१०५

भागसूचना

पञ्चाधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

दुर्योधनका दुःशासनको भीष्मकी रक्षाके लिये आदेश, युधिष्ठिर और नकुल-सहदेवके द्वारा शकुनिकी घुड़सवार-सेनाकी पराजय तथा शल्यके साथ उन सबका युद्ध

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्ट्‌वा भीष्मं रणे क्रुद्धं पाण्डवैरभिसंवृतम्।
यथा मेघैर्महाराज तपान्ते दिवि भास्करम् ॥ १ ॥
दुर्योधनो महाराज दुःशासनमभाषत ।

मूलम्

दृष्ट्‌वा भीष्मं रणे क्रुद्धं पाण्डवैरभिसंवृतम्।
यथा मेघैर्महाराज तपान्ते दिवि भास्करम् ॥ १ ॥
दुर्योधनो महाराज दुःशासनमभाषत ।

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— महाराज! ग्रीष्म-ऋतुके अन्तमें (वर्षारम्भ होनेपर) जैसे मेघ आकाशमें सूर्यदेवको ढक लेते हैं, उसी प्रकार पाण्डवोंने युद्धभूमिमें क्रुद्ध हुए भीष्मको सब ओरसे घेर लिया है। यह देखकर आपके पुत्र दुर्योधनने दुःशासनसे कहा—॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष शूरो महेष्वासो भीष्मः शूरनिषूदनः ॥ २ ॥
छादितः पापडवैः शूरैः समन्ताद् भरतर्षभ।

मूलम्

एष शूरो महेष्वासो भीष्मः शूरनिषूदनः ॥ २ ॥
छादितः पापडवैः शूरैः समन्ताद् भरतर्षभ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘भरतश्रेष्ठ! ये शूरवीरोंका नाश करनेवाले महाधनुर्धर शौर्यसम्पन्न भीष्म पराक्रमी पाण्डवोंद्वारा चारों ओरसे घेर लिये गये हैं॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य कार्यं त्वया वीर रक्षणं सुमहात्मनः ॥ ३ ॥
रक्ष्यमाणो हि समरे भीष्मोऽस्माकं पितामहः।
निहन्यात् समरे यत्तान् पञ्चालान् पाण्डवैः सह ॥ ४ ॥

मूलम्

तस्य कार्यं त्वया वीर रक्षणं सुमहात्मनः ॥ ३ ॥
रक्ष्यमाणो हि समरे भीष्मोऽस्माकं पितामहः।
निहन्यात् समरे यत्तान् पञ्चालान् पाण्डवैः सह ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वीर! तुम्हें उन महात्मा भीष्मकी रक्षा करनी चाहिये। युद्धमें सुरक्षित रहनेपर हमारे पितामह भीष्म समरांगणमें विजयके लिये प्रयत्न करनेवाले पाण्डवोंसहित पांचालोंका संहार कर डालेंगे॥३-४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र कार्यतमं मन्ये भीष्मस्यैवाभिरक्षणम्।
गोप्ता ह्येष महेष्वासो भीष्मोऽस्माकं महाव्रतः ॥ ५ ॥

मूलम्

तत्र कार्यतमं मन्ये भीष्मस्यैवाभिरक्षणम्।
गोप्ता ह्येष महेष्वासो भीष्मोऽस्माकं महाव्रतः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अतः इस अवसरपर मैं भीष्मजीकी रक्षाको ही प्रधान कार्य समझता हूँ; क्योंकि ये महाव्रती महाधनुर्धर भीष्म हमलोगोंके रक्षक हैं॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स भवान् सर्वसैन्येन परिवार्य पितामहम्।
समरे कर्म कुर्वाणं दुष्करं परिरक्षतु ॥ ६ ॥

मूलम्

स भवान् सर्वसैन्येन परिवार्य पितामहम्।
समरे कर्म कुर्वाणं दुष्करं परिरक्षतु ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अतः तुम सम्पूर्ण सेनाके साथ समरभूमिमें दुष्कर कर्म करनेवाले पितामह भीष्मको चारों ओरसे घेरकर उनकी रक्षा करो’॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स एवमुक्तः समरे पुत्रो दुःशासनस्तव।
परिवार्य स्थितो भीष्मं सैन्येन महता वृतः ॥ ७ ॥
(पालयामास महता यत्नेन च सुसंयतः।)

मूलम्

स एवमुक्तः समरे पुत्रो दुःशासनस्तव।
परिवार्य स्थितो भीष्मं सैन्येन महता वृतः ॥ ७ ॥
(पालयामास महता यत्नेन च सुसंयतः।)

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्योधनके ऐसा कहनेपर आपका पुत्र दुःशासन समरभूमिमें अपनी विशाल सेनाके साथ जा भीष्मको सब ओरसे घेरकर खड़ा हो गया और बड़े यत्नसे सावधान रहकर उनकी रक्षा करने लगा॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः शतसहस्राणां हयानां सुबलात्मजः।
विमलप्रासहस्तानामृष्टितोमरधारिणाम् ॥ ८ ॥
दर्पितानां सुवेशानां बलस्थानां पताकिनाम्।
शिक्षितैर्युद्धकुशलैरुपेतानां नरोत्तमैः ॥ ९ ॥

मूलम्

ततः शतसहस्राणां हयानां सुबलात्मजः।
विमलप्रासहस्तानामृष्टितोमरधारिणाम् ॥ ८ ॥
दर्पितानां सुवेशानां बलस्थानां पताकिनाम्।
शिक्षितैर्युद्धकुशलैरुपेतानां नरोत्तमैः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर सुबलपुत्र शकुनि एक लाख घुड़सवारोंकी सेनाके साथ युद्धके लिये आ पहुँचा। वे सभी सैनिक अपने हाथोंमें चमकते हुए प्रास, ऋष्टि और तोमर लिये हुए थे। सबको अपने शौर्यका अभिमान था। सभी बलवान्, सुन्दर वेशभूषासे सुसज्जित और ध्वजा-पताकासे सुशोभित थे। अस्त्र-विद्याकी शिक्षा पाये हुए युद्धकुशल श्रेष्ठ पैदल सिपाहियोंकी भी बहुत बड़ी संख्या उन घुड़सवारोंके साथ थी॥८-९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(एवं बहुसहस्रैश्च योधानां युद्धशालिनाम्।
संवृतः शकुनिस्तस्थौ युद्धायैव सुदंशितः॥)

मूलम्

(एवं बहुसहस्रैश्च योधानां युद्धशालिनाम्।
संवृतः शकुनिस्तस्थौ युद्धायैव सुदंशितः॥)

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार युद्धभूमिमें शोभा पानेवाले कई हजार योद्धाओंसे घिरा हुआ शकुनि कवच धारण करके युद्धके लिये ही वहाँ खड़ा हो गया।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नकुलं सहदेवं च धर्मराजं च पाण्डवम्।
न्यवारयन्नरश्रेष्ठान् परिवार्य समन्ततः ॥ १० ॥

मूलम्

नकुलं सहदेवं च धर्मराजं च पाण्डवम्।
न्यवारयन्नरश्रेष्ठान् परिवार्य समन्ततः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! शकुनि नकुल, सहदेव तथा धर्मराज युधिष्ठिर—इन तीनों श्रेष्ठ पुरुषोंको सब ओरसे घेरकर इन्हें आगे बढ़नेसे रोकने लगा॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो दुर्योधनो राजा शूराणां हयसादिनाम्।
अयुतं प्रेषयामास पाण्डवानां निवारणे ॥ ११ ॥

मूलम्

ततो दुर्योधनो राजा शूराणां हयसादिनाम्।
अयुतं प्रेषयामास पाण्डवानां निवारणे ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर राजा दुर्योधनने पाण्डवोंकी प्रगतिको रोकने-के लिये दस हजार घुड़सवार सैनिक और भेजे॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तैः प्रविष्टैर्महावेगैर्गरुत्मद्भिरिवाहवे ।
(शुशुभे स महातेजाः शकुनिः सुबलात्मजः।
तैरश्वैः सुमहावेगैर्मरुद्भिरिव वासवः ॥)

मूलम्

तैः प्रविष्टैर्महावेगैर्गरुत्मद्भिरिवाहवे ।
(शुशुभे स महातेजाः शकुनिः सुबलात्मजः।
तैरश्वैः सुमहावेगैर्मरुद्भिरिव वासवः ॥)

अनुवाद (हिन्दी)

गरुड़के समान अत्यन्त वेगशाली वे अश्व रणभूमिमें यथास्थान पहुँच गये। जैसे मरुद्‌गणोंसे महातेजस्वी इन्द्रकी शोभा होती है, उसी प्रकार उन अत्यन्त वेगशाली अश्वोंके द्वारा अत्यन्त तेजस्वी सुबलपुत्र शकुनि सुशोभित होने लगा॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

खुराहता धरा राजंश्चकम्पे च ननाद च ॥ १२ ॥

मूलम्

खुराहता धरा राजंश्चकम्पे च ननाद च ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! उन घोड़ोंकी टापसे आहत होकर यह पृथ्वी काँपने और भयंकर शब्द करने लगी॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

खुरशब्दश्च सुमहान् वाजिनां शुश्रुवे तदा।
महावंशवनस्येव दह्यमानस्य पर्वते ॥ १३ ॥

मूलम्

खुरशब्दश्च सुमहान् वाजिनां शुश्रुवे तदा।
महावंशवनस्येव दह्यमानस्य पर्वते ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय घोड़ोंकी टापोंका महान् शब्द सब ओर उसी प्रकार सुनायी देने लगा, मानो पर्वतपर जलते हुए बड़े-बड़े बाँसोंके जंगलमें उनके पोरोंके फटनेका शब्द हो रहा हो॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्पतद्भिश्च तैस्तत्र समुद्‌भूतं महद् रजः।
दिवाकररथं प्राप्य छादयामास भास्करम् ॥ १४ ॥

मूलम्

उत्पतद्भिश्च तैस्तत्र समुद्‌भूतं महद् रजः।
दिवाकररथं प्राप्य छादयामास भास्करम् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ घोड़ोंके उछलने-कूदनेसे जो बड़े जोरकी धूलि ऊपरको उठी, उसने मानो सूर्यके रथके समीप पहुँचकर उन्हें आच्छादित कर दिया॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वेगवद्भिर्हयैस्तैस्तु क्षोभिता पाण्डवी चमूः।
निपतद्भिर्महावेगैर्हंसैरिव महत् सरः ॥ १५ ॥

मूलम्

वेगवद्भिर्हयैस्तैस्तु क्षोभिता पाण्डवी चमूः।
निपतद्भिर्महावेगैर्हंसैरिव महत् सरः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन वेगशाली अश्वोंने पाण्डवसेनाको उसी प्रकार क्षुब्ध कर दिया, जैसे महान् वेगसे उड़नेवाले हंस किसी विशाल जलाशयमें पड़कर उसे मथ डालते हैं॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(तुरगैर्वायुवेगैश्च तत् सैन्यं व्याकुलीकृतम्।)
ह्रेषतां चैव शब्देन न प्राज्ञायत किञ्चन।

मूलम्

(तुरगैर्वायुवेगैश्च तत् सैन्यं व्याकुलीकृतम्।)
ह्रेषतां चैव शब्देन न प्राज्ञायत किञ्चन।

अनुवाद (हिन्दी)

वायुके समान वेगवाले उन अश्वोंने पाण्डव-सेनाको व्याकुल कर दिया। उनके हिनहिनानेकी आवाजसे दबकर दूसरा कोई शब्द नहीं सुनायी पड़ता था॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो युधिष्ठिरो राजा माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ ॥ १६ ॥
प्रत्यघ्नंस्तरसा वेगं समरे हयसादिनाम्।
उद्‌वृत्तस्य महाराज प्रावृट्‌कालेऽतिपूर्यतः ॥ १७ ॥
पौर्णमास्यामम्बुवेगं यथा वेला महोदधेः।

मूलम्

ततो युधिष्ठिरो राजा माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ ॥ १६ ॥
प्रत्यघ्नंस्तरसा वेगं समरे हयसादिनाम्।
उद्‌वृत्तस्य महाराज प्रावृट्‌कालेऽतिपूर्यतः ॥ १७ ॥
पौर्णमास्यामम्बुवेगं यथा वेला महोदधेः।

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! तब राजा युधिष्ठिर तथा पाण्डुपुत्र माद्रीनन्दन नकुल-सहदेवने समरभूमिमें उन घुड़सवारोंका वेग नष्ट कर दिया। ठीक उसी तरह, जैसे वर्षा-ऋतुमें अधिक जलसे परिपूर्ण होकर मर्यादा तोड़नेवाले समुद्रके पूर्णिमा तिथिमें बढ़े हुए वेगको तटकी भूमि रोक देती है॥१६-१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्ते रथिनो राजञ्छरैः संनतपर्वभिः ॥ १८ ॥
न्यकृन्तन्नुत्तमाङ्गानि कायेभ्यो हयसादिनाम् ।

मूलम्

ततस्ते रथिनो राजञ्छरैः संनतपर्वभिः ॥ १८ ॥
न्यकृन्तन्नुत्तमाङ्गानि कायेभ्यो हयसादिनाम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! तत्पश्चात् वे रथी झुकी हुई गाँठवाले बाणोंद्वारा घुड़सवारोंके मस्तक काटने लगे॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते निपेतुर्महाराज निहता दृढधन्विभिः ॥ १९ ॥
नागैरिव महानागा यथावद् गिरिगह्वरे।

मूलम्

ते निपेतुर्महाराज निहता दृढधन्विभिः ॥ १९ ॥
नागैरिव महानागा यथावद् गिरिगह्वरे।

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! उन सुदृढ़ धनुर्धरोंद्वारा मारे गये वे घुड़सवार रणभूमिमें उसी प्रकार गिरते थे, जैसे पर्वतोंकी कन्दरामें बड़े-बड़े हाथी हाथियोंसे ही मारे जाकर गिरते हैं॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेऽपि प्रासैः सुनिशितैः शरैः संनतपर्वभिः ॥ २० ॥
न्यकृन्तन्नुत्तमाङ्गानि विचरन्तो दिशो दश।

मूलम्

तेऽपि प्रासैः सुनिशितैः शरैः संनतपर्वभिः ॥ २० ॥
न्यकृन्तन्नुत्तमाङ्गानि विचरन्तो दिशो दश।

अनुवाद (हिन्दी)

वे घुड़सवार भी दसों दिशाओंमें विचरते हुए झुकी हुई गाँठवाले तीखे बाणों तथा प्रासोंद्वारा शत्रु-पक्षके सैनिकोंके मस्तक काट गिराते थे॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभ्याहता हयारोहा ऋष्टिभिर्भरतर्षभ ॥ २१ ॥
अत्यजन्नुत्तमाङ्गानि फलानीव महाद्रुमाः ।

मूलम्

अभ्याहता हयारोहा ऋष्टिभिर्भरतर्षभ ॥ २१ ॥
अत्यजन्नुत्तमाङ्गानि फलानीव महाद्रुमाः ।

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! ऋष्टियोंद्वारा मारे गये घुड़सवार अपने मस्तकोंको उसी प्रकार गिराते थे, जैसे बड़े-बड़े वृक्ष अपने पके हुए फलोंको गिराते हैं॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ससादिनो हया राजंस्तत्र तत्र निषूदिताः ॥ २२ ॥
पतिताः पात्यमानाश्च प्रत्यदृश्यन्त सर्वशः।

मूलम्

ससादिनो हया राजंस्तत्र तत्र निषूदिताः ॥ २२ ॥
पतिताः पात्यमानाश्च प्रत्यदृश्यन्त सर्वशः।

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! सवारोंसहित वहाँ मारे गये बहुत-से घोड़े सब ओर गिरे और गिराये जाते हुए दिखायी देते थे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वध्यमाना हयाश्चैव प्राद्रवन्त भयार्दिताः ॥ २३ ॥
यथा सिंहं समासाद्य मृगाः प्राणपरायणाः।

मूलम्

वध्यमाना हयाश्चैव प्राद्रवन्त भयार्दिताः ॥ २३ ॥
यथा सिंहं समासाद्य मृगाः प्राणपरायणाः।

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे सिंहका सामना पड़ जानेपर मृग भयभीत हो अपने प्राण बचानेके लिये भागते हैं, उसी प्रकार मारे जाते हुए घोड़े भयसे व्याकुल हो इधर-उधर भाग रहे थे॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाण्डवाश्च महाराज जित्वा शत्रून् महामृधे ॥ २४ ॥
दध्मुः शङ्खांश्च भेरीश्च ताडयामासुराहवे।

मूलम्

पाण्डवाश्च महाराज जित्वा शत्रून् महामृधे ॥ २४ ॥
दध्मुः शङ्खांश्च भेरीश्च ताडयामासुराहवे।

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! पाण्डव उस महासमरमें शत्रुओंको जीतकर शंख फूँकने और नगाड़े पीटने लगे॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो दुर्योधनो दीनो दृष्ट्‌वा सैन्यं पराजितम् ॥ २५ ॥
अब्रवीद् भरतश्रेष्ठ मद्रराजमिदं वचः।

मूलम्

ततो दुर्योधनो दीनो दृष्ट्‌वा सैन्यं पराजितम् ॥ २५ ॥
अब्रवीद् भरतश्रेष्ठ मद्रराजमिदं वचः।

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! तब अपनी सेनाको पराजित देख दुर्योधनने दीन होकर मद्रराज शल्यसे इस प्रकार कहा—॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष पाण्डुसुतो ज्येष्ठो यमाभ्यां सहितो रणे ॥ २६ ॥
पश्यतां वो महाबाहो सेनां द्रावयति प्रभो।
तं वारय महाबाहो वेलेव मकरालयम् ॥ २७ ॥
त्वं हि संश्रूयसेऽत्यर्थमसह्यबलविक्रमः ।

मूलम्

एष पाण्डुसुतो ज्येष्ठो यमाभ्यां सहितो रणे ॥ २६ ॥
पश्यतां वो महाबाहो सेनां द्रावयति प्रभो।
तं वारय महाबाहो वेलेव मकरालयम् ॥ २७ ॥
त्वं हि संश्रूयसेऽत्यर्थमसह्यबलविक्रमः ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाबाहो! ये ज्येष्ठ पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर नकुल और सहदेवको साथ लेकर रणभूमिमें आपलोगोंके देखते-देखते मेरी सेनाको खदेड़ रहे हैं। प्रभो! महाबाहो! जैसे तटप्रान्त समुद्रको आगे बढ़नेसे रोकता है, उसी प्रकार आप भी युधिष्ठिरको आगे बढ़नेसे रोकिये; क्योंकि आपका बल और पराक्रम अत्यन्त असह्य सुना जाता है’॥२६-२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुत्रस्य तव तद् वाक्यं श्रुत्वा शल्यः प्रतापवान् ॥ २८ ॥
स ययौ रथवंशेन यत्र राजा युधिष्ठिरः।

मूलम्

पुत्रस्य तव तद् वाक्यं श्रुत्वा शल्यः प्रतापवान् ॥ २८ ॥
स ययौ रथवंशेन यत्र राजा युधिष्ठिरः।

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! आपके पुत्रकी यह बात सुनकर प्रतापी राजा शल्य रथसमूहके साथ उसी स्थानपर गये, जहाँ राजा युधिष्ठिर विद्यमान थे॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदापतद् वै सहसा शल्यस्य सुमहद् बलम् ॥ २९ ॥
महौघवेगं समरे वारयामास पाण्डवः।
मद्रराजं च समरे धर्मराजो महारथः ॥ ३० ॥

मूलम्

तदापतद् वै सहसा शल्यस्य सुमहद् बलम् ॥ २९ ॥
महौघवेगं समरे वारयामास पाण्डवः।
मद्रराजं च समरे धर्मराजो महारथः ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय सहसा अपनी ओर आती हुई राजा शल्यकी उस विशाल वाहिनी तथा स्वयं मद्रराजको भी पाण्डुपुत्र महारथी धर्मराज युधिष्ठिरने महान् जल-प्रवाहके समान समरभूमिमें रोक दिया॥२९-३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दशभिः सायकैस्तूर्णमाजघान स्तनान्तरे ।
नकुलः सहदेवश्च तं सप्तभिरजिह्मगैः ॥ ३१ ॥

मूलम्

दशभिः सायकैस्तूर्णमाजघान स्तनान्तरे ।
नकुलः सहदेवश्च तं सप्तभिरजिह्मगैः ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने शल्यकी छातीमें तुरंत ही दस बाण मारे तथा नकुल और सहदेवने भी सीधे जानेवाले सात बाणोंद्वारा उन्हें घायल कर दिया॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मद्रराजोऽपि तान् सर्वानाजघान त्रिभिस्त्रिभिः।
युधिष्ठिरं पुनः षष्ट्या विव्याध निशितैः शरैः ॥ ३२ ॥

मूलम्

मद्रराजोऽपि तान् सर्वानाजघान त्रिभिस्त्रिभिः।
युधिष्ठिरं पुनः षष्ट्या विव्याध निशितैः शरैः ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब मद्रराज शल्यने भी उनको तीन-तीन बाणोंसे घायल कर दिया। फिर युधिष्ठिरको उन्होंने साठ तीखे बाण मारे॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

माद्रीपुत्रौ च सम्भ्रान्तौ द्वाभ्यां द्वाभ्यामताडयत्।
(पुनः स बहुभिर्बाणैराजघान युधिष्ठिरम्।)

मूलम्

माद्रीपुत्रौ च सम्भ्रान्तौ द्वाभ्यां द्वाभ्यामताडयत्।
(पुनः स बहुभिर्बाणैराजघान युधिष्ठिरम्।)

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद दो-दो बाणोंसे उन्होंने उत्तम कुलमें उत्पन्न माद्रीकुमारोंको घायल किया तथा अनेक बाणोंद्वारा राजा युधिष्ठिरको भी पुनः चोट पहुँचायी॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो भीमो महाबाहुर्दृष्ट्‌वा राजानमाहवे ॥ ३३ ॥
मद्रराजरथं प्राप्तं मृत्योरास्यगतं यथा।
अभ्यपद्यत संग्रामे युधिष्ठिरममित्रजित् ॥ ३४ ॥

मूलम्

ततो भीमो महाबाहुर्दृष्ट्‌वा राजानमाहवे ॥ ३३ ॥
मद्रराजरथं प्राप्तं मृत्योरास्यगतं यथा।
अभ्यपद्यत संग्रामे युधिष्ठिरममित्रजित् ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब शत्रुविजयी महाबाहु भीमसेन समरभूमिमें राजा युधिष्ठिरको मृत्युके मुखमें पड़े हुएके समान मद्रराजके रथके समीप पहुँचा हुआ देखकर युद्धके लिये वहाँ आ पहुँचे॥३३-३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(आपतन्नेव भीमस्तु मद्रराजमताडयत् ।
सर्वपारशवैस्तीक्ष्णैर्नाराचैर्मर्मभेदिभिः ॥
ततो भीष्मश्च द्रोणश्च सैन्येन महता वृतौ।
राजानमभ्यपद्येतामञ्जसा शरवर्षिणौ ॥)

मूलम्

(आपतन्नेव भीमस्तु मद्रराजमताडयत् ।
सर्वपारशवैस्तीक्ष्णैर्नाराचैर्मर्मभेदिभिः ॥
ततो भीष्मश्च द्रोणश्च सैन्येन महता वृतौ।
राजानमभ्यपद्येतामञ्जसा शरवर्षिणौ ॥)

अनुवाद (हिन्दी)

भीमसेनने आते ही पूर्णतः लोहेके बने हुए और मर्मस्थानोंको विदीर्ण करनेमें समर्थ तीखे नाराचोंसे मद्रराज शल्यको गहरी चोट पहुँचायी। तब भीष्म और द्रोणाचार्य दोनों महारथी विशाल सेनाके साथ अनायास ही बाणोंकी वर्षा करते हुए वहाँ राजा शल्यकी रक्षाके लिये आ पहुँचे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो युद्धं महाघोरं प्रावर्तत सुदारुणम्।
अपरां दिशमास्थाय पतमाने दिवाकरे ॥ ३५ ॥

मूलम्

ततो युद्धं महाघोरं प्रावर्तत सुदारुणम्।
अपरां दिशमास्थाय पतमाने दिवाकरे ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर जब सूर्यदेव पश्चिम दिशाका आश्रय लेकर अस्ताचलको जा रहे थे, उसी समय दोनों सेनाओंमें अत्यन्त दारुण महाघोर युद्ध आरम्भ हुआ॥३५॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते भीष्मपर्वणि भीष्मवधपर्वणि पञ्चाधिकशततमोऽध्यायः ॥ १०५ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्वके अन्तर्गत भीष्मवधपर्वमें एक सौ पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१०५॥

सूचना (हिन्दी)

[दाक्षिणात्य अधिक पाठके ५ श्लोक मिलाकर कुल ४० श्लोक हैं।]