भागसूचना
अष्टसप्ततितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
उभय पक्षकी सेनाओंका संकुल युद्ध
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो दुर्योधनो राजा मोहात् प्रत्यागतस्तदा।
शरवर्षैः पुनर्भीमं प्रत्यवारयदच्युतम् ॥ १ ॥
मूलम्
ततो दुर्योधनो राजा मोहात् प्रत्यागतस्तदा।
शरवर्षैः पुनर्भीमं प्रत्यवारयदच्युतम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— महाराज! तदनन्तर (मोहनास्त्र-जनित) मोहसे जगनेपर राजा दुर्योधनने युद्धभूमिसे पीछे न हटनेवाले भीमसेनको पुनः बाणोंकी वर्षासे रोक दिया॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकीभूतास्ततश्चैव तव पुत्रा महारथाः।
समेत्य समरे भीमं योधयामासुरुद्यताः ॥ २ ॥
मूलम्
एकीभूतास्ततश्चैव तव पुत्रा महारथाः।
समेत्य समरे भीमं योधयामासुरुद्यताः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर आपके सभी महारथी पुत्र समरभूमिमें एकत्र होकर पूर्ण प्रयत्नपूर्वक भीमसेनके साथ युद्ध करने लगे॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भीमसेनोऽपि समरे सम्प्राप्य स्वरथं पुनः।
समारुह्य महाबाहुर्ययौ येन तवात्मजः ॥ ३ ॥
मूलम्
भीमसेनोऽपि समरे सम्प्राप्य स्वरथं पुनः।
समारुह्य महाबाहुर्ययौ येन तवात्मजः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाबाहु भीमसेन भी समरभूमिमें पुनः अपने रथपर सवार हो उधर ही चल दिये, जिस मार्गसे आपका पुत्र दुर्योधन गया था॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रगृह्य च महावेगं परासुकरणं दृढम्।
सज्जं शरासनं संख्ये शरैर्विव्याध ते सुतम् ॥ ४ ॥
मूलम्
प्रगृह्य च महावेगं परासुकरणं दृढम्।
सज्जं शरासनं संख्ये शरैर्विव्याध ते सुतम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने युद्धस्थलमें मृत्युकी प्राप्ति करानेवाले महान् वेगशाली सुदृढ़ धनुषको लेकर उसपर प्रत्यंचा चढ़ायी और अनेक बाणोंद्वारा आपके पुत्रको घायल कर दिया॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो दुर्योधनो राजा भीमसेनं महाबलम्।
नाराचेन सुतीक्ष्णेन भृशं मर्मण्यताडयत् ॥ ५ ॥
मूलम्
ततो दुर्योधनो राजा भीमसेनं महाबलम्।
नाराचेन सुतीक्ष्णेन भृशं मर्मण्यताडयत् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब राजा दुर्योधनने महाबली भीमसेनके मर्मस्थलोंमें अत्यन्त तीखे नाराचसे गहरी चोट पहुँचायी॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽतिविद्धो महेष्वासस्तव पुत्रेण धन्विना।
क्रोधसंरक्तनयनो वेगेनाक्षिप्य कार्मुकम् ॥ ६ ॥
दुर्योधनं त्रिभिर्बाणैर्बाह्वोरुरसि चार्पयत् ।
स तत्र शुशुभे राजा शिखरैर्गिरिराडिव ॥ ७ ॥
मूलम्
सोऽतिविद्धो महेष्वासस्तव पुत्रेण धन्विना।
क्रोधसंरक्तनयनो वेगेनाक्षिप्य कार्मुकम् ॥ ६ ॥
दुर्योधनं त्रिभिर्बाणैर्बाह्वोरुरसि चार्पयत् ।
स तत्र शुशुभे राजा शिखरैर्गिरिराडिव ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपके धनुर्धर पुत्रके द्वारा चलाये हुए बाणसे अत्यन्त पीड़ित हो महाधनुर्धर भीमसेनने क्रोधसे लाल आँखें करके वेगपूर्वक धनुषको खींचा और तीन बाणोंसे दुर्योधनकी दोनों भुजाओं तथा छातीमें चोट पहुँचायी। उन बाणोंद्वारा राजा दुर्योधन तीन शिखरोंसे युक्त गिरिराजकी भाँति शोभा पाने लगा॥६-७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तौ दृष्ट्वा समरे क्रुद्धौ विनिघ्नन्तौ परस्परम्।
दुर्योधनानुजाः सर्वे शूराः संत्यक्तजीविताः ॥ ८ ॥
संस्मृत्य मन्त्रितं पूर्वं निग्रहे भीमकर्मणः।
निश्चयं परमं कृत्वा निग्रहीतुं प्रचक्रमुः ॥ ९ ॥
मूलम्
तौ दृष्ट्वा समरे क्रुद्धौ विनिघ्नन्तौ परस्परम्।
दुर्योधनानुजाः सर्वे शूराः संत्यक्तजीविताः ॥ ८ ॥
संस्मृत्य मन्त्रितं पूर्वं निग्रहे भीमकर्मणः।
निश्चयं परमं कृत्वा निग्रहीतुं प्रचक्रमुः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्रोधमें भरे हुए इन दोनों वीरोंको समरभूमिमें एक-दूसरेपर प्रहार करते देख दुर्योधनके सभी शूरवीर छोटे भाई प्राणोंका मोह छोड़कर भयंकर कर्म करनेवाले भीमसेनको जीवित पकड़नेके विषयमें की हुई पहली सलाहको याद करके एक दृढ़ निश्चयपर पहुँचकर उन्हें पकड़नेका उद्योग करने लगे॥८-९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तानापतत एवाजौ भीमसेनो महाबलः।
प्रत्युद्ययौ महाराज गजः प्रतिगजानिव ॥ १० ॥
मूलम्
तानापतत एवाजौ भीमसेनो महाबलः।
प्रत्युद्ययौ महाराज गजः प्रतिगजानिव ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! उन्हें युद्धमें आक्रमण करते देख जैसे हाथी अपने विपक्षी हाथियोंकी ओर दौड़ता है, उसी प्रकार महावली भीमसेन उनकी अगवानीके लिये आगे बढ़े॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भृशं क्रुद्धश्च तेजस्वी नाराचेन समार्पयत्।
चित्रसेनं महाराज तव पुत्रं महायशाः ॥ ११ ॥
मूलम्
भृशं क्रुद्धश्च तेजस्वी नाराचेन समार्पयत्।
चित्रसेनं महाराज तव पुत्रं महायशाः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! महायशस्वी और तेजस्वी भीमसेन अत्यन्त क्रोधमें भरे हुए थे। उन्होंने आपके पुत्र चित्रसेनपर एक नाराचके द्वारा प्रहार किया॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथेतरांस्तव सुतांस्ताडयामास भारत ।
शरैर्बहुविधैः संख्ये रुक्मपुङ्खैः सुतेजनैः ॥ १२ ॥
मूलम्
तथेतरांस्तव सुतांस्ताडयामास भारत ।
शरैर्बहुविधैः संख्ये रुक्मपुङ्खैः सुतेजनैः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! इसी प्रकार रणभूमिमें सोनेकी पाँखवाले अत्यन्त तीखे और बहुसंख्यक बाणोंद्वारा उन्होंने आपके अन्य पुत्रोंको भी पीड़ित किया॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः संस्थाप्य समरे तान्यनीकानि सर्वशः।
अभिमन्युप्रभृतयस्ते द्वादश महारथाः ॥ १३ ॥
प्रेषिता धर्मराजेन भीमसेनपदानुगाः ।
प्रतिजग्मुर्महाराज तव पुत्रान् महाबलान् ॥ १४ ॥
मूलम्
ततः संस्थाप्य समरे तान्यनीकानि सर्वशः।
अभिमन्युप्रभृतयस्ते द्वादश महारथाः ॥ १३ ॥
प्रेषिता धर्मराजेन भीमसेनपदानुगाः ।
प्रतिजग्मुर्महाराज तव पुत्रान् महाबलान् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! तत्पश्चात् अपनी सेनाओंको सब प्रकारसे समरभूमिमें स्थापित करके भीमसेनके पद-चिह्नोंपर चलनेवाले उन अभिमन्यु आदि बारह महारथियोंने, जिन्हें धर्मराज युधिष्ठिरने भेजा था, आपके महाबली पुत्रोंपर धावा किया॥१३-१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्ट्वा रथस्थांस्तान् शूरान् सूर्याग्निसमतेजसः।
सर्वानेव महेष्वासान् भ्राजमानान् श्रिया वृतान् ॥ १५ ॥
महाहवे दीप्यमानान् सुवर्णमुकुटोज्ज्वलान् ।
तत्यजुः समरे भीमं तव पुत्रा महाबलाः ॥ १६ ॥
मूलम्
दृष्ट्वा रथस्थांस्तान् शूरान् सूर्याग्निसमतेजसः।
सर्वानेव महेष्वासान् भ्राजमानान् श्रिया वृतान् ॥ १५ ॥
महाहवे दीप्यमानान् सुवर्णमुकुटोज्ज्वलान् ।
तत्यजुः समरे भीमं तव पुत्रा महाबलाः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे सब-के-सब रथपर बैठे हुए शूरवीर, सूर्य और अग्निके समान तेजस्वी, महाधनुर्धर, उत्तम शोभासे प्रकाशमान, सुवर्णमय मुकुटसे जगमग प्रतीत होनेवाले और अत्यन्त कान्तिमान् थे। उस महासमरमें उन्हें आते देखकर आपके महाबली पुत्र भीमसेनको छोड़कर वहाँसे दूर हट गये॥१५-१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तान् नामृष्यत कौन्तेयो जीवमाना गता इति।
अन्वीय च पुनः सर्वांस्तव पुत्रानपीडयत् ॥ १७ ॥
मूलम्
तान् नामृष्यत कौन्तेयो जीवमाना गता इति।
अन्वीय च पुनः सर्वांस्तव पुत्रानपीडयत् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु वे जीवित लौट गये; यह बात भीमसेनसे नहीं सही गयी। उन्होंने पुनः आपके उन सब पुत्रोंका पीछा करके उन्हें अपने बाणोंसे पीड़ित कर दिया॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथाभिमन्युं समरे भीमसेनेन संगतम्।
पार्षतेन च सम्प्रेक्ष्य तव सैन्ये महारथाः ॥ १८ ॥
दुर्योधनप्रभृतयः प्रगृहीतशरासनाः ।
भृशमश्वैः प्रजवितैः प्रययुर्यत्र ते रथाः ॥ १९ ॥
मूलम्
अथाभिमन्युं समरे भीमसेनेन संगतम्।
पार्षतेन च सम्प्रेक्ष्य तव सैन्ये महारथाः ॥ १८ ॥
दुर्योधनप्रभृतयः प्रगृहीतशरासनाः ।
भृशमश्वैः प्रजवितैः प्रययुर्यत्र ते रथाः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इधर, उस समरभूमिमें अभिमन्युको भीमसेन तथा धृष्टद्युम्नसे मिला हुआ देख आपकी सेनाके दुर्योधन आदि महारथी हाथोंमें धनुष लिये अत्यन्त वेगशाली अश्वोंद्वारा वहाँ जा पहुँचे, जहाँ वे बारह पाण्डवपक्षीय महारथी विद्यमान थे॥१८-१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपराह्णे महाराज प्रावर्तत महारणः।
तावकानां च बलिनां परेषां चैव भारत ॥ २० ॥
मूलम्
अपराह्णे महाराज प्रावर्तत महारणः।
तावकानां च बलिनां परेषां चैव भारत ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! भरतनन्दन! तब अपराह्णकालमें आपके और पाण्डवपक्षके अत्यन्त बलवान् योद्धाओंमें बड़ा भारी युद्ध आरम्भ हुआ॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभिमन्युर्विकर्णस्य हयान् हत्वा महाहवे।
अथैनं पञ्चविंशत्या क्षुद्रकाणां समार्पयत् ॥ २१ ॥
मूलम्
अभिमन्युर्विकर्णस्य हयान् हत्वा महाहवे।
अथैनं पञ्चविंशत्या क्षुद्रकाणां समार्पयत् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अभिमन्युने उस महायुद्धमें विकर्णके घोड़ोंको मारकर स्वयं विकर्णको भी पचीस बाणोंसे घायल कर दिया॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हताश्वं रथमुत्सृज्य विकर्णस्तु महारथः।
आरुरोह रथं राजंश्चित्रसेनस्य भारत ॥ २२ ॥
मूलम्
हताश्वं रथमुत्सृज्य विकर्णस्तु महारथः।
आरुरोह रथं राजंश्चित्रसेनस्य भारत ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतवंशी नरेश! घोड़ोंके मारे जानेपर महारथी विकर्ण अपना रथ छोड़कर चित्रसेनके रथपर जा बैठा॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्थितावेकरथे तौ तु भ्रातरौ कुलवर्धनौ।
आर्जुनिः शरजालेन च्छादयामास भारत ॥ २३ ॥
मूलम्
स्थितावेकरथे तौ तु भ्रातरौ कुलवर्धनौ।
आर्जुनिः शरजालेन च्छादयामास भारत ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन! अभिमन्युने एक रथपर बैठे हुए उन दोनों वंशवर्धक भ्राताओंको अपने बाणोंके जालसे आच्छादित कर दिया॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चित्रसेनो विकर्णश्च कार्ष्णिं पञ्चभिरायसैः।
विव्याध तेन चाकम्पत् कार्ष्णिर्मेरुरिव स्थितः ॥ २४ ॥
मूलम्
चित्रसेनो विकर्णश्च कार्ष्णिं पञ्चभिरायसैः।
विव्याध तेन चाकम्पत् कार्ष्णिर्मेरुरिव स्थितः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
चित्रसेन और विकर्णने भी लोहेके पाँच बाणोंसे अभिमन्युको बींध डाला। उस आघातसे अर्जुनकुमार अभिमन्यु विचलित नहीं हुआ। मेरु पर्वतकी भाँति अडिग खड़ा रहा॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुःशासनस्तु समरे केकयान् पञ्च मारिष।
योधयामास राजेन्द्र तदद्भुतमिवाभवत् ॥ २५ ॥
मूलम्
दुःशासनस्तु समरे केकयान् पञ्च मारिष।
योधयामास राजेन्द्र तदद्भुतमिवाभवत् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आर्य! राजेन्द्र! दुःशासनने अकेले ही समरभूमिमें पाँच केकयराजकुमारोंके साथ युद्ध किया। वह एक अद्भुत-सी बात हुई॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रौपदेया रणे क्रुद्धा दुर्योधनमवारयन्।
शरैराशीविषाकारैः पुत्रं तव विशाम्पते ॥ २६ ॥
मूलम्
द्रौपदेया रणे क्रुद्धा दुर्योधनमवारयन्।
शरैराशीविषाकारैः पुत्रं तव विशाम्पते ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजानाथ! युद्धमें कुपित हुए द्रौपदीके पाँचों पुत्रोंने विषधर सर्पके समान आकारवाले भयंकर बाणोंद्वारा आपके पुत्र दुर्योधनको आगे बढ़नेसे रोक दिया॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुत्रोऽपि तव दुर्धर्षो द्रौपद्यास्तनयान् रणे।
सायकैर्निशितै राजन्नाजघान पृथक् पृथक् ॥ २७ ॥
मूलम्
पुत्रोऽपि तव दुर्धर्षो द्रौपद्यास्तनयान् रणे।
सायकैर्निशितै राजन्नाजघान पृथक् पृथक् ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! तब आपके दुर्धर्ष पुत्रने भी तीखे सायकों-द्वारा रणभूमिमें द्रौपदीके पाँचों पुत्रोंपर पृथक्-पृथक् प्रहार किया॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तैश्चापि विद्धः शुशुभे रुधिरेण समुक्षितः।
गिरिः प्रस्रवणैर्यद्वद् गैरिकादिविमिश्रितैः ॥ २८ ॥
मूलम्
तैश्चापि विद्धः शुशुभे रुधिरेण समुक्षितः।
गिरिः प्रस्रवणैर्यद्वद् गैरिकादिविमिश्रितैः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर उनके द्वारा भी अत्यन्त घायल किये जानेपर आपका पुत्र रक्तसे नहा उठा और गेरु आदि धातुओंसे मिश्रित झरनोंके जलसे युक्त पर्वतकी भाँति शोभा पाने लगा॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भीष्मोऽपि समरे राजन् पाण्डवानामनीकिनीम्।
कालयामास बलवान् पालः पशुगणानिव ॥ २९ ॥
मूलम्
भीष्मोऽपि समरे राजन् पाण्डवानामनीकिनीम्।
कालयामास बलवान् पालः पशुगणानिव ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! तदनन्तर बलवान् भीष्म भी संग्रामभूमिमें पाण्डव-सेनाको उसी प्रकार खदेड़ने लगे, जैसे चरवाहा पशुओंको हाँकता है॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो गाण्डीवनिर्घोषः प्रादुरासीद् विशाम्पते।
दक्षिणेन वरूथिन्याः पार्थस्यारीन् विनिघ्नतः ॥ ३० ॥
मूलम्
ततो गाण्डीवनिर्घोषः प्रादुरासीद् विशाम्पते।
दक्षिणेन वरूथिन्याः पार्थस्यारीन् विनिघ्नतः ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजानाथ! तदनन्तर शत्रुओंका संहार करते हुए अर्जुनके गाण्डीवधनुषका घोष सेनाके दक्षिणभागसे प्रकट हुआ॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्तस्थुः समरे तत्र कबन्धानि समन्ततः।
कुरूणां चैव सैन्येषु पाण्डवानां च भारत ॥ ३१ ॥
मूलम्
उत्तस्थुः समरे तत्र कबन्धानि समन्ततः।
कुरूणां चैव सैन्येषु पाण्डवानां च भारत ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! वहाँ समरमें कौरवों और पाण्डवोंकी सेनाओंमें चारों ओर कबन्ध उठने लगे॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शोणितोदं शरावर्तं गजद्वीपं हयोर्मिणम्।
रथनौभिर्नरव्याघ्राः प्रतेरुः सैन्यसागरम् ॥ ३२ ॥
मूलम्
शोणितोदं शरावर्तं गजद्वीपं हयोर्मिणम्।
रथनौभिर्नरव्याघ्राः प्रतेरुः सैन्यसागरम् ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह सेना एक समुद्रके समान थी। रक्त ही वहाँ जलके समान था। बाणोंकी भँवर उठती थी। हाथी द्वीपके समान जान पड़ते थे और घोड़े तरंगकी शोभा धारण करते थे। रथरूपी नौकाओंके द्वारा नरश्रेष्ठ वीर उस सैन्य-सागरको पार करते थे॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
छिन्नहस्ता विकवचा विदेहाश्च नरोत्तमाः।
दृश्यन्ते पतितास्तत्र शतशोऽथ सहस्रशः ॥ ३३ ॥
मूलम्
छिन्नहस्ता विकवचा विदेहाश्च नरोत्तमाः।
दृश्यन्ते पतितास्तत्र शतशोऽथ सहस्रशः ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ सैकड़ों और हजारों नरश्रेष्ठ धरतीपर पड़े दिखायी देते थे। उनमेंसे कितनोंके हाथ कट गये थे, कितने ही कवचहीन हो रहे थे और बहुतोंके शरीर छिन्न-भिन्न हो गये थे॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निहतैर्मत्तमातङ्गैः शोणितौघपरिप्लुतैः ।
भूर्भाति भरतश्रेष्ठ पर्वतैराचिता यथा ॥ ३४ ॥
मूलम्
निहतैर्मत्तमातङ्गैः शोणितौघपरिप्लुतैः ।
भूर्भाति भरतश्रेष्ठ पर्वतैराचिता यथा ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! मरकर गिरे हुए मतवाले हाथी खूनसे लथपथ हो रहे थे। उनसे ढकी हुई वहाँकी भूमि पर्वतोंसे व्याप्त-सी जान पड़ती थी॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्राद्भुतमपश्याम तव तेषां च भारत।
न तत्रासीत् पुमान् कश्चिद् यो युद्धं नाभिकाङ्क्षति ॥ ३५ ॥
मूलम्
तत्राद्भुतमपश्याम तव तेषां च भारत।
न तत्रासीत् पुमान् कश्चिद् यो युद्धं नाभिकाङ्क्षति ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! हमने वहाँ आपके और पाण्डवोंके सैनिकोंका अद्भुत उत्साह देखा। वहाँ ऐसा कोई पुरुष नहीं था, जो युद्ध न चाहता हो॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं युयुधिरे वीराः प्रार्थयाना महद् यशः।
तावकाः पाण्डवैः सार्धमाकाङ्क्षन्तो जयं युधि ॥ ३६ ॥
मूलम्
एवं युयुधिरे वीराः प्रार्थयाना महद् यशः।
तावकाः पाण्डवैः सार्धमाकाङ्क्षन्तो जयं युधि ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार महान् यशकी अभिलाषा रखते और युद्धमें विजय चाहते हुए आपके वीर सैनिक पाण्डवोंके साथ युद्ध करते थे॥३६॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते भीष्मपर्वणि भीष्मवधपर्वणि संकुलयुद्धे अष्टसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७८ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्वके अन्तर्गत भीष्मवधपर्वमें संकुलयुद्धविषयक अठहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥७८॥