भागसूचना
दशमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
राजा धृतराष्ट्रका शोकसे व्याकुल होना और संजयसे युद्धविषयक प्रश्न
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतत् पृष्ट्वा सूतपुत्रं हृच्छोकेनार्दितो भृशम्।
जये निराशः पुत्राणां धृतराष्ट्रोऽपतत् क्षितौ ॥ १ ॥
मूलम्
एतत् पृष्ट्वा सूतपुत्रं हृच्छोकेनार्दितो भृशम्।
जये निराशः पुत्राणां धृतराष्ट्रोऽपतत् क्षितौ ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! सूतपुत्र संजयसे इस प्रकार प्रश्न करते-करते हार्दिक शोकसे अत्यन्त पीड़ित हो अपने पुत्रोंकी विजयकी आशा टूट जानेके कारण राजा धृतराष्ट्र अचेत-से होकर पृथ्वीपर गिर पड़े॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं विसंज्ञं निपतितं सिषिचुः परिचारिकाः।
जलेनात्यर्थशीतेन वीजन्त्यः पुण्यगन्धिना ॥ २ ॥
मूलम्
तं विसंज्ञं निपतितं सिषिचुः परिचारिकाः।
जलेनात्यर्थशीतेन वीजन्त्यः पुण्यगन्धिना ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय अचेत पड़े हुए राजा धृतराष्ट्रको उनकी दासियाँ पंखा झलने लगीं और उनके ऊपर परम सुगन्धित एवं अत्यन्त शीतल जल छिड़कने लगीं॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पतितं चैनमालोक्य समन्ताद् भरतस्त्रियः।
परिवव्रुर्महाराजमस्पृशंश्चैव पाणिभिः ॥ ३ ॥
मूलम्
पतितं चैनमालोक्य समन्ताद् भरतस्त्रियः।
परिवव्रुर्महाराजमस्पृशंश्चैव पाणिभिः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराजको गिरा देख धृतराष्ट्रकी बहुत-सी स्त्रियाँ उन्हें चारों ओरसे घेरकर बैठ गयीं और उन्हें हाथोंसे सहलाने लगीं॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्थाप्य चैनं शनकै राजानं पृथिवीतलात्।
आसनं प्रापयामासुर्बाष्पकण्ठ्यो वराननाः ॥ ४ ॥
मूलम्
उत्थाप्य चैनं शनकै राजानं पृथिवीतलात्।
आसनं प्रापयामासुर्बाष्पकण्ठ्यो वराननाः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर उन सुमुखी स्त्रियोंने राजाको धीरे-धीरे धरतीसे उठाकर सिंहासनपर बिठाया। उस समय उनके नेत्रोंसे आँसू झर रहे थे और कण्ठ गद्गद हो रहे थे॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसनं प्राप्य राजा तु मूर्च्छयाभिपरिप्लुतः।
निश्चेष्टोऽतिष्ठत तदा वीज्यमानः समन्ततः ॥ ५ ॥
मूलम्
आसनं प्राप्य राजा तु मूर्च्छयाभिपरिप्लुतः।
निश्चेष्टोऽतिष्ठत तदा वीज्यमानः समन्ततः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सिंहासनपर पहुँचकर भी राजा धृतराष्ट्र मूर्च्छासे पीड़ित हो निश्चेष्ट हो गये। उस समय सब ओरसे उनके ऊपर व्यजन डुलाया जा रहा था॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स लब्ध्वा शनकैः संज्ञां वेपमानो महीपतिः।
पुनर्गावल्गणिं सूतं पर्यपृच्छद् यथातथम् ॥ ६ ॥
मूलम्
स लब्ध्वा शनकैः संज्ञां वेपमानो महीपतिः।
पुनर्गावल्गणिं सूतं पर्यपृच्छद् यथातथम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर धीरे-धीरे होशमें आनेपर काँपते हुए राजा धृतराष्ट्रने पुनः सूतजातीय संजयसे युद्धका यथावत् समाचार पूछा॥६॥
मूलम् (वचनम्)
धृतराष्ट्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यः स उद्यन्निवादित्यो ज्योतिषा प्रणुदंस्तमः।
अजातशत्रुमायान्तं कस्तं द्रोणादवारयत् ॥ ७ ॥
मूलम्
यः स उद्यन्निवादित्यो ज्योतिषा प्रणुदंस्तमः।
अजातशत्रुमायान्तं कस्तं द्रोणादवारयत् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धृतराष्ट्र बोले— जो उगते हुए सूर्यकी भाँति अपनी प्रभासे अन्धकार दूर कर देते हैं, उन अजातशत्रु युधिष्ठिरको द्रोणके समीप आनेसे किसने रोका था?॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभिन्नमिव मातङ्गं यथा क्रुद्धं तरस्विनम्।
प्रसन्नवदनं दृष्ट्वा प्रतिद्विरदगामिनम् ॥ ८ ॥
वासितासंगमे यद्वदजय्यं प्रति यूथपैः।
निजघान रणे वीरान् वीरः पुरुषसत्तमः ॥ ९ ॥
यो ह्येको हि महावीर्यो निर्दहेद् घोरचक्षुषा।
कृत्स्नं दुर्योधनबलं धृतिमान् सत्यसंगरः ॥ १० ॥
चक्षुर्हणं जये सक्तमिष्वासधरमच्युतम् ।
दान्तं बहुमतं लोके के शूराः पर्यवारयन् ॥ ११ ॥
मूलम्
प्रभिन्नमिव मातङ्गं यथा क्रुद्धं तरस्विनम्।
प्रसन्नवदनं दृष्ट्वा प्रतिद्विरदगामिनम् ॥ ८ ॥
वासितासंगमे यद्वदजय्यं प्रति यूथपैः।
निजघान रणे वीरान् वीरः पुरुषसत्तमः ॥ ९ ॥
यो ह्येको हि महावीर्यो निर्दहेद् घोरचक्षुषा।
कृत्स्नं दुर्योधनबलं धृतिमान् सत्यसंगरः ॥ १० ॥
चक्षुर्हणं जये सक्तमिष्वासधरमच्युतम् ।
दान्तं बहुमतं लोके के शूराः पर्यवारयन् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मदकी धारा बहानेवाले, हथिनीके साथ समागमके समय आये हुए विपक्षी हाथीपर आक्रमण करनेवाले तथा गजयूथपतियोंके लिये अजेय मतवाले गजराजके समान वेगशाली और पराक्रमी हैं, कौरवोंके प्रति जिनका क्रोध बढ़ा हुआ है, जिन पुरुषप्रवर वीरने रणक्षेत्रमें बहुत-से वीरोंका संहार किया है, जो महापराक्रमी, धैर्यवान् एवं सत्यप्रतिज्ञ हैं और अपनी भयंकर दृष्टिसे अकेले ही दुर्योधनकी सम्पूर्ण सेनाको भस्म कर सकते हैं, जो क्रोधभरी दृष्टिसे ही शत्रुका संहार करनेमें समर्थ हैं, विजयके लिये प्रयत्नशील, अपनी मर्यादासे कभी च्युत न होनेवाले, जितेन्द्रिय तथा लोकमें विशेष सम्मानित हैं, उन प्रसन्नवदन धनुर्धर युधिष्ठिरको द्रोणाचार्यके सामने आते देख मेरे पक्षके किन शूरवीरोंने रोका था?॥८—११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
के दुष्प्रधर्षं राजानमिष्वासधरमच्युतम् ।
समासेदुर्नरव्याघ्रं कौन्तेयं तत्र मामकाः ॥ १२ ॥
मूलम्
के दुष्प्रधर्षं राजानमिष्वासधरमच्युतम् ।
समासेदुर्नरव्याघ्रं कौन्तेयं तत्र मामकाः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो धर्मसे कभी विचलित नहीं होते हैं, उन महाधनुर्धर दुर्धर्ष वीर पुरुषसिंह कुन्तीकुमार राजा युधिष्ठिरपर मेरे किन योद्धाओंने आक्रमण किया था?॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तरसैवाभिपद्याथ यो वै द्रोणमुपाद्रवत्।
यः करोति महत् कर्म शत्रूणां वै महाबलः ॥ १३ ॥
महाकायो महोत्साहो नागायुतसमो बले।
तं भीमसेनमायान्तं के शूराः पर्यवारयन् ॥ १४ ॥
मूलम्
तरसैवाभिपद्याथ यो वै द्रोणमुपाद्रवत्।
यः करोति महत् कर्म शत्रूणां वै महाबलः ॥ १३ ॥
महाकायो महोत्साहो नागायुतसमो बले।
तं भीमसेनमायान्तं के शूराः पर्यवारयन् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिन्होंने वेगसे ही पहुँचकर द्रोणाचार्यपर आक्रमण किया था, जो शत्रुके समक्ष महान् पराक्रम प्रकट करते हैं, जो महाबली, महाकाय और महान् उत्साही हैं तथा जिनमें दस हजार हाथियोंके समान बल है, उन भीमसेनको आते देख किन वीरोंने रोका था?॥१३-१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदाऽऽयाज्जलदप्रख्यो रथः परमवीर्यवान् ।
पर्जन्य इव बीभत्सुस्तुमुलामशनीं सृजन् ॥ १५ ॥
विसृजञ्छरजालानि वर्षाणि मघवानिव ।
अवस्फूर्जन् दिशः सर्वास्तलनेमिस्वनेन च ॥ १६ ॥
चापविद्युत्प्रभो घोरो रथगुल्मबलाहकः ।
स नेमिघोषस्तनितः शरशब्दातिबन्धुरः ॥ १७ ॥
रोषानिलसमुद्भूतो मनोऽभिप्रायशीघ्रगः ।
मर्मातिगो बाणधरस्तुमुलः शोणितोदकैः ॥ १८ ॥
सम्प्लावयन् दिशः सर्वा मानवैरास्तरन् महीम्।
मूलम्
यदाऽऽयाज्जलदप्रख्यो रथः परमवीर्यवान् ।
पर्जन्य इव बीभत्सुस्तुमुलामशनीं सृजन् ॥ १५ ॥
विसृजञ्छरजालानि वर्षाणि मघवानिव ।
अवस्फूर्जन् दिशः सर्वास्तलनेमिस्वनेन च ॥ १६ ॥
चापविद्युत्प्रभो घोरो रथगुल्मबलाहकः ।
स नेमिघोषस्तनितः शरशब्दातिबन्धुरः ॥ १७ ॥
रोषानिलसमुद्भूतो मनोऽभिप्रायशीघ्रगः ।
मर्मातिगो बाणधरस्तुमुलः शोणितोदकैः ॥ १८ ॥
सम्प्लावयन् दिशः सर्वा मानवैरास्तरन् महीम्।
अनुवाद (हिन्दी)
जो मेघके समान श्यामवर्णवाले परम पराक्रमी महारथी अर्जुन विद्युत्की उत्पत्ति करते हुए बादलोंके समान भयंकर वज्रास्त्रका प्रयोग करते हैं, जो जलकी वर्षा करनेवाले इन्द्रके समान बाणसमूहोंकी वृष्टि करते हैं तथा जो अपने धनुषकी टंकार और रथके पहियेकी घरघराहटसे सम्पूर्ण दिशाओंको शब्दायमान कर देते हैं, वे स्वयं भयंकर मेघस्वरूप जान पड़ते हैं। धनुष ही उनके समीप विद्युत्प्रभाके समान प्रकाशित होता है। रथियोंकी सेना उनकी फैली हुई घटाएँ जान पड़ती हैं। रथके पहियोंकी घरघराहट मेघ-गर्जनाके समान प्रतीत होती है। उनके बाणोंकी सनसनाहट वर्षाके शब्दकी भाँति अत्यन्त मनोहर लगती है। क्रोधरूपी वायु उन्हें आगे बढ़नेकी प्रेरणा देती है। वे मनोरथकी भाँति शीघ्रगामी और विपक्षियोंके मर्मस्थलोंको विदीर्ण कर डालनेवाले हैं। बाण धारण करके वे बड़े भयानक प्रतीत होते और रक्तरूपी जलसे सम्पूर्ण दिशाओंको आप्लावित करते हुए मनुष्योंकी लाशोंसे धरतीको पाट देते हैं॥१५—१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भीमनिःस्वनितो रौद्रो दुर्योधनपुरोगमान् ॥ १९ ॥
युद्धेऽभ्यषिञ्चद् विजयो गार्ध्रपत्रैः शिलाशितैः।
गाण्डीवं धारयन् धीमान् कीदृशं वो मनस्तदा ॥ २० ॥
मूलम्
भीमनिःस्वनितो रौद्रो दुर्योधनपुरोगमान् ॥ १९ ॥
युद्धेऽभ्यषिञ्चद् विजयो गार्ध्रपत्रैः शिलाशितैः।
गाण्डीवं धारयन् धीमान् कीदृशं वो मनस्तदा ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस समय भयंकर गर्जना करनेवाले रौद्ररूपधारी बुद्धिमान् अर्जुनने युद्धमें गाण्डीव धारण करके सानपर चढ़ाकर तेज किये हुए गृध्रपंखयुक्त बाणोंद्वारा दुर्योधन आदि मेरे पुत्रों और सैनिकोंको घायल करना आरम्भ किया, उस समय तुमलोगोंके मनकी कैसी अवस्था हुई थी?॥१९-२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इषुसम्बाधमाकाशं कुर्वन् कपिवरध्वजः ।
यदाऽऽयात् कथमासीत् तु तदा पार्थं समीक्षताम् ॥ २१ ॥
मूलम्
इषुसम्बाधमाकाशं कुर्वन् कपिवरध्वजः ।
यदाऽऽयात् कथमासीत् तु तदा पार्थं समीक्षताम् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वानरके चिह्नसे युक्त श्रेष्ठ ध्वजावाले अर्जुन जब आकाशको अपने बाणोंसे ठसाठस भरते हुए तुमलोगोंपर चढ़ आये थे, उस समय उन्हें देखकर तुम्हारे मनकी कैसी दशा हुई थी?॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कच्चिद् गाण्डीवशब्देन न प्रणश्यति वै बलम्।
यद्वः सभैरवं कुर्वन्नर्जुनो भृशमन्वयात् ॥ २२ ॥
मूलम्
कच्चिद् गाण्डीवशब्देन न प्रणश्यति वै बलम्।
यद्वः सभैरवं कुर्वन्नर्जुनो भृशमन्वयात् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस समय अर्जुनने अत्यन्त भयंकर सिंहनाद करते हुए तुमलोगोंका पीछा किया था, उस समय गाण्डीवकी टंकार सुनकर हमारी सेना भाग तो नहीं गयी थी?॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कच्चिन्नापानुदत् प्राणानिषुभिर्वो धनंजयः ।
वातो वेगादिवाविध्यन्मेघान् शरगणैर्नृपान् ॥ २३ ॥
मूलम्
कच्चिन्नापानुदत् प्राणानिषुभिर्वो धनंजयः ।
वातो वेगादिवाविध्यन्मेघान् शरगणैर्नृपान् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस अवसरपर पार्थने अपने बाणोंद्वारा तुम्हारे सैनिकोंके प्राण तो नहीं ले लिये थे? जैसे वायु वेगपूर्वक चलकर मेघोंकी घटाको छिन्न-भिन्न कर देती है, उसी प्रकार अर्जुनने वेगसे चलाये हुए बाण-समूहोंद्वारा विपक्षी नरेशोंको घायल कर दिया होगा॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
को हि गाण्डीवधन्वानं रणे सोढुं नरोऽर्हति।
यमुपश्रुत्य सेनाग्रे जनः सर्वो विदीर्यते ॥ २४ ॥
मूलम्
को हि गाण्डीवधन्वानं रणे सोढुं नरोऽर्हति।
यमुपश्रुत्य सेनाग्रे जनः सर्वो विदीर्यते ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सेनाके प्रमुख भागमें जिनका नाम सुनकर ही सारे सैनिक विदीर्ण हो जाते (भाग निकलते) हैं, उन्हीं गाण्डीवधारी अर्जुनका वेग रणक्षेत्रमें कौन मनुष्य सह सकता है?॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्सेनाः समकम्पन्त यद्वीरानस्पृशद् भयम्।
के तत्र नाजहुर्द्रोणं के क्षुद्राः प्राद्रवन् भयात् ॥ २५ ॥
मूलम्
यत्सेनाः समकम्पन्त यद्वीरानस्पृशद् भयम्।
के तत्र नाजहुर्द्रोणं के क्षुद्राः प्राद्रवन् भयात् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जहाँ सारी सेनाएँ काँप उठीं, समस्त वीरोंके मनमें भय समा गया, वहाँ किन वीरोंने द्रोणाचार्यका साथ नहीं छोड़ा और कौन-कौनसे अधम सैनिक भयके मारे मैदान छोड़कर भाग गये?॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
के वा तत्र तनूंस्त्यक्त्वा प्रतीपं मृत्युमाव्रजन्।
अमानुषाणां जेतारं युद्धेष्वपि धनंजयम् ॥ २६ ॥
मूलम्
के वा तत्र तनूंस्त्यक्त्वा प्रतीपं मृत्युमाव्रजन्।
अमानुषाणां जेतारं युद्धेष्वपि धनंजयम् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मानवेतर प्राणियों (देवताओं और दैत्यों)-पर भी विजय पानेवाले वीर अर्जुनको युद्धमें अपने प्रतिकूल पाकर किन वीरोंने वहाँ अपने शरीरोंको निछावर करके मृत्युको स्वीकार किया?॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न च वेगं सिताश्वस्य विसहिष्यन्ति मामकाः।
गाण्डीवस्य च निर्घोषं प्रावृड्जलदनिःस्वनम् ॥ २७ ॥
मूलम्
न च वेगं सिताश्वस्य विसहिष्यन्ति मामकाः।
गाण्डीवस्य च निर्घोषं प्रावृड्जलदनिःस्वनम् ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरे सैनिक श्वेतवाहन अर्जुनके वेग और वर्षाकालके मेघकी गम्भीर गर्जनाकी भाँति गाण्डीव धनुषकी टंकारध्वनिको नहीं सह सकेंगे॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विष्वक्सेनो यस्य यन्ता यस्य योद्धा धनंजयः।
अशक्यः स रथो जेतुं मन्ये देवासुरैरपि ॥ २८ ॥
मूलम्
विष्वक्सेनो यस्य यन्ता यस्य योद्धा धनंजयः।
अशक्यः स रथो जेतुं मन्ये देवासुरैरपि ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसके सारथि भगवान् श्रीकृष्ण और योद्धा वीर धनंजय हैं, उस रथको जीतना मैं देवताओं तथा असुरोंके लिये भी असम्भव मानता हूँ॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुकुमारो युवा शूरो दर्शनीयश्च पाण्डवः।
मेधावी निपुणो धीमान् युधि सत्यपराक्रमः ॥ २९ ॥
आरावं विपुलं कुर्वन् व्यथयन् सर्वसैनिकान्।
यदाऽऽयान्नकुलो द्रोणं के शूराः पर्यवारयन् ॥ ३० ॥
मूलम्
सुकुमारो युवा शूरो दर्शनीयश्च पाण्डवः।
मेधावी निपुणो धीमान् युधि सत्यपराक्रमः ॥ २९ ॥
आरावं विपुलं कुर्वन् व्यथयन् सर्वसैनिकान्।
यदाऽऽयान्नकुलो द्रोणं के शूराः पर्यवारयन् ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुकुमार, तरुण, शूरवीर, दर्शनीय (सुन्दर), मेधावी, युद्धकुशल, बुद्धिमान् और सत्यपराक्रमी पाण्डुपुत्र नकुल जब युद्धमें जोर-जोरसे गर्जना करके समस्त सैनिकोंको पीड़ित करते हुए द्रोणाचार्यपर चढ़ आये, उस समय किन वीरोंने उन्हें रोका था?॥२९-३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आशीविष इव क्रुद्धः सहदेवो यदाभ्ययात्।
कदनं करिष्यञ्छत्रूणां तेजसा दुर्जयो युधि ॥ ३१ ॥
आर्यव्रतममोघेषुं ह्रीमन्तमपराजितम् ।
सहदेवं तमायान्तं के शूराः पर्यवारयन् ॥ ३२ ॥
मूलम्
आशीविष इव क्रुद्धः सहदेवो यदाभ्ययात्।
कदनं करिष्यञ्छत्रूणां तेजसा दुर्जयो युधि ॥ ३१ ॥
आर्यव्रतममोघेषुं ह्रीमन्तमपराजितम् ।
सहदेवं तमायान्तं के शूराः पर्यवारयन् ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विषधर सर्पके समान क्रोधमें भरे हुए तथा तेजसे दुर्जय सहदेव जब युद्धमें शत्रुओंका संहार करते हुए द्रोणाचार्यके सामने आये, उस समय श्रेष्ठ व्रतधारी अमोघ बाणोंवाले लज्जाशील और अपराजित वीर सहदेवको आते देख किन शूरवीरोंने उन्हें रोका था?॥३१-३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्तु सौवीरराजस्य प्रमथ्य महतीं चमूम्।
आदत्त महिषीं भोजां काम्यां सर्वाङ्गशोभनाम् ॥ ३३ ॥
सत्यं धृतिश्च शौर्यं च ब्रह्मचर्यं च केवलम्।
सर्वाणि युयुधानेऽस्मिन् नित्यानि पुरुषर्षभे ॥ ३४ ॥
मूलम्
यस्तु सौवीरराजस्य प्रमथ्य महतीं चमूम्।
आदत्त महिषीं भोजां काम्यां सर्वाङ्गशोभनाम् ॥ ३३ ॥
सत्यं धृतिश्च शौर्यं च ब्रह्मचर्यं च केवलम्।
सर्वाणि युयुधानेऽस्मिन् नित्यानि पुरुषर्षभे ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिन्होंने सौवीरराजकी विशाल सेनाको मथकर उनकी सर्वांगसुन्दरी कमनीय कन्या भोजाको अपनी रानी बनानेके लिये हर लिया था, उन पुरुषशिरोमणि सात्यकिमें सत्य, धैर्य, शौर्य और विशुद्ध ब्रह्मचर्य आदि सारे सद्गुण सदा विद्यमान रहते हैं॥३३-३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बलिनं सत्यकर्माणमदीनमपराजितम् ।
वासुदेवसमं युद्धे वासुदेवादनन्तरम् ॥ ३५ ॥
धनंजयोपदेशेन श्रेष्ठमिष्वस्त्रकर्मणि ।
पार्थेन सममस्त्रेषु कस्तं द्रोणादवारयत् ॥ ३६ ॥
मूलम्
बलिनं सत्यकर्माणमदीनमपराजितम् ।
वासुदेवसमं युद्धे वासुदेवादनन्तरम् ॥ ३५ ॥
धनंजयोपदेशेन श्रेष्ठमिष्वस्त्रकर्मणि ।
पार्थेन सममस्त्रेषु कस्तं द्रोणादवारयत् ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे सात्यकि बलवान्, सत्यपराक्रमी, उदार, अपराजित, युद्धमें वसुदेवनन्दन श्रीकृष्णके समान शक्तिशाली, अवस्थामें उनसे कुछ छोटे, अर्जुनसे ही शिक्षा पाकर बाणविद्यामें श्रेष्ठ तथा अस्त्रोंके संचालनमें कुन्तीकुमार अर्जुनके तुल्य यशस्वी हैं। उन वीरवर सात्यकिको किसने द्रोणाचार्यके पास आनेसे रोका?॥३५-३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वृष्णीनां प्रवरं वीरं शूरं सर्वधनुष्मताम्।
रामेण सममस्त्रेषु यशसा विक्रमेण च ॥ ३७ ॥
मूलम्
वृष्णीनां प्रवरं वीरं शूरं सर्वधनुष्मताम्।
रामेण सममस्त्रेषु यशसा विक्रमेण च ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वृष्णिवंशके श्रेष्ठ शूरवीर सात्यकि सम्पूर्ण धनुर्धरोंमें उत्तम हैं। वे अस्त्र-विद्या, यश तथा पराक्रममें परशुरामजीके समान हैं॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्यं धृतिर्मतिः शौर्यं बाह्मं चास्त्रमनुत्तमम्।
सात्वते तानि सर्वाणि त्रैलोक्यमिव केशवे ॥ ३८ ॥
मूलम्
सत्यं धृतिर्मतिः शौर्यं बाह्मं चास्त्रमनुत्तमम्।
सात्वते तानि सर्वाणि त्रैलोक्यमिव केशवे ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे भगवान् श्रीकृष्णमें तीनों लोक स्थित हैं, उसी प्रकार सात्वतवंशी सात्यकिमें सत्य, धैर्य, बुद्धि, शौर्य तथा परम उत्तम ब्रह्मास्त्र विद्यमान हैं॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमेवंगुणसम्पन्नं दुर्वारमपि दैवतैः ।
समासाद्य महेष्वासं के शूराः पर्यवारयन् ॥ ३९ ॥
मूलम्
तमेवंगुणसम्पन्नं दुर्वारमपि दैवतैः ।
समासाद्य महेष्वासं के शूराः पर्यवारयन् ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार सर्वसद्गुणसम्पन्न महाधनुर्धर सात्यकिको रोकना देवताओंके लिये भी अत्यन्त कठिन है। उनके पास पहुँचकर किन शूरवीरोंने उन्हें आगे बढ़नेसे रोका?॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पञ्चालेषूत्तमं वीरमुत्तमाभिजनप्रियम् ।
नित्यमुत्तमकर्माणमुत्तमौजसमाहवे ॥ ४० ॥
युक्तं धनंजयहिते समानर्थार्थमुत्थितम् ।
यमवैश्रवणादित्यमहेन्द्रवरुणोपमम् ॥ ४१ ॥
महारथं समाख्यातं द्रोणायोद्यतमाहवे ।
त्यजन्तं तुमुले प्राणान् के शूराः समवारयन् ॥ ४२ ॥
मूलम्
पञ्चालेषूत्तमं वीरमुत्तमाभिजनप्रियम् ।
नित्यमुत्तमकर्माणमुत्तमौजसमाहवे ॥ ४० ॥
युक्तं धनंजयहिते समानर्थार्थमुत्थितम् ।
यमवैश्रवणादित्यमहेन्द्रवरुणोपमम् ॥ ४१ ॥
महारथं समाख्यातं द्रोणायोद्यतमाहवे ।
त्यजन्तं तुमुले प्राणान् के शूराः समवारयन् ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पांचालोंमें उत्तम, श्रेष्ठ कुल एवं ख्यातिके प्रेमी, सदा सत्कर्म करनेवाले, संग्राममें उत्तम आत्मबलका परिचय देनेवाले, अर्जुनके हितसाधनमें तत्पर, मेरा अनर्थ करनेके लिये उद्यत रहनेवाले, यमराज, कुबेर, सूर्य, इन्द्र और वरुणके समान तेजस्वी, विख्यात महारथी तथा भयंकर युद्धमें अपने प्राणोंको निछावर करके द्रोणाचार्यसे भिड़नेके लिये सदा तैयार रहनेवाले वीर धृष्टद्युम्नको किन शूरवीरोंने रोका?॥४०—४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकोऽपसृत्य चेदिभ्यः पाण्डवान् यः समाश्रितः।
धृष्टकेतुं समायान्तं द्रोणं कस्तं न्यवारयत् ॥ ४३ ॥
मूलम्
एकोऽपसृत्य चेदिभ्यः पाण्डवान् यः समाश्रितः।
धृष्टकेतुं समायान्तं द्रोणं कस्तं न्यवारयत् ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसने अकेले ही चेदिदेशसे आकर पाण्डव-पक्षका आश्रय लिया है, उस धृष्टकेतुको द्रोणके पास आनेसे किसने रोका?॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
योऽवधीत् केतुमान् वीरो राजपुत्रं दुरासदम्।
अपरान्तगिरिद्वारे द्रोणात् कस्तं न्यवारयत् ॥ ४४ ॥
मूलम्
योऽवधीत् केतुमान् वीरो राजपुत्रं दुरासदम्।
अपरान्तगिरिद्वारे द्रोणात् कस्तं न्यवारयत् ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस वीरने अपरान्त पर्वतके द्वारदेशमें स्थित दुर्जय राजकुमारका वध किया, उस केतुमान्को द्रोणाचार्यके पास आनेसे किसने रोका?॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्त्रीपुंसयोर्नरव्याघ्रो यः स वेद गुणागुणान्।
शिखण्डिनं याज्ञसेनिमम्लानमनसं युधि ॥ ४५ ॥
देवव्रतस्य समरे हेतुं मृत्योर्महात्मनः।
द्रोणायाभिमुखं यान्तं के शूराः पर्यवारयन् ॥ ४६ ॥
मूलम्
स्त्रीपुंसयोर्नरव्याघ्रो यः स वेद गुणागुणान्।
शिखण्डिनं याज्ञसेनिमम्लानमनसं युधि ॥ ४५ ॥
देवव्रतस्य समरे हेतुं मृत्योर्महात्मनः।
द्रोणायाभिमुखं यान्तं के शूराः पर्यवारयन् ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो पुरुषसिंह स्त्री और पुरुष दोनों शरीरोंके गुण-अवगुणको अपने अनुभवद्वारा जानता है, युद्धस्थलमें जिसका मन कभी म्लान (उत्साहशून्य) नहीं होता, जो समरांगणमें महात्मा भीष्मकी मृत्युमें हेतु बन चुका है, उस द्रुपदपुत्र शिखण्डीको द्रोणाचार्यके सम्मुख आनेसे किन वीरोंने रोका था?॥४५-४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्मिन्नभ्यधिका वीरे गुणाः सर्वे धनंजयात्।
यस्मिन्नस्त्राणि सत्यं च ब्रह्मचर्यं च सर्वदा ॥ ४७ ॥
वासुदेवसमं वीर्ये धनंजयसमं बले।
तेजसाऽऽदित्यसदृशं बृहस्पतिसमं मतौ ॥ ४८ ॥
अभिमन्युं महात्मानं व्यात्ताननमिवान्तकम् ।
द्रोणायाभिमुखं यान्तं के शूराः समवारयन् ॥ ४९ ॥
मूलम्
यस्मिन्नभ्यधिका वीरे गुणाः सर्वे धनंजयात्।
यस्मिन्नस्त्राणि सत्यं च ब्रह्मचर्यं च सर्वदा ॥ ४७ ॥
वासुदेवसमं वीर्ये धनंजयसमं बले।
तेजसाऽऽदित्यसदृशं बृहस्पतिसमं मतौ ॥ ४८ ॥
अभिमन्युं महात्मानं व्यात्ताननमिवान्तकम् ।
द्रोणायाभिमुखं यान्तं के शूराः समवारयन् ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस वीरमें अर्जुनसे भी अधिक मात्रामें समस्त गुण मौजूद हैं, जिसमें अस्त्र, सत्य तथा ब्रह्मचर्य सदा प्रतिष्ठित हैं, जो पराक्रममें भगवान् श्रीकृष्ण, बलमें अर्जुन, तेजमें सूर्य और बुद्धिमें बृहस्पतिके समान है, वह महामना अभिमन्यु जब मुँह फैलाये हुए कालके समान द्रोणाचार्यके सम्मुख जा रहा था, उस समय किन शूरवीरोंने उसे रोका था?॥४७—४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तरुणस्तरुणप्रज्ञः सौभद्रः परवीरहा ।
यदाभ्यधावद् वै द्रोणं तदाऽऽसीद् वो मनः कथम् ॥ ५० ॥
मूलम्
तरुणस्तरुणप्रज्ञः सौभद्रः परवीरहा ।
यदाभ्यधावद् वै द्रोणं तदाऽऽसीद् वो मनः कथम् ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तरुण अवस्था और तरुण बुद्धिवाले शत्रुवीरोंके हन्ता सुभद्राकुमारने जब द्रोणाचार्यपर धावा किया था, उस समय तुमलोगोंका मन कैसा हो रहा था?॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रौपदेया नरव्याघ्राः समुद्रमिव सिन्धवः।
यद् द्रोणमाद्रवन् संख्ये के शूरास्तान् न्यवारयन् ॥ ५१ ॥
मूलम्
द्रौपदेया नरव्याघ्राः समुद्रमिव सिन्धवः।
यद् द्रोणमाद्रवन् संख्ये के शूरास्तान् न्यवारयन् ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरुषसिंह द्रौपदीकुमार समुद्रकी ओर जानेवाली नदियोंकी भाँति जब द्रोणाचार्यपर धावा कर रहे थे, उस समय युद्धमें किन शूरवीरोंने उनको रोका था?॥५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एते द्वादश वर्षाणि क्रीडामुत्सृज्य बालकाः।
अस्त्रार्थमवसन् भीष्मे बिभ्रतो व्रतमुत्तमम् ॥ ५२ ॥
मूलम्
एते द्वादश वर्षाणि क्रीडामुत्सृज्य बालकाः।
अस्त्रार्थमवसन् भीष्मे बिभ्रतो व्रतमुत्तमम् ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन द्रौपदीकुमारोंने बारह वर्षोंतक खेल-कूद छोड़कर अस्त्रोंकी शिक्षा पानेके लिये उत्तम ब्रह्मचर्य व्रतका पालन करते हुए भीष्मके समीप निवास किया था॥५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षत्रंजयः क्षत्रदेवः क्षत्रवर्मा च मानदः।
धृष्टद्युम्नात्मजा वीराः के तान् द्रोणादवारयन् ॥ ५३ ॥
मूलम्
क्षत्रंजयः क्षत्रदेवः क्षत्रवर्मा च मानदः।
धृष्टद्युम्नात्मजा वीराः के तान् द्रोणादवारयन् ॥ ५३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्षत्रंजय, क्षत्रदेव तथा दूसरोंको मान देनेवाले क्षत्रवर्मा—ये धृष्टद्युम्नके तीन वीर पुत्र हैं। उन्हें द्रोणके पास आनेसे किन वीरोंने रोका था?॥५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शताद् विशिष्टं यं युद्धे सममन्यन्त वृष्णयः।
चेकितानं महेष्वासं कस्तं द्रोणादवारयत् ॥ ५४ ॥
मूलम्
शताद् विशिष्टं यं युद्धे सममन्यन्त वृष्णयः।
चेकितानं महेष्वासं कस्तं द्रोणादवारयत् ॥ ५४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिन्हें युद्धके मैदानमें वृष्णिवंशियोंने सौ वीरोंसे भी अधिक माना है, उन महाधनुर्धर चेकितानको द्रोणके पास आनेसे किसने रोका?॥५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वार्धक्षेमिः कलिङ्गानां यः कन्यामाहरद् युधि।
अनाधृष्टिरदीनात्मा कस्तं द्रोणादवारयत् ॥ ५५ ॥
मूलम्
वार्धक्षेमिः कलिङ्गानां यः कन्यामाहरद् युधि।
अनाधृष्टिरदीनात्मा कस्तं द्रोणादवारयत् ॥ ५५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वृद्धक्षेमके पुत्र उदारचित्त अनाधृष्टिने युद्धस्थलमें कलिंगराजकी कन्याका अपहरण किया था। उन्हें द्रोणके पास आनेसे किसने रोका?॥५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भ्रातरः पञ्च कैकेया धार्मिकाः सत्यविक्रमाः।
इन्द्रगोपकसंकाशा रक्तवर्मायुधध्वजाः ॥ ५६ ॥
मातृष्वसुः सुता वीराः पाण्डवानां जयार्थिनः।
तान् द्रोणं हन्तुमायातान् के वीराः पर्यवारयन् ॥ ५७ ॥
मूलम्
भ्रातरः पञ्च कैकेया धार्मिकाः सत्यविक्रमाः।
इन्द्रगोपकसंकाशा रक्तवर्मायुधध्वजाः ॥ ५६ ॥
मातृष्वसुः सुता वीराः पाण्डवानां जयार्थिनः।
तान् द्रोणं हन्तुमायातान् के वीराः पर्यवारयन् ॥ ५७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
केकय देशके सत्यपराक्रमी, धर्मात्मा पाँच वीर राजकुमार लाल रंगके कवच, आयुध और ध्वज धारण करनेवाले हैं तथा उनके शरीरकी कान्ति भी इन्द्रगोपके समान लाल रंगकी ही है; वे पाण्डवोंकी मौसीके बेटे हैं। वे जब पाण्डवोंकी विजयके लिये द्रोणाचार्यको मारनेके लिये उनपर चढ़ आये, उस समय किन वीरोंने उन्हें रोका था?॥५६-५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यं योधयन्तो राजानो नाजयन् वारणावते।
षण्मासानपि संरब्धा जिघांसन्तो युधाम्पतिम् ॥ ५८ ॥
धनुष्मतां वरं शूरं सत्यसंधं महाबलम्।
द्रोणात् कस्तं नरव्याघ्रं युयुत्सुं पर्यवारयत् ॥ ५९ ॥
मूलम्
यं योधयन्तो राजानो नाजयन् वारणावते।
षण्मासानपि संरब्धा जिघांसन्तो युधाम्पतिम् ॥ ५८ ॥
धनुष्मतां वरं शूरं सत्यसंधं महाबलम्।
द्रोणात् कस्तं नरव्याघ्रं युयुत्सुं पर्यवारयत् ॥ ५९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वारणावत नगरमें सब राजालोग मार डालनेकी इच्छासे क्रोधमें भरकर छः महीनोंतक युद्ध करते रहनेपर भी योद्धाओंमें श्रेष्ठ जिस वीरको परास्त न कर सके, धनुर्धरोंमें उत्तम, शौर्यसम्पन्न, सत्यप्रतिज्ञ, महाबली, उस पुरुषसिंह युयुत्सुको द्रोणाचार्यके पास आनेसे किसने रोका?॥५८-५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यः पुत्रं काशिराजस्य वाराणस्यां महारथम्।
समरे स्त्रीषु गृध्यन्तं भल्लेनापाहरद् रथात् ॥ ६० ॥
धृष्टद्युम्नं महेष्वासं पार्थानां मन्त्रधारिणम्।
युक्तं दुर्योधनानर्थे सृष्टं द्रोणवधाय च ॥ ६१ ॥
निर्दहन्तं रणे योधान् दारयन्तं च सर्वतः।
द्रोणाभिमुखमायान्तं के शूराः पर्यवारयन् ॥ ६२ ॥
मूलम्
यः पुत्रं काशिराजस्य वाराणस्यां महारथम्।
समरे स्त्रीषु गृध्यन्तं भल्लेनापाहरद् रथात् ॥ ६० ॥
धृष्टद्युम्नं महेष्वासं पार्थानां मन्त्रधारिणम्।
युक्तं दुर्योधनानर्थे सृष्टं द्रोणवधाय च ॥ ६१ ॥
निर्दहन्तं रणे योधान् दारयन्तं च सर्वतः।
द्रोणाभिमुखमायान्तं के शूराः पर्यवारयन् ॥ ६२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसने काशीपुरीमें काशिराजके महारथी पुत्रको, जो स्त्रियोंके प्रति आसक्त था, समरभूमिमें भल्ल नामक बाणद्वारा रथसे मार गिराया; जो कुन्तीकुमारोंकी गुप्त मन्त्रणाको सुरक्षित रखनेवाला तथा दुर्योधनका अनर्थ करनेके लिये उद्यत रहनेवाला है तथा जिसकी उत्पत्ति द्रोणाचार्यके वधके लिये हुई है; वह महाधनुर्धर धृष्टद्युम्न जब रणक्षेत्रमें योद्धाओंको अपने बाणोंकी अग्निसे चलाता और सब ओरसे सारी सेनाको विदीर्ण करता हुआ द्रोणाचार्यके सम्मुख आ रहा था, उस समय किन शूरवीरोंने उसे रोका था?॥६०—६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्सङ्ग इव संवृद्धं द्रुपदस्यास्त्रवित्तमम्।
शैखण्डिनं शस्त्रगुप्तं के च द्रोणादवारयन् ॥ ६३ ॥
मूलम्
उत्सङ्ग इव संवृद्धं द्रुपदस्यास्त्रवित्तमम्।
शैखण्डिनं शस्त्रगुप्तं के च द्रोणादवारयन् ॥ ६३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो द्रुपटकी गोदमें पला हुआ था और शस्त्रोंद्वारा सुरक्षित था, अस्त्रवेत्ताओंमें श्रेष्ठ उस शिखण्डीपुत्रको द्रोणाचार्यके पास आनेसे किन वीरोंने रोका?॥६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
य इमां पृथिवीं कृत्स्नां चर्मवत् समवेष्टयत्।
महता रथघोषेण मुख्यारिघ्नो महारथः ॥ ६४ ॥
दशाश्वमेधानाजह्रे स्वन्नपानाप्तदक्षिणान् ।
निरर्गलान् सर्वमेधान् पुत्रवत् पालयन् प्रजाः ॥ ६५ ॥
गङ्गास्रोतसि यावत्यः सिकता अप्यशेषतः।
तावतीर्गा ददौ वीर उशीनरसुतोऽध्वरे ॥ ६६ ॥
मूलम्
य इमां पृथिवीं कृत्स्नां चर्मवत् समवेष्टयत्।
महता रथघोषेण मुख्यारिघ्नो महारथः ॥ ६४ ॥
दशाश्वमेधानाजह्रे स्वन्नपानाप्तदक्षिणान् ।
निरर्गलान् सर्वमेधान् पुत्रवत् पालयन् प्रजाः ॥ ६५ ॥
गङ्गास्रोतसि यावत्यः सिकता अप्यशेषतः।
तावतीर्गा ददौ वीर उशीनरसुतोऽध्वरे ॥ ६६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे चमड़ेको अंगोमें लपेट लिया जाता है, उसी प्रकार जिन्होंने अपने रथके महान् घोषद्वारा इस सारी पृथ्वीको व्याप्त कर लिया था, जो प्रधान-प्रधान शत्रुओंका वध करनेवाले और महारथी वीर थे, जिन्होंने प्रजाका पुत्रकी भाँति पालन करते हुए सुन्दर अन्न, पान तथा प्रचुर दक्षिणासे युक्त एवं विघ्नरहित दस अश्वमेध-यज्ञोंका अनुष्ठान किया और कितने ही सर्वमेध-यज्ञ सम्पन्न किये, वे राजा उशीनरके वीर पुत्र सर्वत्र विख्यात हैं, गंगाजीके स्रोतमें जितने सिकताकण बहते हैं, उतनी ही अर्थात् असंख्य गौएँ उशीनरकुमारने अपने यज्ञमें ब्राह्मणोंको दी थीं॥६४—६६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न पूर्वे नापरे चक्रुरिदं केचन मानवाः।
इतीदं चुक्रुशुर्देवाः कृते कर्मणि दुष्करे ॥ ६७ ॥
मूलम्
न पूर्वे नापरे चक्रुरिदं केचन मानवाः।
इतीदं चुक्रुशुर्देवाः कृते कर्मणि दुष्करे ॥ ६७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा जब उस दुष्कर यज्ञका अनुष्ठान पूर्ण कर चुके, तब सम्पूर्ण देवताओंने यह पुकार-पुकारकर कहा कि ‘ऐसा यज्ञ पहलेके और बादके भी मनुष्योंने कभी नहीं किया था’॥६७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पश्यामस्त्रिषु लोकेषु न तं संस्थास्नुचारिषु।
जातं चापि जनिष्यन्तं द्वितीयं चापि साम्प्रतम् ॥ ६८ ॥
अन्यमौशीनराच्छैब्याद् धुरो वोढारमित्युत ।
गतिं यस्य न यास्यन्ति मानुषा लोकवासिनः ॥ ६९ ॥
मूलम्
पश्यामस्त्रिषु लोकेषु न तं संस्थास्नुचारिषु।
जातं चापि जनिष्यन्तं द्वितीयं चापि साम्प्रतम् ॥ ६८ ॥
अन्यमौशीनराच्छैब्याद् धुरो वोढारमित्युत ।
गतिं यस्य न यास्यन्ति मानुषा लोकवासिनः ॥ ६९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्थावर-जंगमरूप तीनों लोकोंमें एकमात्र उशीनरपौत्र शैब्यको छोड़कर दूसरे किसी ऐसे राजाको न तो हम इस समय उत्पन्न हुआ देखते हैं और न भविष्यमें किसीके उत्पन्न होनेका लक्षण ही देख पाते हैं, जो इस महान् भारको वहन करनेवाला हो। इस मर्त्यलोकके निवासी मनुष्य उनकी गतिको नहीं पा सकेंगे॥६८-६९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य नप्तारमायान्तं शैब्यं कः समवारयत्।
द्रोणायाभिमुखं यत्तं व्यात्ताननमिवान्तकम् ॥ ७० ॥
मूलम्
तस्य नप्तारमायान्तं शैब्यं कः समवारयत्।
द्रोणायाभिमुखं यत्तं व्यात्ताननमिवान्तकम् ॥ ७० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्हीं उशीनरका पौत्र शैब्य सावधान हो जब द्रोणाचार्यके सम्मुख आ रहा था, उस समय मुँह फैलाये हुए कालके समान उस वीरको किसने रोका?॥७०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विराटस्य रथानीकं मत्स्यस्यामित्रघातिनः ।
प्रेप्सन्तं समरे द्रोणं के वीराः पर्यवारयन् ॥ ७१ ॥
मूलम्
विराटस्य रथानीकं मत्स्यस्यामित्रघातिनः ।
प्रेप्सन्तं समरे द्रोणं के वीराः पर्यवारयन् ॥ ७१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुघाती मत्स्यराज विराटकी रथसेनाको, जो द्रोणाचार्यको नष्ट करनेकी इच्छासे खोजती हुई आ रही थी, किन वीरोंने रोका था?॥७१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सद्यो वृकोदराज्जातो महाबलपराक्रमः ।
मायावी राक्षसो वीरो यस्मान्मम महद् भयम् ॥ ७२ ॥
पार्थानां जयकामं तं पुत्राणां मम कण्टकम्।
घटोत्कचं महात्मानं कस्तं द्रोणादवारयत् ॥ ७३ ॥
मूलम्
सद्यो वृकोदराज्जातो महाबलपराक्रमः ।
मायावी राक्षसो वीरो यस्मान्मम महद् भयम् ॥ ७२ ॥
पार्थानां जयकामं तं पुत्राणां मम कण्टकम्।
घटोत्कचं महात्मानं कस्तं द्रोणादवारयत् ॥ ७३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो भीमसेनसे तत्काल प्रकट हुआ तथा जिससे मुझे महान् भय बना रहता है, वह महान् बल और पराक्रमसे सम्पन्न मायावी राक्षस वीर घटोत्कच कुन्तीकुमारोंकी विजय चाहता है और मेरे पुत्रोंके लिये कंटक बना हुआ है, उस महाकाय घटोत्कचको द्रोणाचार्यके पास आनेसे किसने रोका?॥७२-७३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एते चान्ये च बहवो येषामर्थाय संजय।
त्यक्तारः संयुगे प्राणान् किं तेषामजितं युधि ॥ ७४ ॥
मूलम्
एते चान्ये च बहवो येषामर्थाय संजय।
त्यक्तारः संयुगे प्राणान् किं तेषामजितं युधि ॥ ७४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय! ये तथा और भी बहुत-से वीर जिनके लिये युद्धमें प्राण त्याग करनेको तैयार हैं, उनके लिये कौन-सी ऐसी वस्तु होगी, जो जीती न जा सके॥७४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
येषां च पुरुषव्याघ्रः शार्ङ्गधन्वा व्यपाश्रयः।
हितार्थी चापि पार्थानां कथं तेषां पराजयः ॥ ७५ ॥
मूलम्
येषां च पुरुषव्याघ्रः शार्ङ्गधन्वा व्यपाश्रयः।
हितार्थी चापि पार्थानां कथं तेषां पराजयः ॥ ७५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शार्ङ्गधनुष धारण करनेवाले पुरुषसिंह भगवान् श्रीकृष्ण जिनके आश्रय तथा हित चाहनेवाले हैं, उन कुन्तीकुमारोंकी पराजय कैसे हो सकती है?॥७५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोकानां गुरुरत्यर्थं लोकनाथः सनातनः।
नारायणो रणे नाथो दिव्यो दिव्यात्मकः प्रभुः ॥ ७६ ॥
मूलम्
लोकानां गुरुरत्यर्थं लोकनाथः सनातनः।
नारायणो रणे नाथो दिव्यो दिव्यात्मकः प्रभुः ॥ ७६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्ण सम्पूर्ण जगत्के परम गुरु हैं, समस्त लोकोंके सनातन स्वामी हैं, संग्रामभूमिमें सबकी रक्षा करनेवाले दिव्य स्वरूप, सामर्थ्यशाली, दिव्य नारायण हैं॥७६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्य दिव्यानि कर्माणि प्रवदन्ति मनीषिणः।
तान्यहं कीर्तयिष्यामि भक्त्या स्थैर्यार्थमात्मनः ॥ ७७ ॥
मूलम्
यस्य दिव्यानि कर्माणि प्रवदन्ति मनीषिणः।
तान्यहं कीर्तयिष्यामि भक्त्या स्थैर्यार्थमात्मनः ॥ ७७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनीषी पुरुष जिनके दिव्य कर्मोंका वर्णन करते हैं, मैं उन्हीं भगवान् श्रीकृष्णकी लीलाओंका अपने मनकी स्थिरताके लिये भक्तिपूर्वक वर्णन करूँगा॥७७॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि द्रोणाभिषेकपर्वणि धृतराष्ट्रवाक्ये दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत द्रोणाभिषेकपर्वमें धृतराष्ट्रवाक्यविषयक दसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१०॥