भागसूचना
विंशत्यधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
भीष्मजीकी महत्ता तथा अर्जुनके द्वारा भीष्मको तकिया देना एवं उभय पक्षकी सेनाओंका अपने शिबिरमें जाना और श्रीकृष्ण-युधिष्ठिर-संवाद
मूलम् (वचनम्)
धृतराष्ट्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथमासंस्तदा योधा हीना भीष्मेण संजय।
बलिना देवकल्पेन गुर्वर्थे ब्रह्मचारिणा ॥ १ ॥
मूलम्
कथमासंस्तदा योधा हीना भीष्मेण संजय।
बलिना देवकल्पेन गुर्वर्थे ब्रह्मचारिणा ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धृतराष्ट्रने पूछा— संजय! भीष्मजी बलवान् और देवताके समान थे। उन्होंने अपने पिताके लिये आजीवन ब्रह्मचर्यका पालन किया था। उस दिन उनके रथसे गिर जानेके कारण उनके सहयोगसे वंचित हुए मेरे पक्षके योद्धाओंकी क्या दशा हुई?॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदैव निहतान् मन्ये कुरूनन्यांश्च पाण्डवैः।
न प्राहरद् यदा भीष्मो घृणित्वाद् द्रुपदात्मजम् ॥ २ ॥
मूलम्
तदैव निहतान् मन्ये कुरूनन्यांश्च पाण्डवैः।
न प्राहरद् यदा भीष्मो घृणित्वाद् द्रुपदात्मजम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने अपनी दयालुताके कारण जब द्रुपदकुमार शिखण्डीपर प्रहार करनेसे हाथ खींच लिया, तभी मैंने यह समझ लिया था कि अब पाण्डवोंके हाथसे अन्य कौरव भी अवश्य मारे जायँगे॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो दुःखतरं मन्ये किमन्यत् प्रभविष्यति।
अद्याहं पितरं श्रुत्वा निहतं स्म सुदुर्मतिः ॥ ३ ॥
मूलम्
ततो दुःखतरं मन्ये किमन्यत् प्रभविष्यति।
अद्याहं पितरं श्रुत्वा निहतं स्म सुदुर्मतिः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरी समझमें इससे बढ़कर महान् दुःखकी बात और क्या होगी कि आज अपने ताऊ भीष्मके मारे जानेका समाचार सुनकर भी जीवित हूँ। मेरी बुद्धि बहुत ही खोटी है॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अश्मसारमयं नूनं हृदयं मम संजय।
श्रुत्वा विनिहतं भीष्मं शतधा यन्न दीर्यते ॥ ४ ॥
मूलम्
अश्मसारमयं नूनं हृदयं मम संजय।
श्रुत्वा विनिहतं भीष्मं शतधा यन्न दीर्यते ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय! निश्चय ही मेरा हृदय लोहेका बना हुआ है; क्योंकि आज भीष्मजीके मारे जानेका समाचार सुनकर भी यह सैकड़ों टुकड़ोंमें विदीर्ण नहीं हो रहा है॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदन्यन्निहतेनाजौ भीष्मेण जयमिच्छता ।
चेष्टितं कुरुसिंहेन तन्मे कथय सुव्रत ॥ ५ ॥
मूलम्
यदन्यन्निहतेनाजौ भीष्मेण जयमिच्छता ।
चेष्टितं कुरुसिंहेन तन्मे कथय सुव्रत ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उत्तम व्रतका पालन करनेवाले संजय! विजयकी अभिलाषा रखनेवाले कुरुकुलसिंह भीष्म जब युद्धमें मारे गये, उस समय उन्होंने दूसरी कौन-कौन-सी चेष्टाएँ की थीं? वह सब मुझसे कहो॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुनःपुनर्न मृष्यामि हतं देवव्रतं रणे।
न हतो जामदग्न्येन दिव्यैरस्त्रैरयं पुरा ॥ ६ ॥
स हतो द्रौपदेयेन पाञ्चाल्येन शिखण्डिना।
मूलम्
पुनःपुनर्न मृष्यामि हतं देवव्रतं रणे।
न हतो जामदग्न्येन दिव्यैरस्त्रैरयं पुरा ॥ ६ ॥
स हतो द्रौपदेयेन पाञ्चाल्येन शिखण्डिना।
अनुवाद (हिन्दी)
रणभूमिमें देवव्रत भीष्मका मारा जाना मुझे बारंबार असह्य हो उठता है। जो भीष्म पूर्वकालमें जमदग्निनन्दन परशुरामके दिव्यास्त्रोंद्वारा भी नहीं मारे जा सके, वे ही द्रुपदकुमार पांचालदेशीय शिखण्डीके हाथसे मारे गये; यह कितने दुःखकी बात है॥६॥
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सायाह्ने निहतो भूमौ धार्तराष्ट्रान् विषादयन् ॥ ७ ॥
पञ्चालानां ददौ हर्षं भीष्मः कुरुपितामहः।
मूलम्
सायाह्ने निहतो भूमौ धार्तराष्ट्रान् विषादयन् ॥ ७ ॥
पञ्चालानां ददौ हर्षं भीष्मः कुरुपितामहः।
अनुवाद (हिन्दी)
संजयने कहा— महाराज! कुरुकुलवृद्ध पितामह भीष्म सायंकालमें जब रणभूमिमें गिरे, उस समय उन्होंने आपके पुत्रोंको बड़े विषादमें डाल दिया और पांचालोंको हर्ष मनानेका अवसर दे दिया॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स शेते शरतल्पस्थो मेदिनीमस्पृशंस्तदा ॥ ८ ॥
भीष्मे रथात् प्रपतिते प्रच्युते धरणीतले।
हाहेति तुमुलः शब्दो भूतानां समपद्यत ॥ ९ ॥
मूलम्
स शेते शरतल्पस्थो मेदिनीमस्पृशंस्तदा ॥ ८ ॥
भीष्मे रथात् प्रपतिते प्रच्युते धरणीतले।
हाहेति तुमुलः शब्दो भूतानां समपद्यत ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे पृथ्वीका स्पर्श किये बिना ही उस समय बाणशय्यापर सो रहे थे। भीष्मके रथसे गिरकर धरतीपर पड़ जानेपर समस्त प्राणियोंमें भयंकर हाहाकार मच गया॥८-९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सीमावृक्षे निपतिते कुरूणां समितिंजये।
सेनयोरुभयो राजन् क्षत्रियान् भयमाविशत् ॥ १० ॥
मूलम्
सीमावृक्षे निपतिते कुरूणां समितिंजये।
सेनयोरुभयो राजन् क्षत्रियान् भयमाविशत् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! कुरुकुलके युद्धविजयी वीर भीष्म दोनों दलोंके लिये सीमावर्ती वृक्षके समान थे। उनके गिर जानेसे उभय पक्षकी सेनाओंमें जो क्षत्रिय थे, उनके मनमें भारी भय समा गया॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भीष्मं शान्तनवं दृष्ट्वा विशीर्णकवचध्वजम्।
कुरवः पर्यवर्तन्त पाण्डवाश्च विशाम्पते ॥ ११ ॥
मूलम्
भीष्मं शान्तनवं दृष्ट्वा विशीर्णकवचध्वजम्।
कुरवः पर्यवर्तन्त पाण्डवाश्च विशाम्पते ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजानाथ! जिनके कवच और ध्वज छिन्न-भिन्न हो गये थे, उन शान्तनुनन्दन भीष्मजीको उस अवस्थामें देखकर कौरव और पाण्डव दोनों ही उन्हें घेरकर खड़े हो गये॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
खं तमःसंवृतमभूदासीद् भानुर्गतप्रभः ।
ररास पृथिवी चैव भीष्मे शान्तनवे हते ॥ १२ ॥
मूलम्
खं तमःसंवृतमभूदासीद् भानुर्गतप्रभः ।
ररास पृथिवी चैव भीष्मे शान्तनवे हते ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय आकाशमें अन्धकार छा गया। सूर्यकी प्रभा फीकी पड़ गयी। शान्तनुनन्दन भीष्मके मारे जानेपर यह सारी पृथ्वी भयानक शब्द करने लगी॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयं ब्रह्मविदां श्रेष्ठो ह्ययं ब्रह्मविदां वरः।
इत्यभाषन्त भूतानि शयानं पुरुषर्षभम् ॥ १३ ॥
मूलम्
अयं ब्रह्मविदां श्रेष्ठो ह्ययं ब्रह्मविदां वरः।
इत्यभाषन्त भूतानि शयानं पुरुषर्षभम् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ सोये हुए पुरुषप्रवर भीष्मको देखकर कुछ दिव्य प्राणी कहने लगे, ‘ये ब्रह्मज्ञानियोंके शिरोमणि हैं, ये ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ हैं॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयं पितरमाज्ञाय कामार्तं शान्तनुं पुरा।
ऊर्ध्वरेतसमात्मानं चकार पुरुषर्षभः ॥ १४ ॥
मूलम्
अयं पितरमाज्ञाय कामार्तं शान्तनुं पुरा।
ऊर्ध्वरेतसमात्मानं चकार पुरुषर्षभः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इन्हीं पुरुषसिंहने पूर्वकालमें अपने पिता शान्तनुको कामासक्त जानकर अपने-आपको ऊर्ध्वरेता (नैष्ठिक ब्रह्मचारी) बना लिया’॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति स्म शरतल्पस्थं भरतानां महत्तमम्।
ऋषयस्त्वभ्यभाषन्त सहिताः सिद्धचारणैः ॥ १५ ॥
मूलम्
इति स्म शरतल्पस्थं भरतानां महत्तमम्।
ऋषयस्त्वभ्यभाषन्त सहिताः सिद्धचारणैः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार सिद्धों और चारणोंसहित ऋषिगण भरतकुलके महापुरुष भीष्मको बाणशय्यापर स्थित देख पूर्वोक्त बातें कहते थे॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हते शान्तनवे भीष्मे भरतानां पितामहे।
न किंचित् प्रत्यपद्यन्त पुत्रास्तव हि मारिष ॥ १६ ॥
मूलम्
हते शान्तनवे भीष्मे भरतानां पितामहे।
न किंचित् प्रत्यपद्यन्त पुत्रास्तव हि मारिष ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आर्य! भरतवंशियोंके पितामह शान्तनुनन्दन भीष्मके मारे जानेपर आपके पुत्रोंको कुछ भी नहीं सूझता था॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विषण्णवदनाश्चासन् हतश्रीकाश्च भारत ।
अतिष्ठन् व्रीडिताश्चैव ह्रिया युक्ता ह्यधोमुखाः ॥ १७ ॥
मूलम्
विषण्णवदनाश्चासन् हतश्रीकाश्च भारत ।
अतिष्ठन् व्रीडिताश्चैव ह्रिया युक्ता ह्यधोमुखाः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! उनके मुखपर विषाद छा गया था। वे श्रीहीन और लज्जित हो नीचेकी ओर मुँह लटकाये खड़े थे॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाण्डवाश्च जयं लब्ध्वा संग्रामशिरसि स्थिताः।
सर्वे दध्मुर्महाशङ्खान् हेमजालपरिष्कृतान् ॥ १८ ॥
मूलम्
पाण्डवाश्च जयं लब्ध्वा संग्रामशिरसि स्थिताः।
सर्वे दध्मुर्महाशङ्खान् हेमजालपरिष्कृतान् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाण्डव विजय पाकर युद्धके मुहानेपर खड़े थे और सब-के-सब सोनेकी जालियोंसे विभूषित बड़े-बड़े शंखोंको बजा रहे थे॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हर्षात् तूर्यसहस्रेषु वाद्यमानेषु चानघ।
अपश्याम महाराज भीमसेनं महाबलम् ॥ १९ ॥
विक्रीडमानं कौन्तेयं हर्षेण महता युतम्।
निहत्य तरसा शत्रुं महाबलसमन्वितम् ॥ २० ॥
मूलम्
हर्षात् तूर्यसहस्रेषु वाद्यमानेषु चानघ।
अपश्याम महाराज भीमसेनं महाबलम् ॥ १९ ॥
विक्रीडमानं कौन्तेयं हर्षेण महता युतम्।
निहत्य तरसा शत्रुं महाबलसमन्वितम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
निष्पाप महाराज! जब हर्षातिरेकसे सहस्रों बाजे बज रहे थे, उस समय हमने कुन्तीकुमार महाबली भीमसेनको देखा। वे महान् बल और पराक्रमसे सम्पन्न शत्रुको वेगपूर्वक मार देनेके कारण अत्यन्त हर्षके साथ नाच रहे थे॥१९-२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सम्मोहश्चापि तुमुलः कुरूणामभवत् ततः।
कर्णदुर्योधनौ चापि निःश्वसेतां मुहुर्मुहुः ॥ २१ ॥
मूलम्
सम्मोहश्चापि तुमुलः कुरूणामभवत् ततः।
कर्णदुर्योधनौ चापि निःश्वसेतां मुहुर्मुहुः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय कौरवोंपर भयंकर मोह छा गया था। कर्ण और दुर्योधन भी बारंबार लंबी साँसें खींच रहे थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा निपतिते भीष्मे कौरवाणां पितामहे।
हाहाभूतमभूत् सर्वं निर्मर्यादमवर्तत ॥ २२ ॥
मूलम्
तथा निपतिते भीष्मे कौरवाणां पितामहे।
हाहाभूतमभूत् सर्वं निर्मर्यादमवर्तत ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कौरवपितामह भीष्मके इस प्रकार रथसे गिर जानेपर सर्वत्र हाहाकार मच गया। कहीं कोई मर्यादा नहीं रह गयी॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्ट्वा च पतितं भीष्मं पुत्रो दुःशासनस्तव।
उत्तमं जवमास्थाय द्रोणानीकमुपाद्रवत् ॥ २३ ॥
भ्रात्रा प्रस्थापितो वीरः स्वेनानीकेन दंशितः।
प्रययौ पुरुषव्याघ्रः स्वसैन्यं स विषादयन् ॥ २४ ॥
मूलम्
दृष्ट्वा च पतितं भीष्मं पुत्रो दुःशासनस्तव।
उत्तमं जवमास्थाय द्रोणानीकमुपाद्रवत् ॥ २३ ॥
भ्रात्रा प्रस्थापितो वीरः स्वेनानीकेन दंशितः।
प्रययौ पुरुषव्याघ्रः स्वसैन्यं स विषादयन् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीको रणभूमिमें गिरा देख आपका वीर पुत्र पुरुषसिंह दुःशासन अपने भाईके भेजनेपर अपनी ही सेनासे घिरा हुआ बड़े वेगसे द्रोणाचार्यकी सेनाकी ओर दौड़ा गया। उस समय वह कौरव-सेनाको विषादमें डाल रहा था॥२३-२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमायान्तमभिप्रेक्ष्य कुरवः पर्यवारयन् ।
दुःशासनं महाराज किमयं वक्ष्यतीति च ॥ २५ ॥
मूलम्
तमायान्तमभिप्रेक्ष्य कुरवः पर्यवारयन् ।
दुःशासनं महाराज किमयं वक्ष्यतीति च ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! दुःशासनको आते देख समस्त कौरव-सैनिक उसे चारों ओरसे घेरकर खड़े हो गये कि देखें, यह क्या कहता है॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो द्रोणाय निहतं भीष्ममाचष्ट कौरवः।
द्रोणस्तत्राप्रियं श्रुत्वा मुमोह भरतर्षभ ॥ २६ ॥
मूलम्
ततो द्रोणाय निहतं भीष्ममाचष्ट कौरवः।
द्रोणस्तत्राप्रियं श्रुत्वा मुमोह भरतर्षभ ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! दुःशासनने द्रोणाचार्यसे भीष्मके मारे जानेका समाचार बताया। वह अप्रिय बात सुनते ही द्रोणाचार्य मूर्च्छित हो गये॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स संज्ञामुपलभ्याशु भारद्वाजः प्रतापवान्।
निवारयामास तदा स्वान्यनीकानि मारिष ॥ २७ ॥
मूलम्
स संज्ञामुपलभ्याशु भारद्वाजः प्रतापवान्।
निवारयामास तदा स्वान्यनीकानि मारिष ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आर्य! सचेत होनेपर प्रतापी द्रोणाचार्यने शीघ्र ही अपनी सेनाओंको युद्धसे रोक दिया॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विनिवृत्तान् कुरून् दृष्ट्वा पाण्डवाऽपि स्वसैनिकान्।
दूतैः शीघ्राश्वसंयुक्तैः समन्तात् पर्यवारयन् ॥ २८ ॥
मूलम्
विनिवृत्तान् कुरून् दृष्ट्वा पाण्डवाऽपि स्वसैनिकान्।
दूतैः शीघ्राश्वसंयुक्तैः समन्तात् पर्यवारयन् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कौरवोंको युद्धसे लौटते देख पाण्डवोंने भी शीघ्रगामी अश्वोंपर चढ़े हुए दूतोंद्वारा सब ओर आदेश भेजकर अपने सैनिकोंका भी युद्ध बंद करा दिया॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निवृत्तेषु च सैन्येषु पारम्पर्येण सर्वशः।
निर्मुक्तकवचाः सर्वे भीष्ममीयुर्नराधिपाः ॥ २९ ॥
मूलम्
निवृत्तेषु च सैन्येषु पारम्पर्येण सर्वशः।
निर्मुक्तकवचाः सर्वे भीष्ममीयुर्नराधिपाः ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बारी-बारीसे सब सेनाओंके युद्धसे निवृत्त हो जाने-पर सब राजा कवच खोलकर भीष्मके पास आये॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्युपरम्य ततो युद्धाद् योधाः शतसहस्रशः।
उपतस्थुर्महात्मानं प्रजापतिमिवामराः ॥ ३० ॥
मूलम्
व्युपरम्य ततो युद्धाद् योधाः शतसहस्रशः।
उपतस्थुर्महात्मानं प्रजापतिमिवामराः ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर लाखों योद्धा युद्धसे विरत होकर जैसे देवता प्रजापतिकी सेवामें उपस्थित होते हैं, उसी प्रकार महात्मा भीष्मके पास आये॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते तु भीष्मं समासाद्य शयानं भरतर्षभम्।
अभिवाद्यावतिष्ठन्त पाण्डवाः कुरुभिः सह ॥ ३१ ॥
मूलम्
ते तु भीष्मं समासाद्य शयानं भरतर्षभम्।
अभिवाद्यावतिष्ठन्त पाण्डवाः कुरुभिः सह ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे पाण्डव तथा कौरव बाणशय्यापर सोये हुए भरतश्रेष्ठ भीष्मकी सेवामें पहुँचकर उन्हें प्रणाम करके खड़े हो गये॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ पाण्डून् कुरूंश्चैव प्रणिपत्याग्रतः स्थितान्।
अभ्यभाषत धर्मात्मा भीष्मः शान्तनवस्तदा ॥ ३२ ॥
मूलम्
अथ पाण्डून् कुरूंश्चैव प्रणिपत्याग्रतः स्थितान्।
अभ्यभाषत धर्मात्मा भीष्मः शान्तनवस्तदा ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाण्डव तथा कौरव जब प्रणाम करके उनके सामने खड़े हुए, तब शान्तनुनन्दन धर्मात्मा भीष्मने उनसे इस प्रकार कहा—॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वागतं वो महाभागाः स्वागतं वो महारथाः।
तुष्यामि दर्शनाच्चाहं युष्माकममरोपमाः ॥ ३३ ॥
मूलम्
स्वागतं वो महाभागाः स्वागतं वो महारथाः।
तुष्यामि दर्शनाच्चाहं युष्माकममरोपमाः ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाभाग नरेशगण! आपलोगोंका स्वागत है। देवोपम महारथियो! आपका स्वागत है। मैं आपलोगोंके दर्शनसे बहुत संतुष्ट हूँ’॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभिमन्त्र्याथ तानेवं शिरसा लम्बताब्रवीत्।
शिरो मे लम्बतेऽत्यर्थमुपधानं प्रदीयताम् ॥ ३४ ॥
मूलम्
अभिमन्त्र्याथ तानेवं शिरसा लम्बताब्रवीत्।
शिरो मे लम्बतेऽत्यर्थमुपधानं प्रदीयताम् ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार उन सब लोगोंसे स्वागत-भाषण करके अपने लटकते हुए सिरके द्वारा ही वे बोले—‘राजाओ! मेरा सिर बहुत लटक रहा है। इसके लिये आपलोग मुझे तकिया दें’॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो नृपाः समाजह्रुस्तनूनि च मृदूनि च।
उपधानानि मुख्यानि नैच्छत् तानि पितामहः ॥ ३५ ॥
मूलम्
ततो नृपाः समाजह्रुस्तनूनि च मृदूनि च।
उपधानानि मुख्यानि नैच्छत् तानि पितामहः ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब राजालोग तत्काल बढ़िया, कोमल और महीन वस्त्रके बने हुए बहुत-से तकिये ले आये; परंतु पितामह भीष्मने उन्हें लेनेकी इच्छा नहीं की॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथाब्रवीन्नरव्याघ्रः प्रहसन्निव तान् नृपान्।
नैतानि वीरशय्यासु युक्तरूपाणि पार्थिवाः ॥ ३६ ॥
मूलम्
अथाब्रवीन्नरव्याघ्रः प्रहसन्निव तान् नृपान्।
नैतानि वीरशय्यासु युक्तरूपाणि पार्थिवाः ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर पुरुषसिंह भीष्मने हँसते हुए-से उन राजाओंसे कहा—‘भूमिपालो! ये तकिये वीरशय्याके अनुरूप नहीं हैं’॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो वीक्ष्य नरश्रेष्ठमभ्यभाषत पाण्डवम्।
धनंजयं दीर्घबाहुं सर्वलोकमहारथम् ॥ ३७ ॥
मूलम्
ततो वीक्ष्य नरश्रेष्ठमभ्यभाषत पाण्डवम्।
धनंजयं दीर्घबाहुं सर्वलोकमहारथम् ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद वे सम्पूर्ण लोकोंके विख्यात महारथी नरश्रेष्ठ महाबाहु पाण्डुपुत्र धनंजयकी ओर देखकर इस प्रकार बोले—॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनंजय महाबाहो शिरो मे तात लम्बते।
दीयतामुपधानं वै यद् युक्तमिह मन्यसे ॥ ३८ ॥
मूलम्
धनंजय महाबाहो शिरो मे तात लम्बते।
दीयतामुपधानं वै यद् युक्तमिह मन्यसे ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाबाहु धनंजय! मेरा सिर लटक रहा है। बेटा! यहाँ इसके अनुरूप जो तकिया तुम्हें ठीक जान पड़े, वह ला दो’॥३८॥
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
समारोप्य महच्चापमभिवाद्य पितामहम् ।
नेत्राभ्यामश्रुपूर्णाभ्यामिदं वचनमब्रवीत् ॥ ३९ ॥
मूलम्
समारोप्य महच्चापमभिवाद्य पितामहम् ।
नेत्राभ्यामश्रुपूर्णाभ्यामिदं वचनमब्रवीत् ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— राजन्! तब अर्जुनने पितामह भीष्मको प्रणाम करके अपना विशाल धनुष चढ़ा लिया और आँसूभरे नेत्रोंसे देखकर इस प्रकार कहा—॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आज्ञापय कुरुश्रेष्ठ सर्वशस्त्रभृतां वर।
प्रेष्योऽहं तव दुर्धर्ष क्रियतां किं पितामह ॥ ४० ॥
मूलम्
आज्ञापय कुरुश्रेष्ठ सर्वशस्त्रभृतां वर।
प्रेष्योऽहं तव दुर्धर्ष क्रियतां किं पितामह ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘समस्त शस्त्रधारियोंमें अग्रगण्य कुरुश्रेष्ठ! दुर्जय वीर पितामह! मैं आपका सेवक हूँ; आज्ञा दीजिये; क्या सेवा करूँ?’॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमब्रवीच्छान्तनवः शिरो मे तात लम्बते।
उपधानं कुरुश्रेष्ठ फाल्गुनोपदधत्स्व मे ॥ ४१ ॥
मूलम्
तमब्रवीच्छान्तनवः शिरो मे तात लम्बते।
उपधानं कुरुश्रेष्ठ फाल्गुनोपदधत्स्व मे ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब शान्तनुनन्दनने उनसे कहा—‘तात! मेरा सिर लटक रहा है। कुरुश्रेष्ठ फाल्गुन! तुम मेरे लिये तकिया लगा दो॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शयनस्यानुरूपं वै शीघ्रं वीर प्रयच्छ मे।
त्वं हि पार्थ समर्थो वै श्रेष्ठः सर्वधनुष्मताम् ॥ ४२ ॥
क्षत्रधर्मस्य वेत्ता च बुद्धिसत्त्वगुणान्वितः।
मूलम्
शयनस्यानुरूपं वै शीघ्रं वीर प्रयच्छ मे।
त्वं हि पार्थ समर्थो वै श्रेष्ठः सर्वधनुष्मताम् ॥ ४२ ॥
क्षत्रधर्मस्य वेत्ता च बुद्धिसत्त्वगुणान्वितः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘वीर कुन्तीकुमार! इस शय्याके अनुरूप शीघ्र मुझे तकिया दो। तुम्हीं उसे देनेमें समर्थ हो; क्योंकि सम्पूर्ण धनुर्धरोंमें तुम्हारा बहुत ऊँचा स्थान है। तुम क्षत्रियधर्मके ज्ञाता तथा बुद्धि और सत्त्व आदि सद्गुणोंसे सम्पन्न हो’॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
फाल्गुनोऽपि तथेत्युक्त्वा व्यवसायमरोचयत् ॥ ४३ ॥
गृह्यानुमन्त्र्य गाण्डीवं शरान् संनतपर्वणः।
अनुमान्य महात्मानं भरतानां महारथम् ॥ ४४ ॥
त्रिभिस्तीक्ष्णैर्महावेगैरन्वगृह्णाच्छिरः शरैः ।
मूलम्
फाल्गुनोऽपि तथेत्युक्त्वा व्यवसायमरोचयत् ॥ ४३ ॥
गृह्यानुमन्त्र्य गाण्डीवं शरान् संनतपर्वणः।
अनुमान्य महात्मानं भरतानां महारथम् ॥ ४४ ॥
त्रिभिस्तीक्ष्णैर्महावेगैरन्वगृह्णाच्छिरः शरैः ।
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुनने ‘जो आज्ञा’ कहकर इस कार्यके लिये प्रयत्न करना स्वीकार किया और गाण्डीव धनुष ले उसे अभिमन्त्रित करके झुकी हुई गाँठवाले तीन बाणोंको धनुषपर रखा। तत्पश्चात् भरतकुलके महात्मा महारथी भीष्मकी अनुमति ले उन अत्यन्त वेगशाली तीन तीखे बाणोंद्वारा उनके मस्तकको अनुगृहीत किया (कुछ ऊँचा करके स्थिर कर दिया)॥४३-४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभिप्राये तु विदिते धर्मात्मा सव्यसाचिना ॥ ४५ ॥
अतुष्यद् भरतश्रेष्ठो भीष्मो धर्मार्थतत्त्ववित्।
मूलम्
अभिप्राये तु विदिते धर्मात्मा सव्यसाचिना ॥ ४५ ॥
अतुष्यद् भरतश्रेष्ठो भीष्मो धर्मार्थतत्त्ववित्।
अनुवाद (हिन्दी)
सव्यसाची अर्जुनने उनके अभिप्रायको समझकर जब ठीक तकिया लगा दिया, तब धर्म और अर्थके तत्त्वको जाननेवाले धर्मात्मा भरतश्रेष्ठ भीष्म बहुत संतुष्ट हुए॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपधानेन दत्तेन प्रत्यनन्दद् धनंजयम् ॥ ४६ ॥
प्राह सर्वान् समुद्वीक्ष्य भरतान् भारतं प्रति।
कुन्तीपुत्रं युधां श्रेष्ठं सुहृदां प्रीतिवर्धनम् ॥ ४७ ॥
मूलम्
उपधानेन दत्तेन प्रत्यनन्दद् धनंजयम् ॥ ४६ ॥
प्राह सर्वान् समुद्वीक्ष्य भरतान् भारतं प्रति।
कुन्तीपुत्रं युधां श्रेष्ठं सुहृदां प्रीतिवर्धनम् ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने वह तकिया देनेसे अर्जुनकी प्रशंसा करके उन्हें प्रसन्न किया और समस्त भरतवंशियोंकी ओर देखकर योद्धाओंमें श्रेष्ठ, सुहृदोंका आनन्द बढ़ानेवाले, भरतकुलभूषण, कुन्तीपुत्र अर्जुनसे इस प्रकार कहा—॥४६-४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शयनस्यानुरूपं मे पाण्डवोपहितं त्वया।
यद्यन्यथा प्रपद्येथाः शपेयं त्वामहं रुषा ॥ ४८ ॥
मूलम्
शयनस्यानुरूपं मे पाण्डवोपहितं त्वया।
यद्यन्यथा प्रपद्येथाः शपेयं त्वामहं रुषा ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पाण्डुनन्दन! तुमने मेरी शय्याके अनुरूप मुझे तकिया प्रदान किया है। यदि इसके विपरीत तुमने और कोई तकिया दिया होता तो मैं कुपित होकर तुम्हें शाप दे देता॥४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमेव महाबाहो धर्मेषु परितिष्ठता।
स्वप्तव्यं क्षत्रियेणाजौ शरतल्पगतेन वै ॥ ४९ ॥
मूलम्
एवमेव महाबाहो धर्मेषु परितिष्ठता।
स्वप्तव्यं क्षत्रियेणाजौ शरतल्पगतेन वै ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाबाहो! अपने धर्ममें स्थित रहनेवाले क्षत्रियको युद्धस्थलमें इसी प्रकार बाणशय्यापर शयन करना चाहिये’॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्त्वा तु बीभत्सुं सर्वांस्तानब्रवीद् वचः।
राज्ञश्च राजपुत्रांश्च पाण्डवानभिसंस्थितान् ॥ ५० ॥
मूलम्
एवमुक्त्वा तु बीभत्सुं सर्वांस्तानब्रवीद् वचः।
राज्ञश्च राजपुत्रांश्च पाण्डवानभिसंस्थितान् ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुनसे ऐसा कहकर भीष्मने पाण्डवोंके पास खड़े हुए उन समस्त राजाओं और राजपुत्रोंसे कहा—॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पश्यध्वमुपधानं मे पाण्डवेनाभिसंधितम् ।
शिश्येऽहमस्यां शय्यायां यावदावर्तनं रवेः ॥ ५१ ॥
मूलम्
पश्यध्वमुपधानं मे पाण्डवेनाभिसंधितम् ।
शिश्येऽहमस्यां शय्यायां यावदावर्तनं रवेः ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पाण्डुनन्दन अर्जुनने मेरे सिरमें यह तकिया लगाया है, उसे आपलोग देखें। मैं इस शय्यापर तबतक शयन करूँगा, जबतक कि सूर्य उत्तरायणमें नहीं लौट आते हैं॥५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये तदा मां गमिष्यन्ति ते च प्रेक्ष्यन्ति मां नृपाः।
दिशं वैश्रवणाक्रान्तां यदाऽऽगन्ता दिवाकरः ॥ ५२ ॥
नूनं सप्ताश्वयुक्तेन रथेनोत्तमतेजसा ।
विमोक्ष्येऽहं तदा प्राणान् सुहृदः सुप्रियानिव ॥ ५३ ॥
मूलम्
ये तदा मां गमिष्यन्ति ते च प्रेक्ष्यन्ति मां नृपाः।
दिशं वैश्रवणाक्रान्तां यदाऽऽगन्ता दिवाकरः ॥ ५२ ॥
नूनं सप्ताश्वयुक्तेन रथेनोत्तमतेजसा ।
विमोक्ष्येऽहं तदा प्राणान् सुहृदः सुप्रियानिव ॥ ५३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सात घोड़ोंसे जुते हुए उत्तम तेजस्वी रथके द्वारा जब सूर्य कुबेरकी निवासभूत उत्तरदिशाके पथपर आ जायँगे, उस समय जो राजा मेरे पास आयेंगे, वे मेरी ऊर्ध्व गतिको देख सकेंगे। निश्चय ही उसी समय मैं अत्यन्त प्रियतम सुहृदोंकी भाँति अपने प्यारे प्राणोंका त्याग करूँगा॥५२-५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परिखा खन्यतामत्र ममावसदने नृपाः।
उपासिष्ये विवस्वन्तमेवं शरशताचितः ॥ ५४ ॥
मूलम्
परिखा खन्यतामत्र ममावसदने नृपाः।
उपासिष्ये विवस्वन्तमेवं शरशताचितः ॥ ५४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजाओ! मेरे इस स्थानके चारों ओर खाई खोद दो। मैं यहीं इसी प्रकार सैकड़ों बाणोंसे व्याप्त शरीरके द्वारा भगवान् सूर्यकी उपासना करूँगा॥५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपारमध्वं संग्रामाद् वैरमुत्सृज्य पार्थिवाः।
मूलम्
उपारमध्वं संग्रामाद् वैरमुत्सृज्य पार्थिवाः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘भूपालगण! अब आपलोग आपसका वैरभाव छोड़कर युद्धसे विरत हो जायँ’॥५४॥
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपातिष्ठन्नथो वैद्याः शल्योद्धरणकोविदाः ॥ ५५ ॥
सर्वोपकरणैर्युक्ताः कुशलैः साधु शिक्षिताः।
मूलम्
उपातिष्ठन्नथो वैद्याः शल्योद्धरणकोविदाः ॥ ५५ ॥
सर्वोपकरणैर्युक्ताः कुशलैः साधु शिक्षिताः।
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— महाराज! तदनन्तर शरीरसे बाणको निकाल फेंकनेकी कलामें कुशल वैद्य भीष्मजीकी सेवामें उपस्थित हुए। वे समस्त आवश्यक उपकरणोंसे युक्त और कुशल पुरुषोंद्वारा भलीभाँति शिक्षा पाये हुए थे॥५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तान् दृष्ट्वा जाह्नवीपुत्रः प्रोवाच तनयं तव ॥ ५६ ॥
धनं दत्त्वा विसृज्यन्तां पूजयित्वा चिकित्सकाः।
एवंगते मयेदानीं वैद्येः कार्यमिहास्ति किम् ॥ ५७ ॥
मूलम्
तान् दृष्ट्वा जाह्नवीपुत्रः प्रोवाच तनयं तव ॥ ५६ ॥
धनं दत्त्वा विसृज्यन्तां पूजयित्वा चिकित्सकाः।
एवंगते मयेदानीं वैद्येः कार्यमिहास्ति किम् ॥ ५७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्हें देखकर गंगानन्दन भीष्मने आपके पुत्र दुर्योधनसे कहा—‘वत्स! इन चिकित्सकोंको धन देकर सम्मानपूर्वक विदा कर दो। मुझे यहाँ इस अवस्थामें अब इन वैद्योंसे क्या काम है?॥५६-५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षत्रधर्मे प्रशस्तां हि प्राप्तोऽस्मि परमां गतिम्।
नैष धर्मो महीपालाः शरतल्पगतस्य मे ॥ ५८ ॥
एभिरेव शरैश्चाहं दग्धव्योऽस्मि नराधिपाः।
मूलम्
क्षत्रधर्मे प्रशस्तां हि प्राप्तोऽस्मि परमां गतिम्।
नैष धर्मो महीपालाः शरतल्पगतस्य मे ॥ ५८ ॥
एभिरेव शरैश्चाहं दग्धव्योऽस्मि नराधिपाः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘क्षत्रियधर्ममें जिसकी प्रशंसा की गयी है, उस उत्तम गतिको मैं प्राप्त हुआ हूँ। भूपालो! मैं बाणशय्यापर सोया हुआ हूँ। अब मेरा यह धर्म नहीं है कि इन बाणोंको निकालकर चिकित्सा कराऊँ। नरेश्वरो! मेरे इस शरीरको इन बाणोंके साथ ही दग्ध कर देना चाहिये’॥५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य पुत्रो दुर्योधनस्तव ॥ ५९ ॥
वैद्यान् विसर्जयामास पूजयित्वा यथार्हतः।
मूलम्
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य पुत्रो दुर्योधनस्तव ॥ ५९ ॥
वैद्यान् विसर्जयामास पूजयित्वा यथार्हतः।
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मकी यह बात सुनकर आपके पुत्र दुर्योधनने यथायोग्य सम्मान करके वैद्योंको विदा किया॥५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्ते विस्मयं जग्मुर्नानाजनपदेश्वराः ॥ ६० ॥
स्थितिं धर्मे परां दृष्ट्वा भीष्मस्यामिततेजसः।
मूलम्
ततस्ते विस्मयं जग्मुर्नानाजनपदेश्वराः ॥ ६० ॥
स्थितिं धर्मे परां दृष्ट्वा भीष्मस्यामिततेजसः।
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर विभिन्न जनपदोंके स्वामी नरेशगण अमिततेजस्वी भीष्मकी यह धर्मविषयक उत्तम निष्ठा देखकर बड़े विस्मित हुए॥६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपधानं ततो दत्त्वा पितुस्ते मनुजेश्वराः ॥ ६१ ॥
सहिताः पाण्डवाः सर्वे कुरवश्च महारथाः।
उपगम्य महात्मानं शयानं शयने शुभे ॥ ६२ ॥
तेऽभिवाद्य ततो भीष्मं कृत्वा च त्रिः प्रदक्षिणम्।
विधाय रक्षां भीष्मस्य सर्व एव समन्ततः ॥ ६३ ॥
वीराः स्वशिबिराण्येव ध्यायन्तः परमातुराः।
निवेशायाभ्युपागच्छन् सायाह्ने रुधिरोक्षिताः ॥ ६४ ॥
मूलम्
उपधानं ततो दत्त्वा पितुस्ते मनुजेश्वराः ॥ ६१ ॥
सहिताः पाण्डवाः सर्वे कुरवश्च महारथाः।
उपगम्य महात्मानं शयानं शयने शुभे ॥ ६२ ॥
तेऽभिवाद्य ततो भीष्मं कृत्वा च त्रिः प्रदक्षिणम्।
विधाय रक्षां भीष्मस्य सर्व एव समन्ततः ॥ ६३ ॥
वीराः स्वशिबिराण्येव ध्यायन्तः परमातुराः।
निवेशायाभ्युपागच्छन् सायाह्ने रुधिरोक्षिताः ॥ ६४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! आपके पितृतुल्य भीष्मको उपर्युक्त तकिया देकर उन नरेश, पाण्डव तथा महारथी कौरव सभीने एक साथ सुन्दर बाणशय्यापर सोये हुए महात्मा भीष्मके पास जाकर उन्हें प्रणाम करके उनकी तीन बार प्रदक्षिणा की और सब ओरसे भीष्मकी रक्षाकी व्यवस्था करके सभी वीर अपने शिविरको ही चल दिये। वे अत्यन्त आतुर होकर भीष्मका ही चिन्तन कर रहे थे। सायंकालमें खूनसे लथपथ हुए वे सब लोग अपने निवासस्थानपर गये॥६१—६४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निविष्टान् पाण्डवांश्चैव प्रीयमाणान् महारथान्।
भीष्मस्य पतने हृष्टानुपगम्य महाबलः ॥ ६५ ॥
उवाच माधवः काले धर्मपुत्रं युधिष्ठिरम्।
दिष्ट्या जयसि कौरव्य दिष्ट्या भीष्मो निपातितः ॥ ६६ ॥
मूलम्
निविष्टान् पाण्डवांश्चैव प्रीयमाणान् महारथान्।
भीष्मस्य पतने हृष्टानुपगम्य महाबलः ॥ ६५ ॥
उवाच माधवः काले धर्मपुत्रं युधिष्ठिरम्।
दिष्ट्या जयसि कौरव्य दिष्ट्या भीष्मो निपातितः ॥ ६६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाण्डव महारथी भीष्मके गिर जानेसे बहुत प्रसन्न थे और हर्षमें भरकर विश्राम कर रहे थे। उस समय महाबली भगवान् श्रीकृष्ण यथासमय उनके पास पहुँचकर धर्मपुत्र युधिष्ठिरसे इस प्रकार बोले—‘कुरुनन्दन! सौभाग्यकी बात है कि तुम जीत रहे हो। यह भी भाग्यकी ही बात है कि भीष्म रथसे गिरा दिये गये॥६५-६६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवध्यो मानुषैरेव सत्यसंधो महारथः।
अथवा दैवतैः सार्धं सर्वशास्त्रस्य पारगः ॥ ६७ ॥
त्वां तु चक्षुर्हणं प्राप्य दग्धो घोरेण चक्षुषा।
मूलम्
अवध्यो मानुषैरेव सत्यसंधो महारथः।
अथवा दैवतैः सार्धं सर्वशास्त्रस्य पारगः ॥ ६७ ॥
त्वां तु चक्षुर्हणं प्राप्य दग्धो घोरेण चक्षुषा।
अनुवाद (हिन्दी)
‘ये सत्यप्रतिज्ञ महारथी भीष्म सम्पूर्ण शास्त्रोंके पारंगत विद्वान् थे। इन्हें मनुष्य तथा सम्पूर्ण देवता मिलकर भी मार नहीं सकते थे। आप दृष्टिपातमात्रसे ही दूसरोंको भस्म करनेमें समर्थ हैं। आपके पास पहुँचकर भीष्म आपकी घोर दृष्टिसे ही नष्ट हो गये हैं’॥६७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तो धर्मराजः प्रत्युवाच जनार्दनम् ॥ ६८ ॥
तव प्रसादाद् विजयः क्रोधात् तव पराजयः।
त्वं हि नः शरणं कृष्ण भक्तानामभयंकरः ॥ ६९ ॥
मूलम्
एवमुक्तो धर्मराजः प्रत्युवाच जनार्दनम् ॥ ६८ ॥
तव प्रसादाद् विजयः क्रोधात् तव पराजयः।
त्वं हि नः शरणं कृष्ण भक्तानामभयंकरः ॥ ६९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके ऐसा कहनेपर धर्मराज युधिष्ठिरने भगवान् श्रीकृष्णको इस प्रकार उत्तर दिया—‘श्रीकृष्ण! आप हमारे आश्रय हैं तथा आप ही भक्तोंको अभय दान करनेवाले हैं। आपके ही कृपा-प्रसादसे विजय होती है और आपके ही रोषसे पराजय प्राप्त होती है॥६८-६९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनाश्चर्यो जयस्तेषां येषां त्वमसि केशव।
रक्षिता समरे नित्यं नित्यं चापि हिते रतः ॥ ७० ॥
सर्वथा त्वां समासाद्य नाश्चर्यमिति मे मतिः।
मूलम्
अनाश्चर्यो जयस्तेषां येषां त्वमसि केशव।
रक्षिता समरे नित्यं नित्यं चापि हिते रतः ॥ ७० ॥
सर्वथा त्वां समासाद्य नाश्चर्यमिति मे मतिः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘केशव! आप समरभूमिमें सदा जिनकी रक्षा करते हैं और नित्यप्रति जिनके हितमें तत्पर रहते हैं, उनकी विजय हो तो यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं है। आपकी शरण लेनेपर सर्वथा विजयकी प्राप्ति कोई आश्चर्यकी बात नहीं है, ऐसा मेरा निश्चय है’॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तः प्रत्युवाच स्मयमानो जनार्दनः।
तवैवैतद् युक्तरूपं वचनं पार्थिवोत्तम ॥ ७१ ॥
मूलम्
एवमुक्तः प्रत्युवाच स्मयमानो जनार्दनः।
तवैवैतद् युक्तरूपं वचनं पार्थिवोत्तम ॥ ७१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरके ऐसा कहनेपर जनार्दन श्रीकृष्णने मुसकराते हुए कहा—‘नृपश्रेष्ठ! आपका कथन सर्वथा युक्तिसंगत है’॥७१॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते भीष्मपर्वणि भीष्मवधपर्वणि भीष्मोपधानदाने विंशत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १२० ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्वके अन्तर्गत भीष्मवधपर्वमें भीष्मको तकिया देनेसे सम्बन्ध रखनेवाला एक सौ बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१२०॥