१०३ संकुलयुद्धे

भागसूचना

त्र्यधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

उभय पक्षकी सेनाओंका घमासान युद्ध और रक्तमयी रणनदीका वर्णन

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

मध्यन्दिने महाराज संग्रामः समपद्यत।
लोकक्षयकरो रौद्रो भीष्मस्य सह सोमकैः ॥ १ ॥

मूलम्

मध्यन्दिने महाराज संग्रामः समपद्यत।
लोकक्षयकरो रौद्रो भीष्मस्य सह सोमकैः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— महाराज! दोपहर होते-होते भीष्मका सोमकोंके साथ लोकविनाशक भयंकर संग्राम होने लगा॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गाङ्गेयो रथिनां श्रेष्ठः पाण्डवानामनीकिनीम्।
व्यधमन्निशितैर्बाणैः शतशोऽथ सहस्रशः ॥ २ ॥

मूलम्

गाङ्गेयो रथिनां श्रेष्ठः पाण्डवानामनीकिनीम्।
व्यधमन्निशितैर्बाणैः शतशोऽथ सहस्रशः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रथियोंमें श्रेष्ठ गंगानन्दन भीष्मने सैकड़ों और हजारों तीखे बाणोंकी वर्षा करके पाण्डवोंकी विशाल सेनाको नष्ट करना आरम्भ किया॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सम्ममर्द च तत् सैन्यं पिता देवव्रतस्तव।
धान्यानामिव लूनानां प्रकरं गोगणा इव ॥ ३ ॥

मूलम्

सम्ममर्द च तत् सैन्यं पिता देवव्रतस्तव।
धान्यानामिव लूनानां प्रकरं गोगणा इव ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! जैसे बैलोंके समुदाय कटे हुए धानके बोझोंका मर्दन करते हैं, उसी प्रकार आपके ताऊ देवव्रतने उस सेनाको रौंद डाला॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धृष्टद्युम्नः शिखण्डी च विराटो द्रुपदस्तथा।
भीष्ममासाद्य समरे शरैर्जघ्नुर्महारथम् ॥ ४ ॥

मूलम्

धृष्टद्युम्नः शिखण्डी च विराटो द्रुपदस्तथा।
भीष्ममासाद्य समरे शरैर्जघ्नुर्महारथम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब धृष्टद्युम्न, शिखण्डी, विराट और द्रुपदने समरभूमिमें महारथी भीष्मके पास पहुँचकर उन्हें बाणोंसे घायल करना आरम्भ किया॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धृष्टद्युम्नं ततो विद्ध्वा विराटं च शरैस्त्रिभिः।
द्रुपदस्य च नाराचं प्रेषयामास भारत ॥ ५ ॥

मूलम्

धृष्टद्युम्नं ततो विद्ध्वा विराटं च शरैस्त्रिभिः।
द्रुपदस्य च नाराचं प्रेषयामास भारत ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! तदनन्तर भीष्मने विराट और धृष्टद्युम्नको तीन बाणोंसे घायल करके द्रुपदपर नाराचका प्रहार किया॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेन विद्धा महेष्वासा भीष्मेणामित्रकर्षिणा।
चुक्रुधुः समरे राजन् पादस्पृष्टा इवोरगाः ॥ ६ ॥

मूलम्

तेन विद्धा महेष्वासा भीष्मेणामित्रकर्षिणा।
चुक्रुधुः समरे राजन् पादस्पृष्टा इवोरगाः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! शत्रुसूदन भीष्मके द्वारा घायल हुए वे महाधनुर्धर वीर पैरोंसे कुचले हुए सर्पोंकी भाँति समरांगणमें अत्यन्त कुपित हो उठे॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शिखण्डी तं च विव्याध भरतानां पितामहम्।
स्त्रीमयं मनसा ध्यात्वा नास्मै प्राहरदच्युतः ॥ ७ ॥

मूलम्

शिखण्डी तं च विव्याध भरतानां पितामहम्।
स्त्रीमयं मनसा ध्यात्वा नास्मै प्राहरदच्युतः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शिखण्डीने भरतवंशियोंके पितामह भीष्मको बींध डाला; परंतु मन-ही-मन उसे स्त्रीरूप मानकर अपनी मर्यादासे च्युत न होनेवाले भीष्मने उसपर प्रहार नहीं किया॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धृष्टद्युम्नस्तु समरे क्रोधेनाग्निरिव ज्वलन्।
पितामहं त्रिभिर्बाणैर्बाह्वोरुरसि चार्पयत् ॥ ८ ॥

मूलम्

धृष्टद्युम्नस्तु समरे क्रोधेनाग्निरिव ज्वलन्।
पितामहं त्रिभिर्बाणैर्बाह्वोरुरसि चार्पयत् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धृष्टद्युम्न रणक्षेत्रमें क्रोधसे अग्निकी भाँति जल उठे। उन्होंने तीन बाणोंसे पितामह भीष्मको उनकी छाती और भुजाओंमें चोट पहुँचायी॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्रुपदः पञ्चविंशत्या विराटो दशभिः शरैः।
शिखण्डी पञ्चविंशत्या भीष्मं विव्याध सायकैः ॥ ९ ॥

मूलम्

द्रुपदः पञ्चविंशत्या विराटो दशभिः शरैः।
शिखण्डी पञ्चविंशत्या भीष्मं विव्याध सायकैः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्रुपदने पचीस, विराटने दस और शिखण्डीने पचीस सायकोंद्वारा भीष्मको घायल कर दिया॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽतिविद्धो महाराज शोणितौघपरिप्लुतः ।
वसन्ते पुष्पशबलो रक्ताशोक इवाबभौ ॥ १० ॥

मूलम्

सोऽतिविद्धो महाराज शोणितौघपरिप्लुतः ।
वसन्ते पुष्पशबलो रक्ताशोक इवाबभौ ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! उनके सायकोंसे अत्यन्त घायल होनेके कारण वे रक्तप्रवाहसे नहा उठे और वसन्तऋतुमें पुष्पोंसे भरे हुए रक्ताशोककी भाँति शोभा पाने लगे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तान् प्रत्यविध्यद्‌ गाङ्गेयस्त्रिभिस्त्रिभिरजिह्मगैः ।
द्रुपदस्य च भल्लेन धनुश्चिच्छेद मारिष ॥ ११ ॥

मूलम्

तान् प्रत्यविध्यद्‌ गाङ्गेयस्त्रिभिस्त्रिभिरजिह्मगैः ।
द्रुपदस्य च भल्लेन धनुश्चिच्छेद मारिष ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आर्य! उस समय गंगानन्दन भीष्मने उन सबको तीन-तीन सीधे जानेवाले बाणोंसे घायल कर दिया और एक भल्लके द्वारा द्रुपदका धनुष काट दिया॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽन्यत्‌ कार्मुकमादाय भीष्मं विव्याध पञ्चभिः।
सारथिं च त्रिभिर्बाणैः सुशितै रणमूर्धनि ॥ १२ ॥

मूलम्

सोऽन्यत्‌ कार्मुकमादाय भीष्मं विव्याध पञ्चभिः।
सारथिं च त्रिभिर्बाणैः सुशितै रणमूर्धनि ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब उन्होंने दूसरा धनुष हाथमें लेकर युद्धके मुहानेपर पाँच तीखे बाणोंद्वारा भीष्मको और तीन बाणोंसे उनके सारथिको भी घायल कर दिया॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा भीमो महाराज द्रौपद्याः पञ्च चात्मजाः।
केकया भ्रातरः पञ्च सात्यकिश्चैव सात्वतः ॥ १३ ॥
अभ्यद्रवन्त गाङ्गेयं युधिष्ठिरपुरोगमाः ॥
रिरक्षिषन्तः पाञ्चाल्यं धृष्टद्युम्नपुरोगमाः ॥ १४ ॥

मूलम्

तथा भीमो महाराज द्रौपद्याः पञ्च चात्मजाः।
केकया भ्रातरः पञ्च सात्यकिश्चैव सात्वतः ॥ १३ ॥
अभ्यद्रवन्त गाङ्गेयं युधिष्ठिरपुरोगमाः ॥
रिरक्षिषन्तः पाञ्चाल्यं धृष्टद्युम्नपुरोगमाः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! भीम, द्रौपदीके पाँचों पुत्र, पाँचों भाई केकयराजकुमार, सात्वतवंशी सात्यकि, युधिष्ठिर आदि पाण्डव-सैनिक तथा धृष्टद्युम्न आदि पांचाल-सैनिक द्रुपदकी रक्षाके लिये गंगानन्दन भीष्मपर टूट पड़े॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथैव तावकाः सर्वे भीष्मरक्षार्थमुद्यताः।
प्रत्युद्ययुः पाण्डुसेनां सहसैन्या नराधिप ॥ १५ ॥

मूलम्

तथैव तावकाः सर्वे भीष्मरक्षार्थमुद्यताः।
प्रत्युद्ययुः पाण्डुसेनां सहसैन्या नराधिप ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! इसी प्रकार आपके समस्त सैनिक भीष्मकी रक्षाके लिये सेनासहित उद्यत हो पाण्डव-सेनापर चढ़ आये॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्रासीत् सुमहद् युद्धं तव तेषां च संकुलम्।
नराश्वरथनागानां यमराष्ट्रविवर्धनम् ॥ १६ ॥

मूलम्

तत्रासीत् सुमहद् युद्धं तव तेषां च संकुलम्।
नराश्वरथनागानां यमराष्ट्रविवर्धनम् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब वहाँ उन सबके पैदल, घुड़सवार, रथी और हाथीसवारोंमें अत्यन्त भयंकर घमासान युद्ध होने लगा, जो यमराजके राष्ट्रकी वृद्धि करनेवाला था॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रथी रथिनमासाद्य प्राहिणोद् यमसादनम्।
तथेतरान् समासाद्य नरनागाश्वसादिनः ॥ १७ ॥

मूलम्

रथी रथिनमासाद्य प्राहिणोद् यमसादनम्।
तथेतरान् समासाद्य नरनागाश्वसादिनः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रथीने रथीका सामना करके उसे यमलोक पहुँचा दिया। पैदल, हाथीसवार और घुड़सवारोंने भी एक-दूसरेसे भिड़कर ऐसा ही किया॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनयन् परलोकाय शरैः संनतपर्वभिः।
शरैश्च विविधैर्घोरैस्तत्र तत्र विशाम्पते ॥ १८ ॥

मूलम्

अनयन् परलोकाय शरैः संनतपर्वभिः।
शरैश्च विविधैर्घोरैस्तत्र तत्र विशाम्पते ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रजानाथ! उस युद्धस्थलमें जहाँ-तहाँ सब योद्धा झुकी हुई गाँठवाले नाना प्रकारके भयंकर बाणोंद्वारा अपने विपक्षियोंको परलोकके अतिथि बनाने लगे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रथास्तु रथिभिर्हीना हतसारथयस्तथा ।
विप्रद्रुताश्वाः समरे दिशो जग्मुः समन्ततः ॥ १९ ॥

मूलम्

रथास्तु रथिभिर्हीना हतसारथयस्तथा ।
विप्रद्रुताश्वाः समरे दिशो जग्मुः समन्ततः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कितने ही रथ रथियों और सारथियोंसे शून्य हो भागते हुए घोड़ोंके साथ सम्पूर्ण दिशाओंमें चक्कर काट रहे थे॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मृद्‌नन्तस्ते नरान् राजन् हयांश्च सुबहून् रणे।
वातायमाना दृश्यने गन्धर्वनगरोपमाः ॥ २० ॥

मूलम्

मृद्‌नन्तस्ते नरान् राजन् हयांश्च सुबहून् रणे।
वातायमाना दृश्यने गन्धर्वनगरोपमाः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! वे रथ उस रणक्षेत्रमें आपके बहुत-से पैदल मनुष्यों तथा घोड़ोंको कुचलते हुए हवाके समान तीव्र गतिसे भाग रहे थे और गन्धर्वनगरके समान दृष्टिगोचर हो रहे थे॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रथिनश्च रथैर्हीना वर्मिणस्तेजसा युताः।
कुण्डलोष्णीषिणः सर्वे निष्काङ्गदविभूषणाः ॥ २१ ॥
देवपुत्रसमाः सर्वे शौर्ये शक्रसमा युधि।
ऋद्ध्या वैश्रवणं चाति नयेन च बृहस्पतिम् ॥ २२ ॥
सर्वलोकेश्वराः शूरास्तत्र तत्र विशाम्पते।
विप्रद्रुता व्यदृश्यन्त प्राकृता इव मानवाः ॥ २३ ॥

मूलम्

रथिनश्च रथैर्हीना वर्मिणस्तेजसा युताः।
कुण्डलोष्णीषिणः सर्वे निष्काङ्गदविभूषणाः ॥ २१ ॥
देवपुत्रसमाः सर्वे शौर्ये शक्रसमा युधि।
ऋद्ध्या वैश्रवणं चाति नयेन च बृहस्पतिम् ॥ २२ ॥
सर्वलोकेश्वराः शूरास्तत्र तत्र विशाम्पते।
विप्रद्रुता व्यदृश्यन्त प्राकृता इव मानवाः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रजानाथ! कितने ही रथी रथोंसे हीन हो गये थे। वे कवच, कुण्डल और पगड़ी धारण किये बड़े तेजस्वी दिखायी देते थे। उन सबने कण्ठमें स्वर्णमय पदक और भुजाओंमें बाजूबंद धारण कर रखे थे। वे देखनेमें देवकुमारोंके समान सुन्दर और युद्धमें इन्द्रके समान शौर्यसम्पन्न थे। वे समृद्धिमें कुबेर और नीतिज्ञतामें बृहस्पतिजीसे भी बढ़कर थे। ऐसे सर्वलोकेश्वर शूरवीर भी रथहीन हो गँवार मनुष्योंकी भाँति जहाँ-तहाँ भागते दिखायी देते थे॥२१—२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दन्तिनश्च नरश्रेष्ठ हीनाः परमसादिभिः।
मृद्‌नन्तः स्वान्यनीकानि निपेतुः सर्वशब्दगाः ॥ २४ ॥

मूलम्

दन्तिनश्च नरश्रेष्ठ हीनाः परमसादिभिः।
मृद्‌नन्तः स्वान्यनीकानि निपेतुः सर्वशब्दगाः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरश्रेष्ठ! कितने ही दन्तार हाथी अपने श्रेष्ठ सवारोंसे रहित हो अपनी ही सेनाको कुचलते हुए प्रत्येक शब्दके पीछे दौड़ते थे॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चर्मभिश्चामरैश्चित्रैः पताकाभिश्च मारिष ।
छत्रैः सितैर्हेमदण्डैश्चामरैश्च समन्ततः ॥ २५ ॥
विशीर्णैर्विप्रधावन्तो दृश्यन्ते स्म दिशो दश।
नवमेघप्रतीकाशा जलदोपमनिःस्वनाः ॥ २६ ॥

मूलम्

चर्मभिश्चामरैश्चित्रैः पताकाभिश्च मारिष ।
छत्रैः सितैर्हेमदण्डैश्चामरैश्च समन्ततः ॥ २५ ॥
विशीर्णैर्विप्रधावन्तो दृश्यन्ते स्म दिशो दश।
नवमेघप्रतीकाशा जलदोपमनिःस्वनाः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

माननीय महाराज! ढाल, विचित्र चँवर, पताका, श्वेत छत्र, सुवर्णदण्डभूषित चामर—ये चारों ओर बिखरे पड़े थे और (इन्हींके ऊपरसे) नूतन मेघोंकी घटाके सदृश हाथी मेघोंके समान भयंकर गर्जना करते हुए सम्पूर्ण दिशाओंमें दौड़ते दिखायी देते थे॥२५-२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथैव दन्तिभिर्हीना गजारोहा विशाम्पते।
प्रधावन्तोऽन्वदृश्यन्त तव तेषां च संकुले ॥ २७ ॥

मूलम्

तथैव दन्तिभिर्हीना गजारोहा विशाम्पते।
प्रधावन्तोऽन्वदृश्यन्त तव तेषां च संकुले ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रजानाथ! इसी प्रकार हाथियोंसे रहित हाथीसवार भी आपके और पाण्डवोंके भयानक युद्धमें इधर-उधर दौड़ते दिखायी देते थे॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नानादेशसमुत्थांश्च तुरगान् हेमभूषितान् ।
वातायमानानद्राक्षं शतशोऽथ सहस्रशः ॥ २८ ॥

मूलम्

नानादेशसमुत्थांश्च तुरगान् हेमभूषितान् ।
वातायमानानद्राक्षं शतशोऽथ सहस्रशः ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अनेक देशोंमें उत्पन्न, सुवर्णभूषित और वायुके समान वेगशाली सैकड़ों और हजारों घोड़ोंको हमने रणभूमिसे भागते देखा है॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अश्वारोहान् हतैरश्वैर्गृहीतासीन् समन्ततः ।
द्रवमाणानपश्याम द्राव्यमाणांश्च संयुगे ॥ २९ ॥

मूलम्

अश्वारोहान् हतैरश्वैर्गृहीतासीन् समन्ततः ।
द्रवमाणानपश्याम द्राव्यमाणांश्च संयुगे ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हमने युद्धमें बहुत-से घुड़सवारोंको देखा, जो घोड़ोंके मारे जानेपर हाथमें तलवार लिये सब ओर भागते और शत्रुओंद्वारा खदेड़े जाते थे॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गजो गजं समासाद्य द्रवमाणं महाहवे।
ययौ प्रमृद्य तरसा पादातान् वाजिनस्तथा ॥ ३० ॥

मूलम्

गजो गजं समासाद्य द्रवमाणं महाहवे।
ययौ प्रमृद्य तरसा पादातान् वाजिनस्तथा ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस महायुद्धमें एक हाथी भागते हुए दूसरे हाथीके पास पहुँचकर अपने वेगसे बहुतेरे पैदल सिपाहियों तथा घोड़ोंको कुचलता हुआ उसका अनुसरण करता था॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथैव च रथान् राजन् प्रममर्द रणे गजः।
रथाश्चैव समासाद्य पतितांस्तुरगान् भुवि ॥ ३१ ॥

मूलम्

तथैव च रथान् राजन् प्रममर्द रणे गजः।
रथाश्चैव समासाद्य पतितांस्तुरगान् भुवि ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! इसी प्रकार उस रणक्षेत्रमें एक हाथी बहुत-से रथोंको रौंद डालता था और रथ पृथ्वीपर पड़े हुए घोड़ोंको कुचलकर भागते जाते थे॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्यमृद्नन् समरे राजंस्तुरगाश्च नरान् रणे।
एवं ते बहुधा राजन् प्रत्यमृद्‌नन् परस्परम् ॥ ३२ ॥

मूलम्

व्यमृद्नन् समरे राजंस्तुरगाश्च नरान् रणे।
एवं ते बहुधा राजन् प्रत्यमृद्‌नन् परस्परम् ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! समरांगणमें बहुत-से घोड़ोंने पैदल मनुष्योंको कुचल दिया। राजन्! इस प्रकार वे सैनिक अनेक बार एक-दूसरेको कुचलते रहे॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिन् रौद्रे तथा युद्धे वर्तमाने महाभये।
प्रावर्तत नदी घोरा शोणितान्त्रतरङ्गिणी ॥ ३३ ॥

मूलम्

तस्मिन् रौद्रे तथा युद्धे वर्तमाने महाभये।
प्रावर्तत नदी घोरा शोणितान्त्रतरङ्गिणी ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस महाभयंकर घोर युद्धमें रक्त, आँत और तरंगोंसे युक्त एक भयानक नदी बह चली॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्थिसंघातसम्बाधा केशशैवलशाद्वला ।
रथह्रदा शरावर्ता हयमीना दुरासदा ॥ ३४ ॥

मूलम्

अस्थिसंघातसम्बाधा केशशैवलशाद्वला ।
रथह्रदा शरावर्ता हयमीना दुरासदा ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह हड्डियोंके समूहरूपी शिलाखण्डोंसे भरी थी। केश ही उसमें सेवार और घासके समान जान पड़ते थे। रथ कुण्ड और बाण भँवरके समान प्रतीत होते थे। घोड़े ही उस दुर्गम नदीके मत्स्य थे॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शीर्षोपलसमाकीर्णा हस्तिग्राहसमाकुला ।
कवचोष्णीषफेनौघा धनुर्वेगासिकच्छपा ॥ ३५ ॥

मूलम्

शीर्षोपलसमाकीर्णा हस्तिग्राहसमाकुला ।
कवचोष्णीषफेनौघा धनुर्वेगासिकच्छपा ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कटे हुए मस्तक पत्थरोंके टुकड़ोंके समान बिखरे थे। हाथी ही उसमें विशाल ग्राहके समान जान पड़ते थे, कवच और पगड़ी फेनराशिके समान थे, धनुष ही उसका वेगयुक्त प्रवाह और खड्‌ग ही वहाँ कच्छपके समान प्रतीत होते थे॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पताकाध्वजवृक्षाढ्या मर्त्यकूलापहारिणी ।
क्रव्यादहंससंकीर्णा यमराष्ट्रविवर्धनी ॥ ३६ ॥

मूलम्

पताकाध्वजवृक्षाढ्या मर्त्यकूलापहारिणी ।
क्रव्यादहंससंकीर्णा यमराष्ट्रविवर्धनी ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पताका और ध्वजाएँ किनारेके वृक्षोंके समान जान पड़ती थीं। मनुष्योंकी लाशें ही उसके कगारें थीं, जिन्हें वह अपने वेगसे तोड़-तोड़कर बहा रही थी। मांसाहारी पक्षी ही उसके आस-पास हंसोंके समान भरे हुए थे। वह नदी यमके राज्यको बढ़ा रही थी॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तां नदीं क्षत्रियाः शूरा रथनागहयप्लवैः।
प्रतेरुर्बहवो राजन् भयं त्यक्त्वा महारथाः ॥ ३७ ॥

मूलम्

तां नदीं क्षत्रियाः शूरा रथनागहयप्लवैः।
प्रतेरुर्बहवो राजन् भयं त्यक्त्वा महारथाः ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! बहुत-से शूरवीर महारथी क्षत्रिय नौकाके समान घोड़े, रथ, हाथी आदिपर चढ़कर भयसे रहित हो उस नदीके पार जा रहे थे॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपोवाह रणे भीरून् कश्मलेनाभिसंवृतान्।
यथा वैतरणी प्रेतान् प्रेतराजपुरं प्रति ॥ ३८ ॥

मूलम्

अपोवाह रणे भीरून् कश्मलेनाभिसंवृतान्।
यथा वैतरणी प्रेतान् प्रेतराजपुरं प्रति ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे वैतरणी नदी मरे हुए प्राणियोंको प्रेतराजके नगरमें पहुँचाती है, उसी प्रकार वह रक्तमयी नदी डरपोक और कायरोंको मूर्च्छित-से करके रणभूमिसे दूर हटाने लगी॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राक्रोशन् क्षत्रियास्तत्र दृष्ट्‌वा तद् वैशसं महत्।
दुर्योधनापराधेन गच्छन्ति क्षत्रियाः क्षयम् ॥ ३९ ॥

मूलम्

प्राक्रोशन् क्षत्रियास्तत्र दृष्ट्‌वा तद् वैशसं महत्।
दुर्योधनापराधेन गच्छन्ति क्षत्रियाः क्षयम् ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ खड़े हुए क्षत्रिय वह अत्यन्त भयंकर मारकाट देखकर यह पुकार-पुकारकर कह रहे थे कि दुर्योधनके अपराधसे ही सारे क्षत्रिय विनाशको प्राप्त हो रहे हैं॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुणवत्सु कथं द्वेषं धृतराष्ट्रो जनेश्वरः।
कृतवान् पाण्डुपुत्रेषु पापात्मा लोभमोहितः ॥ ४० ॥

मूलम्

गुणवत्सु कथं द्वेषं धृतराष्ट्रो जनेश्वरः।
कृतवान् पाण्डुपुत्रेषु पापात्मा लोभमोहितः ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पापात्मा राजा धृतराष्ट्रने लोभसे मोहित होकर गुणवान् पाण्डवोंसे द्वेष क्यों किया?॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं बहुविधा वाचः श्रूयन्ते स्म परस्परम्।
पाण्डवस्तवसंयुक्ताः पुत्राणां ते सुदारुणाः ॥ ४१ ॥

मूलम्

एवं बहुविधा वाचः श्रूयन्ते स्म परस्परम्।
पाण्डवस्तवसंयुक्ताः पुत्राणां ते सुदारुणाः ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! इस प्रकार वहाँ परस्पर कही हुई पाण्डवोंकी प्रशंसा तथा आपके पुत्रोंकी अत्यन्त भयंकर निन्दासे युक्त नाना प्रकारकी बातें सुनायी पड़ती थीं॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ता निशम्य ततो वाचः सर्वयोधैरुदाहृताः।
आगस्कृत् सर्वलोकस्य पुत्रो दुर्योधनस्तव ॥ ४२ ॥
भीष्मं द्रोणं कृपं चैव शल्यं चोवाच भारत।
युध्यध्वमनहंकाराः किं चिरं कुरुथेति च ॥ ४३ ॥

मूलम्

ता निशम्य ततो वाचः सर्वयोधैरुदाहृताः।
आगस्कृत् सर्वलोकस्य पुत्रो दुर्योधनस्तव ॥ ४२ ॥
भीष्मं द्रोणं कृपं चैव शल्यं चोवाच भारत।
युध्यध्वमनहंकाराः किं चिरं कुरुथेति च ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! तब सम्पूर्ण योद्धाओंके मुखसे निकली हुई उन बातोंको सुनकर सम्पूर्ण लोकोंका अपराध करनेवाले आपके पुत्र दुर्योधनने भीष्म, द्रोण, कृप और शल्यसे कहा—‘आपलोग अहंकार छोड़कर युद्ध करें; विलम्ब क्यों कर रहे हैं?’॥४२-४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्रववृते युद्धं कुरूणां पाण्डवैः सह।
अक्षद्यूतकृतं राजन् सुघोरं वैशसं तदा ॥ ४४ ॥

मूलम्

ततः प्रववृते युद्धं कुरूणां पाण्डवैः सह।
अक्षद्यूतकृतं राजन् सुघोरं वैशसं तदा ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! तदनन्तर कौरवोंका पाण्डवोंके साथ अत्यन्त भयंकर युद्ध होने लगा, जो कपटपूर्ण द्यूतके कारण सम्भव हुआ था और जिसमें बड़ी भारी मारकाट मच रही थी॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत् पुरा न निगृह्णासि वार्यमाणो महात्मभिः।
वैचित्रवीर्य तस्येदं फलं पश्य सुदारुणम् ॥ ४५ ॥

मूलम्

यत् पुरा न निगृह्णासि वार्यमाणो महात्मभिः।
वैचित्रवीर्य तस्येदं फलं पश्य सुदारुणम् ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विचित्रवीर्यनन्दन महाराज धृतराष्ट्र! पूर्वकालमें महात्मा पुरुषोंके मना करनेपर भी जो आपने उनकी बातें नहीं मानीं, उसीका यह भयंकर फल प्राप्त हुआ है, इसे देखिये॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हि पाण्डुसुता राजन् ससैन्याः सपदानुगाः।
रक्षन्ति समरे प्राणान् कौरवा वापि संयुगे ॥ ४६ ॥

मूलम्

न हि पाण्डुसुता राजन् ससैन्याः सपदानुगाः।
रक्षन्ति समरे प्राणान् कौरवा वापि संयुगे ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! सेना और सेवकोंसहित पाण्डव अथवा कौरव समरभूमिमें अपने प्राणोंकी रक्षा नहीं करते हैं—प्राणोंका मोह छोड़कर युद्ध कर रहे हैं॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतस्मात् कारणाद् घोरो वर्तते स्वजनक्षयः।
दैवाद् वा पुरुषव्याघ्र तव चापनयान्नृप ॥ ४७ ॥

मूलम्

एतस्मात् कारणाद् घोरो वर्तते स्वजनक्षयः।
दैवाद् वा पुरुषव्याघ्र तव चापनयान्नृप ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरुषसिंह! नरेश्वर! इस कारणसे अथवा दैवकी प्रेरणासे या आपके ही अन्यायसे होनेवाले इस युद्धमें स्वजनोंका घोर संहार हो रहा है॥४७॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते भीष्मपर्वणि भीष्मवधपर्वणि संकुलयुद्धे त्र्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १०३ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्वके अन्तर्गत भीष्मवधपर्वमें घमासान युद्धविषयक एक सौ तीसरा अध्याय पूरा हुआ॥१०३॥