघमस्त्रं प्रायच्छं वैष्णवं परमं पुरा ॥ ३२ ॥

मूलम्

एवं वरमहं श्रुत्वा जगत्यास्तनये तदा।
अमोघमस्त्रं प्रायच्छं वैष्णवं परमं पुरा ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘उस समय पृथ्वीके मुँहसे अपने पुत्रके लिये इस प्रकार याचना सुनकर मैंने पूर्वकालमें अपना परम उत्तम अमोघ वैष्णव-अस्त्र उसे दे दिया॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवोचं चैतदस्त्रं वै ह्यमोघं भवतु क्षमे।
नरकस्याभिरक्षार्थं नैनं कश्चिद् वधिष्यति ॥ ३३ ॥

मूलम्

अवोचं चैतदस्त्रं वै ह्यमोघं भवतु क्षमे।
नरकस्याभिरक्षार्थं नैनं कश्चिद् वधिष्यति ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘उसे देते समय मैंने कहा—‘वसुधे! यह अमोघ वैष्णवास्त्र नरकासुरकी रक्षाके लिये उसके पास रहे। फिर उसे कोई भी नष्ट नहीं कर सकेगा॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनेनास्त्रेण ते गुप्तः सुतः परबलार्दनः।
भविष्यति दुराधर्षः सर्वलोकेषु सर्वदा ॥ ३४ ॥

मूलम्

अनेनास्त्रेण ते गुप्तः सुतः परबलार्दनः।
भविष्यति दुराधर्षः सर्वलोकेषु सर्वदा ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इस अस्त्रसे सुरक्षित रहकर तुम्हारा पुत्र शत्रुओंकी सेनाको पीड़ित करनेवाला और सदा सम्पूर्ण लोकोंमें दुर्धर्ष बना रहेगा’॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथेत्युक्त्वा गता देवी कृतकामा मनस्विनी।
स चाप्यासीद् दुराधर्षो नरकः शत्रुतापनः ॥ ३५ ॥

मूलम्

तथेत्युक्त्वा गता देवी कृतकामा मनस्विनी।
स चाप्यासीद् दुराधर्षो नरकः शत्रुतापनः ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तब ‘जो आज्ञा’ कहकर मनस्विनी पृथ्वीदेवी कृतार्थ होकर चली गयी। वह नरकासुर भी (उस अस्त्रको पाकर) शत्रुओंको संताप देनेवाला तथा अत्यन्त दुर्जय हो गया॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मात् प्राग्ज्योतिषं प्राप्तं तदस्त्रं पार्थ मामकम्।
नास्यावध्योऽस्ति लोकेषु सेन्द्ररुद्रेषु मारिष ॥ ३६ ॥

मूलम्

तस्मात् प्राग्ज्योतिषं प्राप्तं तदस्त्रं पार्थ मामकम्।
नास्यावध्योऽस्ति लोकेषु सेन्द्ररुद्रेषु मारिष ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पार्थ! नरकासुरसे वह मेरा अस्त्र इस प्राग्ज्योतिषनरेश भगदत्तको प्राप्त हुआ। आर्य! इन्द्र तथा रुद्रसहित तीनों लोकोंमें कोई भी ऐसा वीर नहीं है, जो इस अस्त्रके लिये अवध्य हो॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तन्मया त्वत्कृते चैतदन्यथा व्यपनामितम्।
विमुक्तं परमास्त्रेण जहि पार्थ महासुरम् ॥ ३७ ॥

मूलम्

तन्मया त्वत्कृते चैतदन्यथा व्यपनामितम्।
विमुक्तं परमास्त्रेण जहि पार्थ महासुरम् ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अतः मैनें तुम्हारी रक्षाके लिये उस अस्त्रको दूसरे प्रकारसे उसके पाससे हटा दिया है। पार्थ! अब वह महान् असुर उस उत्कृष्ट अस्त्रसे वंचित हो गया है। अतः तुम उसे मार डालो॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वैरिणं जहि दुर्धर्षं भगदत्तं सुरद्विषम्।
यथाहं जघ्निवान् पूर्वं हितार्थं नरकं तथा ॥ ३८ ॥

मूलम्

वैरिणं जहि दुर्धर्षं भगदत्तं सुरद्विषम्।
यथाहं जघ्निवान् पूर्वं हितार्थं नरकं तथा ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘दुर्जय वीर भगदत्त तुम्हारा वैरी और देवताओंका द्रोही है। अतः तुम उसका वध कर डालो; जैसे कि मैंने पूर्वकालमें लोकहितके लिये नरकासुरका संहार किया था’॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तस्तदा पार्थः केशवेन महात्मना।
भगदत्तं शितैर्बाणैः सहसा समवाकिरत् ॥ ३९ ॥

मूलम्

एवमुक्तस्तदा पार्थः केशवेन महात्मना।
भगदत्तं शितैर्बाणैः सहसा समवाकिरत् ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महात्मा केशवके ऐसा कहनेपर कुन्तीकुमार अर्जुन उसी समय भगदत्तपर सहसा पैने बाणोंकी वर्षा करने लगे॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः पार्थो महाबाहुरसम्भ्रान्तो महामनाः।
कुम्भयोरन्तरे नागं नाराचेन समार्पयत् ॥ ४० ॥

मूलम्

ततः पार्थो महाबाहुरसम्भ्रान्तो महामनाः।
कुम्भयोरन्तरे नागं नाराचेन समार्पयत् ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् महाबाहु महामना पार्थने बिना किसी घबराहटके हाथीके कुम्भस्थलमें एक नाराचका प्रहार किया॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स समासाद्य तं नागं बाणो वज्र इवाचलम्।
अभ्यगात् सह पुङ्खेन वल्मीकमिव पन्नगः ॥ ४१ ॥

मूलम्

स समासाद्य तं नागं बाणो वज्र इवाचलम्।
अभ्यगात् सह पुङ्खेन वल्मीकमिव पन्नगः ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह नाराच उस हाथीके मस्तकपर पहुँचकर उसी प्रकार लगा, जैसे वज्र पर्वतपर चोट करता है। जैसे सर्प बाँबीमें समा जाता है, उसी प्रकार वह बाण हाथीके कुम्भस्थलमें पंखसहित घुस गया॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स करी भगदत्तेन प्रेर्यमाणो मुहुर्मुहुः।
न करोति वचस्तस्य दरिद्रस्येव योषिता ॥ ४२ ॥

मूलम्

स करी भगदत्तेन प्रेर्यमाणो मुहुर्मुहुः।
न करोति वचस्तस्य दरिद्रस्येव योषिता ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह हाथी बारंबार भगदत्तके हाँकनेपर भी उनकी आज्ञाका पालन नहीं करता था, जैसे दुष्टा स्त्री अपने दरिद्र स्वामीकी बात नहीं मानती है॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तु विष्टभ्य गात्राणि दन्ताभ्यामवनिं ययौ।
नदन्नार्तस्वनं प्राणानुत्ससर्ज महाद्विपः ॥ ४३ ॥

मूलम्

स तु विष्टभ्य गात्राणि दन्ताभ्यामवनिं ययौ।
नदन्नार्तस्वनं प्राणानुत्ससर्ज महाद्विपः ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस महान् गजराजने अपने अंगोंको निश्चेष्ट करके दोनों दाँत धरतीपर टेक दिये और आर्तस्वरसे चीत्कार करके प्राण त्याग दिये॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो गाण्डीवधन्वानमभ्यभाषत केशवः ।
अयं महत्तरः पार्थ पलितेन समावृतः ॥ ४४ ॥
वलीसंछन्ननयनः शूरः परमदुर्जयः ।
अक्ष्णोरुन्मीलनार्थाय बद्धपट्टो ह्यसौ नृपः ॥ ४५ ॥

मूलम्

ततो गाण्डीवधन्वानमभ्यभाषत केशवः ।
अयं महत्तरः पार्थ पलितेन समावृतः ॥ ४४ ॥
वलीसंछन्ननयनः शूरः परमदुर्जयः ।
अक्ष्णोरुन्मीलनार्थाय बद्धपट्टो ह्यसौ नृपः ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्णने गाण्डीवधारी अर्जुनसे कहा—‘कुन्तीनन्दन! यह भगदत्त बहुत बड़ी अवस्थाका है। इसके सारे बाल पक गये हैं और ललाट आदि अंगोंमें झुर्रियाँ पड़ जानेके कारण पलकें झपी रहनेसे इसके नेत्र प्रायः बंद-से रहते हैं। यह शूरवीर तथा अत्यन्त दुर्जय है। इस राजाने अपने दोनों नेत्रोंको खुले रखनेके लिये पलकोंको कपड़ेकी पट्टीसे ललाटमें बाँध रखा है’॥४४-४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देववाक्यात् प्रचिच्छेद शरेण भृशमर्जुनः।
छिन्नमात्रेंऽशुके तस्मिन् रुद्धनेत्रो बभूव सः ॥ ४६ ॥

मूलम्

देववाक्यात् प्रचिच्छेद शरेण भृशमर्जुनः।
छिन्नमात्रेंऽशुके तस्मिन् रुद्धनेत्रो बभूव सः ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णके कहनेसे अर्जुनने बाण मारकर भगदत्तके सिरकी पट्टी अत्यन्त छिन्न-भिन्न कर दी। उस पट्टीके कटते ही भगदत्तकी आँखें बंद हो गयीं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमोमयं जगन्मेने भगदत्तः प्रतापवान्।
ततश्चन्द्रार्धबिम्बेन बाणेन नतपर्वणा ॥ ४७ ॥
बिभेद हृदयं राज्ञो भगदत्तस्य पाण्डवः।

मूलम्

तमोमयं जगन्मेने भगदत्तः प्रतापवान्।
ततश्चन्द्रार्धबिम्बेन बाणेन नतपर्वणा ॥ ४७ ॥
बिभेद हृदयं राज्ञो भगदत्तस्य पाण्डवः।

अनुवाद (हिन्दी)

फिर तो प्रतापी भगदत्तको सारा जगत् अन्धकारमय प्रतीत होने लगा। उस समय झुकी हई गाँठवाले एक अर्धचन्द्राकार बाणके द्वारा पाण्डुनन्दन अर्जुनने राजा भगदत्तके वक्षःस्थलको विदीर्ण कर दिया॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स भिन्नहृदयो राजा भगदत्तः किरीटिना ॥ ४८ ॥
शरासनं शरांश्चैव गतासुः प्रमुमोच ह।
शिरसस्तस्य विभ्रष्टं पपात च वरांशुकम्।
नालताडनविभ्रष्टं पलाशं नलिनादिव ॥ ४९ ॥

मूलम्

स भिन्नहृदयो राजा भगदत्तः किरीटिना ॥ ४८ ॥
शरासनं शरांश्चैव गतासुः प्रमुमोच ह।
शिरसस्तस्य विभ्रष्टं पपात च वरांशुकम्।
नालताडनविभ्रष्टं पलाशं नलिनादिव ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

किरीटधारी अर्जुनके द्वारा हृदय विदीर्ण कर दिये जानेपर राजा भगदत्तने प्राणशून्य हो अपने धनुष-बाण त्याग दिये। उनके सिरसे पगड़ी और पट्टीका वह सुन्दर वस्त्र खिसककर गिर गया, जैसे कमलनालके ताडनसे उसका पत्ता टूटकर गिर जाता है॥४८-४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स हेममाली तपनीयभाण्डात्
पपात नागाद् गिरिसंनिकाशात् ।
सुपुष्पितो मारुतवेगरुग्णो
महीधराग्रादिव कर्णिकारः ॥ ५० ॥

मूलम्

स हेममाली तपनीयभाण्डात्
पपात नागाद् गिरिसंनिकाशात् ।
सुपुष्पितो मारुतवेगरुग्णो
महीधराग्रादिव कर्णिकारः ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सोनेके आभूषणोंसे विभूषित उस पर्वताकार हाथीसे सुवर्णमालाधारी भगदत्त पृथ्वीपर गिर पड़े, मानो सुन्दर पुष्पोंसे सुशोभित कनेरका वृक्ष हवाके वेगसे टूटकर पर्वतके शिखरसे नीचे गिर पड़ा हो॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निहत्य तं नरपतिमिन्द्रविक्रमं
सखायमिन्द्रस्य तदैन्द्रिराहवे ।
ततोऽपरांस्तव जयकाङ्क्षिणो नरान्
बभञ्ज वायुर्बलवान् द्रुमानिव ॥ ५१ ॥

मूलम्

निहत्य तं नरपतिमिन्द्रविक्रमं
सखायमिन्द्रस्य तदैन्द्रिराहवे ।
ततोऽपरांस्तव जयकाङ्क्षिणो नरान्
बभञ्ज वायुर्बलवान् द्रुमानिव ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! इस प्रकार इन्द्रकुमार अर्जुनने इन्द्रके सखा तथा इन्द्रके समान ही पराक्रमी राजा भगदत्तको युद्धमें मारकर आपकी सेनाके अन्य विजयाभिलाषी वीर पुरुषोंको भी उसी प्रकार मार गिराया, जैसे प्रबल वायु वृक्षोंको उखाड़ फेंकती है॥५१॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि संशप्तकवधपर्वणि भगदत्तवधे एकोनत्रिंशोऽध्यायः ॥ २९ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत संशप्तकवधपर्वमें भगदत्तवधविषयक उनतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२९॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल ५२ श्लोक हैं।)