११२ द्रोणाश्वत्थामसंवादे

भागसूचना

द्वादशाधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

द्रोणाचार्यका अश्वत्थामाको अशुभ शकुनोंकी सूचना देते हुए उसे भीष्मकी रक्षाके लिये धृष्टद्युम्नसे युद्ध करनेका आदेश देना

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ वीरो महेष्वासो मत्तवारणविक्रमः।
समादाय महच्चापं मत्तवारणवारणम् ॥ १ ॥
विधुन्वानो नरश्रेष्ठो द्रावयाणो वरूथिनीम्।
पृतनां पाण्डवेयानां गाहमाना महाबलः ॥ २ ॥
निमित्तानि निमित्तज्ञः सर्वतो वीक्ष्य वीर्यवान्।
प्रतपन्तमनीकानि द्रोणः पुत्रमभाषत ॥ ३ ॥

मूलम्

अथ वीरो महेष्वासो मत्तवारणविक्रमः।
समादाय महच्चापं मत्तवारणवारणम् ॥ १ ॥
विधुन्वानो नरश्रेष्ठो द्रावयाणो वरूथिनीम्।
पृतनां पाण्डवेयानां गाहमाना महाबलः ॥ २ ॥
निमित्तानि निमित्तज्ञः सर्वतो वीक्ष्य वीर्यवान्।
प्रतपन्तमनीकानि द्रोणः पुत्रमभाषत ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— राजन्! तदनन्तर महाधनुर्धर, मतवाले हाथीके समान पराक्रमी, वीर, नरश्रेष्ठ, महाबली तथा शुभाशुभ निमित्तोंके ज्ञाता एवं अद्भुत शक्तिशाली द्रोणाचार्य मतवाले हाथियोंकी गतिको कुण्ठित कर देनेवाले विशाल धनुषको हाथमें लेकर उसे खींचने और विपक्षी सेनाको भगाने लगे। उन्होंने पाण्डवोंकी सेनामें प्रवेश करते समय सब ओर बुरे निमित्त (शकुन) देखकर शत्रुसेनाको संताप देते हुए पुत्र अश्वत्थामासे इस प्रकार कहा—॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयं हि दिवसस्तात यत्र पार्थो महाबलः।
जिघांसुः समरे भीष्मं परं यत्नं करिष्यति ॥ ४ ॥

मूलम्

अयं हि दिवसस्तात यत्र पार्थो महाबलः।
जिघांसुः समरे भीष्मं परं यत्नं करिष्यति ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तात! यही वह दिन है, जब कि महाबली अर्जुन समरभूमिमें भीष्मको मार डालनेकी इच्छासे महान् प्रयत्न करेंगे॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्पतन्ति हि मे बाणा धनुः प्रस्फुरतीव च।
योगमस्त्राणि गच्छन्ति क्रूरे मे वर्तते मतिः ॥ ५ ॥

मूलम्

उत्पतन्ति हि मे बाणा धनुः प्रस्फुरतीव च।
योगमस्त्राणि गच्छन्ति क्रूरे मे वर्तते मतिः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मेरे बाण तरकससे उछले पड़ते हैं, धनुष फड़क उठता है, अस्त्र स्वयं ही धनुषसे संयुक्त हो जाते हैं और मेरे मनमें क्रूरकर्म करनेका संकल्प हो रहा है॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिक्ष्वशान्तानि घोराणि व्याहरन्ति मृगद्विजाः।
नीचैर्गृध्रा निलीयन्ते भारतानां चमूं प्रति ॥ ६ ॥

मूलम्

दिक्ष्वशान्तानि घोराणि व्याहरन्ति मृगद्विजाः।
नीचैर्गृध्रा निलीयन्ते भारतानां चमूं प्रति ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सम्पूर्ण दिशाओंमें पशु और पक्षी अशान्तिपूर्ण भयंकर बोली बोल रहे हैं। गीध नीचे आकर कौरव-सेनामें छिप रहे हैं॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नष्टप्रभ इवादित्यः सर्वतो लोहिता दिशः।
रसते व्यथते भूमिः कम्पतीव च सर्वशः ॥ ७ ॥

मूलम्

नष्टप्रभ इवादित्यः सर्वतो लोहिता दिशः।
रसते व्यथते भूमिः कम्पतीव च सर्वशः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सूर्यकी प्रभा मन्द-सी पड़ गयी है। सम्पूर्ण दिशाएँ लाल हो रही हैं। पृथिवी सब ओरसे कोलाहलपूर्ण, व्यथित और कम्पित-सी हो रही है॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कङ्का गृध्रा बलाकाश्च व्याहरन्ति मुहुर्मुहुः।
शिवाश्चैवाशिवा घोरा वेदयन्त्यो महद् भयम् ॥ ८ ॥
(ववाशिरे भयकरा दीप्तास्याभिमुखे रवेः।)

मूलम्

कङ्का गृध्रा बलाकाश्च व्याहरन्ति मुहुर्मुहुः।
शिवाश्चैवाशिवा घोरा वेदयन्त्यो महद् भयम् ॥ ८ ॥
(ववाशिरे भयकरा दीप्तास्याभिमुखे रवेः।)

अनुवाद (हिन्दी)

‘कंक, गीध और बगले बारंबार बोल रहे हैं। अमंगलमयी घोररूपवाली गीदड़ियाँ महान् भयकी सूचना देती हुई सूर्यकी ओर मुँह करके भयानक बोली बोला करती हैं और उनका मुँह प्रज्वलित-सा जान पड़ता है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पपात महती चोल्का मध्येनादित्यमण्डलात्।
सकबन्धश्च परिघो भानुमावृत्य तिष्ठति ॥ ९ ॥

मूलम्

पपात महती चोल्का मध्येनादित्यमण्डलात्।
सकबन्धश्च परिघो भानुमावृत्य तिष्ठति ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सूर्यमण्डलके मध्यभागसे बड़ी-बड़ी उल्काएँ गिरी हैं। कबन्धयुक्त परिघ सूर्यको चारों ओरसे घेरकर स्थित है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परिवेषस्तथा घोरश्चन्द्रभास्करयोरभूत् ।
वेदयानो भयं घोरं राज्ञां देहावकर्तनम् ॥ १० ॥

मूलम्

परिवेषस्तथा घोरश्चन्द्रभास्करयोरभूत् ।
वेदयानो भयं घोरं राज्ञां देहावकर्तनम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘चन्द्रमा और सूर्यके चारों ओर भयंकर घेरा पड़ने लगा है, जो क्षत्रियोंके शरीरका विनाश करनेवाले घोर भयकी सूचना दे रहा है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवतायतनस्थाश्च कौरवेन्द्रस्य देवताः ।
कम्पन्ते च हसन्ते च नृत्यन्ति च रुदन्ति च॥११॥

मूलम्

देवतायतनस्थाश्च कौरवेन्द्रस्य देवताः ।
कम्पन्ते च हसन्ते च नृत्यन्ति च रुदन्ति च॥११॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कौरवराज धृतराष्ट्रके देवालयोंकी देवमूर्तियाँ हिलती, हँसती, नाचती तथा रोती जान पड़ती हैं॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपसव्यं ग्रहाश्चक्रुरलक्ष्माणं दिवाकरम् ।
अवाक्‌शिराश्च भगवानुपातिष्ठत चन्द्रमाः ॥ १२ ॥

मूलम्

अपसव्यं ग्रहाश्चक्रुरलक्ष्माणं दिवाकरम् ।
अवाक्‌शिराश्च भगवानुपातिष्ठत चन्द्रमाः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ग्रहोंने सूर्यकी वामावर्त परिक्रमा करके उन्हें अशुभ लक्षणोंका सूचक बना दिया है, भगवान् चन्द्रमा अपने दोनों कोनोंके सिरे नीचे करके उदित हुए हैं॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वपूंषि च नरेन्द्राणां विगताभानि लक्षये।
धार्तराष्ट्रस्य सैन्येषु न च भ्राजन्ति दंशिताः ॥ १३ ॥

मूलम्

वपूंषि च नरेन्द्राणां विगताभानि लक्षये।
धार्तराष्ट्रस्य सैन्येषु न च भ्राजन्ति दंशिताः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजाओंके शरीरोंको मैं श्रीहीन देख रहा हूँ। दुर्योधनकी सेनाओंमें जो लोग कवच धारण करके स्थित हैं, उनकी शोभा नहीं हो रही है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सेनयोरुभयोश्चापि समन्ताच्छ्रूयते महान् ।
पाञ्चजन्यस्य निर्घोषो गाण्डीवस्य च निःस्वनः ॥ १४ ॥

मूलम्

सेनयोरुभयोश्चापि समन्ताच्छ्रूयते महान् ।
पाञ्चजन्यस्य निर्घोषो गाण्डीवस्य च निःस्वनः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘दोनों ही सेनाओंमें चारों ओर पांचजन्य शंखका गम्भीर घोष और गाण्डीवधनुषकी टंकारध्वनि सुनायी देती है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ध्रुवमास्थाय बीभत्सुरुत्तमास्त्राणि संयुगे ।
अपास्यान्यान् रणे योधानभ्येष्यति पितामहम् ॥ १५ ॥

मूलम्

ध्रुवमास्थाय बीभत्सुरुत्तमास्त्राणि संयुगे ।
अपास्यान्यान् रणे योधानभ्येष्यति पितामहम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इससे यह निश्चय जान पड़ता है कि अर्जुन युद्धस्थलमें उत्तम अस्त्रोंका आश्रय ले दूसरे योद्धाओंको दूर हटाकर रणभूमिमें पितामह भीष्मके पास पहुँच जायँगे॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हृष्यन्ति रोमकूपाणि सीदतीव च मे मनः।
चिन्तयित्वा महाबाहो भीष्मार्जुनसमागमम् ॥ १६ ॥

मूलम्

हृष्यन्ति रोमकूपाणि सीदतीव च मे मनः।
चिन्तयित्वा महाबाहो भीष्मार्जुनसमागमम् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाबाहो! भीष्म और अर्जुनके युद्धका विचार करके मेरे रोंगटे खड़े हो रहे हैं और मन शिथिल-सा होता जा रहा है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं चेह निकृतिप्रज्ञं पाञ्चाल्यं पापचेतसम्।
पुरस्कृत्य रणे पार्थो भीष्मस्यायोधनं गतः ॥ १७ ॥

मूलम्

तं चेह निकृतिप्रज्ञं पाञ्चाल्यं पापचेतसम्।
पुरस्कृत्य रणे पार्थो भीष्मस्यायोधनं गतः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शठताके पूरे पण्डित उस पापात्मा पांचाल-राजकुमार शिखण्डीको यहाँ रणमें आगे करके कुन्तीकुमार अर्जुन भीष्मसे युद्ध करनेके लिये गये हैं॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अब्रवीच्च पुरा भीष्मो नाहं हन्यां शिखण्डिनम्।
स्त्री ह्येषा विहिता धात्रा दैवाच्च स पुनः पुमान्॥१८॥

मूलम्

अब्रवीच्च पुरा भीष्मो नाहं हन्यां शिखण्डिनम्।
स्त्री ह्येषा विहिता धात्रा दैवाच्च स पुनः पुमान्॥१८॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भीष्मने पहले ही यह कह दिया था कि मैं शिखण्डीको नहीं मारूँगा; क्योंकि विधाताने इसे स्त्री ही बनाया था। फिर भाग्यवश यह पुरुष हो गया॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अमङ्गल्यध्वजश्चैव याज्ञसेनिर्महाबलः ।
न चामङ्गलिके तस्मिन् प्रहरेदापगासुतः ॥ १९ ॥

मूलम्

अमङ्गल्यध्वजश्चैव याज्ञसेनिर्महाबलः ।
न चामङ्गलिके तस्मिन् प्रहरेदापगासुतः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इसके सिवा द्रुपदका यह महाबली पुत्र अपनी ध्वजामें अमंगलसूचक चिह्न धारण करता है। अतः इस अमांगलिक शिखण्डीपर गंगानन्दन भीष्म कभी प्रहार नहीं करेंगे॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतद् विचिन्तयानस्य प्रज्ञा सीदति मे भृशम्।
अभ्युद्यतो रणे पार्थः कुरुवृद्धमुपाद्रवत् ॥ २० ॥

मूलम्

एतद् विचिन्तयानस्य प्रज्ञा सीदति मे भृशम्।
अभ्युद्यतो रणे पार्थः कुरुवृद्धमुपाद्रवत् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इन सब बातोंपर जब मैं विचार करता हूँ, तब मेरी बुद्धि अत्यन्त शिथिल हो जाती है। आज अर्जुनने पूरी तैयारीके साथ रणभूमिमें कुरुकुलके वृद्ध पुरुष भीष्मजीपर धावा किया है॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

युधिष्ठिरस्य च क्रोधो भीष्मश्चार्जुनसङ्गतः।
मम चास्त्रसमारम्भः प्रजानामशिवं ध्रुवम् ॥ २१ ॥

मूलम्

युधिष्ठिरस्य च क्रोधो भीष्मश्चार्जुनसङ्गतः।
मम चास्त्रसमारम्भः प्रजानामशिवं ध्रुवम् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘युधिष्ठिरका क्रोध करना, भीष्म और अर्जुनका संघर्ष होना और मेरा अपने विविध अस्त्रोंके प्रयोगके लिये उद्योग करना—ये तीनों बातें निश्चय ही प्रजाजनोंके अमंगलकी सूचना देनेवाली हैं॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनस्वी बलवाञ्छूरः कृतास्त्रो लघुविक्रमः।
दूरपाती दृढेषुश्च निमित्तज्ञश्च पाण्डवः ॥ २२ ॥

मूलम्

मनस्वी बलवाञ्छूरः कृतास्त्रो लघुविक्रमः।
दूरपाती दृढेषुश्च निमित्तज्ञश्च पाण्डवः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पाण्डुनन्दन अर्जुन मनस्वी, बलवान्, शूरवीर, अस्त्रविद्याके पण्डित, शीघ्रतापूर्वक पराक्रम प्रकट करनेवाले, दूरतकका लक्ष्य बेधनेवाले, सुदृढ़ बाणोंका संग्रह रखनेवाले तथा शुभाशुभ निमित्तोंके ज्ञाता हैं॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अजेयः समरे चापि देवैरपि सवासवैः।
बलवान् बुद्धिमांश्चैव जितक्लेशो युधां वरः ॥ २३ ॥

मूलम्

अजेयः समरे चापि देवैरपि सवासवैः।
बलवान् बुद्धिमांश्चैव जितक्लेशो युधां वरः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवता भी उन्हें युद्धमें पराजित नहीं कर सकते। वे बलवान्, बुद्धिमान्, क्लेशोंपर विजय पानेवाले और योद्धाओंमें श्रेष्ठ हैं॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विजयी च रणे नित्यं भैरवास्त्रश्च पाण्डवः।
तस्य मार्गं परिहरन् द्रुतं गच्छ यतव्रत ॥ २४ ॥

मूलम्

विजयी च रणे नित्यं भैरवास्त्रश्च पाण्डवः।
तस्य मार्गं परिहरन् द्रुतं गच्छ यतव्रत ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘उन्हें युद्धमें सदा विजय प्राप्त होती है। पाण्डुनन्दन अर्जुनके अस्त्र बड़े भयंकर हैं। उत्तम व्रतका पालन करनेवाले पुत्र! इसलिये तुम उनका रास्ता छोड़कर शीघ्र भीष्मजीकी रक्षाके लिये चले जाओ॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पश्याद्यैतन्महाघोरे संयुगे वैशसं महत्।
हेमचित्राणि शूराणां महान्ति च शुभानि च ॥ २५ ॥
कवचान्यवदीर्यन्ते शरैः संनतपर्वभिः ।
छिद्यन्ते च ध्वजाग्राणि तोमराश्च धनूंषि च ॥ २६ ॥

मूलम्

पश्याद्यैतन्महाघोरे संयुगे वैशसं महत्।
हेमचित्राणि शूराणां महान्ति च शुभानि च ॥ २५ ॥
कवचान्यवदीर्यन्ते शरैः संनतपर्वभिः ।
छिद्यन्ते च ध्वजाग्राणि तोमराश्च धनूंषि च ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘देखो, इस महाघोर संग्राममें आज यह कैसा महान् जनसंहार हो रहा है? शूरवीरोंके स्वर्णजटित, शुभ एवं महान् कवच अर्जुनके झुकी हुई गाँठवाले बाणोंद्वारा विदीर्ण किये जा रहे हैं। ध्वजके अग्रभाग, तोमर और धनुषोंके टुकड़े-टुकड़े किये जा रहे हैं॥२५-२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रासाश्च विमलास्तीक्ष्णाः शक्त्यश्च कनकोज्ज्वलाः।
वैजयन्त्यश्च नागानां संक्रुद्धेन किरीटिना ॥ २७ ॥

मूलम्

प्रासाश्च विमलास्तीक्ष्णाः शक्त्यश्च कनकोज्ज्वलाः।
वैजयन्त्यश्च नागानां संक्रुद्धेन किरीटिना ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘चमकीले प्रास, सुवर्णजटित होनेके कारण सुनहरी कान्तिसे प्रकाशित होनेवाली तीखी शक्तियाँ और हाथियोंपर फहराती हुई वैजयन्ती पताकाएँ क्रोधमें भरे हुए किरीटधारी अर्जुनके द्वारा छिन्न-भिन्न की जा रही हैं॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नायं संरक्षितुं कालः प्राणान् पुत्रोपजीविभिः।
याहि स्वर्गं पुरस्कृत्य यशसे विजयाय च ॥ २८ ॥

मूलम्

नायं संरक्षितुं कालः प्राणान् पुत्रोपजीविभिः।
याहि स्वर्गं पुरस्कृत्य यशसे विजयाय च ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘बेटा! आश्रित रहकर जीविका चलानेवाले पुरुषोंके लिये यह अपने प्राणोंकी रक्षाका अवसर नहीं है। तुम स्वर्गको सामने रखकर यश और विजयकी प्राप्तिके लिये भीष्मजीके पास जाओ॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रथनागहयावर्तां महाघोरां सुदुर्गमाम् ।
रथेन संग्रामनदीं तरत्येष कपिध्वजः ॥ २९ ॥

मूलम्

रथनागहयावर्तां महाघोरां सुदुर्गमाम् ।
रथेन संग्रामनदीं तरत्येष कपिध्वजः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यह युद्ध एक महाघोर और अत्यन्त दुर्गम नदीके समान है। उसमें रथ, हाथी और घोड़े भँवर हैं, कपिध्वज अर्जुन रथरूपी नौकाके द्वारा इसे पार कर रहे हैं॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मण्यता दमो दानं तपश्च चरितं महत्।
इहैव दृश्यते पार्थे भ्राता यस्य धनंजयः ॥ ३० ॥
भीमसेनश्च बलवान् माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ।
वासुदेवश्च वार्ष्णेयो यस्य नाथो व्यवस्थितः ॥ ३१ ॥

मूलम्

ब्रह्मण्यता दमो दानं तपश्च चरितं महत्।
इहैव दृश्यते पार्थे भ्राता यस्य धनंजयः ॥ ३० ॥
भीमसेनश्च बलवान् माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ।
वासुदेवश्च वार्ष्णेयो यस्य नाथो व्यवस्थितः ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यहाँ केवल कुन्तीकुमार युधिष्ठिरमें ही ब्राह्मणोंके प्रति भक्ति, इन्द्रियसंयम, दान, तप और श्रेष्ठ सदाचार आदि सद्‌गुण दिखायी देते हैं, जिनके फलस्वरूप उन्हें अर्जुन, बलवान् भीम तथा माद्रीकुमार पाण्डुपुत्र नकुल और सहदेव-जैसे भाई मिले हैं एवं वृष्णिनन्दन भगवान् वासुदेव उनके रक्षक और सहायक बनकर सदा साथ रहते हैं॥३०-३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्यैष मन्युप्रभवो धार्तराष्ट्रस्य दुर्मतेः।
तपोदग्धशरीरस्य कोपो दहति भारतीम् ॥ ३२ ॥

मूलम्

तस्यैष मन्युप्रभवो धार्तराष्ट्रस्य दुर्मतेः।
तपोदग्धशरीरस्य कोपो दहति भारतीम् ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इस दुर्बुद्धि दुर्योधनका शरीर उन्हींकी तपस्यासे दग्धप्राय हो गया है और इसकी भारती सेनाको उन्हींकी क्रोधाग्नि जलाकर भस्म किये देती है॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष संदृश्यते पार्थो वासुदेवव्यपाश्रयः।
दारयन् सर्वसैन्यानि धार्तराष्ट्राणि सर्वशः ॥ ३३ ॥

मूलम्

एष संदृश्यते पार्थो वासुदेवव्यपाश्रयः।
दारयन् सर्वसैन्यानि धार्तराष्ट्राणि सर्वशः ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘देखो, भगवान् वासुदेवकी शरणमें रहनेवाले ये अर्जुन कौरवोंकी सम्पूर्ण सेनाओंको सब ओरसे विदीर्ण करते हुए इधर ही आते दिखायी देते हैं॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतदालोक्यते सैन्यं क्षोभ्यमाणं किरीटिना।
महोर्मिनद्धं सुमहत् तिमिनेव महाजलम् ॥ ३४ ॥

मूलम्

एतदालोक्यते सैन्यं क्षोभ्यमाणं किरीटिना।
महोर्मिनद्धं सुमहत् तिमिनेव महाजलम् ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जैसे तिमि नामक महामत्स्य उत्तालतरंगोंसे युक्त महासागरके जलको मथ डालता है, उसी प्रकार किरीटधारी अर्जुनके द्वारा मथित हो यह कौरवसेना विक्षुब्ध होती दिखायी देती है॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हाहाकिलकिलाशब्दाः श्रूयन्ते च चमूमुखे।
याहि पाञ्चालदायादमहं यास्ये युधिष्ठिरम् ॥ ३५ ॥

मूलम्

हाहाकिलकिलाशब्दाः श्रूयन्ते च चमूमुखे।
याहि पाञ्चालदायादमहं यास्ये युधिष्ठिरम् ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सेनाके प्रमुख भागमें हाहाकार और किलकिलाहटके शब्द सुनायी देते हैं। तुम द्रुपदकुमार धृष्टद्युम्नका सामना करनेके लिये जाओ और मैं युधिष्ठिरपर चढ़ाई करूँगा॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुर्गमं ह्यन्तरं राज्ञो व्यूहस्यामिततेजसः।
समुद्रकुक्षिप्रतिमं सर्वतोऽतिरथैः स्थितैः ॥ ३६ ॥

मूलम्

दुर्गमं ह्यन्तरं राज्ञो व्यूहस्यामिततेजसः।
समुद्रकुक्षिप्रतिमं सर्वतोऽतिरथैः स्थितैः ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अमित तेजस्वी राजा युधिष्ठिरके व्यूहके भीतर प्रवेश करना समुद्रके अंदर प्रवेश करनेके समान बहुत कठिन है; क्योंकि उनके चारों ओर अतिरथी योद्धा खड़े हैं॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सात्यकिश्चाभिमन्युश्च धृष्टद्युम्नवृकोदरौ ।
पर्यरक्षन्त राजानं यमौ च मनुजेश्वरम् ॥ ३७ ॥

मूलम्

सात्यकिश्चाभिमन्युश्च धृष्टद्युम्नवृकोदरौ ।
पर्यरक्षन्त राजानं यमौ च मनुजेश्वरम् ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सात्यकि, अभिमन्यु, धृष्टद्युम्न, भीमसेन और नकुल, सहदेव नरेश्वर राजा युधिष्ठिरकी रक्षा कर रहे हैं॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपेन्द्रसदृशः श्यामो महाशाल इवोद्‌गतः।
एष गच्छत्यनीकाग्रे द्वितीय इव फाल्गुनः ॥ ३८ ॥

मूलम्

उपेन्द्रसदृशः श्यामो महाशाल इवोद्‌गतः।
एष गच्छत्यनीकाग्रे द्वितीय इव फाल्गुनः ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यह देखो, भगवान् विष्णुके समान श्याम और महान् शालवृक्षके समान ऊँचा अभिमन्यु द्वितीय अर्जुनके समान सेनाके आगे-आगे चल रहा है॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्तमास्त्राणि चाधत्स्व गृहीत्वा च महद् धनुः।
पार्षतं याहि राजानं युध्यस्व च वृकोदरम् ॥ ३९ ॥

मूलम्

उत्तमास्त्राणि चाधत्स्व गृहीत्वा च महद् धनुः।
पार्षतं याहि राजानं युध्यस्व च वृकोदरम् ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम अपने उत्तम अस्त्रोंको धारण करो और विशाल धनुष लेकर द्रुपदकुमार धृष्टद्युम्न तथा भीमसेनके साथ युद्ध करो॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

को हि नेच्छेत् प्रियं पुत्रं जीवन्तं शाश्वतीः समाः।
क्षत्रधर्मं तु सम्प्रेक्ष्य ततस्त्वां नियुनज्म्यहम् ॥ ४० ॥

मूलम्

को हि नेच्छेत् प्रियं पुत्रं जीवन्तं शाश्वतीः समाः।
क्षत्रधर्मं तु सम्प्रेक्ष्य ततस्त्वां नियुनज्म्यहम् ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अपना प्यारा पुत्र नित्य-निरन्तर जीवित रहे, यह कौन नहीं चाहता है तथापि क्षत्रिय-धर्मपर दृष्टि रखकर मैं तुम्हें इस कार्यमें नियुक्त कर रहा हूँ॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष चातिरणे भीष्मो दहते वै महाचमूम्।
युद्धेषु सदृशस्तात यमस्य वरुणस्य च ॥ ४१ ॥

मूलम्

एष चातिरणे भीष्मो दहते वै महाचमूम्।
युद्धेषु सदृशस्तात यमस्य वरुणस्य च ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तात! ये भीष्म रणक्षेत्रमें यमराज और वरुणके समान पराक्रम दिखाते हुए पाण्डवोंकी विशाल सेनाको अत्यन्त दग्ध कर रहे हैं’॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(पुत्रं समनुशास्यैवं भारद्वाजः प्रतापवान्।
महारणे महाराज धर्मराजमयोधयत् ॥)

मूलम्

(पुत्रं समनुशास्यैवं भारद्वाजः प्रतापवान्।
महारणे महाराज धर्मराजमयोधयत् ॥)

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! अपने पुत्रको इस प्रकार आदेश देकर प्रतापी द्रोणाचार्य इस महायुद्धमें धर्मराजके साथ युद्ध करने लगे।

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते भीष्मपर्वणि भीष्मवधपर्वणि द्रोणाश्वत्थामसंवादे द्वादशाधिकशततमोऽध्यायः ॥ ११२ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्वके अन्तर्गत भीष्मवधपर्वमें द्रोण और अश्वत्थामाका संवादविषयक एक सौ बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥११२॥

सूचना (हिन्दी)

[दाक्षिणात्य अधिक पाठके १ श्लोक मिलाकर कुल ४२ श्लोक हैं।]