०८२ द्वैरथे

भागसूचना

द्व्यशीतितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

श्रीकृष्ण और अर्जुनसे डरकर कौरवसेनामें भगदड़, द्रोणाचार्य और विराटका युद्ध, विराटपुत्र शंखका वध, शिखण्डी और अश्वत्थामाका युद्ध, सात्यकिके द्वारा अलम्बुषकी पराजय, धृष्टद्युम्नके द्वारा दुर्योधनकी हार तथा भीमसेन और कृतवर्माका युद्ध

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा प्रवृत्ते संग्रामे निवृत्ते च सुशर्मणि।
भग्नेषु चापि वीरेषु पाण्डवेन महात्मना ॥ १ ॥

मूलम्

तथा प्रवृत्ते संग्रामे निवृत्ते च सुशर्मणि।
भग्नेषु चापि वीरेषु पाण्डवेन महात्मना ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— राजन्! इस प्रकार संग्राम आरम्भ होनेपर महामना पाण्डुनन्दन अर्जुनसे पराजित हो सुशर्मा युद्धभूमिसे दूर हो गया और अन्यान्य वीर भी भाग खड़े हुए॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षुभ्यमाणे बले तूर्णं सागरप्रतिमे तव।
प्रत्युद्याते च गाङ्गेये त्वरितं विजयं प्रति ॥ २ ॥

मूलम्

क्षुभ्यमाणे बले तूर्णं सागरप्रतिमे तव।
प्रत्युद्याते च गाङ्गेये त्वरितं विजयं प्रति ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपकी समुद्र-जैसी विशाल वाहिनीमें तुरंत ही हलचल मच गयी। उस समय गंगानन्दन भीष्मने शीघ्रतापूर्वक अर्जुनपर आक्रमण किया॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्ट्‌वा दुर्योधनो राजा रणे पार्थस्य विक्रमम्।
त्वरमाणः समभ्येत्य सर्वांस्तानब्रवीन्नृपान् ॥ ३ ॥

मूलम्

दृष्ट्‌वा दुर्योधनो राजा रणे पार्थस्य विक्रमम्।
त्वरमाणः समभ्येत्य सर्वांस्तानब्रवीन्नृपान् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा दुर्योधनने रणभूमिमें अर्जुनका पराक्रम देखकर बड़ी उतावलीके साथ निकट जा उन समस्त नरेशोंसे कहा॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषां तु प्रमुखे शूंर सुशर्माणं महाबलम्।
मध्ये सर्वस्य सैन्यस्य भृशं संहर्षयन्निव ॥ ४ ॥

मूलम्

तेषां तु प्रमुखे शूंर सुशर्माणं महाबलम्।
मध्ये सर्वस्य सैन्यस्य भृशं संहर्षयन्निव ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन नरेशोंके सम्मुख सारी सेनाके बीचमें शूरवीर महाबली सुशर्माको अत्यन्त हर्ष प्रदान करता हुआ-सा दुर्योधन यों बोला—॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष भीष्मः शान्तनवो योद्‌धुकामो धनंजयम्।
सर्वात्मना कुरुश्रेष्ठस्त्यक्त्वा जीवितमात्मनः ॥ ५ ॥

मूलम्

एष भीष्मः शान्तनवो योद्‌धुकामो धनंजयम्।
सर्वात्मना कुरुश्रेष्ठस्त्यक्त्वा जीवितमात्मनः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वीरो! ये शान्तनुनन्दन कुरुश्रेष्ठ भीष्म अपना जीवन निछावर करके सम्पूर्ण हृदयसे अर्जुनके साथ युद्ध करना चाहते हैं॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं प्रयान्तं रणे वीरं सर्वसैन्येन भारतम्।
संयत्ताः समरे सर्वे पालयध्वं पितामहम् ॥ ६ ॥

मूलम्

तं प्रयान्तं रणे वीरं सर्वसैन्येन भारतम्।
संयत्ताः समरे सर्वे पालयध्वं पितामहम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सारी सेनाके साथ युद्धके लिये यात्रा करते हुए मेरे वीर पितामह भरतनन्दन भीष्मकी आप सब लोग प्रयत्नपूर्वक रक्षा करें’॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाढमित्येवमुक्त्वा तु तान्यनीकानि सर्वशः।
नरेन्द्राणां महाराज समाजग्मुः पितामहम् ॥ ७ ॥

मूलम्

बाढमित्येवमुक्त्वा तु तान्यनीकानि सर्वशः।
नरेन्द्राणां महाराज समाजग्मुः पितामहम् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! ‘बहुत अच्छा’ कहकर राजाओंकी वे सम्पूर्ण सेनाएँ पितामह भीष्मके पास गयीं॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्रयातः सहसा भीष्मः शान्तनवोऽर्जुनम्।
रणे भारतमायान्तमाससाद महाबलः ॥ ८ ॥

मूलम्

ततः प्रयातः सहसा भीष्मः शान्तनवोऽर्जुनम्।
रणे भारतमायान्तमाससाद महाबलः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर शान्तनुनन्दन भीष्म युद्धभूमिमें सहसा अर्जुनके सामने गये। भरतवंशी भीष्मको आते देख महाबली अर्जुन उनके पास जा पहुँचे॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महाश्वेताश्वयुक्तेन भीमवानरकेतुना ।
महता मेघनादेन रथेनातिविराजता ॥ ९ ॥

मूलम्

महाश्वेताश्वयुक्तेन भीमवानरकेतुना ।
महता मेघनादेन रथेनातिविराजता ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे जिस रथपर आरूढ़ होकर आये थे, वह अत्यन्त शोभायमान था। उसमें श्वेतवर्णके विशाल घोड़े जुते हुए थे। उसपर भयंकर वानरसे उपलक्षित ध्वजा फहरा रही थी और उसके पहियोंसे मेघके समान गम्भीर शब्द हो रहा था॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समरे सर्वसैन्यानामुपयान्तं धनंजयम् ।
अभवत्‌ तुमुलो नादो भयाद्‌ दृष्ट्‌वा किरीटिनम् ॥ १० ॥

मूलम्

समरे सर्वसैन्यानामुपयान्तं धनंजयम् ।
अभवत्‌ तुमुलो नादो भयाद्‌ दृष्ट्‌वा किरीटिनम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

किरीटधारी अर्जुनको युद्धमें समीप आते देख भयके मारे समस्त सैनिकोंके मुँहसे भयानक हाहाकार प्रकट होने लगा॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभीषुहस्तं कृष्णं च दृष्ट्‌वाऽऽदित्यमिवापरम्।
मध्यन्दिनगतं संख्ये न शेकुः प्रतिवीक्षितुम् ॥ ११ ॥

मूलम्

अभीषुहस्तं कृष्णं च दृष्ट्‌वाऽऽदित्यमिवापरम्।
मध्यन्दिनगतं संख्ये न शेकुः प्रतिवीक्षितुम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हाथमें बागडोर लिये मध्याह्नकालके दूसरे सूर्यके समान तेजस्वी श्रीकृष्णको युद्धभूमिमें उपस्थित देख कोई भी योद्धा उन्हें भर आँख देख भी न सके॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा शान्तनवं भीष्मं श्वेताश्वं श्वेतकार्मुकम्।
न शेकुः पाण्डवा द्रष्टुं श्वेतं ग्रहमिवोदितम् ॥ १२ ॥

मूलम्

तथा शान्तनवं भीष्मं श्वेताश्वं श्वेतकार्मुकम्।
न शेकुः पाण्डवा द्रष्टुं श्वेतं ग्रहमिवोदितम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार श्वेत घोड़े तथा श्वेत धनुषवाले शान्तनुनन्दन भीष्मको श्वेत ग्रहके समान उदित देख पाण्डवसैनिक उनसे आँख न मिला सके॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स सर्वतः परिवृतस्त्रिगर्तैः सुमहात्मभिः।
भ्रातृभिः सह पुत्रैश्च तथान्यैश्च महारथैः ॥ १३ ॥

मूलम्

स सर्वतः परिवृतस्त्रिगर्तैः सुमहात्मभिः।
भ्रातृभिः सह पुत्रैश्च तथान्यैश्च महारथैः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महामना त्रिगर्तोंने अपने भाइयों, पुत्रों तथा अन्य महारथियोंके साथ उपस्थित होकर भीष्मको सब ओरसे घेर रखा था॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भारद्वाजस्तु समरे मत्स्यं विव्याध पत्रिणा।
ध्वजं चास्य शरेणाजौ धनुश्चैकेन चिच्छिदे ॥ १४ ॥

मूलम्

भारद्वाजस्तु समरे मत्स्यं विव्याध पत्रिणा।
ध्वजं चास्य शरेणाजौ धनुश्चैकेन चिच्छिदे ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दूसरी ओर द्रोणाचार्यने मत्स्यराज विराटको युद्धमें एक बाणसे बींध डाला तथा एक बाणसे उनका ध्वज और एकसे धनुष काट डाला॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदपास्य धनुश्छिन्नं विराटो वाहिनीपतिः।
अन्यदादत्त वेगेन धनुर्भारसहं दृढम् ॥ १५ ॥

मूलम्

तदपास्य धनुश्छिन्नं विराटो वाहिनीपतिः।
अन्यदादत्त वेगेन धनुर्भारसहं दृढम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सेनापति विराटने वह कटा हुआ धनुष फेंककर वेगपूर्वक दूसरे सुदृढ़ धनुषको हाथमें लिया, जो भार सहन करनेमें समर्थ था॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शरांश्चाशीविषाकाराञ्ज्वलितान् पन्नगानिव ।
द्रोणं त्रिभिश्च विव्याध चतुर्भिश्चास्य वाजिनः ॥ १६ ॥

मूलम्

शरांश्चाशीविषाकाराञ्ज्वलितान् पन्नगानिव ।
द्रोणं त्रिभिश्च विव्याध चतुर्भिश्चास्य वाजिनः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने उसके द्वारा प्रज्वलित सर्पोंकी भाँति विषैले नागोंकी-सी आकृतिवाले बाण छोड़कर तीनसे द्रोणाचार्यको और चार बाणोंसे उनके घोड़ोंको बींध डाला॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ध्वजमेकेन विव्याध सारथिं चास्य पञ्चभिः।
धनुरेकेषुणाविध्यत् तत्राक्रुध्यद् द्विजर्षभः ॥ १७ ॥

मूलम्

ध्वजमेकेन विव्याध सारथिं चास्य पञ्चभिः।
धनुरेकेषुणाविध्यत् तत्राक्रुध्यद् द्विजर्षभः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर एक बाणसे ध्वजको, पाँच बाणोंसे सारथिको और एकसे धनुषको बींध डाला। इससे द्विजश्रेष्ठ द्रोणाचार्यको बड़ा क्रोध हुआ॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य द्रोणोऽवधीदश्वान् शरैः संनतपर्वभिः।
अष्टाभिर्भरतश्रेष्ठ सूतमेकेन पत्रिणा ॥ १८ ॥

मूलम्

तस्य द्रोणोऽवधीदश्वान् शरैः संनतपर्वभिः।
अष्टाभिर्भरतश्रेष्ठ सूतमेकेन पत्रिणा ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! फिर द्रोणने झुकी हुई गाँठवाले आठ बाणोंद्वारा विराटके घोड़ोंको और एक बाणसे सारथिको मार डाला॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स हताश्वादवप्लुत्य स्यन्दनाद्धतसारथिः ।
आरुरोह रथं तूर्णं पुत्रस्य रथिनां वरः ॥ १९ ॥

मूलम्

स हताश्वादवप्लुत्य स्यन्दनाद्धतसारथिः ।
आरुरोह रथं तूर्णं पुत्रस्य रथिनां वरः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सारथि और घोड़ोंके मारे जानेपर रथियोंमें श्रेष्ठ विराट अपने रथसे तुरंत कूद पड़े और पुत्रके रथपर आरूढ़ हो गये॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तु तौ पितापुत्रौ भारद्वाजं रथे स्थितौ।
महता शरवर्षेण वारयामासतुर्बलात् ॥ २० ॥

मूलम्

ततस्तु तौ पितापुत्रौ भारद्वाजं रथे स्थितौ।
महता शरवर्षेण वारयामासतुर्बलात् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब उन दोनों पिता-पुत्रोंने एक ही रथपर बैठकर महान् बाणवर्षाके द्वारा द्रोणाचार्यको बलपूर्वक आगे बढ़नेसे रोक दिया॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भारद्वाजस्ततः क्रुद्धः शरमाशीविषोपमम् ।
चिक्षेप समरे तूर्णं शङ्गं प्रति जनेश्वर ॥ २१ ॥

मूलम्

भारद्वाजस्ततः क्रुद्धः शरमाशीविषोपमम् ।
चिक्षेप समरे तूर्णं शङ्गं प्रति जनेश्वर ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनेश्वर! तब द्रोणाचार्यने कुपित होकर युद्धभूमिमें विषधर सर्पके समान एक भयंकर बाण शंखपर शीघ्रतापूर्वक चलाया॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तस्य हृदयं भित्त्वा पीत्वा शोणितमाहवे।
जगाम धरणीं बाणो लोहितार्द्रवरच्छदः ॥ २२ ॥

मूलम्

स तस्य हृदयं भित्त्वा पीत्वा शोणितमाहवे।
जगाम धरणीं बाणो लोहितार्द्रवरच्छदः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह बाण शंखकी छाती छेदकर रणभूमिमें उसका रक्त पीकर धरतीमें समा गया। उसके श्रेष्ठ पंख लोहूमें भीगकर लाल हो रहे थे॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स पपात रणे तूर्णं भारद्वाजशराहतः।
धनुस्त्यक्त्वा शरांश्चैव पितुरेव समीपतः ॥ २३ ॥

मूलम्

स पपात रणे तूर्णं भारद्वाजशराहतः।
धनुस्त्यक्त्वा शरांश्चैव पितुरेव समीपतः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्रोणाचार्यके बाणोंसे घायल होकर शंख पिताके पास ही धनुष-बाण छोड़कर तुरंत ही रणभूमिमें गिर पड़ा॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हतं तमात्मजं दृष्ट्‌वा विराटः प्राद्रवद् भयात्।
उत्सृज्य समरे द्रोणं व्यात्ताननमिवान्तकम् ॥ २४ ॥

मूलम्

हतं तमात्मजं दृष्ट्‌वा विराटः प्राद्रवद् भयात्।
उत्सृज्य समरे द्रोणं व्यात्ताननमिवान्तकम् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपने पुत्रको मारा गया देख मुँह बाये हुए कालके समान भयंकर द्रोणाचार्यको समरभूमिमें छोड़कर विराट भयके मारे भाग गये॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भारद्वाजस्ततस्तूर्णं पाण्डवानां महाचमूम् ।
दारयामास समरे शतशोऽथ सहस्रशः ॥ २५ ॥

मूलम्

भारद्वाजस्ततस्तूर्णं पाण्डवानां महाचमूम् ।
दारयामास समरे शतशोऽथ सहस्रशः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब द्रोणाचार्यने संग्रामभूमिमें तुरंत ही पाण्डवोंकी विशाल वाहिनीको विदीर्ण करना आरम्भ किया। सैकड़ों-हजारों योद्धा धराशायी हो गये॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शिखण्डी तु महाराज द्रौणिमासाद्य संयुगे।
आजघान भ्रुवोर्मध्ये नाराचैस्त्रिभिराशुगैः ॥ २६ ॥

मूलम्

शिखण्डी तु महाराज द्रौणिमासाद्य संयुगे।
आजघान भ्रुवोर्मध्ये नाराचैस्त्रिभिराशुगैः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! दूसरी ओर शिखण्डीने युद्धभूमिमें अश्वत्थामाके पास पहुँचकर तीन शीघ्रगामी नाराचोंद्वारा उसके भौंहोंके मध्यभागमें आघात किया॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स बभौ रथशार्दूलो ललाटे संस्थितैस्त्रिभिः।
शिखरैः काञ्चनमयैर्मेरुस्त्रिभिरिवोच्छ्रितैः ॥ २७ ॥

मूलम्

स बभौ रथशार्दूलो ललाटे संस्थितैस्त्रिभिः।
शिखरैः काञ्चनमयैर्मेरुस्त्रिभिरिवोच्छ्रितैः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रथियोंमें श्रेष्ठ अश्वत्थामा ललाटमें लगे हुए उन तीनों बाणोंके द्वारा तीन ऊँचे सुवर्णमय शिखरोंसे युक्त मेरुपर्वतके समान शोभा पाने लगा॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अश्वत्थामा ततः क्रुद्धो निमेषार्धाच्छिखण्डिनः।
ध्वजं सूतमथो राजंस्तुरगानायुधानि च ॥ २८ ॥
शरैर्बहुभिराच्छिद्य पातयामास संयुगे ।

मूलम्

अश्वत्थामा ततः क्रुद्धो निमेषार्धाच्छिखण्डिनः।
ध्वजं सूतमथो राजंस्तुरगानायुधानि च ॥ २८ ॥
शरैर्बहुभिराच्छिद्य पातयामास संयुगे ।

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! तदनन्तर क्रोधमें भरे अश्वत्थामाने आधे निमेषमें बहुत-से बाणोंद्वारा शिखण्डीके ध्वज, सारथि, घोड़ों और आयुधोंको रणभूमिमें काट गिराया॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स हताश्वादवप्लुत्य रथाद् वै रथिनां वरः ॥ २९ ॥
खड्‌गमादाय सुशितं विमलं च शरावरम्।
श्येनवद् व्यचरत् क्रुद्धः शिखण्डी शत्रुतापनः ॥ ३० ॥

मूलम्

स हताश्वादवप्लुत्य रथाद् वै रथिनां वरः ॥ २९ ॥
खड्‌गमादाय सुशितं विमलं च शरावरम्।
श्येनवद् व्यचरत् क्रुद्धः शिखण्डी शत्रुतापनः ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रथियोंमें श्रेष्ठ शत्रुसंतापी शिखण्डी घोड़ोंके मारे जानेपर उस रथसे कूद पड़ा और बहुत तीखी एवं चमकीली तलवार और ढाल हाथमें लेकर कुपित हुए श्येन पक्षीकी भाँति सब ओर विचरने लगा॥२९-३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सखड्‌गस्य महाराज चरतस्तस्य संयुगे।
नान्तरं ददृशे द्रौणिस्तदद्भुतमिवाभवत् ॥ ३१ ॥

मूलम्

सखड्‌गस्य महाराज चरतस्तस्य संयुगे।
नान्तरं ददृशे द्रौणिस्तदद्भुतमिवाभवत् ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! तलवार लेकर युद्धमें विचरते हुए शिखण्डीका थोड़ा-सा भी छिद्र अश्वत्थामाको नहीं दिखायी दिया। वह एक अद्भुत-सी बात हुई॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः शरसहस्राणि बहूनि भरतर्षभ।
प्रेषयामास समरे द्रौणिः परमकोपनः ॥ ३२ ॥

मूलम्

ततः शरसहस्राणि बहूनि भरतर्षभ।
प्रेषयामास समरे द्रौणिः परमकोपनः ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! तब परम क्रोधी अश्वत्थामाने समरभूमिमें शिखण्डीपर कई हजार बाणोंकी वर्षा की॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तामापतन्तीं समरे शरवृष्टिं सुदारुणाम्।
असिना तीक्ष्णधारेण चिच्छेद बलिनां वरः ॥ ३३ ॥

मूलम्

तामापतन्तीं समरे शरवृष्टिं सुदारुणाम्।
असिना तीक्ष्णधारेण चिच्छेद बलिनां वरः ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बलवानोंमें श्रेष्ठ शिखण्डीने समरभूमिमें होनेवाली उस अत्यन्त भयंकर बाणवर्षाको तीखी धारवाली तलवारसे काट डाला॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽस्य विमलं द्रौणिः शतचन्द्रं मनोरमम्।
चर्माच्छिनदसिं चास्य खण्डयामास संयुगे ॥ ३४ ॥

मूलम्

ततोऽस्य विमलं द्रौणिः शतचन्द्रं मनोरमम्।
चर्माच्छिनदसिं चास्य खण्डयामास संयुगे ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब अश्वत्थामाने सौ चन्द्राकार चिह्नोंसे सुशोभित शिखण्डीकी परम सुन्दर ढाल और चमकीली तलवारको युद्धस्थलमें टूक-टूक कर दिया॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शितैस्तु बहुशो राजंस्तं च विव्याध पत्त्रिभिः।
शिखण्डी तु ततः खड्‌गं खण्डितं तेन सायकैः ॥ ३५ ॥
आविध्य व्यसृजत् तूर्णं ज्वलन्तमिव पन्नगम्।
तमापतन्तं सहसा कालानलसमप्रभम् ॥ ३६ ॥
चिच्छेद समरे द्रौणिर्दर्शयन् पाणिलाघवम्।
शिखण्डिनं च विव्याध शरैर्बहुभिरायसैः ॥ ३७ ॥

मूलम्

शितैस्तु बहुशो राजंस्तं च विव्याध पत्त्रिभिः।
शिखण्डी तु ततः खड्‌गं खण्डितं तेन सायकैः ॥ ३५ ॥
आविध्य व्यसृजत् तूर्णं ज्वलन्तमिव पन्नगम्।
तमापतन्तं सहसा कालानलसमप्रभम् ॥ ३६ ॥
चिच्छेद समरे द्रौणिर्दर्शयन् पाणिलाघवम्।
शिखण्डिनं च विव्याध शरैर्बहुभिरायसैः ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! तत्पश्चात् पंखयुक्त तीखे बाणोंद्वारा शिखण्डीको भी बहुत घायल कर दिया। अश्वत्थामाद्वारा सायकोंकी मारसे खण्डित किये हुए उस खड्‌गको शिखण्डीने घुमाकर तुरंत ही उसके ऊपर चला दिया। वह खड्‌ग प्रज्वलित सर्प-सा प्रकाशित हो उठा। अपने ऊपर आते हुए प्रलयकालकी अग्निके समान तेजस्वी उस खड्‌गको अश्वत्थामाने युद्धमें अपना हस्त-लाघव दिखाते हुए सहसा काट डाला। तत्पश्चात् बहुत-से लोहमय बाणोंद्वारा उसने शिखण्डीको भी घायल कर दिया॥३५—३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शिखण्डी तु भृशं राजंस्ताड्यमानः शितैः शरैः।
आरुरोह रथं तूर्णं माधवस्य महात्मनः ॥ ३८ ॥

मूलम्

शिखण्डी तु भृशं राजंस्ताड्यमानः शितैः शरैः।
आरुरोह रथं तूर्णं माधवस्य महात्मनः ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! अश्वत्थामाके तीखे बाणोंसे अत्यन्त घायल होकर शिखण्डी तुरंत ही महामना सात्यकिके रथपर चढ़ गया॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सात्यकिश्चापि संक्रुद्धो राक्षसं क्रूरमाहवे।
अलम्बुषं शरैस्तीक्ष्णैर्विव्याध बलिनां वरः ॥ ३९ ॥

मूलम्

सात्यकिश्चापि संक्रुद्धो राक्षसं क्रूरमाहवे।
अलम्बुषं शरैस्तीक्ष्णैर्विव्याध बलिनां वरः ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इधर बलवानोंमें श्रेष्ठ सात्यकिने भी अत्यन्त कुपित होकर अपने तीखे बाणोंद्वारा संग्रामभूमिमें क्रूर राक्षस अलम्बुषको बींध डाला॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राक्षसेन्द्रस्ततस्तस्य धनुश्चिच्छेद भारत ।
अर्धचन्द्रेण समरे तं च विव्याध सायकैः ॥ ४० ॥

मूलम्

राक्षसेन्द्रस्ततस्तस्य धनुश्चिच्छेद भारत ।
अर्धचन्द्रेण समरे तं च विव्याध सायकैः ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! तब राक्षसराज अलम्बुषने रणक्षेत्रमें अर्धचन्द्राकार बाणके द्वारा सात्यकिके धनुषको काट दिया और अनेक सायकोंका प्रहार करके उन्हें भी घायल कर दिया॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मायां च राक्षसीं कृत्वा शरवर्षैरवाकिरत्।
तत्राद्भुतमपश्याम शैनेयस्य पराक्रमम् ॥ ४१ ॥

मूलम्

मायां च राक्षसीं कृत्वा शरवर्षैरवाकिरत्।
तत्राद्भुतमपश्याम शैनेयस्य पराक्रमम् ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् उसने राक्षसी माया फैलाकर उनके ऊपर बाणोंकी वर्षा आरम्भ की। उस समय हमने सात्यकिका अद्भुत पराक्रम देखा॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असम्भ्रमस्तु समरे वध्यमानः शितैः शरैः।
ऐन्द्रमस्त्रं च वार्ष्णेयो योजयामास भारत ॥ ४२ ॥
विजयाद् यदनुप्राप्तं माधवेन यशस्विना।

मूलम्

असम्भ्रमस्तु समरे वध्यमानः शितैः शरैः।
ऐन्द्रमस्त्रं च वार्ष्णेयो योजयामास भारत ॥ ४२ ॥
विजयाद् यदनुप्राप्तं माधवेन यशस्विना।

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! वे समरभूमिमें तीखे बाणोंसे पीड़ित होनेपर भी घबराये नहीं। उन यशस्वी यदुकुलरत्न सात्यकिने अर्जुनसे जिसकी शिक्षा प्राप्त की थी, उस ऐन्द्रास्त्रका प्रयोग किया॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदस्त्रं भस्मसात् कृत्वा मायां तां राक्षसीं तदा ॥ ४३ ॥
अलम्बुषं शरैरन्यैरभ्याकिरत सर्वतः ।
पर्वतं वारिधाराभिः प्रावृषीव बलाहकः ॥ ४४ ॥

मूलम्

तदस्त्रं भस्मसात् कृत्वा मायां तां राक्षसीं तदा ॥ ४३ ॥
अलम्बुषं शरैरन्यैरभ्याकिरत सर्वतः ।
पर्वतं वारिधाराभिः प्रावृषीव बलाहकः ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय उस दिव्यास्त्रने उस राक्षसी मायाको तत्काल भस्म करके अलम्बुषके ऊपर सब ओरसे दूसरे-दूसरे बाणोंकी उसी प्रकार वर्षा आरम्भ की, जैसे वर्षा-ऋतुमें मेघ पर्वतपर जलकी धाराएँ गिराता है॥४३-४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत् तथा पीडितं तेन माधवेन यशस्विना।
प्रदुद्राव भयाद् रक्षस्त्यक्त्वा सात्यकिमाहवे ॥ ४५ ॥

मूलम्

तत् तथा पीडितं तेन माधवेन यशस्विना।
प्रदुद्राव भयाद् रक्षस्त्यक्त्वा सात्यकिमाहवे ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परमयशस्वी मधुवंशी सात्यकिके द्वारा इस प्रकार पीड़ित होनेपर वह राक्षस भयसे युद्धस्थलमें उन्हें छोड़कर भाग गया॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमजेयं राक्षसेन्द्रं संख्ये मघवता अपि।
शैनेयः प्राणदज्जित्वा योधानां तव पश्यताम् ॥ ४६ ॥

मूलम्

तमजेयं राक्षसेन्द्रं संख्ये मघवता अपि।
शैनेयः प्राणदज्जित्वा योधानां तव पश्यताम् ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसे इन्द्र भी युद्धमें हरा नहीं सकते थे, उसी राक्षसराज अलम्बुषको आपके योद्धाओंके देखते-देखते परास्त करके सात्यकि सिंहनाद करने लगे॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न्यहनत् तावकांश्चापि सात्यकिः सत्यविक्रमः।
निशितैर्बहुभिर्बाणैस्तेऽद्रवन्त भयार्दिताः ॥ ४७ ॥

मूलम्

न्यहनत् तावकांश्चापि सात्यकिः सत्यविक्रमः।
निशितैर्बहुभिर्बाणैस्तेऽद्रवन्त भयार्दिताः ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् सत्यपराक्रमी सात्यकिने अपने बहुसंख्यक तीखे बाणोंद्वारा आपके अन्य योद्धाओंको भी मारना आरम्भ किया। उस समय उनके भयसे पीड़ित हो वे सब योद्धा भागने लगे॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतस्मिन्नेव काले तु द्रुपदस्यात्मजो बली।
धृष्टद्युम्नो महाराज पुत्रं तव जनेश्वरम् ॥ ४८ ॥
छादयामास समरे शरैः संनतपर्वभिः।

मूलम्

एतस्मिन्नेव काले तु द्रुपदस्यात्मजो बली।
धृष्टद्युम्नो महाराज पुत्रं तव जनेश्वरम् ॥ ४८ ॥
छादयामास समरे शरैः संनतपर्वभिः।

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! इसी समय द्रुपदके बलवान् पुत्र धृष्टद्युम्नने आपके पुत्र राजा दुर्योधनको रणक्षेत्रमें झुकी हुई गाँठवाले बाणोंसे आच्छादित कर दिया॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स च्छाद्यमानो विशिखैर्धृद्युम्नेन भारत ॥ ४९ ॥
विव्यथे न च राजेन्द्र तव पुत्रो जनेश्वर।
धृष्टद्युम्नं च समरे तूर्णं विव्याध पत्रिभिः ॥ ५० ॥
षष्ट्या च त्रिंशता चैव तदद्भुतमिवाभवत्।

मूलम्

स च्छाद्यमानो विशिखैर्धृद्युम्नेन भारत ॥ ४९ ॥
विव्यथे न च राजेन्द्र तव पुत्रो जनेश्वर।
धृष्टद्युम्नं च समरे तूर्णं विव्याध पत्रिभिः ॥ ५० ॥
षष्ट्या च त्रिंशता चैव तदद्भुतमिवाभवत्।

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! राजेन्द्र! जनेश्वर! धृष्टद्युम्नके बाणोंसे आच्छादित होनेपर भी आपके पुत्र दुर्योधनके मनमें व्यथा नहीं हुई। उसने युद्धस्थलमें धृष्टद्युम्नको तुरंत ही नब्बे बाणोंसे घायल कर दिया। वह एक अद्भुत-सी बात थी॥४९-५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य सेनापतिः क्रुद्धो धनुश्चिच्छेद मारिष ॥ ५१ ॥
हयांश्च चतुरः शीघ्रं निजघान महाबलः।
शरैश्चैनं सुनिशितैः क्षिप्रं विव्याध सप्तभिः ॥ ५२ ॥

मूलम्

तस्य सेनापतिः क्रुद्धो धनुश्चिच्छेद मारिष ॥ ५१ ॥
हयांश्च चतुरः शीघ्रं निजघान महाबलः।
शरैश्चैनं सुनिशितैः क्षिप्रं विव्याध सप्तभिः ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आर्य! तब महाबली पाण्डवसेनापतिने भी कुपित होकर दुर्योधनके धनुषको काट दिया और शीघ्रतापूर्वक उसके चारों घोड़ोंको भी मार डाला। तत्पश्चात् अत्यन्त तीखे सात बाणोंद्वारा तुरंत ही दुर्योधनको घायल कर दिया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स हताश्वान्महाबाहुरवप्लुत्य रथाद् बली।
पदातिरसिमुद्यम्य प्राद्रवत् पार्षतं प्रति ॥ ५३ ॥

मूलम्

स हताश्वान्महाबाहुरवप्लुत्य रथाद् बली।
पदातिरसिमुद्यम्य प्राद्रवत् पार्षतं प्रति ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

घोड़े मारे जानेपर बलवान् महाबाहु दुर्योधन अपने रथसे कूद पड़ा और तलवार उठाकर धृष्टद्युम्नकी ओर पैदल ही दौड़ा॥५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शकुनिस्तं समभ्येत्य राजगृद्धी महाबलः।
राजानं सर्वलोकस्य रथमारोपयत् स्वकम् ॥ ५४ ॥

मूलम्

शकुनिस्तं समभ्येत्य राजगृद्धी महाबलः।
राजानं सर्वलोकस्य रथमारोपयत् स्वकम् ॥ ५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय महाबली शकुनिने, जो राजाको बहुत चाहता था, निकट आकर सम्पूर्ण जगत्‌के अधिपति दुर्योधनको अपने रथपर चढ़ा लिया॥५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो नृपं पराजित्य पार्षतः परवीरहा।
न्यहनत् तावकं सैन्यं वज्रपाणिरिवासुरान् ॥ ५५ ॥

मूलम्

ततो नृपं पराजित्य पार्षतः परवीरहा।
न्यहनत् तावकं सैन्यं वज्रपाणिरिवासुरान् ॥ ५५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब शत्रुवीरोंका हनन करनेवाले धृष्टद्युम्नने राजा दुर्योधनको पराजित करके आपकी सेनाका उसी प्रकार विनाश आरम्भ किया, जैसे वज्रधारी इन्द्र असुरोंका विनाश करते हैं॥५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृतवर्मा रणे भीमं शरैरार्च्छन्महारथः।
प्रच्छादयामास च तं महामेघो रविं यथा ॥ ५६ ॥

मूलम्

कृतवर्मा रणे भीमं शरैरार्च्छन्महारथः।
प्रच्छादयामास च तं महामेघो रविं यथा ॥ ५६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महारथी कृतवर्माने रणमें भीमसेनको अपने बाणोंसे बहुत पीड़ित किया और महामेघ जैसे सूर्यको ढक लेता है, उसी प्रकार उसने भीमसेनको आच्छादित कर दिया॥५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्रहस्य समरे भीमसेनः परंतपः।
प्रेषयामास संक्रुद्धः सायकान् कृतवर्मणे ॥ ५७ ॥

मूलम्

ततः प्रहस्य समरे भीमसेनः परंतपः।
प्रेषयामास संक्रुद्धः सायकान् कृतवर्मणे ॥ ५७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब शत्रुओंको संताप देनेवाले भीमसेनने युद्धमें हँसकर अत्यन्त क्रोधपूर्वक कृतवर्मापर अनेकों सायकों-का प्रहार किया॥५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तैरर्द्यमानोऽतिरथः सात्वतः सत्यकोविदः ।
नाकम्पत महाराज भीमं चार्च्छच्छितैः शरैः ॥ ५८ ॥

मूलम्

तैरर्द्यमानोऽतिरथः सात्वतः सत्यकोविदः ।
नाकम्पत महाराज भीमं चार्च्छच्छितैः शरैः ॥ ५८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! उन सायकोंसे अत्यन्त पीड़ित होनेपर भी अतिरथी एवं सत्यकोविद सात्वतवंशी कृतवर्मा विचलित नहीं हुआ। उसने भीमसेनको पुनः तीखे बाणोंसे पीड़ित किया॥५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्याश्वांश्चतुरो हत्वा भीमसेनो महारथः।
सारथिं पातयामास सध्वजं सुपरिष्कृतम् ॥ ५९ ॥

मूलम्

तस्याश्वांश्चतुरो हत्वा भीमसेनो महारथः।
सारथिं पातयामास सध्वजं सुपरिष्कृतम् ॥ ५९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर महारथी भीमसेनने उनके चारों घोड़ोंको मारकर ध्वजसहित सुसज्जित सारथिको भी काट गिराया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शरैर्बहुविधैश्चैनमाचिनोत् परवीरहा ।
शकलीकृतसर्वाङ्गो हताश्वः प्रत्यदृश्यत ॥ ६० ॥

मूलम्

शरैर्बहुविधैश्चैनमाचिनोत् परवीरहा ।
शकलीकृतसर्वाङ्गो हताश्वः प्रत्यदृश्यत ॥ ६० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् शत्रुवीरोंका हनन करनेवाले भीमसेनने अनेक प्रकारके बाणोंसे कृतवर्माके सारे शरीरको क्षत-विक्षत कर दिया। उसके घोड़े मारे जा चुके थे। उस समय भीमसेनके बाणोंसे उसका सारा शरीर छिन्न-भिन्न-सा दिखायी देता था॥६०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हताश्वश्च ततस्तूर्णं वृषकस्य रथं ययौ।
श्यालस्य ते महाराज तव पुत्रस्य पश्यतः ॥ ६१ ॥

मूलम्

हताश्वश्च ततस्तूर्णं वृषकस्य रथं ययौ।
श्यालस्य ते महाराज तव पुत्रस्य पश्यतः ॥ ६१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! तब घोड़ोंके मारे जानेपर कृतवर्मा आपके पुत्रके देखते-देखते तुरंत ही आपके साले वृषकके रथपर सवार हो गया॥६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीमसेनोऽपि संक्रुद्धस्तव सैन्यमुपाद्रवत् ।
निजघान च संक्रुद्धो दण्डपाणिरिवान्तकः ॥ ६२ ॥

मूलम्

भीमसेनोऽपि संक्रुद्धस्तव सैन्यमुपाद्रवत् ।
निजघान च संक्रुद्धो दण्डपाणिरिवान्तकः ॥ ६२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इधर भीमसेन भी अत्यन्त कुपित होकर आपकी सेनापर टूट पड़े और दण्डपाणि यमराजकी भाँति उसका संहार करने लगे॥६२॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते भीष्मपर्वणि भीष्मवधपर्वणि द्वैरथे द्व्यशीतितमोऽध्यायः ॥ ८२ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्वके अन्तर्गत भीष्मवधपर्वमें द्वैरथयुद्धविषयक बयासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥८२॥