भागसूचना
विंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
द्रोणाचार्यके द्वारा गरुडव्यूहका निर्माण, युधिष्ठिरका भय, धृष्टद्युम्नका आश्वासन, धृष्टद्युम्न और दुर्मुखका युद्ध तथा संकुल युद्धमें गजसेनाका संहार
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
परिणाम्य निशां तां तु भारद्वाजो महारथः।
उक्त्वा सुबहु राजेन्द्र वचनं वै सुयोधनम् ॥ १ ॥
विधाय योगं पार्थेन संशप्तकगणैः सह।
निष्क्रान्ते च तदा पार्थे संशप्तकवधं प्रति ॥ २ ॥
व्यूढानीकस्ततो द्रोणः पाण्डवानां महाचमूम्।
अभ्ययाद् भरतश्रेष्ठ धर्मराजजिघृक्षया ॥ ३ ॥
मूलम्
परिणाम्य निशां तां तु भारद्वाजो महारथः।
उक्त्वा सुबहु राजेन्द्र वचनं वै सुयोधनम् ॥ १ ॥
विधाय योगं पार्थेन संशप्तकगणैः सह।
निष्क्रान्ते च तदा पार्थे संशप्तकवधं प्रति ॥ २ ॥
व्यूढानीकस्ततो द्रोणः पाण्डवानां महाचमूम्।
अभ्ययाद् भरतश्रेष्ठ धर्मराजजिघृक्षया ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— राजेन्द्र! महारथी द्रोणाचार्यने वह रात बिताकर दुर्योधनसे बहुत कुछ बातें कहीं और संशप्तकोंके साथ अर्जुनके युद्धका योग लगा दिया। भरतश्रेष्ठ! फिर संशप्तकोंका वध करनेके लिये अर्जुन जब दूर निकल गये, तब सेनाकी व्यूहरचना करके धर्मराज युधिष्ठिरको पकड़नेके लिये द्रोणाचार्यने पाण्डवोंकी विशाल सेनापर आक्रमण किया॥१—३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्यूढं दृष्ट्वा सुपर्णं तु भारद्वाजकृतं तदा।
व्यूहेन मण्डलार्धेन प्रत्यव्यूहद् युधिष्ठिरः ॥ ४ ॥
मूलम्
व्यूढं दृष्ट्वा सुपर्णं तु भारद्वाजकृतं तदा।
व्यूहेन मण्डलार्धेन प्रत्यव्यूहद् युधिष्ठिरः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्रोणाचार्यके बनाये हुए गरुडव्यूहको देखकर युधिष्ठिरने अपनी सेनाका मण्डलार्धव्यूह बनाया॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुखं त्वासीत् सुपर्णस्य भारद्वाजो महारथः।
शिरो दुर्योधनो राजा सोदर्यैः सानुगैर्वृतः।
चक्षुषी कृतवर्माऽऽसीद् गौतमश्चास्यतां वरः ॥ ५ ॥
मूलम्
मुखं त्वासीत् सुपर्णस्य भारद्वाजो महारथः।
शिरो दुर्योधनो राजा सोदर्यैः सानुगैर्वृतः।
चक्षुषी कृतवर्माऽऽसीद् गौतमश्चास्यतां वरः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गरुडव्यूहमें गरुड़के मुँहके स्थानपर महारथी द्रोणाचार्य खड़े थे। शिरोभागमें भाइयों तथा अनुगामी सैनिकोंसहित राजा दुर्योधन उपस्थित हुआ। बाण चलानेवालोंमें श्रेष्ठ कृपाचार्य और कृतवर्मा उस व्यूहकी आँखके स्थानमें स्थित हुए॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूतशर्मा क्षेमशर्मा करकाशश्च वीर्यवान्।
कलिङ्गाः सिंहलाः प्राच्याः शूराभीरा दशेरकाः ॥ ६ ॥
शका यवनकाम्बोजास्तथा हंसपथाश्च ये।
ग्रीवायां शूरसेनाश्च दरदा मद्रकेकयाः ॥ ७ ॥
गजाश्वरथपत्त्योघास्तस्थुः परमदंशिताः ।
मूलम्
भूतशर्मा क्षेमशर्मा करकाशश्च वीर्यवान्।
कलिङ्गाः सिंहलाः प्राच्याः शूराभीरा दशेरकाः ॥ ६ ॥
शका यवनकाम्बोजास्तथा हंसपथाश्च ये।
ग्रीवायां शूरसेनाश्च दरदा मद्रकेकयाः ॥ ७ ॥
गजाश्वरथपत्त्योघास्तस्थुः परमदंशिताः ।
अनुवाद (हिन्दी)
भूतशर्मा, क्षेमशर्मा, पराक्रमी करकाश, कलिंग, सिंहल, पूर्वदिशाके सैनिक, शूर आभीरगण, दाशेरकगण, शक, यवन, काम्बोज, शूरसेन, दरद, मद्र, केकय तथा हंसपथ नामवाले देशोंके निवासी शूरवीर एवं हाथीसवार, घुड़सवार, रथी और पैदल सैनिकोंके समूह उत्तम कवच धारण करके उस गरुडके ग्रीवाभागमें खड़े थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूरिश्रवास्तथा शल्यः सोमदत्तश्च बाह्लिकः ॥ ८ ॥
अक्षौहिण्या वृता वीरा दक्षिणं पार्श्वमास्थिताः।
मूलम्
भूरिश्रवास्तथा शल्यः सोमदत्तश्च बाह्लिकः ॥ ८ ॥
अक्षौहिण्या वृता वीरा दक्षिणं पार्श्वमास्थिताः।
अनुवाद (हिन्दी)
भूरिश्रवा, शल्य, सोमदत्त तथा बाह्लिक—ये वीरगण अक्षौहिणी सेनाके साथ व्यूहके दाहिने पार्श्वमें स्थित थे॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विन्दानुविन्दावावन्त्यौ काम्बोजश्च सुदक्षिणः ॥ ९ ॥
वामं पार्श्वं समाश्रित्य द्रोणपुत्राग्रतः स्थिताः।
मूलम्
विन्दानुविन्दावावन्त्यौ काम्बोजश्च सुदक्षिणः ॥ ९ ॥
वामं पार्श्वं समाश्रित्य द्रोणपुत्राग्रतः स्थिताः।
अनुवाद (हिन्दी)
अवन्तीके विन्द और अनुविन्द तथा काम्बोजराज सुदक्षिण—ये बायें पार्श्वका आश्रय लेकर द्रोणपुत्र अश्वत्थामाके आगे खड़े हुए॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पृष्ठे कलिङ्गाः साम्बष्ठा मागधाः पौण्ड्रमद्रकाः ॥ १० ॥
गान्धाराः शकुनाः प्राच्याः पर्वतीया वसातयः।
मूलम्
पृष्ठे कलिङ्गाः साम्बष्ठा मागधाः पौण्ड्रमद्रकाः ॥ १० ॥
गान्धाराः शकुनाः प्राच्याः पर्वतीया वसातयः।
अनुवाद (हिन्दी)
पृष्ठभागमें कलिंग, अम्बष्ठ, मगध, पौण्ड्र, मद्रक, गन्धार, शकुन, पूर्वदेश, पर्वतीय प्रदेश और वसाति आदि देशोंके वीर थे॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुच्छे वैकर्तनः कर्णः सपुत्रज्ञातिबान्धवः ॥ ११ ॥
महत्या सेनया तस्थौ नानाजनपदोत्थया।
मूलम्
पुच्छे वैकर्तनः कर्णः सपुत्रज्ञातिबान्धवः ॥ ११ ॥
महत्या सेनया तस्थौ नानाजनपदोत्थया।
अनुवाद (हिन्दी)
पुच्छभागमें अपने पुत्र, जाति-भाई तथा कुटुम्बके बन्धु-बान्धवोंसहित भिन्न-भिन्न देशोंकी विशाल सेना साथ लिये विकर्तनपुत्र कर्ण खड़ा था॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जयद्रथो भीमरथः सम्पातिऋषभो जयः ॥ १२ ॥
भूमिंजयो वृषक्राथो नैषधश्च महाबलः।
वृता बलेन महता ब्रह्मलोकपुरस्कृताः ॥ १३ ॥
व्यूहस्योरसि ते राजन् स्थिता युद्धविशारदाः।
मूलम्
जयद्रथो भीमरथः सम्पातिऋषभो जयः ॥ १२ ॥
भूमिंजयो वृषक्राथो नैषधश्च महाबलः।
वृता बलेन महता ब्रह्मलोकपुरस्कृताः ॥ १३ ॥
व्यूहस्योरसि ते राजन् स्थिता युद्धविशारदाः।
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! उस व्यूहके हृदयस्थानमें जयद्रथ, भीमरथ, सम्पाति, ऋषभ, जय, भूमिंजय, वृषक्राथ तथा महाबली निषधराज बहुत बड़ी सेनाके साथ खड़े थे। ये सब-के-सब ब्रह्मलोककी प्राप्तिको लक्ष्य बनाकर लड़नेवाले तथा युद्धकी कलामें अत्यन्त निपुण थे॥१२-१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रोणेन विहितो व्यूहः पदात्यश्वरथद्विपैः ॥ १४ ॥
वातोद्धूतार्णवाकारः प्रवृत्त इव लक्ष्यते।
मूलम्
द्रोणेन विहितो व्यूहः पदात्यश्वरथद्विपैः ॥ १४ ॥
वातोद्धूतार्णवाकारः प्रवृत्त इव लक्ष्यते।
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार पैदल, अश्वारोही, गजारोही तथा रथियोंद्वारा आचार्य द्रोणका बनाया हुआ वह व्यूह वायुके झकोरोंसे उछलते हुए समुद्रके समान दिखायी देता था॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य पक्षप्रपक्षेभ्यो निष्पतन्ति युयुत्सवः ॥ १५ ॥
सविद्युत्स्तनिता मेघाः सर्वदिग्भ्य इवोष्णगे।
मूलम्
तस्य पक्षप्रपक्षेभ्यो निष्पतन्ति युयुत्सवः ॥ १५ ॥
सविद्युत्स्तनिता मेघाः सर्वदिग्भ्य इवोष्णगे।
अनुवाद (हिन्दी)
उसके पक्ष और प्रपक्ष भागोंसे युद्धकी इच्छा रखनेवाले योद्धा उसी प्रकार निकलने लगे, जैसे वर्षाकालमें विद्युत्से प्रकाशित गर्जते हुए मेघ सम्पूर्ण दिशाओंसे प्रकट होने लगते हैं॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य प्राग्ज्योतिषो मध्ये विधिवत् कल्पितं गजम् ॥ १६ ॥
आस्थितः शुशुभे राजन्नंशुमानुदये यथा।
मूलम्
तस्य प्राग्ज्योतिषो मध्ये विधिवत् कल्पितं गजम् ॥ १६ ॥
आस्थितः शुशुभे राजन्नंशुमानुदये यथा।
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! उस व्यूहके मध्यभागमें विधिपूर्वक सजाये हुए हाथीपर आरूढ़ हो प्राग्ज्योतिषपुरके राजा भगदत्त उदयाचलपर प्रकाशित होनेवाले सूर्यदेवके समान सुशोभित हो रहे थे॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
माल्यदामवता राजन् श्वेतच्छत्रेण धार्यता ॥ १७ ॥
कृत्तिकायोगयुक्तेन पौर्णमास्यामिवेन्दुना ।
मूलम्
माल्यदामवता राजन् श्वेतच्छत्रेण धार्यता ॥ १७ ॥
कृत्तिकायोगयुक्तेन पौर्णमास्यामिवेन्दुना ।
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! सेवकोंने राजा भगदत्तके ऊपर मुक्तामालाओंसे अलंकृत श्वेत छत्र लगा रखा था। उनका वह छत्र कृत्तिका नक्षत्रके योगसे युक्त पूर्णिमाके चन्द्रमाकी भाँति शोभा दे रहा था॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नीलाञ्जनचयप्रख्यो मदान्धो द्विरदो बभौ ॥ १८ ॥
अतिवृष्टो महामेघैर्यथा स्यात् पर्वतो महान्।
मूलम्
नीलाञ्जनचयप्रख्यो मदान्धो द्विरदो बभौ ॥ १८ ॥
अतिवृष्टो महामेघैर्यथा स्यात् पर्वतो महान्।
अनुवाद (हिन्दी)
राजाका काली कज्जलराशिके समान मदान्ध गजराज अपने मस्तककी मदवर्षाके कारण महान् मेघोंकी अतिवृष्टिसे आर्द्र हुए विशाल पर्वतके समान शोभा पा रहा था॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानानृपतिभिर्वीरैर्विविधायुधभूषणैः ॥ १९ ॥
समन्वितः पर्वतीयैः शक्रो देवगणैरिव।
मूलम्
नानानृपतिभिर्वीरैर्विविधायुधभूषणैः ॥ १९ ॥
समन्वितः पर्वतीयैः शक्रो देवगणैरिव।
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे इन्द्र देवगणोंसे घिरकर सुशोभित होते हैं, उसी प्रकार भाँति-भाँतिके आयुधों और आभूषणोंसे विभूषित, वीर एवं बहुसंख्यक पर्वतीय नृपतियोंसे घिरे हुए भगदत्तकी बड़ी शोभा हो रही थी॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो युधिष्ठिरः प्रेक्ष्य व्यूहं तमतिमानुषम् ॥ २० ॥
अजय्यमरिभिः संख्ये पार्षतं वाक्यमब्रवीत्।
ब्राह्मणस्य वशं नाहमियामद्य यथा प्रभो।
पारावतसवर्णाश्व तथा नीतिर्विधीयताम् ॥ २१ ॥
मूलम्
ततो युधिष्ठिरः प्रेक्ष्य व्यूहं तमतिमानुषम् ॥ २० ॥
अजय्यमरिभिः संख्ये पार्षतं वाक्यमब्रवीत्।
ब्राह्मणस्य वशं नाहमियामद्य यथा प्रभो।
पारावतसवर्णाश्व तथा नीतिर्विधीयताम् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा युधिष्ठिरने द्रोणाचार्यके रचे हुए उस अलौकिक तथा शत्रुओंके लिये अजेय व्यूहको देखकर युद्धस्थलमें धृष्टद्युम्नसे इस प्रकार कहा—‘कबूतरके समान रंगवाले घोड़ोंपर चलनेवाले वीर! आज तुम ऐसी नीतिका प्रयोग करो, जिससे मैं उस ब्राह्मणके वशमें न होऊँ’॥
मूलम् (वचनम्)
धृष्टद्युम्न उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रोणस्य यतमानस्य वशं नैष्यसि सुव्रत।
अहमावारयिष्यामि द्रोणमद्य सहानुगम् ॥ २२ ॥
मूलम्
द्रोणस्य यतमानस्य वशं नैष्यसि सुव्रत।
अहमावारयिष्यामि द्रोणमद्य सहानुगम् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धृष्टद्युम्न बोले— उत्तम व्रतका पालन करनेवाले नरेश! द्रोणाचार्य कितना ही प्रयत्न क्यों न करें, आप उनके वशमें नहीं होंगे। आज मैं सेवकोंसहित द्रोणाचार्यको रोकूँगा॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मयि जीवति कौरव्य नोद्वेगं कर्तुमर्हसि।
न हि शक्तो रणे द्रोणो विजेतुं मां कथंचन॥२३॥
मूलम्
मयि जीवति कौरव्य नोद्वेगं कर्तुमर्हसि।
न हि शक्तो रणे द्रोणो विजेतुं मां कथंचन॥२३॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुनन्दन! मेरे जीते-जी आपको किसी प्रकार भय नहीं करना चाहिये। द्रोणाचार्य रणक्षेत्रमें मुझे किसी प्रकार जीत नहीं सकते॥२३॥
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्त्वा किरन् बाणान् द्रुपदस्य सुतो बली।
पारावतसवर्णाश्वः स्वयं द्रोणमुपाद्रवत् ॥ २४ ॥
मूलम्
एवमुक्त्वा किरन् बाणान् द्रुपदस्य सुतो बली।
पारावतसवर्णाश्वः स्वयं द्रोणमुपाद्रवत् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— महाराज! ऐसा कहकर कबूतरके समान रंगवाले घोड़े रखनेवाले महाबली द्रुपदपुत्रने बाणोंका जाल-सा बिछाते हुए स्वयं द्रोणाचार्यपर धावा किया॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनिष्टदर्शनं दृष्ट्वा धृष्टद्युम्नमवस्थितम् ।
क्षणेनैवाभवद् द्रोणो नातिहृष्टमना इव ॥ २५ ॥
मूलम्
अनिष्टदर्शनं दृष्ट्वा धृष्टद्युम्नमवस्थितम् ।
क्षणेनैवाभवद् द्रोणो नातिहृष्टमना इव ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसका दर्शन अनिष्टका सूचक था, उस धृष्टद्युम्नको सामने खड़ा देख द्रोणाचार्य क्षणभरमें अत्यन्त अप्रसन्न और उदास हो गये॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(स हि जातो महाराज द्रोणस्य निधनं प्रति।
मर्त्यधर्मतया तस्माद् भारद्वाजो व्यमुह्यत॥)
मूलम्
(स हि जातो महाराज द्रोणस्य निधनं प्रति।
मर्त्यधर्मतया तस्माद् भारद्वाजो व्यमुह्यत॥)
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! वह द्रोणाचार्यका वध करनेके लिये पैदा हुआ था; इसलिये उसे देखकर मर्त्यभावका आश्रय ले द्रोणाचार्य मोहित हो गये।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं तु सम्प्रेक्ष्य पुत्रस्ते दुर्मुखः शत्रुकर्षणः।
प्रियं चिकीर्षुर्द्रोणस्य धृष्टद्युम्नमवारयत् ॥ २६ ॥
मूलम्
तं तु सम्प्रेक्ष्य पुत्रस्ते दुर्मुखः शत्रुकर्षणः।
प्रियं चिकीर्षुर्द्रोणस्य धृष्टद्युम्नमवारयत् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! शत्रुओंका संहार करनेवाले आपके पुत्र दुर्मुखने द्रोणाचार्यको उदास देख धृष्टद्युम्नको आगे बढ़नेसे रोक दिया। वह द्रोणाचार्यका प्रिय करना चाहता था॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स सम्प्रहारस्तुमुलः सुघोरः समपद्यत।
पार्षतस्य च शूरस्य दुर्मुखस्य च भारत ॥ २७ ॥
मूलम्
स सम्प्रहारस्तुमुलः सुघोरः समपद्यत।
पार्षतस्य च शूरस्य दुर्मुखस्य च भारत ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन! उस समय शूरवीर धृष्टद्युम्न तथा दुर्मुखमें तुमुल युद्ध होने लगा, धीरे-धीरे उसने अत्यन्त भयंकर रूप धारण कर लिया॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पार्षतः शरजालेन क्षिप्रं प्रच्छाद्य दुर्मुखम्।
भारद्वाजं शरौघेण महता समवारयत् ॥ २८ ॥
मूलम्
पार्षतः शरजालेन क्षिप्रं प्रच्छाद्य दुर्मुखम्।
भारद्वाजं शरौघेण महता समवारयत् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धृष्टद्युम्नने शीघ्र ही अपने बाणोंके जालसे दुर्मुखको आच्छादित करके महान् बाणसमूहद्वारा द्रोणाचार्यको भी आगे बढ़नेसे रोक दिया॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रोणमावारितं दृष्ट्वा भृशायस्तस्तवात्मजः ।
नानालिङ्गैः शरव्रातैः पार्षतं सममोहयत् ॥ २९ ॥
मूलम्
द्रोणमावारितं दृष्ट्वा भृशायस्तस्तवात्मजः ।
नानालिङ्गैः शरव्रातैः पार्षतं सममोहयत् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्रोणाचार्यको रोका गया देख आपका पुत्र अत्यन्त प्रयत्न करके नाना प्रकारके बाणसमूहोंद्वारा धृष्टद्युम्नको मोहित करने लगा॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तयोर्विषक्तयोः संख्ये पाञ्चाल्यकुरुमुख्ययोः ।
द्रोणो यौधिष्ठिरं सैन्यं बहुधा व्यधमच्छरैः ॥ ३० ॥
मूलम्
तयोर्विषक्तयोः संख्ये पाञ्चाल्यकुरुमुख्ययोः ।
द्रोणो यौधिष्ठिरं सैन्यं बहुधा व्यधमच्छरैः ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे दोनों पांचालराजकुमार और कुरुकुलके प्रधान वीर जब युद्धमें पूर्णतः आसक्त हो रहे थे, उसी समय द्रोणाचार्यने युधिष्ठिरकी सेनाको अपनी बाण-वर्षाद्वारा अनेक प्रकारसे तहस-नहस कर डाला॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनिलेन यथाभ्राणि विच्छिन्नानि समन्ततः।
तथा पार्थस्य सैन्यानि विच्छिन्नानि क्वचित् क्वचित् ॥ ३१ ॥
मूलम्
अनिलेन यथाभ्राणि विच्छिन्नानि समन्ततः।
तथा पार्थस्य सैन्यानि विच्छिन्नानि क्वचित् क्वचित् ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे वायुके वेगसे बादल सब ओरसे फट जाते हैं, उसी प्रकार युधिष्ठिरकी सेनाएँ भी कहीं-कहींसे छिन्न-भिन्न हो गयीं॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुहूर्तमिव तद् युद्धमासीन्मधुरदर्शनम् ।
तत उन्मत्तवद् राजन् निर्मर्यादमवर्तत ॥ ३२ ॥
मूलम्
मुहूर्तमिव तद् युद्धमासीन्मधुरदर्शनम् ।
तत उन्मत्तवद् राजन् निर्मर्यादमवर्तत ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! दो घड़ीतक तो वह युद्ध देखनेमें बड़ा मनोहर लगा; परंतु आगे चलकर उनमें पागलोंकी तरह मर्यादाशून्य मारकाट होने लगी॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैव स्वे न परे राजन्नाज्ञायन्त परस्परम्।
अनुमानेन संज्ञाभिर्युद्धं तत् समवर्तत ॥ ३३ ॥
मूलम्
नैव स्वे न परे राजन्नाज्ञायन्त परस्परम्।
अनुमानेन संज्ञाभिर्युद्धं तत् समवर्तत ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! उस समय वहाँ आपसमें अपने-परायेकी पहचान नहीं हो पाती थी। केवल अनुमान अथवा नाम बतानेसे ही शत्रु-मित्रका विचार करके युद्ध हो रहा था॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चुडामणिषु निष्केषु भूषणेष्वपि वर्मसु।
तेषामादित्यवर्णाभा रश्मयः प्रचकाशिरे ॥ ३४ ॥
मूलम्
चुडामणिषु निष्केषु भूषणेष्वपि वर्मसु।
तेषामादित्यवर्णाभा रश्मयः प्रचकाशिरे ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन वीरोंके मुकुटों, हारों, आभूषणों तथा कवचोंमें सूर्यके समान प्रभामयी रश्मियाँ प्रकाशित हो रही थीं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्प्रकीर्णपताकानां रथवारणवाजिनाम् ।
बलाकाशबलाभ्राभं ददृशे रूपमाहवे ॥ ३५ ॥
मूलम्
तत्प्रकीर्णपताकानां रथवारणवाजिनाम् ।
बलाकाशबलाभ्राभं ददृशे रूपमाहवे ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस युद्धस्थलमें फहराती हुई पताकाओंसे युक्त रथों, हाथियों और घोड़ोंका रूप बकपंक्तियोंसे चितकबरे प्रतीत होनेवाले मेघोंके समान दिखायी देता था॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नरानेव नरा जघ्नुरुदग्राश्च हया हयान्।
रथांश्च रथिनो जघ्नुर्वारणा वरवारणान् ॥ ३६ ॥
मूलम्
नरानेव नरा जघ्नुरुदग्राश्च हया हयान्।
रथांश्च रथिनो जघ्नुर्वारणा वरवारणान् ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पैदल पैदलोंको मार रहे थे, प्रचण्ड घोड़े घोड़ोंका संहार कर रहे थे, रथी रथियोंका वध करते थे और हाथी बड़े-बड़े हाथियोंको चोट पहुँचा रहे थे॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समुच्छ्रितपताकानां गजानां परमद्विपैः ।
क्षणेन तुमुलो घोरः संग्रामः समपद्यत ॥ ३७ ॥
मूलम्
समुच्छ्रितपताकानां गजानां परमद्विपैः ।
क्षणेन तुमुलो घोरः संग्रामः समपद्यत ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिनके ऊपर ऊँची पताकाएँ फहरा रही थीं, उन गजराजोंका शत्रुपक्षके बड़े-बड़े हाथियोंके साथ क्षणभरमें अत्यन्त भयंकर संग्राम छिड़ गया॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषां संसक्तगात्राणां कर्षतामितरेतरम् ।
दन्तसंघातसंघर्षात् सधूमोऽग्निरजायत ॥ ३८ ॥
मूलम्
तेषां संसक्तगात्राणां कर्षतामितरेतरम् ।
दन्तसंघातसंघर्षात् सधूमोऽग्निरजायत ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे एक-दूसरेसे अपने शरीरोंको सटाकर आपसमें खींचातानी करते थे। दाँतोंसे दाँतोंपर टक्कर लगनेसे धूमसहित आग-सी उठने लगती थी॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विप्रकीर्णपताकास्ते विषाणजनिताग्नयः ।
बभूवुः खं समासाद्य सविद्युत इवाम्बुदाः ॥ ३९ ॥
मूलम्
विप्रकीर्णपताकास्ते विषाणजनिताग्नयः ।
बभूवुः खं समासाद्य सविद्युत इवाम्बुदाः ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन हाथियोंकी पीठपर फहराती हुई पताकाएँ वहाँसे टूट-टूटकर गिरने लगीं। उनके दाँतोंके आपसमें टकरानेसे आग प्रकट होने लगी। इससे वे आकाशमें छाये हुए बिजलीसहित मेघोंके समान जान पड़ते थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विक्षिपद्भिर्नदद्भिश्च निपतद्भिश्च वारणैः ।
सम्बभूव मही कीर्णा मेघैर्द्यौरिव शारदी ॥ ४० ॥
मूलम्
विक्षिपद्भिर्नदद्भिश्च निपतद्भिश्च वारणैः ।
सम्बभूव मही कीर्णा मेघैर्द्यौरिव शारदी ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कोई हाथी दूसरे योद्धाओंको उठाकर फेंकते थे, कोई गरज रहे थे और कुछ हाथी मरकर धराशायी हो रहे थे। उनकी लाशोंसे आच्छादित हुई भूमि शरद्-ऋतुके आरम्भमें मेघोंसे आच्छादित आकाशके समान प्रतीत होती थी॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषामाहन्यमानानां बाणतोमरऋष्टिभिः ।
वारणानां रवो जज्ञे मेघानामिव सम्प्लवे ॥ ४१ ॥
मूलम्
तेषामाहन्यमानानां बाणतोमरऋष्टिभिः ।
वारणानां रवो जज्ञे मेघानामिव सम्प्लवे ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बाण, तोमर तथा ऋष्टि आदि अस्त्र-शस्त्रोंसे मारे जाते हुए गजराजोंका चीत्कार प्रलयकालके मेघोंकी गर्जनाके समान जान पड़ता था॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तोमराभिहताः केचिद् बाणैश्च परमद्विपाः।
वित्रेसुः सर्वनागानां शब्दमेवापरेऽव्रजन् ॥ ४२ ॥
मूलम्
तोमराभिहताः केचिद् बाणैश्च परमद्विपाः।
वित्रेसुः सर्वनागानां शब्दमेवापरेऽव्रजन् ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुछ बड़े हाथी तोमरोंकी मारसे घायल हो रहे थे, कुछ बाणोंकी चोटसे क्षत-विक्षत हो अत्यन्त भयभीत हो गये थे और कुछ सम्पूर्ण हाथियोंके शब्दका अनुसरण करते हुए उन्हींकी ओर बढ़े जा रहे थे॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विषाणाभिहताश्चापि केचित् तत्र गजा गजैः।
चक्रुरार्तस्वनं घोरमुत्पातजलदा इव ॥ ४३ ॥
मूलम्
विषाणाभिहताश्चापि केचित् तत्र गजा गजैः।
चक्रुरार्तस्वनं घोरमुत्पातजलदा इव ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुछ हाथी वहाँ हाथियोंद्वारा दाँतोंसे घायल किये जानेपर उत्पातकालके मेघोंके समान भयंकर आर्तनाद कर रहे थे॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रतीपाः क्रियमाणाश्च वारणा वरवारणैः।
उन्मथ्य पुनराजग्मुः प्रेरिताः परमाङ्कुशैः ॥ ४४ ॥
मूलम्
प्रतीपाः क्रियमाणाश्च वारणा वरवारणैः।
उन्मथ्य पुनराजग्मुः प्रेरिताः परमाङ्कुशैः ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कितने ही हाथी शत्रुपक्षके श्रेष्ठ हाथियोंद्वारा घायल हो युद्धभूमिसे विमुख कर दिये गये थे। वे पुनः महावतोंद्वारा उत्तम अंकुशोंसे हाँके जानेपर अपनी ही सेनाको रौंदते हुए पुनः लौट आये॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महामात्रैर्महामात्रास्ताडिताः शरतोमरैः ।
गजेभ्यः पृथिवीं जग्मुर्मुक्तप्रहरणाङ्कुशाः ॥ ४५ ॥
मूलम्
महामात्रैर्महामात्रास्ताडिताः शरतोमरैः ।
गजेभ्यः पृथिवीं जग्मुर्मुक्तप्रहरणाङ्कुशाः ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महावतोंने बाणों और तोमरोंसे महावतोंको भी घायल कर दिया था। अतः वे हाथियोंसे पृथ्वीपर गिर पड़े और उनके आयुध एवं अंकुश हाथोंसे छूटकर इधर-उधर जा गिरे॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निर्मनुष्याश्च मातङ्गा विनदन्तस्ततस्ततः ।
छिन्नाभ्राणीव सम्पेतुः सम्प्रविश्य परस्परम् ॥ ४६ ॥
मूलम्
निर्मनुष्याश्च मातङ्गा विनदन्तस्ततस्ततः ।
छिन्नाभ्राणीव सम्पेतुः सम्प्रविश्य परस्परम् ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कितने ही गजराज मनुष्योंसे शून्य हो इधर-उधर चीत्कार करते हुए फिर रहे थे। वे एक-दूसरेकी सेनामें घुसकर फटे हुए बादलोंके समान छिन्न-भिन्न हो धरतीपर गिर पड़े॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हतान् परिवहन्तश्च पतितान् पतितायुधान्।
दिशो जग्मुर्महानागाः केचिदेकचरा इव ॥ ४७ ॥
मूलम्
हतान् परिवहन्तश्च पतितान् पतितायुधान्।
दिशो जग्मुर्महानागाः केचिदेकचरा इव ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कितने ही बड़े-बड़े हाथी अपनी पीठपर मरकर गिरे हुए आयुधशून्य सवारोंको ढोते हुए अकेले विचरनेवाले गजराजोंके समान सम्पूर्ण दिशाओंमें चक्कर लगा रहे थे॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ताडितास्ताड्यमानाश्च तोमरर्ष्टिपरश्वधैः ।
पेतुरार्तस्वनं कृत्वा तदा विशसने गजाः ॥ ४८ ॥
मूलम्
ताडितास्ताड्यमानाश्च तोमरर्ष्टिपरश्वधैः ।
पेतुरार्तस्वनं कृत्वा तदा विशसने गजाः ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय बहुत-से हाथी उस युद्धस्थलमें तोमर, ऋष्टि तथा फरसोंकी मार खाकर घायल हो आर्तनाद करके धरतीपर गिर जाते थे॥४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषां शैलोपमैः कायैर्निपतद्भिः समन्ततः।
आहता सहसा भूमिश्चकम्पे च ननाद च ॥ ४९ ॥
मूलम्
तेषां शैलोपमैः कायैर्निपतद्भिः समन्ततः।
आहता सहसा भूमिश्चकम्पे च ननाद च ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके पर्वताकार शरीरोंके गिरनेसे सब ओरसे आहत हुई भूमि सहसा काँपने और आर्तनाद करने लगी॥४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सादितैः सगजारोहैः सपताकैः समन्ततः।
मातङ्गैः शुशुभे भूमिर्विकीर्णैरिव पर्वतैः ॥ ५० ॥
मूलम्
सादितैः सगजारोहैः सपताकैः समन्ततः।
मातङ्गैः शुशुभे भूमिर्विकीर्णैरिव पर्वतैः ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ मारे जाकर पताकाओं तथा गजारोहियोंसहित सब ओर गिरे हुए हाथियोंसे आच्छादित हुई वह भूमि ऐसी शोभा पा रही थी, मानो इधर-उधर बिखरे हुए पर्वतखण्डोंसे व्याप्त हो रही हो॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गजस्थाश्च महामात्रा निर्भिन्नहृदया रणे।
रथिभिः पातिता भल्लैर्विकीर्णाङ्कुशतोमराः ॥ ५१ ॥
मूलम्
गजस्थाश्च महामात्रा निर्भिन्नहृदया रणे।
रथिभिः पातिता भल्लैर्विकीर्णाङ्कुशतोमराः ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस रणक्षेत्रमें कितने ही रथियोंने अपने भल्लोंद्वारा हाथीपर बैठे हुए महावतोंकी छाती छेदकर उन्हें सहसा मार गिराया। उन महावतोंके अंकुश और तोमर इधर-उधर बिखर गये थे॥५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रौञ्चवद् विनदन्तोऽन्ये नाराचाभिहता गजाः।
परान् स्वांश्चापि मृद्नन्तः परिपेतुर्दिशो दश ॥ ५२ ॥
मूलम्
क्रौञ्चवद् विनदन्तोऽन्ये नाराचाभिहता गजाः।
परान् स्वांश्चापि मृद्नन्तः परिपेतुर्दिशो दश ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कितने हीं हाथी नाराचोंसे घायल हो क्रौंच पक्षीकी भाँति चिग्घाड़ रहे थे और अपने तथा शत्रुपक्षके सैनिकोंको भी रौंदते हुए दसों दिशाओंमें भाग रहे थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गजाश्वरथयोधानां शरीरौघसमावृता ।
बभूव पृथिवी राजन् मांसशोणितकर्दमा ॥ ५३ ॥
मूलम्
गजाश्वरथयोधानां शरीरौघसमावृता ।
बभूव पृथिवी राजन् मांसशोणितकर्दमा ॥ ५३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! हाथी, घोड़े तथा रथ-योद्धाओंकी लाशोंसे ढकी हुई वहाँकी भूमिपर रक्त और मांसकी कीच जम गयी थी॥५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रमथ्य च विषाणाग्रैः समुत्क्षिप्ताश्च वारणैः।
सचक्राश्च विचक्राश्च रथैरेव महारथाः ॥ ५४ ॥
मूलम्
प्रमथ्य च विषाणाग्रैः समुत्क्षिप्ताश्च वारणैः।
सचक्राश्च विचक्राश्च रथैरेव महारथाः ॥ ५४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कितने ही हाथियोंने अपने दाँतोंके अग्रभागसे पहियेवाले तथा बिना पहियेके बड़े-बड़े रथोंको रथियोंसहित चकनाचूर करके अपनी सूँड़ोंसे उछालकर फेंक दिया॥५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रथाश्च रथिभिर्हीना निर्मनुष्याश्च वाजिनः।
हतारोहाश्च मातङ्गा दिशो जग्मुर्भयातुराः ॥ ५५ ॥
मूलम्
रथाश्च रथिभिर्हीना निर्मनुष्याश्च वाजिनः।
हतारोहाश्च मातङ्गा दिशो जग्मुर्भयातुराः ॥ ५५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रथियोंसे रहित रथ, सवारोंसे शून्य घोड़े और जिनके सवार मार डाले गये हैं ऐसे हाथी भयसे व्याकुल हो सम्पूर्ण दिशाओंमें भाग रहे थे॥५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जघानात्र पिता पुत्रं पुत्रश्च पितरं तथा।
इत्यासीत् तुमुलं युद्धं न प्राज्ञायत किंचन ॥ ५६ ॥
मूलम्
जघानात्र पिता पुत्रं पुत्रश्च पितरं तथा।
इत्यासीत् तुमुलं युद्धं न प्राज्ञायत किंचन ॥ ५६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ पिताने पुत्रको और पुत्रने पिताको मार डाला। ऐसा भयंकर युद्ध हो रहा था कि किसीको कुछ भी ज्ञात नहीं होता था॥५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आगुल्फेभ्योऽवसीदन्ते नरा लोहितकर्दमैः ।
दीप्यमानैः परिक्षिप्ता दावैरिव महाद्रुमाः ॥ ५७ ॥
मूलम्
आगुल्फेभ्योऽवसीदन्ते नरा लोहितकर्दमैः ।
दीप्यमानैः परिक्षिप्ता दावैरिव महाद्रुमाः ॥ ५७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्योंके पैर रक्तकी कीचमें टखनोंतक धँस जाते थे। उस समय वे दहकते हुए दावानलसे घिरे हुए बड़े-बड़े वृक्षोंके समान जान पड़ते थे॥५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शोणितैः सिच्यमानानि वस्त्राणि कवचानि च।
छत्राणि च पताकाश्च सर्वं रक्तमदृश्यत ॥ ५८ ॥
मूलम्
शोणितैः सिच्यमानानि वस्त्राणि कवचानि च।
छत्राणि च पताकाश्च सर्वं रक्तमदृश्यत ॥ ५८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
योद्धाओंके वस्त्र, कवच, ध्वज और पताकाएँ रक्तसे सींच उठी थीं। वहाँ सब कुछ रक्तसे रँगकर लाल-ही-लाल दिखायी देता था॥५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हयौघाश्च रथौघाश्च नरीघाश्च निपातिताः।
संक्षुण्णाः पुनरावृत्य बहुधा रथनेमिभिः ॥ ५९ ॥
मूलम्
हयौघाश्च रथौघाश्च नरीघाश्च निपातिताः।
संक्षुण्णाः पुनरावृत्य बहुधा रथनेमिभिः ॥ ५९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रणभूमिमें गिराये हुए घोड़ों, रथों और पैदलोंके समुदाय बारंबार आते-जाते रथोंके पहियोंसे कुचलकर टुकड़े-टुकड़े हो जाते थे॥५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सगजौघमहावेगः परासुनरशैवलः ।
रथौघतुमुलावर्तः प्रबभौ सैन्यसागरः ॥ ६० ॥
मूलम्
सगजौघमहावेगः परासुनरशैवलः ।
रथौघतुमुलावर्तः प्रबभौ सैन्यसागरः ॥ ६० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह सेनाका समुद्र हाथियोंके समूहरूपी महान् वेग, मरे हुए मनुष्यरूपी सेवार तथा रथसमूहरूपी भयंकर भँवरोंके कारण अद्भुत शोभा पा रहा था॥६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं वाहनमहानौभिर्योधा जयधनैषिणः ।
अवगाह्याथ मज्जन्तो नैव मोहं प्रचक्रिरे ॥ ६१ ॥
मूलम्
तं वाहनमहानौभिर्योधा जयधनैषिणः ।
अवगाह्याथ मज्जन्तो नैव मोहं प्रचक्रिरे ॥ ६१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विजयरूपी धनकी इच्छा रखनेवाले योद्धारूपी व्यापारी वाहनरूपी बड़ी-बड़ी नौकाओंद्वारा उस सैन्य-समुद्रमें उतरकर डूबते हुए भी प्राणोंका मोह नहीं करते थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शरवर्षाभिवृष्टेषु योधेष्वञ्चितलक्ष्मसु ।
न तेष्वचित्ततां लेभे कश्चिदाहतलक्षणः ॥ ६२ ॥
मूलम्
शरवर्षाभिवृष्टेषु योधेष्वञ्चितलक्ष्मसु ।
न तेष्वचित्ततां लेभे कश्चिदाहतलक्षणः ॥ ६२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ समस्त योद्धाओंपर बाणोंकी वर्षा हो रही थी। कहीं उनके चिह्न लुप्त नहीं थे। उनमेंसे कोई भी योद्धा अपनी ध्वज आदि चिह्नोंके नष्ट हो जानेपर भी मोहको नहीं प्राप्त हुआ॥६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वर्तमाने तथा युद्धे घोररूपे भयंकरे।
मोहयित्वा परान् द्रोणो युधिष्ठिरमुपाद्रवत् ॥ ६३ ॥
मूलम्
वर्तमाने तथा युद्धे घोररूपे भयंकरे।
मोहयित्वा परान् द्रोणो युधिष्ठिरमुपाद्रवत् ॥ ६३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार जब अत्यन्त भयंकर घोर युद्ध चल रहा था, उस समय शत्रुओंको मोहित करके द्रोणाचार्यने युधिष्ठिरपर आक्रमण किया॥६३॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि संशप्तकवधपर्वणि संकुलयुद्धे विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत संशप्तकवधपर्वमें संकुलयुद्धविषयक बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२०॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल ६४ श्लोक हैं।)