०९८ भीष्मदुर्योधनसंवादे

भागसूचना

अष्टनवतितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

भीष्मका दुर्योधनको अर्जुनका पराक्रम बताना और भयंकर युद्धके लिये प्रतिज्ञा करना तथा प्रातःकाल दुर्योधनके द्वारा भीष्मकी रक्षाकी व्यवस्था

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

वाक् शल्यैस्तव पुत्रेण सोऽतिविद्धो महामनाः।
दुःखेन महताऽऽविष्टो नोवाचाप्रियमण्वपि ॥ १ ॥

मूलम्

वाक् शल्यैस्तव पुत्रेण सोऽतिविद्धो महामनाः।
दुःखेन महताऽऽविष्टो नोवाचाप्रियमण्वपि ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— महाराज! आपके पुत्रद्वारा वाग्बाणोंसे अत्यन्त विद्ध होकर महामना भीष्मको महान् दुःख हुआ; तथापि उन्होंने उससे कोई किंचिन्मात्र भी अप्रिय वचन नहीं कहा॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स ध्यात्वा सुचिरं कालं दुःखरोषसमन्वितः।
श्वसमानो यथा नागः प्रणुन्नो वाक्‌शलाकया ॥ २ ॥

मूलम्

स ध्यात्वा सुचिरं कालं दुःखरोषसमन्वितः।
श्वसमानो यथा नागः प्रणुन्नो वाक्‌शलाकया ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे दुःख और रोषसे युक्त होकर दीर्घकालतक कुछ सोचते हुए लंबी साँस खींचते रहे। वाणीरूपी अंकुशसे पीड़ित होकर वे हाथीके समान व्यथाका अनुभव करने लगे॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उद्‌वृत्य चक्षुषी कोपान्निर्दहन्निव भारत।
सदेवासुरगन्धर्वं लोकं लोकविदां वरः ॥ ३ ॥

मूलम्

उद्‌वृत्य चक्षुषी कोपान्निर्दहन्निव भारत।
सदेवासुरगन्धर्वं लोकं लोकविदां वरः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! फिर क्रोधसे दोनों आँखें चढ़ाकर लोकवेत्ताओंमें श्रेष्ठ भीष्म इस प्रकार देखने लगे, मानो देवताओं, असुरों और गन्धर्वोंसहित सम्पूर्ण लोकोंको दग्ध कर डालेंगे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अब्रवीत् तव पुत्रं स सामपूर्वमिदं वचः।
किं त्वं दुर्योधनैवं मां वाक्‌शल्यैरपकृन्तसि ॥ ४ ॥
घटमानं यथाशक्ति कुर्वाणं च तव प्रियम्।
जुह्वानं समरे प्राणांस्तव वै प्रियकाम्यया ॥ ५ ॥

मूलम्

अब्रवीत् तव पुत्रं स सामपूर्वमिदं वचः।
किं त्वं दुर्योधनैवं मां वाक्‌शल्यैरपकृन्तसि ॥ ४ ॥
घटमानं यथाशक्ति कुर्वाणं च तव प्रियम्।
जुह्वानं समरे प्राणांस्तव वै प्रियकाम्यया ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर आपके पुत्रको सान्त्वना देते हुए वे उससे इस प्रकार बोले—‘बेटा दुर्योधन! तुम इस प्रकार वाग्बाणोंसे मुझे क्यों छेद रहे हो? मैं तो यथाशक्ति शत्रुओंपर विजय पानेकी चेष्टा करता हूँ और तुम्हारे प्रिय साधनमें लगा हुआ हूँ। इतना ही नहीं, तुम्हारा प्रिय करनेकी इच्छासे मैं समराग्निमें अपने प्राणोंको होम देनेके लिये भी तैयार हूँ॥४-५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदा तु पाण्डवः शूरः खाण्डवेऽग्निमतर्पयत्।
पराजित्य रणे शक्रं पर्याप्तं तन्निदर्शनम् ॥ ६ ॥

मूलम्

यदा तु पाण्डवः शूरः खाण्डवेऽग्निमतर्पयत्।
पराजित्य रणे शक्रं पर्याप्तं तन्निदर्शनम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘परंतु तुम्हें याद होगा, जब शूरवीर पाण्डुनन्दन अर्जुनने युद्धमें देवराज इन्द्रको परास्त करके खाण्डव-वनमें अग्निको तृप्त किया था, वही उनकी अजेयताका पूरा प्रमाण है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदा च त्वां महाबाहो गन्धर्वैर्हृतमोजसा।
अमोचयत् पाण्डुसुतः पर्याप्तं तन्निदर्शनम् ॥ ७ ॥

मूलम्

यदा च त्वां महाबाहो गन्धर्वैर्हृतमोजसा।
अमोचयत् पाण्डुसुतः पर्याप्तं तन्निदर्शनम् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाबाहो! जब गन्धर्वलोग तुम्हें बलपूर्वक पकड़ ले गये थे, उस समय भी पाण्डुपुत्र अर्जुनने ही तुम्हें छुड़ाया था। उनके अनन्त पराक्रमको समझनेके लिये यह दृष्टान्त पर्याप्त होगा॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्रवमाणेषु शूरेषु सोदरेषु तव प्रभो।
सूतपुत्रे च राधेये पर्याप्तं तन्निदर्शनम् ॥ ८ ॥

मूलम्

द्रवमाणेषु शूरेषु सोदरेषु तव प्रभो।
सूतपुत्रे च राधेये पर्याप्तं तन्निदर्शनम् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘प्रभो! उस अवसरपर तुम्हारे ये शूरवीर भाई और राधानन्दन सूतपुत्र कर्ण तो मैदान छोड़कर भाग गये थे। यह अर्जुनकी अद्‌भुत शक्तिका पर्याप्त उदाहरण है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यच्च नः सहितान् सर्वान् विराटनगरे तदा।
एक एव समुद्यातः पर्याप्तं तन्निदर्शनम् ॥ ९ ॥

मूलम्

यच्च नः सहितान् सर्वान् विराटनगरे तदा।
एक एव समुद्यातः पर्याप्तं तन्निदर्शनम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘उन दिनों विराटनगरमें हम सब लोग एक साथ युद्धके लिये डटे हुए थे, परंतु अर्जुनने अकेले ही हमलोगोंपर आक्रमण किया। यह उनकी अपरिमित शक्तिका पर्याप्त उदाहरण है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्रोणं य युधि संरब्धं मां च निर्जित्य संयुगे।
वासांसि स समादत्त पर्याप्तं तन्निदर्शनम् ॥ १० ॥

मूलम्

द्रोणं य युधि संरब्धं मां च निर्जित्य संयुगे।
वासांसि स समादत्त पर्याप्तं तन्निदर्शनम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अर्जुनने क्रोधमें भरे हुए द्रोणाचार्यको तथा मुझे भी युद्धमें परास्त करके सबके वस्त्र छीन लिये थे। यह उनकी अजेयताका पर्याप्त प्रमाण है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा द्रौणिं महेष्वासं शारद्वतमथापि च।
गोग्रहे जितवान् पूर्वं पर्याप्तं तन्निदर्शनम् ॥ ११ ॥

मूलम्

तथा द्रौणिं महेष्वासं शारद्वतमथापि च।
गोग्रहे जितवान् पूर्वं पर्याप्तं तन्निदर्शनम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पूर्वकालमें उसी गोग्रहके अवसरपर पाण्डु-कुमारने महाधनुर्धर अश्वत्थामा तथा कृपाचार्यको भी परास्त कर दिया था। यह दृष्टान्त उन्हें समझनेके लिये पर्याप्त है॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विजित्य च यदा कर्णं सदा पुरुषमानिनम्।
उत्तरायै ददौ वस्त्रं पर्याप्तं तन्निदर्शनम् ॥ १२ ॥

मूलम्

विजित्य च यदा कर्णं सदा पुरुषमानिनम्।
उत्तरायै ददौ वस्त्रं पर्याप्तं तन्निदर्शनम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘उन दिनों सदा अपने पुरुषार्थका अभिमान रखनेवाले कर्णको भी जीतकर अर्जुनने उसके वस्त्र छीनकर उत्तराको अर्पित किये थे। यह दृष्टान्त पर्याप्त होगा॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निवातकवचान् युद्धे वासवेनापि दुर्जयान्।
जितवान् समरे पार्थः पर्याप्तं तन्निदर्शनम् ॥ १३ ॥

मूलम्

निवातकवचान् युद्धे वासवेनापि दुर्जयान्।
जितवान् समरे पार्थः पर्याप्तं तन्निदर्शनम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जिन्हें परास्त करना इन्द्रके लिये भी कठिन था, उन निवातकवचोंको अर्जुनने युद्धमें परास्त कर दिया था। उनकी अलौकिक शक्तिको समझनेके लिये यह दृष्टान्त पर्याप्त होगा॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

को हि शक्तो रणे जेतुं पाण्डवं रभसं तदा।
यस्य गोप्ता जगद्‌गोप्ता शङ्खचक्रगदाधरः ॥ १४ ॥
वासुदेवोऽनन्तशक्तिः सृष्टिसंहारकारकः ।
सर्वेश्वरो देवदेवः परमात्मा सनातनः ॥ १५ ॥

मूलम्

को हि शक्तो रणे जेतुं पाण्डवं रभसं तदा।
यस्य गोप्ता जगद्‌गोप्ता शङ्खचक्रगदाधरः ॥ १४ ॥
वासुदेवोऽनन्तशक्तिः सृष्टिसंहारकारकः ।
सर्वेश्वरो देवदेवः परमात्मा सनातनः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘विश्वरक्षक, शंख, चक्र और गदा धारण करनेवाले अनन्तशक्ति, सृष्टि और संहारके एकमात्र कर्ता देवाधिदेव सनातन परमात्मा सर्वेश्वर भगवान् वासुदेव जिनकी रक्षा करनेवाले हैं, उन वेगशाली वीर पाण्डुपुत्र अर्जुनको युद्धके मैदानमें कौन जीत सकता है॥१४-१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उक्तोऽसि बहुशो राजन् नारदाद्यैर्महर्षिभिः।
त्वं तु मोहान्न जानीषे वाच्यावाच्यं सुयोधन ॥ १६ ॥

मूलम्

उक्तोऽसि बहुशो राजन् नारदाद्यैर्महर्षिभिः।
त्वं तु मोहान्न जानीषे वाच्यावाच्यं सुयोधन ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! सुयोधन! यह बात नारद आदि महर्षियोंने तुमसे कई बार कही है, परंतु तुम मोहवश कहने और न कहनेयोग्य बातको समझते ही नहीं हो॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुमूर्षुर्हि नरः सर्वान् वृक्षान् पश्यति काञ्चनान्।
तथा त्वमपि गान्धारे विपरीतानि पश्यसि ॥ १७ ॥

मूलम्

मुमूर्षुर्हि नरः सर्वान् वृक्षान् पश्यति काञ्चनान्।
तथा त्वमपि गान्धारे विपरीतानि पश्यसि ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘गान्धारीनन्दन! जैसे मरणासन्न मनुष्य सभी वृक्षोंको सुनहरे रंगका देखता है, उसी प्रकार तुम भी सब कुछ विपरीत ही देख रहे हो॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वयं वैरं महत् कृत्वा पाण्डवैः सह सृंजयैः।
युद्ध्यस्व तानद्य रणे पश्यामः पुरुषो भव ॥ १८ ॥
(अशक्याः पाण्डवा जेतुं देवैरपि सवासवैः।)

मूलम्

स्वयं वैरं महत् कृत्वा पाण्डवैः सह सृंजयैः।
युद्ध्यस्व तानद्य रणे पश्यामः पुरुषो भव ॥ १८ ॥
(अशक्याः पाण्डवा जेतुं देवैरपि सवासवैः।)

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुमने स्वयं ही पाण्डवों तथा सृंजयोंके साथ महान् वैर ठाना है। अतः अब तुम्हीं युद्ध करो। हम सब लोग देखते हैं। तुम स्वयं पुरुषत्वका परिचय दो। पाण्डवोंको तो इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवता भी नहीं जीत सकते॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहं तु सोमकान् सर्वान् पञ्चालांश्च समागतान्।
निहनिष्ये नरव्याघ्र वर्जयित्वा शिखण्डिनम् ॥ १९ ॥

मूलम्

अहं तु सोमकान् सर्वान् पञ्चालांश्च समागतान्।
निहनिष्ये नरव्याघ्र वर्जयित्वा शिखण्डिनम् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘किंतु पुरुषसिंह! मैं केवल शिखण्डीको छोड़कर युद्धमें आये हुए समस्त सोमकों और पांचालोंको भी मार डालूँगा॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तैर्वाहं निहतः संख्ये गमिष्ये यमसादनम्।
तान् वा निहत्य समरे प्रीतिं दास्याम्यहं तव ॥ २० ॥

मूलम्

तैर्वाहं निहतः संख्ये गमिष्ये यमसादनम्।
तान् वा निहत्य समरे प्रीतिं दास्याम्यहं तव ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘या तो उन्हींके हाथों युद्धमें मारा जाकर मैं यमलोकका रास्ता लूँगा अथवा उन्हींको समरांगणमें मारकर मैं तुम्हें हर्ष प्रदान करूँगा॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूर्वं हि स्त्री समुत्पन्ना शिखण्डी राजवेश्मनि।
वरदानात् पुमाञ्जातः सैषा वै स्त्री शिखण्डिनी ॥ २१ ॥

मूलम्

पूर्वं हि स्त्री समुत्पन्ना शिखण्डी राजवेश्मनि।
वरदानात् पुमाञ्जातः सैषा वै स्त्री शिखण्डिनी ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शिखण्डी पहले राजभवनमें स्त्रीके रूपमें उत्पन्न हुआ था; फिर वरदानसे पुरुष हो गया, अतः मेरी दृष्टिमें तो यह स्त्रीरूपा शिखण्डिनी ही है॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमहं न हनिष्यामि प्राणत्यागेऽपि भारत।
यासौ प्राङ्‌निर्मिता धात्रा सैषा वै स्त्री शिखण्डिनी ॥ २२ ॥

मूलम्

तमहं न हनिष्यामि प्राणत्यागेऽपि भारत।
यासौ प्राङ्‌निर्मिता धात्रा सैषा वै स्त्री शिखण्डिनी ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भारत! मेरे प्राणोंपर संकट आ जाय तो भी मैं उसे नहीं मारूँगा। जिसे विधाताने पहले स्त्री बनाया था, वह शिखण्डिनी आज भी मेरी दृष्टिमें स्त्री ही है॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुखं स्वपिहि गान्धारे श्वोऽपि कर्ता महारणम्।
यं जनाः कथयिष्यन्ति यावत् स्थास्यति मेदिनी ॥ २३ ॥

मूलम्

सुखं स्वपिहि गान्धारे श्वोऽपि कर्ता महारणम्।
यं जनाः कथयिष्यन्ति यावत् स्थास्यति मेदिनी ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘गान्धारीनन्दन! अब तुम सुखसे जाकर सो रहो। कल मैं बड़ा भीषण युद्ध करूँगा, जिसकी चर्चा लोग तबतक करते रहेंगे, जबतक कि यह पृथ्वी बनी रहेगी’॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तस्तव सुतो निर्जगाम जनेश्वर।
अभिवाद्य गुरुं मूर्ध्ना प्रययौ स्वं निवेशनम् ॥ २४ ॥

मूलम्

एवमुक्तस्तव सुतो निर्जगाम जनेश्वर।
अभिवाद्य गुरुं मूर्ध्ना प्रययौ स्वं निवेशनम् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनेश्वर! भीष्मके ऐसा कहनेपर आपका पुत्र दुर्योधन अपने उन गुरुजनके चरणोंमें मस्तक रखकर प्रणाम करनेके पश्चात् अपने शिविरको चला गया॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आगम्य तु ततो राजा विसृज्य च महाजनम्।
प्रविवेश ततस्तूर्णं क्षयं शत्रुक्षयङ्करः ॥ २५ ॥

मूलम्

आगम्य तु ततो राजा विसृज्य च महाजनम्।
प्रविवेश ततस्तूर्णं क्षयं शत्रुक्षयङ्करः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ आकर शत्रुओंका विनाश करनेवाले राजा दुर्योधनने लोगोंके उस महान् समुदायको तुरंत विदा कर दिया और स्वयं शिविरके भीतर प्रवेश किया॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रविष्टः स निशां तां च गमयामास पार्थिवः।
प्रभातायां च शर्वर्यां प्रातरुत्थाय तान् नृपः ॥ २६ ॥
राज्ञः समाज्ञापयत सेनां योजयतेति ह।
अद्य भीष्मो रणे क्रुद्धो निहनिष्यति सोमकान् ॥ २७ ॥

मूलम्

प्रविष्टः स निशां तां च गमयामास पार्थिवः।
प्रभातायां च शर्वर्यां प्रातरुत्थाय तान् नृपः ॥ २६ ॥
राज्ञः समाज्ञापयत सेनां योजयतेति ह।
अद्य भीष्मो रणे क्रुद्धो निहनिष्यति सोमकान् ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भूपाल! वहाँ जाकर राजाने सुखसे रात बितायी और सबेरा होनेपर उसने प्रातःकाल उठकर राजाओंको यह आज्ञा दी—‘राजसिंहो! तुम सब लोग सेनाको युद्धके लिये तैयार करो, आज पितामह भीष्म रणभूमिमें कुपित होकर सोमकोंका संहार करेंगे’॥२६-२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुर्योधनस्य तच्छ्रुत्वा रात्रौ विलपितं बहु।
मन्यमानः स तं राजन् प्रत्यादेशमिवात्मनः ॥ २८ ॥

मूलम्

दुर्योधनस्य तच्छ्रुत्वा रात्रौ विलपितं बहु।
मन्यमानः स तं राजन् प्रत्यादेशमिवात्मनः ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! रातमें दुर्योधनके अनेक प्रकारके विलापको सुनकर भीष्मने यह समझ लिया कि अब दुर्योधन मुझे युद्धसे हटाना चाहता है॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निर्वेदं परमं गत्वा विनिन्द्य परवश्यताम्।
दीर्घं दध्यौ शान्तनवो योद्‌धुकामोऽर्जुनं रणे ॥ २९ ॥

मूलम्

निर्वेदं परमं गत्वा विनिन्द्य परवश्यताम्।
दीर्घं दध्यौ शान्तनवो योद्‌धुकामोऽर्जुनं रणे ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इससे उनके मनमें बड़ा खेद हुआ। भीष्मने पराधीनताकी भूरि-भूरि निन्दा करके रणभूमिमें अर्जुनके साथ युद्ध करनेका संकल्प लेकर दीर्घकालतक विचार किया॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इङ्गितेन तु तञ्ज्ञात्वा गाङ्गेयेन विचिन्तितम्।
दुर्योधनो महाराज दुःशासनमचोदयत् ॥ ३० ॥

मूलम्

इङ्गितेन तु तञ्ज्ञात्वा गाङ्गेयेन विचिन्तितम्।
दुर्योधनो महाराज दुःशासनमचोदयत् ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! गंगानन्दन भीष्मने क्या सोचा है? इस बातको संकेतसे समझकर दुर्योधनने दुःशासनसे कहा—॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुःशासन रथास्तूर्णं युज्यन्तां भीष्मरक्षिणः।
द्वाविंशतिमनीकानि सर्वाण्येवाभिचोदय ॥ ३१ ॥

मूलम्

दुःशासन रथास्तूर्णं युज्यन्तां भीष्मरक्षिणः।
द्वाविंशतिमनीकानि सर्वाण्येवाभिचोदय ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘दुःशासन! तुम शीघ्र ही भीष्मकी रक्षा करनेवाले रथोंको जोतकर तैयार कराओ। अपने पास कुल बाईस सेनाएँ हैं। उन सबको भीष्मकी रक्षामें ही नियुक्त कर दो॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदं हि समनुप्राप्तं वर्षपूगाभिचिन्तितम्।
पाण्डवानां ससैन्यानां वधो राज्यस्य चागमः ॥ ३२ ॥

मूलम्

इदं हि समनुप्राप्तं वर्षपूगाभिचिन्तितम्।
पाण्डवानां ससैन्यानां वधो राज्यस्य चागमः ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आज वह अवसर प्राप्त हुआ है, जिसके लिये हम बहुत वर्षोंसे विचार करते आ रहे हैं। आज सेनासहित समस्त पाण्डवोंका वध तथा राज्यका लाभ होगा॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र कार्यतमं मन्ये भीष्मस्यैवाभिरक्षणम्।
स नो गुप्तः सहायः स्याद्धन्यात् पार्थांश्च संयुगे ॥ ३३ ॥

मूलम्

तत्र कार्यतमं मन्ये भीष्मस्यैवाभिरक्षणम्।
स नो गुप्तः सहायः स्याद्धन्यात् पार्थांश्च संयुगे ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इस विषयमें मैं भीष्मकी रक्षाको ही अपना प्रधान कर्तव्य समझता हूँ। वे सुरक्षित रहनेपर हमारे सहायक होंगे और संग्रामभूमिमें कुन्तीकुमारोंका वध कर सकेंगे॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अब्रवीद्धि विशुद्धात्मा नाहं हन्यां शिखण्डिनम्।
स्त्रीपूर्वको ह्यसौ राजंस्तस्माद् वर्ज्यो मया रणे ॥ ३४ ॥

मूलम्

अब्रवीद्धि विशुद्धात्मा नाहं हन्यां शिखण्डिनम्।
स्त्रीपूर्वको ह्यसौ राजंस्तस्माद् वर्ज्यो मया रणे ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘विशुद्ध अन्तःकरणवाले महात्मा भीष्मने मुझसे कहा है कि ‘राजन्! मैं शिखण्डीको नहीं मार सकता; क्योंकि वह पहले स्त्रीरूपमें उत्पन्न हुआ था और इसीलिये युद्धमें मुझे उसका परित्याग कर देना है॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोकस्तद् वेद यदहं पितुः प्रियचिकीर्षया।
राज्यं स्फीतं महाबाहो स्त्रियश्च त्यक्तवान् पुरा ॥ ३५ ॥

मूलम्

लोकस्तद् वेद यदहं पितुः प्रियचिकीर्षया।
राज्यं स्फीतं महाबाहो स्त्रियश्च त्यक्तवान् पुरा ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाबाहो! सारा संसार यह जानता है कि मैंने पूर्वकालमें पिताका प्रिय करनेकी इच्छासे समृद्धिशाली राज्य तथा स्त्रियोंका परित्याग कर दिया था॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैवं चाहं स्त्रियं जातु न स्त्रीपूर्वं कथंचन।
हन्यां युधि नरश्रेष्ठ सत्यमेतद् ब्रवीमि ते ॥ ३६ ॥

मूलम्

नैवं चाहं स्त्रियं जातु न स्त्रीपूर्वं कथंचन।
हन्यां युधि नरश्रेष्ठ सत्यमेतद् ब्रवीमि ते ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नरश्रेष्ठ! मैं कभी किसी स्त्रीको अथवा जो पहले स्त्री रहा हो, उस पुरुषको भी किसी प्रकार युद्धमें मार नहीं सकता; यह मैं तुमसे सत्य कहता हूँ॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयं स्त्रीपूर्वको राजञ्छिखण्डी यदि ते श्रुतः।
उद्योगे कथितं यत्तत् तथा जाता शिखण्डिनी ॥ ३७ ॥
कन्या भूत्वा पुमाञ्जातः स च मां योधयिष्यति।
तस्याहं प्रमुखे बाणान् न मुञ्चेयं कथंचन ॥ ३८ ॥

मूलम्

अयं स्त्रीपूर्वको राजञ्छिखण्डी यदि ते श्रुतः।
उद्योगे कथितं यत्तत् तथा जाता शिखण्डिनी ॥ ३७ ॥
कन्या भूत्वा पुमाञ्जातः स च मां योधयिष्यति।
तस्याहं प्रमुखे बाणान् न मुञ्चेयं कथंचन ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! तुमने भी सुना होगा, यह शिखण्डी पहले स्त्रीरूपमें पैदा हुआ था। यह बात मैंने तुमसे युद्धकी तैयारीके समय बता दी थी। इस प्रकार कन्यारूपमें उत्पन्न हुई शिखण्डिनी पहले स्त्री होकर अब पुरुष हो गयी है। वह पुरुष बना हुआ शिखण्डी यदि मुझसे युद्ध करेगा तो मैं उसके ऊपर किसी प्रकार भी बाण नहीं चलाऊँगा॥३७-३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

युद्धे हि क्षत्रियांस्तात पाण्डवानां जयैषिणः।
सर्वानन्यान् हनिष्यामि सम्प्राप्तान् रणमूर्धनि ॥ ३९ ॥

मूलम्

युद्धे हि क्षत्रियांस्तात पाण्डवानां जयैषिणः।
सर्वानन्यान् हनिष्यामि सम्प्राप्तान् रणमूर्धनि ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तात! पाण्डवपक्षके दूसरे जो-जो विजयाभिलाषी क्षत्रिय युद्धके मुहानेपर मेरे सामने आयेंगे, उन सबका मैं वध करूँगा’॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं मां भरतश्रेष्ठ गाङ्गेयः प्राह शास्त्रवित्।
तत्र सर्वात्मना मन्ये गाङ्गेयस्यैव पालनम् ॥ ४० ॥

मूलम्

एवं मां भरतश्रेष्ठ गाङ्गेयः प्राह शास्त्रवित्।
तत्र सर्वात्मना मन्ये गाङ्गेयस्यैव पालनम् ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भरतश्रेष्ठ दुःशासन! शास्त्रोंके ज्ञाता गंगानन्दन भीष्मने इस प्रकार मुझसे कहा है। अतः युद्धभूमिमें सब प्रकारसे भीष्मकी रक्षाको ही मैं अपना मुख्य कर्तव्य मानता हूँ॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अरक्ष्यमाणं हि वृको हन्यात् सिंहं महाहवे।
मा वृकेणेव गाङ्गेयं घातयेम शिखण्डिना ॥ ४१ ॥

मूलम्

अरक्ष्यमाणं हि वृको हन्यात् सिंहं महाहवे।
मा वृकेणेव गाङ्गेयं घातयेम शिखण्डिना ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यदि महायुद्धमें सिंहकी रक्षा नहीं की जाय तो उसे एक भेड़िया मार सकता है, परंतु हम भेड़ियेके सदृश शिखण्डीके हाथसे सिंहके समान भीष्मका वध नहीं होने देंगे॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मातुलः शकुनिः शल्यः कृपो द्रोणो विविंशतिः।
यत्ता रक्षन्तु गाङ्गेयं तस्मिन् गुप्ते ध्रुवो जयः ॥ ४२ ॥

मूलम्

मातुलः शकुनिः शल्यः कृपो द्रोणो विविंशतिः।
यत्ता रक्षन्तु गाङ्गेयं तस्मिन् गुप्ते ध्रुवो जयः ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘(अतः उनकी रक्षाके लिये सारी आवश्यक व्यवस्था करो।) मामा शकुनि, शल्य, कृपाचार्य, द्रोणाचार्य और विविंशति—ये सब लोग सावधान होकर गंगानन्दन भीष्मकी रक्षा करें। उनके सुरक्षित रहनेपर हमारी विजय निश्चित है’॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतच्छ्रुत्वा तु ते सर्वे दुर्योधनवचस्तदा।
सर्वतो रथवंशेन गाङ्गेयं पर्यवारयन् ॥ ४३ ॥

मूलम्

एतच्छ्रुत्वा तु ते सर्वे दुर्योधनवचस्तदा।
सर्वतो रथवंशेन गाङ्गेयं पर्यवारयन् ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय दुर्योधनकी यह बात सुनकर उन सब वीरोंने रथकी विशाल सेनाद्वारा गंगानन्दन भीष्मको सब ओरसे घेर लिया॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुत्राश्च तव गाङ्गेयं परिवार्य ययुर्मुदा।
कम्पयन्तो भुवं द्यां च क्षोभयन्तश्च पाण्डवान् ॥ ४४ ॥

मूलम्

पुत्राश्च तव गाङ्गेयं परिवार्य ययुर्मुदा।
कम्पयन्तो भुवं द्यां च क्षोभयन्तश्च पाण्डवान् ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपके सब पुत्र भी भीष्मको चारों ओरसे घेरकर प्रसन्नतापूर्वक चले। वे उस समय भूलोक और स्वर्ग-लोकको भी कँपाते हुए पाण्डवोंके मनमें क्षोभ उत्पन्न कर रहे थे॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते रथैः सुसम्प्रयुक्तैर्दन्तिभिश्च महारथाः।
परिवार्य रणे भीष्मं दंशिताः समवस्थिताः ॥ ४५ ॥

मूलम्

ते रथैः सुसम्प्रयुक्तैर्दन्तिभिश्च महारथाः।
परिवार्य रणे भीष्मं दंशिताः समवस्थिताः ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे समस्त कौरव महारथी सुशिक्षित रथों और हाथियोंसे भीष्मको घेरकर कवच आदिसे सुसज्जित हो युद्धके लिये खड़े हो गये॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा देवासुरे युद्धे त्रिदशा वज्रधारिणम्।
सर्वे ते स्म व्यतिष्ठन्त रक्षन्तस्तं महारथम् ॥ ४६ ॥

मूलम्

यथा देवासुरे युद्धे त्रिदशा वज्रधारिणम्।
सर्वे ते स्म व्यतिष्ठन्त रक्षन्तस्तं महारथम् ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस प्रकार देवासुर-संग्रामके समय देवताओंने वज्रधारी इन्द्रकी रक्षा की थी, उसी प्रकार वे सब कौरव योद्धा महारथी भीष्मकी रक्षा करने लगे॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो दुर्योधनो राजा पुनर्भ्रातरमब्रवीत्।
सव्यं चक्रं युधामन्युरुत्तमौजाश्च दक्षिणम् ॥ ४७ ॥
गोप्तारावर्जुनस्यैतावर्जुनोऽपि शिखण्डिनः ।
रक्ष्यमाणः स पार्थेन तथास्माभिर्विवर्जितः ॥ ४८ ॥
यथा भीष्मं न नो हन्याद् दुःशासन तथा कुरु।

मूलम्

ततो दुर्योधनो राजा पुनर्भ्रातरमब्रवीत्।
सव्यं चक्रं युधामन्युरुत्तमौजाश्च दक्षिणम् ॥ ४७ ॥
गोप्तारावर्जुनस्यैतावर्जुनोऽपि शिखण्डिनः ।
रक्ष्यमाणः स पार्थेन तथास्माभिर्विवर्जितः ॥ ४८ ॥
यथा भीष्मं न नो हन्याद् दुःशासन तथा कुरु।

अनुवाद (हिन्दी)

तब राजा दुर्योधनने अपने भाईसे पुनः इस प्रकार कहा—‘दुःशासन! अर्जुनके रथके बायें पहियेकी रक्षा युधामन्यु और दाहिने पहियेकी रक्षा उत्तमौजा करते हैं। इस प्रकार अर्जुनके ये दो रक्षक हैं और अर्जुन भी शिखण्डीकी रक्षा करते हैं। अर्जुनसे सुरक्षित और हमलोगोंसे उपेक्षित होकर शिखण्डी हमारे भीष्मको जिस प्रकार मार न सके, ऐसी व्यवस्था करो’॥४७-४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भ्रातुस्तद् वचनं श्रुत्वा पुत्रो दुःशासनस्तव ॥ ४९ ॥
भीष्मं प्रमुखतः कृत्वा प्रययौ सह सेनया।

मूलम्

भ्रातुस्तद् वचनं श्रुत्वा पुत्रो दुःशासनस्तव ॥ ४९ ॥
भीष्मं प्रमुखतः कृत्वा प्रययौ सह सेनया।

अनुवाद (हिन्दी)

बड़े भाईकी यह बात सुनकर आपका पुत्र दुःशासन भीष्मको आगे करके सेनाके साथ युद्धके मैदानमें गया॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीष्मं तु रथवंशेन दृष्ट्‌वा समभिसंवृतम् ॥ ५० ॥
अर्जुनो रथिनां श्रेष्ठो धृष्टद्युम्नमुवाच ह।

मूलम्

भीष्मं तु रथवंशेन दृष्ट्‌वा समभिसंवृतम् ॥ ५० ॥
अर्जुनो रथिनां श्रेष्ठो धृष्टद्युम्नमुवाच ह।

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मको रथोंके समूहसे घिरा हुआ देख रथियोंमें श्रेष्ठ अर्जुनने धृष्टद्युम्नसे कहा—॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शिखण्डिनं नरव्याघ्रं भीष्मस्य प्रमुखे नृप।
स्थापयस्वाद्य पाञ्चाल्य तस्य गोप्ताहमित्युत ॥ ५१ ॥

मूलम्

शिखण्डिनं नरव्याघ्रं भीष्मस्य प्रमुखे नृप।
स्थापयस्वाद्य पाञ्चाल्य तस्य गोप्ताहमित्युत ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नरेश्वर! पांचालराजकुमार! आज तुम पुरुषसिंह शिखण्डीको भीष्मके सामने उपस्थित करो। मैं उसकी रक्षा करूँगा’॥५१॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते भीष्मपर्वणि भीष्मवधपर्वणि भीष्मदुर्योधनसंवादे अष्टनवतितमोऽध्यायः ॥ ९८ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्वके अन्तर्गत भीष्मवधपर्वमें भीष्म-दुर्योधनसंवादविषयक अट्ठानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥९८॥

सूचना (हिन्दी)

[दाक्षिणात्य अधिक पाठका श्लोक मिलाकर कुल ५१ श्लोक हैं।]