भागसूचना
षडशीतितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
भीष्म और युधिष्ठिरका युद्ध, धृष्टद्युम्न और सात्यकिके साथ विन्द और अनुविन्दका संग्राम, द्रोण आदिका पराक्रम और सातवें दिनके युद्धकी समाप्ति
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
विरथं तं समासाद्य चित्रसेनं यशस्विनम्।
रथमारोपयामास विकर्णस्तनयस्तव ॥ १ ॥
मूलम्
विरथं तं समासाद्य चित्रसेनं यशस्विनम्।
रथमारोपयामास विकर्णस्तनयस्तव ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— राजन्! रथहीन हुए अपने यशस्वी भाई चित्रसेनके पास जाकर आपके पुत्र विकर्णने उसे अपने रथपर चढ़ा लिया॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिंस्तथा वर्तमाने तुमुले संकुले भृशम्।
भीष्मः शान्तनवस्तूर्णं युधिष्ठिरमुपाद्रवत् ॥ २ ॥
मूलम्
तस्मिंस्तथा वर्तमाने तुमुले संकुले भृशम्।
भीष्मः शान्तनवस्तूर्णं युधिष्ठिरमुपाद्रवत् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब इस प्रकार भयंकर और घमासान युद्ध होने लगा, उसी समय शान्तनुनन्दन भीष्मने तुरंत ही राजा युधिष्ठिरपर धावा किया॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः सरथनागाश्वाः समकम्पन्त सृंजयाः।
मृत्योरास्यमनुप्राप्तं मेनिरे च युधिष्ठिरम् ॥ ३ ॥
मूलम्
ततः सरथनागाश्वाः समकम्पन्त सृंजयाः।
मृत्योरास्यमनुप्राप्तं मेनिरे च युधिष्ठिरम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह देख सृंजयवीर रथ, हाथी और घोड़ोंसहित काँप उठे। उन्होंने युधिष्ठिरको मौतके मुखमें पड़ा हुआ ही समझा॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
युधिष्ठिरोऽपि कौरव्यो यमाभ्यां सहितः प्रभुः।
महेष्वासं नरव्याघ्रं भीष्मं शान्तनवं ययौ ॥ ४ ॥
मूलम्
युधिष्ठिरोऽपि कौरव्यो यमाभ्यां सहितः प्रभुः।
महेष्वासं नरव्याघ्रं भीष्मं शान्तनवं ययौ ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुनन्दन राजा युधिष्ठिर भी नकुल और सहदेवके साथ महाधनुर्धर पुरुषसिंह शान्तनुनन्दन भीष्मका सामना करनेके लिये आगे बढ़े॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः शरसहस्राणि प्रमुञ्चन् पाण्डवो युधि।
भीष्मं संछादयामास यथा मेघो दिवाकरम् ॥ ५ ॥
मूलम्
ततः शरसहस्राणि प्रमुञ्चन् पाण्डवो युधि।
भीष्मं संछादयामास यथा मेघो दिवाकरम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे मेघ सूर्यको ढक लेता है, उसी प्रकार युद्धस्थलमें हजारों बाणोंकी वर्षा करते हुए पाण्डुपुत्र युधिष्ठिरने भीष्मको आच्छादित कर दिया॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेन सम्यक् प्रणीतानि शरजालानि मारिष।
प्रतिजग्राह गाङ्गेयः शतशोऽथ सहस्रशः ॥ ६ ॥
मूलम्
तेन सम्यक् प्रणीतानि शरजालानि मारिष।
प्रतिजग्राह गाङ्गेयः शतशोऽथ सहस्रशः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आर्य! उनके द्वारा अच्छी तरह चलाये हुए सैकड़ों और हजारों बाणोंके समूहको गंगानन्दन भीष्मने ग्रहण कर लिया (अपने बाणोंद्वारा विफल कर दिया)॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथैव शरजालानि भीष्मेणास्तानि मारिष।
आकाशे समदृश्यन्त खगमानां व्रजा इव ॥ ७ ॥
मूलम्
तथैव शरजालानि भीष्मेणास्तानि मारिष।
आकाशे समदृश्यन्त खगमानां व्रजा इव ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आर्य! इसी प्रकार भीष्मके चलाये हुए बाणसमूह भी आकाशमें पक्षियोंके झुंडके समान दिखायी देने लगे॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निमेषार्धेन कौन्तेयं भीष्मः शान्तनवो युधि।
अदृश्यं समरे चक्रे शरजालेन भागशः ॥ ८ ॥
मूलम्
निमेषार्धेन कौन्तेयं भीष्मः शान्तनवो युधि।
अदृश्यं समरे चक्रे शरजालेन भागशः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शान्तनुनन्दन भीष्मने युद्धस्थलमें आधे निमेषमें ही पृथक्-पृथक् बाणोंका जाल-सा बिछाकर कुन्तीनन्दन युधिष्ठिरको अदृश्य कर दिया॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो युधिष्ठिरो राजा कौरव्यस्य महात्मनः।
नाराचं प्रेषयामास क्रुद्ध आशीविषोपमम् ॥ ९ ॥
मूलम्
ततो युधिष्ठिरो राजा कौरव्यस्य महात्मनः।
नाराचं प्रेषयामास क्रुद्ध आशीविषोपमम् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब क्रोधमें भरे हुए राजा युधिष्ठिरने कुरुवंशी महात्मा भीष्मपर विषधर सर्पके समान नाराचका प्रहार किया॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
असम्प्राप्तं ततस्तं तु क्षुरप्रेण महारथः।
चिच्छेद समरे राजन् भीष्मस्तस्य धनुश्च्युतम् ॥ १० ॥
मूलम्
असम्प्राप्तं ततस्तं तु क्षुरप्रेण महारथः।
चिच्छेद समरे राजन् भीष्मस्तस्य धनुश्च्युतम् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! परंतु महारथी भीष्मने युधिष्ठिरके धनुषसे छूटे हुए उस नाराचको अपने पास पहुँचनेसे पहले ही समरभूमिमें एक क्षुरप्रद्वारा काट गिराया॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं तु छित्त्वा रणे भीष्मो नाराचं कालसम्मितम्।
निजघ्ने कौरवेन्द्रस्य हयान् काञ्चनभूषणान् ॥ ११ ॥
मूलम्
तं तु छित्त्वा रणे भीष्मो नाराचं कालसम्मितम्।
निजघ्ने कौरवेन्द्रस्य हयान् काञ्चनभूषणान् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार रणभूमिमें कालके समान भयंकर उस नाराचको काटकर भीष्मने कौरवराज युधिष्ठिरके सुवर्णाभूषणोंसे युक्त घोड़ोंको मार डाला॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(हताश्वे तु रथे तिष्ठन् शक्तिं चिक्षेप धर्मराट्।
तामापतन्तीं सहसा कालपाशोपमां शिताम्॥
चिच्छेद समरे भीष्मः शरैः संनतपर्वभिः॥)
मूलम्
(हताश्वे तु रथे तिष्ठन् शक्तिं चिक्षेप धर्मराट्।
तामापतन्तीं सहसा कालपाशोपमां शिताम्॥
चिच्छेद समरे भीष्मः शरैः संनतपर्वभिः॥)
अनुवाद (हिन्दी)
घोड़ोंके मारे जानेपर भी उसी रथमें खड़े हुए धर्मराज युधिष्ठिरने भीष्मपर शक्ति चलायी। कालपाशके समान तीखी एवं भयंकर उस शक्तिको सहसा अपनी ओर आती देख भीष्मने झुकी हुई गाँठवाले बाणोंद्वारा उसे रणभूमिमें काट गिराया।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हताश्वं तु रथं त्यक्त्वा धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः।
आरुरोह रथं तूर्णं नकुलस्य महात्मनः ॥ १२ ॥
मूलम्
हताश्वं तु रथं त्यक्त्वा धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः।
आरुरोह रथं तूर्णं नकुलस्य महात्मनः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर जिसके घोड़े मारे गये थे, उस रथको त्यागकर धर्मपुत्र युधिष्ठिर तुरंत ही महामना नकुलके रथपर आरूढ़ हो गये॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यमावपि हि संक्रुद्धः समासाद्य रणे तदा।
शरैः संछादयामास भीष्मः परपुरंजयः ॥ १३ ॥
मूलम्
यमावपि हि संक्रुद्धः समासाद्य रणे तदा।
शरैः संछादयामास भीष्मः परपुरंजयः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय रणक्षेत्रमें नकुल और सहदेवको पाकर शत्रुनगरीपर विजय पानेवाले भीष्मने अत्यन्त कुपित हो उन्हें बाणोंसे आच्छादित कर दिया॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तौ तु दृष्ट्वा महाराज भीष्मबाणप्रपीडितौ।
जगाम परमां चिन्तां भीष्मस्य वधकाङ्क्षया ॥ १४ ॥
मूलम्
तौ तु दृष्ट्वा महाराज भीष्मबाणप्रपीडितौ।
जगाम परमां चिन्तां भीष्मस्य वधकाङ्क्षया ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! नकुल और सहदेवको भीष्मके बाणोंसे अत्यन्त पीड़ित देख युधिष्ठिर अपने मनमें भीष्मके वधकी इच्छा लेकर गहन विचार करने लगे॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो युधिष्ठिरो वश्यान् राज्ञस्तान् समचोदयत्।
भीष्मं शान्तनवं सर्वे निहतेति सुहृद्गणान् ॥ १५ ॥
मूलम्
ततो युधिष्ठिरो वश्यान् राज्ञस्तान् समचोदयत्।
भीष्मं शान्तनवं सर्वे निहतेति सुहृद्गणान् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर युधिष्ठिरने अपने वशवर्ती नरेशों तथा सुहृद्गणोंको यह आदेश दिया कि सब लोग मिलकर शान्तनुनन्दन भीष्मको मार डालो॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्ते पार्थिवाः सर्वे श्रुत्वा पार्थस्य भाषितम्।
महता रथवंशेन परिवव्रुः पितामहम् ॥ १६ ॥
मूलम्
ततस्ते पार्थिवाः सर्वे श्रुत्वा पार्थस्य भाषितम्।
महता रथवंशेन परिवव्रुः पितामहम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब कुन्तीपुत्र युधिष्ठिरका यह कथन सुनकर समस्त राजाओंने विशाल रथसमूहके द्वारा पितामह भीष्मको चारों ओरसे घेर लिया॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स समन्तात् परिवृतः पिता देवव्रतस्तव।
चिक्रीड धनुषा राजन् पातयानो महारथान् ॥ १७ ॥
मूलम्
स समन्तात् परिवृतः पिता देवव्रतस्तव।
चिक्रीड धनुषा राजन् पातयानो महारथान् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! सब ओरसे घिरे हुए आपके ताऊ देवव्रत सब महारथियोंको धराशायी करते हुए अपने धनुषके द्वारा क्रीड़ा करने लगे॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं चरन्तं रणे पार्था ददृशुः कौरवं युधि।
मृगमध्यं प्रविश्येव यथा सिंहशिशुं वने ॥ १८ ॥
मूलम्
तं चरन्तं रणे पार्था ददृशुः कौरवं युधि।
मृगमध्यं प्रविश्येव यथा सिंहशिशुं वने ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे सिंहका बच्चा वनके भीतर मृगोंके झुंडमें घुसकर खेल कर रहा हो, उसी प्रकार कुन्तीकुमारोंने युद्धमें विचरते हुए कुरुवंशी भीष्मको वहाँ देखा॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तर्जयानं रणे वीरांस्त्रासयानं च सायकैः।
दृष्ट्वा त्रेसुर्महाराज सिंहं मृगगणा इव ॥ १९ ॥
मूलम्
तर्जयानं रणे वीरांस्त्रासयानं च सायकैः।
दृष्ट्वा त्रेसुर्महाराज सिंहं मृगगणा इव ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! वे रणभूमिमें वीरोंको डाँटते और बाणोंके द्वारा उन्हें त्रास देते थे। जैसे मृगोंके समूह सिंहको देखकर डर जाते हैं, उसी प्रकार सब राजा भीष्मको देखकर भयभीत हो गये॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रणे भारतसिंहस्य ददृशुः क्षत्रिया गतिम्।
अग्नेर्वायुसहायस्य यथा कक्षं दिधक्षतः ॥ २० ॥
मूलम्
रणे भारतसिंहस्य ददृशुः क्षत्रिया गतिम्।
अग्नेर्वायुसहायस्य यथा कक्षं दिधक्षतः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे वायुकी सहायतासे घास-फूसको जलानेकी इच्छावाली अग्नि अत्यन्त प्रज्वलित हो उठती है, उसी प्रकार भरतवंशके सिंह भीष्मके स्वरूपको रणक्षेत्रमें क्षत्रियोंने अत्यन्त तेजस्वी देखा॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शिरांसि रथिनां भीष्मः पातयामास संयुगे।
तालेभ्यः परिपक्वानि फलानि कुशलो नरः ॥ २१ ॥
मूलम्
शिरांसि रथिनां भीष्मः पातयामास संयुगे।
तालेभ्यः परिपक्वानि फलानि कुशलो नरः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्म उस युद्धस्थलमें रथियोंके मस्तक काट-काटकर उसी प्रकार गिराने लगे, जैसे कोई कुशल मनुष्य ताड़के वृक्षोंसे पके हुए फलोंको गिरा रहा हो॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पतद्भिश्च महाराज शिरोभिर्धरणीतले ।
बभूव तुमुलः शब्दः पततामश्मनामिव ॥ २२ ॥
मूलम्
पतद्भिश्च महाराज शिरोभिर्धरणीतले ।
बभूव तुमुलः शब्दः पततामश्मनामिव ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! भूतलपर पटापट गिरते हुए मस्तकोंका आकाशसे पृथ्वीपर पड़नेवाले पत्थरोंके समान भयंकर शब्द हो रहा था॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन् सुतुमुले युद्धे वर्तमाने भयानके।
सर्वेषामेव सैन्यानामासीद् व्यतिकरो महान् ॥ २३ ॥
मूलम्
तस्मिन् सुतुमुले युद्धे वर्तमाने भयानके।
सर्वेषामेव सैन्यानामासीद् व्यतिकरो महान् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस भयानक तुमुल युद्धके होते समय सभी सेनाओंका आपसमें भारी संघर्ष हो गया॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भिन्नेषु तेषु व्यूहेषु क्षत्रिया इतरेतरम्।
एकमेकं समाहूय युद्धायैवावतस्थिरे ॥ २४ ॥
मूलम्
भिन्नेषु तेषु व्यूहेषु क्षत्रिया इतरेतरम्।
एकमेकं समाहूय युद्धायैवावतस्थिरे ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन सबका व्यूह भंग हो जानेपर भी सम्पूर्ण क्षत्रिय परस्पर एक-एकको ललकारते हुए युद्धके लिये डटे ही रहे॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शिखण्डी तु समासाद्य भरतानां पितामहम्।
अभिदुद्राव वेगेन तिष्ठ तिष्ठेति चाब्रवीत् ॥ २५ ॥
मूलम्
शिखण्डी तु समासाद्य भरतानां पितामहम्।
अभिदुद्राव वेगेन तिष्ठ तिष्ठेति चाब्रवीत् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शिखण्डी भरतवंशके पितामह भीष्मके पास पहुँचकर उनकी ओर बड़े वेगसे दौड़ा और बोला—‘खड़ा रह, खड़ा रह’॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनादृत्य ततो भीष्मस्तं शिखण्डिनमाहवे।
प्रययौ सृंजयान् क्रुद्धः स्त्रीत्वं चिन्त्य शिखण्डिनः ॥ २६ ॥
मूलम्
अनादृत्य ततो भीष्मस्तं शिखण्डिनमाहवे।
प्रययौ सृंजयान् क्रुद्धः स्त्रीत्वं चिन्त्य शिखण्डिनः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
किंतु भीष्मने शिखण्डीके स्त्रीत्वका चिन्तन करके युद्धमें उसकी अवहेलना कर दी और सृंजयवंशी क्षत्रियोंपर क्रोधपूर्वक आक्रमण किया॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सृंजयास्तु ततो दृष्ट्वा हृष्टं भीष्मं महारणे।
सिंहनादांश्च विविधांश्चक्रुः शङ्खविमिश्रितान् ॥ २७ ॥
मूलम्
सृंजयास्तु ततो दृष्ट्वा हृष्टं भीष्मं महारणे।
सिंहनादांश्च विविधांश्चक्रुः शङ्खविमिश्रितान् ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब सृंजयगण उस महायुद्धमें हर्ष और उत्साहसे भरे हुए भीष्मको देखकर शंखध्वनिके साथ नाना प्रकारसे सिंहनाद करने लगे॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः प्रववृते युद्धं व्यतिषक्तरथद्विपम्।
पश्चिमां दिशमासाद्य स्थिते सवितरि प्रभो ॥ २८ ॥
मूलम्
ततः प्रववृते युद्धं व्यतिषक्तरथद्विपम्।
पश्चिमां दिशमासाद्य स्थिते सवितरि प्रभो ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! जब सूर्य पश्चिम दिशामें ढलने लगे, उस समय युद्धका रूप और भी भयंकर हो गया। रथ-से-रथ और हाथी-से-हाथी भिड़ गये॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धृष्टद्युम्नोऽथ पाञ्चाल्यः सात्यकिश्च महारथः।
पीडयन्तौ भृशं सैन्यं शक्तितोमरवृष्टिभिः ॥ २९ ॥
मूलम्
धृष्टद्युम्नोऽथ पाञ्चाल्यः सात्यकिश्च महारथः।
पीडयन्तौ भृशं सैन्यं शक्तितोमरवृष्टिभिः ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पांचालराजकुमार धृष्टद्युम्न तथा महारथी सात्यकि—ये दोनों शक्ति और तोमरोंकी वर्षासे कौरव-सेनाको अत्यन्त पीड़ा देने लगे॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शस्त्रैश्च बहुभी राजन् जघ्नतुस्तावकान् रणे।
ते हन्यमानाः समरे तावका भरतर्षभ ॥ ३० ॥
आर्यां युद्धे मतिं कृत्वा न त्यजन्ति स्म संयुगम्।
यथोत्साहं तु समरे निजघ्नुस्तावका रणे ॥ ३१ ॥
मूलम्
शस्त्रैश्च बहुभी राजन् जघ्नतुस्तावकान् रणे।
ते हन्यमानाः समरे तावका भरतर्षभ ॥ ३० ॥
आर्यां युद्धे मतिं कृत्वा न त्यजन्ति स्म संयुगम्।
यथोत्साहं तु समरे निजघ्नुस्तावका रणे ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! उन दोनोंने युद्धमें अनेक प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंद्वारा आपके सैनिकोंका संहार करना आरम्भ किया। भरतश्रेष्ठ! उनके द्वारा समरमें मारे जाते हुए आपके सैनिक युद्धविषयक श्रेष्ठ बुद्धिका सहारा लेकर ही संग्राम छोड़कर भाग नहीं रहे थे। आपके योद्धा भी रणक्षेत्रमें पूर्ण उत्साहके साथ शत्रुओंका संहार करते थे॥३०-३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्राक्रन्दो महानासीत् तावकानां महात्मनाम्।
वध्यतां समरे राजन् पार्षतेन महात्मना ॥ ३२ ॥
मूलम्
तत्राक्रन्दो महानासीत् तावकानां महात्मनाम्।
वध्यतां समरे राजन् पार्षतेन महात्मना ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! महामना धृष्टद्युम्न समरांगणमें जब आपके योद्धाओंका वध कर रहे थे, उस समय उन महामनस्वी वीरोंका आर्तक्रन्दन बड़े जोरसे सुनायी देता था॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं श्रुत्वा निनदं घोरं तावकानां महारथौ।
विन्दानुविन्दावावन्त्यौ पार्षतं प्रत्युपस्थितौ ॥ ३३ ॥
मूलम्
तं श्रुत्वा निनदं घोरं तावकानां महारथौ।
विन्दानुविन्दावावन्त्यौ पार्षतं प्रत्युपस्थितौ ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपके सैनिकोंका वह घोर आर्तनाद सुनकर अवन्तीके राजकुमार विन्द और अनुविन्द धृष्टद्युम्नका सामना करनेके लिये उपस्थित हुए॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तौ तस्य तुरगान् हत्वा त्वरमाणौ महारथौ।
छादयामासतुरुभौ शरवर्षेण पार्षतम् ॥ ३४ ॥
मूलम्
तौ तस्य तुरगान् हत्वा त्वरमाणौ महारथौ।
छादयामासतुरुभौ शरवर्षेण पार्षतम् ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन दोनों महारथियोंने बड़ी उतावलीके साथ धृष्टद्युम्नके घोड़ोंको मारकर उन्हें भी अपने बाणोंकी वर्षासे ढक दिया॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवप्लुत्याथ पाञ्चाल्यो रथात् तूर्णं महाबलः।
आरुरोह रथं तूर्णं सात्यकेस्तु महात्मनः ॥ ३५ ॥
मूलम्
अवप्लुत्याथ पाञ्चाल्यो रथात् तूर्णं महाबलः।
आरुरोह रथं तूर्णं सात्यकेस्तु महात्मनः ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब महाबली धृष्टद्युम्न तुरंत ही अपने रथसे कूदकर महामना सात्यकिके रथपर शीघ्रतापूर्वक चढ़ गये॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो युधिष्ठिरो राजा महत्या सेनया वृतः।
आवन्त्यौ समरे क्रुद्धावभ्ययात् स परंतपौ ॥ ३६ ॥
मूलम्
ततो युधिष्ठिरो राजा महत्या सेनया वृतः।
आवन्त्यौ समरे क्रुद्धावभ्ययात् स परंतपौ ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर विशाल सेनासे घिरे हुए राजा युधिष्ठिरने शत्रुओंको तपानेवाले और क्रोधमें भरे हुए विन्द-अनुविन्दपर आक्रमण किया॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथैव तव पुत्रोऽपि सर्वोद्योगेन मारिष।
विन्दानुविन्दौ समरे परिवार्यावतस्थिवान् ॥ ३७ ॥
मूलम्
तथैव तव पुत्रोऽपि सर्वोद्योगेन मारिष।
विन्दानुविन्दौ समरे परिवार्यावतस्थिवान् ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आर्य! इसी प्रकार आपका पुत्र दुर्योधन भी सम्पूर्ण उद्योगसे समरभूमिमें विन्द और अनुविन्दकी रक्षाके लिये उन्हें सब ओरसे घेरकर खड़ा हो गया॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्जुनश्चापि संक्रुद्धः क्षत्रियान् क्षत्रियर्षभः।
अयोधयत संग्रामे वज्रपाणिरिवासुरान् ॥ ३८ ॥
मूलम्
अर्जुनश्चापि संक्रुद्धः क्षत्रियान् क्षत्रियर्षभः।
अयोधयत संग्रामे वज्रपाणिरिवासुरान् ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्षत्रियशिरोमणि अर्जुन भी अत्यन्त कुपित होकर क्षत्रियोंके साथ संग्रामभूमिमें उसी प्रकार युद्ध करने लगे, जैसे वज्रधारी इन्द्र असुरोंके साथ करते हैं॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रोणस्तु समरे क्रुद्धः पुत्रस्य प्रियकृत् तव।
व्यधमत् सर्वपञ्चालांस्तूलराशिमिवानलः ॥ ३९ ॥
मूलम्
द्रोणस्तु समरे क्रुद्धः पुत्रस्य प्रियकृत् तव।
व्यधमत् सर्वपञ्चालांस्तूलराशिमिवानलः ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपके पुत्रका प्रिय करनेवाले द्रोणाचार्य भी युद्धमें कुपित होकर समस्त पांचालोंका विनाश करने लगे, मानो आग रूईके ढेरको जला रही हो॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुर्योधनपुरोगास्तु पुत्रास्तव विशाम्पते ।
परिवार्य रणे भीष्मं युयुधुः पाण्डवैः सह ॥ ४० ॥
मूलम्
दुर्योधनपुरोगास्तु पुत्रास्तव विशाम्पते ।
परिवार्य रणे भीष्मं युयुधुः पाण्डवैः सह ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजानाथ! आपके दुर्योधन आदि पुत्र रणक्षेत्रमें भीष्मको घेरकर पाण्डवोंके साथ युद्ध करने लगे॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो दुर्योधनो राजा लोहितायति भास्करे।
अब्रवीत् तावकान् सर्वांस्त्वरध्वमिति भारत ॥ ४१ ॥
मूलम्
ततो दुर्योधनो राजा लोहितायति भास्करे।
अब्रवीत् तावकान् सर्वांस्त्वरध्वमिति भारत ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! तदनन्तर जब सूर्यदेवपर संध्याकी लाली छाने लगी, तब राजा दुर्योधनने आपके सभी योद्धाओंसे कहा—जल्दी करो॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
युध्यतां तु तथा तेषां कुर्वतां कर्म दुष्करम्।
अस्तं गिरिमथारूढे अप्रकाशति भास्करे ॥ ४२ ॥
प्रावर्तत नदी घोरा शोणितौघतरङ्गिणी।
गोमायुगणसंकीर्णा क्षणेन क्षणदामुखे ॥ ४३ ॥
मूलम्
युध्यतां तु तथा तेषां कुर्वतां कर्म दुष्करम्।
अस्तं गिरिमथारूढे अप्रकाशति भास्करे ॥ ४२ ॥
प्रावर्तत नदी घोरा शोणितौघतरङ्गिणी।
गोमायुगणसंकीर्णा क्षणेन क्षणदामुखे ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर तो वे सब योद्धा वेगसे युद्ध करते हुए दुष्कर पराक्रम प्रकट करने लगे। उसी समय सूर्य अस्ताचलको चले गये और उनका प्रकाश लुप्त हो गया। इस प्रकार संध्या होते-होते क्षणभरमें रक्तके प्रवाहसे परिपूर्ण भयानक नदी बह चली और उसके तटपर गीदड़ोंकी भीड़ जमा हो गयी॥४२-४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शिवाभिरशिवाभिश्च रुवद्भिर्भैरवं रवम् ।
घोरमायोधनं जज्ञे भूतसंघैः समाकुलम् ॥ ४४ ॥
मूलम्
शिवाभिरशिवाभिश्च रुवद्भिर्भैरवं रवम् ।
घोरमायोधनं जज्ञे भूतसंघैः समाकुलम् ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भैरव रव फैलानेवाली अमंगलमयी सियारिनों तथा भूतगणोंसे व्याप्त होकर वह युद्धका मैदान अत्यन्त भयानक हो गया॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राक्षसाश्च पिशाचाश्च तथान्ये पिशिताशिनः।
समन्ततो व्यदृश्यन्त शतशोऽथ सहस्रशः ॥ ४५ ॥
मूलम्
राक्षसाश्च पिशाचाश्च तथान्ये पिशिताशिनः।
समन्ततो व्यदृश्यन्त शतशोऽथ सहस्रशः ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
चारों ओर राक्षस, पिशाच तथा अन्य मांसाहारी जन्तु सैकड़ों और हजारोंकी संख्यामें दिखायी देने लगे॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्जुनोऽथ सुशर्मादीन् राज्ञस्तान् सपदानुगान्।
विजित्य पृतनामध्ये ययौ स्वशिबिरं प्रति ॥ ४६ ॥
मूलम्
अर्जुनोऽथ सुशर्मादीन् राज्ञस्तान् सपदानुगान्।
विजित्य पृतनामध्ये ययौ स्वशिबिरं प्रति ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर अर्जुन राजा दुर्योधनके पीछे चलनेवाले सुशर्मा आदिको सेनामें पराजित करके अपने शिविरको चले गये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
युधिष्ठिरोऽपि कौरव्यो भ्रातृभ्यां सहितस्तथा।
ययौ स्वशिबिरं राजा निशायां सेनया वृतः ॥ ४७ ॥
मूलम्
युधिष्ठिरोऽपि कौरव्यो भ्रातृभ्यां सहितस्तथा।
ययौ स्वशिबिरं राजा निशायां सेनया वृतः ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तथा सेनासे घिरे हुए कुरुकुलनन्दन राजा युधिष्ठिर भी दोनों भाई नकुल-सहदेवके साथ रातमें अपने शिविरमें पधारे॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भीमसेनोऽपि राजेन्द्र दुर्योधनमुखान् रथान्।
अवजित्य ततः संख्ये ययौ स्वशिबिरं प्रति ॥ ४८ ॥
मूलम्
भीमसेनोऽपि राजेन्द्र दुर्योधनमुखान् रथान्।
अवजित्य ततः संख्ये ययौ स्वशिबिरं प्रति ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! तब भीमसेन भी दुर्योधन आदि रथियोंको युद्धमें जीतकर अपने शिविरको लौट गये॥४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुर्योधनोऽपि नृपतिः परिवार्य महारणे।
भीष्मं शान्तनवं तूर्णं प्रयातः शिबिरं प्रति ॥ ४९ ॥
मूलम्
दुर्योधनोऽपि नृपतिः परिवार्य महारणे।
भीष्मं शान्तनवं तूर्णं प्रयातः शिबिरं प्रति ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा दुर्योधन भी महायुद्धमें शान्तनुनन्दन भीष्मको घेरकर तुरंत ही अपने शिविरको लौट गया॥४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दोणो द्रौणिः कृपः शल्यः कृतवर्मा च सात्वतः।
परिवार्य चमूं सर्वां प्रययुः शिबिरं प्रति ॥ ५० ॥
मूलम्
दोणो द्रौणिः कृपः शल्यः कृतवर्मा च सात्वतः।
परिवार्य चमूं सर्वां प्रययुः शिबिरं प्रति ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्रोणाचार्य, अश्वत्थामा, कृपाचार्य, शल्य तथा यदुवंशी कृतवर्मा—ये सारी सेनाको घेरकर अपने शिविरकी ओर चल दिये॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथैव सात्यकी राजन् धृष्टद्युम्नश्च पार्षतः।
परिवार्य रणे योधान् ययतुः शिबिरं प्रति ॥ ५१ ॥
मूलम्
तथैव सात्यकी राजन् धृष्टद्युम्नश्च पार्षतः।
परिवार्य रणे योधान् ययतुः शिबिरं प्रति ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! इसी प्रकार सात्यकि और द्रुपदकुमार धृष्टद्युम्न भी युद्धमें अपने योद्धाओंको घेरकर शिविरकी ओर प्रस्थित हुए॥५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमेते महाराज तावकाः पाण्डवैः सह।
पर्यवर्तन्त सहिता निशाकाले परंतप ॥ ५२ ॥
मूलम्
एवमेते महाराज तावकाः पाण्डवैः सह।
पर्यवर्तन्त सहिता निशाकाले परंतप ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुओंको संताप देनेवाले महाराज! इस प्रकार रातके समय आपके योद्धा पाण्डवोंके साथ अपने-अपने शिविरमें लौट आये॥५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः स्वशिबिरं गत्वा पाण्डवाः कुरवस्तथा।
न्यवसन्त महाराज पूजयन्तः परस्परम् ॥ ५३ ॥
मूलम्
ततः स्वशिबिरं गत्वा पाण्डवाः कुरवस्तथा।
न्यवसन्त महाराज पूजयन्तः परस्परम् ॥ ५३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! तत्पश्चात् पाण्डव तथा कौरव अपने शिविरमें जाकर आपसमें एक-दूसरेकी प्रशंसा करते हुए विश्राम करने लगे॥५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रक्षां कृत्वा ततः शूरान्यस्य गुल्मान् यथाविधि।
अपनीय च शल्यानि स्नात्वा च विविधैर्जलैः ॥ ५४ ॥
कृतस्वस्त्ययनाः सर्वे संस्तूयन्तश्च वन्दिभिः।
गीतवादित्रशब्देन व्यक्रीडन्त यशस्विनः ॥ ५५ ॥
मूलम्
रक्षां कृत्वा ततः शूरान्यस्य गुल्मान् यथाविधि।
अपनीय च शल्यानि स्नात्वा च विविधैर्जलैः ॥ ५४ ॥
कृतस्वस्त्ययनाः सर्वे संस्तूयन्तश्च वन्दिभिः।
गीतवादित्रशब्देन व्यक्रीडन्त यशस्विनः ॥ ५५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर उभय पक्षके शूरवीरोंने सब ओर सैनिक गुल्मोंको1 नियुक्त करके विधिपूर्वक अपने-अपने शिविरोंकी रक्षाकी व्यवस्था की। फिर अपने शरीरसे बाणोंको निकालकर भाँति-भाँतिके जलसे स्नान करके स्वस्तिवाचन करानेके अनन्तर बन्दीजनोंके मुखसे अपनी स्तुति सुनते हुए वे सभी यशस्वी वीर गीत और वाद्योंके शब्दोंसे क्रीड़ा-विनोद करने लगे॥५४-५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुहूर्तादिव तत् सर्वमभवत् स्वर्गसंनिभम्।
न हि युद्धकथां कांचित् तत्राकुर्वन् महारथाः ॥ ५६ ॥
मूलम्
मुहूर्तादिव तत् सर्वमभवत् स्वर्गसंनिभम्।
न हि युद्धकथां कांचित् तत्राकुर्वन् महारथाः ॥ ५६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दो घड़ीतक वहाँका सब कुछ स्वर्गसदृश जान पड़ा। उस समय वहाँ महारथियोंने युद्धकी कोई बातचीत नहीं की॥५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते प्रसुप्ते बले तत्र परिश्रान्तजने नृप।
हस्त्यश्वबहुले रात्रौ प्रेक्षणीये बभूवतुः ॥ ५७ ॥
मूलम्
ते प्रसुप्ते बले तत्र परिश्रान्तजने नृप।
हस्त्यश्वबहुले रात्रौ प्रेक्षणीये बभूवतुः ॥ ५७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! जिनमें हाथी और घोड़ोंकी अधिकता थी, उन दोनों पक्षकी सेनाओंमें सब लोग परिश्रमसे चूर-चूर हो रहे थे। रातके समय जब दोनों सेनाएँ सो गयीं, उस समय वे देखनेयोग्य हो गयीं॥५७॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते भीष्मपर्वणि भीष्मवधपर्वणि सप्तमदिवसयुद्धावहारे षडशीतितमोऽध्यायः ॥ ८६ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्वके अन्तर्गत भीष्मवधपर्वमें सातवें दिनके युद्धका विरामविषयक छियासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥८६॥
सूचना (हिन्दी)
[दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल ५८ श्लोक हैं।]
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गुल्मका अर्थ है—प्रधान पुरुषोंसे युक्त रक्षकदल, जिसमें ९ हाथी, ९ रथ, २७ घुड़सवार और ४५ पैदल सैनिक होते हैं। ↩︎