भागसूचना
द्वाविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
भीष्म और कर्णका रहस्यमय संवाद
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्ते पार्थिवाः सर्वे जग्मुः स्वानालयान् पुनः।
तूष्णीम्भूते महाराज भीष्मे शान्तनुनन्दने ॥ १ ॥
मूलम्
ततस्ते पार्थिवाः सर्वे जग्मुः स्वानालयान् पुनः।
तूष्णीम्भूते महाराज भीष्मे शान्तनुनन्दने ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— महाराज! शान्तनुनन्दन भीष्मके चुप हो जानेपर सब राजा वहाँसे उठकर अपने-अपने विश्रामस्थानको चले गये॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुत्वा तु निहतं भीष्मं राधेयः पुरुषर्षभः।
ईषदागतसंत्रासस्त्वरयोपजगाम ह ॥ २ ॥
मूलम्
श्रुत्वा तु निहतं भीष्मं राधेयः पुरुषर्षभः।
ईषदागतसंत्रासस्त्वरयोपजगाम ह ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीको रथसे गिराया गया सुनकर पुरुषप्रवर राधानन्दन कर्णके मनमें कुछ भय समा गया। वह बड़ी उतावलीके साथ उनके पास आया॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स ददर्श महात्मानं शरतल्पगतं तदा।
जन्मशय्यागतं वीरं कार्तिकेयमिव प्रभुम् ॥ ३ ॥
मूलम्
स ददर्श महात्मानं शरतल्पगतं तदा।
जन्मशय्यागतं वीरं कार्तिकेयमिव प्रभुम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय उसने देखा, महात्मा भीष्म शरशय्यापर सो रहे हैं, ठीक उसी तरह जैसे वीरवर भगवान् कार्तिकेय जन्मकालमें शरशय्या (सरकण्डोंके बिछावन)-पर सोये थे॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निमीलिताक्षं तं वीरं साश्रुकण्ठस्तदा वृषः।
भीष्म भीष्म महाबाहो इत्युवाच महाद्युतिः ॥ ४ ॥
राधेयोऽहं कुरुश्रेष्ठ नित्यमक्षिगतस्तव ।
द्वेष्योऽहं तव सर्वत्र इति चैनमुवाच ह ॥ ५ ॥
मूलम्
निमीलिताक्षं तं वीरं साश्रुकण्ठस्तदा वृषः।
भीष्म भीष्म महाबाहो इत्युवाच महाद्युतिः ॥ ४ ॥
राधेयोऽहं कुरुश्रेष्ठ नित्यमक्षिगतस्तव ।
द्वेष्योऽहं तव सर्वत्र इति चैनमुवाच ह ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वीर भीष्मके नेत्र बंद थे। उन्हें देखकर महातेजस्वी कर्णकी आँखोंमें आँसू छलक आये और अश्रुगद्गदकण्ठ होकर उसने कहा—‘भीष्म! भीष्म! महाबाहो! कुरुश्रेष्ठ! मैं वही राधापुत्र कर्ण हूँ, जो सदा आपकी आँखोंमें गड़ा रहता था और जिसे आप सर्वत्र द्वेषदृष्टिसे देखते थे।’ कर्णने यह बात उनसे कही॥४-५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्छ्रुत्वा कुरुवृद्धो हि बली संवृतलोचनः।
शनैरुद्वीक्ष्य सस्नेहमिदं वचनमब्रवीत् ॥ ६ ॥
रहितं धिष्ण्यमालोक्य समुत्सार्य च रक्षिणः।
पितेव पुत्रं गाङ्गेयः परिरभ्यैकपाणिना ॥ ७ ॥
मूलम्
तच्छ्रुत्वा कुरुवृद्धो हि बली संवृतलोचनः।
शनैरुद्वीक्ष्य सस्नेहमिदं वचनमब्रवीत् ॥ ६ ॥
रहितं धिष्ण्यमालोक्य समुत्सार्य च रक्षिणः।
पितेव पुत्रं गाङ्गेयः परिरभ्यैकपाणिना ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसकी बात सुनकर बंद नेत्रोंवाले बलवान् कुरुवृद्ध भीष्मने धीरेसे आँखें खोलकर देखा और उस स्थानको एकान्त देख पहरेदारोंको दूर हटाकर एक हाथसे कर्णका उसी प्रकार सस्नेह आलिंगन किया, जैसे पिता अपने पुत्रको गलेसे लगाता है। तत्पश्चात् उन्होंने इस प्रकार कहा—॥६-७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एह्येहि मे विप्रतीप स्पर्धसे त्वं मया सह।
यदि मां नाधिगच्छेथा न ते श्रेयो ध्रुवं भवेत्॥८॥
मूलम्
एह्येहि मे विप्रतीप स्पर्धसे त्वं मया सह।
यदि मां नाधिगच्छेथा न ते श्रेयो ध्रुवं भवेत्॥८॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आओ, आओ, कर्ण! तुम सदा मुझसे लाग-डाँट रखते रहे। सदा मेरे साथ स्पर्धा करते रहे। आज यदि तुम मेरे पास नहीं आते तो निश्चय ही तुम्हारा कल्याण नहीं होता॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कौन्तेयस्त्वं न राधेयो न तवाधिरथः पिता।
सूर्यजस्त्वं महाबाहो विदितो नारदान्मया ॥ ९ ॥
मूलम्
कौन्तेयस्त्वं न राधेयो न तवाधिरथः पिता।
सूर्यजस्त्वं महाबाहो विदितो नारदान्मया ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वत्स! तुम राधाके नहीं, कुन्तीके पुत्र हो। तुम्हारे पिता अधिरथ नहीं हैं। महाबाहो! तुम सूर्यके पुत्र हो। मैंने नारदजीसे तुम्हारा परिचय प्राप्त किया था॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृष्णद्वैपायनाच्चैव तच्च सत्यं न संशयः।
न च द्वेषोऽस्ति मे तात त्वयि सत्यं ब्रवीमि ते॥१०॥
मूलम्
कृष्णद्वैपायनाच्चैव तच्च सत्यं न संशयः।
न च द्वेषोऽस्ति मे तात त्वयि सत्यं ब्रवीमि ते॥१०॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तात! श्रीकृष्णद्वैपायन व्याससे भी तुम्हारे जन्मका वृत्तान्त ज्ञात हुआ था और जो कुछ ज्ञात हुआ, वह सत्य है। इसमें संदेह नहीं है। तुम्हारे प्रति मेरे मनमें द्वेष नहीं है; यह मैं तुमसे सत्य कहता हूँ॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेजोवधनिमित्तं तु परुषं त्वाहमब्रुवम्।
अकस्मात् पाण्डवान् सर्वानवाक्षिपसि सुव्रत ॥ ११ ॥
येनासि बहुशो राज्ञा चोदितः सूतनन्दन।
मूलम्
तेजोवधनिमित्तं तु परुषं त्वाहमब्रुवम्।
अकस्मात् पाण्डवान् सर्वानवाक्षिपसि सुव्रत ॥ ११ ॥
येनासि बहुशो राज्ञा चोदितः सूतनन्दन।
अनुवाद (हिन्दी)
‘उत्तम व्रतका पालन करनेवाले वीर! मैं कभी-कभी तुमसे जो कठोर वचन बोल दिया करता था, उसका उद्देश्य था, तुम्हारे उत्साह और तेजको नष्ट करना; क्योंकि सूतनन्दन! तुम राजा दुर्योधनके उकसानेसे अकारण ही समस्त पाण्डवोंपर बहुत बार आक्षेप किया करते थे॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जातोऽसि धर्मलोपेन ततस्ते बुद्धिरीदृशी ॥ १२ ॥
नीचाश्रयान्मत्सरेण द्वेषिणी गुणिनामपि ।
तेनासि बहुशो रूक्षं श्रावितः कुरुसंसदि ॥ १३ ॥
मूलम्
जातोऽसि धर्मलोपेन ततस्ते बुद्धिरीदृशी ॥ १२ ॥
नीचाश्रयान्मत्सरेण द्वेषिणी गुणिनामपि ।
तेनासि बहुशो रूक्षं श्रावितः कुरुसंसदि ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तुम्हारा जन्म (कन्यावस्थामें ही कुन्तीके गर्भसे उत्पन्न होनेके कारण) धर्मलोपसे हुआ है; इसीलिये नीच पुरुषोंके आश्रयसे तुम्हारी बुद्धि इस प्रकार ईर्ष्यावश गुणवान् पाण्डवोंसे भी द्वेष रखनेवाली हो गयी है और इसीके कारण कौरवसभामें मैंने तुम्हें अनेक बार कटुवचन सुनाये हैं॥१२-१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जानामि समरे वीर्यं शत्रुभिर्दुःसहं भुवि।
ब्रह्मण्यतां च शौर्यं च दाने च परमां स्थितिम्॥१४॥
मूलम्
जानामि समरे वीर्यं शत्रुभिर्दुःसहं भुवि।
ब्रह्मण्यतां च शौर्यं च दाने च परमां स्थितिम्॥१४॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं जानता हूँ, तुम्हारा पराक्रम समरभूमिमें शत्रुओंके लिये दुःसह है। तुम ब्राह्मणभक्त, शूरवीर तथा दानमें उत्तम निष्ठा रखनेवाले हो॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न त्वया सदृशः कश्चित् पुरुषेष्वमरोपम।
कुलभेदभयाच्चाहं सदा परुषमुक्तवान् ॥ १५ ॥
मूलम्
न त्वया सदृशः कश्चित् पुरुषेष्वमरोपम।
कुलभेदभयाच्चाहं सदा परुषमुक्तवान् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘देवोपम वीर! मनुष्योंमें तुम्हारे समान कोई नहीं है। मैं सदा अपने कुलमें फूट पड़नेके डरसे तुम्हें कटुवचन सुनाता रहा॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इष्वस्त्रे चास्त्रसंधाने लाघवेऽस्त्रबले तथा।
सदृशः फाल्गुनेनासि कृष्णेन च महात्मना ॥ १६ ॥
मूलम्
इष्वस्त्रे चास्त्रसंधाने लाघवेऽस्त्रबले तथा।
सदृशः फाल्गुनेनासि कृष्णेन च महात्मना ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘बाण चलाने, दिव्यास्त्रोंका संधान करने, फुर्ती दिखाने तथा अस्त्रबलमें तुम अर्जुन तथा महात्मा श्रीकृष्णके समान हो॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्ण काशिपुरं गत्वा त्वयैकेन धनुष्मता।
कन्यार्थे कुरुराजस्य राजानो मृदिता युधि ॥ १७ ॥
मूलम्
कर्ण काशिपुरं गत्वा त्वयैकेन धनुष्मता।
कन्यार्थे कुरुराजस्य राजानो मृदिता युधि ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कर्ण! तुमने कुरुराज दुर्योधनके लिये कन्या लानेके निमित्त अकेले काशीपुरमें जाकर केवल धनुषकी सहायतासे वहाँ आये हुए समस्त राजाओंको युद्धमें परास्त कर दिया था॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा च बलवान् राजा जरासंधो दुरासदः।
समरे समरश्लाघिन् न त्वया सदृशोऽभवत् ॥ १८ ॥
मूलम्
तथा च बलवान् राजा जरासंधो दुरासदः।
समरे समरश्लाघिन् न त्वया सदृशोऽभवत् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘युद्धकी श्लाघा रखनेवाले वीर! यद्यपि राजा जरासंध दुर्जय एवं बलवान् था, तथापि वह रणभूमिमें तुम्हारी समानता न कर सका॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मण्यः सत्त्वयोधी च तेजसा च बलेन च।
देवगर्भसमः संख्ये मनुष्यैरधिको युधि ॥ १९ ॥
मूलम्
ब्रह्मण्यः सत्त्वयोधी च तेजसा च बलेन च।
देवगर्भसमः संख्ये मनुष्यैरधिको युधि ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तुम ब्राह्मणभक्त, धैर्यपूर्वक युद्ध करनेवाले तथा तेज और बलसे सम्पन्न हो। संग्रामभूमिमें देवकुमारोंके समान जान पड़ते हो और प्रत्येक युद्धमें मनुष्योंसे अधिक पराक्रमी हो॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्यपनीतोऽद्य मन्युर्मे यस्त्वां प्रति पुरा कृतः।
दैवं पुरुषकारेण न शक्यमतिवर्तितुम् ॥ २० ॥
मूलम्
व्यपनीतोऽद्य मन्युर्मे यस्त्वां प्रति पुरा कृतः।
दैवं पुरुषकारेण न शक्यमतिवर्तितुम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैंने पहले जो तुम्हारे प्रति क्रोध किया था, वह अब दूर हो गया है; क्योंकि प्रारब्धके विधानको कोई पुरुषार्थद्वारा नहीं टाल सकता॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोदर्याः पाण्डवा वीरा भ्रातरस्तेऽरिसूदन।
संगच्छ तैर्महाबाहो मम चेदिच्छसि प्रियम् ॥ २१ ॥
मूलम्
सोदर्याः पाण्डवा वीरा भ्रातरस्तेऽरिसूदन।
संगच्छ तैर्महाबाहो मम चेदिच्छसि प्रियम् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘शत्रुसूदन! वीर पाण्डव तुम्हारे सगे भाई हैं। महाबाहो! यदि तुम मेरा प्रिय करना चाहते हो तो अपने उन भाइयोंसे मिल जाओ॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मया भवतु निर्वृत्तं वैरमादित्यनन्दन।
पृथिव्यां सर्वराजानो भवन्त्वद्य निरामयाः ॥ २२ ॥
मूलम्
मया भवतु निर्वृत्तं वैरमादित्यनन्दन।
पृथिव्यां सर्वराजानो भवन्त्वद्य निरामयाः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सूर्यनन्दन! मेरी मृत्युके द्वारा ही यह वैरकी आग बुझ जाय और भूमण्डलके समस्त नरेश अब दुःख-शोकसे रहित एवं निर्भय हो जायँ’॥२२॥
मूलम् (वचनम्)
कर्ण उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
जानाम्येव महाबाहो सर्वमेतन्न संशयः।
यथा वदसि मे भीष्म कौन्तेयोऽहं न सूतजः ॥ २३ ॥
मूलम्
जानाम्येव महाबाहो सर्वमेतन्न संशयः।
यथा वदसि मे भीष्म कौन्तेयोऽहं न सूतजः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कर्णने कहा— महाबाहो! भीष्म! आप जो कुछ कह रहे हैं, उसे मैं भी जानता हूँ। यह सब ठीक है, इसमें संशय नहीं है। वास्तवमें मैं कुन्तीका ही पुत्र हूँ, सूतपुत्र नहीं हूँ॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवकीर्णस्त्वहं कुन्त्या सूतेन च विवर्धितः।
(पुरा दुर्योधनेनाहं स्नेहं वै कृतवान् मुदा।
तव कार्यं करिष्यामि यद् यत् सर्वं दुरासदम्॥
इत्येवं वै प्रतिज्ञातं वचनं वै सुयोधने।)
भुक्त्वा दुर्योधनैश्वर्यं न मिथ्याकर्तुमुत्सहे ॥ २४ ॥
मूलम्
अवकीर्णस्त्वहं कुन्त्या सूतेन च विवर्धितः।
(पुरा दुर्योधनेनाहं स्नेहं वै कृतवान् मुदा।
तव कार्यं करिष्यामि यद् यत् सर्वं दुरासदम्॥
इत्येवं वै प्रतिज्ञातं वचनं वै सुयोधने।)
भुक्त्वा दुर्योधनैश्वर्यं न मिथ्याकर्तुमुत्सहे ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु माता कुन्तीने तो मुझे पानीमें बहा दिया और सूतने मुझे पाल-पोषकर बड़ा किया। पूर्वकालसे ही मैं दुर्योधनके साथ स्नेह करता आया हूँ और प्रसन्नतापूर्वक रहा हूँ। दुर्योधनसे मैंने यह प्रतिज्ञा कर ली है कि तुम्हारा जो-जो दुष्कर कार्य होगा, वह सब मैं पूरा करूँगा। दुर्योधनका ऐश्वर्य भोगकर मैं उसे निष्फल नहीं कर सकता॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वसुदेवसुतो यद्वत् पाण्डवाय दृढव्रतः।
वसु चैव शरीरं च पुत्रदारं तथा यशः ॥ २५ ॥
सर्वं दुर्योधनस्यार्थे त्यक्तं मे भूरिदक्षिण।
मा चैतद् व्याधिमरणं क्षत्रं स्यादिति कौरव ॥ २६ ॥
कोपिताः पाण्डवा नित्यं समाश्रित्य सुयोधनम्।
मूलम्
वसुदेवसुतो यद्वत् पाण्डवाय दृढव्रतः।
वसु चैव शरीरं च पुत्रदारं तथा यशः ॥ २५ ॥
सर्वं दुर्योधनस्यार्थे त्यक्तं मे भूरिदक्षिण।
मा चैतद् व्याधिमरणं क्षत्रं स्यादिति कौरव ॥ २६ ॥
कोपिताः पाण्डवा नित्यं समाश्रित्य सुयोधनम्।
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण पाण्डुपुत्र अर्जुनकी सहायताके लिये दृढ़प्रतिज्ञ हैं, उसी प्रकार मेरे धन, शरीर, स्त्री, पुत्र तथा यश सब कुछ दुर्योधनके लिये निछावर हैं। यज्ञोंमें प्रचुर दक्षिणा देनेवाले कुरुनन्दन भीष्म! मैंने दुर्योधनका आश्रय लेकर पाण्डवोंका क्रोध सदा इसलिये बढ़ाया है कि यह क्षत्रिय-जाति रोगोंका शिकार होकर न मरे (युद्धमें वीर गति प्राप्त करे)॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवश्यभावी ह्यर्थोऽयं यो न शक्यो निवर्तितुम् ॥ २७ ॥
दैवं पुरुषकारेण को निवर्तितुमुत्सहेत्।
मूलम्
अवश्यभावी ह्यर्थोऽयं यो न शक्यो निवर्तितुम् ॥ २७ ॥
दैवं पुरुषकारेण को निवर्तितुमुत्सहेत्।
अनुवाद (हिन्दी)
यह युद्ध अवश्यम्भावी है। इसे कोई टाल नहीं सकता। भला, दैवको पुरुषार्थके द्वारा कौन मिटा सकता है॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पृथिवीक्षयशंसीनि निमित्तानि पितामह ॥ २८ ॥
भवद्भिरुपलब्धानि कथितानि च संसदि।
मूलम्
पृथिवीक्षयशंसीनि निमित्तानि पितामह ॥ २८ ॥
भवद्भिरुपलब्धानि कथितानि च संसदि।
अनुवाद (हिन्दी)
पितामह! आपने भी तो ऐसे निमित्त (लक्षण) देखे थे, जो भूमण्डलके विनाशकी सूचना देनेवाले थे। आपने कौरवसभामें उनका वर्णन भी किया था॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाण्डवा वासुदेवश्च विदिता मम सर्वशः ॥ २९ ॥
अजेयाः पुरुषैरन्यैरिति तांश्चोत्सहामहे ।
विजयिष्ये रणे पाण्डूनिति मे निश्चितं मनः ॥ ३० ॥
मूलम्
पाण्डवा वासुदेवश्च विदिता मम सर्वशः ॥ २९ ॥
अजेयाः पुरुषैरन्यैरिति तांश्चोत्सहामहे ।
विजयिष्ये रणे पाण्डूनिति मे निश्चितं मनः ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाण्डवों तथा भगवान् वासुदेवको मैं सब प्रकारसे जानता हूँ, वे दूसरे पुरुषोंके लिये सर्वथा अजेय हैं, तथापि मैं उनसे युद्ध करनेका उत्साह रखता हूँ और मेरे मनका यह निश्चित विश्वास है कि मैं युद्धमें पाण्डवोंको जीत लूँगा॥२९-३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न च शक्यमवस्रष्टुं वैरमेतत् सुदारुणम्।
धनंजयेन योत्स्येऽहं स्वधर्मप्रीतमानसः ॥ ३१ ॥
मूलम्
न च शक्यमवस्रष्टुं वैरमेतत् सुदारुणम्।
धनंजयेन योत्स्येऽहं स्वधर्मप्रीतमानसः ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाण्डवोंके साथ हमलोगोंका यह वैर अत्यन्त भयंकर हो गया है। अब इसे दूर नहीं किया जा सकता। मैं अपने धर्मके अनुसार प्रसन्नचित्त होकर अर्जुनके साथ युद्ध करूँगा॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनुजानीष्व मां तात युद्धाय कृतनिश्चयम्।
अनुज्ञातस्त्वया वीर युद्ध्येयमिति मे मतिः ॥ ३२ ॥
मूलम्
अनुजानीष्व मां तात युद्धाय कृतनिश्चयम्।
अनुज्ञातस्त्वया वीर युद्ध्येयमिति मे मतिः ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात! मैं युद्धके लिये निश्चय कर चुका हूँ। वीर! मेरा विचार है कि आपकी आज्ञा लेकर युद्ध करूँ; अतः आप मुझे इसके लिये आज्ञा देनेकी कृपा करें॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुरुक्तं विप्रतीपं वा रभसाच्चापलात् तथा।
यन्मयेह कृतं किंचित् तन्मे त्वं क्षन्तुमर्हसि ॥ ३३ ॥
मूलम्
दुरुक्तं विप्रतीपं वा रभसाच्चापलात् तथा।
यन्मयेह कृतं किंचित् तन्मे त्वं क्षन्तुमर्हसि ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैंने क्रोधके आवेगसे अथवा चपलताके कारण यहाँ जो कुछ आपके प्रति कटुवचन कहा हो या आपके प्रतिकूल आचरण किया हो, वह सब आप कृपापूर्वक क्षमा कर दें॥३३॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
न चेच्छक्यमवस्रष्टुं वैरमेतत् सुदारुणम्।
अनुजानामि कर्ण त्वां युद्ध्यस्व स्वर्गकाम्यया ॥ ३४ ॥
मूलम्
न चेच्छक्यमवस्रष्टुं वैरमेतत् सुदारुणम्।
अनुजानामि कर्ण त्वां युद्ध्यस्व स्वर्गकाम्यया ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मने कहा— कर्ण! यदि यह भयंकर वैर अब नहीं छोड़ा जा सकता तो मैं तुम्हें आज्ञा देता हूँ, तुम स्वर्गप्राप्तिकी इच्छासे युद्ध करो॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निर्मन्युर्गतसंरम्भः कृतकर्मा रणे स्म ह।
यथाशक्ति यथोत्साहं सतां वृत्तेषु वृत्तवान् ॥ ३५ ॥
मूलम्
निर्मन्युर्गतसंरम्भः कृतकर्मा रणे स्म ह।
यथाशक्ति यथोत्साहं सतां वृत्तेषु वृत्तवान् ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दीनता और क्रोध छोड़कर अपनी शक्ति और उत्साहके अनुसार सत्पुरुषोंके आचारमें स्थित रहकर युद्ध करो। तुम रणक्षेत्रमें पराक्रम कर चुके हो और आचारवान् तो हो ही॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं त्वामनुजानामि यदिच्छसि तदाप्नुहि।
क्षत्रधर्मजिताल्ँलोकानवाप्स्यसि धनंजयात् ॥ ३६ ॥
मूलम्
अहं त्वामनुजानामि यदिच्छसि तदाप्नुहि।
क्षत्रधर्मजिताल्ँलोकानवाप्स्यसि धनंजयात् ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कर्ण! मैं तुम्हें आज्ञा देता हूँ। तुम जो चाहते हो, वह प्राप्त करो। धनंजयके हाथसे मारे जानेपर तुम्हें क्षत्रियधर्मके पालनसे प्राप्त होनेवाले लोकोंकी उपलब्धि होगी॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
युध्यस्व निरहङ्कारो बलवीर्यव्यपाश्रयः ।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत् क्षत्रियस्य न विद्यते ॥ ३७ ॥
मूलम्
युध्यस्व निरहङ्कारो बलवीर्यव्यपाश्रयः ।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत् क्षत्रियस्य न विद्यते ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम अभिमानशून्य होकर बल और पराक्रमका सहारा ले युद्ध करो, क्षत्रियके लिये धर्मानुकूल युद्धसे बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारी साधन नहीं है॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रशमे हि कृतो यत्नः सुमहान् सुचिरं मया।
न चैव शकितः कर्तुं कर्ण सत्यं ब्रवीमि ते॥३८॥
मूलम्
प्रशमे हि कृतो यत्नः सुमहान् सुचिरं मया।
न चैव शकितः कर्तुं कर्ण सत्यं ब्रवीमि ते॥३८॥
अनुवाद (हिन्दी)
कर्ण! मैं तुमसे सत्य कहता हूँ। मैंने कौरवों और पाण्डवोंमें शान्ति स्थापित करनेके लिये दीर्घकालतक महान् प्रयत्न किया था; किंतु मैं उसमें कृतकार्य न हो सका॥३८॥
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तवति गाङ्गेये अभिवाद्योपमन्त्र्य च।
राधेयो रथमारुह्य प्रायात् तव सुतं प्रति ॥ ३९ ॥
मूलम्
इत्युक्तवति गाङ्गेये अभिवाद्योपमन्त्र्य च।
राधेयो रथमारुह्य प्रायात् तव सुतं प्रति ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— राजन्! गंगानन्दन भीष्मके ऐसा कहनेपर राधानन्दन कर्ण उन्हें प्रणाम करके उनकी आज्ञा ले रथपर आरूढ़ हो आपके पुत्र दुर्योधनके पास चला गया॥३९॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते भीष्मपर्वणि भीष्मवधपर्वणि भीष्मकर्णसंवादे द्वाविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १२२ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्वके अन्तर्गत भीष्मवधपर्वमें भीष्म-कर्णसंवादविषयक एक सौ बाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१२२॥
सूचना (हिन्दी)
[दाक्षिणात्य अधिक पाठके १ श्लोक मिलाकर कुल ४० श्लोक हैं।]
॥ भीष्मपर्व सम्पूर्णम् ॥
भागसूचना
श्रवणमहिमा
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
Misc Detail
इत्येतद् बहुवृत्तान्तं भीष्मपर्वाखिलं मया।
शृण्वते ते महाराज प्रोक्तं पापहरं शुभम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजीने कहा— महाराज! बहुत-से वृत्तान्तोंसे भरा हुआ यह सम्पूर्ण भीष्मपर्व मैंने तुमसे कहा है और तुमने श्रोता बनकर सुना है। यह पर्व सम्पूर्ण पापोंका नाश करनेवाला और शुभ है॥१॥
Misc Detail
यः श्रावयेत् सदा राजन् ब्राह्मणान् वेदपारगान्।
श्रद्धावन्तश्च ये चापि श्रोष्यन्ति मनुजा भुवि ॥ २ ॥
विधूय सर्वपापानि विहायान्ते कलेवरम्।
प्रयान्ति तत् पदं विष्णोर्यत् प्राप्य न निवर्तते ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! जो सदा वेदोंके पारंगत विद्वान् ब्राह्मणोंको इस पर्वकी कथा सुनायेगा और जो मनुष्य इस भूतलपर श्रद्धापूर्वक इस पर्वको सुनेंगे, वे सम्पूर्ण पापोंको नष्ट करके अन्तमें यह शरीर छोड़कर भगवान् विष्णुके उस परमपदको प्राप्त कर लेंगे, जहाँ जाकर जीव इस जगत्में नहीं लौटता है॥२-३॥
Misc Detail
तस्मात् सर्वप्रयत्नेन भारतं भरतर्षभ।
शृणुयात् सिद्धिमन्विच्छन्निह वामुत्र मानवः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! अतः इस लोक या परलोकमें सिद्धिकी इच्छा रखनेवाला मनुष्य पूर्ण प्रयत्नपूर्वक महाभारतको अवश्य सुने॥४॥
Misc Detail
भोजनं भोजयेद् विप्रान् गन्धमाल्यैरलंकृतान्।
भीष्मपर्वणि राजेन्द्र दद्यात् पानीयमुत्तमम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! भीष्मपर्व सुन लेनेपर मनुष्य ब्राह्मणोंको गन्ध और माल्य आदिसे अलंकृत करके उत्तम भोजन कराये तथा पवित्र जलका दान करे॥५॥
Misc Detail
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
Misc Detail
महाभारत-सार
मातापितृसहस्राणि पुत्रदारशतानि च ।
संसारेष्वनुभूतानि यान्ति यास्यन्ति चापरे॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मनुष्य इस जगत्में हजारों माता-पिताओं तथा सैकड़ों स्त्री-पुत्रोंके संयोग-वियोगका अनुभव कर चुके हैं, करते हैं और करते रहेंगे।’
Misc Detail
हर्षस्थानसहस्राणि भयस्थानशतानि च ।
दिवसे दिवसे मूढमाविशन्ति न पण्डितम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अज्ञानी पुरुषको प्रतिदिन हर्षके हजारों और भयके सैकड़ों अवसर प्राप्त होते रहते हैं; किन्तु विद्वान् पुरुषके मनपर उनका कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।’
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ऊर्ध्वबाहुर्विरौम्येष न च कश्चिच्छृणोति मे।
धर्मादर्थश्च कामश्च स किमर्थं न सेव्यते॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं दोनों हाथ ऊपर उठाकर पुकार-पुकारकर कह रहा हूँ, पर मेरी बात कोई नहीं सुनता। धर्मसे मोक्ष तो सिद्ध होता ही है; अर्थ और काम भी सिद्ध होते हैं तो भी लोग उसका सेवन क्यों नहीं करते!’
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न जातु कामान्न भयान्न लोभाद्
धर्मं त्यजेज्जीवितस्यापि हेतोः ।
नित्यो धर्मः सुखदुःखे त्वनित्ये
जीवो नित्यो हेतुरस्य त्वनित्यः॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कामनासे, भयसे, लोभसे अथवा प्राण बचानेके लिये भी धर्मका त्याग न करे। धर्म नित्य है और सुख-दुःख अनित्य। इसी प्रकार जीवात्मा नित्य है और उसके बन्धनका हेतु अनित्य।’
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इमां भारतसावित्रीं प्रातरुत्थाय यः पठेत्।
स भारतफलं प्राप्य परं ब्रह्माधिगच्छति॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यह महाभारतका सारभूत उपदेश ‘भारत-सावित्री’ के नामसे प्रसिद्ध है। जो प्रतिदिन सबेरे उठकर इसका पाठ करता है, वह सम्पूर्ण महाभारतके अध्ययनका फल पाकर परब्रह्म परमात्माको प्राप्त कर लेता है।’
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[[—महाभारत, स्वर्गारोहण० ५।६०—६४]]