०१६ प्रथमदिवसावहारे

भागसूचना

षोडशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

वृषसेनका पराक्रम, कौरव-पाण्डववीरोंका तुमुल युद्ध, द्रोणाचार्यके द्वारा पाण्डवपक्षके अनेक वीरोंका वध तथा अर्जुनकी विजय

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद् बलं सुमहद् दीर्णं त्वदीयं प्रेक्ष्य वीर्यवान्।
दधारैको रणे राजन् वृषसेनोऽस्त्रमायया ॥ १ ॥

मूलम्

तद् बलं सुमहद् दीर्णं त्वदीयं प्रेक्ष्य वीर्यवान्।
दधारैको रणे राजन् वृषसेनोऽस्त्रमायया ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— महाराज! आपकी विशाल सेनाको तितर-बितर हुई देख एकमात्र पराक्रमी वृषसेनने अपने अस्त्रोंकी मायासे रणक्षेत्रमें उसे धारण किया (भागनेसे रोका)॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शरा दश दिशो मुक्ता वृषसेनेन संयुगे।
विचेरुस्ते विनिर्भिद्य नरवाजिरथद्विपान् ॥ २ ॥

मूलम्

शरा दश दिशो मुक्ता वृषसेनेन संयुगे।
विचेरुस्ते विनिर्भिद्य नरवाजिरथद्विपान् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस युद्धस्थलमें वृषसेनके छोड़े हुए बाण हाथी, घोड़े, रथ और मनुष्योंको विदीर्ण करते हुए दसों दिशाओंमें विचरने लगे॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य दीप्ता महाबाणा विनिश्चेरुः सहस्रशः।
भानोरिव महाराज धर्मकाले मरीचयः ॥ ३ ॥

मूलम्

तस्य दीप्ता महाबाणा विनिश्चेरुः सहस्रशः।
भानोरिव महाराज धर्मकाले मरीचयः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! जैसे ग्रीष्म-ऋतुमें सूर्यसे निकलकर सहस्रों किरणें सब ओर फैलती हैं, उसी प्रकार वृषसेनके धनुषसे सहस्रों तेजस्वी महाबाण निकलने लगे॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेनार्दिता महाराज रथिनः सादिनस्तथा।
निपेतुरुर्व्यां सहसा वातभग्ना इव द्रुमाः ॥ ४ ॥

मूलम्

तेनार्दिता महाराज रथिनः सादिनस्तथा।
निपेतुरुर्व्यां सहसा वातभग्ना इव द्रुमाः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! जैसे प्रचण्ड आँधीसे सहसा बड़े-बड़े वृक्ष टूटकर गिर जाते हैं, उसी प्रकार वृषसेनके द्वारा पीड़ित हुए रथी और अन्य योद्धागण सहसा धरतीपर गिरने लगे॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हयौघांश्च रथौघांश्च गजौघांश्च महारथः।
अपातयद् रणे राजन् शतशोऽथ सहस्रशः ॥ ५ ॥

मूलम्

हयौघांश्च रथौघांश्च गजौघांश्च महारथः।
अपातयद् रणे राजन् शतशोऽथ सहस्रशः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! उस महारथी वीरने रणभूमिमें घोड़ों, रथों और हाथियोंके सैकड़ों-हजारों समूहोंको मार गिराया॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्ट्वा तमेकं समरे विचरन्तमभीतवत्।
सहिताः सर्वराजानः परिवव्रुः समन्ततः ॥ ६ ॥

मूलम्

दृष्ट्वा तमेकं समरे विचरन्तमभीतवत्।
सहिताः सर्वराजानः परिवव्रुः समन्ततः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसे अकेले ही समरभूमिमें निर्भय विचरते देख सब राजाओंने एक साथ आकर सब ओरसे घेर लिया॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाकुलिस्तु शतानीको वृषसेनं समभ्ययात्।
विव्याध चैनं दशभिर्नाराचैर्मर्मभेदिभिः ॥ ७ ॥

मूलम्

नाकुलिस्तु शतानीको वृषसेनं समभ्ययात्।
विव्याध चैनं दशभिर्नाराचैर्मर्मभेदिभिः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी समय नकुलके पुत्र शतानीकने वृषसेनपर आक्रमण किया और दस मर्मभेदी नाराचोंद्वारा उसे बींध डाला॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य कर्णात्मजश्चापं छित्त्वा केतुमपातयत्।
तं भ्रातरं परीप्सन्तो द्रौपदेयाः समभ्ययुः ॥ ८ ॥

मूलम्

तस्य कर्णात्मजश्चापं छित्त्वा केतुमपातयत्।
तं भ्रातरं परीप्सन्तो द्रौपदेयाः समभ्ययुः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब कर्णके पुत्रने शतानीकके धनुषको काटकर उनके ध्वजको भी गिरा दिया। यह देख अपने भाईकी रक्षा करनेके लिये द्रौपदीके दूसरे पुत्र भी वहाँ आ पहुँचे॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्णात्मजं शरव्रातैरदृश्यं चक्रुरञ्जसा ।
तान् नदन्तोऽभ्यधावन्त द्रोणपुत्रमुखा रथाः ॥ ९ ॥
छादयन्तो महाराज द्रौपदेयान् महारथान्।
शरैर्नानाविधैस्तूर्णं पर्वताञ्जलदा इव ॥ १० ॥

मूलम्

कर्णात्मजं शरव्रातैरदृश्यं चक्रुरञ्जसा ।
तान् नदन्तोऽभ्यधावन्त द्रोणपुत्रमुखा रथाः ॥ ९ ॥
छादयन्तो महाराज द्रौपदेयान् महारथान्।
शरैर्नानाविधैस्तूर्णं पर्वताञ्जलदा इव ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने अपने बाणसमूहोंकी वर्षासे कर्णकुमार वृषसेनको अनायास ही आच्छादित करके अदृश्य कर दिया। महाराज! यह देख अश्वत्थामा आदि महारथी सिंहनाद करते हुए उनपर टूट पड़े और जैसे मेघ पर्वतोंपर जलकी धारा गिराते हैं, उसी प्रकार वे नाना प्रकारके बाणोंकी वर्षा करते हुए तुरंत ही महारथी द्रौपदीपुत्रोंको आच्छादित करने लगे॥९-१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तान् पाण्डवाः प्रत्यगृह्णंस्त्वरिताः पुत्रगृद्धिनः।
पञ्चालाः केकया मत्स्याः सृञ्जयाश्चोद्यतायुआः ॥ ११ ॥

मूलम्

तान् पाण्डवाः प्रत्यगृह्णंस्त्वरिताः पुत्रगृद्धिनः।
पञ्चालाः केकया मत्स्याः सृञ्जयाश्चोद्यतायुआः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब पुत्रोंकी प्राणरक्षा चाहनेवाले पाण्डवोंने तुरंत आकर उन कौरव महारथियोंको रोका। पाण्डवोंके साथ पांचाल, केकय, मत्स्य और सृंजयदेशीय योद्धा भी अस्त्र-शस्त्र लिये उपस्थित थे॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद् युद्धमभवद् घोरं सुमहल्लोमहर्षणम्।
त्वदीयैः पाण्डुपुत्राणां देवानामिव दानवैः ॥ १२ ॥

मूलम्

तद् युद्धमभवद् घोरं सुमहल्लोमहर्षणम्।
त्वदीयैः पाण्डुपुत्राणां देवानामिव दानवैः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! फिर तो दानवोंके साथ देवताओंकी भाँति आपके सैनिकोंके साथ पाण्डवोंका अत्यन्त भयंकर युद्ध छिड़ गया, जो रोंगटे खड़े कर देनेवाला था॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं युयुधिरे वीराः संरब्धाः कुरुपाण्डवाः।
परस्परमुदीक्षन्तः परस्परकृतागसः ॥ १३ ॥

मूलम्

एवं युयुधिरे वीराः संरब्धाः कुरुपाण्डवाः।
परस्परमुदीक्षन्तः परस्परकृतागसः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार एक-दूसरेके अपराध करनेवाले कौरव-पाण्डववीर परस्पर क्रोधपूर्ण दृष्टिसे देखते हुए युद्ध करने लगे॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषां ददृशिरे कोपाद् वपूंष्यमिततेजसाम्।
युयुत्सूनामिवाकाशे पतत्त्रिवरभोगिनाम् ॥ १४ ॥

मूलम्

तेषां ददृशिरे कोपाद् वपूंष्यमिततेजसाम्।
युयुत्सूनामिवाकाशे पतत्त्रिवरभोगिनाम् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्रोधवश युद्ध करते हुए उन अमित तेजस्वी राजाओंके शरीर आकाशमें युद्धकी इच्छासे एकत्र हुए पक्षिराज गरुड़ तथा नागोंके समान दिखायी देते थे॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीमकर्णकृपद्रोणद्रौणिपार्षतसात्यकैः ।
बभासे स रणोद्देशः कालसूर्य इवोदितः ॥ १५ ॥

मूलम्

भीमकर्णकृपद्रोणद्रौणिपार्षतसात्यकैः ।
बभासे स रणोद्देशः कालसूर्य इवोदितः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीम, कर्ण, कृपाचार्य, द्रोण, अश्वत्थामा, धृष्टद्युम्न तथा सात्यकि आदि वीरोंसे वह रणक्षेत्र ऐसी शोभा पा रहा था, मानो वहाँ प्रलयकालके सूर्यका उदय हुआ हो॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदाऽऽसीत् तुमुलं युद्धं निघ्नतामितरेतरम्।
महाबलानां बलिभिर्दानवानां यथा सुरैः ॥ १६ ॥

मूलम्

तदाऽऽसीत् तुमुलं युद्धं निघ्नतामितरेतरम्।
महाबलानां बलिभिर्दानवानां यथा सुरैः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय एक-दूसरेपर प्रहार करनेवाले उन महाबली वीरोंमें वैसा ही भयंकर युद्ध हो रहा था, जैसे पूर्वकालमें बलवान् देवताओंके साथ महाबली दानवोंका संग्राम हुआ था॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो युधिष्ठिरानीकमुद्धतार्णवनिःस्वनम् ।
त्वदीयमवधीत् सैन्यं सम्प्रद्रुतमहारथम् ॥ १७ ॥

मूलम्

ततो युधिष्ठिरानीकमुद्धतार्णवनिःस्वनम् ।
त्वदीयमवधीत् सैन्यं सम्प्रद्रुतमहारथम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर उत्ताल तरंगोंसे युक्त महासागरकी भाँति गर्जना करती हुई युधिष्ठिरकी सेना आपकी सेनाका संहार करने लगी। इससे कौरव-सेनाके बड़े-बड़े रथी भाग खड़े हुए॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत् प्रभग्नं बलं दृष्ट्वा शत्रुभिर्भृशमर्दितम्।
अलं द्रुतेन वः शूरा इति दोणोऽभ्यभाषत ॥ १८ ॥

मूलम्

तत् प्रभग्नं बलं दृष्ट्वा शत्रुभिर्भृशमर्दितम्।
अलं द्रुतेन वः शूरा इति दोणोऽभ्यभाषत ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुओंके द्वारा अच्छी तरह रौंदी गयी आपकी सेनाको भागती देख द्रोणाचार्यने कहा—‘शूरवीरो! तुम भागो मत, इससे कोई लाभ न होगा’॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(भारद्वाजममर्षश्च विक्रमश्च समाविशत् ।
समुद्‌धृत्य निषङ्गाच्च धनुर्ज्यामवमृज्य च॥
महाशरधनुष्पाणिर्यन्तारमिदमब्रवीत् ।

मूलम्

(भारद्वाजममर्षश्च विक्रमश्च समाविशत् ।
समुद्‌धृत्य निषङ्गाच्च धनुर्ज्यामवमृज्य च॥
महाशरधनुष्पाणिर्यन्तारमिदमब्रवीत् ।

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय द्रोणाचार्यमें अमर्ष और पराक्रम दोनोंका समावेश हुआ। उन्होंने धनुषकी प्रत्यंचाको पोंछकर तूणीरसे बाण निकाला और उस महान् बाण एवं धनुषको हाथमें लेकर सारथिसे इस प्रकार कहा।

मूलम् (वचनम्)

द्रोण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सारथे याहि यत्रैव पाण्डरेण विराजता॥
ध्रियमाणेन छत्रेण राजा तिष्ठति धर्मराट्।

मूलम्

सारथे याहि यत्रैव पाण्डरेण विराजता॥
ध्रियमाणेन छत्रेण राजा तिष्ठति धर्मराट्।

अनुवाद (हिन्दी)

द्रोणाचार्य बोले— सारथे! वहीं चलो, जहाँ सुन्दर श्वेत छत्र धारण किये धर्मराज राजा युधिष्ठिर खड़े हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदेतद् दीर्यते सैन्यं धार्तराष्ट्रमनेकधा॥
एतत् संस्तम्भयिष्यामि प्रतिवार्य युधिष्ठिरम्।

मूलम्

तदेतद् दीर्यते सैन्यं धार्तराष्ट्रमनेकधा॥
एतत् संस्तम्भयिष्यामि प्रतिवार्य युधिष्ठिरम्।

अनुवाद (हिन्दी)

यह धृतराष्ट्रकी सेना तितर-बितर हो अनेक भागोंमें बँटी जा रही हैं। मैं युधिष्ठिरको रोककर इस सेनाको स्थिर करूँगा (भागनेसे रोकूँगा)।

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हि मामभिवर्षन्ति संयुगे तात पाण्डवाः॥
मात्स्याः पाञ्चालराजानः सर्वे च सहसोमकाः।

मूलम्

न हि मामभिवर्षन्ति संयुगे तात पाण्डवाः॥
मात्स्याः पाञ्चालराजानः सर्वे च सहसोमकाः।

अनुवाद (हिन्दी)

तात! ये पाण्डव, मत्स्य, पांचाल और समस्त सोमक वीर मुझपर बाण-वर्षा नहीं कर सकते।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्जुनो मत्प्रसादाद्धि महास्त्राणि समाप्तवान्॥
न मामुत्सहते तात न भीमो न च सात्यकिः।

मूलम्

अर्जुनो मत्प्रसादाद्धि महास्त्राणि समाप्तवान्॥
न मामुत्सहते तात न भीमो न च सात्यकिः।

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुनने भी मेरी ही कृपासे बड़े-बड़े अस्त्रोंको प्राप्त किया है। तात! वे भीमसेन और सात्यकि भी मुझसे लड़नेका साहस नहीं कर सकते।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मत्प्रसादाद्धि बीभत्सुः परमेष्वासतां गतः॥
ममैवास्त्रं विजानाति धृष्टद्युम्नोऽपि पार्षतः।

मूलम्

मत्प्रसादाद्धि बीभत्सुः परमेष्वासतां गतः॥
ममैवास्त्रं विजानाति धृष्टद्युम्नोऽपि पार्षतः।

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुन मेरे ही प्रसादसे महान् धनुर्धर हो गये हैं। धृष्टद्युम्न भी मेरे ही दिये हुए अस्त्रोंका ज्ञान रखता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नायं संरक्षितुं कालः प्राणांस्तात जयैषिणा॥
याहि स्वर्गं पुरस्कृत्य यशसे च जयाय च।

मूलम्

नायं संरक्षितुं कालः प्राणांस्तात जयैषिणा॥
याहि स्वर्गं पुरस्कृत्य यशसे च जयाय च।

अनुवाद (हिन्दी)

तात सारथे! विजयकी अभिलाषा रखनेवाले वीरके लिये यह प्राणोंकी रक्षा करनेका अवसर नहीं है। तुम स्वर्गप्राप्तिका उद्देश्य लेकर यश और विजयके लिये आगे बढ़ो।

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं संचोदितो यन्ता द्रोणमभ्यवहत् ततः॥
तदाश्वहृदयेनाश्वानभिमन्त्र्याशु हर्षयन् ।
रथेन सवरूथेन भास्वरेण विराजता॥

मूलम्

एवं संचोदितो यन्ता द्रोणमभ्यवहत् ततः॥
तदाश्वहृदयेनाश्वानभिमन्त्र्याशु हर्षयन् ।
रथेन सवरूथेन भास्वरेण विराजता॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— राजन्! इस प्रकार प्रेरित होकर सारथि अश्वहृदय नामक मन्त्रोंसे अभिमन्त्रित करके घोड़ोंका हर्ष बढ़ाता हुआ आवरणयुक्त प्रकाशमान एवं तेजस्वी रथके द्वारा शीघ्रतापूर्वक द्रोणाचार्यको आगे ले चला।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं करूषाश्च मत्स्याश्च चेदयश्च ससात्वताः।
पाण्डवाश्च सपञ्चालाः सहिताः पर्यवारयन्॥)

मूलम्

तं करूषाश्च मत्स्याश्च चेदयश्च ससात्वताः।
पाण्डवाश्च सपञ्चालाः सहिताः पर्यवारयन्॥)

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय करूष, मत्स्य, चेदि, सात्वत, पाण्डव तथा पांचाल वीरोंने एक साथ आकर द्रोणाचार्यको रोका।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः शोणहयः क्रुद्धश्चतुर्दन्त इव द्विपः।
प्रविश्य पाण्डवानीकं युधिष्ठिरमुपाद्रवत् ॥ १९ ॥

मूलम्

ततः शोणहयः क्रुद्धश्चतुर्दन्त इव द्विपः।
प्रविश्य पाण्डवानीकं युधिष्ठिरमुपाद्रवत् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब लाल घोड़ोंवाले द्रोणाचार्यने कुपित हो चार दाँतोंवाले गजराजके समान पाण्डव-सेनामें घुसकर युधिष्ठिरपर आक्रमण किया॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमाविध्यच्छितैर्बाणैः कङ्कपत्रैर्युधिष्ठिरः ।
तस्य द्रोणो धनुश्छित्त्वा तं द्रुतं समुपाद्रवत् ॥ २० ॥

मूलम्

तमाविध्यच्छितैर्बाणैः कङ्कपत्रैर्युधिष्ठिरः ।
तस्य द्रोणो धनुश्छित्त्वा तं द्रुतं समुपाद्रवत् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने गीधकी पाँखोंसे युक्त पैने बार्णोंद्वारा द्रोणाचार्यको बींध डाला। तब द्रोणाचार्यने उनका धनुष काटकर बड़े वेगसे उनपर आक्रमण किया॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चक्ररक्षः कुमारस्तु पञ्चालानां यशस्करः।
दधार द्रोणमायान्तं वेलेव सरितां प्रतिम ॥ २१ ॥

मूलम्

चक्ररक्षः कुमारस्तु पञ्चालानां यशस्करः।
दधार द्रोणमायान्तं वेलेव सरितां प्रतिम ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय पांचालोंके यशको बढ़ानेवाले कुमारने, जो युधिष्ठिरके रथ-चक्रकी रक्षा कर रहे थे, आते हुए द्रोणाचार्यको उसी प्रकार रोक दिया, जैसे तटभूमि समुद्रको रोकती है॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्रोणं निवारितं दृष्ट्वा कुमारेण द्विजर्षभम्।
सिंहनादरवो ह्यासीत् साधु साध्विति भाषितम् ॥ २२ ॥

मूलम्

द्रोणं निवारितं दृष्ट्वा कुमारेण द्विजर्षभम्।
सिंहनादरवो ह्यासीत् साधु साध्विति भाषितम् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुमारके द्वारा द्विजश्रेष्ठ द्रोणाचार्यको रोका गया देख पाण्डव-सेनामें चोर-जोरसे सिंहनाद होने लगा और सब लोग कहने लगे ‘बहुत अच्छा, बहुत अच्छा’॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुमारस्तु ततो द्रोणं सायकेन महाहवे।
विव्याधोरसि संक्रुद्धः सिंहवच्च नदन् मुहुः ॥ २३ ॥

मूलम्

कुमारस्तु ततो द्रोणं सायकेन महाहवे।
विव्याधोरसि संक्रुद्धः सिंहवच्च नदन् मुहुः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुमारने उस महायुद्धमें कुपित हो बारंबार सिंहनाद करते हुए एक बाणद्वारा द्रोणाचार्यकी छातीमें चोट पहुँचायी॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संवार्य च रणे द्रोणं कुमारस्तु महाबलः।
शरैरनेकसाहस्रैः कृतहस्तो जितश्रमः ॥ २४ ॥

मूलम्

संवार्य च रणे द्रोणं कुमारस्तु महाबलः।
शरैरनेकसाहस्रैः कृतहस्तो जितश्रमः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इतना ही नहीं, उस महाबली कुमारने कई हजार बाणोंद्वारा रणक्षेत्रमें द्रोणाचार्यको रोक दिया; क्योंकि उनके हाथ अस्त्र-संचालनकी कलामें दक्ष थे और उन्होंने परिश्रमको जीत लिया था॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं शूरमार्यव्रतिनं मन्त्रास्त्रेषु कृतश्रमम्।
चक्ररक्षं परामृद्नात् कुमारं द्विजपुङ्गवः ॥ २५ ॥

मूलम्

तं शूरमार्यव्रतिनं मन्त्रास्त्रेषु कृतश्रमम्।
चक्ररक्षं परामृद्नात् कुमारं द्विजपुङ्गवः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु द्विजश्रेष्ठ द्रोणाचार्यने शूर, आर्यव्रती एवं मन्त्रास्त्रविद्यामें परिश्रम किये हुए चक्र-रक्षक कुमारको परास्त कर दिया॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स मध्यं प्राप्य सैन्यानां सर्वाः प्रविचरन् दिशः।
तव सैन्यस्य गोप्ताऽऽसीद् भारद्वाजो द्विजर्षभः ॥ २६ ॥

मूलम्

स मध्यं प्राप्य सैन्यानां सर्वाः प्रविचरन् दिशः।
तव सैन्यस्य गोप्ताऽऽसीद् भारद्वाजो द्विजर्षभः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! भरद्वाजनन्दन विप्रवर द्रोणाचार्य आपकी सेनाके संरक्षक थे। वे पाण्डव-सेनाके बीचमें घुसकर सम्पूर्ण दिशाओंमें विचरने लगे॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शिखण्डिनं द्वादशभिर्विंशत्या चोत्तमौजसम् ।
नकुलं पञ्चभिर्विद्‌ध्वा सहदेवं च सप्तभिः ॥ २७ ॥
युधिष्ठिरं द्वादशभिर्द्रौपदेयांस्त्रिभिस्त्रिभिः ।
सात्यकिं पञ्चभिर्विद्ध्वा मत्स्यं च दशभिः शरैः ॥ २८ ॥

मूलम्

शिखण्डिनं द्वादशभिर्विंशत्या चोत्तमौजसम् ।
नकुलं पञ्चभिर्विद्‌ध्वा सहदेवं च सप्तभिः ॥ २७ ॥
युधिष्ठिरं द्वादशभिर्द्रौपदेयांस्त्रिभिस्त्रिभिः ।
सात्यकिं पञ्चभिर्विद्ध्वा मत्स्यं च दशभिः शरैः ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने शिखण्डीको बारह, उत्तमौजाको बीस, नकुलको पाँच और सहदेवको सात बाणोंसे घायल करके युधिष्ठिरको बारह, द्रौपदीके पाँचों पुत्रोंको तीन-तीन, सात्यकिको पाँच और विराटको दस बाणोंसे बींध डाला॥२७-२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्यक्षोभयद् रणे योधान् यथा मुख्यमभिद्रवन्।
अभ्यवर्तत सम्प्रेप्सुः कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम् ॥ २९ ॥

मूलम्

व्यक्षोभयद् रणे योधान् यथा मुख्यमभिद्रवन्।
अभ्यवर्तत सम्प्रेप्सुः कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम् ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! उन्होंने रणक्षेत्रमें मुख्य-मुख्य योद्धाओंपर धावा करके उन सबको क्षोभमें डाल दिया और कुन्तीपुत्र युधिष्ठिरको पकड़नेके लिये उनपर वेगसे आक्रमण किया॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

युगन्धरस्ततो राजन् भारद्वाजं महारथम्।
वारयामास संक्रुद्धं वातोद्धतमिवार्णवम् ॥ ३० ॥

मूलम्

युगन्धरस्ततो राजन् भारद्वाजं महारथम्।
वारयामास संक्रुद्धं वातोद्धतमिवार्णवम् ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! उस समय वायुके थपेड़ोंसे विक्षुब्ध हुए महासागरके समान क्रोधमें भरे हुए महारथी द्रोणाचार्यको राजा युगन्धरने रोक दिया॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

युधिष्ठिरं स विद्‌ध्वा तु शरैः संनतपर्वभिः।
युगन्धरं तु भल्लेन रथनीडादपातयत् ॥ ३१ ॥

मूलम्

युधिष्ठिरं स विद्‌ध्वा तु शरैः संनतपर्वभिः।
युगन्धरं तु भल्लेन रथनीडादपातयत् ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब झुकी हुई गाँठवाले बाणोंद्वारा युधिष्ठिरको घायल करके द्रोणाचार्यने एक भल्ल नामक बाणद्वारा मारकर युगन्धरको रथकी बैठकसे नीचे गिरा दिया॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो विराटद्रुपदौ केकयाः सात्यकिः शिबिः।
व्याघ्रदत्तश्च पाञ्चाल्यः सिंहसेनश्च वीर्यवान् ॥ ३२ ॥
एते चान्ये च बहवः परीप्सन्तो युधिष्ठिरम्।
आवव्रुस्तस्य पन्थानं किरन्तः सायकान् बहून् ॥ ३३ ॥

मूलम्

ततो विराटद्रुपदौ केकयाः सात्यकिः शिबिः।
व्याघ्रदत्तश्च पाञ्चाल्यः सिंहसेनश्च वीर्यवान् ॥ ३२ ॥
एते चान्ये च बहवः परीप्सन्तो युधिष्ठिरम्।
आवव्रुस्तस्य पन्थानं किरन्तः सायकान् बहून् ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह देख विराट, द्रुपद, केकय, सात्यकि, शिबि, पांचालदेशीय व्याघ्रदत्त तथा पराक्रमी सिंहसेन—ये तथा और भी बहुत-से नरेश राजा युधिष्ठिरकी रक्षा करनेके लिये बहुत-से सायकोंकी वर्षा करते हुए द्रोणाचार्यकी राह रोककर खड़े हो गये॥३२-३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्याघ्रदत्तस्तु पाञ्चाल्यो द्रोणं विव्याध मार्गणैः।
पञ्चाशता शितै राजंस्तत उच्चुक्रुशुर्जनाः ॥ ३४ ॥

मूलम्

व्याघ्रदत्तस्तु पाञ्चाल्यो द्रोणं विव्याध मार्गणैः।
पञ्चाशता शितै राजंस्तत उच्चुक्रुशुर्जनाः ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! पांचालदेशीय व्याघ्रदत्तने पचास तीखे बाणोंद्वारा द्रोणाचार्यको घायल कर दिया। तब सब लोग जोर-जोरसे हर्षनाद करने लगे॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वरितं सिंहसेनस्तु द्रोणं विद्‌ध्वा महारथम्।
प्राहसत् सहसा हृष्टस्त्रासयन् वै महारथान् ॥ ३५ ॥

मूलम्

त्वरितं सिंहसेनस्तु द्रोणं विद्‌ध्वा महारथम्।
प्राहसत् सहसा हृष्टस्त्रासयन् वै महारथान् ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हर्षमें भरे हुए सिंहसेनने तुरंत ही महारथी द्रोणाचार्यको घायल करके अन्य महारथियोंके मनमें त्रास उत्पन्न करते हुए सहसा चोरसे अट्टहास किया॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो विस्फार्य नयने धनुर्ज्यामवमृज्य च।
तलशब्दं महत् कृत्वा द्रोणस्तं समुपाद्रवत् ॥ ३६ ॥

मूलम्

ततो विस्फार्य नयने धनुर्ज्यामवमृज्य च।
तलशब्दं महत् कृत्वा द्रोणस्तं समुपाद्रवत् ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब द्रोणाचार्यने आँखें फाड़-फाड़कर देखते हुए धनुषकी डोरी साफ कर महान् टंकारघोष करके सिंहसेनपर आक्रमण किया॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तु सिंहसेनस्य
शिरः कायात् सकुण्डलम् ।
व्याघ्रदत्तस्य चाक्रम्य
भल्लाभ्यामाहरद् बली ॥ ३७ ॥

मूलम्

ततस्तु सिंहसेनस्य
शिरः कायात् सकुण्डलम् ।
व्याघ्रदत्तस्य चाक्रम्य
भल्लाभ्यामाहरद् बली ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर बलवान् द्रोणने आक्रमणके साथ ही भल्ल नामक दो बाणोंद्वारा सिंहसेन और व्याघ्रदत्तके शरीरसे उनके कुण्डलमण्डित मस्तक काट डाले॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तान् प्रमथ्य शरव्रातैः
पाण्डवानां महारथान् ।
युधिष्ठिररथाभ्याशे
तस्थौ मृत्युरिवान्तकः ॥ ३८ ॥

मूलम्

तान् प्रमथ्य शरव्रातैः
पाण्डवानां महारथान् ।
युधिष्ठिररथाभ्याशे
तस्थौ मृत्युरिवान्तकः ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद पाण्डवोंके उन अन्य महारथियोंको भी अपने बाणसमूहोंसे मथित करके विनाशकारी यमराजके समान वे युधिष्ठिरके रथके समीप खड़े हो गये॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽभवन्महाशब्दो राजन् यौधिष्ठिरे बले।
हतो राजेति योधानां समीपस्थे यतव्रते ॥ ३९ ॥

मूलम्

ततोऽभवन्महाशब्दो राजन् यौधिष्ठिरे बले।
हतो राजेति योधानां समीपस्थे यतव्रते ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! नियम एवं व्रतका पालन करनेवाले द्रोणाचार्य युधिष्ठिरके बहुत निकट आ गये। तब उनकी सेनाके सैनिकोंमें महान् हाहाकार मच गया। सब लोग कहने लगे ‘हाय, राजा मारे गये’॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अब्रुवन् सैनिकास्तत्र दृष्ट्वा द्रोणस्य विक्रमम्।
अद्य राजा धार्तराष्ट्रः कृतार्थो वै भविष्यति ॥ ४० ॥

मूलम्

अब्रुवन् सैनिकास्तत्र दृष्ट्वा द्रोणस्य विक्रमम्।
अद्य राजा धार्तराष्ट्रः कृतार्थो वै भविष्यति ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ द्रोणाचार्यका पराक्रम देख कौरव-सैनिक कहने लगे, ‘आज राजा दुर्योधन अवश्य कृतार्थ हो जायँगे॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्मिन् मुहूर्ते द्रोणस्तु पाण्डवं गृह्य हर्षितः।
आगमिष्याति नो नूनं धार्तराष्ट्रस्य संयुगे ॥ ४१ ॥

मूलम्

अस्मिन् मुहूर्ते द्रोणस्तु पाण्डवं गृह्य हर्षितः।
आगमिष्याति नो नूनं धार्तराष्ट्रस्य संयुगे ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इस मुहूर्तमें द्रोणाचार्य रणक्षेत्रमें निश्चय ही राजा युधिष्ठिरको पकड़कर बड़े हर्षके साथ हमारे राजा दुर्योधनके समीप ले आयेंगे’॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं संजल्पतां तेषां तावकानां महारथः।
आयाज्जवेन कौन्तेयो रथघोषेण नादयन् ॥ ४२ ॥

मूलम्

एवं संजल्पतां तेषां तावकानां महारथः।
आयाज्जवेन कौन्तेयो रथघोषेण नादयन् ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! जब आपके सैनिक ऐसी बातें कह रहे थे, उसी समय उनके समक्ष कुन्तीनन्दन महारथी अर्जुन अपने रथकी घरघराहटसे सम्पूर्ण दिशाओंको प्रतिध्वनित करते हुए बड़े वेगसे आ पहुँचे॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शोणितोदां रथावर्तां कृत्वा विशसने नदीम्।
शूरास्थिचयसंकीर्णां प्रेतकूलापहारिणीम् ॥ ४३ ॥
तां शरौघमहाफेनां प्रासमत्स्यसमाकुलाम् ।
नदीमुत्तीर्य वेगेन कुरून् विद्राव्य पाण्डवः ॥ ४४ ॥
ततः किरीटी सहसा द्रोणानीकमुपाद्रवत्।

मूलम्

शोणितोदां रथावर्तां कृत्वा विशसने नदीम्।
शूरास्थिचयसंकीर्णां प्रेतकूलापहारिणीम् ॥ ४३ ॥
तां शरौघमहाफेनां प्रासमत्स्यसमाकुलाम् ।
नदीमुत्तीर्य वेगेन कुरून् विद्राव्य पाण्डवः ॥ ४४ ॥
ततः किरीटी सहसा द्रोणानीकमुपाद्रवत्।

अनुवाद (हिन्दी)

ये उस मार-काटसे भरे हुए संग्राममें रक्तकी नदी बहाकर आये थे। उसमें शोणित ही जल था। रथकी भँवरें उठ रही थीं। शूरवीरोंकी हड्डियाँ उसमें शिलाखण्डोंके समान बिखरी हुई थीं। प्रेतोंके कंकाल उस नदीके कूल-किनारे जान पड़ते थे, जिन्हें वह अपने वेगसे तोड़-फोड़कर बहाये लिये जाती थी। बाणोंके समुदाय उसमें फेनोंके बहुत बड़े ढेरके समान जान पड़ते थे। प्रास आदि शस्त्र उसमें मत्स्यके समान छाये हुए थे। उस नदीको वेगपूर्वक पार करके कौरव-सैनिकोंको भगाकर पाण्डुनन्दन किरीटधारी अर्जुनने सहसा द्रोणाचार्यकी सेनापर आक्रमण किया॥४३-४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

छादयन्निषुजालेन महता मोहयन्निव ॥ ४५ ॥
शीघ्रमभ्यस्यतो बाणान् संदधानस्य चानिशम्।
नान्तरं ददृशे कश्चित् कौन्तेयस्य यशस्विनः ॥ ४६ ॥

मूलम्

छादयन्निषुजालेन महता मोहयन्निव ॥ ४५ ॥
शीघ्रमभ्यस्यतो बाणान् संदधानस्य चानिशम्।
नान्तरं ददृशे कश्चित् कौन्तेयस्य यशस्विनः ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे अपने बाणोंके महान् समुदायसे द्रोणाचार्यको मोहमें डालते हुए-से आच्छादित करने लगे। यशस्वी कुन्तीकुमार अर्जुन इतनी शीघ्रताके साथ निरन्तर बाणोंको धनुषपर रखते और छोड़ते थे कि किसीको इन दोनों क्रियाओंमें तनिक भी अन्तर नहीं दिखायी देता था॥४५-४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न दिशो नान्तरिक्षं च न द्यौर्नैव च मेदिनी।
अदृश्यन्त महाराज बाणभूता इवाभवन् ॥ ४७ ॥

मूलम्

न दिशो नान्तरिक्षं च न द्यौर्नैव च मेदिनी।
अदृश्यन्त महाराज बाणभूता इवाभवन् ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! न दिशाएँ, न अन्तरिक्ष, न आकाश और न पृथिवी ही दिखायी देती थी। सम्पूर्ण दिशाएँ बाणमय हो रही थीं॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नादृश्यत तदा राजंस्तत्र किंचन संयुगे।
बाणान्धकारे महति कृते गाण्डीवधन्वना ॥ ४८ ॥

मूलम्

नादृश्यत तदा राजंस्तत्र किंचन संयुगे।
बाणान्धकारे महति कृते गाण्डीवधन्वना ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! उस रणक्षेत्रमें गाण्डीवधारी अर्जुनने बाणोंके द्वारा महान् अन्धकार फैला दिया था। उसमें कुछ भी दिखायी नहीं देता था॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सूर्ये चास्तमनुप्राप्ते तमसा चाभिसंवृते।
नाज्ञायत तदा शत्रुर्न सुहृन्न च कश्चन ॥ ४९ ॥

मूलम्

सूर्ये चास्तमनुप्राप्ते तमसा चाभिसंवृते।
नाज्ञायत तदा शत्रुर्न सुहृन्न च कश्चन ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूर्यदेव अस्ताचलको चले गये, सम्पूर्ण जगत् अन्धकारसे व्याप्त हो गया, उस समय न कोई शत्रु पहचाना जाता था न मित्र॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽवहारं चक्रुस्ते द्रोणदुर्योधनादयः ।
तान् विदित्वा पुनस्त्रस्तानयुद्धमनसः परान् ॥ ५० ॥
स्वान्यनीकानि बीभत्सुः शनकैरवहारयत् ।

मूलम्

ततोऽवहारं चक्रुस्ते द्रोणदुर्योधनादयः ।
तान् विदित्वा पुनस्त्रस्तानयुद्धमनसः परान् ॥ ५० ॥
स्वान्यनीकानि बीभत्सुः शनकैरवहारयत् ।

अनुवाद (हिन्दी)

तब द्रोणाचार्य और दुर्योधन आदिने अपनी सेनाको पीछे लौटा लिया। शत्रुओंका मन अब युद्धसे हट गया है और वे बहुत डर गये हैं, यह जानकर अर्जुनने भी धीरे-धीरे अपनी सेनाओंको युद्धभूमिसे हटा लिया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽभितुष्टुवुः पार्थं प्रहृष्टाः पाण्डुसृंजयाः ॥ ५१ ॥
पञ्चालाश्च मनोज्ञाभिर्वाग्भिः सूर्यमिवर्षयः ।

मूलम्

ततोऽभितुष्टुवुः पार्थं प्रहृष्टाः पाण्डुसृंजयाः ॥ ५१ ॥
पञ्चालाश्च मनोज्ञाभिर्वाग्भिः सूर्यमिवर्षयः ।

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय हर्षमें भरे हुए पाण्डव, सृंजय और पांचाल वीर जैसे ऋषिगण सूर्यदेवकी स्तुति करते हैं, उसी प्रकार मनोहर वाणीसे कुन्तीकुमार अर्जुनके गुणगान करने लगे॥५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं स्वशिबिरं प्रायाज्जित्वा शत्रून् धनंजयः ॥ ५२ ॥
पृष्ठतः सर्वसैन्यानां मुदितो वै सकेशवः ॥ ५३ ॥

मूलम्

एवं स्वशिबिरं प्रायाज्जित्वा शत्रून् धनंजयः ॥ ५२ ॥
पृष्ठतः सर्वसैन्यानां मुदितो वै सकेशवः ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार शत्रुओंको जीतकर सब सेनाओंके पीछे श्रीकृष्णसहित अर्जुन बड़ी प्रसन्नताके साथ अपने शिविरको गये॥५२-५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मसारगल्वर्कसुवर्णरूपै-
र्वज्रप्रवालस्फटिकैश्च मुख्यैः ।
चित्रे रथे पाण्डुसुतो बभासे
नक्षत्रचित्रे वियतीव चन्द्रः ॥ ५४ ॥

मूलम्

मसारगल्वर्कसुवर्णरूपै-
र्वज्रप्रवालस्फटिकैश्च मुख्यैः ।
चित्रे रथे पाण्डुसुतो बभासे
नक्षत्रचित्रे वियतीव चन्द्रः ॥ ५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे नक्षत्रोंद्वारा चितकबरे प्रतीत होनेवाले आकाशमें चन्द्रमा सुशोभित होते हैं, उसी प्रकार इन्द्रनील, पद्मराग, सुवर्ण, वज्रमणि, मूँगे तथा स्फटिक आदि प्रधान-प्रधान मणिरत्नोंसे विभूषित विचित्र रथमें बैठे हुए पाण्डुनन्दन अर्जुन शोभा पा रहे थे॥५४॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि द्रोणाभिषेकपर्वणि प्रथमदिवसावहारे षोडशोऽध्यायः ॥ १६ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत द्रोणाभिषेकपर्वमें द्रोणके प्रथम दिनके युद्धमें सेनाको पीछे लौटानेसे सम्बन्ध रखनेवाला सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१६॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके १० श्लोक मिलाकर कुल ६४ श्लोक हैं।)