००१ धृतराष्ट्रप्रश्ने

मूलम् (समाप्तिः)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

सूचना (हिन्दी)

श्रीमहाभारतम्

भागसूचना

द्रोणपर्व
द्रोणाभिषेकपर्व
प्रथमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

भीष्मजीके धराशायी होनेसे कौरवोंका शोक तथा उनके द्वारा कर्णका स्मरण

विश्वास-प्रस्तुतिः

नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत्॥

मूलम्

नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

अन्तर्यामी नारायणस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण, (उनके नित्य सखा) नरस्वरूप नरश्रेष्ठ अर्जुन, (उनकी लीला प्रकट करनेवाली) भगवती सरस्वती और (उन लीलाओंका संकलन करनेवाले) महर्षि वेदव्यासको नमस्कार करके जय (महाभारत)-का पाठ करना चाहिये।

मूलम् (वचनम्)

जनमेजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमप्रतिमसत्त्वौजोबलवीर्यसमन्वितम् ।
हतं देवव्रतं श्रुत्वा पाञ्चाल्येन शिखण्डिना ॥ १ ॥
धृतराष्ट्रस्ततो राजा शोकव्याकुललोचनः ।
किमचेष्टत विप्रर्षे हते पितरि वीर्यवान् ॥ २ ॥

मूलम्

तमप्रतिमसत्त्वौजोबलवीर्यसमन्वितम् ।
हतं देवव्रतं श्रुत्वा पाञ्चाल्येन शिखण्डिना ॥ १ ॥
धृतराष्ट्रस्ततो राजा शोकव्याकुललोचनः ।
किमचेष्टत विप्रर्षे हते पितरि वीर्यवान् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनमेजयने पूछा— ब्रह्मन्! अनुपम सत्त्व, ओज, बल और पराक्रमसे सम्पन्न देवव्रत भीष्मको पांचालराज शिखण्डीके हाथसे मारा गया सुनकर राजा धृतराष्ट्रके नेत्र शोकसे व्याकुल हो उठे होंगे। ब्रह्मर्षे! अपने ज्येष्ठ पिताके मारे जानेपर पराक्रमी धृतराष्ट्रने कैसी चेष्टा की?॥१-२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य पुत्रो हि भगवन् भीष्मद्रोणमुखै रथैः।
पराजित्य महेष्वासान् पाण्डवान् राज्यमिच्छति ॥ ३ ॥

मूलम्

तस्य पुत्रो हि भगवन् भीष्मद्रोणमुखै रथैः।
पराजित्य महेष्वासान् पाण्डवान् राज्यमिच्छति ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवन्! उनका पुत्र दुर्योधन भीष्म, द्रोण आदि महारथियोंके द्वारा महाधनुर्धर पाण्डवोंको पराजित करके स्वयं राज्य हथिया लेना चाहता था॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिन् हते तु भगवन् केतौ सर्वधनुष्मताम्।
यदचेष्टत कौरव्यस्तन्मे ब्रूहि तपोधन ॥ ४ ॥

मूलम्

तस्मिन् हते तु भगवन् केतौ सर्वधनुष्मताम्।
यदचेष्टत कौरव्यस्तन्मे ब्रूहि तपोधन ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवन्! तपोधन! सम्पूर्ण धनुर्धरोंके ध्वजस्वरूप भीष्मजीके मारे जानेपर कुरुवंशी दुर्योधनने जो प्रयत्न किया हो, वह सब मुझे बताइये॥४॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

निहतं पितरं श्रुत्वा धृतराष्ट्रो जनाधिपः।
लेभे न शान्तिं कौरव्यश्चिन्ताशोकपरायणः ॥ ५ ॥

मूलम्

निहतं पितरं श्रुत्वा धृतराष्ट्रो जनाधिपः।
लेभे न शान्तिं कौरव्यश्चिन्ताशोकपरायणः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजीने कहा— जनमेजय! ज्येष्ठ पिताको मारा गया सुनकर कुरुवंशी राजा धृतराष्ट्र चिन्ता और शोकमें डूब गये। उन्हें क्षणभरको भी शान्ति नहीं मिल रही थी॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य चिन्तयतो दुःखमनिशं पार्थिवस्य तत्।
आजगाम विशुद्धात्मा पुनर्गावल्गणिस्तदा ॥ ६ ॥

मूलम्

तस्य चिन्तयतो दुःखमनिशं पार्थिवस्य तत्।
आजगाम विशुद्धात्मा पुनर्गावल्गणिस्तदा ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे भूपाल निरन्तर उस दुःखदायिनी घटनाका ही चिन्तन करते रहे। उसी समय विशुद्ध अन्तःकरणवाला गवल्गणपुत्र संजय पुनः उनके पास आया॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शिबिरात् संजयं प्राप्तं निशि नागाह्वयं पुरम्।
आम्बिकेयो महाराज धृतराष्ट्रोऽन्वपृच्छत ॥ ७ ॥

मूलम्

शिबिरात् संजयं प्राप्तं निशि नागाह्वयं पुरम्।
आम्बिकेयो महाराज धृतराष्ट्रोऽन्वपृच्छत ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! रातके समय कुरुक्षेत्रके शिविरसे हस्तिनापुरमें आये हुए संजयसे अम्बिकानन्दन धृतराष्ट्रने वहाँका समाचार पूछा॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुत्वा भीष्मस्य निधनमप्रहृष्टमना भृशम्।
पुत्राणां जयमाकाङ्‌क्षन् विललापातुरो यथा ॥ ८ ॥

मूलम्

श्रुत्वा भीष्मस्य निधनमप्रहृष्टमना भृशम्।
पुत्राणां जयमाकाङ्‌क्षन् विललापातुरो यथा ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मकी मृत्युका वृत्तान्त सुनकर उनका मन सर्वथा अप्रसन्न एवं उत्साहशून्य हो गया था। वे अपने पुत्रोंकी विजय चाहते हुए आतुरकी भाँति विलाप कर रहे थे॥

मूलम् (वचनम्)

धृतराष्ट्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

संशोच्य तु महात्मानं भीष्मं भीमपराक्रमम्।
किमकार्षुः परं तात कुरवः कालचोदिताः ॥ ९ ॥

मूलम्

संशोच्य तु महात्मानं भीष्मं भीमपराक्रमम्।
किमकार्षुः परं तात कुरवः कालचोदिताः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्रने पूछा— तात! संजय! भयंकर पराक्रमी महात्मा भीष्मके लिये अत्यन्त शोक करके कालप्रेरित कौरवोंने आगे कौन-सा कार्य किया॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिन् विनिहते शूरे दुराधर्षे महात्मनि।
किं नु स्वित्‌ कुरवोऽकार्षुर्निमग्नाः शोकसागरे ॥ १० ॥

मूलम्

तस्मिन् विनिहते शूरे दुराधर्षे महात्मनि।
किं नु स्वित्‌ कुरवोऽकार्षुर्निमग्नाः शोकसागरे ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन दुर्धर्ष वीर महात्मा भीष्मके मारे जानेपर तो समस्त कुरुवंशी शोकके समुद्रमें डूब गये होंगे; फिर उन्होंने कौन-सा कार्य किया?॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदुदीर्णं महत् सैन्यं त्रैलोक्यस्यापि संजय।
भयमुत्पादयेत् तीव्रं पाण्डवानां महात्मनाम् ॥ ११ ॥

मूलम्

तदुदीर्णं महत् सैन्यं त्रैलोक्यस्यापि संजय।
भयमुत्पादयेत् तीव्रं पाण्डवानां महात्मनाम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय! महात्मा पाण्डवोंकी वह विशाल एवं प्रचण्ड सेना तो तीनों लोकोंके हृदयमें तीव्र भय उत्पन्न कर सकती है॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

को हि दौर्योधने सैन्ये पुमानासीन्महारथः।
यं प्राप्य समरे वीरा न त्रस्यन्ति महाभये ॥ १२ ॥

मूलम्

को हि दौर्योधने सैन्ये पुमानासीन्महारथः।
यं प्राप्य समरे वीरा न त्रस्यन्ति महाभये ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस महान् भयके अवसरपर दुर्योधनकी सेनामें कौन ऐसा वीर महारथी पुरुष था, जिसका आश्रय पाकर समरांगणमें वीर कौरव भयभीत नहीं हुए हैं॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवव्रते तु निहते कुरूणामृषभे तदा।
किमकार्षुर्नृपतयस्तन्ममाचक्ष्व संजय ॥ १३ ॥

मूलम्

देवव्रते तु निहते कुरूणामृषभे तदा।
किमकार्षुर्नृपतयस्तन्ममाचक्ष्व संजय ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय! कुरुश्रेष्ठ देवव्रतके मारे जानेपर उस समय सब राजाओंने कौन-सा कार्य किया? यह मुझे बताओ॥

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

शृणु राजन्नेकमना वचनं ब्रुवतो मम।
यत् ते पुत्रास्तदाकार्षुर्हते देवव्रते मृधे ॥ १४ ॥

मूलम्

शृणु राजन्नेकमना वचनं ब्रुवतो मम।
यत् ते पुत्रास्तदाकार्षुर्हते देवव्रते मृधे ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजयने कहा— राजन्! उस युद्धमें देवव्रत भीष्मके मारे जानेपर उस समय आपके पुत्रोंने जो कार्य किया, वह सब मैं बता रहा हूँ। मेरे इस कथनको आप एकाग्रचित्त होकर सुनिये॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निहते तु तदा भीष्मं
राजन् सत्यपराक्रमे ।
तावकाः पाण्डवेयाश्च
प्राध्यायन्त पृथक् पृथक् ॥ १५ ॥

मूलम्

निहते तु तदा भीष्मं
राजन् सत्यपराक्रमे ।
तावकाः पाण्डवेयाश्च
प्राध्यायन्त पृथक् पृथक् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! जब सत्यपराक्रमी भीष्म मार दिये गये, उस समय आपके पुत्र और पाण्डव अलग-अलग चिन्ता करने लगे॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विस्मिताश्च प्रहृष्टाश्च
क्षत्रधर्मं निशम्य ते ।
स्वधर्मं निन्दमानास्ते
प्रणिपत्य महात्मने ॥ १६ ॥
शयनं कल्पयामासुर्भीष्मायामितकर्मणे ।
सोपधानं नरव्याघ्र शरैः संनतपर्वभिः ॥ १७ ॥

मूलम्

विस्मिताश्च प्रहृष्टाश्च
क्षत्रधर्मं निशम्य ते ।
स्वधर्मं निन्दमानास्ते
प्रणिपत्य महात्मने ॥ १६ ॥
शयनं कल्पयामासुर्भीष्मायामितकर्मणे ।
सोपधानं नरव्याघ्र शरैः संनतपर्वभिः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरुषसिंह! वे क्षत्रियधर्मका विचार करके अत्यन्त विस्मित और प्रसन्न हुए। फिर अपने कठोरतापूर्ण धर्मकी निन्दा करते हुए उन्होंने महात्मा भीष्मको प्रणाम किया और उन अमित पराक्रमी भीष्मके लिये झुकी हुई गाँठवाले बाणोंद्वारा तकिये और शय्याकी रचना की॥१६-१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विधाय रक्षां भीष्माय समाभाष्य परस्परम्।
अनुमान्य च गाङ्गेयं कृत्वा चापि प्रदक्षिणम् ॥ १८ ॥
क्रोधसंरक्तनयनाः समवेत्य परस्परम् ।
पुनर्युद्धाय निर्जग्मुः क्षत्रियाः कालचोदिताः ॥ १९ ॥

मूलम्

विधाय रक्षां भीष्माय समाभाष्य परस्परम्।
अनुमान्य च गाङ्गेयं कृत्वा चापि प्रदक्षिणम् ॥ १८ ॥
क्रोधसंरक्तनयनाः समवेत्य परस्परम् ।
पुनर्युद्धाय निर्जग्मुः क्षत्रियाः कालचोदिताः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार परस्पर वार्तालाप करके भीष्मजीकी रक्षाकी व्यवस्था कर दी और उन गंगानन्दन देवव्रतकी अनुमति ले उनकी परिक्रमा करके आपसमें मिलकर वे कालप्रेरित क्षत्रिय क्रोधसे लाल आँखें किये पुनः युद्धके लिये निकले॥१८-१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तूर्यनिनादैश्च भेरीणां निनदेन च।
तावकानामनीकानि परेषां च विनिर्ययुः ॥ २० ॥

मूलम्

ततस्तूर्यनिनादैश्च भेरीणां निनदेन च।
तावकानामनीकानि परेषां च विनिर्ययुः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर बाजोंकी ध्वनि और नगाड़ोंकी गड़गड़ाहटके साथ आपकी तथा पाण्डवोंकी भी सेनाएँ युद्धके लिये निकलीं॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्यावृत्तेऽर्यम्णि राजेन्द्र पतिते जाह्नवीसुते।
अमर्षवशमापन्नाः कालोपहतचेतसः ॥ २१ ॥
अनादृत्य वचः पथ्यं गाङ्गेयस्य महात्मनः।
निर्ययुर्भरतश्रेष्ठाः शस्त्राण्यादाय सत्वराः ॥ २२ ॥

मूलम्

व्यावृत्तेऽर्यम्णि राजेन्द्र पतिते जाह्नवीसुते।
अमर्षवशमापन्नाः कालोपहतचेतसः ॥ २१ ॥
अनादृत्य वचः पथ्यं गाङ्गेयस्य महात्मनः।
निर्ययुर्भरतश्रेष्ठाः शस्त्राण्यादाय सत्वराः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! जिस समय गंगानन्दन भीष्म रथसे गिरे थे, उस समय सूर्य पश्चिम दिशामें ढल चुके थे। यद्यपि महात्मा गंगानन्दन भीष्मने उन सबको युद्ध बंद कर देनेकी सलाह दी थी, तथापि कालसे विवेकशक्ति नष्ट हो जानेके कारण वे भरतश्रेष्ठ क्षत्रिय उनके हितकर वचनकी अवहेलना करके अमर्षके वशीभूत हो हाथोंमें अस्त्र-शस्त्र लिये तुरंत ही युद्धके लिये निकल पड़े॥२१-२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मोहात् तव सपुत्रस्य वधाच्छान्तनवस्य च।
कौरव्या मृत्युसाद्भूताः सहिताः सर्वराजभिः ॥ २३ ॥

मूलम्

मोहात् तव सपुत्रस्य वधाच्छान्तनवस्य च।
कौरव्या मृत्युसाद्भूताः सहिताः सर्वराजभिः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुत्रसहित आपके मोह (अविवेक)-से और शान्तनुनन्दन भीष्मका वध हो जानेसे समस्त राजाओंसहित सम्पूर्ण कुरुवंशी मृत्युके अधीन हो गये हैं॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अजावय इवागोपा वने श्वापदसंकुले।
भृशमुद्विग्नमनसो हीना देवव्रतेन ते ॥ २४ ॥

मूलम्

अजावय इवागोपा वने श्वापदसंकुले।
भृशमुद्विग्नमनसो हीना देवव्रतेन ते ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे हिंसक जन्तुओंसे भरे हुए वनमें बिना रक्षककी भेड़ और बकरियाँ भयसे उद्विग्न रहती हैं, उसी प्रकार आपके पुत्र और सैनिक देवव्रतसे रहित हो मन-ही-मन अत्यन्त उद्विग्न हो उठे थे॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पतिते भरतश्रेष्ठे बभूव कुरुवाहिनी।
द्यौरिवापेतनक्षत्रा हीनं खमिव वायुना ॥ २५ ॥
विपन्नसस्येव मही वाक् चैवासंस्कृता तथा।
आसुरीव यथा सेना निगृहीते नृपे बलौ ॥ २६ ॥

मूलम्

पतिते भरतश्रेष्ठे बभूव कुरुवाहिनी।
द्यौरिवापेतनक्षत्रा हीनं खमिव वायुना ॥ २५ ॥
विपन्नसस्येव मही वाक् चैवासंस्कृता तथा।
आसुरीव यथा सेना निगृहीते नृपे बलौ ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतशिरोमणि भीष्मके धराशायी हो जानेपर कौरव-सेना नक्षत्ररहित आकाश, वायुशून्य अन्तरिक्ष, नष्ट हुई खेतीवाली भूमि, असंस्कृत वाणी तथा राजा बलिके बाँध लिये जानेपर नायकविहीन हुई असुरोंकी सेनाके समान उद्विग्न, असमर्थ और श्रीहीन हो गयी॥२५-२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विधवेव वरारोहा शुष्कतोयेव निम्नगा।
वृकैरिव वने रुद्धा पृषती हतयूथपा ॥ २७ ॥
शरभाहतसिंहेव महती गिरिकन्दरा ।
भारती भरतश्रेष्ठे पतिते जाह्नवीसुते ॥ २८ ॥

मूलम्

विधवेव वरारोहा शुष्कतोयेव निम्नगा।
वृकैरिव वने रुद्धा पृषती हतयूथपा ॥ २७ ॥
शरभाहतसिंहेव महती गिरिकन्दरा ।
भारती भरतश्रेष्ठे पतिते जाह्नवीसुते ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गंगानन्दन भरतश्रेष्ठ भीष्मके धराशायी होनेपर भरत-वंशियोंकी सेना विधवा सुन्दरीके समान, जिसका पानी सूख गया हो, उस नदीके समान, जिसे भेड़ियोंने वनमें घेर रखा हो और जिसका साथी यूथप मार डाला गया हो, उस चितकबरी मृगीके समान तथा शरभने जिसमें रहनेवाले सिंहको मार डाला हो, उस विशाल कन्दराके समान भयभीत, विचलित और श्रीहीन जान पड़ती थी॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विष्वग्वाताहता रुग्णा नौरिवासीन्महार्णवे ।
बलिभिः पाण्डवैर्वीरैर्लब्धलक्षैर्भृशार्दिता ॥ २९ ॥

मूलम्

विष्वग्वाताहता रुग्णा नौरिवासीन्महार्णवे ।
बलिभिः पाण्डवैर्वीरैर्लब्धलक्षैर्भृशार्दिता ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वीर और बलवान् पाण्डव अपने लक्ष्यको सफलतापूर्वक मार गिरानेवाले थे, उनके द्वारा अत्यन्त पीड़ित होकर आपकी सेना महासागरमें चारों ओरसे वायुके थपेड़े खाकर टूटी हुई नौकाके समान बड़ी विपत्तिमें फँस गयी॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा तदाऽऽसीद् भृशं सेना व्याकुलाश्वरथद्विपा।
विपन्नभूयिष्ठनरा कृपणा ध्वस्तमानसा ॥ ३० ॥

मूलम्

सा तदाऽऽसीद् भृशं सेना व्याकुलाश्वरथद्विपा।
विपन्नभूयिष्ठनरा कृपणा ध्वस्तमानसा ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय आपकी सेनाके घोड़े, रथ और हाथी सब अत्यन्त व्याकुल हो उठे थे। उसके अधिकांश सैनिक अपने प्राण खो चुके थे। उसका दिल बैठ गया था और वह अत्यन्त दीन हो रही थी॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्यां त्रस्ता नृपतयः सैनिकाश्च पृथग्विधाः।
पाताल इव मज्जन्तो हीना देवव्रतेन ते ॥ ३१ ॥

मूलम्

तस्यां त्रस्ता नृपतयः सैनिकाश्च पृथग्विधाः।
पाताल इव मज्जन्तो हीना देवव्रतेन ते ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस सेनाके भिन्न-भिन्न सैनिक, नरेशगण अत्यन्त भयभीत हो देवव्रत भीष्मके बिना मानो पातालमें डूब रहे थे॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्णं हि कुरवोऽस्मार्षुः स हि देवव्रतोपमः।
सर्वशस्त्रभृतां श्रेष्ठं रोचमानमिवातिथिम् ॥ ३२ ॥
बन्धुमापद्‌गतस्येव तमेवोपागमन्मनः ।
चुक्रुशुः कर्ण कर्णेति तत्र भारत पार्थिवाः ॥ ३३ ॥

मूलम्

कर्णं हि कुरवोऽस्मार्षुः स हि देवव्रतोपमः।
सर्वशस्त्रभृतां श्रेष्ठं रोचमानमिवातिथिम् ॥ ३२ ॥
बन्धुमापद्‌गतस्येव तमेवोपागमन्मनः ।
चुक्रुशुः कर्ण कर्णेति तत्र भारत पार्थिवाः ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय कौरवोंने कर्णका स्मरण किया। जैसे गृहस्थका मन अतिथिकी ओर तथा आपत्तिमें पड़े हुए मनुष्यका मन अपने मित्र या भाई-बन्धुकी ओर जाता है, उसी प्रकार कौरवोंका मन समस्त शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ एवं तेजस्वी वीर कर्णकी ओर गया; क्योंकि वही भीष्मके समान पराक्रमी समझा जाता था। भारत! वहाँ सब राजा ‘कर्ण! कर्ण!’ की पुकार करने लगे॥३२-३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राधेयं हितमस्माकं सूतपुत्रं तनुत्यजम्।
स हि नायुध्यत तदा दशाहानि महायशाः ॥ ३४ ॥
सामात्यबन्धुः कर्णो वै तमानयत मा चिरम्।

मूलम्

राधेयं हितमस्माकं सूतपुत्रं तनुत्यजम्।
स हि नायुध्यत तदा दशाहानि महायशाः ॥ ३४ ॥
सामात्यबन्धुः कर्णो वै तमानयत मा चिरम्।

अनुवाद (हिन्दी)

वे कहने लगे कि ‘राधानन्दन सूतपुत्र कर्ण हमारा हितैषी है। हमारे लिये अपना शरीर निछावर किये हुए है। अपने मन्त्रियों और बन्धुओंके साथ महायशस्वी कर्णने दस दिनोंतक युद्ध नहीं किया है। उसे शीघ्र बुलाओ। देर न करो॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीष्मेण हि महाबाहुः सर्वक्षत्रस्य पश्यतः ॥ ३५ ॥
रथेषु गण्यमानेषु बलविक्रमशालिषु ।
संख्यातोऽर्धरथः कर्णो द्विगुणः सन् नरर्षभः ॥ ३६ ॥

मूलम्

भीष्मेण हि महाबाहुः सर्वक्षत्रस्य पश्यतः ॥ ३५ ॥
रथेषु गण्यमानेषु बलविक्रमशालिषु ।
संख्यातोऽर्धरथः कर्णो द्विगुणः सन् नरर्षभः ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! बात यह हुई थी कि जब बल और पराक्रमसे सुशोभित रथियोंकी गणना की जा रही थी, उस समय समस्त क्षत्रियोंके देखते-देखते भीष्मजीने महाबाहु नरश्रेष्ठ कर्णको अर्धरथी बता दिया। यद्यपि वह दो रथियोंके समान है॥३५-३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रथातिरथसंख्यायां योऽग्रणीः शूरसम्मतः ।
सासुरानपि देवेशान् रणे यो योद्‌धुमुत्सहेत् ॥ ३७ ॥

मूलम्

रथातिरथसंख्यायां योऽग्रणीः शूरसम्मतः ।
सासुरानपि देवेशान् रणे यो योद्‌धुमुत्सहेत् ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रथियों और अतिरथियोंकी संख्यामें वह अग्रगण्य और शूरवीरके सम्मानका पात्र है। रणक्षेत्रमें असुरोंसहित सम्पूर्ण देवेश्वरोंके साथ भी वह युद्ध करनेका उत्साह रखता है॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तु तेनैव कोपेन राजन् गाङ्गेयमुक्तवान्।
त्वयि जीवति कौरव्य नाहं योत्स्ये कदाचन ॥ ३८ ॥
त्वया तु पाण्डवेयेषु निहतेषु महामृधे।
दुर्योधनमनुज्ञाप्य वनं यास्यामि कौरव ॥ ३९ ॥

मूलम्

स तु तेनैव कोपेन राजन् गाङ्गेयमुक्तवान्।
त्वयि जीवति कौरव्य नाहं योत्स्ये कदाचन ॥ ३८ ॥
त्वया तु पाण्डवेयेषु निहतेषु महामृधे।
दुर्योधनमनुज्ञाप्य वनं यास्यामि कौरव ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! अर्धरथी बतानेके कारण ही क्रोधवश उसने गंगानन्दन भीष्मसे कहा—‘कुरुनन्दन! आपके जीते-जी मैं कदापि युद्ध नहीं करूँगा। कौरव! यदि आप उस महासमरमें पाण्डुपुत्रोंको मार डालेंगे तो मैं दुर्योधनकी अनुमति लेकर वनको चला जाऊँगा॥३८-३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाण्डवैर्वा हते भीष्मे त्वयि स्वर्गमुपेयुषि।
हन्तास्म्येकरथेनैव कृत्स्नान् यान् मन्यसे रथान् ॥ ४० ॥

मूलम्

पाण्डवैर्वा हते भीष्मे त्वयि स्वर्गमुपेयुषि।
हन्तास्म्येकरथेनैव कृत्स्नान् यान् मन्यसे रथान् ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अथवा यदि पाण्डवोंके द्वारा मारे जाकर आप स्वर्गलोकमें पहुँच गये तो मैं एकमात्र रथकी सहायतासे उन सबको मार डालूँगा, जिन्हें आप रथी मानते हैं’॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्त्वा महाबाहुर्दशाहानि महायशाः ।
नायुध्यत ततः कर्णः पुत्रस्य तव सम्मते ॥ ४१ ॥

मूलम्

एवमुक्त्वा महाबाहुर्दशाहानि महायशाः ।
नायुध्यत ततः कर्णः पुत्रस्य तव सम्मते ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा कहकर महाबाहु महायशस्वी कर्ण आपके पुत्रकी सम्मति ले दस दिनोंतक युद्धमें सम्मिलित नहीं हुआ॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीष्मः समरविक्रान्तः पाण्डवेयस्य भारत।
जघान समरे योधानसंख्येयपराक्रमः ॥ ४२ ॥

मूलम्

भीष्मः समरविक्रान्तः पाण्डवेयस्य भारत।
जघान समरे योधानसंख्येयपराक्रमः ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! समरभूमिमें पराक्रम प्रकट करनेवाले अनन्त पराक्रमी भीष्मने युद्धस्थलमें पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरके बहुत-से योद्धाओंको मार डाला॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिंस्तु निहते शूरे सत्यसंधे महौजसि।
त्वत्सुताः कर्णमस्मार्षुस्तर्तुकामा इव प्लवम् ॥ ४३ ॥

मूलम्

तस्मिंस्तु निहते शूरे सत्यसंधे महौजसि।
त्वत्सुताः कर्णमस्मार्षुस्तर्तुकामा इव प्लवम् ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन महापराक्रमी सत्यप्रतिज्ञ शूरवीर भीष्मके मारे जानेपर आपके पुत्रोंने कर्णका उसी प्रकार स्मरण किया, जैसे पार जानेकी इच्छावाले पुरुष नावकी इच्छा करते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तावकास्तव पुत्राश्च सहिताः सर्वराजभिः।
हा कर्ण इति चाक्रन्दन् कालोऽयमिति चाब्रुवन् ॥ ४४ ॥

मूलम्

तावकास्तव पुत्राश्च सहिताः सर्वराजभिः।
हा कर्ण इति चाक्रन्दन् कालोऽयमिति चाब्रुवन् ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

समस्त राजाओंसहित आपके पुत्र और सैनिक ‘हा कर्ण’ कहकर विलाप करने लगे और बोले—‘कर्ण! तुम्हारे पराक्रमका यह अवसर आया है’॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं ते स्म हि राधेयं सूतपुत्रं तनुत्यजम्।
चुक्रुशुः सहिता योधास्तत्र तत्र महाबलाः ॥ ४५ ॥

मूलम्

एवं ते स्म हि राधेयं सूतपुत्रं तनुत्यजम्।
चुक्रुशुः सहिता योधास्तत्र तत्र महाबलाः ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार आपके महाबली योद्धालोग राधानन्दन सूतपुत्र कर्णको, जो दुर्योधनके लिये अपना शरीर निछावर किये बैठा था, एक साथ पुकारने लगे॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जामदग्न्याभ्यनुज्ञातमस्त्रे दुर्वारपौरुषम् ।
अगमन्नो मनः कर्णं बन्धुमात्ययिकेष्विव ॥ ४६ ॥

मूलम्

जामदग्न्याभ्यनुज्ञातमस्त्रे दुर्वारपौरुषम् ।
अगमन्नो मनः कर्णं बन्धुमात्ययिकेष्विव ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! कर्णने जमदग्निनन्दन परशुरामजीसे अस्त्र-विद्याकी शिक्षा प्राप्त की है और उसका पराक्रम दुर्निवार्य है। इसीलिये हमलोगोंका मन कर्णकी ओर गया, ठीक वैसे ही, जैसे बड़ी भारी आपत्तिके समय मनुष्यका मन अपने मित्रों तथा सगे-सम्बन्धियोंकी ओर जाता है॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स हि शक्तो रणे राजंस्त्रातुमस्मान् महाभयात्।
त्रिदशानिव गोविन्दः सततं सुमहाभयात् ॥ ४७ ॥

मूलम्

स हि शक्तो रणे राजंस्त्रातुमस्मान् महाभयात्।
त्रिदशानिव गोविन्दः सततं सुमहाभयात् ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! जैसे भगवान् विष्णु देवताओंकी सदा अत्यन्त महान् भयसे रक्षा करते हैं, उसी प्रकार कर्ण हमें भारी भयसे उबारनेमें समर्थ है॥४७॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा तु संजयं कर्णं कीर्तयन्तं पुनः पुनः।
आशीविषवदुच्छ्‌वस्य धृतराष्ट्रोऽब्रवीदिदम् ॥ ४८ ॥

मूलम्

तथा तु संजयं कर्णं कीर्तयन्तं पुनः पुनः।
आशीविषवदुच्छ्‌वस्य धृतराष्ट्रोऽब्रवीदिदम् ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! जब संजय इस प्रकार बार-बार कर्णका नाम ले रहा था, उस समय राजा धृतराष्ट्रने विषधर सर्पके समान उच्छ्‌वास लेकर इस प्रकार कहा॥४८॥

मूलम् (वचनम्)

धृतराष्ट्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत् तद्वैकर्तनं कर्णमगमद् वो मनस्तदा।
अप्यपश्यत राधेयं सूतपुत्रं तनुत्यजम् ॥ ४९ ॥

मूलम्

यत् तद्वैकर्तनं कर्णमगमद् वो मनस्तदा।
अप्यपश्यत राधेयं सूतपुत्रं तनुत्यजम् ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्रने कहा— संजय! जब तुमलोगोंका मन विकर्तनपुत्र कर्णकी ओर गया, तब क्या तुमने शरीर निछावर करनेवाले सूतपुत्र राधानन्दन कर्णको वहाँ देखा?॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपि तन्न मृषाकार्षीत् कच्चित् सत्यपराक्रमः।
सम्भ्रान्तानां तदार्तानां त्रस्तानां त्राणमिच्छताम् ॥ ५० ॥

मूलम्

अपि तन्न मृषाकार्षीत् कच्चित् सत्यपराक्रमः।
सम्भ्रान्तानां तदार्तानां त्रस्तानां त्राणमिच्छताम् ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कहीं ऐसा तो नहीं हुआ कि संकटमें पड़कर घबराये हुए और भयभीत होकर अपनी रक्षा चाहते हुए कौरवोंकी प्रार्थनाको सत्यपराक्रमी कर्णने निष्फल कर दिया हो?॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपि तत् पूरयांचक्रे धनुर्धरवरो युधि।
यत्तद् विनिहते भीष्मे कौरवाणामपाकृतम् ॥ ५१ ॥

मूलम्

अपि तत् पूरयांचक्रे धनुर्धरवरो युधि।
यत्तद् विनिहते भीष्मे कौरवाणामपाकृतम् ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मके मारे जानेपर युद्धस्थलमें कौरवोंके पक्षमें जो कमी आ गयी थी, क्या उसे धनुर्धारियोंमें श्रेष्ठ कर्णने पूरा कर दिया?॥५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत् खण्डं पूरयन् कर्णः परेषामादधद् भयम्।
स हि वै पुरुषव्याघ्रो लोके संजय कथ्यते ॥ ५२ ॥

मूलम्

तत् खण्डं पूरयन् कर्णः परेषामादधद् भयम्।
स हि वै पुरुषव्याघ्रो लोके संजय कथ्यते ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्या उस खण्डित अंशकी पूर्ति करके कर्णने शत्रुओंके मनमें भय उत्पन्न किया? संजय! जगत्‌में कर्णको ‘पुरुषसिंह’ कहा जाता है॥५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आर्तानां बान्धवानां च क्रन्दतां च विशेषतः।
परित्यज्य रणे प्राणांस्तत्त्राणार्थं च शर्म च।
कृतवान् मम पुत्राणां जयाशां सफलामपि ॥ ५३ ॥

मूलम्

आर्तानां बान्धवानां च क्रन्दतां च विशेषतः।
परित्यज्य रणे प्राणांस्तत्त्राणार्थं च शर्म च।
कृतवान् मम पुत्राणां जयाशां सफलामपि ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्या उसने रणभूमिमें शोकार्त होकर विशेषरूपसे क्रन्दन करनेवाले अपने उन बन्धुजनोंकी रक्षा एवं कल्याणके लिये अपने प्राणोंका परित्याग करके मेरे पुत्रोंकी विजयाभिलाषाको सफल किया?॥५३॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि द्रोणाभिषेकपर्वणि धृतराष्ट्रप्रश्ने प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत द्रोणाभिषेकपर्वमें धृतराष्ट्र-प्रश्नविषयक पहला अध्याय पूरा हुआ॥१॥