०९२ हैडिम्बयुद्‌धे

भागसूचना

द्विनवतितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

घटोत्कचका दुर्योधन एवं द्रोण आदि प्रमुख वीरोंके साथ भयंकर युद्ध

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तद् बाणवर्षं तु दुःसहं दानवैरपि।
दधार युधि राजेन्द्रो यथा वर्षं महाद्विपः ॥ १ ॥

मूलम्

ततस्तद् बाणवर्षं तु दुःसहं दानवैरपि।
दधार युधि राजेन्द्रो यथा वर्षं महाद्विपः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— राजन्! दानवोंके लिये भी दुःसह उस बाण-वर्षाको राजाधिराज दुर्योधनने युद्धमें उसी प्रकार धारण किया, जैसे महान् गजराज जलकी वर्षाको अपने ऊपर धारण करता है॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः क्रोधसमाविष्टो निःश्वसन्निव पन्नगः।
संशयं परमं प्राप्तः पुत्रस्ते भरतर्षभ ॥ २ ॥

मूलम्

ततः क्रोधसमाविष्टो निःश्वसन्निव पन्नगः।
संशयं परमं प्राप्तः पुत्रस्ते भरतर्षभ ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! उस समय क्रोधमें भरकर फुफकारते हुए सर्पके समान लंबी साँस खींचता हुआ आपका पुत्र दुर्योधन जीवन-रक्षाको लेकर भारी संशयमें पड़ गया॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुमोच निशितांस्तीक्ष्णान्‌ नाराचान् पञ्चविंशतिम्।
तेऽपतन् सहसा राजंस्तस्मिन् राक्षसपुङ्गवे ॥ ३ ॥
आशीविषा इव क्रुद्धाः पर्वते गन्धमादने।

मूलम्

मुमोच निशितांस्तीक्ष्णान्‌ नाराचान् पञ्चविंशतिम्।
तेऽपतन् सहसा राजंस्तस्मिन् राक्षसपुङ्गवे ॥ ३ ॥
आशीविषा इव क्रुद्धाः पर्वते गन्धमादने।

अनुवाद (हिन्दी)

उसने अत्यन्त तीखे पचीस नाराच छोड़े। महाराज! वे सब सहसा उस राक्षसराज घटोत्कचपर जाकर गिरे, मानो गन्धमादन पर्वतपर क्रोधमें भरे हुए विषधर सर्प कहींसे आ पड़े हों॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तैर्विद्धः स्रवन् रक्तं प्रभिन्न इव कुञ्जरः ॥ ४ ॥
दध्रे मतिं विनाशाय राज्ञः स पिशिताशनः।

मूलम्

स तैर्विद्धः स्रवन् रक्तं प्रभिन्न इव कुञ्जरः ॥ ४ ॥
दध्रे मतिं विनाशाय राज्ञः स पिशिताशनः।

अनुवाद (हिन्दी)

उन बाणोंसे घायल होकर वह राक्षस कुम्भ-स्थलसे मदकी धारा बहानेवाले गजराजकी भाँति अपने शरीरसे रक्तकी धारा प्रवाहित करने लगा। उसने राजा दुर्योधनका विनाश करनेके लिये दृढ़ निश्चय कर लिया॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जग्राह च महाशक्तिं गिरीणामपि दारिणीम् ॥ ५ ॥
सम्प्रदीप्तां महोल्काभामशनिं ज्वलितामिव ।

मूलम्

जग्राह च महाशक्तिं गिरीणामपि दारिणीम् ॥ ५ ॥
सम्प्रदीप्तां महोल्काभामशनिं ज्वलितामिव ।

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् उसने पर्वतोंको भी विदीर्ण कर डालनेवाली प्रज्वलित उल्का एवं वज्रके समान प्रकाशित होनेवाली एक महाशक्ति हाथमें ली॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समुद्यच्छन् महाबाहुर्जिघांसुस्तनयं तव ॥ ६ ॥
तामुद्यतामभिप्रेक्ष्य वङ्गानामधिपस्त्वरन् ।
कुञ्जरं गिरिसंकाशं राक्षसं प्रत्यचोदयत् ॥ ७ ॥

मूलम्

समुद्यच्छन् महाबाहुर्जिघांसुस्तनयं तव ॥ ६ ॥
तामुद्यतामभिप्रेक्ष्य वङ्गानामधिपस्त्वरन् ।
कुञ्जरं गिरिसंकाशं राक्षसं प्रत्यचोदयत् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाबाहु घटोत्कच आपके पुत्रको मार डालनेकी इच्छासे वह शक्ति ऊपरको उठा रहा था। उसे उठी हुई देख वंगदेशके राजाने बड़ी उतावलीके साथ अपने पर्वताकार गजराजको उस राक्षसकी ओर बढ़ाया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स नागप्रवरेणाजौ बलिना शीघ्रगामिना।
यतो दुर्योधनरथस्तं मार्गं प्रत्यवर्तत ॥ ८ ॥

मूलम्

स नागप्रवरेणाजौ बलिना शीघ्रगामिना।
यतो दुर्योधनरथस्तं मार्गं प्रत्यवर्तत ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे वंगनरेश उस शीघ्रगामी महाबली गजराजपर आरूढ़ हो युद्धके मैदानमें उसी मार्गपर चले जहाँ दुर्योधनका रथ खड़ा था॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रथं च वारयामास कुञ्जरेण सुतस्य ते।
मार्गमावारितं दृष्ट्‌वा राज्ञा वङ्गेन धीमता ॥ ९ ॥
घटोत्कचो महाराज क्रोधसंरक्तलोचनः ।

मूलम्

रथं च वारयामास कुञ्जरेण सुतस्य ते।
मार्गमावारितं दृष्ट्‌वा राज्ञा वङ्गेन धीमता ॥ ९ ॥
घटोत्कचो महाराज क्रोधसंरक्तलोचनः ।

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने अपने हाथीके द्वारा आपके पुत्रका मार्ग रोक दिया। महाराज! बुद्धिमान् वंगनरेशके द्वारा दुर्योधनके रथका मार्ग रुका हुआ देख घटोत्कचके नेत्र क्रोधसे लाल हो गये॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उद्यतां तां महाशक्तिं तस्मिंश्चिक्षेप वारणे ॥ १० ॥
स तयाभिहतो राजंस्तेन बाहुप्रमुक्तया।
संजातरुधिरोत्पीडः पपात च ममार च ॥ ११ ॥

मूलम्

उद्यतां तां महाशक्तिं तस्मिंश्चिक्षेप वारणे ॥ १० ॥
स तयाभिहतो राजंस्तेन बाहुप्रमुक्तया।
संजातरुधिरोत्पीडः पपात च ममार च ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसने उस उठायी हुई महाशक्तिको उस हाथीपर ही चला दिया। राजन्! घटोत्कचकी भुजाओंसे छूटी हुई उस शक्तिके आघातसे हाथीका कुम्भस्थल फट गया और उससे रक्तका स्रोत बहने लगा। फिर वह तत्काल ही भूमिपर गिरा और मर गया॥१०-११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पतत्यथ गजे चापि वङ्गानामीश्वरो बली।
जवेन समभिद्रुत्य जगाम धरणीतलम् ॥ १२ ॥

मूलम्

पतत्यथ गजे चापि वङ्गानामीश्वरो बली।
जवेन समभिद्रुत्य जगाम धरणीतलम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हाथीके गिरते समय बलवान् वंगनरेश उसकी पीठसे वेगपूर्वक कूदकर धरतीपर आ गये॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुर्योधनोऽपि सम्प्रेक्ष्य पतितं वरवारणम्।
प्रभग्नं च बलं दृष्ट्‌वा जगाम परमां व्यथाम् ॥ १३ ॥

मूलम्

दुर्योधनोऽपि सम्प्रेक्ष्य पतितं वरवारणम्।
प्रभग्नं च बलं दृष्ट्‌वा जगाम परमां व्यथाम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस श्रेष्ठ गजराजको गिरा हुआ देख सारी कौरवसेना भाग खड़ी हुई। यह सब देखकर दुर्योधनके मनमें बड़ी व्यथा हुई॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(अशक्तः प्रतियोद्‌धुं वै दृष्ट्‌वा तस्य पराक्रमम्।)
क्षत्रधर्मं पुरस्कृत्य आत्मनश्चाभिमानिताम् ।
प्राप्तेऽपक्रमणे राजा तस्थौ गिरिरिवाचलः ॥ १४ ॥

मूलम्

(अशक्तः प्रतियोद्‌धुं वै दृष्ट्‌वा तस्य पराक्रमम्।)
क्षत्रधर्मं पुरस्कृत्य आत्मनश्चाभिमानिताम् ।
प्राप्तेऽपक्रमणे राजा तस्थौ गिरिरिवाचलः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह घटोत्कचके पराक्रमपर दृष्टिपात करके उसका सामना करनेमें असमर्थ हो गया। क्षत्रियधर्म तथा अपने अभिमानको सामने रखकर पलायनका अवसर प्राप्त होनेपर भी राजा दुर्योधन पर्वतकी भाँति अविचलभावसे खड़ा रहा॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संधाय च शितं बाणं कालाग्निसमतेजसम्।
मुमोच परमक्रुद्धस्तस्मिन् घोरे निशाचरे ॥ १५ ॥

मूलम्

संधाय च शितं बाणं कालाग्निसमतेजसम्।
मुमोच परमक्रुद्धस्तस्मिन् घोरे निशाचरे ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् उसने प्रलयकालकी अग्निके समान तेजस्वी एवं तीखे बाणको धनुषपर रखकर उसे अत्यन्त क्रोधपूर्वक उस घोर निशाचरपर छोड़ दिया॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमापतन्तं सम्प्रेक्ष्य बाणमिन्द्राशनिप्रभम् ।
लाघवान्मोचयामास महात्मा वै घटोत्कचः ॥ १६ ॥

मूलम्

तमापतन्तं सम्प्रेक्ष्य बाणमिन्द्राशनिप्रभम् ।
लाघवान्मोचयामास महात्मा वै घटोत्कचः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्रके वज्रके समान प्रकाशित होनेवाले उस बाणको अपनी ओर आता देख महामना राक्षस घटोत्कचने अपनी फुर्तीके कारण अपने-आपको उससे बचा लिया॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूयश्च विननादोग्रं क्रोधसंरक्तलोचनः ।
त्रासयामास सैन्यानि युगान्ते जलदो यथा ॥ १७ ॥

मूलम्

भूयश्च विननादोग्रं क्रोधसंरक्तलोचनः ।
त्रासयामास सैन्यानि युगान्ते जलदो यथा ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद क्रोधसे आँखें लाल करके वह पुनः भयंकर गर्जना करने लगा। जैसे प्रलयकालमें संवर्तक मेघकी गर्जना होती है, वैसी ही गर्जना करके उसने सारी कौरवसेनाको दहला दिया॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं श्रुत्वा निनदं घोरं तस्य भीमस्य रक्षसः।
आचार्यमुपसङ्गम्य भीष्मः शान्तनवोऽब्रवीत् ॥ १८ ॥
यथैष निनदो घोरः श्रूयते राक्षसेरितः।
हैडिम्बो युध्यते नूनं राज्ञा दुर्योधनेन ह ॥ १९ ॥

मूलम्

तं श्रुत्वा निनदं घोरं तस्य भीमस्य रक्षसः।
आचार्यमुपसङ्गम्य भीष्मः शान्तनवोऽब्रवीत् ॥ १८ ॥
यथैष निनदो घोरः श्रूयते राक्षसेरितः।
हैडिम्बो युध्यते नूनं राज्ञा दुर्योधनेन ह ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस भयानक राक्षसकी वह घोर गर्जना सुनकर शान्तनुनन्दन भीष्मने द्रोणाचार्यके पास जाकर इस प्रकार कहा—‘आचार्य! यह राक्षसके मुखसे निकली हुई जैसी घोर गर्जना सुनायी दे रही है, उससे अनुमान होता है कि अवश्य ही हिडिम्बाका पुत्र घटोत्कच राजा दुर्योधनके साथ जूझ रहा है॥१८-१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैष शक्यो हि संग्रामे जेतुं भूतेन केनचित्।
तत्र गच्छत भद्रं वो राजानं परिरक्षत ॥ २० ॥

मूलम्

नैष शक्यो हि संग्रामे जेतुं भूतेन केनचित्।
तत्र गच्छत भद्रं वो राजानं परिरक्षत ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इसे कोई भी प्राणी संग्राममें जीत नहीं सकता, अतः आपका कल्याण हो, वहाँ जाइये और राजा दुर्योधनकी रक्षा कीजिये॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिद्रुतो महाभागो राक्षसेन महात्मना।
एतद्धि वः परं कृत्यं सर्वेषां नः परंतपाः ॥ २१ ॥

मूलम्

अभिद्रुतो महाभागो राक्षसेन महात्मना।
एतद्धि वः परं कृत्यं सर्वेषां नः परंतपाः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जान पड़ता है महाभाग दुर्योधन उस महाकाय राक्षसके आक्रमणका शिकार हो रहा है। शत्रुओंको संताप देनेवाले वीरो! आपके तथा हम सब लोगोंके लिये यही सर्वोत्तम कृत्य है’॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पितामहवचः श्रुत्वा त्वरमाणा महारथाः।
उत्तमं जवमास्थाय प्रययुर्यत्र कौरवः ॥ २२ ॥

मूलम्

पितामहवचः श्रुत्वा त्वरमाणा महारथाः।
उत्तमं जवमास्थाय प्रययुर्यत्र कौरवः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मकी यह बात सुनकर सब महारथी उत्तम वेगका आश्रय ले बड़ी उतावलीके साथ उस स्थानपर गये, जहाँ कुरुराज दुर्योधन मौजूद था॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्रोणश्च सोमदत्तश्च बाह्लीकोऽथ जयद्रथः।
कृपो भूरिश्रवाः शल्य आवन्त्यः सबृहद्‌बलः ॥ २३ ॥
अश्वत्थामा विकर्णश्च चित्रसेनो विविंशतिः।
रथाश्चानेकसाहस्रा ये तेषामनुयायिनः ॥ २४ ॥
अभिद्रुतं परीप्सन्तः पुत्रं दुर्योधनं तव।
तदनीकमनाधृष्यं पालितं तु महारथैः ॥ २५ ॥

मूलम्

द्रोणश्च सोमदत्तश्च बाह्लीकोऽथ जयद्रथः।
कृपो भूरिश्रवाः शल्य आवन्त्यः सबृहद्‌बलः ॥ २३ ॥
अश्वत्थामा विकर्णश्च चित्रसेनो विविंशतिः।
रथाश्चानेकसाहस्रा ये तेषामनुयायिनः ॥ २४ ॥
अभिद्रुतं परीप्सन्तः पुत्रं दुर्योधनं तव।
तदनीकमनाधृष्यं पालितं तु महारथैः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्रोणाचार्य, सोमदत्त, बाह्लीक, जयद्रथ, कृपाचार्य, भूरिश्रवा, शल्य, अवन्तीका राजकुमार, बृहद्‌बल, अश्वत्थामा, विकर्ण, चित्रसेन, विविंशति तथा उनके अनुयायी अनेक सहस्र रथी—ये सब लोग राक्षसके द्वारा आक्रान्त हुए आपके पुत्र दुर्योधनकी रक्षा करनेके लिये गये। उन महारथियोंसे पालित होकर वह सेना अजेय हो गयी॥२३—२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आततायिनमायान्तं प्रेक्ष्य राक्षससत्तमः ।
नाकम्पत महाबाहुर्मैनाक इव पर्वतः ॥ २६ ॥

मूलम्

आततायिनमायान्तं प्रेक्ष्य राक्षससत्तमः ।
नाकम्पत महाबाहुर्मैनाक इव पर्वतः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युद्धमें आततायी दुर्योधनको आते देख राक्षसशिरोमणि महाबाहु घटोत्कच मैनाक पर्वतकी भाँति अविचलभावसे खड़ा रहा॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रगृह्य विपुलं चापं ज्ञातिभिः परिवारितः।
शूलमुद्‌गरहस्तैश्च नानाप्रहरणैरपि ॥ २७ ॥

मूलम्

प्रगृह्य विपुलं चापं ज्ञातिभिः परिवारितः।
शूलमुद्‌गरहस्तैश्च नानाप्रहरणैरपि ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसके जाति-बन्धु हाथोंमें शूल, मुद्‌गर आदि नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्र लेकर उसे सब ओरसे घेरे हुए थे और उसने एक विशाल धनुष ले रखा था॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः समभवद् युद्धं तुमुलं लोमहर्षणम्।
राक्षसानां च मुख्यस्य दुर्योधनबलस्य च ॥ २८ ॥

मूलम्

ततः समभवद् युद्धं तुमुलं लोमहर्षणम्।
राक्षसानां च मुख्यस्य दुर्योधनबलस्य च ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर राक्षसशिरोमणि घटोत्कच तथा दुर्योधनकी सेनामें रोमांचकारी एवं भयंकर युद्ध होने लगा॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धनुषां कूजतां शब्दः सर्वतस्तुमुलो रणे।
अश्रूयत महाराज वंशानां दह्यतामिव ॥ २९ ॥

मूलम्

धनुषां कूजतां शब्दः सर्वतस्तुमुलो रणे।
अश्रूयत महाराज वंशानां दह्यतामिव ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! रणभूमिमें सब ओर बाँसोंके दग्ध होनेके समान धनुषोंकी टंकारका भयंकर शब्द सुनायी देने लगा॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्त्राणां पात्यमानानां कवचेषु शरीरिणाम्।
शब्दः समभवद् राजन् गिरीणामिव भिद्यताम् ॥ ३० ॥

मूलम्

अस्त्राणां पात्यमानानां कवचेषु शरीरिणाम्।
शब्दः समभवद् राजन् गिरीणामिव भिद्यताम् ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! देहधारियोंके कवचोंपर पड़नेवाले अस्त्रोंका ऐसा शब्द होता था, मानो पर्वत विदीर्ण हो रहे हों॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वीरबाहुविसृष्टानां तोमराणां विशाम्पते ।
रूपमासीद् वियत्स्थानां सर्पाणामिव सर्पताम् ॥ ३१ ॥

मूलम्

वीरबाहुविसृष्टानां तोमराणां विशाम्पते ।
रूपमासीद् वियत्स्थानां सर्पाणामिव सर्पताम् ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रजानाथ! वीरोंकी भुजाओंसे छोड़े गये तोमर जब आकाशमें आते, उस समय उनका स्वरूप तीव्र गतिसे उड़नेवाले सर्पोंके समान जान पड़ता था॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः परमसंक्रुद्धो विस्फार्य सुमहद् धनुः।
राक्षसेन्द्रो महाबाहुर्विनदन् भैरवं रवम् ॥ ३२ ॥
आचार्यस्यार्धचन्द्रेण क्रुद्धश्चिच्छेद कार्मुकम् ।
सोमदत्तस्य भल्लेन ध्वजं चोन्मथ्य चानदत् ॥ ३३ ॥

मूलम्

ततः परमसंक्रुद्धो विस्फार्य सुमहद् धनुः।
राक्षसेन्द्रो महाबाहुर्विनदन् भैरवं रवम् ॥ ३२ ॥
आचार्यस्यार्धचन्द्रेण क्रुद्धश्चिच्छेद कार्मुकम् ।
सोमदत्तस्य भल्लेन ध्वजं चोन्मथ्य चानदत् ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर महाबाहु राक्षसराज घटोत्कचने अत्यन्त क्रुद्ध हो भैरव गर्जना करते हुए अपने विशाल धनुषको खींचकर अर्धचन्द्राकार बाणसे द्रोणाचार्यके धनुषको काट डाला। फिर एक भल्लके द्वारा सोमदत्तके ध्वजको खण्डित करके सिंहनाद किया॥३२-३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाह्लीकं च त्रिभिर्बाणैः प्रत्यविध्यत् स्तनान्तरे।
कृपमेकेन विव्याध चित्रसेनं त्रिभिः शरैः ॥ ३४ ॥

मूलम्

बाह्लीकं च त्रिभिर्बाणैः प्रत्यविध्यत् स्तनान्तरे।
कृपमेकेन विव्याध चित्रसेनं त्रिभिः शरैः ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् तीन बाणोंसे बाह्लीककी छातीमें गहरी चोट पहुँचायी। एक बाणसे कृपाचार्यको और तीनसे चित्रसेनको भी बींध डाला॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूर्णायतविसृष्टेन सम्यक् प्रणिहितेन च।
जत्रुदेशे समासाद्य विकर्णं समताडयत् ॥ ३५ ॥

मूलम्

पूर्णायतविसृष्टेन सम्यक् प्रणिहितेन च।
जत्रुदेशे समासाद्य विकर्णं समताडयत् ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद उसने धनुषको पूर्णरूपसे खींचकर उसपर उत्तम रीतिसे बाणोंका संधान करके विकर्णके गलेकी हँसलीमें गहरी चोट पहुँचायी॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न्यषीदत् स्वरथोपस्थे शोणितेन परिप्लुतः।
ततः पुनरमेयात्मा नाराचान् दश पञ्च च ॥ ३६ ॥
भूरिश्रवसि संक्रुद्धः प्राहिणोद् भरतर्षभ।

मूलम्

न्यषीदत् स्वरथोपस्थे शोणितेन परिप्लुतः।
ततः पुनरमेयात्मा नाराचान् दश पञ्च च ॥ ३६ ॥
भूरिश्रवसि संक्रुद्धः प्राहिणोद् भरतर्षभ।

अनुवाद (हिन्दी)

इससे विकर्ण अपने रथके पिछले भागमें व्याकुल होकर बैठ गया, उसका सारा शरीर रक्तसे नहा उठा था। भरतश्रेष्ठ! तत्पश्चात् अमेय आत्मबलसे सम्पन्न घटोत्कचने क्रुद्ध होकर भूरिश्रवापर पंद्रह नाराच चलाये॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते वर्म भित्त्वा तस्याशु विविशुर्धरणीतलम् ॥ ३७ ॥
विविंशतेश्च दौणेश्च यन्तारौ समताडयत्।
तौ पेततू रथोपस्थे रश्मीनुत्सृज्य वाजिनाम् ॥ ३८ ॥

मूलम्

ते वर्म भित्त्वा तस्याशु विविशुर्धरणीतलम् ॥ ३७ ॥
विविंशतेश्च दौणेश्च यन्तारौ समताडयत्।
तौ पेततू रथोपस्थे रश्मीनुत्सृज्य वाजिनाम् ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे नाराच उसके कवचको छिन्न-भिन्न करके शीघ्र ही धरतीमें समा गये। साथ ही घटोत्कचने विविंशति और अश्वत्थामाके सारथियोंपर गहरा आघात किया। वे दोनों घोड़ोंकी बागडोर छोड़कर रथकी बैठकमें गिर पड़े॥३७-३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिंधुराज्ञोऽर्धचन्द्रेण वाराहं स्वर्णभूषितम् ।
उन्ममाथ महाराज द्वितीयेनाच्छिनद् धनुः ॥ ३९ ॥

मूलम्

सिंधुराज्ञोऽर्धचन्द्रेण वाराहं स्वर्णभूषितम् ।
उन्ममाथ महाराज द्वितीयेनाच्छिनद् धनुः ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! उसने एक अर्धचन्द्राकार बाणसे सिन्धुराज जयद्रथकी वाराहचिह्नसे युक्त सुवर्णभूषित ध्वजा काट डाली और दूसरे बाणसे उसके धनुषके दो टुकड़े कर दिये॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चतुर्भिरथ नाराचैरावन्त्यस्य महात्मनः ।
जघान चतुरो वाहान् क्रोधसंरक्तलोचनः ॥ ४० ॥

मूलम्

चतुर्भिरथ नाराचैरावन्त्यस्य महात्मनः ।
जघान चतुरो वाहान् क्रोधसंरक्तलोचनः ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद क्रोधसे लाल आँखें करके घटोत्कचने चार नाराचोंद्वारा महामना अवन्तीनरेशके चारों घोड़ोंको मार डाला॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूर्णायतविसृष्टेन पीतेन निशितेन च।
निर्बिभेद महाराज राजपुत्रं बृहद्‌बलम् ॥ ४१ ॥

मूलम्

पूर्णायतविसृष्टेन पीतेन निशितेन च।
निर्बिभेद महाराज राजपुत्रं बृहद्‌बलम् ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! तदनन्तर धनुषको पूर्णरूपसे खींचकर छोड़े गये पानीदार तीखे बाणसे उसने राजकुमार बृहद्‌बलको विदीर्ण कर दिया॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स गाढविद्धो व्यथितो रथोपस्थ उपाविशत्।
भृशं क्रोधेन चाविष्टो रथस्थो राक्षसाधिपः ॥ ४२ ॥

मूलम्

स गाढविद्धो व्यथितो रथोपस्थ उपाविशत्।
भृशं क्रोधेन चाविष्टो रथस्थो राक्षसाधिपः ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस बाणसे वह गहराईतक बिंध गया और व्यथित होकर रथके पिछले भागमें जा बैठा। इधर राक्षसराज घटोत्कच अत्यन्त क्रोधसे आविष्ट हो रथपर बैठा रहा॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चिक्षेप निशितांस्तीक्ष्णाञ्छरानाशीविषोपमान् ।
बिभिदुस्ते महाराज शल्यं युद्धविशारदम् ॥ ४३ ॥

मूलम्

चिक्षेप निशितांस्तीक्ष्णाञ्छरानाशीविषोपमान् ।
बिभिदुस्ते महाराज शल्यं युद्धविशारदम् ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! रथपर बैठे-ही-बैठे उसने विषधर सर्पोंके समान अत्यन्त तीखे बाण चलाये। उन बाणोंने युद्धविशारद राजा शल्यको पूर्णरूपसे घायल कर दिया॥४३॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते भीष्मपर्वणि भीष्मवधपर्वणि हैडिम्बयुद्‌धे द्विनवतितमोऽध्यायः ॥ ९२ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्वके अन्तर्गत भीष्मवधपर्वमें घटोत्कचका युद्धविषयक बानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥९२॥

सूचना (हिन्दी)

[दाक्षिणात्य अधिक पाठका श्लोक मिलाकर कुल ४३ श्लोक हैं]