भागसूचना
चतुर्विंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
धृतराष्ट्रका अपना खेद प्रकाशित करते हुए युद्धके समाचार पूछना
मूलम् (वचनम्)
धृतराष्ट्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्यथयेयुरिमे सेनां देवानामपि संजय।
आहवे ये न्यवर्तन्त वृकोदरमुखा नृपाः ॥ १ ॥
धृतराष्ट्रने कहा—संजय! भीमसेन आदि जो-जो नरेश युद्धमें लौटकर आये थे, ये तो देवताओंकी सेनाको भी पीड़ित कर सकते हैं॥१॥
सम्प्रयुक्तः किलैवायं दिष्टैर्भवति पूरुषः।
तस्मिन्नेव च सर्वार्थाः प्रदृश्यन्ते पृथग्विधाः ॥ २ ॥
मूलम्
व्यथयेयुरिमे सेनां देवानामपि संजय।
आहवे ये न्यवर्तन्त वृकोदरमुखा नृपाः ॥ १ ॥
धृतराष्ट्रने कहा—संजय! भीमसेन आदि जो-जो नरेश युद्धमें लौटकर आये थे, ये तो देवताओंकी सेनाको भी पीड़ित कर सकते हैं॥१॥
सम्प्रयुक्तः किलैवायं दिष्टैर्भवति पूरुषः।
तस्मिन्नेव च सर्वार्थाः प्रदृश्यन्ते पृथग्विधाः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
निश्चय ही यह मनुष्य दैवसे प्रेरित होता है। सबके पृथक्-पृथक् सम्पूर्ण मनोरथ दैवपर ही अवलम्बित दिखायी देते हैं॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दीर्घं विप्रोषितः कालमरण्ये जटिलोऽजिनी।
अज्ञातश्चैव लोकस्य विजहार युधिष्ठिरः ॥ ३ ॥
स एव महतीं सेनां समावर्तयदाहवे।
किमन्यद् दैवसंयोगान्मम पुत्रस्य चाभवत् ॥ ४ ॥
मूलम्
दीर्घं विप्रोषितः कालमरण्ये जटिलोऽजिनी।
अज्ञातश्चैव लोकस्य विजहार युधिष्ठिरः ॥ ३ ॥
स एव महतीं सेनां समावर्तयदाहवे।
किमन्यद् दैवसंयोगान्मम पुत्रस्य चाभवत् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो राजा युधिष्ठिर दीर्घकालतक जटा और मृगचर्म धारण करके वनमें रहे और कुछ कालतक लोगोंसे अज्ञात रहकर भी विचरे हैं, वे ही आज रणभूमिमें विशाल सेना जुटाकर चढ़ आये हैं, इसमें मेरे तथा पुत्रोंके दैवयोगके सिवा दूसरा क्या कारण हो सकता है?॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
युक्त एव हि भाग्येन ध्रुवमुत्पद्यते नरः।
स तथाऽऽकृष्यते तेन न यथा स्वयमिच्छति ॥ ५ ॥
मूलम्
युक्त एव हि भाग्येन ध्रुवमुत्पद्यते नरः।
स तथाऽऽकृष्यते तेन न यथा स्वयमिच्छति ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
निश्चय ही मनुष्य भाग्यसे युक्त होकर ही जन्म ग्रहण करता है। भाग्य उसे उस अवस्थामें भी खींच ले जाता है, जिसमें वह स्वयं नहीं जाना चाहता॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्यूतव्यसनमासाद्य क्लेशितो हि युधिष्ठिरः।
स पुनर्भागधेयेन सहायानुपलब्धवान् ॥ ६ ॥
मूलम्
द्यूतव्यसनमासाद्य क्लेशितो हि युधिष्ठिरः।
स पुनर्भागधेयेन सहायानुपलब्धवान् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हमने द्यूतके संकटमें डालकर युधिष्ठिरको भारी क्लेश पहुँचाया था, परंतु उन्होंने भाग्यसे पुनः बहुतेरे सहायकोंको प्राप्त कर लिया है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अद्य मे केकया लब्धाः काशिकाः कोसलाश्च ये।
चेदयश्चापरे वङ्गा मामेव समुपाश्रिताः ॥ ७ ॥
पृथिवी भूयसी तात मम पार्थस्य नो तथा।
इति मामब्रवीत् सूत मन्दो दुर्योधनः पुरा ॥ ८ ॥
मूलम्
अद्य मे केकया लब्धाः काशिकाः कोसलाश्च ये।
चेदयश्चापरे वङ्गा मामेव समुपाश्रिताः ॥ ७ ॥
पृथिवी भूयसी तात मम पार्थस्य नो तथा।
इति मामब्रवीत् सूत मन्दो दुर्योधनः पुरा ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूत संजय! आजसे बहुत पहलेकी बात है, मूर्ख दुर्योधनने मुझसे कहा था कि ‘पिताजी! इस समय केकय, काशी, कोसल तथा चेदिदेशके लोग मेरी सहायताके लिये आ गये हैं। दूसरे वंगवासियोंने भी मेरा ही आश्रय लिया है। तात! इस भूमण्डलका बहुत बड़ा भाग मेरे साथ है, अर्जुनके साथ नहीं है’॥७-८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य सेनासमूहस्य मध्ये द्रोणः सुरक्षितः।
निहतः पार्षतेनाजौ किमन्यद् भागधेयतः ॥ ९ ॥
मूलम्
तस्य सेनासमूहस्य मध्ये द्रोणः सुरक्षितः।
निहतः पार्षतेनाजौ किमन्यद् भागधेयतः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसी विशाल सेनासमूहके मध्य सुरक्षित हुए द्रोणाचार्यको युद्धस्थलमें धृष्टद्युम्नने मार डाला, इसमें भाग्यके सिवा दूसरा क्या कारण हो सकता है?॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मध्ये राज्ञां महाबाहुं सदा युद्धाभिनन्दिनम्।
सर्वास्त्रपारगं द्रोणं कथं मृत्युरुपेयिवान् ॥ १० ॥
मूलम्
मध्ये राज्ञां महाबाहुं सदा युद्धाभिनन्दिनम्।
सर्वास्त्रपारगं द्रोणं कथं मृत्युरुपेयिवान् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाओंके बीचमें सदा युद्धका अभिनन्दन करनेवाले सम्पूर्ण अस्त्र-विद्याके पारंगत विद्वान् महाबाहु द्रोणाचार्यको कैसे मृत्यु प्राप्त हुई?॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समनुप्राप्तकृच्छ्रोऽहं मोहं परममागतः ।
भीष्मद्रोणौ हतौ श्रुत्वा नाहं जीवितुमुत्सहे ॥ ११ ॥
मूलम्
समनुप्राप्तकृच्छ्रोऽहं मोहं परममागतः ।
भीष्मद्रोणौ हतौ श्रुत्वा नाहं जीवितुमुत्सहे ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुझपर महान् संकट आ पहुँचा है। मेरी बुद्धिपर अत्यन्त मोह छा गया है। मैं भीष्म और द्रोणाचार्यको मारा गया सुनकर जीवित नहीं रह सकता॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यन्मां क्षत्ताब्रवीत् तात प्रपश्यन् पुत्रगृद्धिनम्।
दुर्योधनेन तत् सर्वं प्राप्तं सूत मया सह ॥ १२ ॥
मूलम्
यन्मां क्षत्ताब्रवीत् तात प्रपश्यन् पुत्रगृद्धिनम्।
दुर्योधनेन तत् सर्वं प्राप्तं सूत मया सह ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात! मुझे अपने पुत्रोंके प्रति अत्यन्त आसक्त देखकर विदुरने मुझसे जो कुछ कहा था, मेरे साथ दुर्योधनको वह सब प्राप्त हो रहा है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नृशंसं तु परं नु स्यात् त्यक्त्वा दुर्योधनं यदि।
पुत्रशेषं चिकीर्षेयं कृत्स्नं न मरणं व्रजेत् ॥ १३ ॥
मूलम्
नृशंसं तु परं नु स्यात् त्यक्त्वा दुर्योधनं यदि।
पुत्रशेषं चिकीर्षेयं कृत्स्नं न मरणं व्रजेत् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि मैं दुर्योधनको त्यागकर शेष पुत्रोंकी रक्षा करना चाहूँ तो यह अत्यन्त निष्ठुरताका कार्य अवश्य होगा, परंतु मेरे सारे पुत्रोंकी तथा अन्य सब लोगोंकी भी मृत्यु नहीं होगी॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यो हि धर्मं परित्यज्य भवत्यर्थपरो नरः।
सोऽस्माच्च हीयते लोकात् क्षुद्रभावं च गच्छति ॥ १४ ॥
मूलम्
यो हि धर्मं परित्यज्य भवत्यर्थपरो नरः।
सोऽस्माच्च हीयते लोकात् क्षुद्रभावं च गच्छति ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनुष्य धर्मका परित्याग करके अर्थपरायण हो जाता है, वह इस लोकसे (लौकिक स्वार्थसे) भ्रष्ट हो जाता है और नीच गतिको प्राप्त होता है॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अद्य चाप्यस्य राष्ट्रस्य हतोत्साहस्य संजय।
अवशेषं न पश्यामि ककुदे मृदिते सति ॥ १५ ॥
मूलम्
अद्य चाप्यस्य राष्ट्रस्य हतोत्साहस्य संजय।
अवशेषं न पश्यामि ककुदे मृदिते सति ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय! आज इस राष्ट्रका उत्साह भंग हो गया। प्रधानके मारे जानेसे अब मुझे किसीका जीवन शेष रहता नहीं दिखायी देता॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथं स्यादवशेषो हि धुर्ययोरभ्यतीतयोः।
यौ नित्यमुपजीवामः क्षमिणौ पुरुषर्षभौ ॥ १६ ॥
मूलम्
कथं स्यादवशेषो हि धुर्ययोरभ्यतीतयोः।
यौ नित्यमुपजीवामः क्षमिणौ पुरुषर्षभौ ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हमलोग सदा जिन सर्वसमर्थ पुरुषसिंहोंका आश्रय लेकर जीवन धारण करते थे, उन धुरंधर वीरोंके इस लोकसे चले जानेपर अब हमारी सेनाका कोई भी सैनिक कैसे जीवित बच सकता है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्यक्तमेव च मे शंस यथा युद्धमवर्तत।
केऽयुध्यन् के व्यपाकुर्वन् के क्षुद्राः प्राद्रवन् भयात् ॥ १७ ॥
मूलम्
व्यक्तमेव च मे शंस यथा युद्धमवर्तत।
केऽयुध्यन् के व्यपाकुर्वन् के क्षुद्राः प्राद्रवन् भयात् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय! वह युद्ध जिस प्रकार हुआ था, सब साफ-साफ मुझसे बताओ। कौन-कौन वीर युद्ध करते थे, कौन किसको परास्त करते थे और कौन-कौन-से क्षुद्र सैनिक भयके कारण युद्धके मैदानसे भाग गये थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनंजयं च मे शंस यद् यच्चक्रे रथर्षभः।
तस्माद् भयं नो भूयिष्ठं भ्रातृव्याच्च वृकोदरात् ॥ १८ ॥
मूलम्
धनंजयं च मे शंस यद् यच्चक्रे रथर्षभः।
तस्माद् भयं नो भूयिष्ठं भ्रातृव्याच्च वृकोदरात् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धनंजय अर्जुनके विषयमें भी मुझे बताओ। रथियोंमें श्रेष्ठ अर्जुनने क्या-क्या किया था। मुझे उनसे तथा शत्रुस्वरूप भीमसेनसे अधिक भय लगता है॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथाऽऽसीच्च निवृत्तेषु पाण्डवेयेषु संजय।
मम सैन्यावशेषस्य संनिपातः सुदारुणः ॥ १९ ॥
मूलम्
यथाऽऽसीच्च निवृत्तेषु पाण्डवेयेषु संजय।
मम सैन्यावशेषस्य संनिपातः सुदारुणः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय! पाण्डव-सैनिकोंके पुनः युद्धभूमिमें लौट आनेपर मेरी शेष सेनाके साथ जिस प्रकार उनका अत्यन्त भयंकर संग्राम हुआ था, वह कहो॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथं च वो मनस्तात निवृत्तेष्वभवत् तदा।
मामकानां च ये शूराः के कांस्तत्र न्यवारयन् ॥ २० ॥
मूलम्
कथं च वो मनस्तात निवृत्तेष्वभवत् तदा।
मामकानां च ये शूराः के कांस्तत्र न्यवारयन् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात! पाण्डव-सैनिकोंके लौटनेपर तुमलोगोंके मनकी कैसी दशा हुई? मेरे पुत्रोंकी सेनामें जो शूरवीर थे, उनमेंसे किन लोगोंने शत्रुपक्षके किन वीरोंको रोका था?॥२०॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि संशप्तकवधपर्वणि धृतराष्ट्रवाक्ये चतुर्विंशोऽध्यायः ॥ २४ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत संशप्तकवधपर्वमें धृतराष्ट्रवाक्यविषयक चौबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२४॥