भागसूचना
एकोनसप्ततितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
कौरवोंद्वारा मकरव्यूह तथा पाण्डवोंद्वारा श्येनव्यूहका निर्माण एवं पाँचवें दिनके युद्धका आरम्भ
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्युषितायां तु शर्वर्यामुदिते च दिवाकरे।
उभे सेने महाराज युद्धायैव समीयतुः ॥ १ ॥
मूलम्
व्युषितायां तु शर्वर्यामुदिते च दिवाकरे।
उभे सेने महाराज युद्धायैव समीयतुः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— महाराज! वह रात बीतनेपर जब सूर्योदय हुआ, तब दोनों ओरकी सेनाएँ आमने-सामने आकर युद्धके लिये डट गयीं॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभ्यधावन्त संक्रुद्धाः परस्परजिगीषवः ।
ते सर्वे सहिता युद्धे समालोक्य परस्परम् ॥ २ ॥
पाण्डवा धार्तराष्ट्राश्च राजन् दुर्मन्त्रिते तव।
व्यूहौ च व्यूह्य संरब्धाः सम्प्रहृष्टाः प्रहारिणः ॥ ३ ॥
मूलम्
अभ्यधावन्त संक्रुद्धाः परस्परजिगीषवः ।
ते सर्वे सहिता युद्धे समालोक्य परस्परम् ॥ २ ॥
पाण्डवा धार्तराष्ट्राश्च राजन् दुर्मन्त्रिते तव।
व्यूहौ च व्यूह्य संरब्धाः सम्प्रहृष्टाः प्रहारिणः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सबने एक-दूसरेको जीतनेकी इच्छासे अत्यन्त क्रोधमें भरकर विपक्षी सेनापर आक्रमण किया। राजन्! आपकी कुमन्त्रणाके फलस्वरूप आपके पुत्र और पाण्डव एक-दूसरेको देखकर कुपित हो सब-के-सब अपने सहायकोंके साथ आकर सेनाकी व्यूह-रचना करके हर्ष और उत्साहमें भरकर परस्पर प्रहार करनेको उद्यत हो गये॥२-३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अरक्षन्मकरव्यूहं भीष्मो राजन् समन्ततः।
तथैव पाण्डवा राजन्नरक्षन् व्यूहमात्मनः ॥ ४ ॥
मूलम्
अरक्षन्मकरव्यूहं भीष्मो राजन् समन्ततः।
तथैव पाण्डवा राजन्नरक्षन् व्यूहमात्मनः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! भीष्म सेनाका मकरव्यूह बनाकर सब ओरसे उसकी रक्षा करने लगे। इसी प्रकार पाण्डवोंने भी अपने व्यूहकी रक्षा की॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(अजातशत्रुः शत्रूणां मनांसि समकम्पयत्।
श्येनवद् व्यूह्य तं व्यूहं धौम्यस्य वचनात् स्वयम्॥
स हि तस्य सुविज्ञात अग्निचित्येषु भारत।
मकरस्तु महाव्यूहस्तव पुत्रस्य धीमतः॥
स्वयं सर्वेण सैन्येन द्रोणेनानुमतस्तदा।
यथाव्यूहं शान्तनवः सोऽन्ववर्तत तत् पुनः॥)
स निर्ययौ महाराज पिता देवव्रतस्तव।
महता रथवंशेन संवृतो रथिनां वरः ॥ ५ ॥
मूलम्
(अजातशत्रुः शत्रूणां मनांसि समकम्पयत्।
श्येनवद् व्यूह्य तं व्यूहं धौम्यस्य वचनात् स्वयम्॥
स हि तस्य सुविज्ञात अग्निचित्येषु भारत।
मकरस्तु महाव्यूहस्तव पुत्रस्य धीमतः॥
स्वयं सर्वेण सैन्येन द्रोणेनानुमतस्तदा।
यथाव्यूहं शान्तनवः सोऽन्ववर्तत तत् पुनः॥)
स निर्ययौ महाराज पिता देवव्रतस्तव।
महता रथवंशेन संवृतो रथिनां वरः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्वयं अजातशत्रु युधिष्ठिरने धौम्य मुनिकी आज्ञासे श्येनव्यूहकी रचना करके शत्रुओंके हृदयमें कँपकँपी पैदा कर दी। भारत! अग्निचयनसम्बन्धी कर्मोंमें रहते हुए उन्हें श्येनव्यूहका विशेष परिचय था। आपके बुद्धिमान् पुत्रकी सेनाका मकर नामक महाव्यूह निर्मित हुआ था। द्रोणाचार्यकी अनुमति लेकर उसने स्वयं सारी सेनाके द्वारा उस व्यूहकी रचना की थी। फिर शान्तनुनन्दन भीष्मने व्यूहकी विधिके अनुसार निर्मित हुए उस महाव्यूहका स्वयं भी अनुसरण किया था। महाराज! रथियोंमें श्रेष्ठ आपके ताऊ भीष्म विशाल रथसेनासे घिरे हुए युद्धके लिये निकले॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इतरेतरमन्वीयुर्यथाभागमवस्थिताः ।
रथिनः पत्तयश्चैव दन्तिनः सादिनस्तथा ॥ ६ ॥
मूलम्
इतरेतरमन्वीयुर्यथाभागमवस्थिताः ।
रथिनः पत्तयश्चैव दन्तिनः सादिनस्तथा ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर यथाभाग खड़े हुए रथी, पैदल, हाथीसवार और घुड़सवार सब एक-दूसरेका अनुसरण करते हुए चल दिये॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तान् दृष्ट्वाभ्युद्यतान् संख्ये पाण्डवा हि यशस्विनः।
श्येनेन व्यूहराजेन तेनाजय्येन संयुगे ॥ ७ ॥
अशोभत मुखे तस्य भीमसेनो महाबलः।
नेत्रे शिखण्डी दुर्धर्षो धृष्टद्युम्नश्च पार्षतः ॥ ८ ॥
मूलम्
तान् दृष्ट्वाभ्युद्यतान् संख्ये पाण्डवा हि यशस्विनः।
श्येनेन व्यूहराजेन तेनाजय्येन संयुगे ॥ ७ ॥
अशोभत मुखे तस्य भीमसेनो महाबलः।
नेत्रे शिखण्डी दुर्धर्षो धृष्टद्युम्नश्च पार्षतः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुओंको युद्धके लिये उद्यत हुए देख यशस्वी पाण्डव युद्धमें अजेय व्यूहराज श्येनके रूपमें संगठित हो शोभा पाने लगे। उस व्यूहके मुखभागमें महाबली भीमसेन शोभा पा रहे थे। नेत्रोंके स्थानमें दुर्धर्ष वीर शिखण्डी तथा द्रुपदकुमार धृष्टद्युम्न खड़े थे॥७-८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शीर्षे तस्याभवद् वीरः सात्यकिः सत्यविक्रमः।
विधुन्वन् गाण्डिवं पार्थो ग्रीवायामभवत् तदा ॥ ९ ॥
मूलम्
शीर्षे तस्याभवद् वीरः सात्यकिः सत्यविक्रमः।
विधुन्वन् गाण्डिवं पार्थो ग्रीवायामभवत् तदा ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शिरोभागमें सत्यपराक्रमी वीर सात्यकि और ग्रीवाभागमें गाण्डीवधनुषकी टंकार करते हुए कुन्तीकुमार अर्जुन खड़े हुए॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अक्षौहिण्या समं तत्र वामपक्षोऽभवत् तदा।
महात्मा द्रुपदः श्रीमान् सह पुत्रेण संयुगे ॥ १० ॥
मूलम्
अक्षौहिण्या समं तत्र वामपक्षोऽभवत् तदा।
महात्मा द्रुपदः श्रीमान् सह पुत्रेण संयुगे ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुत्रसहित श्रीमान् महात्मा द्रुपद एक अक्षौहिणी सेनाके साथ युद्धमें बायें पंखके स्थानमें खड़े थे॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दक्षिणश्चाभवत् पक्षः कैकेयोऽक्षौहिणीपतिः ।
पृष्ठतो द्रौपदेयाश्च सौभद्रश्चापि वीर्यवान् ॥ ११ ॥
मूलम्
दक्षिणश्चाभवत् पक्षः कैकेयोऽक्षौहिणीपतिः ।
पृष्ठतो द्रौपदेयाश्च सौभद्रश्चापि वीर्यवान् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक अक्षौहिणी सेनाके अधिपति केकय दाहिने पंखमें स्थित हुए। द्रौपदीके पाँचों पुत्र और पराक्रमी सुभद्राकुमार अभिमन्यु—ये पृष्ठभागमें खड़े हुए॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पृष्ठे समभवच्छ्रीमान् स्वयं राजा युधिष्ठिरः।
भ्रातृभ्यां सहितो वीरो यमाभ्यां चारुविक्रमः ॥ १२ ॥
मूलम्
पृष्ठे समभवच्छ्रीमान् स्वयं राजा युधिष्ठिरः।
भ्रातृभ्यां सहितो वीरो यमाभ्यां चारुविक्रमः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उत्तम पराक्रमसे सम्पन्न स्वयं श्रीमान् वीर राजा युधिष्ठिर भी अपने दो भाई नकुल और सहदेवके साथ पृष्ठभागमें ही सुशोभित हुए॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रविश्य तु रणे भीमो मकरं मुखतस्तदा।
भीष्ममासाद्य संग्रामे छादयामास सायकैः ॥ १३ ॥
मूलम्
प्रविश्य तु रणे भीमो मकरं मुखतस्तदा।
भीष्ममासाद्य संग्रामे छादयामास सायकैः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर भीमसेनने रणक्षेत्रमें प्रवेश करके मकर-व्यूहके मुखभागमें खड़े हुए भीष्मको अपने सायकोंसे आच्छादित कर दिया॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो भीष्मो महास्त्राणि पातयामास भारत।
मोहयन् पाण्डुपुत्राणां व्यूढं सैन्यं महाहवे ॥ १४ ॥
मूलम्
ततो भीष्मो महास्त्राणि पातयामास भारत।
मोहयन् पाण्डुपुत्राणां व्यूढं सैन्यं महाहवे ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! तब उस महासमरमें पाण्डवोंकी उस व्यूहबद्ध सेनाको मोहित करते हुए भीष्म उसपर बड़े-बड़े अस्त्रोंका प्रयोग करने लगे॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सम्मुह्यति तदा सैन्ये त्वरमाणो धनंजयः।
भीष्मं शरसहस्रेण विव्याध रणमूर्धनि ॥ १५ ॥
मूलम्
सम्मुह्यति तदा सैन्ये त्वरमाणो धनंजयः।
भीष्मं शरसहस्रेण विव्याध रणमूर्धनि ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय अपनी सेनाको मोहित होती देख अर्जुनने बड़ी उतावलीके साथ युद्धके मुहानेपर एक हजार बाणोंकी वर्षा करके भीष्मको घायल कर दिया॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रतिसंवार्य चास्त्राणि भीष्ममुक्तानि संयुगे।
स्वेनानीकेन हृष्टेन युद्धाय समुपस्थितः ॥ १६ ॥
मूलम्
प्रतिसंवार्य चास्त्राणि भीष्ममुक्तानि संयुगे।
स्वेनानीकेन हृष्टेन युद्धाय समुपस्थितः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संग्राममें भीष्मके छोड़े हुए सम्पूर्ण अस्त्रोंका निवारण करके हर्षमें भरी हुई अपनी सेनाके साथ वे युद्धके लिये उपस्थित हुए॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो दुर्योधनो राजा भारद्वाजमभाषत।
पूर्वं दृष्ट्वा वधं घोरं बलस्य बलिनां वरः ॥ १७ ॥
भ्रातॄणां च वधं युद्धे स्मरमाणो महारथः।
आचार्य सततं हि त्वं हितकामो ममानघ ॥ १८ ॥
मूलम्
ततो दुर्योधनो राजा भारद्वाजमभाषत।
पूर्वं दृष्ट्वा वधं घोरं बलस्य बलिनां वरः ॥ १७ ॥
भ्रातॄणां च वधं युद्धे स्मरमाणो महारथः।
आचार्य सततं हि त्वं हितकामो ममानघ ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब बलवानोंमें श्रेष्ठ महारथी राजा दुर्योधनने पहले जो अपनी सेनाका घोर संहार हुआ था, उसको दृष्टिमें रखते हुए और युद्धमें भाइयोंके वधका स्मरण करते हुए भरद्वाजनन्दन द्रोणाचार्यसे कहा—‘निष्पाप आचार्य! आप सदा ही मेरा हित चाहनेवाले हैं॥१७-१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वयं हि त्वां समाश्रित्य भीष्मं चैव पितामहम्।
देवानपि रणे जेतुं प्रार्थयामो न संशयः ॥ १९ ॥
किमु पाण्डुसुतान् युद्धे हीनवीर्यपराक्रमान्।
स तथा कुरु भद्रं ते यथा वध्यन्ति पाण्डवाः॥२०॥
मूलम्
वयं हि त्वां समाश्रित्य भीष्मं चैव पितामहम्।
देवानपि रणे जेतुं प्रार्थयामो न संशयः ॥ १९ ॥
किमु पाण्डुसुतान् युद्धे हीनवीर्यपराक्रमान्।
स तथा कुरु भद्रं ते यथा वध्यन्ति पाण्डवाः॥२०॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘हमलोग आप तथा पितामह भीष्मकी शरण लेकर देवताओंको भी समरभूमिमें जीतनेकी अभिलाषा रखते हैं, इसमें संशय नहीं है। फिर जो बल और पराक्रममें हीन हैं, उन पाण्डवोंको जीतना कौन बड़ी बात है। आपका कल्याण हो। आप ऐसा प्रयत्न करें जिससे पाण्डव मारे जायँ’॥१९-२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तस्ततो द्रोणस्तव पुत्रेण मारिष।
(उवाच तत्र राजानं संक्रुद्ध इव निःश्वसन्।
मूलम्
एवमुक्तस्ततो द्रोणस्तव पुत्रेण मारिष।
(उवाच तत्र राजानं संक्रुद्ध इव निःश्वसन्।
अनुवाद (हिन्दी)
आर्य! आपके पुत्र दुर्योधनके ऐसा कहनेपर द्रोणाचार्य कुछ कुपित-से हो उठे और लंबी साँस खींचते हुए राजा दुर्योधनसे बोले।
मूलम् (वचनम्)
द्रोण उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
बालिशस्त्वं न जानीषे पाण्डवानां पराक्रमम्।
न शक्या हि यथा जेतुं पाण्डवा हि महाबलाः॥
यथाबलं यथावीर्यं कर्म कुर्यामहं हि ते।
मूलम्
बालिशस्त्वं न जानीषे पाण्डवानां पराक्रमम्।
न शक्या हि यथा जेतुं पाण्डवा हि महाबलाः॥
यथाबलं यथावीर्यं कर्म कुर्यामहं हि ते।
अनुवाद (हिन्दी)
द्रोणाचार्यने कहा— तुम नादान हो। पाण्डवोंका पराक्रम कैसा है, यह नहीं जानते। महाबली पाण्डवोंको युद्धमें जीतना असम्भव है, तथापि मैं अपने बल और पराक्रमके अनुसार तुम्हारा कार्य कर सकता हूँ।
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा ते सुतं राजन्नभ्यपद्यत वाहिनीम्।)
अभिनत् पाण्डवानीकं प्रेक्षमाणस्य सात्यकेः ॥ २१ ॥
मूलम्
इत्युक्त्वा ते सुतं राजन्नभ्यपद्यत वाहिनीम्।)
अभिनत् पाण्डवानीकं प्रेक्षमाणस्य सात्यकेः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— राजन्! आपके पुत्रसे ऐसा कहकर द्रोणाचार्य पाण्डवोंकी सेनाका सामना करनेके लिये गये। वे सात्यकिके देखते-देखते पाण्डवसेनाको विदीर्ण करने लगे॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सात्यकिस्तु ततो द्रोणं वारयामास भारत।
तयोः प्रववृते युद्धं घोररूपं भयावहम् ॥ २२ ॥
मूलम्
सात्यकिस्तु ततो द्रोणं वारयामास भारत।
तयोः प्रववृते युद्धं घोररूपं भयावहम् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! उस समय सात्यकिने आगे बढ़कर द्रोणाचार्यको रोका। फिर तो उन दोनोंमें अत्यन्त भयंकर युद्ध आरम्भ हो गया॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शैनेयं तु रणे क्रुद्धो भारद्वाजः प्रतापवान्।
अविध्यन्निशितैर्बाणैर्जत्रुदेशे हसन्निव ॥ २३ ॥
मूलम्
शैनेयं तु रणे क्रुद्धो भारद्वाजः प्रतापवान्।
अविध्यन्निशितैर्बाणैर्जत्रुदेशे हसन्निव ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रतापी द्रोणाचार्यने युद्धमें कुपित होकर सात्यकिके गलेकी हँसलीमें हँसते हुए-से पैने बाणोंद्वारा प्रहार किया॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भीमसेनस्ततः क्रुद्धो भारद्वाजमविध्यत ।
संरक्षन् सात्यकिं राजन् द्रोणाच्छस्त्रभृतां वरात् ॥ २४ ॥
मूलम्
भीमसेनस्ततः क्रुद्धो भारद्वाजमविध्यत ।
संरक्षन् सात्यकिं राजन् द्रोणाच्छस्त्रभृतां वरात् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! तब भीमसेनने कुपित होकर शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ द्रोणाचार्यसे सात्यकिकी रक्षा करते हुए आचार्यको अपने बाणोंसे बींध डाला॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो द्रोणश्च भीष्मश्च तथा शल्यश्च मारिष।
भीमसेनं रणे क्रुद्धाश्छादयांचक्रिरे शरैः ॥ २५ ॥
मूलम्
ततो द्रोणश्च भीष्मश्च तथा शल्यश्च मारिष।
भीमसेनं रणे क्रुद्धाश्छादयांचक्रिरे शरैः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आर्य! तदनन्तर द्रोणाचार्य, भीष्म तथा शल्य तीनोंने कुपित होकर भीमसेनको युद्धस्थलमें अपने बाणोंसे ढक दिया॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्राभिमन्युः संक्रुद्धो द्रौपदेयाश्च मारिष।
विव्यधुर्निशितैर्बाणैः सर्वांस्तानुद्यतायुधान् ॥ २६ ॥
मूलम्
तत्राभिमन्युः संक्रुद्धो द्रौपदेयाश्च मारिष।
विव्यधुर्निशितैर्बाणैः सर्वांस्तानुद्यतायुधान् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! तब वहाँ क्रोधमें भरे हुए अभिमन्यु और द्रौपदीके पुत्रोंने आयुध लेकर खड़े हुए उन सब कौरव महारथियोंको तीखे बाणोंसे घायल कर दिया॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रोणभीष्मौ तु संक्रुद्धावापतन्तौ महाबलौ।
प्रत्युद्ययौ शिखण्डी तु महेष्वासो महाहवे ॥ २७ ॥
मूलम्
द्रोणभीष्मौ तु संक्रुद्धावापतन्तौ महाबलौ।
प्रत्युद्ययौ शिखण्डी तु महेष्वासो महाहवे ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय कुपित होकर आक्रमण करते हुए महा-बली द्रोणाचार्य और भीष्मका उस महासमरमें सामना करनेके लिये महाधनुर्धर शिखण्डी आगे बढ़ा॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रगृह्य बलवद् वीरो धनुर्जलदनिःस्वनम्।
अभ्यवर्षच्छरैस्तूर्णं छादयानो दिवाकरम् ॥ २८ ॥
मूलम्
प्रगृह्य बलवद् वीरो धनुर्जलदनिःस्वनम्।
अभ्यवर्षच्छरैस्तूर्णं छादयानो दिवाकरम् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस वीरने मेघके समान गम्भीर घोष करनेवाले अपने धनुषको बलपूर्वक खींचकर बड़ी शीघ्रताके साथ इतने बाणोंकी वर्षा की कि सूर्य भी आच्छादित हो गये॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शिखण्डिनं समासाद्य भरतानां पितामहः।
अवर्जयत संग्रामं स्त्रीत्वं तस्यानुसंस्मरन् ॥ २९ ॥
मूलम्
शिखण्डिनं समासाद्य भरतानां पितामहः।
अवर्जयत संग्रामं स्त्रीत्वं तस्यानुसंस्मरन् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतकुलके पितामह भीष्मने शिखण्डीके सामने पहुँचकर उसके स्त्रीत्वका बारंबार स्मरण करते हुए युद्ध बंद कर दिया॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो द्रोणो महाराज अभ्यद्रवत तं रणे।
रक्षमाणस्तदा भीष्मं तव पुत्रेण चोदितः ॥ ३० ॥
मूलम्
ततो द्रोणो महाराज अभ्यद्रवत तं रणे।
रक्षमाणस्तदा भीष्मं तव पुत्रेण चोदितः ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! यह देखकर द्रोणाचार्य युद्धमें आपके पुत्रके कहनेसे भीष्मकी रक्षाके लिये शिखण्डीकी ओर दौड़े॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शिखण्डी तु समासाद्य द्रोणं शस्त्रभृतां वरम्।
अवर्जयत संत्रस्तो युगान्ताग्निमिवोल्बणम् ॥ ३१ ॥
मूलम्
शिखण्डी तु समासाद्य द्रोणं शस्त्रभृतां वरम्।
अवर्जयत संत्रस्तो युगान्ताग्निमिवोल्बणम् ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शिखण्डी प्रलयकालकी प्रचण्ड अग्निके समान शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ द्रोणका सामना पड़नेपर भयभीत हो युद्ध छोड़कर चल दिया॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो बलेन महता पुत्रस्तव विशाम्पते।
जुगोप भीष्ममासाद्य प्रार्थयानो महद् यशः ॥ ३२ ॥
मूलम्
ततो बलेन महता पुत्रस्तव विशाम्पते।
जुगोप भीष्ममासाद्य प्रार्थयानो महद् यशः ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजानाथ! तदनन्तर आपका पुत्र दुर्योधन महान् यश पानेकी इच्छा रखता हुआ अपनी विशाल सेनाके साथ भीष्मके पास पहुँचकर उनकी रक्षा करने लगा॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथैव पाण्डवा राजन् पुरस्कृत्य धनंजयम्।
भीष्ममेवाभ्यवर्तन्त जये कृत्वा दृढ़ां मतिम् ॥ ३३ ॥
मूलम्
तथैव पाण्डवा राजन् पुरस्कृत्य धनंजयम्।
भीष्ममेवाभ्यवर्तन्त जये कृत्वा दृढ़ां मतिम् ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! इसी प्रकार पाण्डव भी विजय-प्राप्तिके लिये दृढ़ निश्चय करके अर्जुनको आगे कर भीष्मपर ही टूट पड़े॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद् युद्धमभवद् घोरं देवानां दानवैरिव।
जयमाकाङ्क्षतां संख्ये यशश्च सुमहाद्भुतम् ॥ ३४ ॥
मूलम्
तद् युद्धमभवद् घोरं देवानां दानवैरिव।
जयमाकाङ्क्षतां संख्ये यशश्च सुमहाद्भुतम् ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस युद्धमें विजय तथा अत्यन्त अद्भुत यशकी अभिलाषा रखनेवाले पाण्डवोंका कौरवोंके साथ उसी प्रकार भयंकर युद्ध हुआ, जैसे देवताओंका दानवोंके साथ हुआ था॥३४॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते भीष्मपर्वणि भीष्मवधपर्वणि पञ्चम दिवसयुद्धारम्भे एकोनसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ६९ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्वके अन्तर्गत भीष्मवधपर्वमें पाँचवें दिवसके युद्धका आरम्भविषयक उनहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥६९॥
सूचना (हिन्दी)
[दाक्षिणात्य अधिक पाठके ५ श्लोक मिलाकर कुल ३९ श्लोक हैं।]