१०१ अलम्बुषाभिमन्युयुद्धे

भागसूचना

एकाधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

अभिमन्युके द्वारा अलम्बुषकी पराजय, अर्जुनके साथ भीष्मका तथा कृपाचार्य, अश्वत्थामा और द्रोणाचार्यके साथ सात्यकिका युद्ध

मूलम् (वचनम्)

धृतराष्ट्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

आर्जुनिं समरे शूरं विनिघ्नन्तं महारथान्।
अलम्बुषः कथं युद्धे प्रत्ययुध्यत संजय ॥ १ ॥
आर्ष्यशृङ्गिं कथं चैव सौभद्रः परवीरहा।
तन्ममाचक्ष्व तत्त्वेन यथावृत्तं स्म संयुगे ॥ २ ॥

मूलम्

आर्जुनिं समरे शूरं विनिघ्नन्तं महारथान्।
अलम्बुषः कथं युद्धे प्रत्ययुध्यत संजय ॥ १ ॥
आर्ष्यशृङ्गिं कथं चैव सौभद्रः परवीरहा।
तन्ममाचक्ष्व तत्त्वेन यथावृत्तं स्म संयुगे ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्रने पूछा— संजय! समरमें बड़े-बड़े महारथियोंका संहार करते हुए शूरवीर अर्जुनकुमार अभिमन्युके साथ राक्षस अलम्बुषने किस प्रकार युद्ध किया? इसी प्रकार शत्रुवीरोंका हनन करनेवाले सुभद्रा-कुमारने राक्षस अलम्बुषके साथ कैसे युद्ध किया? युद्धस्थलमें उन दोनोंसे सम्बन्ध रखनेवाला जो भी वृत्तान्त हो, वह मुझे ठीक-ठीक बताओ॥१-२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धनंजयश्च किं चक्रे मम सैन्येषु संयुगे।
भीमो वा रथिनां श्रेष्ठो राक्षसो वा घटोत्कचः ॥ ३ ॥
नकुलः सहदेवो वा सात्यकिर्वा महारथः।
एतदाचक्ष्व मे सत्यं कुशलो ह्यसि संजय ॥ ४ ॥

मूलम्

धनंजयश्च किं चक्रे मम सैन्येषु संयुगे।
भीमो वा रथिनां श्रेष्ठो राक्षसो वा घटोत्कचः ॥ ३ ॥
नकुलः सहदेवो वा सात्यकिर्वा महारथः।
एतदाचक्ष्व मे सत्यं कुशलो ह्यसि संजय ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस युद्धके मैदानमें अर्जुनने मेरी सेनाओंके साथ क्या किया? रथियोंमें श्रेष्ठ भीमसेन अथवा राक्षस घटोत्कच या नकुल-सहदेव एवं महारथी सात्यकिने क्या किया? संजय! यह सब मुझे यथार्थरूपसे बताओ; क्योंकि तुम इन बातोंके बतानेमें कुशल हो॥३-४॥

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

हन्त तेऽहं प्रवक्ष्यामि संग्रामं लोमहर्षणम्।
यथाभूद् राक्षसेन्द्रस्य सौभद्रस्य च मारिष ॥ ५ ॥
अर्जुनश्च यथा संख्ये भीमसेनश्च पाण्डवः।
नकुलः सहदेवश्च रणे चक्रुः पराक्रमम् ॥ ६ ॥
तथैव तावकाः सर्वे भीष्मद्रोणपुरःसराः।
अद्भुतानि विचित्राणि चक्रुः कर्माण्यभीतवत् ॥ ७ ॥

मूलम्

हन्त तेऽहं प्रवक्ष्यामि संग्रामं लोमहर्षणम्।
यथाभूद् राक्षसेन्द्रस्य सौभद्रस्य च मारिष ॥ ५ ॥
अर्जुनश्च यथा संख्ये भीमसेनश्च पाण्डवः।
नकुलः सहदेवश्च रणे चक्रुः पराक्रमम् ॥ ६ ॥
तथैव तावकाः सर्वे भीष्मद्रोणपुरःसराः।
अद्भुतानि विचित्राणि चक्रुः कर्माण्यभीतवत् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजयने कहा— आर्य! मैं बड़े दुःखके साथ उस रोमांचकारी संग्रामका वर्णन करूँगा, जो राक्षसराज अलम्बुष और सुभद्राकुमार अभिमन्युमें हुआ था तथा पाण्डुपुत्र अर्जुन, भीमसेन, नकुल और सहदेवने युद्धमें किस प्रकार पराक्रम किया और उसी प्रकार भीष्म, द्रोण आदि आपके सभी योद्धाओंने निर्भीक-से होकर अद्भुत और विचित्र कर्म किये—यह सब भी मुझसे सुनिये॥५—७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अलम्बुषस्तु समरे अभिमन्युं महारथम्।
विनद्य सुमहानादं तर्जयित्वा मुहुर्मुहुः ॥ ८ ॥
अभिदुद्राव वेगेन तिष्ठ तिष्ठेति चाब्रवीत्।

मूलम्

अलम्बुषस्तु समरे अभिमन्युं महारथम्।
विनद्य सुमहानादं तर्जयित्वा मुहुर्मुहुः ॥ ८ ॥
अभिदुद्राव वेगेन तिष्ठ तिष्ठेति चाब्रवीत्।

अनुवाद (हिन्दी)

अलम्बुषने समरभूमिमें महारथी अभिमन्युको जोर-जोरसे गर्जना करके बारंबार डाँट बतायी और ‘खड़ा रह, खड़ा रह’ ऐसा कहकर बड़े वेगसे उसपर धावा किया॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिमन्युश्च वेगेन सिंहवद् विनदन् मुहुः ॥ ९ ॥
आर्ष्यशृङ्गिं महेष्वासं पितुरत्यन्तवैरिणम् ।

मूलम्

अभिमन्युश्च वेगेन सिंहवद् विनदन् मुहुः ॥ ९ ॥
आर्ष्यशृङ्गिं महेष्वासं पितुरत्यन्तवैरिणम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार वीर अभिमन्युने भी बारंबार सिंहनाद करते हुए अपने पितृव्य भीमसेनके अत्यन्त वैरी महाधनुर्धर अलम्बुषपर वेगसे आक्रमण किया॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः समीयतुः संख्ये त्वरितौ नरराक्षसौ ॥ १० ॥
रथाभ्यां रथिनौ श्रेष्ठौ यथा वै देवदानवौ।

मूलम्

ततः समीयतुः संख्ये त्वरितौ नरराक्षसौ ॥ १० ॥
रथाभ्यां रथिनौ श्रेष्ठौ यथा वै देवदानवौ।

अनुवाद (हिन्दी)

फिर तो वे मनुष्य तथा राक्षस दोनों वीर तुरंत ही युद्धस्थलमें एक-दूसरेसे भिड़ गये। दोनों ही रथियोंमें श्रेष्ठ थे, अतः देवता और दानवकी भाँति रथोंद्वारा एक-दूसरेका सामना करने लगे॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मायावी राक्षसश्रेष्ठो दिव्यास्त्रश्चैव फाल्गुनिः ॥ ११ ॥

मूलम्

मायावी राक्षसश्रेष्ठो दिव्यास्त्रश्चैव फाल्गुनिः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राक्षसश्रेष्ठ अलम्बुष मायावी था और अर्जुनकुमार अभिमन्युको दिव्यास्त्रोंका ज्ञान था॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः कार्ष्णिर्महाराज निशितैः सायकैस्त्रिभिः।
आर्ष्यशृङ्गिं रणे विद्‌ध्वा पुनर्विव्याध पञ्चभिः ॥ १२ ॥

मूलम्

ततः कार्ष्णिर्महाराज निशितैः सायकैस्त्रिभिः।
आर्ष्यशृङ्गिं रणे विद्‌ध्वा पुनर्विव्याध पञ्चभिः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! तदनन्तर अर्जुनपुत्र अभिमन्युने तीन तीखे सायकोंसे रणक्षेत्रमें अलम्बुषको बींधकर पुनः पाँच बाणोंसे घायल कर दिया॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अलम्बुषोऽपि संक्रुद्धः कार्ष्णिं नवभिराशुगैः।
हृदि विव्याध वेगेन तोत्रैरिव महाद्विपम् ॥ १३ ॥

मूलम्

अलम्बुषोऽपि संक्रुद्धः कार्ष्णिं नवभिराशुगैः।
हृदि विव्याध वेगेन तोत्रैरिव महाद्विपम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब क्रोधमें भरे हुए अलम्बुषने भी नौ शीघ्रगामी बाणोंद्वारा अर्जुनपुत्र अभिमन्युकी छातीमें उसी प्रकार वेगपूर्वक प्रहार किया, जैसे अंकुशद्वारा गजराजपर प्रहार किया जाता है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः शरसहस्रेण क्षिप्रकारी निशाचरः।
अर्जुनस्य सुतं संख्ये पीडयामास भारत ॥ १४ ॥

मूलम्

ततः शरसहस्रेण क्षिप्रकारी निशाचरः।
अर्जुनस्य सुतं संख्ये पीडयामास भारत ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! तत्पश्चात् शीघ्रतापूर्वक सारे कार्य करनेवाले निशाचरने एक हजार बाण मारकर युद्धस्थलमें अर्जुनके पुत्रको पीड़ित कर दिया॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिमन्युस्ततः क्रुद्धो नवभिर्नतपर्वभिः ।
बिभेद निशितैर्बाणै राक्षसेन्द्रं महोरसि ॥ १५ ॥

मूलम्

अभिमन्युस्ततः क्रुद्धो नवभिर्नतपर्वभिः ।
बिभेद निशितैर्बाणै राक्षसेन्द्रं महोरसि ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इससे क्रुद्ध होकर अभिमन्युने राक्षसराज अलम्बुषकी चौड़ी छातीमें झुकी हुई गाँठवाले नौ पैने बाण मारे॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते तस्य विविशुस्तूर्णं कायं निर्भिद्य मर्मसु।
स तैर्विभिन्नसर्वाङ्गः शुशुभे राक्षसोत्तमः ॥ १६ ॥
पुष्पितैः किंशुकै राजन् संस्तीर्ण इव पर्वतः।

मूलम्

ते तस्य विविशुस्तूर्णं कायं निर्भिद्य मर्मसु।
स तैर्विभिन्नसर्वाङ्गः शुशुभे राक्षसोत्तमः ॥ १६ ॥
पुष्पितैः किंशुकै राजन् संस्तीर्ण इव पर्वतः।

अनुवाद (हिन्दी)

वे बाण राक्षसके शरीरको विदीर्ण करके उसके मर्मस्थानोंमें धँस गये। राजन्! उन बाणोंसे सम्पूर्ण अंगोंके क्षत-विक्षत हो जानेपर राक्षसराज अलम्बुष खिले हुए पलाशके वृक्षोंसे आच्छादित पर्वतकी भाँति सुशोभित होने लगा॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संधारयाणश्च शरान् हेमपुङ्खान् महाबलः ॥ १७ ॥
विबभौ राक्षसश्रेष्ठः सज्वाल इव पर्वतः।

मूलम्

संधारयाणश्च शरान् हेमपुङ्खान् महाबलः ॥ १७ ॥
विबभौ राक्षसश्रेष्ठः सज्वाल इव पर्वतः।

अनुवाद (हिन्दी)

सुवर्णमय पंखसे युक्त उन बाणोंको अपने अंगोंमें धारण किये महाबली राक्षसश्रेष्ठ अलम्बुष अग्निकी ज्वालाओंसे युक्त पर्वतकी भाँति शोभा पा रहा था॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः क्रुद्धो महाराज आर्ष्यशृङ्गिरमर्षणः ॥ १८ ॥
महेन्द्रप्रतिमं कार्ष्णिं छादयामास पत्रिभिः।

मूलम्

ततः क्रुद्धो महाराज आर्ष्यशृङ्गिरमर्षणः ॥ १८ ॥
महेन्द्रप्रतिमं कार्ष्णिं छादयामास पत्रिभिः।

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! तब अमर्षशील अलम्बुषने कुपित होकर देवराज इन्द्रके समान पराक्रमी अर्जुनकुमारको पंखवाले बाणोंसे आच्छादित कर दिया॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेन ते विशिखा मुक्ता यमदण्डोपमाः शिताः ॥ १९ ॥
अभिमन्युं विनिर्भिद्य प्राविशन्त धरातलम्।

मूलम्

तेन ते विशिखा मुक्ता यमदण्डोपमाः शिताः ॥ १९ ॥
अभिमन्युं विनिर्भिद्य प्राविशन्त धरातलम्।

अनुवाद (हिन्दी)

उसके द्वारा छोड़े हुए यमदण्डके समान भयंकर एवं तीखे बाण अभिमन्युके शरीरको छेदकर धरतीमें समा गये॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथैवार्जुनिना मुक्ताः शराः कनकभूषणाः ॥ २० ॥
अलम्बुषं विनिर्भिद्य प्राविशन्त धरातलम्।

मूलम्

तथैवार्जुनिना मुक्ताः शराः कनकभूषणाः ॥ २० ॥
अलम्बुषं विनिर्भिद्य प्राविशन्त धरातलम्।

अनुवाद (हिन्दी)

उसी प्रकार अभिमन्युके छोड़े हुए सुवर्णभूषित बाण भी अलम्बुषको विदीर्ण करके पृथ्वीमें समा गये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सौभद्रस्तु रणे रक्षः शरैः संनतपर्वभिः ॥ २१ ॥
चक्रे विमुखमासाद्य मयं शक्र इवाहवे।

मूलम्

सौभद्रस्तु रणे रक्षः शरैः संनतपर्वभिः ॥ २१ ॥
चक्रे विमुखमासाद्य मयं शक्र इवाहवे।

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे इन्द्र युद्धस्थलमें मयासुरको विमुख कर देते हैं, उसी प्रकार सुभद्राकुमार अभिमन्युने रणक्षेत्रमें झुकी हुई गाँठवाले बाणोंद्वारा मारकर उस राक्षसको युद्धसे विमुख कर दिया॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विमुखं च ततो रक्षो वध्यमानं रणेऽरिणा ॥ २२ ॥
प्रादुश्चक्रे महामायां तामसीं परतापनाम्।

मूलम्

विमुखं च ततो रक्षो वध्यमानं रणेऽरिणा ॥ २२ ॥
प्रादुश्चक्रे महामायां तामसीं परतापनाम्।

अनुवाद (हिन्दी)

फिर समरांगणमें शत्रुसे पीड़ित एवं विमुख हुए राक्षसने शत्रुओंको तपानेवाली अपनी (अन्धकारमयी) तामसी महामाया प्रकट की॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्ते तमसा सर्वे वृताश्चासन् महीपते ॥ २३ ॥
नाभिमन्युमपश्यन्त नैव स्वान् न परान् रणे।

मूलम्

ततस्ते तमसा सर्वे वृताश्चासन् महीपते ॥ २३ ॥
नाभिमन्युमपश्यन्त नैव स्वान् न परान् रणे।

अनुवाद (हिन्दी)

महीपते! तब वे समस्त पाण्डव सैनिक अन्धकारसे आच्छादित हो गये। अतः न तो रणक्षेत्रमें अभिमन्युको देख पाते थे और न अपने तथा शत्रुपक्षके सैनिकोंको ही॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिमन्युश्च तद् दृष्ट्‌वा घोररूपं महत्तमः ॥ २४ ॥
प्रादुश्चक्रेऽस्त्रमत्युग्रं भास्करं कुरुनन्दनः ।
ततः प्रकाशमभवज्जगत् सर्वं महीपते ॥ २५ ॥

मूलम्

अभिमन्युश्च तद् दृष्ट्‌वा घोररूपं महत्तमः ॥ २४ ॥
प्रादुश्चक्रेऽस्त्रमत्युग्रं भास्करं कुरुनन्दनः ।
ततः प्रकाशमभवज्जगत् सर्वं महीपते ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह भयंकर एवं महान् अन्धकार देखकर कुरु-कुलको आनन्दित करनेवाले अभिमन्युने अत्यन्त उग्र भास्करास्त्रको प्रकट किया। राजन्! इससे सम्पूर्ण जगत्‌में प्रकाश छा गया॥२४-२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तां चाभिजघ्निवान् मायां राक्षसस्य दुरात्मनः।
संक्रुद्धश्च महावीर्यो राक्षसेन्द्रं नरोत्तमः ॥ २६ ॥
छादयामास समरे शरैः संनतपर्वभिः।

मूलम्

तां चाभिजघ्निवान् मायां राक्षसस्य दुरात्मनः।
संक्रुद्धश्च महावीर्यो राक्षसेन्द्रं नरोत्तमः ॥ २६ ॥
छादयामास समरे शरैः संनतपर्वभिः।

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार महापराक्रमी नरश्रेष्ठ अभिमन्युने उस दुरात्मा राक्षसकी मायाको नष्ट कर दिया और अत्यन्त कुपित हो झुकी हुई गाँठवाले बाणोंद्वारा उसे समरभूमिमें आच्छादित कर दिया॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बह्वीस्तथान्या मायाश्च प्रयुक्तास्तेन रक्षसा ॥ २७ ॥
सर्वास्त्रविदमेयात्मा वारयामास फाल्गुनिः ।

मूलम्

बह्वीस्तथान्या मायाश्च प्रयुक्तास्तेन रक्षसा ॥ २७ ॥
सर्वास्त्रविदमेयात्मा वारयामास फाल्गुनिः ।

अनुवाद (हिन्दी)

उस राक्षसने और भी बहुत-सी जिन-जिन मायाओंका प्रयोग किया, उन सबको सम्पूर्ण अस्त्रोंके ज्ञाता अनन्त आत्मबलसे सम्पन्न अभिमन्युने नष्ट कर दिया॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हतमायं ततो रक्षो वध्यमानं च सायकैः ॥ २८ ॥
रथं तत्रैव संत्यज्य प्राद्रवन्महतो भयात्।

मूलम्

हतमायं ततो रक्षो वध्यमानं च सायकैः ॥ २८ ॥
रथं तत्रैव संत्यज्य प्राद्रवन्महतो भयात्।

अनुवाद (हिन्दी)

अपनी माया नष्ट हो जानेपर सायकोंकी मार खाता हुआ राक्षस अलम्बुष अत्यन्त भयके कारण अपने रथको वहीं छोड़कर भाग गया॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिन् विनिर्जिते तूर्णं कूटयोधिनि राक्षसे ॥ २९ ॥
आर्जुनिः समरे सैन्यं तावकं सम्ममर्द ह।
मदान्धो गन्धनागेन्द्रः सपद्मां पद्मिनीमिव ॥ ३० ॥

मूलम्

तस्मिन् विनिर्जिते तूर्णं कूटयोधिनि राक्षसे ॥ २९ ॥
आर्जुनिः समरे सैन्यं तावकं सम्ममर्द ह।
मदान्धो गन्धनागेन्द्रः सपद्मां पद्मिनीमिव ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मायाद्वारा युद्ध करनेवाले उस राक्षसके पराजित हो जानेपर अर्जुनकुमार अभिमन्युने तुरंत ही रणक्षेत्रमें आपकी सेनाका उसी प्रकार मर्दन आरम्भ किया, जैसे गन्धयुक्त मदान्ध गजराज कमलोंसे भरी हुई पुष्करिणीको मथ डालता है॥२९-३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः शान्तनवो भीष्मः सैन्यं दृष्ट्‌वाभिविद्रुतम्।
महता शरवर्षेण सौभद्रं पर्यवारयत् ॥ ३१ ॥

मूलम्

ततः शान्तनवो भीष्मः सैन्यं दृष्ट्‌वाभिविद्रुतम्।
महता शरवर्षेण सौभद्रं पर्यवारयत् ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर अपनी सेनाको भागती हुई देख शान्तनु-नन्दन भीष्मने बड़ी भारी बाण-वर्षा करके सुभद्राकुमार अभिमन्युको रोक दिया॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कोष्ठीकृत्य च तं वीरं धार्तराष्ट्रा महारथाः।
एकं सुबहवो युद्धे ततक्षुः सायकैर्दृढम् ॥ ३२ ॥

मूलम्

कोष्ठीकृत्य च तं वीरं धार्तराष्ट्रा महारथाः।
एकं सुबहवो युद्धे ततक्षुः सायकैर्दृढम् ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर आपके महारथी पुत्रोंने वीर अभिमन्युको सब ओरसे घेर लिया और युद्धस्थलमें उस अकेलेको बहुत-से योद्धाओंने सायकोंद्वारा जोर-जोरसे घायल करना आरम्भ किया॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तेषां रथिनां वीरः पितुस्तुल्यपराक्रमः।
सदृशो वासुदेवस्य विक्रमेण बलेन च ॥ ३३ ॥
उभयोः सदृशं कर्म स पितुर्मातुलस्य च।
रणे बहुविधं चक्रे सर्वशस्त्रभृतां वरः ॥ ३४ ॥

मूलम्

स तेषां रथिनां वीरः पितुस्तुल्यपराक्रमः।
सदृशो वासुदेवस्य विक्रमेण बलेन च ॥ ३३ ॥
उभयोः सदृशं कर्म स पितुर्मातुलस्य च।
रणे बहुविधं चक्रे सर्वशस्त्रभृतां वरः ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वीर अभिमन्यु अपने पिता अर्जुनके समान पराक्रमी था। बल और विक्रममें वसुदेवनन्दन श्रीकृष्णकी समानता करता था। सम्पूर्ण शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ उस वीरने रणक्षेत्रमें उन कौरव रथियोंके साथ अपने पिता और मामा दोनोंके सदृश अनेक प्रकारका शौर्यपूर्ण कार्य किया॥३३-३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो धनंजयो वीरो विनिघ्नंस्तव सैनिकान्।
आससाद रणे भीष्मं अत्रप्रेप्सुरमर्षणः ॥ ३५ ॥

मूलम्

ततो धनंजयो वीरो विनिघ्नंस्तव सैनिकान्।
आससाद रणे भीष्मं अत्रप्रेप्सुरमर्षणः ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् वीर अर्जुन समरांगणमें आपके सैनिकोंका संहार करते हुए अपने पुत्रकी रक्षाके लिये अमर्षमें भरकर भीष्मके पास आ पहुँचे॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथैव समरे राजन् पिता देवव्रतस्तव।
आससाद रणे पार्थं स्वर्भानुरिव भास्करम् ॥ ३६ ॥

मूलम्

तथैव समरे राजन् पिता देवव्रतस्तव।
आससाद रणे पार्थं स्वर्भानुरिव भास्करम् ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! जैसे सूर्यपर राहु आक्रमण करता है, उसी प्रकार आपके पितृव्य देवव्रत भीष्मने समरभूमिमें कुन्तीकुमार अर्जुनपर धावा किया॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः सरथनागाश्वाः पुत्रास्तव जनेश्वर।
परिवव्रू रणे भीष्मं जुगुपुश्च समन्ततः ॥ ३७ ॥

मूलम्

ततः सरथनागाश्वाः पुत्रास्तव जनेश्वर।
परिवव्रू रणे भीष्मं जुगुपुश्च समन्ततः ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनेश्वर! उस समय आपके पुत्र रथ, हाथी, घोड़ोंकी सेना साथ लेकर युद्धस्थलमें भीष्मको घेरकर खड़े हो गये और सब ओरसे उनकी रक्षा करने लगे॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथैव पाण्डवा राजन् परिवार्य धनंजयम्।
रणाय महते युक्ता दंशिता भरतर्षभ ॥ ३८ ॥

मूलम्

तथैव पाण्डवा राजन् परिवार्य धनंजयम्।
रणाय महते युक्ता दंशिता भरतर्षभ ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! भरतश्रेष्ठ! उसी प्रकार पाण्डव अर्जुनको सब ओरसे घेरकर कवच आदिसे सुसज्जित हो महायुद्धके लिये तैयार हो गये॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शारद्वतस्ततो राजन् भीष्मस्य प्रमुखे स्थितम्।
अर्जुनं पञ्चविंशत्या सायकानां समाचिनोत् ॥ ३९ ॥

मूलम्

शारद्वतस्ततो राजन् भीष्मस्य प्रमुखे स्थितम्।
अर्जुनं पञ्चविंशत्या सायकानां समाचिनोत् ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! उस समय भीष्मके सामने खड़े हुए अर्जुनको कृपाचार्यने पचीस बाण मारे॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रत्युद्‌गम्याथ विव्याध सात्यकिस्तं शितैः शरैः।
पाण्डवप्रियकामार्थं शार्दूल इव कुञ्जरम् ॥ ४० ॥

मूलम्

प्रत्युद्‌गम्याथ विव्याध सात्यकिस्तं शितैः शरैः।
पाण्डवप्रियकामार्थं शार्दूल इव कुञ्जरम् ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब जैसे सिंह हाथीपर आक्रमण करता है, उसी प्रकार सात्यकिने आगे बढ़कर पाण्डुनन्दन अर्जुनका प्रिय करनेके लिये कृपाचार्यको अपने तीखे बाणोंसे घायल कर दिया॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गौतमोऽपि त्वरायुक्तो माधवं नवभिः शरैः।
हृदि विव्याध संक्रुद्धः कङ्कपत्रपरिच्छदैः ॥ ४१ ॥

मूलम्

गौतमोऽपि त्वरायुक्तो माधवं नवभिः शरैः।
हृदि विव्याध संक्रुद्धः कङ्कपत्रपरिच्छदैः ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह देख कृपाचार्यने भी अत्यन्त कुपित हो बड़ी उतावलीके साथ सात्यकिकी छातीमें कंकपत्रविभूषित नौ बाण मारकर उन्हें घायल कर दिया॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शैनेयोऽपि ततः क्रुद्धश्चापमानम्य वेगवान्।
गौतमान्तकरं तूर्णं समाधत्त शिलीमुखम् ॥ ४२ ॥

मूलम्

शैनेयोऽपि ततः क्रुद्धश्चापमानम्य वेगवान्।
गौतमान्तकरं तूर्णं समाधत्त शिलीमुखम् ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब वेगशाली सात्यकिने भी क्रोधमें भरकर अपने धनुषको झुकाया और तुरंत ही उसपर कृपाचार्यका अन्त करनेवाला बाण रखा॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमापतन्तं वेगेन शक्राशनिसमद्युतिम् ।
द्विधा चिच्छेद संक्रुद्धो द्रौणिः परमकोपनः ॥ ४३ ॥

मूलम्

तमापतन्तं वेगेन शक्राशनिसमद्युतिम् ।
द्विधा चिच्छेद संक्रुद्धो द्रौणिः परमकोपनः ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस बाणका प्रकाश इन्द्रके वज्रके समान था। उसे वेगसे आते देख परम क्रोधी अश्वत्थामाने अत्यन्त कुपित हो उसके दो टुकड़े कर डाले॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समुत्सृज्याथ शैनेयो गौतमं रथिनां वरः।
अभ्यद्रवद् रणे द्रौणिं राहुः खे शशिनं यथा ॥ ४४ ॥

मूलम्

समुत्सृज्याथ शैनेयो गौतमं रथिनां वरः।
अभ्यद्रवद् रणे द्रौणिं राहुः खे शशिनं यथा ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब रथियोंमें श्रेष्ठ सात्यकिने कृपाचार्यको छोड़कर जैसे आकाशमें राहु चन्द्रमापर आक्रमण करता है, उसी प्रकार युद्धस्थलमें अश्वत्थामापर धावा किया॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य द्रोणसुतश्चापं द्विधा चिच्छेद भारत।
अथैनं छिन्नधन्वानं ताडयामास सायकैः ॥ ४५ ॥

मूलम्

तस्य द्रोणसुतश्चापं द्विधा चिच्छेद भारत।
अथैनं छिन्नधन्वानं ताडयामास सायकैः ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! उस द्रोणपुत्रने सात्यकिके धनुषके दो टुकड़े कर दिये और धनुष कट जानेपर उन्हें सायकोंसे घायल करना आरम्भ किया॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽन्यत् कार्मुकमादाय शत्रुघ्नं भारसाधनम्।
द्रौणिं षष्ट्या महाराज बाह्वोरुरसि चार्पयत् ॥ ४६ ॥

मूलम्

सोऽन्यत् कार्मुकमादाय शत्रुघ्नं भारसाधनम्।
द्रौणिं षष्ट्या महाराज बाह्वोरुरसि चार्पयत् ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! तब सात्यकिने भार-साधनमें समर्थ एवं शत्रुविनाशक दूसरा धनुष हाथमें लेकर साठ बाणोंद्वारा अश्वत्थामाकी भुजाओं तथा छातीको छेद डाला॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स विद्धो व्यथितश्चैव मुहूर्तं कश्मलायुतः।
निषसाद रथोपस्थे ध्वजयष्टिं समाश्रितः ॥ ४७ ॥

मूलम्

स विद्धो व्यथितश्चैव मुहूर्तं कश्मलायुतः।
निषसाद रथोपस्थे ध्वजयष्टिं समाश्रितः ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इससे अत्यन्त घायल और व्यथित होकर मूर्च्छित हो ध्वजका सहारा ले वह दो घड़ीतक रथके पिछले भागमें बैठा रहा॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रतिलभ्य ततः संज्ञां द्रोणपुत्रः प्रतापवान्।
वार्ष्णेयं समरे क्रुद्धो नाराचेन समार्पयत् ॥ ४८ ॥

मूलम्

प्रतिलभ्य ततः संज्ञां द्रोणपुत्रः प्रतापवान्।
वार्ष्णेयं समरे क्रुद्धो नाराचेन समार्पयत् ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् प्रतापी द्रोणपुत्रने होशमें आकर कुपित हो समरभूमिमें सात्यकिको नाराचसे घायल कर दिया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शैनेयं स तु निर्भिद्य प्राविशद् धरणीतलम्।
वसन्तकाले बलवान् बिलं सर्पशिशुर्यथा ॥ ४९ ॥

मूलम्

शैनेयं स तु निर्भिद्य प्राविशद् धरणीतलम्।
वसन्तकाले बलवान् बिलं सर्पशिशुर्यथा ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह नाराच सात्यकिको छेदकर उसी प्रकार धरतीमें समा गया, जैसे वसन्त-ऋतुमें बलवान् सर्प-शिशु बिलमें घुसता है॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथापरेण भल्लेन माधवस्य ध्वजोत्तमम्।
चिच्छेद समरे द्रौणिः सिंहनादं मुमोच ह ॥ ५० ॥

मूलम्

अथापरेण भल्लेन माधवस्य ध्वजोत्तमम्।
चिच्छेद समरे द्रौणिः सिंहनादं मुमोच ह ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद दूसरे भल्लसे समरभूमिमें अश्वत्थामाने सात्यकिके उत्तम ध्वजको काट डाला और बड़े जोरसे सिंहनाद किया॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुनश्चैनं शरैर्घोरैश्छादयामास भारत ।
निदाघान्ते महाराज यथा मेघो दिवाकरम् ॥ ५१ ॥

मूलम्

पुनश्चैनं शरैर्घोरैश्छादयामास भारत ।
निदाघान्ते महाराज यथा मेघो दिवाकरम् ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! महाराज! तदनन्तर जैसे वर्षा-ऋतुमें बादल सूर्यको ढक लेता है, उसी प्रकार उसने पुनः अपने भयंकर बाणोंद्वारा सात्यकिको आच्छादित कर दिया॥५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सात्यकोऽपि महाराज शरजालं निहत्य तत्।
द्रौणिमभ्यकिरत् तूर्णं शरजालैरनेकधा ॥ ५२ ॥

मूलम्

सात्यकोऽपि महाराज शरजालं निहत्य तत्।
द्रौणिमभ्यकिरत् तूर्णं शरजालैरनेकधा ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! उस समय सात्यकिने भी उस बाण-समूहको नष्ट करके तुरंत ही अश्वत्थामाके ऊपर अनेक प्रकारके बाणोंका जाल-सा बिछा दिया॥५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तापयामास च द्रौणिं शैनेयः परवीरहा।
विमुक्तो मेघजालेन यथैव तपनस्तथा ॥ ५३ ॥

मूलम्

तापयामास च द्रौणिं शैनेयः परवीरहा।
विमुक्तो मेघजालेन यथैव तपनस्तथा ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले युयुधानने मेघोंकी घटासे मुक्त हुए सूर्यकी भाँति द्रोणपुत्रको संताप देना आरम्भ किया॥५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शराणां च सहस्रेण पुनरेव समुद्यतः।
सात्यकिश्छादयामास ननाद च महाबलः ॥ ५४ ॥

मूलम्

शराणां च सहस्रेण पुनरेव समुद्यतः।
सात्यकिश्छादयामास ननाद च महाबलः ॥ ५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाबली सात्यकिने पुनः एक हजार बाणोंकी वर्षा करके अश्वत्थामाको ढक दिया और बड़े जोरसे गर्जना की॥५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्ट्‌वा पुत्रं च तं ग्रस्तं राहुणेव निशाकरम्।
अभ्यद्रवत शैनेयं भारद्वाजः प्रतापवान् ॥ ५५ ॥

मूलम्

दृष्ट्‌वा पुत्रं च तं ग्रस्तं राहुणेव निशाकरम्।
अभ्यद्रवत शैनेयं भारद्वाजः प्रतापवान् ॥ ५५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे राहु चन्द्रमाको ग्रस लेता है, उसी प्रकार सात्यकिके द्वारा अपने पुत्रपर ग्रहण लगा हुआ देख प्रतापी द्रोणाचार्यने उनके ऊपर धावा किया॥५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विव्याध च सुतीक्ष्णेन पृषत्केन महामृधे।
परीप्सन् स्वसुतं राजन् वार्ष्णेयेनाभिपीडितम् ॥ ५६ ॥

मूलम्

विव्याध च सुतीक्ष्णेन पृषत्केन महामृधे।
परीप्सन् स्वसुतं राजन् वार्ष्णेयेनाभिपीडितम् ॥ ५६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! उस महायुद्धमें सात्यकिद्वारा पीड़ित हुए अपने पुत्रकी रक्षा करनेके लिये आचार्यने तीखे बाणसे उन्हें घायल कर दिया॥५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सात्यकिस्तु रणे हित्वा गुरुपुत्रं महारथम्।
द्रोणं विव्याध विंशत्या सर्वपारशवैः शरैः ॥ ५७ ॥

मूलम्

सात्यकिस्तु रणे हित्वा गुरुपुत्रं महारथम्।
द्रोणं विव्याध विंशत्या सर्वपारशवैः शरैः ॥ ५७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब सात्यकिने रणक्षेत्रमें गुरुपुत्र महारथी अश्वत्थामाको छोड़कर पूर्णतः लोहेके बने हुए बीस बाणोंसे द्रोणाचार्यको बींध डाला॥५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदन्तरममेयात्मा कौन्तेयः शत्रुतापनः ।
अभ्यद्रवद् रणे क्रुद्धो द्रोणं प्रति महारथः ॥ ५८ ॥

मूलम्

तदन्तरममेयात्मा कौन्तेयः शत्रुतापनः ।
अभ्यद्रवद् रणे क्रुद्धो द्रोणं प्रति महारथः ॥ ५८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी समय शत्रुओंको संताप देनेवाले अमेय आत्मबलसे सम्पन्न महारथी कुन्तीपुत्र अर्जुन युद्धस्थलमें कुपित हो द्रोणाचार्यपर टूट पड़े॥५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो द्रोणश्च पार्थश्च समेयातां महामृधे।
यथा बुधश्च शुक्रश्च महाराज नभस्तले ॥ ५९ ॥

मूलम्

ततो द्रोणश्च पार्थश्च समेयातां महामृधे।
यथा बुधश्च शुक्रश्च महाराज नभस्तले ॥ ५९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! तत्पश्चात् द्रोणाचार्य और अर्जुन उस महासमरमें एक-दूसरेसे भिड़ गये, मानो आकाशमें बुध और शुक्र एक-दूसरेपर आक्रमण कर रहे हों॥५९॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते भीष्मपर्वणि भीष्मवधपर्वणि अलम्बुषाभिमन्युयुद्धे एकाधिकशततमोऽध्यायः ॥ १०१ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्वके अन्तर्गत भीष्मवधपर्वमें अलम्बुष और अभिमन्युका युद्धविषयक एक सौ एकवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१०१॥