१०७ नवमदिवसावहारोत्तरमन्त्रे

भागसूचना

सप्ताधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

नवें दिनके युद्धकी समाप्ति, रातमें पाण्डवोंकी गुप्त मन्त्रणा तथा श्रीकृष्णसहित पाण्डवोंका भीष्मसे मिलकर उनके वधका उपाय जानना

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

युध्यतामेव तेषां तु भास्करेऽस्तमुपागते।
संध्या समभवद् घोरा नापश्याम ततो रणम् ॥ १ ॥

मूलम्

युध्यतामेव तेषां तु भास्करेऽस्तमुपागते।
संध्या समभवद् घोरा नापश्याम ततो रणम् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— राजन्! कौरवों और पाण्डवोंके युद्ध करते समय ही सूर्यदेव अस्ताचलको चले गये और भयंकर संध्याकाल आ गया। फिर हमलोगोंने युद्ध नहीं देखा॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो युधिष्ठिरो राजा संध्यां संदृश्य भारत।
वध्यमानं च भीष्मेण त्यक्तास्त्रं भयविह्वलम् ॥ २ ॥
(निरुत्साहं बलं दृष्ट्‌वा पीडितं शरविक्षतम्।)
स्वसैन्यं च परावृत्तं पलायनपरायणम्।
भीष्मं च युधि संरब्धं पीडयन्तं महारथम् ॥ ३ ॥
सोमकांश्च जितान् दृष्ट्वा निरुत्साहान् महारथान्।
(निशामुखं च सम्प्रेक्ष्य घोररूपं भयानकम्।)
चिन्तयित्वा ततो राजा अवहारमरोचयत् ॥ ४ ॥

मूलम्

ततो युधिष्ठिरो राजा संध्यां संदृश्य भारत।
वध्यमानं च भीष्मेण त्यक्तास्त्रं भयविह्वलम् ॥ २ ॥
(निरुत्साहं बलं दृष्ट्‌वा पीडितं शरविक्षतम्।)
स्वसैन्यं च परावृत्तं पलायनपरायणम्।
भीष्मं च युधि संरब्धं पीडयन्तं महारथम् ॥ ३ ॥
सोमकांश्च जितान् दृष्ट्वा निरुत्साहान् महारथान्।
(निशामुखं च सम्प्रेक्ष्य घोररूपं भयानकम्।)
चिन्तयित्वा ततो राजा अवहारमरोचयत् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! तत्पश्चात् राजा युधिष्ठिरने देखा कि संध्या हो गयी। भीष्मके द्वारा गहरी चोट खाकर मेरी सेनाने भयसे व्याकुल हो हथियार डाल दिया है। किसीमें लड़नेका उत्साह नहीं रह गया है। सारी सेना बाणोंसे क्षत-विक्षत हो अत्यन्त पीड़ित हो गयी है। कितने ही सैनिक युद्धसे विमुख हो भागने लग गये हैं। उधर महारथी भीष्म क्रोधमें भरकर युद्धस्थलमें सबको पीड़ा दे रहे हैं। सोमकवंशी महारथी पराजित होकर अपना उत्साह खो बैठे हैं और घोररूप भयानक प्रदोषकाल आ पहुँचा है। इन सब बातोंपर विचार करके राजा युधिष्ठिरने सेनाको युद्धसे लौटा लेना ही ठीक समझा॥२—४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(कथं जयेम भीष्मं वै महाबलपराक्रमम्।
बुद्धिं स्वशिबिरं गन्तुं चक्रे राजा युधिष्ठिरः॥)

मूलम्

(कथं जयेम भीष्मं वै महाबलपराक्रमम्।
बुद्धिं स्वशिबिरं गन्तुं चक्रे राजा युधिष्ठिरः॥)

अनुवाद (हिन्दी)

महान् बल और पराक्रमसे सम्पन्न भीष्मको हम किस प्रकार जीत सकेंगे, यही सोचते हुए राजा युधिष्ठिरने अपने शिविरमें जानेका विचार किया।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽवहारं सैन्यानां चक्रे राजा युधिष्ठिरः।
तथैव तव सैन्यानामवहारो ह्यभूत् तदा ॥ ५ ॥

मूलम्

ततोऽवहारं सैन्यानां चक्रे राजा युधिष्ठिरः।
तथैव तव सैन्यानामवहारो ह्यभूत् तदा ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद महाराज युधिष्ठिरने अपनी सेनाको पीछे लौटा लिया। इसी प्रकार आपकी सेना भी उस समय युद्धस्थलसे शिविरकी ओर लौट चली॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽवहारं सैन्यानां कृत्वा तत्र महारथाः।
न्यविशन्त कुरुश्रेष्ठ संग्रामे क्षतविक्षताः ॥ ६ ॥

मूलम्

ततोऽवहारं सैन्यानां कृत्वा तत्र महारथाः।
न्यविशन्त कुरुश्रेष्ठ संग्रामे क्षतविक्षताः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुश्रेष्ठ! इस प्रकार संग्राममें क्षत-विक्षत हुए वे सब महारथी सेनाको लौटाकर शिविरमें विश्राम करने लगे॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीष्मस्य समरे कर्म चिन्तयानास्तु पाण्डवाः।
नालभन्त तदा शान्तिं भीष्मबाणप्रपीडिताः ॥ ७ ॥

मूलम्

भीष्मस्य समरे कर्म चिन्तयानास्तु पाण्डवाः।
नालभन्त तदा शान्तिं भीष्मबाणप्रपीडिताः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डव भीष्मके बाणोंसे अत्यन्त पीड़ित हो रहे थे। उन्हें समरांगणमें भीष्मके पराक्रमका चिन्तन करके तनिक भी शान्ति नहीं मिलती थी॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीष्मोऽपि समरे जित्वा पाण्डवान् सहसृंजयान्।
पूज्यमानस्तव सुतैर्वन्द्यमानश्च भारत ॥ ८ ॥
न्यविशत् कुरुभिः सार्धं हृष्टरूपैः समन्ततः।

मूलम्

भीष्मोऽपि समरे जित्वा पाण्डवान् सहसृंजयान्।
पूज्यमानस्तव सुतैर्वन्द्यमानश्च भारत ॥ ८ ॥
न्यविशत् कुरुभिः सार्धं हृष्टरूपैः समन्ततः।

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! भीष्म भी समरभूमिमें सृंजयों तथा पाण्डवोंको जीतकर आपके पुत्रोंद्वारा प्रशंसित और अभिवन्दित हो अत्यन्त हर्षमें भरे हुए कौरवोंके साथ शिविरमें गये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो रात्रिः समभवत् सर्वभूतप्रमोहिनी ॥ ९ ॥
तस्मिन् रात्रिमुखे घोरे पाण्डवा वृष्णिभिः सह।
सृंजयाश्च दुराधर्षा मन्त्राय समुपाविशन् ॥ १० ॥

मूलम्

ततो रात्रिः समभवत् सर्वभूतप्रमोहिनी ॥ ९ ॥
तस्मिन् रात्रिमुखे घोरे पाण्डवा वृष्णिभिः सह।
सृंजयाश्च दुराधर्षा मन्त्राय समुपाविशन् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् सम्पूर्ण भूतोंको मोहमयी निद्रामें डालनेवाली रात्रि आ गयी। उस भयंकर रात्रिके आरम्भकालमें वृष्णिवंशियोंसहित दुर्धर्ष सृंजय और पाण्डव गुप्तमन्त्रणाके लिये एक साथ बैठे॥९-१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आत्मनिःश्रेयसं सर्वे प्राप्तकालं महाबलाः।
मन्त्रयामासुरव्यग्रा मन्त्रनिश्चयकोविदाः ॥ ११ ॥

मूलम्

आत्मनिःश्रेयसं सर्वे प्राप्तकालं महाबलाः।
मन्त्रयामासुरव्यग्रा मन्त्रनिश्चयकोविदाः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय वे समस्त महाबली वीर समयानुसार अपनी भलाईके प्रश्नपर स्वस्थचित्तसे विचार करने लगे। वे सभी लोग मन्त्रणा करके किसी निश्चयपर पहुँच जानेमें कुशल थे॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(हनिष्याम यथा भीष्मं जयेम पृथिवीमिमाम्॥)
ततो युधिष्ठिरो राजा मन्त्रयित्वा चिरं नृप।
वासुदेवं समुद्वीक्ष्य वचनं चेदमाददे ॥ १२ ॥

मूलम्

(हनिष्याम यथा भीष्मं जयेम पृथिवीमिमाम्॥)
ततो युधिष्ठिरो राजा मन्त्रयित्वा चिरं नृप।
वासुदेवं समुद्वीक्ष्य वचनं चेदमाददे ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनमें यह विचार होने लगा कि हम भीष्मको कैसे मार सकेंगे और किस प्रकार इस पृथ्वीपर विजय प्राप्त करेंगे। नरेश्वर! उस समय राजा युधिष्ठिरने दीर्घकालतक गुप्तमन्त्रणा करनेके पश्चात् वसुदेवनन्दन भगवान् श्रीकृष्णकी ओर देखकर यह बात कही—॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृष्ण पश्य महात्मानं भीष्मं भीमपराक्रमम्।
गजं नलवनानीव विमृद्‌नन्तं बलं मम ॥ १३ ॥

मूलम्

कृष्ण पश्य महात्मानं भीष्मं भीमपराक्रमम्।
गजं नलवनानीव विमृद्‌नन्तं बलं मम ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘श्रीकृष्ण! देखिये, भयंकर पराक्रमी महात्मा भीष्म हमारी सेनाका उसी प्रकार विनाश कर रहे हैं, जैसे हाथी सरकंडोंके जंगलोंको रौंद डालते हैं॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(मम माधव सैन्येषु वध्यमानेषु तेन वै।
कथं योत्स्याम दुर्धर्षं श्रेयो मेऽत्र विधीयताम्॥
त्वमेव गतिरस्माकं नान्यां गतिमुपास्महे।
न युद्धं रोचते मह्यं भीष्मेण सह माधव।
हन्ति भीष्मो महावीरो मम सैन्यं च संयुगे॥)

मूलम्

(मम माधव सैन्येषु वध्यमानेषु तेन वै।
कथं योत्स्याम दुर्धर्षं श्रेयो मेऽत्र विधीयताम्॥
त्वमेव गतिरस्माकं नान्यां गतिमुपास्महे।
न युद्धं रोचते मह्यं भीष्मेण सह माधव।
हन्ति भीष्मो महावीरो मम सैन्यं च संयुगे॥)

अनुवाद (हिन्दी)

‘माधव! इनके द्वारा जब हमारी सेनाएँ मारी जा रही हैं, उस अवस्थामें इन दुर्धर्ष वीर भीष्मके साथ हमलोग कैसे युद्ध करें? यहाँ जिस प्रकार हमारा भला हो, वह उपाय कीजिये। माधव! आप ही हमारे आश्रय हैं। हम दूसरे किसीका सहारा नहीं लेते। हमें भीष्मजीके साथ युद्ध करना अच्छा नहीं लगता है। इधर महावीर भीष्म युद्धस्थलमें हमारी सेनाका संहार करते चले जा रहे हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चैवैनं महात्मानमुत्सहामो निरीक्षितुम्।
लेलिह्यमानं सैन्येषु प्रवृद्धमिव पावकम् ॥ १४ ॥

मूलम्

न चैवैनं महात्मानमुत्सहामो निरीक्षितुम्।
लेलिह्यमानं सैन्येषु प्रवृद्धमिव पावकम् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ये प्रज्वलित अग्निके समान बाणोंकी लपटोंसे हमारी सेनामें सबको चाटते (भस्म करते) जा रहे हैं, हमलोग इन महात्माकी ओर देख भी नहीं पा रहे हैं॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा घोरो महानागस्तक्षको वै विषोल्बणः।
तथा भीष्मो रणे क्रुद्धस्तीक्ष्णशस्त्रः प्रतापवान् ॥ १५ ॥
गृहीतचापः समरे प्रमुञ्चन् निशिताञ्छरान्।

मूलम्

यथा घोरो महानागस्तक्षको वै विषोल्बणः।
तथा भीष्मो रणे क्रुद्धस्तीक्ष्णशस्त्रः प्रतापवान् ॥ १५ ॥
गृहीतचापः समरे प्रमुञ्चन् निशिताञ्छरान्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘जैसे महानाग तक्षक अपने प्रचण्ड विषके कारण भयंकर प्रतीत होता है, उसी प्रकार क्रोधमें भरे हुए प्रतापी भीष्म युद्धस्थलमें जब हाथमें धनुष लेकर पैने बाणोंकी वर्षा करने लगते हैं, उस समय अपने तीखे अस्त्र-शस्त्रोंके कारण बड़े भयानक जान पड़ते हैं॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शक्यो जेतुं यमः क्रुद्धो वज्रपाणिश्च देवराट् ॥ १६ ॥
वरुणः पाशभृच्चापि सगदो वा धनेश्वरः।
न तु भीष्मः सुसंक्रुद्धः शक्यो जेतुं महाहवे ॥ १७ ॥

मूलम्

शक्यो जेतुं यमः क्रुद्धो वज्रपाणिश्च देवराट् ॥ १६ ॥
वरुणः पाशभृच्चापि सगदो वा धनेश्वरः।
न तु भीष्मः सुसंक्रुद्धः शक्यो जेतुं महाहवे ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘समरभूमिमें क्रोधमें भरे हुए यमराज, वज्रधारी इन्द्र, पाशधारी वरुण अथवा गदाधारी कुबेरको भी जीता जा सकता है; परंतु इस महासमरमें कुपित भीष्मको पराजित करना असम्भव है॥१६-१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽहमेवंगते कृष्ण निमग्नः शोकसागरे।
आत्मनो बुद्धिदौर्बल्याद् भीष्ममासाद्य संयुगे ॥ १८ ॥

मूलम्

सोऽहमेवंगते कृष्ण निमग्नः शोकसागरे।
आत्मनो बुद्धिदौर्बल्याद् भीष्ममासाद्य संयुगे ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘श्रीकृष्ण! ऐसी स्थितिमें मैं अपनी बुद्धिकी दुर्बलताके कारण युद्धस्थलमें भीष्मको सामने देखकर शोकके समुद्रमें डूबा जा रहा हूँ॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वनं यास्यामि दुर्धर्ष श्रेयो वै तत्र मे गतम्।
न युद्धं रोचते कृष्ण हन्ति भीष्मो हि नः सदा॥१९॥

मूलम्

वनं यास्यामि दुर्धर्ष श्रेयो वै तत्र मे गतम्।
न युद्धं रोचते कृष्ण हन्ति भीष्मो हि नः सदा॥१९॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘दुर्धर्ष वीर श्रीकृष्ण! अब मैं वनको चला जाऊँगा। मेरे लिये वनमें जाना ही कल्याणकारी होगा। मुझे युद्ध अच्छा नहीं लग रहा है; क्योंकि उसमें भीष्म सदा ही हमारे सैनिकोंका विनाश करते आ रहे हैं॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा प्रज्वलितं वह्निं पतङ्गः समभिद्रवन्।
एकतो मृत्युमभ्येति तथाहं भीष्ममीयिवान् ॥ २० ॥

मूलम्

यथा प्रज्वलितं वह्निं पतङ्गः समभिद्रवन्।
एकतो मृत्युमभ्येति तथाहं भीष्ममीयिवान् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जैसे पतंग प्रज्वलित आगकी ओर दौड़ा जाकर एकमात्र मृत्युको ही प्राप्त होता है, उसी प्रकार हमने भी भीष्मपर आक्रमण करके मृत्युका ही वरण किया है॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षयं नीतोऽस्मि वार्ष्णेय राज्यहेतोः पराक्रमी।
भ्रातरश्चैव मे शूराः सायकैर्भृशपीडिताः ॥ २१ ॥

मूलम्

क्षयं नीतोऽस्मि वार्ष्णेय राज्यहेतोः पराक्रमी।
भ्रातरश्चैव मे शूराः सायकैर्भृशपीडिताः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वार्ष्णेय! राज्यके लिये पराक्रम करके मैं क्षीण होता जा रहा हूँ। मेरे शूरवीर भाई बाणोंकी मारसे अत्यन्त पीड़ित हो रहे हैं॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मत्कृते भ्रातृसौहार्दाद् राज्यभ्रष्टा वनं गताः।
परिक्लिष्टा तथा कृष्णा मत्कृते मधुसूदन ॥ २२ ॥

मूलम्

मत्कृते भ्रातृसौहार्दाद् राज्यभ्रष्टा वनं गताः।
परिक्लिष्टा तथा कृष्णा मत्कृते मधुसूदन ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मधुसूदन! मेरे लिये भ्रातृस्नेहवश ये भाई राज्यसे वंचित हुए और वनमें भी गये। मेरे ही कारण कृष्णाको भरी सभामें अपमानका कष्ट भोगना पड़ा॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जीवितं बहु मन्येऽहं जीवितं ह्यद्य दुर्लभम्।
जीवितस्याद्य शेषेण चरिष्ये धर्ममुत्तमम् ॥ २३ ॥

मूलम्

जीवितं बहु मन्येऽहं जीवितं ह्यद्य दुर्लभम्।
जीवितस्याद्य शेषेण चरिष्ये धर्ममुत्तमम् ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इस समय मैं जीवनको ही बहुत मानता हूँ। आज तो जीवन भी दुर्लभ हो रहा है। अबसे जीवनके जितने दिन शेष हैं, उनके द्वारा मैं उत्तम धर्मका ही आचरण करूँगा॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि तेऽहमनुग्राह्यो भ्रातृभिः सह केशव।
स्वधर्मस्याविरोधेन हितं व्याहर केशव ॥ २४ ॥

मूलम्

यदि तेऽहमनुग्राह्यो भ्रातृभिः सह केशव।
स्वधर्मस्याविरोधेन हितं व्याहर केशव ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘केशव! यदि भाइयोंसहित मुझपर आपका अनुग्रह है तो मुझे स्वधर्मके अनुकूल कोई हितकारक सलाह दीजिये’॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं श्रुत्वा वचस्तस्य कारुण्याद् बहुविस्तरम्।
प्रत्युवाच ततः कृष्णः सान्त्वयानो युधिष्ठिरम् ॥ २५ ॥

मूलम्

एवं श्रुत्वा वचस्तस्य कारुण्याद् बहुविस्तरम्।
प्रत्युवाच ततः कृष्णः सान्त्वयानो युधिष्ठिरम् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

करुणासे प्रेरित होकर कहे हुए युधिष्ठिरके ये विस्तृत वचन सुनकर श्रीकृष्णने युधिष्ठिरको सान्त्वना देते हुए कहा॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मपुत्र विषादं त्वं मा कृथाः सत्यसङ्गर।
यस्य ते भ्रातरः शूरा दुर्जयाः शत्रुसूदनाः ॥ २६ ॥

मूलम्

धर्मपुत्र विषादं त्वं मा कृथाः सत्यसङ्गर।
यस्य ते भ्रातरः शूरा दुर्जयाः शत्रुसूदनाः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘धर्मपुत्र! सत्यप्रतिज्ञ कुन्तीकुमार! विषाद न कीजिये, आपके भाई बड़े ही शूरवीर, दुर्जय तथा शत्रुओंका संहार करनेमें समर्थ हैं॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्जुनो भीमसेनश्च वाय्वग्निसमतेजसौ ।
माद्रीपुत्रौ च विक्रान्तौ त्रिदशानामिवेश्वरौ ॥ २७ ॥

मूलम्

अर्जुनो भीमसेनश्च वाय्वग्निसमतेजसौ ।
माद्रीपुत्रौ च विक्रान्तौ त्रिदशानामिवेश्वरौ ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अर्जुन और भीमसेन वायु तथा अग्निके समान तेजस्वी हैं। माद्रीकुमार नकुल और सहदेव भी पराक्रममें दो इन्द्रोंके समान हैं॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मां वा नियुङ्‌क्ष्व सौहार्दाद् योत्स्ये भीष्मेण पाण्डव।
त्वत्प्रयुक्तो महाराज किं न कुर्यां महाहवे ॥ २८ ॥

मूलम्

मां वा नियुङ्‌क्ष्व सौहार्दाद् योत्स्ये भीष्मेण पाण्डव।
त्वत्प्रयुक्तो महाराज किं न कुर्यां महाहवे ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पाण्डुनन्दन! महाराज! आप सौहार्दवश मुझे भी आज्ञा दीजिये। मैं भीष्मके साथ युद्ध करूँगा। भला आपकी आज्ञा मिल जानेपर मैं इस महासमरमें क्या नहीं कर सकता॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हनिष्यामि रणे भीष्ममाहूय पुरुषर्षभम्।
पश्यतां धार्तराष्ट्राणां यदि नेच्छति फाल्गुनः ॥ २९ ॥

मूलम्

हनिष्यामि रणे भीष्ममाहूय पुरुषर्षभम्।
पश्यतां धार्तराष्ट्राणां यदि नेच्छति फाल्गुनः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यदि अर्जुन भीष्मको मारना नहीं चाहते हैं तो मैं युद्धमें पुरुषप्रवर भीष्मको ललकारकर धृतराष्ट्रपुत्रोंके देखते-देखते मार डालूँगा॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि भीष्मे हते वीरे जयं पश्यसि पाण्डव।
हन्तास्म्येकरथेनाद्य कुरुवृद्धं पितामहम् ॥ ३० ॥

मूलम्

यदि भीष्मे हते वीरे जयं पश्यसि पाण्डव।
हन्तास्म्येकरथेनाद्य कुरुवृद्धं पितामहम् ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पाण्डुनन्दन! यदि भीष्मके मारे जानेपर ही आपको अपनी विजय दिखायी दे रही है तो मैं एकमात्र रथकी सहायतासे आज कुरुकुलवृद्ध पितामह भीष्मको मार डालूँगा॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पश्य मे विक्रमं राजन् महेन्द्रस्येव संयुगे।
विमुञ्चन्तं महास्त्राणि पातयिष्यामि तं रथात् ॥ ३१ ॥

मूलम्

पश्य मे विक्रमं राजन् महेन्द्रस्येव संयुगे।
विमुञ्चन्तं महास्त्राणि पातयिष्यामि तं रथात् ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! कल युद्धमें इन्द्रके समान मेरा पराक्रम देखियेगा। मैं बड़े-बड़े अस्त्रोंका प्रहार करनेवाले भीष्मको रथसे मार गिराऊँगा॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यः शत्रुः पाण्डुपुत्राणां मच्छत्रुः स न संशयः।
मदर्था भवदीया ये ये मदीयास्तवैव ते ॥ ३२ ॥

मूलम्

यः शत्रुः पाण्डुपुत्राणां मच्छत्रुः स न संशयः।
मदर्था भवदीया ये ये मदीयास्तवैव ते ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो पाण्डवोंका शत्रु है, वह मेरा भी शत्रु है, इसमें संदेह नहीं है। जो आपके सुहृद् हैं, वे मेरे हैं और जो मेरे सुहृद् हैं, वे आपके ही हैं॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तव भ्राता मम सखा सम्बन्धी शिष्य एव च।
मांसान्युत्कृत्य दास्यामि फाल्गुनार्थे महीपते ॥ ३३ ॥

मूलम्

तव भ्राता मम सखा सम्बन्धी शिष्य एव च।
मांसान्युत्कृत्य दास्यामि फाल्गुनार्थे महीपते ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! आपके भाई अर्जुन मेरे सखा, सम्बन्धी और शिष्य हैं। मैं अर्जुनके लिये अपना मांस भी काटकर दे दूँगा॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष चापि नरव्याघ्रो मत्कृते जीवितं त्यजेत्।
एष नः समयस्तात तारयेम परस्परम् ॥ ३४ ॥

मूलम्

एष चापि नरव्याघ्रो मत्कृते जीवितं त्यजेत्।
एष नः समयस्तात तारयेम परस्परम् ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ये पुरुषसिंह अर्जुन भी मेरे लिये अपने प्राणोंतकका परित्याग कर सकते हैं। तात! हमलोगोंमें यह प्रतिज्ञा हो चुकी है कि हम एक-दूसरेको संकटसे उबारेंगे॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स मां नियुङ्‌क्ष्व राजेन्द्र यथा योद्धा भवाम्यहम्।
प्रतिज्ञातमुपप्लव्ये यत् तत् पार्थेन पूर्वतः ॥ ३५ ॥
घातयिष्यामि गाङ्गेयमिति लोकस्य संनिधौ।
परिरक्ष्यमिदं तावद् वचः पार्थस्य धीमतः ॥ ३६ ॥

मूलम्

स मां नियुङ्‌क्ष्व राजेन्द्र यथा योद्धा भवाम्यहम्।
प्रतिज्ञातमुपप्लव्ये यत् तत् पार्थेन पूर्वतः ॥ ३५ ॥
घातयिष्यामि गाङ्गेयमिति लोकस्य संनिधौ।
परिरक्ष्यमिदं तावद् वचः पार्थस्य धीमतः ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजेन्द्र! आप मुझे युद्धके काममें नियुक्त कीजिये। मैं आपका योद्धा बनूँगा। युद्धके पहले उपप्लव्यनगरमें सब लोगोंके सामने अर्जुनने जो यह प्रतिज्ञा की थी कि मैं गंगानन्दन भीष्मका वध करूँगा, बुद्धिमान् पार्थके उस वचनका पालन करना मेरे लिये आवश्यक है॥३५-३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनुज्ञातं तु पार्थेन मया कार्यं न संशयः।
अथवा फाल्गुनस्यैष भारः परिमितो रणे ॥ ३७ ॥

मूलम्

अनुज्ञातं तु पार्थेन मया कार्यं न संशयः।
अथवा फाल्गुनस्यैष भारः परिमितो रणे ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अर्जुनने जिस बातके लिये प्रतिज्ञा की हो, उसकी पूर्ति करना मेरा कर्तव्य है, इसमें संशय नहीं है अथवा रणक्षेत्रमें अर्जुनके लिये यह बहुत थोड़ा भार है॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स हनिष्यति संग्रामे भीष्मं परपुरञ्जयम्।
अशक्यमपि कुर्याद्धि रणे पार्थः समुद्यतः ॥ ३८ ॥

मूलम्

स हनिष्यति संग्रामे भीष्मं परपुरञ्जयम्।
अशक्यमपि कुर्याद्धि रणे पार्थः समुद्यतः ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वे शत्रुनगरीपर विजय पानेवाले भीष्मको युद्धमें अवश्य मार डालेंगे। कुन्तीपुत्र अर्जुन उद्यत हो जायँ तो युद्धमें असम्भवको भी सम्भव कर सकते हैं॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रिदशान्‌ वा समुद्युक्तान् सहितान् दैत्यदानवैः।
निहन्यादर्जुनः संख्ये किमु भीष्मं नराधिप ॥ ३९ ॥

मूलम्

त्रिदशान्‌ वा समुद्युक्तान् सहितान् दैत्यदानवैः।
निहन्यादर्जुनः संख्ये किमु भीष्मं नराधिप ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नरेश्वर! दैत्यों और दानवोंसहित सम्पूर्ण देवताओंको भी अर्जुन युद्धमें मार सकते हैं; फिर भीष्मको मारना कौन बड़ी बात है॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विपरीतो महावीर्यो गतसत्त्वोऽल्पजीवनः ।
भीष्मः शान्तनवो नूनं कर्तव्यं नावबुध्यते ॥ ४० ॥

मूलम्

विपरीतो महावीर्यो गतसत्त्वोऽल्पजीवनः ।
भीष्मः शान्तनवो नूनं कर्तव्यं नावबुध्यते ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महापराक्रमी शान्तनुनन्दन भीष्म तो हमारे विपरीत पक्षका आश्रय लेनेवाले और बलहीन हैं। इनके जीवनके दिन अब बहुत थोड़े रह गये हैं, तथापि यह निश्चितरूपसे कहा जा सकता है कि वे अपने कर्तव्यको नहीं समझ रहे हैं’॥४०॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमेतन्महाबाहो यथा वदसि माधव।
सर्वे ह्येते न पर्याप्तास्तव वेगविधारणे ॥ ४१ ॥

मूलम्

एवमेतन्महाबाहो यथा वदसि माधव।
सर्वे ह्येते न पर्याप्तास्तव वेगविधारणे ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने कहा— महाबाहो! माधव! आप जैसा कहते हैं, ठीक ऐसी ही बात है। ये समस्त कौरव आपका वेग धारण करनेमें समर्थ नहीं हैं॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नियतं समवाप्स्यामि सर्वमेतद् यथेप्सितम्।
यस्य मे पुरुषव्याघ्र भवान् पक्षे व्यवस्थितः ॥ ४२ ॥

मूलम्

नियतं समवाप्स्यामि सर्वमेतद् यथेप्सितम्।
यस्य मे पुरुषव्याघ्र भवान् पक्षे व्यवस्थितः ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरुषसिंह! जिसके पक्षमें आप खड़े हैं, वह मैं यह सब अभीष्ट मनोरथ अवश्य पूर्ण कर लूँगा॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सेन्द्रानपि रणे देवाञ्जयेयं जयतां वर।
त्वया नाथेन गोविन्द किमु भीष्मं महारथम् ॥ ४३ ॥

मूलम्

सेन्द्रानपि रणे देवाञ्जयेयं जयतां वर।
त्वया नाथेन गोविन्द किमु भीष्मं महारथम् ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विजयी वीरोंमें श्रेष्ठ गोविन्द! आपको अपना रक्षक पाकर मैं युद्धमें इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवताओंको भी जीत सकता हूँ; फिर महारथी भीष्मपर विजय पाना कौन बड़ी बात है॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न तु त्वामनृतं कर्तुमुत्सहे स्वात्मगौरवात्।
अयुध्यमानः साहाय्यं यथोक्तं कुरु माधव ॥ ४४ ॥

मूलम्

न तु त्वामनृतं कर्तुमुत्सहे स्वात्मगौरवात्।
अयुध्यमानः साहाय्यं यथोक्तं कुरु माधव ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

माधव! परंतु मैं अपनी गुरुताका प्रभाव डालकर आपको असत्यवादी नहीं बना सकता। आप युद्ध किये बिना ही पूर्वोक्त सहायता करते रहिये॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समयस्तु कृतः कश्चिन्मम भीष्मेण संयुगे।
मन्त्रयिष्ये तवार्थाय न तु योत्स्ये कथञ्चन ॥ ४५ ॥
दुर्योधनार्थं योत्स्यामि सत्यमेतदिति प्रभो।

मूलम्

समयस्तु कृतः कश्चिन्मम भीष्मेण संयुगे।
मन्त्रयिष्ये तवार्थाय न तु योत्स्ये कथञ्चन ॥ ४५ ॥
दुर्योधनार्थं योत्स्यामि सत्यमेतदिति प्रभो।

अनुवाद (हिन्दी)

मेरी भीष्मजीके साथ एक शर्त हो चुकी है। उन्होंने कहा है कि ‘मैं युद्धमें तुम्हारे हितके लिये सलाह दे सकता हूँ, परंतु तुम्हारी ओरसे किसी प्रकार युद्ध नहीं करूँगा। युद्ध तो मैं केवल दुर्योधनके लिये ही करूँगा।’ प्रभो! यह बिलकुल सच्ची बात है॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स हि राज्यस्य मे दाता मन्त्रस्यैव च माधव॥४६॥
तस्माद् देवव्रतं भूयो वधोपायार्थमात्मनः।
भवता सहिताः सर्वे प्रयाम मधुसूदन ॥ ४७ ॥

मूलम्

स हि राज्यस्य मे दाता मन्त्रस्यैव च माधव॥४६॥
तस्माद् देवव्रतं भूयो वधोपायार्थमात्मनः।
भवता सहिताः सर्वे प्रयाम मधुसूदन ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः माधव! भीष्मजी मुझे राज्य और मन्त्र (हितकर सलाह) दोनों देंगे। इसलिये मधुसूदन! हम सब लोग पुनः आपके साथ देवव्रत भीष्मके पास उन्हींसे उनके वधका उपाय पूछने चलें॥४६-४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद् वयं सहिता गत्वा भीष्ममाशु नरोत्तमम्।
नचिरात् सर्वे वार्ष्णेय मन्त्रं पृच्छाम कौरवम् ॥ ४८ ॥

मूलम्

तद् वयं सहिता गत्वा भीष्ममाशु नरोत्तमम्।
नचिरात् सर्वे वार्ष्णेय मन्त्रं पृच्छाम कौरवम् ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वृष्णिनन्दन! हम सब लोग शीघ्र ही एक साथ कुरुवंशी नरश्रेष्ठ भीष्मके पास चलें और उनसे सलाह लें॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स वक्ष्यति हितं वाक्यं सत्यमस्माञ्जनार्दन।
यथा च वक्ष्यते कृष्ण तथा कर्तास्मि संयुगे ॥ ४९ ॥

मूलम्

स वक्ष्यति हितं वाक्यं सत्यमस्माञ्जनार्दन।
यथा च वक्ष्यते कृष्ण तथा कर्तास्मि संयुगे ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनार्दन! पूछनेपर वे हमें सत्य और हितकर बात बतायेंगे। श्रीकृष्ण! वे जैसा कहेंगे, युद्धमें वैसा ही करूँगा॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स नो जयस्य दाता स्यान्मन्त्रस्य च दृढव्रतः।
बालाः पित्रा विहीनाश्च तेन संवर्धिता वयम् ॥ ५० ॥

मूलम्

स नो जयस्य दाता स्यान्मन्त्रस्य च दृढव्रतः।
बालाः पित्रा विहीनाश्च तेन संवर्धिता वयम् ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दृढ़तापूर्वक व्रतका पालन करनेवाले भीष्मजी हमारे लिये विजय और सलाहके भी दाता हो सकते हैं। बाल्यावस्थामें जब हम पितृहीन हो गये थे, उस समय उन्होंने ही हमारा पालन-पोषण किया था॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं चेत् पितामहं वृद्धं हन्तुमिच्छामि माधव।
पितुः पितरमिष्टं च धिगस्तु क्षत्रजीविकाम् ॥ ५१ ॥

मूलम्

तं चेत् पितामहं वृद्धं हन्तुमिच्छामि माधव।
पितुः पितरमिष्टं च धिगस्तु क्षत्रजीविकाम् ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

माधव! यद्यपि वे हमारे पिताके भी पिता और प्रिय हैं, तो भी उन बूढ़े पितामह भीष्मको भी मैं मारना चाहता हूँ। क्षत्रियकी इस जीविकाको धिक्कार है!॥५१॥

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽब्रवीन्महाराज वार्ष्णेयः कुरुनन्दनम् ।
रोचते मे महाप्राज्ञ राजेन्द्र तव भाषितम् ॥ ५२ ॥

मूलम्

ततोऽब्रवीन्महाराज वार्ष्णेयः कुरुनन्दनम् ।
रोचते मे महाप्राज्ञ राजेन्द्र तव भाषितम् ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— महाराज! तब भगवान् श्रीकृष्णने कुरुनन्दन युधिष्ठिरसे कहा—‘महामते राजेन्द्र! आपका कथन मुझे ठीक जान पड़ता है॥५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवव्रतः कृती भीष्मः प्रेक्षितेनापि निर्दहेत्।
गम्यतां स वधोपायं प्रष्टुं सागरगासुतः ॥ ५३ ॥

मूलम्

देवव्रतः कृती भीष्मः प्रेक्षितेनापि निर्दहेत्।
गम्यतां स वधोपायं प्रष्टुं सागरगासुतः ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘देवव्रत भीष्म पुण्यात्मा पुरुष हैं। वे दृष्टिपातमात्रसे सबको दग्ध कर सकते हैं; अतः गंगानन्दन भीष्मसे उनके वधका उपाय पूछनेके लिये आप अवश्य उनके पास चलें॥५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वक्तुमर्हति सत्यं स त्वया पृष्टो विशेषतः।
ते वयं तत्र गच्छामः प्रष्टुं कुरुपितामहम् ॥ ५४ ॥
गत्वा शान्तनवं वृद्धं मन्त्रं पृच्छाम भारत।
स वो दास्यति मन्त्रं यं तेन योत्स्यामहे परान्॥५५॥

मूलम्

वक्तुमर्हति सत्यं स त्वया पृष्टो विशेषतः।
ते वयं तत्र गच्छामः प्रष्टुं कुरुपितामहम् ॥ ५४ ॥
गत्वा शान्तनवं वृद्धं मन्त्रं पृच्छाम भारत।
स वो दास्यति मन्त्रं यं तेन योत्स्यामहे परान्॥५५॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘विशेषतः आपके पूछनेपर वे अवश्य सच्ची बात बतायेंगे। अतः हम सब लोग मिलकर कुरुकुलके वृद्ध पितामह शान्तनुनन्दन भीष्मसे अभीष्ट प्रश्न पूछनेके लिये साथ-साथ वहाँ चलें और भारत! चलकर उनसे हितकारक मन्त्रणा पूछें। वे आपको ऐसी मन्त्रणा देंगे, जिससे हमलोग शत्रुओंके साथ युद्ध करेंगे॥५४-५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमामन्त्र्य ते वीराः पाण्डवाः पाण्डुपूर्वजम्।
जग्मुस्ते सहिताः सर्वे वासुदेवश्च वीर्यवान् ॥ ५६ ॥

मूलम्

एवमामन्त्र्य ते वीराः पाण्डवाः पाण्डुपूर्वजम्।
जग्मुस्ते सहिताः सर्वे वासुदेवश्च वीर्यवान् ॥ ५६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे वीर पाण्डव इस प्रकार सलाह करके सब एक साथ मिलकर अपने पिता पाण्डुके भी पितृतुल्य भीष्मपितामहके पास गये; उनके साथ पराक्रमी भगवान् वासुदेव भी थे॥५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विमुक्तशस्त्रकवचा भीष्मस्य सदनं प्रति।
प्रविश्य च तदा भीष्मं शिरोभिः प्रणिपेदिरे ॥ ५७ ॥

मूलम्

विमुक्तशस्त्रकवचा भीष्मस्य सदनं प्रति।
प्रविश्य च तदा भीष्मं शिरोभिः प्रणिपेदिरे ॥ ५७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन सबने अस्त्र-शस्त्र और कवच रख दिये थे। वे भीष्मके शिविरकी ओर गये और उसके भीतर प्रवेश करके उन्होंने भीष्मको मस्तक झुकाकर प्रणाम किया॥५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूजयन्तो महाराज पाण्डवा भरतर्षभम्।
प्रणम्य शिरसा चैनं भीष्मं शरणमभ्ययुः ॥ ५८ ॥

मूलम्

पूजयन्तो महाराज पाण्डवा भरतर्षभम्।
प्रणम्य शिरसा चैनं भीष्मं शरणमभ्ययुः ॥ ५८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! पाण्डवोंने भरतश्रेष्ठ भीष्मकी पूजा करते हुए उनके चरणोंमें मस्तक रखकर प्रणाम किया और उन्हींकी शरण ली॥५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तानुवाच महाबाहुर्भीष्मः कुरुपितामहः ।
स्वागतं तव वार्ष्णेय स्वागतं ते धनंजय ॥ ५९ ॥
स्वागतं धर्मपुत्राय भीमाय यमयोस्तथा।
किं वा कार्यं करोम्यद्य युष्माकं प्रीतिवर्धनम् ॥ ६० ॥
(युद्धादन्यत्र हे वत्साः व्रियन्तां मा विशङ्कथ।)
सर्वात्मनापि कर्तास्मि यदपि स्यात् सुदुष्करम्।

मूलम्

तानुवाच महाबाहुर्भीष्मः कुरुपितामहः ।
स्वागतं तव वार्ष्णेय स्वागतं ते धनंजय ॥ ५९ ॥
स्वागतं धर्मपुत्राय भीमाय यमयोस्तथा।
किं वा कार्यं करोम्यद्य युष्माकं प्रीतिवर्धनम् ॥ ६० ॥
(युद्धादन्यत्र हे वत्साः व्रियन्तां मा विशङ्कथ।)
सर्वात्मनापि कर्तास्मि यदपि स्यात् सुदुष्करम्।

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय कुरुकुलके पितामह महाबाहु भीष्मने उन सब लोगोंसे कहा—‘वृष्णिनन्दन! आपका स्वागत है। धनंजय! तुम्हारा भी स्वागत है। धर्मपुत्र युधिष्ठिर, भीमसेन और नकुल-सहदेव सबका स्वागत है। आज मैं तुम सब लोगोंकी प्रसन्नताको बढ़ानेवाला कौन-सा कार्य करूँ। पुत्रो! युद्धके अतिरिक्त जो चाहो, माँग लो, संकोच न करो। तुम्हारी माँग अत्यन्त दुष्कर हो तो भी मैं उसे सब प्रकारसे पूर्ण करूँगा’॥५९-६०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा ब्रुवाणं गाङ्गेयं प्रीतियुक्तं पुनः पुनः ॥ ६१ ॥
उवाच राजा दीनात्मा प्रीतियुक्तमिदं वचः।

मूलम्

तथा ब्रुवाणं गाङ्गेयं प्रीतियुक्तं पुनः पुनः ॥ ६१ ॥
उवाच राजा दीनात्मा प्रीतियुक्तमिदं वचः।

अनुवाद (हिन्दी)

गंगानन्दन भीष्म जब बारंबार इस प्रकार प्रसन्नता-पूर्वक कह रहे थे, उस समय राजा युधिष्ठिरने दीन हृदयसे प्रेमपूर्वक यह बात कही—॥६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं जयेम सर्वज्ञ कथं राज्यं लभेमहि ॥ ६२ ॥

मूलम्

कथं जयेम सर्वज्ञ कथं राज्यं लभेमहि ॥ ६२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सर्वज्ञ! युद्धमें हमारी जीत कैसे हो? हम किस प्रकार राज्य प्राप्त करें?॥६२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रजानां संशयो न स्यात् कथं तन्मे वद प्रभो।
भवान् हि नो वधोपायं ब्रवीतु स्वयमात्मनः ॥ ६३ ॥

मूलम्

प्रजानां संशयो न स्यात् कथं तन्मे वद प्रभो।
भवान् हि नो वधोपायं ब्रवीतु स्वयमात्मनः ॥ ६३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! हमारी प्रजाका जीवन संकटमें न पड़े, यह कैसे सम्भव हो सकता है? कृपया यह सब मुझे बताइये। आप स्वयं ही हमें अपने वधका उपाय बताइये॥६३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भवन्तं समरे वीर विषहेम कथं वयम्।
न हि ते सूक्ष्ममप्यस्ति रन्ध्रं कुरुपितामह ॥ ६४ ॥

मूलम्

भवन्तं समरे वीर विषहेम कथं वयम्।
न हि ते सूक्ष्ममप्यस्ति रन्ध्रं कुरुपितामह ॥ ६४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वीर! समरभूमिमें हमलोग आपका वेग कैसे सह सकते हैं? कुरुकुलके वृद्ध पितामह! आपमें कोई छोटा-सा भी छिद्र (दोष) नहीं दृष्टिगोचर होता है॥६४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मण्डलेनैव धनुषा दृश्यसे संयुगे सदा।
आददानं संदधानं विकर्षन्तं धनुर्न च ॥ ६५ ॥
पश्यामस्त्वां महाबाहो रथे सूर्यमिवापरम्।

मूलम्

मण्डलेनैव धनुषा दृश्यसे संयुगे सदा।
आददानं संदधानं विकर्षन्तं धनुर्न च ॥ ६५ ॥
पश्यामस्त्वां महाबाहो रथे सूर्यमिवापरम्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘आप युद्धमें सदा मण्डलाकार धनुषके साथ ही परिलक्षित होते हैं। महाबाहो! आप रथपर दूसरे सूर्यके समान विराजमान होकर कब बाण हाथमें लेते हैं, कब धनुषपर रखते हैं और कब उसकी डोरीको खींचते हैं, यह सब हमलोग नहीं देख पाते हैं॥६५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रथाश्वनरनागानां हन्तारं परवीरहन् ॥ ६६ ॥
कोऽथ वोत्सहते जेतुं त्वां पुमान् भरतर्षभ।

मूलम्

रथाश्वनरनागानां हन्तारं परवीरहन् ॥ ६६ ॥
कोऽथ वोत्सहते जेतुं त्वां पुमान् भरतर्षभ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘शत्रुवीरोंका नाश करनेवाले भरतश्रेष्ठ! आप रथ, अश्व, पैदल मनुष्य और हाथियोंका भी संहार करनेवाले हैं। कौन पुरुष आपको जीतनेका साहस कर सकता है?॥६६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वर्षता शरवर्षाणि संयुगे वैशसं कृतम् ॥ ६७ ॥
क्षयं नीता हि पृतना संयुगे महती मम।

मूलम्

वर्षता शरवर्षाणि संयुगे वैशसं कृतम् ॥ ६७ ॥
क्षयं नीता हि पृतना संयुगे महती मम।

अनुवाद (हिन्दी)

‘आपने युद्धस्थलमें बाणोंकी वर्षा करके भारी संहार मचा रखा है। रणक्षेत्रमें मेरी विशाल सेना आपके द्वारा नष्ट हो चुकी है॥६७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा युधि जयेम त्वां यथा राज्यं भृशं मम॥६८॥
मम सैन्यस्य च क्षेमं तन्मे ब्रूहि पितामह।

मूलम्

यथा युधि जयेम त्वां यथा राज्यं भृशं मम॥६८॥
मम सैन्यस्य च क्षेमं तन्मे ब्रूहि पितामह।

अनुवाद (हिन्दी)

‘पितामह! हमलोग युद्धमें जिस प्रकार आपको जीत सकें, जिस प्रकार हमें विपुल राज्यकी प्राप्ति हो सके और जिस प्रकार मेरी सेना भी सकुशल रह सके, वह उपाय मुझे बताइये’॥६८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽब्रवीच्छान्तनवः पाण्डवान् पाण्डुपूर्वजः ॥ ६९ ॥
न कथञ्चन कौन्तेय मयि जीवति संयुगे।
जयो भवति सर्वज्ञ सत्यमेतद् ब्रवीमि ते ॥ ७० ॥

मूलम्

ततोऽब्रवीच्छान्तनवः पाण्डवान् पाण्डुपूर्वजः ॥ ६९ ॥
न कथञ्चन कौन्तेय मयि जीवति संयुगे।
जयो भवति सर्वज्ञ सत्यमेतद् ब्रवीमि ते ॥ ७० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब पाण्डुके पितृतुल्य शान्तनुकुमार भीष्मजीने पाण्डवोंसे इस प्रकार कहा—‘कुन्तीकुमार! मेरे जीते-जी युद्धमें किसी प्रकार तुम्हारी विजय नहीं हो सकती। सर्वज्ञ! मैं तुमसे यह सच्ची बात कहता हूँ॥६९-७०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निर्जिते मयि युद्धेन रणे जेष्यथ पाण्डवाः।
क्षिप्रं मयि प्रहरध्वं यदीच्छथ रणे जयम् ॥ ७१ ॥

मूलम्

निर्जिते मयि युद्धेन रणे जेष्यथ पाण्डवाः।
क्षिप्रं मयि प्रहरध्वं यदीच्छथ रणे जयम् ॥ ७१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पाण्डवो! यदि युद्धके द्वारा मैं किसी प्रकार जीत लिया जाऊँ, तभी तुमलोग रणक्षेत्रमें विजयी हो सकोगे। यदि युद्धमें विजय चाहते हो तो मुझपर शीघ्र ही (घातक) प्रहार करो॥७१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनुजानामि वः पार्थाः प्रहरध्वं यथासुखम्।
एवं हि सुकृतं मन्ये भवतां विदितो ह्यहम् ॥ ७२ ॥
हते मयि हतं सर्वं तस्मादेवं विधीयताम्।

मूलम्

अनुजानामि वः पार्थाः प्रहरध्वं यथासुखम्।
एवं हि सुकृतं मन्ये भवतां विदितो ह्यहम् ॥ ७२ ॥
हते मयि हतं सर्वं तस्मादेवं विधीयताम्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘कुन्तीकुमारो! मैं तुम्हें आज्ञा देता हूँ। तुम सुख-पूर्वक मेरे ऊपर प्रहार करो। मैं तुम्हारे लिये यह पुण्यकी बात मानता हूँ कि तुम्हें मेरे इस प्रभावका ज्ञान हो गया कि मेरे मारे जानेपर सारी कौरव-सेना मरी हुई ही हो जायगी; अतः ऐसा ही करो (मुझे मार डालो)’॥७२॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रूहि तस्मादुपायं नो यथा युद्धे जयेमहि ॥ ७३ ॥
भवन्तं समरे क्रुद्धं दण्डहस्तमिवान्तकम्।

मूलम्

ब्रूहि तस्मादुपायं नो यथा युद्धे जयेमहि ॥ ७३ ॥
भवन्तं समरे क्रुद्धं दण्डहस्तमिवान्तकम्।

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने कहा— पितामह! हमलोग युद्धमें दण्डधारी यमराजकी भाँति क्रोधमें भरे हुए आपको जिस प्रकार जीत सकें, वैसा उपाय हमें आप ही बताइये॥७३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शक्यो वज्रधरो जेतुं वरुणोऽथ यमस्तथा ॥ ७४ ॥
न भवान् समरे शक्यः सेन्द्रैरपि सुरासुरैः।

मूलम्

शक्यो वज्रधरो जेतुं वरुणोऽथ यमस्तथा ॥ ७४ ॥
न भवान् समरे शक्यः सेन्द्रैरपि सुरासुरैः।

अनुवाद (हिन्दी)

वज्रधारी इन्द्र, वरुण और यम—इन सबको जीता जा सकता है; परंतु आपको तो समरभूमिमें इन्द्र आदि देवता और असुर भी नहीं जीत सकते॥७४॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्यमेतन्महाबाहो यथा वदसि पाण्डव ॥ ७५ ॥
नाहं जेतुं रणे शक्यः सेन्द्रैरपि सुरासुरैः।
आत्तशस्त्रो रणे यत्तो गृहीतवरकार्मुकः ॥ ७६ ॥

मूलम्

सत्यमेतन्महाबाहो यथा वदसि पाण्डव ॥ ७५ ॥
नाहं जेतुं रणे शक्यः सेन्द्रैरपि सुरासुरैः।
आत्तशस्त्रो रणे यत्तो गृहीतवरकार्मुकः ॥ ७६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मने कहा— महाबाहो! पाण्डुनन्दन! तुम जैसा कहते हो, यह सत्य है। जबतक मेरे हाथमें शस्त्र होगा, जबतक मैं श्रेष्ठ धनुष लेकर युद्धके लिये सावधान एवं प्रयत्नशील रहूँगा, तबतक इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवता और असुर भी रणक्षेत्रमें मुझे जीत नहीं सकते॥७५-७६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो मां न्यस्तशस्त्रं तु एते हन्युर्महारथाः।
निक्षिप्तशस्त्रे पतिते विमुक्तकवचध्वजे ॥ ७७ ॥
द्रवमाणे च भीते च तवास्मीति च वादिनि।
स्त्रियां स्त्रीनामधेये च विकले चैकपुत्रके ॥ ७८ ॥
अप्रशस्ते नरे चैव न युद्धं रोचते मम।

मूलम्

ततो मां न्यस्तशस्त्रं तु एते हन्युर्महारथाः।
निक्षिप्तशस्त्रे पतिते विमुक्तकवचध्वजे ॥ ७७ ॥
द्रवमाणे च भीते च तवास्मीति च वादिनि।
स्त्रियां स्त्रीनामधेये च विकले चैकपुत्रके ॥ ७८ ॥
अप्रशस्ते नरे चैव न युद्धं रोचते मम।

अनुवाद (हिन्दी)

जब मैं अस्त्र-शस्त्र डाल दूँ, उस अवस्थामें ये महारथी मुझे मार सकते हैं। जिसने शस्त्र नीचे डाल दिया हो, जो गिर पड़ा हो, जो कवच और ध्वजसे शून्य हो गया हो, जो भयभीत होकर भागता हो, अथवा ‘मैं तुम्हारा हूँ’ ऐसा कह रहा हो, जो स्त्री हो, स्त्रियों-जैसा नाम रखता हो, विकल हो, जो अपने पिताका इकलौता पुत्र हो अथवा जो नीच जातिका हो, ऐसे मनुष्यके साथ युद्ध करना मुझे अच्छा नहीं लगता है॥७७-७८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इमं मे शृणु राजेन्द्र संकल्पं पूर्वचिन्तितम् ॥ ७९ ॥
अमङ्गल्यध्वजं दृष्ट्‌वा न युध्येयं कदाचन।

मूलम्

इमं मे शृणु राजेन्द्र संकल्पं पूर्वचिन्तितम् ॥ ७९ ॥
अमङ्गल्यध्वजं दृष्ट्‌वा न युध्येयं कदाचन।

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! मेरे पहलेसे सोचे हुए इस संकल्पको सुनो, जिसकी ध्वजामें कोई अमंगलसूचक चिह्न हो, ऐसे पुरुषको देखकर मैं कभी उसके साथ युद्ध नहीं कर सकता॥७९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

य एष द्रौपदो राजंस्तव सैन्ये महारथः ॥ ८० ॥
शिखण्डी समरामर्षी शूरश्च समितिञ्जयः।
यथाभवच्च स्त्री पूर्वं पश्चात् पुंस्त्वं समागतः ॥ ८१ ॥

मूलम्

य एष द्रौपदो राजंस्तव सैन्ये महारथः ॥ ८० ॥
शिखण्डी समरामर्षी शूरश्च समितिञ्जयः।
यथाभवच्च स्त्री पूर्वं पश्चात् पुंस्त्वं समागतः ॥ ८१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! तुम्हारी सेनामें जो यह द्रुपदपुत्र महारथी शिखण्डी है, वह समरभूमिमें अमर्षशील, शौर्यसम्पन्न तथा युद्धविजयी है। वह पहले स्त्री था, फिर पुरुषभावको प्राप्त हुआ है॥८०-८१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जानन्ति च भवन्तोऽपि सर्वमेतद् यथातथम्।
अर्जुनः समरे शूरः पुरस्कृत्य शिखण्डिनम् ॥ ८२ ॥
मामेव विशिखैस्तीक्ष्णैरभिद्रवतु दंशितः ।

मूलम्

जानन्ति च भवन्तोऽपि सर्वमेतद् यथातथम्।
अर्जुनः समरे शूरः पुरस्कृत्य शिखण्डिनम् ॥ ८२ ॥
मामेव विशिखैस्तीक्ष्णैरभिद्रवतु दंशितः ।

अनुवाद (हिन्दी)

ये सारी बातें जैसे हुई हैं, वह सब तुमलोग भी जानते हो। शूरवीर अर्जुन समरांगणमें कवच धारण करके शिखण्डीको आगे रखकर मुझपर तीखे बाणोंद्वारा आक्रमण करे॥८२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अमङ्गल्यध्वजे तस्मिन् स्त्रीपूर्वे च विशेषतः ॥ ८३ ॥
न प्रहर्तुमभीप्सामि गृहीतेषुः कथञ्चन।

मूलम्

अमङ्गल्यध्वजे तस्मिन् स्त्रीपूर्वे च विशेषतः ॥ ८३ ॥
न प्रहर्तुमभीप्सामि गृहीतेषुः कथञ्चन।

अनुवाद (हिन्दी)

शिखण्डीकी ध्वजा अमांगलिक चिह्नसे युक्त है तथा विशेषतः वह पहले स्त्री रहा है; इसलिये मैं हाथमें बाण लिये रहनेपर भी किसी प्रकार उसके ऊपर प्रहार नहीं करना चाहता॥८३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदन्तरं समासाद्य पाण्डवो मां धनंजयः ॥ ८४ ॥
शरैर्घातयतु क्षिप्रं समन्ताद् भरतर्षभ।

मूलम्

तदन्तरं समासाद्य पाण्डवो मां धनंजयः ॥ ८४ ॥
शरैर्घातयतु क्षिप्रं समन्ताद् भरतर्षभ।

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! इसी अवसरका लाभ लेकर पाण्डुपुत्र अर्जुन मुझे चारों ओरसे शीघ्रतापूर्वक बाणोंद्वारा मार डालनेका प्रयत्न करे॥८४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न तं पश्यामि लोकेषु मां हन्याद् यः समुद्यतम्॥८५॥
ऋते कृष्णान्महाभागात् पाण्डवाद् वा धनञ्जयात्।

मूलम्

न तं पश्यामि लोकेषु मां हन्याद् यः समुद्यतम्॥८५॥
ऋते कृष्णान्महाभागात् पाण्डवाद् वा धनञ्जयात्।

अनुवाद (हिन्दी)

मैं महाभाग भगवान् श्रीकृष्ण अथवा पाण्डुपुत्र धनंजयके सिवा दूसरे किसीको जगत्‌में ऐसा नहीं देखता, जो युद्धके लिये उद्यत होनेपर मुझे मार सके॥८५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष तस्मात् पुरोधाय कञ्चिदन्यं ममाग्रतः ॥ ८६ ॥
आत्तशस्त्रो रणे यत्तो गृहीतवरकार्मुकः।
मां पातयतु बीभत्सुरेवं तव जयो ध्रुवम् ॥ ८७ ॥

मूलम्

एष तस्मात् पुरोधाय कञ्चिदन्यं ममाग्रतः ॥ ८६ ॥
आत्तशस्त्रो रणे यत्तो गृहीतवरकार्मुकः।
मां पातयतु बीभत्सुरेवं तव जयो ध्रुवम् ॥ ८७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये यह अर्जुन श्रेष्ठ धनुष तथा दूसरे अस्त्र-शस्त्र लेकर युद्धमें सावधानीके साथ प्रयत्नशील हो और उपर्युक्त लक्षणोंसे युक्त किसी पुरुषको अथवा शिखण्डीको मेरे सामने खड़ा करके स्वयं बाणोंद्वारा मुझे मार गिरावे। इसी प्रकार तुम्हारी निश्चितरूपसे विजय हो सकती है॥८६-८७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतत् कुरुष्व कौन्तेय यथोक्तं मम सुव्रत।
संग्रामे धार्तराष्ट्रांश्च हन्याः सर्वान् समागतान् ॥ ८८ ॥

मूलम्

एतत् कुरुष्व कौन्तेय यथोक्तं मम सुव्रत।
संग्रामे धार्तराष्ट्रांश्च हन्याः सर्वान् समागतान् ॥ ८८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उत्तम व्रतका पालन करनेवाले कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर! तुम मेरे ऊपर जैसे मैंने बतायी है, वैसी ही नीतिका प्रयोग करो। ऐसा करके ही तुम रणक्षेत्रमें आये हुए सम्पूर्ण धृतराष्ट्रपुत्रों एवं उनके सैनिकोंको मार सकते हो॥८८॥

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते तु ज्ञात्वा ततः पार्था जग्मुः स्वशिबिरं प्रति।
अभिवाद्य महात्मानं भीष्मं कुरुपितामहम् ॥ ८९ ॥

मूलम्

ते तु ज्ञात्वा ततः पार्था जग्मुः स्वशिबिरं प्रति।
अभिवाद्य महात्मानं भीष्मं कुरुपितामहम् ॥ ८९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— राजन्! यह सब जानकर कुन्तीके सभी पुत्र कुरुकुलके वृद्ध पितामह महात्मा भीष्मको प्रणाम करके अपने शिविरकी ओर चले गये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथोक्तवति गाङ्गेये परलोकाय दीक्षिते।
अर्जुनो दुःखसंतप्तः सव्रीडमिदमब्रवीत् ॥ ९० ॥

मूलम्

तथोक्तवति गाङ्गेये परलोकाय दीक्षिते।
अर्जुनो दुःखसंतप्तः सव्रीडमिदमब्रवीत् ॥ ९० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गंगानन्दन भीष्म परलोककी दीक्षा ले चुके थे। उन्होंने जब पूर्वोक्त बात बतायी, तब अर्जुन दुःखसे संतप्त एवं लज्जित होकर श्रीकृष्णसे इस प्रकार बोले—॥९०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरुणा कुरुवृद्धेन कृतप्रज्ञेन धीमता।
पितामहेन संग्रामे कथं योद्धास्मि माधव ॥ ९१ ॥

मूलम्

गुरुणा कुरुवृद्धेन कृतप्रज्ञेन धीमता।
पितामहेन संग्रामे कथं योद्धास्मि माधव ॥ ९१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘माधव! कुरुकुलके वृद्ध गुरुजन विशुद्ध-बुद्धि, मतिमान् पितामह भीष्मसे मैं रणक्षेत्रमें कैसे युद्ध करूँगा॥९१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्रीडता हि मया बाल्ये वासुदेव महामनाः।
पांसुरूषितगात्रेण महात्मा परुषीकृतः ॥ ९२ ॥

मूलम्

क्रीडता हि मया बाल्ये वासुदेव महामनाः।
पांसुरूषितगात्रेण महात्मा परुषीकृतः ॥ ९२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वासुदेव! बचपनमें खेलते समय मैंने अपने धूलि-धूसर शरीरसे उन महामनस्वी महात्माको सदा दूषित किया है॥९२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्याहमधिरुह्याङ्कं बालः किल गदाग्रज।
तातेत्यवोचं पितरं पितुः पाण्डोर्महात्मनः ॥ ९३ ॥
नाहं तातस्तव पितुस्तातोऽस्मि तव भारत।
इति मामब्रवीद् बाल्ये यः स वध्यः कथं मया॥९४॥

मूलम्

यस्याहमधिरुह्याङ्कं बालः किल गदाग्रज।
तातेत्यवोचं पितरं पितुः पाण्डोर्महात्मनः ॥ ९३ ॥
नाहं तातस्तव पितुस्तातोऽस्मि तव भारत।
इति मामब्रवीद् बाल्ये यः स वध्यः कथं मया॥९४॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘गदाग्रज! कहते हैं, मैं बचपनमें अपने पिता महात्मा पाण्डुके भी पितृतुल्य भीष्मजीकी गोदमें चढ़कर जब उन्हें तात कहकर पुकारता था, उस समय उस बाल्यावस्थामें ही वे मुझसे इस प्रकार कहते थे—‘भरतनन्दन! मैं तुम्हारा तात नहीं, तुम्हारे पिताका तात हूँ।’ वे ही वृद्ध पितामह मेरे द्वारा मारनेयोग्य कैसे हो सकते हैं?॥९३-९४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कामं वध्यतु सैन्यं मे नाहं योत्स्ये महात्मना।
जयो वास्तु वधो वा मे कथं वा कृष्ण मन्यसे॥९५॥

मूलम्

कामं वध्यतु सैन्यं मे नाहं योत्स्ये महात्मना।
जयो वास्तु वधो वा मे कथं वा कृष्ण मन्यसे॥९५॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भले ही वे मेरी सेनाका नाश कर डालें, मेरी विजय हो अथवा मृत्यु; परंतु मैं उन महात्मा भीष्मके साथ युद्ध नहीं करूँगा; अथवा श्रीकृष्ण! आप कैसा ठीक समझते हैं?॥९५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(कथमस्मद्विधः कृष्ण जानन् धर्मं सनातनम्।
न्यस्तशस्त्रे च वृद्धे च प्रहरेद्धि पितामहे॥)

मूलम्

(कथमस्मद्विधः कृष्ण जानन् धर्मं सनातनम्।
न्यस्तशस्त्रे च वृद्धे च प्रहरेद्धि पितामहे॥)

अनुवाद (हिन्दी)

‘श्रीकृष्ण! अपने सनातन धर्मको जाननेवाला मेरे-जैसा पुरुष हथियार डालकर बैठे हुए अपने बूढ़े पितामहपर प्रहार कैसे करेगा?’

मूलम् (वचनम्)

वासुदेव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रतिज्ञाय वधं जिष्णो पुरा भीष्मस्य संयुगे।
क्षत्रधर्मे स्थितः पार्थ कथं नैनं हनिष्यसि ॥ ९६ ॥

मूलम्

प्रतिज्ञाय वधं जिष्णो पुरा भीष्मस्य संयुगे।
क्षत्रधर्मे स्थितः पार्थ कथं नैनं हनिष्यसि ॥ ९६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्ण बोले— विजयी कुन्तीकुमार! तुम क्षत्रियधर्ममें स्थित हो। युद्धमें तुम पहले भीष्मके वधकी प्रतिज्ञा करके अब उन्हें कैसे नहीं मारोगे?॥९६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पातयैनं रथात् पार्थ क्षत्रियं युद्धदुर्मदम्।
नाहत्वा युधि गाङ्गेयं विजयस्ते भविष्यति ॥ ९७ ॥

मूलम्

पातयैनं रथात् पार्थ क्षत्रियं युद्धदुर्मदम्।
नाहत्वा युधि गाङ्गेयं विजयस्ते भविष्यति ॥ ९७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पार्थ! तुम युद्धदुर्मद क्षत्रियप्रवर भीष्मको रथसे मार गिराओ। रणक्षेत्रमें गंगानन्दन भीष्मको मारे बिना तुम्हारी विजय नहीं होगी॥९७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्टमेतत् पुरा देवैर्गमिष्यति यमक्षयम्।
यद् दृष्टं हि पुरा पार्थ तत् तथा न तदन्यथा॥९८॥

मूलम्

दृष्टमेतत् पुरा देवैर्गमिष्यति यमक्षयम्।
यद् दृष्टं हि पुरा पार्थ तत् तथा न तदन्यथा॥९८॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस बातको देवताओंने पहलेसे ही देख रखा है। भीष्म इसी प्रकार यमलोकको जायँगे। पार्थ! जिसे देवताओंने देखा है, वह उसी प्रकार होगा। उसे कोई बदल नहीं सकता॥९८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हि भीष्मं दुराधर्षं व्यात्ताननमिवान्तकम्।
त्वदन्यः शक्नुयाद् योद्‌धुमपि वज्रधरः स्वयम् ॥ ९९ ॥

मूलम्

न हि भीष्मं दुराधर्षं व्यात्ताननमिवान्तकम्।
त्वदन्यः शक्नुयाद् योद्‌धुमपि वज्रधरः स्वयम् ॥ ९९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्धर्ष वीर भीष्म मुँह फैलाये हुए कालके समान प्रतीत होते हैं। तुम्हारे सिवा दूसरा कोई, भले ही वह साक्षात् वज्रधारी इन्द्र ही क्यों न हो, उनके साथ युद्ध नहीं कर सकता॥९९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जहि भीष्मं स्थिरो भूत्वा शृणु चेदं वचो मम।
यथोवाच पुरा शक्रं महाबुद्धिर्बृहस्पतिः ॥ १०० ॥

मूलम्

जहि भीष्मं स्थिरो भूत्वा शृणु चेदं वचो मम।
यथोवाच पुरा शक्रं महाबुद्धिर्बृहस्पतिः ॥ १०० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुन! तुम स्थिर होकर भीष्मको मारो और मेरी यह बात सुनो, जिसे पूर्वकालमें महाबुद्धिमान् बृहस्पतिजीने देवराज इन्द्रको बताया था॥१००॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्यायांसमपि चेद् वृद्धं गुणैरपि समन्वितम्।
आततायिनमायान्तं हन्याद् घातकमात्मनः ॥ १०१ ॥

मूलम्

ज्यायांसमपि चेद् वृद्धं गुणैरपि समन्वितम्।
आततायिनमायान्तं हन्याद् घातकमात्मनः ॥ १०१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कोई बड़े-से-बड़े गुरुजन, वृद्ध और सर्वगुणसम्पन्न पुरुष ही क्यों न हों, यदि शस्त्र उठाकर अपना वध करनेके लिये आ रहे हों तो उस आततायीको अवश्य मार डालना चाहिये॥१०१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शाश्वतोऽयं स्थितो धर्मः क्षत्रियाणां धनंजय।
योद्धव्यं रक्षितव्यं च यष्टव्यं चानसूयुभिः ॥ १०२ ॥

मूलम्

शाश्वतोऽयं स्थितो धर्मः क्षत्रियाणां धनंजय।
योद्धव्यं रक्षितव्यं च यष्टव्यं चानसूयुभिः ॥ १०२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धनंजय! यह क्षत्रियोंका निश्चित सनातन धर्म है। उन्हें किसीके प्रति दोषदृष्टि न रखकर सदा युद्ध, प्रजाओंकी रक्षा और यज्ञ करते रहने चाहिये॥१०२॥

मूलम् (वचनम्)

अर्जुन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

शिखण्डी निधनं कृष्ण भीष्मस्य भविता ध्रुवम्।
दृष्ट्‌वैव हि सदा भीष्मः पाञ्चाल्यं विनिवर्तते ॥ १०३ ॥

मूलम्

शिखण्डी निधनं कृष्ण भीष्मस्य भविता ध्रुवम्।
दृष्ट्‌वैव हि सदा भीष्मः पाञ्चाल्यं विनिवर्तते ॥ १०३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुनने कहा— श्रीकृष्ण! शिखण्डी निश्चय ही भीष्मकी मृत्युका कारण होगा; क्योंकि भीष्म उस पांचाल-राजकुमारको देखते ही सदा युद्धसे निवृत्त हो जाते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते वयं प्रमुखे तस्य पुरस्कृत्य शिखण्डिनम्।
गाङ्गेयं पातयिष्याम उपायेनेति मे मतिः ॥ १०४ ॥

मूलम्

ते वयं प्रमुखे तस्य पुरस्कृत्य शिखण्डिनम्।
गाङ्गेयं पातयिष्याम उपायेनेति मे मतिः ॥ १०४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः हम सब लोग उनके सामने शिखण्डीको खड़ा करके शस्त्रप्रहाररूप उपायद्वारा गंगानन्दन भीष्मको मार गिरायेंगे, यही मेरा विचार है॥१०४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहमन्यान् महेष्वासान् वारयिष्यामि सायकैः।
शिखण्ड्यपि युधां श्रेष्ठं भीष्ममेवाभियोधयेत् ॥ १०५ ॥

मूलम्

अहमन्यान् महेष्वासान् वारयिष्यामि सायकैः।
शिखण्ड्यपि युधां श्रेष्ठं भीष्ममेवाभियोधयेत् ॥ १०५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं बाणोंद्वारा अन्य महाधनुर्धरोंको रोकूँगा। शिखण्डी भी योद्धाओंमें श्रेष्ठ भीष्मके साथ ही युद्ध करे॥१०५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुतं हि कुरुमुख्यस्य नाहं हन्यां शिखण्डिनम्।
कन्या ह्येषा पुरा भूत्वा पुरुषः समपद्यत ॥ १०६ ॥

मूलम्

श्रुतं हि कुरुमुख्यस्य नाहं हन्यां शिखण्डिनम्।
कन्या ह्येषा पुरा भूत्वा पुरुषः समपद्यत ॥ १०६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुकुलके प्रधान वीर भीष्मका यह निश्चय है कि मैं शिखण्डीको नहीं मारूँगा; क्योंकि वह पहले कन्यारूपमें उत्पन्न होकर पीछे पुरुष हुआ है॥१०६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(अर्जुनस्य वचः श्रुत्वा भीष्मस्य वधसंयुतम्।
जहृषुर्हृष्टरोमाणः सकृष्णाः पाण्डवास्तदा ॥)

मूलम्

(अर्जुनस्य वचः श्रुत्वा भीष्मस्य वधसंयुतम्।
जहृषुर्हृष्टरोमाणः सकृष्णाः पाण्डवास्तदा ॥)

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुनका भीष्मके वधसे सम्बन्ध रखनेवाला यह वचन सुनकर श्रीकृष्णसहित समस्त पाण्डव बड़े प्रसन्न हुए। उस समय हर्षातिरेकके कारण उनके शरीरोंमें रोमांच हो आया।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्येवं निश्चयं कृत्वा पाण्डवाः सहमाधवाः।
अनुमान्य महात्मानं प्रययुर्हृष्टमानसाः ।
शयनानि यथास्वानि भेजिरे पुरुषर्षभाः ॥ १०७ ॥

मूलम्

इत्येवं निश्चयं कृत्वा पाण्डवाः सहमाधवाः।
अनुमान्य महात्मानं प्रययुर्हृष्टमानसाः ।
शयनानि यथास्वानि भेजिरे पुरुषर्षभाः ॥ १०७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा निश्चय करके श्रीकृष्णसहित पाण्डव मन-ही-मन अत्यन्त संतुष्ट हो महात्मा भीष्मसे विदा लेकर चले गये और उन पुरुषशिरोमणियोंने अपनी-अपनी शय्याओंका आश्रय लिया॥१०७॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते भीष्मपर्वणि भीष्मवधपर्वणि नवमदिवसावहारोत्तरमन्त्रे सप्ताधिकशततमोऽध्यायः ॥ १०७ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्वके अन्तर्गत भीष्मवधपर्वमें नवें दिनके युद्धके समाप्त होनेके पश्चात् परस्पर गुप्तमन्त्रणाविषयक एक सौ सातवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१०७॥

सूचना (हिन्दी)

[दाक्षिणात्य अधिक पाठके ७ श्लोक मिलाकर कुल ११४ श्लोक हैं।]