भागसूचना
सप्तनवतितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
दुर्योधनका अपने मन्त्रियोंसे सलाह करके भीष्मसे पाण्डवोंको मारने अथवा कर्णको युद्धके लिये आज्ञा देनेका अनुरोध करना
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो दुर्योधनो राजा शकुनिश्चापि सौबलः।
दुःशासनश्च पुत्रस्ते सूतपुत्रश्च दुर्जयः ॥ १ ॥
समागम्य महाराज मन्त्रं चक्रुर्विवक्षितम्।
कथं पाण्डुसुताः संख्ये जेतव्याः सगणा इति ॥ २ ॥
मूलम्
ततो दुर्योधनो राजा शकुनिश्चापि सौबलः।
दुःशासनश्च पुत्रस्ते सूतपुत्रश्च दुर्जयः ॥ १ ॥
समागम्य महाराज मन्त्रं चक्रुर्विवक्षितम्।
कथं पाण्डुसुताः संख्ये जेतव्याः सगणा इति ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— महाराज! तदनन्तर राजा दुर्योधन, सुबलपुत्र शकुनि, आपका पुत्र दुःशासन, दुर्जयवीर सूतपुत्र कर्ण—ये सभी मिलकर अभीष्ट कार्यके विषयमें गुप्त परामर्श करने लगे। उनकी मन्त्रणाका मुख्य विषय यह था कि पाण्डवोंको दल-बलसहित युद्धमें कैसे जीता जा सकता है?॥१-२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो दुर्योधनो राजा सर्वांस्तानाह मन्त्रिणः।
सूतपुत्रं समाभाष्य सौबलं च महाबलम् ॥ ३ ॥
मूलम्
ततो दुर्योधनो राजा सर्वांस्तानाह मन्त्रिणः।
सूतपुत्रं समाभाष्य सौबलं च महाबलम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय राजा दुर्योधनने सूतपुत्र कर्ण तथा महाबली शकुनिको सम्बोधित करके उन सब मन्त्रियोंसे कहा—॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रोणो भीष्मः कृपः शल्यः सौमदत्तिश्च संयुगे।
न पार्थान् प्रतिबाधन्ते न जाने तच्च कारणम् ॥ ४ ॥
मूलम्
द्रोणो भीष्मः कृपः शल्यः सौमदत्तिश्च संयुगे।
न पार्थान् प्रतिबाधन्ते न जाने तच्च कारणम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मित्रो! द्रोणाचार्य, भीष्म, कृपाचार्य, शल्य तथा भूरिश्रवा—ये लोग युद्धमें कुन्तीके पुत्रोंको कभी कोई बाधा नहीं पहुँचाते हैं। इसका क्या कारण है, यह मैं नहीं जानता॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवध्यमानास्ते चापि क्षपयन्ति बलं मम।
सोऽस्मि क्षीणबलः कर्ण क्षीणशस्त्रश्च संयुगे ॥ ५ ॥
मूलम्
अवध्यमानास्ते चापि क्षपयन्ति बलं मम।
सोऽस्मि क्षीणबलः कर्ण क्षीणशस्त्रश्च संयुगे ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वे पाण्डव स्वयं अवध्य रहकर मेरी सेनाका संहार कर रहे हैं। कर्ण! इस प्रकार मेरी सेना तथा अस्त्र-शस्त्रोंका युद्धमें क्षय होता चला जा रहा है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(त्वयि युद्धविमुखे चापि जितश्चास्मि हि पाण्डवैः।
द्रोणस्य प्रमुखे वीरा हतास्ते भ्रातरो मम॥
भीमसेनेन राधेय मम चैवानुपश्यतः।)
मूलम्
(त्वयि युद्धविमुखे चापि जितश्चास्मि हि पाण्डवैः।
द्रोणस्य प्रमुखे वीरा हतास्ते भ्रातरो मम॥
भीमसेनेन राधेय मम चैवानुपश्यतः।)
अनुवाद (हिन्दी)
‘राधानन्दन! तुम युद्धसे मुँह मोड़कर बैठ रहे हो, इसलिये पाण्डवोंने मुझे परास्त कर दिया। द्रोणाचार्यके सामने ही मेरे देखते-देखते भीमसेनने मेरे वीर भाइयोंको मार डाला।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निकृतः पाण्डवैः शूरैरवध्यैर्दैवतैरपि ।
सोऽहं संशयमापन्नः प्रहरिष्ये कथं रणे ॥ ६ ॥
मूलम्
निकृतः पाण्डवैः शूरैरवध्यैर्दैवतैरपि ।
सोऽहं संशयमापन्नः प्रहरिष्ये कथं रणे ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पाण्डव शूरवीर और देवताओंके लिये भी अवध्य हैं। उनके द्वारा पराजित होकर मैं जीवनके संशयमें पड़ गया हूँ। ऐसी दशामें रणक्षेत्रमें मैं कैसे युद्ध करूँगा?’॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(एवमुक्तस्तु राधेयो दुर्योधनमरिंदमम् ।)
तमब्रवीन्महाराजं सूतपुत्रो नराधिपम् ।
मूलम्
(एवमुक्तस्तु राधेयो दुर्योधनमरिंदमम् ।)
तमब्रवीन्महाराजं सूतपुत्रो नराधिपम् ।
अनुवाद (हिन्दी)
यह सुनकर सूत्रपुत्र कर्णने शत्रुदमन नरनाथ महाराज दुर्योधनसे इस प्रकार कहा॥६॥
मूलम् (वचनम्)
कर्ण उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
मा शोच भरतश्रेष्ठ करिष्येऽहं प्रियं तव ॥ ७ ॥
भीष्मः शान्तनवस्तूर्णमपयातु महारणात् ।
मूलम्
मा शोच भरतश्रेष्ठ करिष्येऽहं प्रियं तव ॥ ७ ॥
भीष्मः शान्तनवस्तूर्णमपयातु महारणात् ।
अनुवाद (हिन्दी)
कर्ण बोला— भरतश्रेष्ठ! शोक न करो। मैं तुम्हारा प्रिय कार्य करूँगा, परंतु शान्तनुनन्दन भीष्म शीघ्र ही महायुद्धसे हट जायँ॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निवृत्ते युधि गाङ्गेये न्यस्तशस्त्रे च भारत ॥ ८ ॥
अहं पार्थान् हनिष्यामि सहितान् सर्वसोमकैः।
पश्यतो युधि भीष्मस्य शपे सत्येन ते नृप ॥ ९ ॥
मूलम्
निवृत्ते युधि गाङ्गेये न्यस्तशस्त्रे च भारत ॥ ८ ॥
अहं पार्थान् हनिष्यामि सहितान् सर्वसोमकैः।
पश्यतो युधि भीष्मस्य शपे सत्येन ते नृप ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतवंशी नरेश! जब युद्धमें गंगानन्दन भीष्म हथियार डाल देंगे और उससे सर्वथा निवृत्त हो जायँगे, उस समय मैं युद्धमें भीष्मके देखते-देखते सोमकोंसहित समस्त कुन्तीपुत्रोंको एक साथ मार डालूँगा, यह मैं तुमसे सत्यकी शपथ खाकर कहता हूँ॥८-९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाण्डवेषु दयां नित्यं स हि भीष्मः करोति वै।
अशक्तश्च रणे भीष्मो जेतुमेतान् महारथान् ॥ १० ॥
मूलम्
पाण्डवेषु दयां नित्यं स हि भीष्मः करोति वै।
अशक्तश्च रणे भीष्मो जेतुमेतान् महारथान् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्म सदा ही पाण्डवोंपर दया करते हैं; अतः युद्धमें वे इन महारथियोंको जीतनेमें सर्वथा असमर्थ हैं॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभिमानी रणे भीष्मो नित्यं चापि रणप्रियः।
स कथं पाण्डवान् युद्धे जेष्यते तात संगतान् ॥ ११ ॥
मूलम्
अभिमानी रणे भीष्मो नित्यं चापि रणप्रियः।
स कथं पाण्डवान् युद्धे जेष्यते तात संगतान् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात! भीष्म युद्धमें अभिमान रखनेवाले तथा सदा युद्धको प्रिय माननेवाले हैं; तथापि पाण्डवोंपर दया रखनेके कारण वे उन सबको संग्राममें कैसे जीत सकेंगे?॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स त्वं शीघ्रमितो गत्वा भीष्मस्य शिबिरं प्रति।
अनुमान्य गुरुं वृद्धं शस्त्रं न्यासय भारत ॥ १२ ॥
मूलम्
स त्वं शीघ्रमितो गत्वा भीष्मस्य शिबिरं प्रति।
अनुमान्य गुरुं वृद्धं शस्त्रं न्यासय भारत ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! अतः तुम शीघ्र ही यहाँसे भीष्मजीके शिविरमें जाकर अपने उन पूजनीय वृद्ध पितामहको राजी करके उनसे हथियार रखवा दो॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न्यस्तशस्त्रे ततो भीष्मे निहतान् पश्य पाण्डवान्।
मयैकेन रणे राजन् ससुहृद्गणबान्धवान् ॥ १३ ॥
मूलम्
न्यस्तशस्त्रे ततो भीष्मे निहतान् पश्य पाण्डवान्।
मयैकेन रणे राजन् ससुहृद्गणबान्धवान् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! भीष्मके हथियार डाल देनेपर पाण्डवोंको केवल मेरे द्वारा युद्धमें सुहृदों और बान्धवोंसहित मारा गया समझो॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तस्तु कर्णेन पुत्रो दुर्योधनस्तव।
अब्रवीद् भ्रातरं तत्र दुःशासनमिदं वचः ॥ १४ ॥
अनुयात्रं यथा सर्वं सज्जीभवति सर्वशः।
दुःशासन तथा क्षिप्रं सर्वमेवोपपादय ॥ १५ ॥
मूलम्
एवमुक्तस्तु कर्णेन पुत्रो दुर्योधनस्तव।
अब्रवीद् भ्रातरं तत्र दुःशासनमिदं वचः ॥ १४ ॥
अनुयात्रं यथा सर्वं सज्जीभवति सर्वशः।
दुःशासन तथा क्षिप्रं सर्वमेवोपपादय ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कर्णके ऐसा कहनेपर आपके पुत्र दुर्योधनने वहीं अपने भाई दुःशासनसे इस प्रकार कहा—‘दुःशासन! तुम शीघ्र सब प्रकारसे ऐसी व्यवस्था करो, जिससे यात्रासम्बन्धी सब आवश्यक तैयारी सम्पन्न हो जाय’॥१४-१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्त्वा ततो राजन् कर्णमाह जनेश्वरः।
अनुमान्य रणे भीष्ममेषोऽहं द्विपदां वरम् ॥ १६ ॥
आगमिष्ये ततः क्षिप्रं त्वत्सकाशमरिंदम।
अपक्रान्ते ततो भीष्मे प्रहरिष्यसि संयुगे ॥ १७ ॥
मूलम्
एवमुक्त्वा ततो राजन् कर्णमाह जनेश्वरः।
अनुमान्य रणे भीष्ममेषोऽहं द्विपदां वरम् ॥ १६ ॥
आगमिष्ये ततः क्षिप्रं त्वत्सकाशमरिंदम।
अपक्रान्ते ततो भीष्मे प्रहरिष्यसि संयुगे ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! दुःशासनसे ऐसा कहकर जनेश्वर दुर्योधनने कर्णसे कहा—‘शत्रुदमन! मैं मनुष्योंमें श्रेष्ठ भीष्मको युद्धसे हटनेके लिये राजी करके अभी तुम्हारे पास लौट आता हूँ। फिर भीष्मके हट जानेपर तुम युद्धके मैदानमें शत्रुओंपर प्रहार करना’॥१६-१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निष्पपात ततस्तूर्णं पुत्रस्तव विशाम्पते।
सहितो भ्रातृभिस्तैस्तु देवैरिव शतक्रतुः ॥ १८ ॥
मूलम्
निष्पपात ततस्तूर्णं पुत्रस्तव विशाम्पते।
सहितो भ्रातृभिस्तैस्तु देवैरिव शतक्रतुः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजानाथ! तदनन्तर आपका पुत्र दुर्योधन तुरंत ही अपने भाइयोंके साथ शिविरसे बाहर निकला, मानो देवताओंके साथ इन्द्र अपने भवनसे बाहर आये हों॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तं नृपशार्दूलं शार्दूलसमविक्रमम् ।
आरोहयद्धयं तूर्णं भ्राता दुःशासनस्तदा ॥ १९ ॥
मूलम्
ततस्तं नृपशार्दूलं शार्दूलसमविक्रमम् ।
आरोहयद्धयं तूर्णं भ्राता दुःशासनस्तदा ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय भाई दुःशासनने अपने ज्येष्ठ भ्राता सिंहके समान पराक्रमी नृपश्रेष्ठ दुर्योधनको घोड़ेपर चढ़ाया॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अंगदी बद्धमुकुटो हस्ताभरणवान् नृप।
धार्तराष्ट्रो महाराज विबभौ स पथि व्रजन् ॥ २० ॥
मूलम्
अंगदी बद्धमुकुटो हस्ताभरणवान् नृप।
धार्तराष्ट्रो महाराज विबभौ स पथि व्रजन् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! महाराज! माथेपर मुकुट, भुजाओंमें अंगद तथा हाथोंमें वलय आदि आभूषण धारण किये मार्गपर जाता हुआ आपका पुत्र दुर्योधन बड़ी शोभा पा रहा था॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भण्डीपुष्पनिकाशेन तपनीयनिभेन च ।
अनुलिप्तः परार्घ्येन चन्दनेन सुगन्धिना ॥ २१ ॥
मूलम्
भण्डीपुष्पनिकाशेन तपनीयनिभेन च ।
अनुलिप्तः परार्घ्येन चन्दनेन सुगन्धिना ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसने शिरीषपुष्प एवं सुवर्णके समान पीतवर्णका बहुमूल्य सुगन्धित चन्दन लगा रखा था॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अरजोऽम्बरसंवीतः सिंहखेलगतिर्नृप ।
शुशुभे विमलार्चिष्मान् नभसीव दिवाकरः ॥ २२ ॥
मूलम्
अरजोऽम्बरसंवीतः सिंहखेलगतिर्नृप ।
शुशुभे विमलार्चिष्मान् नभसीव दिवाकरः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! उसके सारे अंग निर्मल वस्त्रसे ढके हुए थे। वह सिंहके समान मस्तानी चालसे चलता था और अपनी निर्मल प्रभाके कारण आकाशमें प्रकाशित होनेवाले सूर्यके समान शोभा पा रहा था॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं प्रयान्तं नरव्याघ्रं भीष्मस्य शिबिरं प्रति।
अनुजग्मुर्महेष्वासाः सर्वलोकस्य धन्विनः ॥ २३ ॥
भ्रातरश्च महेष्वासास्त्रिदशा इव वासवम्।
मूलम्
तं प्रयान्तं नरव्याघ्रं भीष्मस्य शिबिरं प्रति।
अनुजग्मुर्महेष्वासाः सर्वलोकस्य धन्विनः ॥ २३ ॥
भ्रातरश्च महेष्वासास्त्रिदशा इव वासवम्।
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मके शिविरकी ओर जाते हुए पुरुषश्रेष्ठ दुर्योधनके पीछे सारे जगत्के महाधनुर्धर कौरवपक्षीय नरेश तथा विशाल धनुष धारण करनेवाले उसके भाई उसी प्रकार जा रहे थे, जैसे इन्द्रके पीछे देवता चलते हैं॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हयानन्ये समारुह्य गजानन्ये च भारत ॥ २४ ॥
रथानन्ये नरश्रेष्ठं परिवव्रुः समन्ततः।
मूलम्
हयानन्ये समारुह्य गजानन्ये च भारत ॥ २४ ॥
रथानन्ये नरश्रेष्ठं परिवव्रुः समन्ततः।
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! कुछ लोग घोड़ोंपर और कुछ लोग हाथियोंपर चढ़े थे। दूसरे लोग रथोंपर आरूढ़ हो सब ओरसे नरश्रेष्ठ दुर्योधनको घेरे हुए थे॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्तशस्त्राश्च सुहृदो रक्षणार्थं महीपतेः ॥ २५ ॥
प्रादुर्बभूवुः सहिताः शक्रस्येवामरा दिवि।
मूलम्
आत्तशस्त्राश्च सुहृदो रक्षणार्थं महीपतेः ॥ २५ ॥
प्रादुर्बभूवुः सहिताः शक्रस्येवामरा दिवि।
अनुवाद (हिन्दी)
राजा दुर्योधनकी रक्षाके लिये समस्त सुहृद् अस्त्र-शस्त्र लेकर उसी प्रकार उसके साथ हो गये थे, जैसे स्वर्गमें देवता इन्द्रकी रक्षाके लिये उनके साथ रहते हैं॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स पूज्यमानः कुरुभिः कौरवाणां महाबलः ॥ २६ ॥
प्रययौ सदनं राजा गाङ्गेयस्य यशस्विनः।
अन्वीयमानः सततं सोदरैः परिवारितः ॥ २७ ॥
मूलम्
स पूज्यमानः कुरुभिः कौरवाणां महाबलः ॥ २६ ॥
प्रययौ सदनं राजा गाङ्गेयस्य यशस्विनः।
अन्वीयमानः सततं सोदरैः परिवारितः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार कौरवोंसे पूजित हो महाबली कौरवराज दुर्योधन यशस्वी भीष्मके शिविरमें गया। उसके भाई उसे घेरकर निरन्तर उसीके साथ-साथ रहे॥२६-२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दक्षिणं दक्षिणः काले सम्भृत्य स्वभुजं तदा।
हस्तिहस्तोपमं शैक्षं सर्वशत्रुनिबर्हणम् ॥ २८ ॥
प्रगृह्णन्नञ्जलीन् नॄणामुद्यतान् सर्वतो दिशः।
शुश्राव मधुरा वाचो नानादेशनिवासिनाम् ॥ २९ ॥
मूलम्
दक्षिणं दक्षिणः काले सम्भृत्य स्वभुजं तदा।
हस्तिहस्तोपमं शैक्षं सर्वशत्रुनिबर्हणम् ॥ २८ ॥
प्रगृह्णन्नञ्जलीन् नॄणामुद्यतान् सर्वतो दिशः।
शुश्राव मधुरा वाचो नानादेशनिवासिनाम् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उदार स्वभाववाले राजा दुर्योधनने उस समय सम्पूर्ण शत्रुओंका संहार करनेमें समर्थ, हाथीकी सूँड़के समान विशाल तथा अस्त्र-प्रहारकी शिक्षामें निपुणताको प्राप्त हुई अपनी दाहिनी भुजाको ऊपर उठाकर सम्पूर्ण दिशाओंमें उठी हुई विभिन्न देशके निवासी मनुष्योंकी प्रणामांजलियोंको स्वीकार करते हुए उनकी मधुर बातें सुनीं॥२८-२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संस्तूयमानः सूतैश्च मागधैश्च महायशाः।
पूजयानश्च तान् सर्वान् सर्वलोकेश्वरेश्वरः ॥ ३० ॥
(एवं स प्रययौ राजा सर्वसैन्यसमावृतः।)
मूलम्
संस्तूयमानः सूतैश्च मागधैश्च महायशाः।
पूजयानश्च तान् सर्वान् सर्वलोकेश्वरेश्वरः ॥ ३० ॥
(एवं स प्रययौ राजा सर्वसैन्यसमावृतः।)
अनुवाद (हिन्दी)
सम्पूर्ण जगत्का अधीश्वर महायशस्वी राजा दुर्योधन सम्पूर्ण सेनाओंसे घिरकर सूतों और मागधोंके मुखसे अपनी स्तुति सुनता और सब लोगोंका समादर करता हुआ (भीष्मके शिविरकी ओर) आगे बढ़ता गया॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रदीपैः काञ्चनैस्तत्र गन्धतैलावसेचितैः ।
परिवव्रुर्महाराजं प्रज्वलद्भिः समन्ततः ॥ ३१ ॥
मूलम्
प्रदीपैः काञ्चनैस्तत्र गन्धतैलावसेचितैः ।
परिवव्रुर्महाराजं प्रज्वलद्भिः समन्ततः ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुगन्धित तेलसे भरे हुए सोनेके जलते दीपक लिये बहुत-से सेवक महाराज दुर्योधनको सब ओरसे घेरकर चल रहे थे॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तैः परिवृतो राजा प्रदीपैः काञ्चनैर्ज्वलन्।
शुशुभे चन्द्रमा युक्तो दीप्तैरिव महाग्रहैः ॥ ३२ ॥
मूलम्
स तैः परिवृतो राजा प्रदीपैः काञ्चनैर्ज्वलन्।
शुशुभे चन्द्रमा युक्तो दीप्तैरिव महाग्रहैः ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन सुवर्णमय प्रदीपोंसे घिरकर प्रकाशित होनेवाला राजा दुर्योधन दीप्तिमान् महाग्रहोंसे संयुक्त चन्द्रमाके समान शोभा पा रहा था॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
काञ्चनोष्णीषिणस्तत्र वेत्रझर्झरपाणयः ।
प्रोत्सारयन्तः शनकैस्तं जनं सर्वतो दिशम् ॥ ३३ ॥
मूलम्
काञ्चनोष्णीषिणस्तत्र वेत्रझर्झरपाणयः ।
प्रोत्सारयन्तः शनकैस्तं जनं सर्वतो दिशम् ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुनहरी पगड़ी धारण करके हाथोंमें बेंत और झर्झर लिये बहुतेरे सिपाही धीरे-धीरे सब ओरसे लोगोंकी भीड़को हटाते हुए चल रहे थे॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सम्प्राप्य तु ततो राजा भीष्मस्य सदनं शुभम्।
अवतीर्य हयाच्चापि भीष्मं प्राप्य जनेश्वरः ॥ ३४ ॥
अभिवाद्य ततो भीष्मं निषण्णः परमासने।
काञ्चने सर्वतोभद्रे स्पर्द्ध्यास्तरणसंवृते ॥ ३५ ॥
मूलम्
सम्प्राप्य तु ततो राजा भीष्मस्य सदनं शुभम्।
अवतीर्य हयाच्चापि भीष्मं प्राप्य जनेश्वरः ॥ ३४ ॥
अभिवाद्य ततो भीष्मं निषण्णः परमासने।
काञ्चने सर्वतोभद्रे स्पर्द्ध्यास्तरणसंवृते ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् राजा दुर्योधन भीष्मके सुन्दर निवास-स्थानके निकट पहुँचकर घोड़ेसे उतर पड़ा और भीष्मजीके पास जाकर उन्हें प्रणाम करके बहुमूल्य बिछौनोंसे युक्त सर्वतोभद्र नामक सर्वोत्तम स्वर्णमय सिंहासनपर बैठ गया॥३४-३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उवाच प्राञ्जलिर्भीष्मं बाष्पकण्ठोऽश्रुलोचनः ।
त्वां वयं हि समाश्रित्य संयुगे शत्रुसूदन ॥ ३६ ॥
उत्सहेम रणे जेतुं सेन्द्रानपि सुरासुरान्।
किमु पाण्डुसुतान् वीरान् ससुहृद्गणबान्धवान् ॥ ३७ ॥
तस्मादर्हसि गाङ्गेय कृपां कर्तुं मयि प्रभो।
जहि पाण्डुसुतान् वीरान् महेन्द्र इव दानवान् ॥ ३८ ॥
मूलम्
उवाच प्राञ्जलिर्भीष्मं बाष्पकण्ठोऽश्रुलोचनः ।
त्वां वयं हि समाश्रित्य संयुगे शत्रुसूदन ॥ ३६ ॥
उत्सहेम रणे जेतुं सेन्द्रानपि सुरासुरान्।
किमु पाण्डुसुतान् वीरान् ससुहृद्गणबान्धवान् ॥ ३७ ॥
तस्मादर्हसि गाङ्गेय कृपां कर्तुं मयि प्रभो।
जहि पाण्डुसुतान् वीरान् महेन्द्र इव दानवान् ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद नेत्रोंमें आँसू भरकर हाथ जोड़े हुए गद्गद कण्ठसे वह भीष्मसे इस प्रकार बोला—‘शत्रुसूदन! हमलोग आपका आश्रय लेकर युद्धके मैदानमें इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवताओं तथा असुरोंको भी जीतनेका उत्साह रखते हैं; फिर मित्रों और बान्धवोंसहित वीर पाण्डवोंको जीतना कौन बड़ी बात है। अतः प्रभो! गंगानन्दन! आपको मुझपर कृपा करनी चाहिये। जैसे देवराज इन्द्र दानवोंका संहार करते हैं, उसी प्रकार आप वीर पाण्डवोंको मार डालिये॥३६—३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं सर्वान् महाराज निहनिष्यामि सोमकान्।
पञ्चालान् केकयैः सार्धं करूषांश्चेति भारत ॥ ३९ ॥
त्वद्वचः सत्यमेवास्तु जहि पार्थान् समागतान्।
सोमकांश्च महेष्वासान् सत्यवाग् भव भारत ॥ ४० ॥
मूलम्
अहं सर्वान् महाराज निहनिष्यामि सोमकान्।
पञ्चालान् केकयैः सार्धं करूषांश्चेति भारत ॥ ३९ ॥
त्वद्वचः सत्यमेवास्तु जहि पार्थान् समागतान्।
सोमकांश्च महेष्वासान् सत्यवाग् भव भारत ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाराज! भरतनन्दन! मैं केकयोंसहित सम्पूर्ण सोमकों, पांचालों और करूषोंको मार डालूँगा—आपकी यह बात सत्य हो। भारत! आप युद्धमें सामने आये हुए कुन्तीपुत्रों और महाधनुर्धर सोमकोंका वध कीजिये और ऐसा करके अपने वचनको सत्य कीजिये॥३९-४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दयया यदि वा राजन् द्वेष्यभावान्मम प्रभो।
मन्दभाग्यतया वापि मम रक्षसि पाण्डवान् ॥ ४१ ॥
अनुजानीहि समरे कर्णमाहवशोभिनम् ।
स जेष्यति रणे पार्थान् ससुहृद्गणबान्धवान् ॥ ४२ ॥
मूलम्
दयया यदि वा राजन् द्वेष्यभावान्मम प्रभो।
मन्दभाग्यतया वापि मम रक्षसि पाण्डवान् ॥ ४१ ॥
अनुजानीहि समरे कर्णमाहवशोभिनम् ।
स जेष्यति रणे पार्थान् ससुहृद्गणबान्धवान् ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘शक्तिशाली राजन्! यदि पाण्डवोंके प्रति दयाभाव अथवा मेरे दुर्भाग्यवश मेरे प्रति द्वेषभाव रखनेके कारण आप पाण्डवोंकी रक्षा करते हैं तो समरभूमिमें शोभा पानेवाले कर्णको युद्धके लिये आज्ञा दे दीजिये। वह सुहृदों और बान्धवोंसहित कुन्तीपुत्रोंको अवश्य जीत लेगा’॥४१-४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स एवमुक्त्वा नृपतिः पुत्रो दुर्योधनस्तव।
नोवाच वचनं किञ्चिद् भीष्मं सत्यपराक्रमम् ॥ ४३ ॥
मूलम्
स एवमुक्त्वा नृपतिः पुत्रो दुर्योधनस्तव।
नोवाच वचनं किञ्चिद् भीष्मं सत्यपराक्रमम् ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सत्यपराक्रमी भीष्मसे ऐसा कहकर आपका पुत्र राजा दुर्योधन और कुछ नहीं बोला॥४३॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते भीष्मपर्वणि भीष्मवधपर्वणि भीष्मं प्रति दुर्योधनवाक्ये सप्तनवतितमोऽध्यायः॥९७॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्वके अन्तर्गत भीष्मवधपर्वमें भीष्मके प्रति दुर्योधनका वचनविषयक सत्तानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥९७॥
सूचना (हिन्दी)
[दाक्षिणात्य अधिक पाठके २ श्लोक मिलाकर कुल ४५ श्लोक हैं।]