भागसूचना
अष्टादशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
संशप्तक-सेनाओंके साथ अर्जुनका युद्ध और सुधन्वाका वध
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः संशप्तका राजन् समे देशे व्यवस्थिताः।
व्यूह्यानीकं रथैरेव चन्द्राकारं मुदा युताः ॥ १ ॥
मूलम्
ततः संशप्तका राजन् समे देशे व्यवस्थिताः।
व्यूह्यानीकं रथैरेव चन्द्राकारं मुदा युताः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— राजन्! तदनन्तर संशप्तक योद्धा रथोंद्वारा ही सेनाका चन्द्राकार व्यूह बनाकर समतल प्रदेशमें प्रसन्नतापूर्वक खड़े हो गये॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते किरीटिनमायान्तं दृष्ट्वा हर्षेण मारिष।
उदक्रोशन् नरव्याघ्राः शब्देन महता तदा ॥ २ ॥
मूलम्
ते किरीटिनमायान्तं दृष्ट्वा हर्षेण मारिष।
उदक्रोशन् नरव्याघ्राः शब्देन महता तदा ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आर्य! किरीटधारी अर्जुनको आते देख पुरुषसिंह संशप्तक हर्षपूर्वक बड़े जोर-जोरसे गर्जना करने लगे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स शब्दः प्रदिशः सर्वा दिशः खं च समावृणोत्।
आवृतत्वाच्च लोकस्य नासीत् तत्र प्रतिस्वनः ॥ ३ ॥
मूलम्
स शब्दः प्रदिशः सर्वा दिशः खं च समावृणोत्।
आवृतत्वाच्च लोकस्य नासीत् तत्र प्रतिस्वनः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस सिंहनादने सम्पूर्ण दिशाओं, विदिशाओं तथा आकाशको व्याप्त कर लिया। इस प्रकार सम्पूर्ण लोक व्याप्त हो जानेसे वहाँ दूसरी कोई प्रतिध्वनि नहीं होती थी॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽतीव सम्प्रहृष्टांस्तानुपलभ्य धनंजयः ।
किंचिदभ्युत्स्मयन् कृष्णमिदं वचनमब्रवीत् ॥ ४ ॥
मूलम्
सोऽतीव सम्प्रहृष्टांस्तानुपलभ्य धनंजयः ।
किंचिदभ्युत्स्मयन् कृष्णमिदं वचनमब्रवीत् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुनने उन सबको अत्यन्त हर्षमें भरा हुआ देख किंचित् मुसकराते हुए भगवान् श्रीकृष्णसे इस प्रकार कहा—॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पश्यैतान् देवकीमातर्मुमूर्षूनद्य संयुगे ।
भ्रातॄंस्त्रैगर्तकानेवं रोदितव्ये प्रहर्षितान् ॥ ५ ॥
मूलम्
पश्यैतान् देवकीमातर्मुमूर्षूनद्य संयुगे ।
भ्रातॄंस्त्रैगर्तकानेवं रोदितव्ये प्रहर्षितान् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘देवकीनन्दन! देखिये तो सही, ये त्रिगर्तदेशीय सुशर्मा आदि सब भाई मृत्युके निकट पहुँचे हुए हैं। आज युद्धस्थलमें जहाँ इन्हें रोना चाहिये, वहाँ ये हर्षसे उछल रहे हैं॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथवा हर्षकालोऽयं त्रैगर्तानामसंशयम् ।
कुनरैर्दुरवापान् हि लोकान् प्राप्स्यन्त्यनुत्तमान् ॥ ६ ॥
मूलम्
अथवा हर्षकालोऽयं त्रैगर्तानामसंशयम् ।
कुनरैर्दुरवापान् हि लोकान् प्राप्स्यन्त्यनुत्तमान् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अथवा इसमें संदेह नहीं कि यह इन त्रिगर्तोंके लिये हर्षका ही अवसर है; क्योंकि ये उन परम उत्तम लोकोंमें जायँगे, जो दुष्ट मनुष्योंके लिये दुर्लभ हैं’॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्त्वा महाबाहुर्हृषीकेशं ततोऽर्जुनः ।
आससाद रणे व्यूढां त्रिगर्तानामनीकिनीम् ॥ ७ ॥
मूलम्
एवमुक्त्वा महाबाहुर्हृषीकेशं ततोऽर्जुनः ।
आससाद रणे व्यूढां त्रिगर्तानामनीकिनीम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् हृषीकेशसे ऐसा कहकर महाबाहु अर्जुनने युद्धमें त्रिगर्तोंकी व्यूहाकार खड़ी हुई सेनापर आक्रमण किया॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स देवदत्तमादाय शङ्खं हेमपरिष्कृतम्।
दध्मौ वेगेन महता घोषेणापूरयन् दिशः ॥ ८ ॥
मूलम्
स देवदत्तमादाय शङ्खं हेमपरिष्कृतम्।
दध्मौ वेगेन महता घोषेणापूरयन् दिशः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने सुवर्णजटित देवदत्त नामक शंख लेकर उसकी ध्वनिसे सम्पूर्ण दिशाओंको परिपूर्ण करते हुए उसे बड़े वेगसे बजाया॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेन शब्देन वित्रस्ता संशप्तकवरूथिनी।
विचेष्टावस्थिता संख्ये ह्यश्मसारमयी यथा ॥ ९ ॥
मूलम्
तेन शब्देन वित्रस्ता संशप्तकवरूथिनी।
विचेष्टावस्थिता संख्ये ह्यश्मसारमयी यथा ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस शंखनादसे भयभीत हो वह संशप्तक-सेना युद्धभूमिमें लोहेकी प्रतिमाके समान निश्चेष्ट खड़ी हो गयी॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(सा सेना भरतश्रेष्ठ निश्चेष्टा शुशुभे तदा।
चित्र पटे यथा न्यस्ता कुशलैः शिल्पिभिर्नरैः॥
मूलम्
(सा सेना भरतश्रेष्ठ निश्चेष्टा शुशुभे तदा।
चित्र पटे यथा न्यस्ता कुशलैः शिल्पिभिर्नरैः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! वह निश्चेष्ट हुई सेना ऐसी सुशोभित हुई, मानो कुशल कलाकारोंद्वारा चित्रपटमें अंकित की गयी हो।
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वनेन तेन सैन्यानां दिवमावृण्वता तदा।
सस्वना पृथिवी सर्वा तथैव च महोदधिः॥
स्वनेन सर्वसैन्यानां कर्णास्तु बधिरीकृताः।)
मूलम्
स्वनेन तेन सैन्यानां दिवमावृण्वता तदा।
सस्वना पृथिवी सर्वा तथैव च महोदधिः॥
स्वनेन सर्वसैन्यानां कर्णास्तु बधिरीकृताः।)
अनुवाद (हिन्दी)
सम्पूर्ण आकाशमें फैले हुए उस शंखनादने समूची पृथ्वी और महासागरको भी प्रतिध्वनित कर दिया। उस ध्वनिसे सम्पूर्ण सैनिकोंके कान बहरे हो गये।
विश्वास-प्रस्तुतिः
वाहास्तेषां विवृत्ताक्षाः स्तब्धकर्णशिरोधराः ।
विष्टब्धचरणा मूत्रं रुधिरं च प्रसुस्रुवुः ॥ १० ॥
मूलम्
वाहास्तेषां विवृत्ताक्षाः स्तब्धकर्णशिरोधराः ।
विष्टब्धचरणा मूत्रं रुधिरं च प्रसुस्रुवुः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके घोड़े आँखें फाड़-फाड़कर देखने लगे। उनके कान और गर्दन स्तब्ध हो गये, चारों पैर अकड़ गये और वे मूत्रके साथ-साथ रुधिरका भी त्याग करने लगे॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपलभ्य ततः संज्ञामवस्थाप्य च वाहिनीम्।
युगपत् पाण्डुपुत्राय चिक्षिपुः कङ्कपत्रिणः ॥ ११ ॥
मूलम्
उपलभ्य ततः संज्ञामवस्थाप्य च वाहिनीम्।
युगपत् पाण्डुपुत्राय चिक्षिपुः कङ्कपत्रिणः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
थोड़ी देरमें चेत होनेपर संशप्तकोंने अपनी सेनाको स्थिर किया और एक साथ ही पाण्डुपुत्र अर्जुनपर कंकपक्षीकी पाँखवाले बाणोंकी वर्षा आरम्भ कर दी॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तान्यर्जुनः सहस्राणि दशपञ्चभिराशुगैः ।
अनागतान्येव शरैश्चिच्छेदाशु पराक्रमी ॥ १२ ॥
मूलम्
तान्यर्जुनः सहस्राणि दशपञ्चभिराशुगैः ।
अनागतान्येव शरैश्चिच्छेदाशु पराक्रमी ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु पराक्रमी अर्जुनने पंद्रह शीघ्रगामी बाणोंद्वारा उनके सहस्रों बाणोंको अपने पास आनेसे पहले ही शीघ्रतापूर्वक काट डाला॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽर्जुनं शितैर्बाणैर्दशभिर्दशभिः पुनः ।
प्राविध्यन्त ततः पार्थस्तानविध्यत् त्रिभिस्त्रिभिः ॥ १३ ॥
मूलम्
ततोऽर्जुनं शितैर्बाणैर्दशभिर्दशभिः पुनः ।
प्राविध्यन्त ततः पार्थस्तानविध्यत् त्रिभिस्त्रिभिः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर संशप्तकोंने दस-दस तीखे बाणोंसे पुनः अर्जुनको बींध डाला, यह देख उन कुन्तीकुमारने भी तीन-तीन बाणोंसे संशप्तकोंको घायल कर दिया॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकैकस्तु ततः पार्थं राजन् विव्याध पञ्चभिः।
स च तान् प्रतिविव्याध द्वाभ्यां द्वाभ्यां पराक्रमी ॥ १४ ॥
मूलम्
एकैकस्तु ततः पार्थं राजन् विव्याध पञ्चभिः।
स च तान् प्रतिविव्याध द्वाभ्यां द्वाभ्यां पराक्रमी ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! फिर उनमेंसे एक-एक योद्धाने अर्जुनको पाँच-पाँच बाणोंसे बींध डाला और पराक्रमी अर्जुनने भी दो-दो बाणोंद्वारा उन सबको घायल करके तुरंत बदला चुकाया॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूय एव तु संक्रुद्धास्त्वर्जुनं सहकेशवम्।
आपूरयन् शरैस्तीक्ष्णैस्तडागमिव वृष्टिभिः ॥ १५ ॥
मूलम्
भूय एव तु संक्रुद्धास्त्वर्जुनं सहकेशवम्।
आपूरयन् शरैस्तीक्ष्णैस्तडागमिव वृष्टिभिः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् अत्यन्त कुपित हो संशप्तकोंने पुनः श्रीकृष्णसहित अर्जुनको पैने बाणोंद्वारा उसी प्रकार परिपूर्ण करना आरम्भ किया, जैसे मेघ वर्षाद्वारा सरोवरको पूर्ण करते हैं॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः शरसहस्राणि प्रापतन्नर्जुनं प्रति।
भ्रमराणामिव व्राताः फुल्लं द्रुमगणं वने ॥ १६ ॥
मूलम्
ततः शरसहस्राणि प्रापतन्नर्जुनं प्रति।
भ्रमराणामिव व्राताः फुल्लं द्रुमगणं वने ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् अर्जुनपर एक ही साथ हजारों बाण गिरे, मानो वनमें फूले हुए वृक्षपर भौंरोंके समूह आ गिरे हों॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः सुबाहुस्त्रिंशद्भिरद्रिसारमयैः शरैः ।
अविध्यदिषुभिर्गाढं किरीटे सव्यसाचिनम् ॥ १७ ॥
मूलम्
ततः सुबाहुस्त्रिंशद्भिरद्रिसारमयैः शरैः ।
अविध्यदिषुभिर्गाढं किरीटे सव्यसाचिनम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर सुबाहुने लोहेके बने हुए तीस बाणोंद्वारा अर्जुनके किरीटमें गहरा आघात किया॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तैः किरीटी किरीटस्थैर्हेमपुङ्खैरजिह्मगैः ।
शातकुम्भमयापीडो बभौ सूर्य इवोत्थितः ॥ १८ ॥
मूलम्
तैः किरीटी किरीटस्थैर्हेमपुङ्खैरजिह्मगैः ।
शातकुम्भमयापीडो बभौ सूर्य इवोत्थितः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सोनेके पंखोंसे युक्त सीधे जानेवाले वे बाण उनके किरीटमें चारों ओरसे धँस गये। उन बाणोंद्वारा किरीटधारी अर्जुनकी वैसी ही शोभा हुई जैसे स्वर्णमय मुकुटसे मण्डित भगवान् सूर्य उदित एवं प्रकाशित हो रहे हों॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हस्तावापं सुबाहोस्तु भल्लेन युधि पाण्डवः।
चिच्छेद तं चैव पुनः शरवर्षैरवाकिरत् ॥ १९ ॥
मूलम्
हस्तावापं सुबाहोस्तु भल्लेन युधि पाण्डवः।
चिच्छेद तं चैव पुनः शरवर्षैरवाकिरत् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब पाण्डुनन्दन अर्जुनने भल्लका प्रहार करके युद्धमें सुबाहुके दस्तानेको काट दिया और उसके ऊपर पुनः बाणोंकी वर्षा आरम्भ कर दी॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः सुशर्मा दशभिः सुरथस्तु किरीटिनम्।
सुधर्मा सुधनुश्चैव सुबाहुश्च समार्पयत् ॥ २० ॥
मूलम्
ततः सुशर्मा दशभिः सुरथस्तु किरीटिनम्।
सुधर्मा सुधनुश्चैव सुबाहुश्च समार्पयत् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह देख सुशर्मा, सुरथ, सुधर्मा, सुधन्वा और सुबाहुने दस-दस बाणोंसे किरीटधारी अर्जुनको घायल कर दिया॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तांस्तु सर्वान् पृथग्बाणैर्वानरप्रवरध्वजः ।
प्रत्यविध्यद् ध्वजांश्चैषां भल्लैश्चिच्छेद सायकान् ॥ २१ ॥
मूलम्
तांस्तु सर्वान् पृथग्बाणैर्वानरप्रवरध्वजः ।
प्रत्यविध्यद् ध्वजांश्चैषां भल्लैश्चिच्छेद सायकान् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर कपिध्वज अर्जुनने भी पृथक्-पृथक् बाण मारकर उन सबको घायल कर दिया। भल्लोंद्वारा उनकी ध्वजाओं तथा सायकोंको भी काट गिराया॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुधन्वनो धनुश्छित्त्वा हयांश्चास्यावधीच्छरैः ।
अथास्य सशिरस्त्राणं शिरः कायादपातयत् ॥ २२ ॥
मूलम्
सुधन्वनो धनुश्छित्त्वा हयांश्चास्यावधीच्छरैः ।
अथास्य सशिरस्त्राणं शिरः कायादपातयत् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुधन्वाका धनुष काटकर उसके घोड़ोंको भी बाणोंसे मार डाला। फिर शिरस्त्राणसहित उसके मस्तकको भी काटकर धड़से नीचे गिरा दिया॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन्निपतिते वीरे त्रस्तास्तस्य पदानुगाः।
व्यद्रवन्त भयाद् भीता यत्र दौर्योधनं बलम् ॥ २३ ॥
मूलम्
तस्मिन्निपतिते वीरे त्रस्तास्तस्य पदानुगाः।
व्यद्रवन्त भयाद् भीता यत्र दौर्योधनं बलम् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वीरवर सुधन्वाके धराशायी हो जानेपर उसके अनुगामी सैनिक भयभीत हो गये, वे भयके मारे वहीं भाग गये, जहाँ दुर्योधनकी सेना थी॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो जघान संक्रुद्धो वासविस्तां महाचमूम्।
शरजालैरविच्छिन्नैस्तमः सूर्य इवांशुभिः ॥ २४ ॥
मूलम्
ततो जघान संक्रुद्धो वासविस्तां महाचमूम्।
शरजालैरविच्छिन्नैस्तमः सूर्य इवांशुभिः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब क्रोधमें भरे हुए इन्द्रकुमार अर्जुनने बाणसमूहोंकी अविच्छिन्न वर्षा करके उस विशाल वाहिनीका उसी प्रकार संहार आरम्भ किया, जैसे सूर्यदेव अपनी किरणोंद्वारा महान् अन्धकारका नाश करते हैं॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो भग्ने बले तस्मिन् विप्रलीने समन्ततः।
सव्यसाचिनि संक्रुद्धे त्रैगर्तान् भयमाविशत् ॥ २५ ॥
मूलम्
ततो भग्ने बले तस्मिन् विप्रलीने समन्ततः।
सव्यसाचिनि संक्रुद्धे त्रैगर्तान् भयमाविशत् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर जब संशप्तकोंकी सारी सेना भागकर चारों ओर छिप गयी और सव्यसाची अर्जुन अत्यन्त क्रोधमें भर गये, तब उन त्रिगर्तदेशीय योद्धाओंके मनमें भारी भय समा गया॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते वध्यमानाः पार्थेन शरैः संनतपर्वभिः।
अमुह्यंस्तत्र तत्रैव त्रस्ता मृगगणा इव ॥ २६ ॥
मूलम्
ते वध्यमानाः पार्थेन शरैः संनतपर्वभिः।
अमुह्यंस्तत्र तत्रैव त्रस्ता मृगगणा इव ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुनके झुकी हुई गाँठवाले बाणोंकी मार खाकर वे सभी सैनिक वहाँ भयभीत मृगोंकी भाँति मोहित हो गये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्त्रिगर्तराट् क्रुद्धस्तानुवाच महारथान् ।
अलं द्रुतेन वः शूरा न भयं कर्तुमर्हथ ॥ २७ ॥
मूलम्
ततस्त्रिगर्तराट् क्रुद्धस्तानुवाच महारथान् ।
अलं द्रुतेन वः शूरा न भयं कर्तुमर्हथ ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब क्रोधमें भरे हुए त्रिगर्तराजने अपने उन महारथियोंसे कहा—‘शूरवीरो! भागनेसे कोई लाभ नहीं है। तुम भय न करो॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शप्त्वाथ शपथान् घोरान् सर्वसैन्यस्य पश्यतः।
गत्वा दौर्योधनं सैन्यं किं वै वक्ष्यथ मुख्यशः ॥ २८ ॥
मूलम्
शप्त्वाथ शपथान् घोरान् सर्वसैन्यस्य पश्यतः।
गत्वा दौर्योधनं सैन्यं किं वै वक्ष्यथ मुख्यशः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सारी सेनाके सामने भयंकर शपथ खाकर अब यदि दुर्योधनकी सेनामें जाओगे तो तुम सभी श्रेष्ठ महारथी क्या जवाब दोगे?॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नावहास्याः कथं लोके
कर्मणानेन संयुगे ।
भवेम सहिताः सर्वे
निवर्तध्वं यथाबलम् ॥ २९ ॥
मूलम्
नावहास्याः कथं लोके
कर्मणानेन संयुगे ।
भवेम सहिताः सर्वे
निवर्तध्वं यथाबलम् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘हमें युद्धमें ऐसा कर्म करके किसी प्रकार संसारमें उपहासका पात्र नहीं बनना चाहिये। अतः तुम सब लोग लौट आओ। हमें यथाशक्ति एक साथ संगठित होकर युद्धभूमिमें डटे रहना चाहिये’॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तास्तु ते राजन्नुदक्रोशन् मुहुर्मुहुः।
शङ्खांश्च दध्मिरे वीरा हर्षयन्तः परस्परम् ॥ ३० ॥
मूलम्
एवमुक्तास्तु ते राजन्नुदक्रोशन् मुहुर्मुहुः।
शङ्खांश्च दध्मिरे वीरा हर्षयन्तः परस्परम् ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! त्रिगर्तराजके ऐसा कहनेपर वे सभी वीर बारंबार गर्जना करने और एक-दूसरेमें हर्ष एवं उत्साह भरते हुए शंख बजाने लगे॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्ते संन्यवर्तन्त संशप्तकगणाः पुनः।
नारायणाश्च गोपाला मृत्युं कृत्वा निवर्तनम् ॥ ३१ ॥
मूलम्
ततस्ते संन्यवर्तन्त संशप्तकगणाः पुनः।
नारायणाश्च गोपाला मृत्युं कृत्वा निवर्तनम् ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब वे समस्त संशप्तकगण और नारायणी सेनाके ग्वाले मृत्युको ही युद्धसे निवृत्तिका अवसर मानकर पुनः लौट आये॥३१॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि संशप्तकवधपर्वणि सुधन्ववधे अष्टादशोऽध्यायः ॥ १८ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत संशप्तकवधपर्वमें सुधन्वाका वधविषयक अठारहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१८॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २ श्लोक मिलाकर कुल ३३ श्लोक हैं।)