०१२ द्रोणप्रतिज्ञायाम्

भागसूचना

द्वादशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

दुर्योधनका वर माँगना और द्रोणाचार्यका युधिष्ठिरको अर्जुनकी अनुपस्थितिमें जीवित पकड़ लानेकी प्रतिज्ञा करना

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

हन्त ते कथयिष्यामि सर्वं प्रत्यक्षदर्शिवान्।
यथा स न्यपतद् द्रोणः सूदितः पाण्डुसृञ्जयैः ॥ १ ॥

मूलम्

हन्त ते कथयिष्यामि सर्वं प्रत्यक्षदर्शिवान्।
यथा स न्यपतद् द्रोणः सूदितः पाण्डुसृञ्जयैः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजयने कहा— महाराज! मैं बड़े दुःखके साथ आपसे उन सब घटनाओंका वर्णन करूँगा। द्रोणाचार्य किस प्रकार गिरे हैं और पाण्डवों तथा सृंजयोंने कैसे उनका वध किया है? इन सब बातोंको मैंने प्रत्यक्ष देखा था॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सेनापतित्वं सम्प्राप्य भारद्वाजो महारथः।
मध्ये सर्वस्य सैन्यस्य पुत्रं ते वाक्यमब्रवीत् ॥ २ ॥

मूलम्

सेनापतित्वं सम्प्राप्य भारद्वाजो महारथः।
मध्ये सर्वस्य सैन्यस्य पुत्रं ते वाक्यमब्रवीत् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सेनापतिका पद प्राप्त करके महारथी द्रोणाचार्यने सारी सेनाके बीचमें आपके पुत्र दुर्योधनसे इस प्रकार कहा—॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत् कौरवाणामृषभादापगेयादनन्तरम् ।
सैनापत्येन यद् राजन् मामद्य कृतवानसि ॥ ३ ॥
सदृशं कर्मणस्तस्य फलं प्राप्नुहि भारत।
करोमि कामं कं तेऽद्य प्रवृणीष्व यमिच्छसि ॥ ४ ॥

मूलम्

यत् कौरवाणामृषभादापगेयादनन्तरम् ।
सैनापत्येन यद् राजन् मामद्य कृतवानसि ॥ ३ ॥
सदृशं कर्मणस्तस्य फलं प्राप्नुहि भारत।
करोमि कामं कं तेऽद्य प्रवृणीष्व यमिच्छसि ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! तुमने कौरवश्रेष्ठ गंगापुत्र भीष्मके बाद जो आज मुझे सेनापति बनाया है, भरतनन्दन! इस कार्यके अनुरूप कोई फल मुझसे प्राप्त करो। आज तुम्हारा कौन-सा मनोरथ पूर्ण करूँ? तुम्हें जिस वस्तुकी इच्छा हो, उसे ही माँग लो’॥३-४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो दुर्योधनो राजा कर्णदुःशासनादिभिः।
सम्मन्त्र्योवाच दुर्धर्षमाचार्यं जयतां बरम् ॥ ५ ॥

मूलम्

ततो दुर्योधनो राजा कर्णदुःशासनादिभिः।
सम्मन्त्र्योवाच दुर्धर्षमाचार्यं जयतां बरम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब राजा दुर्योधनने कर्ण, दुःशासन आदिके साथ सलाह करके विजयी वीरोंमें श्रेष्ठ एवं दुर्जय आचार्य द्रोणसे इस प्रकार कहा—॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ददासि चेद् वरं मह्यं जीवग्राहं युधिष्ठिरम्।
गृहीत्वा रथिनां श्रेष्ठं मत्समीपमिहानय ॥ ६ ॥

मूलम्

ददासि चेद् वरं मह्यं जीवग्राहं युधिष्ठिरम्।
गृहीत्वा रथिनां श्रेष्ठं मत्समीपमिहानय ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आचार्य! यदि आप मुझे वर दे रहे हैं तो रथियोंमें श्रेष्ठ युधिष्ठिरको जीवित पकड़कर यहाँ मेरे पास ले आइये’॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः कुरूणामाचार्यः श्रुत्वा पुत्रस्य ते वचः।
सेनां प्रहर्षयन् सर्वामिदं वचनमब्रवीत् ॥ ७ ॥

मूलम्

ततः कुरूणामाचार्यः श्रुत्वा पुत्रस्य ते वचः।
सेनां प्रहर्षयन् सर्वामिदं वचनमब्रवीत् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपके पुत्रकी वह बात सुनकर कुरुकुलके आचार्य द्रोण सारी सेनाको प्रसन्न करते हुए इस प्रकार बोले—॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धन्यः कुन्तीसुतो राजन् यस्य ग्रहणमिच्छसि।
न वधार्थं सुदुर्धर्षं वरमद्य प्रयाचसे ॥ ८ ॥

मूलम्

धन्यः कुन्तीसुतो राजन् यस्य ग्रहणमिच्छसि।
न वधार्थं सुदुर्धर्षं वरमद्य प्रयाचसे ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! कुन्तीकुमार युधिष्ठिर धन्य हैं, जिन्हें तुम जीवित पकड़ना चाहते हो। उन दुर्धर्ष वीरके वधके लिये आज तुम मुझसे याचना नहीं कर रहे हो॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किमर्थं च नरव्याघ्र न वधं तस्य काङ्‌क्षसे।
नाशंससि क्रियामेतां मत्तो दुर्योधन ध्रुवम् ॥ ९ ॥

मूलम्

किमर्थं च नरव्याघ्र न वधं तस्य काङ्‌क्षसे।
नाशंससि क्रियामेतां मत्तो दुर्योधन ध्रुवम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पुरुषसिंह! तुम्हें उनके वधकी इच्छा क्यों नहीं हो रही है? दुर्योधन! तुम मेरे द्वारा निश्चितरूपसे युधिष्ठिरका वध कराना क्यों नहीं चाहते हो?॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आहोस्विद् धर्मराजस्य द्वेष्टा तस्य न विद्यते।
यदीच्छसि त्वं जीवन्तं कुलं रक्षसि चात्मनः ॥ १० ॥

मूलम्

आहोस्विद् धर्मराजस्य द्वेष्टा तस्य न विद्यते।
यदीच्छसि त्वं जीवन्तं कुलं रक्षसि चात्मनः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अथवा इसका कारण यह तो नहीं है कि धर्मराज युधिष्ठिरसे द्वेष रखनेवाला इस संसारमें कोई है ही नहीं। इसीलिये तुम उन्हें जीवित देखना और अपने कुलकी रक्षा करना चाहते हो॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथवा भरतश्रेष्ठ निर्जित्य युधि पाण्डवान्।
राज्यं सम्प्रति दत्त्वा च सौभ्रात्रं कर्तुमिच्छसि ॥ ११ ॥

मूलम्

अथवा भरतश्रेष्ठ निर्जित्य युधि पाण्डवान्।
राज्यं सम्प्रति दत्त्वा च सौभ्रात्रं कर्तुमिच्छसि ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अथवा भरतश्रेष्ठ! तुम युद्धमें पाण्डवोंको जीतकर इस समय उनका राज्य वापस दे सुन्दर भ्रातृभावका आदर्श उपस्थित करना चाहते हो॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धन्यः कुन्तीसुतो राजा सुजातं चास्य धीमतः।
अजातशत्रुता सत्या तस्य यत् स्निह्यते भवान् ॥ १२ ॥

मूलम्

धन्यः कुन्तीसुतो राजा सुजातं चास्य धीमतः।
अजातशत्रुता सत्या तस्य यत् स्निह्यते भवान् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर धन्य हैं। उन बुद्धिमान् नरेशका जन्म बहुत ही उत्तम है और वे जो अजातशत्रु कहलाते हैं, वह भी ठीक है; क्योंकि तुम भी उनपर स्नेह रखते हो’॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्रोणेन चैवमुक्तस्य तव पुत्रस्य भारत।
सहसा निःसृतों भावो योऽस्य नित्यं हृदि स्थितः ॥ १३ ॥

मूलम्

द्रोणेन चैवमुक्तस्य तव पुत्रस्य भारत।
सहसा निःसृतों भावो योऽस्य नित्यं हृदि स्थितः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! द्रोणाचार्यके ऐसा कहनेपर तुम्हारे पुत्रके मनका भाव जो सदा उसके हृदयमें बना रहता था, सहसा प्रकट हो गया॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाकारो गूहितुं शक्यो बृहस्पतिसमैरपि।
तस्मात्तव सुतो राजन् प्रहृष्टो वाक्यमब्रवीत् ॥ १४ ॥

मूलम्

नाकारो गूहितुं शक्यो बृहस्पतिसमैरपि।
तस्मात्तव सुतो राजन् प्रहृष्टो वाक्यमब्रवीत् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बृहस्पतिके समान बुद्धिमान् पुरुष भी अपने आकारको छिपा नहीं सकते। राजन्! इसीलिये आपका पुत्र अत्यन्त प्रसन्न होकर इस प्रकार बोला—॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वधे कुन्तिसुतस्याजौ नाचार्य विजयो मम।
हते युधिष्ठिरे पार्था हन्युः सर्वान् हि नो ध्रुवम्॥१५॥

मूलम्

वधे कुन्तिसुतस्याजौ नाचार्य विजयो मम।
हते युधिष्ठिरे पार्था हन्युः सर्वान् हि नो ध्रुवम्॥१५॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आचार्य! युद्धके मैदानमें कुन्तीपुत्र युधिष्ठिरके मारे जानेसे मेरी विजय नहीं हो सकती; क्योंकि युधिष्ठिरका वध होनेपर कुन्तीके पुत्र हम सब लोगोंको अवश्य ही मार डालेंगे॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न च शक्या रणे सर्वे निहन्तुममरैरपि।
(यदि सर्वे हनिष्यन्ते पाण्डवाः ससुता मृधे।
ततः कृत्स्नं वशे कृत्वा निःशेषं नृपमण्डलम्॥
ससागरवनां स्फीतां विजित्य वसुधामिमाम्।
विष्णुर्दास्यति कृष्णायै कुन्त्यै वा पुरुषोत्तमः॥)
य एव तेषां शेषः स्यात् स एवास्मान्‌ न शेषयेत्॥१६॥

मूलम्

न च शक्या रणे सर्वे निहन्तुममरैरपि।
(यदि सर्वे हनिष्यन्ते पाण्डवाः ससुता मृधे।
ततः कृत्स्नं वशे कृत्वा निःशेषं नृपमण्डलम्॥
ससागरवनां स्फीतां विजित्य वसुधामिमाम्।
विष्णुर्दास्यति कृष्णायै कुन्त्यै वा पुरुषोत्तमः॥)
य एव तेषां शेषः स्यात् स एवास्मान्‌ न शेषयेत्॥१६॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सम्पूर्ण देवता भी समस्त पाण्डवोंको रणक्षेत्रमें नहीं मार सकते। यदि सारे पाण्डव अपने पुत्रोंसहित युद्धमें मार डाले जायँगे तो भी पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण सम्पूर्ण नरेशमण्डलको अपने वशमें करके समुद्र और वनोंसहित इस सारी समृद्धिशालिनी वसुधाको जीतकर द्रौपदी अथवा कुन्तीको दे डालेंगे। अथवा पाण्डवोंमेंसे जो भी शेष रह जायगा, वही हमलोगोंको शेष नहीं रहने देगा॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्यप्रतिज्ञे त्वानीते पुनर्द्यूतेन निर्जिते।
पुनर्यास्यन्त्यरण्याय पाण्डवास्तमनुव्रताः ॥ १७ ॥

मूलम्

सत्यप्रतिज्ञे त्वानीते पुनर्द्यूतेन निर्जिते।
पुनर्यास्यन्त्यरण्याय पाण्डवास्तमनुव्रताः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सत्यप्रतिज्ञ राजा युधिष्ठिरको जीते-जी पकड़ ले आनेपर यदि उन्हें पुनः जूएमें जीत लिया जाय तो उनमें भक्ति रखनेवाले पाण्डव पुनः वनमें चले जायँगे॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽयं मम जयो व्यक्तं दीर्घकालं भविष्यति।
अतो न वधमिच्छामि धर्मराजस्य कर्हिचित् ॥ १८ ॥

मूलम्

सोऽयं मम जयो व्यक्तं दीर्घकालं भविष्यति।
अतो न वधमिच्छामि धर्मराजस्य कर्हिचित् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इस प्रकार निश्चय ही मेरी विजय दीर्घकालतक बनी रहेगी। इसीलिये मैं कभी धर्मराज युधिष्ठिरका वध करना नहीं चाहता’॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य जिह्ममभिप्रायं ज्ञात्वा द्रोणोऽथ तत्त्ववित्।
तं वरं सान्तरं तस्मै ददौ संचिन्त्य बुद्धिमान् ॥ १९ ॥

मूलम्

तस्य जिह्ममभिप्रायं ज्ञात्वा द्रोणोऽथ तत्त्ववित्।
तं वरं सान्तरं तस्मै ददौ संचिन्त्य बुद्धिमान् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! द्रोणाचार्य प्रत्येक बातके वास्तविक तात्पर्यको तत्काल समझ लेनेवाले थे। दुर्योधनके उस कुटिल मनोभावको जानकर बुद्धिमान् द्रोणने मन-ही-मन कुछ विचार किया और अन्तर रखकर उसे वर दिया॥१९॥

मूलम् (वचनम्)

द्रोण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चेद् युधिष्ठिरं वीरः पालयत्यर्जुनो युधि।
मन्यस्व पाण्डवश्रेष्ठमानीतं वशमात्मनः ॥ २० ॥

मूलम्

न चेद् युधिष्ठिरं वीरः पालयत्यर्जुनो युधि।
मन्यस्व पाण्डवश्रेष्ठमानीतं वशमात्मनः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्रोणाचार्य बोले— राजन्! यदि वीरवर अर्जुन युद्धमें युधिष्ठिरकी रक्षा न करते हों, तब तुम पाण्डवश्रेष्ठ युधिष्ठिरको अपने वशमें आया हुआ ही समझो॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हि शक्यो रणे पार्थः सेन्द्रैर्देवासुरैरपि।
प्रत्युद्यातुमतस्तात नैतदामर्षयाम्यहम् ॥ २१ ॥

मूलम्

न हि शक्यो रणे पार्थः सेन्द्रैर्देवासुरैरपि।
प्रत्युद्यातुमतस्तात नैतदामर्षयाम्यहम् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तात! रणक्षेत्रमें इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवता और असुर भी अर्जुनका सामना नहीं कर सकते हैं। अतः मुझमें भी उन्हें जीतनेका उत्साह नहीं है॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असंशयं स मे शिष्यो मत्पूर्वश्चास्त्रकर्मणि।
तरुणः सुकृतैर्युक्त एकायनगतश्च ह ॥ २२ ॥
अस्त्राणीन्द्राच्च रुद्राच्च भूयः स समवाप्तवान्।
अमर्षितश्च ते राजंस्ततो नामर्षयाम्यहम् ॥ २३ ॥

मूलम्

असंशयं स मे शिष्यो मत्पूर्वश्चास्त्रकर्मणि।
तरुणः सुकृतैर्युक्त एकायनगतश्च ह ॥ २२ ॥
अस्त्राणीन्द्राच्च रुद्राच्च भूयः स समवाप्तवान्।
अमर्षितश्च ते राजंस्ततो नामर्षयाम्यहम् ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसमें संदेह नहीं कि अर्जुन मेरा शिष्य है और उसने पहले मुझसे ही अस्त्रविद्या सीखी है, तथापि वह तरुण है। अनेक प्रकारके पुण्य कर्मोंसे युक्त है। विजय अथवा मृत्यु—इन दोनोंमेंसे एकका वरण करनेका दृढ़ निश्चय कर चुका है। इन्द्र और रुद्र आदि देवताओंसे पुनः बहुत-से दिव्यास्त्रोंकी शिक्षा पा चुका है और तुम्हारे प्रति उसका अमर्ष बढ़ा हुआ है। इसलिये राजन्! मैं अर्जुनसे लड़नेका उत्साह नहीं रखता हूँ॥२२-२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स चापक्रम्यतां युद्धाद् येनोपायेन शक्यते।
अपनीते ततः पार्थे धर्मराजो जितस्त्वया ॥ २४ ॥

मूलम्

स चापक्रम्यतां युद्धाद् येनोपायेन शक्यते।
अपनीते ततः पार्थे धर्मराजो जितस्त्वया ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः जिस उपायसे भी सम्भव हो, तुम उन्हें युद्धसे दूर हटा दो। कुन्तीकुमार अर्जुनके रणक्षेत्रसे हट जानेपर समझ लो कि तुमने धर्मराजको जीत लिया॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ग्रहणे हि जयस्तस्य न वधे पुरुषर्षभ।
एतेन चाप्युपायेन ग्रहणं समुपैष्यसि ॥ २५ ॥

मूलम्

ग्रहणे हि जयस्तस्य न वधे पुरुषर्षभ।
एतेन चाप्युपायेन ग्रहणं समुपैष्यसि ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरश्रेष्ठ! उनको पकड़ लेनेमें ही तुम्हारी विजय है, उनके वधमें नहीं; परंतु इसी उपायसे तुम उन्हें पकड़ पाओगे॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहं गृहीत्वा राजानं सत्यधर्मपरायणम्।
आनयिष्यामि ते राजन् वशमद्य न संशयः ॥ २६ ॥
यदि स्थास्यति संग्रामे मुहूर्तमपि मेऽग्रतः।
अपनीते नरव्याघ्रे कुन्तीपुत्रे धनंजये ॥ २७ ॥

मूलम्

अहं गृहीत्वा राजानं सत्यधर्मपरायणम्।
आनयिष्यामि ते राजन् वशमद्य न संशयः ॥ २६ ॥
यदि स्थास्यति संग्रामे मुहूर्तमपि मेऽग्रतः।
अपनीते नरव्याघ्रे कुन्तीपुत्रे धनंजये ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! पुरुषसिंह कुन्तीपुत्र अर्जुनके युद्धसे हट जानेपर यदि वे दो घड़ी भी मेरे सामने संग्राममें खड़े रहेंगे तो मैं आज सत्यधर्मपरायण राजा युधिष्ठिरको पकड़कर तुम्हारे वशमें ला दूँगा, इसमें संशय नहीं है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

फाल्गुनस्य समीपे तु न हि शक्यो युधिष्ठिरः।
ग्रहीतुं समरे राजन् सेन्द्रैरपि सुरासुरैः ॥ २८ ॥

मूलम्

फाल्गुनस्य समीपे तु न हि शक्यो युधिष्ठिरः।
ग्रहीतुं समरे राजन् सेन्द्रैरपि सुरासुरैः ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! अर्जुनके समीप तो समरभूमिमें इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता और असुर भी युधिष्ठिरको नहीं पकड़ सकते हैं॥२८॥

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सान्तरं तु प्रतिज्ञाते राज्ञो द्रोणेन निग्रहे।
गृहीतं तममन्यन्त तव पुत्राः सुबालिशाः ॥ २९ ॥

मूलम्

सान्तरं तु प्रतिज्ञाते राज्ञो द्रोणेन निग्रहे।
गृहीतं तममन्यन्त तव पुत्राः सुबालिशाः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— राजन्! द्रोणाचार्यने कुछ अन्तर रखकर जब राजा युधिष्ठिरको पकड़ लानेकी प्रतिज्ञा कर ली, तब आपके मूर्ख पुत्र उन्हें कैद हुआ ही मानने लगे॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाण्डवेयेषु सापेक्षं द्रोणं जानाति ते सुतः।
ततः प्रतिज्ञास्थैर्यार्थं स मन्त्रो बहुलीकृतः ॥ ३० ॥

मूलम्

पाण्डवेयेषु सापेक्षं द्रोणं जानाति ते सुतः।
ततः प्रतिज्ञास्थैर्यार्थं स मन्त्रो बहुलीकृतः ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपका पुत्र दुर्योधन यह जानता था कि द्रोणाचार्य पाण्डवोंके प्रति पक्षपात रखते हैं, अतः उसने उनकी प्रतिज्ञाको स्थिर रखनेके लिये उस गुप्त बातको भी बहुत लोगोंमें फैला दिया॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो दुर्योधनेनापि ग्रहणं पाण्डवस्य तत्।
(स्कन्धावारेषु सर्वेषु यथास्थानेषु मारिष।)
सैन्यस्थानेषु सर्वेषु सुघोषितमरिंदम ॥ ३१ ॥

मूलम्

ततो दुर्योधनेनापि ग्रहणं पाण्डवस्य तत्।
(स्कन्धावारेषु सर्वेषु यथास्थानेषु मारिष।)
सैन्यस्थानेषु सर्वेषु सुघोषितमरिंदम ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुओंका दमन करनेवाले आर्य धृतराष्ट्र! तदनन्तर दुर्योधनने युद्धकी सारी छावनियोंमें तथा सेनाके विश्राम करनेके प्रायः सभी स्थानोंपर द्रोणाचार्यकी युधिष्ठिरको पकड़ लानेकी उस प्रतिज्ञाको घोषित करवा दिया॥३१॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि द्रोणाभिषेकपर्वणि द्रोणप्रतिज्ञायां द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत द्रोणाभिषेकपर्वमें द्रोणप्रतिज्ञाविषयक बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१२॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २ श्लोक मिलाकर कुल ३३ श्लोक हैं।)