०१३ अर्जुनकृतयुधिष्ठिराश्वासने

भागसूचना

त्रयोदशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

अर्जुनका युधिष्ठिरको आश्वासन देना तथा युद्धमें द्रोणाचार्यका पराक्रम

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सान्तरे तु प्रतिज्ञाते राज्ञो द्रोणेन निग्रहे।
ततस्ते सैनिकाः श्रुत्वा तं युधिष्ठिरनिग्रहम् ॥ १ ॥
सिंहनादरवांश्चक्रुर्बाहुशब्दांश्च कृत्स्नशः ।
तच्च सर्वं यथान्यायं धर्मराजेन भारत ॥ २ ॥
आप्तैराशु परिज्ञातं भारद्वाजचिकीर्षितम् ।

मूलम्

सान्तरे तु प्रतिज्ञाते राज्ञो द्रोणेन निग्रहे।
ततस्ते सैनिकाः श्रुत्वा तं युधिष्ठिरनिग्रहम् ॥ १ ॥
सिंहनादरवांश्चक्रुर्बाहुशब्दांश्च कृत्स्नशः ।
तच्च सर्वं यथान्यायं धर्मराजेन भारत ॥ २ ॥
आप्तैराशु परिज्ञातं भारद्वाजचिकीर्षितम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— राजन्! जब द्रोणाचार्यने कुछ अन्तर रखकर राजा युधिष्ठिरको कैद करनेकी प्रतिज्ञा कर ली, तब आपके सैनिकोंने युधिष्ठिरके पकड़े जानेका उद्योग सुनकर जोर-जोरसे सिंहनाद करना और भुजाओंपर ताल ठोंकना आरम्भ किया। भरतनन्दन! उस समय धर्मराज युधिष्ठिरने शीघ्र ही अपने विश्वसनीय गुप्तचरोंद्वारा यथायोग्य सारी बातें पूर्णरूपसे जान लीं कि द्रोणाचार्य क्या करना चाहते हैं॥१-२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः सर्वान् समानाय्य भ्रातॄनन्यांश्च सर्वशः ॥ ३ ॥
अब्रवीद् धर्मराजस्तु धनंजयमिदं वचः।
श्रुतं ते पुरुषव्याघ्र द्रोणस्याद्य चिकीर्षितम् ॥ ४ ॥

मूलम्

ततः सर्वान् समानाय्य भ्रातॄनन्यांश्च सर्वशः ॥ ३ ॥
अब्रवीद् धर्मराजस्तु धनंजयमिदं वचः।
श्रुतं ते पुरुषव्याघ्र द्रोणस्याद्य चिकीर्षितम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब धर्मराज युधिष्ठिरने अपने सब भाइयोंको और दूसरे राजाओंको सब ओरसे बुलवाकर धनंजय अर्जुनसे कहा—‘पुरुषसिंह! आज द्रोण क्या करना चाहते हैं, यह तुमने सुना ही होगा?॥३-४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा तन्न भवेत् सत्यं तथा नीतिर्विधीयताम्।
सान्तरं हि प्रतिज्ञातं द्रोणेनामित्रकर्षिणा ॥ ५ ॥

मूलम्

यथा तन्न भवेत् सत्यं तथा नीतिर्विधीयताम्।
सान्तरं हि प्रतिज्ञातं द्रोणेनामित्रकर्षिणा ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अतः तुम ऐसी नीति बताओ, जिससे उनकी इच्छा सफल न हो। शत्रुसूदन द्रोणने कुछ अन्तर रखकर प्रतिज्ञा की है॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तच्चान्तरं महेष्वास त्वयि तेन समाहितम्।
स त्वमद्य महाबाहो युध्यस्व मदनन्तरम् ॥ ६ ॥
यथा दुर्योधनः कामं नेमं द्रोणादवाप्नुयात्।

मूलम्

तच्चान्तरं महेष्वास त्वयि तेन समाहितम्।
स त्वमद्य महाबाहो युध्यस्व मदनन्तरम् ॥ ६ ॥
यथा दुर्योधनः कामं नेमं द्रोणादवाप्नुयात्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाधनुर्धर अर्जुन! वह अन्तर उन्होंने तुम्हींपर डाल रखा है। अतः महाबाहो! आज तुम मेरे समीप रहकर ही युद्ध करो, जिससे दुर्योधन द्रोणाचार्यसे अपने इस मनोरथको पूर्ण न करा सके’॥६॥

मूलम् (वचनम्)

अर्जुन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा मे न वधः कार्य आचार्यस्य कदाचन ॥ ७ ॥
तथा तव परित्यागो न मे राजंश्चिकीर्षितः।

मूलम्

यथा मे न वधः कार्य आचार्यस्य कदाचन ॥ ७ ॥
तथा तव परित्यागो न मे राजंश्चिकीर्षितः।

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुन बोले— राजन्! जिस प्रकार मेरे लिये आचार्यका कभी वध न करना कर्तव्य है, उसी प्रकार किसी भी दशामें आपका परित्याग करना मुझे अभीष्ट नहीं है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अप्येवं पाण्डव प्राणानुत्सृजेयमहं युधि ॥ ८ ॥
प्रतीपो नाहमाचार्ये भवेयं वै कथंचन।

मूलम्

अप्येवं पाण्डव प्राणानुत्सृजेयमहं युधि ॥ ८ ॥
प्रतीपो नाहमाचार्ये भवेयं वै कथंचन।

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डुनन्दन! इस नीतिके अनुसार बर्ताव करते हुए मैं युद्धमें अपने प्राणोंका परित्याग कर दूँगा; परंतु किसी प्रकार भी आचार्यका शत्रु नहीं बनूँगा॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वां निगृह्याहवे राज्यं धार्तराष्ट्रोऽयमिच्छति ॥ ९ ॥
न स तं जीवलोकेऽस्मिन् कामं प्राप्येत् कथंचन।

मूलम्

त्वां निगृह्याहवे राज्यं धार्तराष्ट्रोऽयमिच्छति ॥ ९ ॥
न स तं जीवलोकेऽस्मिन् कामं प्राप्येत् कथंचन।

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! यह धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधन जो आपको युद्धमें कैद करके सारा राज्य हथिया लेना चाहता है, वह इस जगत्‌में अपने उस मनोरथको किसी प्रकार पूर्ण नहीं कर सकता॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रपतेद् द्यौः सनक्षत्रा पृथिवी शकलीभवेत् ॥ १० ॥
न त्वां द्रोणो निगृह्णीयाज्जीवमाने मयि ध्रुवम्।

मूलम्

प्रपतेद् द्यौः सनक्षत्रा पृथिवी शकलीभवेत् ॥ १० ॥
न त्वां द्रोणो निगृह्णीयाज्जीवमाने मयि ध्रुवम्।

अनुवाद (हिन्दी)

नक्षत्रोंसहित आकाश फट पड़े और पृथ्वीके टुकड़े-टुकड़े हो जायँ, तो भी मेरे जीते-जी द्रोणाचार्य आपको पकड़ नहीं सकते; यह ध्रुव सत्य है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि तस्य रणे साह्यं कुरुते वज्रभृत् स्वयम् ॥ ११ ॥
विष्णुर्वा सहितो देवैर्न त्वां प्राप्स्यत्यसौ मृधे।
मयि जीवति राजेन्द्र न भयं कर्तुमर्हसि ॥ १२ ॥
द्रोणादस्त्रभृतां श्रेष्ठात् सर्वशस्त्रभृतामपि ।

मूलम्

यदि तस्य रणे साह्यं कुरुते वज्रभृत् स्वयम् ॥ ११ ॥
विष्णुर्वा सहितो देवैर्न त्वां प्राप्स्यत्यसौ मृधे।
मयि जीवति राजेन्द्र न भयं कर्तुमर्हसि ॥ १२ ॥
द्रोणादस्त्रभृतां श्रेष्ठात् सर्वशस्त्रभृतामपि ।

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! यदि रणक्षेत्रमें साक्षात् वज्रधारी इन्द्र अथवा भगवान् विष्णु सम्पूर्ण देवताओंके साथ आकर दुर्योधनकी सहायता करें, तो भी मेरे जीते-जी वह आपको पकड़ नहीं सकेगा; अतः आपको सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ द्रोणाचार्यसे भय नहीं करना चाहिये॥११-१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्यच्च ब्रूयां राजेन्द्र प्रतिज्ञां मम निश्चलाम् ॥ १३ ॥
न स्मराम्यनृतं तावन्न स्मरामि पराजयम्।
न स्मरामि प्रतिश्रुत्य किंचिदप्यनृतं कृतम् ॥ १४ ॥

मूलम्

अन्यच्च ब्रूयां राजेन्द्र प्रतिज्ञां मम निश्चलाम् ॥ १३ ॥
न स्मराम्यनृतं तावन्न स्मरामि पराजयम्।
न स्मरामि प्रतिश्रुत्य किंचिदप्यनृतं कृतम् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! मैं अपनी दूसरी भी निश्चल प्रतिज्ञा आपको सुनाता हूँ। मैंने कभी झूठ कहा हो, इसका स्मरण नहीं है। मेरी कहीं पराजय हुई हो, इसकी भी याद नहीं है और मैंने प्रतिज्ञा करके उसे तनिक भी झूठी कर दिया हो, इसका भी मुझे स्मरण नहीं है॥१३-१४॥

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः शङ्खाश्च भेर्यश्च मृदङ्गाश्चानकैः सह।
प्रावाद्यन्त महाराज पाण्डवानां निवेशने ॥ १५ ॥
सिंहनादश्च संजज्ञे पाण्डवानां महात्मनाम्।
धनुर्ज्यातलशब्दश्च गगनस्पृक् सुभैरवः ॥ १६ ॥

मूलम्

ततः शङ्खाश्च भेर्यश्च मृदङ्गाश्चानकैः सह।
प्रावाद्यन्त महाराज पाण्डवानां निवेशने ॥ १५ ॥
सिंहनादश्च संजज्ञे पाण्डवानां महात्मनाम्।
धनुर्ज्यातलशब्दश्च गगनस्पृक् सुभैरवः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— महाराज! तदनन्तर पाडवोंके शिविरमें शंख, भेरी, मृदंग और आनक आदि बाजे बजने लगे। महात्मा पाण्डवोंका सिंहनाद सहसा प्रकट हुआ। धनुषकी टंकारका भयंकर शब्द आकाशमें गूँजने लगा॥१५-१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुत्वा शङ्खस्य निर्घोषं पाण्डवस्य महौजसः।
त्वदीयेष्वप्यनीकेषु वादित्राण्यभिजघ्निरे ॥ १७ ॥

मूलम्

श्रुत्वा शङ्खस्य निर्घोषं पाण्डवस्य महौजसः।
त्वदीयेष्वप्यनीकेषु वादित्राण्यभिजघ्निरे ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महातेजस्वी पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरकी सेनामें वह शंखध्वनि सुनकर आपकी सेनाओंमें भी भाँति-भाँतिके बाजे बजने लगे॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो व्यूढान्यनीकानि तव तेषां च भारत।
शनैरुपेयुरन्योन्यं योध्यमानानि संयुगे ॥ १८ ॥

मूलम्

ततो व्यूढान्यनीकानि तव तेषां च भारत।
शनैरुपेयुरन्योन्यं योध्यमानानि संयुगे ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! तदनन्तर आपकी और उनकी भी सेनाएँ व्यूहबद्ध होकर धीरे-धीरे युद्धके लिये एक-दूसरीके समीप आने लगीं॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्रववृते युद्धं तुमुलं लोमहर्षणम्।
पाण्डवानां कुरूणां च द्रोणपाञ्चाल्ययोरपि ॥ १९ ॥

मूलम्

ततः प्रववृते युद्धं तुमुलं लोमहर्षणम्।
पाण्डवानां कुरूणां च द्रोणपाञ्चाल्ययोरपि ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर कौरवों तथा पाण्डवोंमें और द्रोणाचार्य तथा धृष्टद्युम्नमें रोमांचकारी भयंकर युद्ध होने लगा॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्नमानाः प्रयत्नेन द्रोणानीकविशातने ।
न शेकुः सृञ्जया युद्धे तद्धि द्रोणेन पालितम् ॥ २० ॥

मूलम्

यत्नमानाः प्रयत्नेन द्रोणानीकविशातने ।
न शेकुः सृञ्जया युद्धे तद्धि द्रोणेन पालितम् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सृंजय योद्धा उस युद्धमें द्रोणाचार्यकी सेनाका विनाश करनेके लिये बड़े यत्नके साथ चेष्टा करने लगे, परंतु सफल न हो सके; क्योंकि वह सेना आचार्य द्रोणके द्वारा भली-भाँति सुरक्षित थी॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथैव तव पुत्रस्य रथोदाराः प्रहारिणः।
न शेकुः पाण्डवीं सेनां पाल्यमानां किरीटिना ॥ २१ ॥

मूलम्

तथैव तव पुत्रस्य रथोदाराः प्रहारिणः।
न शेकुः पाण्डवीं सेनां पाल्यमानां किरीटिना ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार आपके पुत्रकी सेनाके उदार महारथी, जो प्रहार करनेमें कुशल थे, पाण्डव-सेनाको परास्त न कर सके; क्योंकि किरीटधारी अर्जुन उसकी रक्षा कर रहे थे॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आस्तां ते स्तिमिते सेने रक्ष्यमाणे परस्परम्।
सम्प्रसुप्ते यथा नक्तं वनराज्यौ सुपुष्पिते ॥ २२ ॥

मूलम्

आस्तां ते स्तिमिते सेने रक्ष्यमाणे परस्परम्।
सम्प्रसुप्ते यथा नक्तं वनराज्यौ सुपुष्पिते ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे रातमें सुन्दर पुष्पोंसे सुशोभित दो वनश्रेणियाँ प्रसुप्त (सिकुड़े हुए पत्तोंसे युक्त) देखी जाती हैं, उसी प्रकार वे सुरक्षित हुई दोनों सेनाएँ आमने-सामने निश्चलभावसे खड़ी थीं॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो रुक्मरथो राजन्नर्केणेव विराजता।
वरूथिना विनिष्पत्य व्यचरत् पृतनामुखे ॥ २३ ॥

मूलम्

ततो रुक्मरथो राजन्नर्केणेव विराजता।
वरूथिना विनिष्पत्य व्यचरत् पृतनामुखे ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! तदनन्तर सुवर्णमय रथवाले द्रोणाचार्य सूर्यके समान प्रकाशमान आवरणयुक्त रथके द्वारा आगे बढ़कर सेनाके प्रमुख भागमें विचरने लगे॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमुद्यतं रथेनैकमाशुकारिणमाहवे ।
अनेकमिव संत्रासान्मेनिरे पाण्डुसृञ्जयाः ॥ २४ ॥

मूलम्

तमुद्यतं रथेनैकमाशुकारिणमाहवे ।
अनेकमिव संत्रासान्मेनिरे पाण्डुसृञ्जयाः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्रोणाचार्य युद्धस्थलमें केवल रथके द्वारा उद्यत होकर अकेले ही शीघ्रतापूर्वक अस्त्र-शस्त्रोंका प्रयोग कर रहे थे। उस समय पाण्डव तथा सृंजय भयके मारे उन्हें अनेक-सा मान रहे थे॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेन मुक्ताः शरा घोरा विचेरुः सर्वतोदिशम्।
त्रासयन्तो महाराज पाण्डवेयस्य वाहिनीम् ॥ २५ ॥

मूलम्

तेन मुक्ताः शरा घोरा विचेरुः सर्वतोदिशम्।
त्रासयन्तो महाराज पाण्डवेयस्य वाहिनीम् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! उनके द्वारा छोड़े हुए भयंकर बाण पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरकी सेनाको भयभीत करते हुए चारों ओर विचर रहे थे॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मध्यंदिनमनुप्राप्तो गभस्तिशतसंवृतः ।
यथा दृश्येत घर्मांशुस्तथा द्रोणोऽप्यदृश्यत ॥ २६ ॥

मूलम्

मध्यंदिनमनुप्राप्तो गभस्तिशतसंवृतः ।
यथा दृश्येत घर्मांशुस्तथा द्रोणोऽप्यदृश्यत ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दोपहरके समय सहस्रों किरणोंसे व्याप्त प्रचण्ड तेजवाले भगवान् सूर्य जैसे दिखायी देते हैं, उसी प्रकार द्रोणाचार्य भी दृष्टिगोचर हो रहे थे॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चैनं पाण्डवेयानां कश्चिच्छक्नोति भारत।
वीक्षितुं समरे क्रुद्धं महेन्द्रमिव दानवाः ॥ २७ ॥

मूलम्

न चैनं पाण्डवेयानां कश्चिच्छक्नोति भारत।
वीक्षितुं समरे क्रुद्धं महेन्द्रमिव दानवाः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! जैसे दानवदल क्रोधमें भरे हुए देवराज इन्द्रकी ओर देखनेका साहस नहीं करता है, उसी प्रकार पाण्डव-सेनाका कोई भी वीर समरभूमिमें द्रोणाचार्यकी ओर आँख उठाकर देख न सका॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मोहयित्वा ततः सैन्यं भारद्वाजः प्रतापवान्।
धृष्टद्युम्नबलं तूर्णं व्यधमन्निशितैः शरैः ॥ २८ ॥

मूलम्

मोहयित्वा ततः सैन्यं भारद्वाजः प्रतापवान्।
धृष्टद्युम्नबलं तूर्णं व्यधमन्निशितैः शरैः ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार प्रतापी द्रोणाचार्यने पाण्डव-सेनाको मोहित करके पैने बाणोंद्वारा तुरंत ही धृष्टद्युम्नकी सेनाका संहार आरम्भ कर दिया॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स दिशः सर्वतो रुद्‌ध्वा संवृत्य खमजिह्मगैः।
पार्षतो यत्र तत्रैव ममृदे पाण्डुवाहिनीम् ॥ २९ ॥

मूलम्

स दिशः सर्वतो रुद्‌ध्वा संवृत्य खमजिह्मगैः।
पार्षतो यत्र तत्रैव ममृदे पाण्डुवाहिनीम् ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने अपने सीधे जानेवाले बाणोंद्वारा सम्पूर्ण दिशाओंको अवरुद्ध करके आकाशको भी आच्छादित कर दिया और जहाँ धृष्टद्युम्न खड़ा था, वहीं वे पाण्डव-सेनाका मर्दन करने लगे॥२९॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि द्रोणाभिषेकपर्वणि अर्जुनकृतयुधिष्ठिराश्वासने त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत द्रोणाभिषेकपर्वमें अर्जुनके द्वारा युधिष्ठिरको आश्वासनविषयक तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१३॥