भागसूचना
द्वाविंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
द्रोणके युद्धके विषयमें दुर्योधन और कर्णका संवाद
मूलम् (वचनम्)
धृतराष्ट्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
भारद्वाजेन भग्नेषु पाण्डवेषु महामृधे।
पञ्चालेषु च सर्वेषु कच्चिदन्योऽभ्यवर्तत ॥ १ ॥
आर्यां युद्धे मतिं कृत्वा क्षत्रियाणां यशस्करीम्।
असेवितां कापुरुषैः सेवितां पुरुषर्षभैः ॥ २ ॥
मूलम्
भारद्वाजेन भग्नेषु पाण्डवेषु महामृधे।
पञ्चालेषु च सर्वेषु कच्चिदन्योऽभ्यवर्तत ॥ १ ॥
आर्यां युद्धे मतिं कृत्वा क्षत्रियाणां यशस्करीम्।
असेवितां कापुरुषैः सेवितां पुरुषर्षभैः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धृतराष्ट्रने पूछा— संजय! द्रोणाचार्यने उस महासमरमें जब पाण्डवों तथा समस्त पांचालोंको मार भगाया, तब क्षत्रियोंके लिये यशका विस्तार करनेवाली, कायरोंद्वारा न अपनायी जानेवाली और श्रेष्ठ पुरुषोंद्वारा सेवित युद्धविषयक उत्तम बुद्धिका आश्रय लेकर क्या कोई दूसरा वीर भी उनके सामने आया?॥१-२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स हि वीरोन्नतः शूरो यो भग्नेषु निवर्तते।
अहो नासीत् पुमान् कश्चिद् दृष्ट्वा द्रोणं व्यवस्थितम् ॥ ३ ॥
मूलम्
स हि वीरोन्नतः शूरो यो भग्नेषु निवर्तते।
अहो नासीत् पुमान् कश्चिद् दृष्ट्वा द्रोणं व्यवस्थितम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वही वीरोंमें उन्नतिशील और शौर्यसम्पन्न है, जो सैनिकोंके भाग जानेपर स्वयं युद्धक्षेत्रमें लौटकर आ जाय। अहो! क्या उस समय द्रोणाचार्यको डटा हुआ देखकर पाण्डवोंमें कोई भी वीर पुरुष नहीं था (जो द्रोणाचार्यका सामना कर सके)॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जृम्भमाणमिव व्याघ्रं प्रभिन्नमिव कुञ्जरम्।
त्यजन्तमाहवे प्राणान् संनद्धं चित्रयोधिनम् ॥ ४ ॥
महेष्वासं नरव्याघ्रं द्विषतां भयवर्धनम्।
कृतज्ञं सत्यनिरतं दुर्योधनहितैषिणम् ॥ ५ ॥
भारद्वाजं तथानीके दृष्ट्वा शूरमवस्थितम्।
के शूराः संन्यवर्तन्त तन्ममाचक्ष्व संजय ॥ ६ ॥
मूलम्
जृम्भमाणमिव व्याघ्रं प्रभिन्नमिव कुञ्जरम्।
त्यजन्तमाहवे प्राणान् संनद्धं चित्रयोधिनम् ॥ ४ ॥
महेष्वासं नरव्याघ्रं द्विषतां भयवर्धनम्।
कृतज्ञं सत्यनिरतं दुर्योधनहितैषिणम् ॥ ५ ॥
भारद्वाजं तथानीके दृष्ट्वा शूरमवस्थितम्।
के शूराः संन्यवर्तन्त तन्ममाचक्ष्व संजय ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जँभाई लेते हुए व्याघ्र तथा मदकी धारा बहानेवाले गजराजकी भाँति पराक्रमी, युद्धमें प्राणोंका विसर्जन करनेके लिये उद्यत, कवच आदिसे सुसज्जित, विचित्र रीतिसे युद्ध करनेवाले, शत्रुओंका भय बढ़ानेवाले, कृतज्ञ, सत्यपरायण, दुर्योधनके हितैषी तथा शूरवीर, भरद्वाजनन्दन महाधनुर्धर पुरुषसिंह द्रोणाचार्यको युद्धमें डटा हुआ देख किन शूरवीरोंने लौटकर उनका सामना किया? संजय! यह वृत्तान्त मुझसे कहो॥४—६॥
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तान् दृष्ट्वा चलितान् संख्ये प्रणुन्नान् द्रोणसायकैः।
पञ्चालान् पाण्डवान् मत्स्यान् सृञ्जयांश्चेदिकेकयान् ॥ ७ ॥
द्रोणचापविमुक्तेन शरौघेणाशुहारिणा ।
सिन्धोरिव महौघेन ह्रियमाणान् यथा प्लवान् ॥ ८ ॥
कौरवाः सिंहनादेन नानावाद्यस्वनेन च।
रथद्विपनरांश्चैव सर्वतः समवारयन् ॥ ९ ॥
मूलम्
तान् दृष्ट्वा चलितान् संख्ये प्रणुन्नान् द्रोणसायकैः।
पञ्चालान् पाण्डवान् मत्स्यान् सृञ्जयांश्चेदिकेकयान् ॥ ७ ॥
द्रोणचापविमुक्तेन शरौघेणाशुहारिणा ।
सिन्धोरिव महौघेन ह्रियमाणान् यथा प्लवान् ॥ ८ ॥
कौरवाः सिंहनादेन नानावाद्यस्वनेन च।
रथद्विपनरांश्चैव सर्वतः समवारयन् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजयने कहा— महाराज! कौरवोंने देखा कि पांचाल, पाण्डव, मत्स्य, सृंजय, चेदि और केकय-देशीय योद्धा युद्धमें द्रोणाचार्यके बाणोंसे पीड़ित हो विचलित हो उठे हैं तथा जैसे समुद्रकी महान् जलराशि बहुत-से नावोंको बहा ले जाती है, उसी प्रकार द्रोणाचार्यके धनुषसे छूटकर शीघ्र ही प्राण हर लेनेवाले बाण-समुदायने पाण्डव-सैनिकोंको मार भगाया है। तब वे सिंहनाद एवं नाना प्रकारके रण-वाद्योंका गम्भीर घोष करते हुए शत्रुओंके रथारोहियों, हाथीसवारों तथा पैदल सैनिकोंको सब ओरसे रोकने लगे॥७—९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तान् पश्यन् सैन्यमध्यस्थो राजा स्वजनसंवृतः।
दुर्योधनोऽब्रवीत् कर्णं प्रहृष्टः प्रहसन्निव ॥ १० ॥
मूलम्
तान् पश्यन् सैन्यमध्यस्थो राजा स्वजनसंवृतः।
दुर्योधनोऽब्रवीत् कर्णं प्रहृष्टः प्रहसन्निव ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सेनाके बीचमें खड़े हो स्वजनोंसे घिरे हुए राजा दुर्योधनने पाण्डव-सैनिकोंकी ओर देखते हुए अत्यन्त प्रसन्न होकर कर्णसे हँसते हुए-से कहा॥१०॥
मूलम् (वचनम्)
दुर्योधन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
पश्य राधेय पञ्चालान् प्रणुन्नान् द्रोणसायकैः।
सिंहेनेव मृगान् वन्यांस्त्रासितान् दृढधन्वना ॥ ११ ॥
मूलम्
पश्य राधेय पञ्चालान् प्रणुन्नान् द्रोणसायकैः।
सिंहेनेव मृगान् वन्यांस्त्रासितान् दृढधन्वना ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुर्योधन बोला— राधानन्दन! देखो, सुदृढ़ धनुष धारण करनेवाले द्रोणाचार्यके बाणोंसे ये पांचाल सैनिक उसी प्रकार पीड़ित हो रहे हैं, जैसे सिंह वनवासी मृगोंको त्रस्त कर देता है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैते जातु पुनर्युद्धमीहेयुरिति मे मतिः।
यथा तु भग्ना द्रोणेन वातेनेव महाद्रुमाः ॥ १२ ॥
मूलम्
नैते जातु पुनर्युद्धमीहेयुरिति मे मतिः।
यथा तु भग्ना द्रोणेन वातेनेव महाद्रुमाः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरा तो ऐसा विश्वास है कि ये फिर कभी युद्धकी इच्छा नहीं करेंगे। जैसे वायु बड़े-बड़े वृक्षोंको उखाड़ देती है, उसी प्रकार द्रोणाचार्यने युद्धसे इनके पाँव उखाड़ दिये हैं॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्द्यमानाः शरैरेते रुक्मपुङ्खैर्महात्मना ।
पथा नैकेन गच्छन्ति घूर्णमानास्ततस्ततः ॥ १३ ॥
मूलम्
अर्द्यमानाः शरैरेते रुक्मपुङ्खैर्महात्मना ।
पथा नैकेन गच्छन्ति घूर्णमानास्ततस्ततः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महामना द्रोणके सुवर्णमय पंखयुक्त बाणोंद्वारा पीड़ित होकर ये इधर-उधर चक्कर काटते हुए एक ही मार्गसे नहीं भाग रहे हैं॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संनिरुद्धाश्च कौरव्यैर्द्रोणेन च महात्मना।
एतेऽन्ये मण्डलीभूताः पावकेनेव कुञ्जराः ॥ १४ ॥
मूलम्
संनिरुद्धाश्च कौरव्यैर्द्रोणेन च महात्मना।
एतेऽन्ये मण्डलीभूताः पावकेनेव कुञ्जराः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कौरव-सैनिकों तथा महामना द्रोणने इनकी गति रोक दी है। जैसे दावानलसे हाथी घिर जाते हैं, उसी प्रकार ये तथा अन्य पाण्डव-योद्धा कौरवोंसे घिर गये हैं॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भ्रमरैरिव चाविष्टा द्रोणस्य निशितैः शरैः।
अन्योन्यं समलीयन्त पलायनपरायणाः ॥ १५ ॥
मूलम्
भ्रमरैरिव चाविष्टा द्रोणस्य निशितैः शरैः।
अन्योन्यं समलीयन्त पलायनपरायणाः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भ्रमरोंके समान द्रोणके पैने बाणोंसे घायल होकर ये रणभूमिसे पलायन करते हुए एक-दूसरेकी आडमें छिप रहे हैं॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष भीमो महाक्रोधी हीनः पाण्डवसृञ्जयैः।
मदीयैरावृतो योधैः कर्ण नन्दयतीव माम् ॥ १६ ॥
मूलम्
एष भीमो महाक्रोधी हीनः पाण्डवसृञ्जयैः।
मदीयैरावृतो योधैः कर्ण नन्दयतीव माम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह महाक्रोधी भीमसेन पाण्डव तथा सृंजयोंसे रहित हो मेरे योद्धाओंसे घिर गया है। कर्ण! इस अवस्थामें भीमसेन मुझे आनन्दित-सा कर रहा है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्यक्तं द्रोणमयं लोकमद्य पश्यति दुर्मतिः।
निराशो जीवितान्नूनमद्य राज्याच्च पाण्डवः ॥ १७ ॥
मूलम्
व्यक्तं द्रोणमयं लोकमद्य पश्यति दुर्मतिः।
निराशो जीवितान्नूनमद्य राज्याच्च पाण्डवः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
निश्चय ही आज जीवन और राज्यसे निराश हो यह दुर्बुद्धि पाण्डुकुमार सारे संसारको द्रोणमय ही देख रहा होगा॥१७॥
मूलम् (वचनम्)
कर्ण उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैष जातु महाबाहुर्जीवन्नाहवमुत्सृजेत् ।
न चेमान् पुरुषव्याघ्र सिंहनादान् सहिष्यति ॥ १८ ॥
मूलम्
नैष जातु महाबाहुर्जीवन्नाहवमुत्सृजेत् ।
न चेमान् पुरुषव्याघ्र सिंहनादान् सहिष्यति ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कर्ण बोला— राजन्! यह महाबाहु भीमसेन जीतेजी कभी युद्ध नहीं छोड़ सकता है। पुरुषसिंह! तुम्हारे सैनिक जो ये सिंहनाद कर रहे हैं, इन्हें भीमसेन कभी नहीं सहेगा॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न चापि पाण्डवा युद्धे भज्येरन्निति मे मतिः।
शूराश्च बलवन्तश्च कृतास्त्रा युद्धदुर्मदाः ॥ १९ ॥
मूलम्
न चापि पाण्डवा युद्धे भज्येरन्निति मे मतिः।
शूराश्च बलवन्तश्च कृतास्त्रा युद्धदुर्मदाः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाण्डव शूरवीर, बलवान्, अस्त्र-विद्यामें निपुण तथा युद्धमें उन्मत्त होकर लड़नेवाले हैं। ये रणभूमिसे कभी भाग नहीं सकते हैं। मेरा यही विश्वास है॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विषाग्निद्यूतसंक्लेशान् वनवासं च पाण्डवाः।
स्मरमाणा न हास्यन्ति संग्राममिति मे मतिः ॥ २० ॥
मूलम्
विषाग्निद्यूतसंक्लेशान् वनवासं च पाण्डवाः।
स्मरमाणा न हास्यन्ति संग्राममिति मे मतिः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं ऐसा मानता हूँ कि पाण्डव तुम्हारे द्वारा दिये हुए विष, अग्निदाह और द्यूतके क्लेशों तथा वनवासको याद करके कभी युद्धभूमि नहीं छोड़ेंगे॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निवृत्तो हि महाबाहुरमितौजा वृकोदरः।
वरान् वरान् हि कौन्तेयो रथोदारान् हनिष्यति ॥ २१ ॥
मूलम्
निवृत्तो हि महाबाहुरमितौजा वृकोदरः।
वरान् वरान् हि कौन्तेयो रथोदारान् हनिष्यति ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अमिततेजस्वी महाबाहु कुन्तीपुत्र वृकोदर इधरकी ओर लौटे हैं। वे बड़े-बड़े उदार महारथियोंको चुन-चुनकर मारेंगे॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
असिना धनुषा शक्त्या हयैर्नागैर्नरै रथैः।
आयसेन च दण्डेन व्रातान् व्रातान् हनिष्यति ॥ २२ ॥
मूलम्
असिना धनुषा शक्त्या हयैर्नागैर्नरै रथैः।
आयसेन च दण्डेन व्रातान् व्रातान् हनिष्यति ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे खड्ग, धनुष, शक्ति, घोड़े, हाथी, मनुष्य एवं रथोंद्वारा और लोहेके डंडेसे समूह-के-समूह सैनिकोंका संहार कर डालेंगे॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमेनमनुवर्तन्ते सात्यकिप्रमुखा रथाः ।
पञ्चालाः केकया मत्स्याः पाण्डवाश्च विशेषतः ॥ २३ ॥
मूलम्
तमेनमनुवर्तन्ते सात्यकिप्रमुखा रथाः ।
पञ्चालाः केकया मत्स्याः पाण्डवाश्च विशेषतः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देखो, भीमसेनके पीछे सात्यकि आदि महारथी तथा पांचाल, केकय, मत्स्य और विशेषतः पाण्डव योद्धा भी आ रहे हैं॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शूराश्च बलवन्तश्च विक्रान्ताश्च महारथाः।
विनिघ्नन्तश्च भीमेन संरब्धेनाभिचोदिताः ॥ २४ ॥
मूलम्
शूराश्च बलवन्तश्च विक्रान्ताश्च महारथाः।
विनिघ्नन्तश्च भीमेन संरब्धेनाभिचोदिताः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्रोधमें भरे हुए भीमसेनसे प्रेरित हो वे शूरवीर, बलवान् पराक्रमी महारथी सैनिक हमारे सैनिकोंको मारते आ रहे हैं॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते द्रोणमभिवर्तन्ते सर्वतः कुरुपुङ्गवाः।
वृकोदरं परीप्सन्तः सूर्यमभ्रगणा इव ॥ २५ ॥
मूलम्
ते द्रोणमभिवर्तन्ते सर्वतः कुरुपुङ्गवाः।
वृकोदरं परीप्सन्तः सूर्यमभ्रगणा इव ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे कुरुश्रेष्ठ पाण्डव भीमसेनकी रक्षाके लिये द्रोणाचार्यको सब ओरसे उसी प्रकार घेर रहे हैं, जैसे बादल सूर्यको ढक लेते हैं॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(समरेषु तु निर्दिष्टाः पाण्डवाः कृष्णबान्धवाः।
ह्रीमन्तः शत्रुमरणे निपुणाः पुण्यलक्षणाः॥
बहवः पार्थिवा राजंस्तेषां वशगता रणे।
मावमंस्थाः पाण्डवांस्त्वं नारायणपुरोगमान् ॥)
मूलम्
(समरेषु तु निर्दिष्टाः पाण्डवाः कृष्णबान्धवाः।
ह्रीमन्तः शत्रुमरणे निपुणाः पुण्यलक्षणाः॥
बहवः पार्थिवा राजंस्तेषां वशगता रणे।
मावमंस्थाः पाण्डवांस्त्वं नारायणपुरोगमान् ॥)
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! पाण्डवोंके सहायक बन्धु श्रीकृष्ण हैं। वे उन्हें युद्धविषयक कर्तव्यका निर्देश किया करते हैं। वे लज्जाशील, शत्रुओंको मारनेकी कलामें निपुण तथा पवित्र लक्षणोंसे युक्त हैं। रणभूमिमें बहुत-से भूपाल उनके वशमें आ चुके हैं। अतः भगवान् नारायण जिनके अगुआ हैं, उन पाण्डवोंकी तुम अवहेलना न करो।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकायनगता ह्येते पीडयेयुर्यतव्रतम् ।
अरक्ष्यमाणं शलभा यथा दीपं मुमूर्षवः ॥ २६ ॥
मूलम्
एकायनगता ह्येते पीडयेयुर्यतव्रतम् ।
अरक्ष्यमाणं शलभा यथा दीपं मुमूर्षवः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये सब एक रास्तेपर चल रहे हैं। यदि व्रत और नियमका पालन करनेवाले द्रोणाचार्यकी रक्षा न की गयी तो ये उन्हें उसी प्रकार पीड़ा देंगे, जैसे मरनेकी इच्छावाले पतंग दीपकको बुझा देनेकी चेष्टा करते हैं॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
असंशयं कृतास्त्राश्च पर्याप्ताश्चापि वारणे।
अतिभारमहं मन्ये भारद्वाजे समाहितम् ॥ २७ ॥
मूलम्
असंशयं कृतास्त्राश्च पर्याप्ताश्चापि वारणे।
अतिभारमहं मन्ये भारद्वाजे समाहितम् ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसमें संदेह नहीं कि वे पाण्डव योद्धा अस्त्र-विद्यामें निपुण तथा द्रोणाचार्यकी गतिको रोकनेमें समर्थ हैं। मुझे ऐसा जान पड़ता है कि इस समय भरद्वाजनन्दन द्रोणाचार्यपर बहुत बड़ा भार आ पहुँचा है॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शीघ्रमनुगमिष्यामो यत्र द्रोणो व्यवस्थितः।
कोका इव महानागं मा वै हन्युर्यतव्रतम् ॥ २८ ॥
मूलम्
शीघ्रमनुगमिष्यामो यत्र द्रोणो व्यवस्थितः।
कोका इव महानागं मा वै हन्युर्यतव्रतम् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः हमलोग शीघ्र वहीं चलें, जहाँ द्रोणाचार्य खड़े हैं। कहीं ऐसा न हो कि कुछ भेड़िये (जैसे पाण्डव-सैनिक) महान् गजराज-जैसे व्रतधारी द्रोणाचार्यका वध कर डालें॥२८॥
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
राधेयस्य वचः श्रुत्वा राजा दुर्योधनस्ततः।
भ्रातृभिः सहितो राजन् प्रायाद् द्रोणरथं प्रति ॥ २९ ॥
मूलम्
राधेयस्य वचः श्रुत्वा राजा दुर्योधनस्ततः।
भ्रातृभिः सहितो राजन् प्रायाद् द्रोणरथं प्रति ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— महाराज! राधानन्दन कर्णकी बात सुनकर राजा दुर्योधन अपने भाइयोंके साथ द्रोणाचार्यके रथकी ओर चल दिया॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्रारावो महानासीदेकं द्रोणं जिघांसताम्।
पाण्डवानां निवृत्तानां नानावर्णैर्हयोत्तमैः ॥ ३० ॥
मूलम्
तत्रारावो महानासीदेकं द्रोणं जिघांसताम्।
पाण्डवानां निवृत्तानां नानावर्णैर्हयोत्तमैः ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ अनेक प्रकारके रंगवाले उत्तम घोड़ोंसे जुते हुए रथोंद्वारा एकमात्र द्रोणाचार्यको मार डालनेकी इच्छासे लौटे हुए पाण्डव-सैनिकोंका महान् कोलाहल प्रकट हो रहा था॥३०॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि संशप्तकवधपर्वणि द्रोणयुद्धे द्वाविंशोऽध्यायः ॥ २२ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत संशप्तकवधपर्वमें द्रोणाचार्यका युद्धविषयक बाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२२॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २ श्लोक मिलाकर कुल ३२ श्लोक हैं।)