भागसूचना
षष्ठोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
दुर्योधनका द्रोणाचार्यसे सेनापति होनेके लिये प्रार्थना करना
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्णस्य वचनं श्रुत्वा राजा दुर्योधनस्तदा।
सेनामध्यगतं द्रोणमिदं वचनमब्रवीत् ॥ १ ॥
मूलम्
कर्णस्य वचनं श्रुत्वा राजा दुर्योधनस्तदा।
सेनामध्यगतं द्रोणमिदं वचनमब्रवीत् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— राजन्! कर्णका यह कथन सुनकर उस समय राजा दुर्योधनने सेनाके मध्यभागमें स्थित हुए आचार्य द्रोणसे इस प्रकार कहा॥१॥
मूलम् (वचनम्)
दुर्योधन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
वर्णश्रैष्ठ्यात् कुलोत्पत्त्या श्रुतेन वयसा धिया।
वीर्याद् दाक्ष्यादधृष्यत्वादर्थज्ञानान्नयाज्जयात् ॥ २ ॥
तपसा च कृतज्ञत्वाद् वृद्धः सर्वगुणैरपि।
युक्तो भवत्समो गोप्ता राज्ञामन्यो न विद्यते ॥ ३ ॥
स भवान् पातु नः सर्वान् देवानिव शतक्रतुः।
भवन्नेत्राः पसञ्जेतुमिच्छामो द्विजसत्तम ॥ ४ ॥
मूलम्
वर्णश्रैष्ठ्यात् कुलोत्पत्त्या श्रुतेन वयसा धिया।
वीर्याद् दाक्ष्यादधृष्यत्वादर्थज्ञानान्नयाज्जयात् ॥ २ ॥
तपसा च कृतज्ञत्वाद् वृद्धः सर्वगुणैरपि।
युक्तो भवत्समो गोप्ता राज्ञामन्यो न विद्यते ॥ ३ ॥
स भवान् पातु नः सर्वान् देवानिव शतक्रतुः।
भवन्नेत्राः पसञ्जेतुमिच्छामो द्विजसत्तम ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुर्योधन बोला— द्विजश्रेष्ठ! आप उत्तम वर्ण, श्रेष्ठ कुलमें जन्म, शास्त्रज्ञान, अवस्था, बुद्धि, पराक्रम, युद्धकौशल, अजेयता, अर्थज्ञान, नीति, विजय, तपस्या तथा कृतज्ञता आदि समस्त गुणोंके द्वारा सबसे बढ़े-चढ़े हैं। आपके समान योग्य संरक्षक इन राजाओंमें भी दूसरा नहीं है। अतः जैसे इन्द्र सम्पूर्ण देवताओंकी रक्षा करते हैं, उसी प्रकार आप हमलोगोंकी रक्षा करें। हम आपके नेतृत्वमें रहकर शत्रुओंपर विजय पाना चाहते हैं॥२—४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रुद्राणामिव कापाली वसूनामिव पावकः।
कुबेर इव यक्षाणां मरुतामिव वासवः ॥ ५ ॥
वसिष्ठ इव विप्राणां तेजसामिव भास्करः।
पितॄणामिव धर्मेन्द्रो यादसामिव चाम्बुराट् ॥ ६ ॥
नक्षत्राणामिव शशी दितिजानामिवोशनाः ।
श्रेष्ठः सेनाप्रणेतॄणां स नः सेनापतिर्भव ॥ ७ ॥
मूलम्
रुद्राणामिव कापाली वसूनामिव पावकः।
कुबेर इव यक्षाणां मरुतामिव वासवः ॥ ५ ॥
वसिष्ठ इव विप्राणां तेजसामिव भास्करः।
पितॄणामिव धर्मेन्द्रो यादसामिव चाम्बुराट् ॥ ६ ॥
नक्षत्राणामिव शशी दितिजानामिवोशनाः ।
श्रेष्ठः सेनाप्रणेतॄणां स नः सेनापतिर्भव ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रुद्रोंमें शंकर, वसुओंमें पावक, यक्षोंमें कुबेर, देवताओंमें इन्द्र, ब्राह्मणोंमें वसिष्ठ, तेजोमय पदार्थोंमें भगवान् सूर्य, पितरोंमें धर्मराज, जलचरोंमें वरुणदेव, नक्षत्रोंमें चन्द्रमा और दैत्योंमें शुक्राचार्यके समान आप समस्त सेनानायकोंमें श्रेष्ठ हैं; अतः हमारे सेनापति होइये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अक्षौहिण्यो दशैका च वशगाः सन्तु तेऽनघ।
ताभिः शत्रून् प्रतिव्यूह्य जहीन्द्रो दानवानिव ॥ ८ ॥
मूलम्
अक्षौहिण्यो दशैका च वशगाः सन्तु तेऽनघ।
ताभिः शत्रून् प्रतिव्यूह्य जहीन्द्रो दानवानिव ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अनघ! मेरी ग्यारह अक्षौहिणी सेनाएँ आपके अधीन रहें। उन सबके द्वारा शत्रुओंके मुकाबलेमें व्यूह बनाकर आप मेरे विरोधियोंका उसी प्रकार नाश कीजिये, जैसे इन्द्र दैत्योंका नाश करते हैं॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रयातु नो भवानग्रे देवानामिव पावकिः।
अनुयास्यामहे त्वाजौ सौरभेया इवर्षभम् ॥ ९ ॥
मूलम्
प्रयातु नो भवानग्रे देवानामिव पावकिः।
अनुयास्यामहे त्वाजौ सौरभेया इवर्षभम् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे कार्तिकेय देवताओंके आगे चलते हैं, उसी प्रकार आप हमलोगोंके आगे चलिये। जैसे बछड़े साँड़के पीछे चलते हैं, उसी प्रकार युद्धमें हम सब लोग आपके पीछे चलेंगे॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उग्रधन्वा महेष्वासो दिव्यं विस्फारयन् धनुः।
अग्रेभवं त्वां तु दृष्ट्वा नार्जुनः प्रहरिष्यति ॥ १० ॥
मूलम्
उग्रधन्वा महेष्वासो दिव्यं विस्फारयन् धनुः।
अग्रेभवं त्वां तु दृष्ट्वा नार्जुनः प्रहरिष्यति ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपको अग्रगामी सेनापतिके रूपमें देखकर भयंकर धनुष धारण करनेवाले महाधनुर्धर अर्जुन अपने दिव्य धनुषकी टंकार फैलाते हुए भी प्रहार नहीं करेंगे॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ध्रुवं युधिष्ठिरं संख्ये सानुबन्धं सबान्धवम्।
जेष्यामि पुरुषव्याघ्र भवान् सेनापतिर्यदि ॥ ११ ॥
मूलम्
ध्रुवं युधिष्ठिरं संख्ये सानुबन्धं सबान्धवम्।
जेष्यामि पुरुषव्याघ्र भवान् सेनापतिर्यदि ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरुषसिंह! यदि आप मेरे सेनापति हो जायँ तो मैं युद्धमें निश्चय ही भाइयों तथा सगे-सम्बन्धियोंसहित युधिष्ठिरको जीत लूँगा॥११॥
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्ते ततो द्रोणं जयेत्यूचुर्नराधिपाः।
सिंहनादेन महता हर्षयन्तस्तवात्मजम् ॥ १२ ॥
मूलम्
एवमुक्ते ततो द्रोणं जयेत्यूचुर्नराधिपाः।
सिंहनादेन महता हर्षयन्तस्तवात्मजम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— राजन्! दुर्योधनके ऐसा कहनेपर सब राजा अपने महान् सिंहनादसे आपके पुत्रका हर्ष बढ़ाते हुए द्रोणसे बोले—‘आचार्य! आपकी जय हो’॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सैनिकाश्च मुदा युक्ता वर्धयन्ति द्विजोत्तमम्।
दुर्योधनं पुरस्कृत्य प्रार्थयन्तो महद् यशः।
दुर्योधनं ततो राजन् द्रोणो वचनमब्रवीत् ॥ १३ ॥
मूलम्
सैनिकाश्च मुदा युक्ता वर्धयन्ति द्विजोत्तमम्।
दुर्योधनं पुरस्कृत्य प्रार्थयन्तो महद् यशः।
दुर्योधनं ततो राजन् द्रोणो वचनमब्रवीत् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दूसरे सैनिक भी प्रसन्न होकर दुर्योधनको आगे करके महान् यशकी अभिलाषा रखते हुए द्रोणाचार्यकी प्रशंसा करके उनका उत्साह बढ़ाने लगे। राजन्! उस समय द्रोणाचार्यने दुर्योधनसे कहा॥१३॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि द्रोणाभिषेकपर्वणि द्रोणप्रोत्साहने षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत द्रोणाभिषेकपर्वमें द्रोणको उत्साह-प्रदानविषयक छठा अध्याय पूरा हुआ॥६॥