०६८ विश्वोपाख्याने

भागसूचना

अष्टषष्टितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

ब्रह्मभूतस्तोत्र तथा श्रीकृष्ण और अर्जुनकी महत्ता

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

शृणु चेदं महाराज ब्रह्मभूतं स्तवं मम।
ब्रह्मर्षिभिश्च देवैश्च यः पुरा कथितो भुवि ॥ १ ॥

मूलम्

शृणु चेदं महाराज ब्रह्मभूतं स्तवं मम।
ब्रह्मर्षिभिश्च देवैश्च यः पुरा कथितो भुवि ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— महाराज दुर्योधन! पूर्वकालमें इस भूतलपर ब्रह्मर्षियों तथा देवताओंने इनका जो ब्रह्मभूतस्तोत्र कहा है, उसे तुम मुझसे सुनो—॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

साध्यानामपि देवानां देवदेवेश्वरः प्रभुः।
लोकभावनभावज्ञ इति त्वां नारदोऽब्रवीत् ॥ २ ॥

मूलम्

साध्यानामपि देवानां देवदेवेश्वरः प्रभुः।
लोकभावनभावज्ञ इति त्वां नारदोऽब्रवीत् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘प्रभो! आप साध्यगण और देवताओंके भी स्वामी एवं देवदेवेश्वर हैं। आप सम्पूर्ण जगत्‌के हृदयके भावोंको जाननेवाले हैं। आपके विषयमें नारदजीने ऐसा ही कहा है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूतं भव्यं भविष्यं च मार्कण्डेयोऽभ्युवाच ह।
यज्ञं त्वां चैव यज्ञानां तपश्च तपसामपि ॥ ३ ॥

मूलम्

भूतं भव्यं भविष्यं च मार्कण्डेयोऽभ्युवाच ह।
यज्ञं त्वां चैव यज्ञानां तपश्च तपसामपि ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मार्कण्डेयजीने आपको भूत, भविष्य और वर्तमान स्वरूप बताया है। वे आपको यज्ञोंका यज्ञ और तपस्याओंका भी सारभूत तप बताया करते हैं॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवानामपि देवं च त्वामाह भगवान् भृगुः।
पुराणं चैव परमं विष्णो रूपं तवेति च ॥ ४ ॥

मूलम्

देवानामपि देवं च त्वामाह भगवान् भृगुः।
पुराणं चैव परमं विष्णो रूपं तवेति च ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भगवान् भृगुने आपको देवताओंका भी देवता कहा है। विष्णो! आपका रूप अत्यन्त पुरातन और उत्कृष्ट है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वासुदेवो वसूनां त्वं शक्रं स्थापयिता तथा।
देव देवोऽसि देवानामिति द्वैपायनोऽब्रवीत् ॥ ५ ॥

मूलम्

वासुदेवो वसूनां त्वं शक्रं स्थापयिता तथा।
देव देवोऽसि देवानामिति द्वैपायनोऽब्रवीत् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘प्रभो! आप वसुओंके वासुदेव तथा इन्द्रको स्वर्गके राज्यपर स्थापित करनेवाले हैं। देव! आप देवताओंके भी देवता हैं। महर्षि द्वैपायन आपके विषयमें ऐसा ही कहते हैं॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूर्वे प्रजानिसर्गे च दक्षमाहुः प्रजापतिम्।
स्रष्टारं सर्वलोकानामङ्गिस्त्वां तथाब्रवीत् ॥ ६ ॥

मूलम्

पूर्वे प्रजानिसर्गे च दक्षमाहुः प्रजापतिम्।
स्रष्टारं सर्वलोकानामङ्गिस्त्वां तथाब्रवीत् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘प्रथम प्रजासृष्टिके समय आपको ही दक्ष प्रजापति कहा गया है। आप ही सम्पूर्ण लोकोंके स्रष्टा हैं—इस प्रकार अंगिरा मुनि आपके विषयमें कहते हैं॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अव्यक्तं ते शरीरोत्थं व्यक्तं ते मनसि स्थितम्।
देवास्त्वत्सम्भवाश्चैव देवलस्त्वसितोऽब्रवीत् ॥ ७ ॥

मूलम्

अव्यक्तं ते शरीरोत्थं व्यक्तं ते मनसि स्थितम्।
देवास्त्वत्सम्भवाश्चैव देवलस्त्वसितोऽब्रवीत् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अव्यक्त (प्रधान) आपके शरीरसे उत्पन्न हुआ है, व्यक्त महत्तत्त्व आदि कार्यवर्ग आपके मनमें स्थित है तथा सम्पूर्ण देवता भी आपसे ही उत्पन्न हुए हैं; ऐसा असित और देवलका कथन है॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शिरसा ते दिवं व्याप्तं बाहुभ्यां पृथिवी तथा।
जठरं ते त्रयो लोकाः पुरुषोऽसि सनातनः ॥ ८ ॥
एवं त्वामभिजानन्ति तपसा भाविता नराः।
आत्मदर्शनतृप्तानामृषीणां चासि सत्तमः ॥ ९ ॥

मूलम्

शिरसा ते दिवं व्याप्तं बाहुभ्यां पृथिवी तथा।
जठरं ते त्रयो लोकाः पुरुषोऽसि सनातनः ॥ ८ ॥
एवं त्वामभिजानन्ति तपसा भाविता नराः।
आत्मदर्शनतृप्तानामृषीणां चासि सत्तमः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आपके मस्तकसे द्युलोक और भुजाओंसे भूलोक व्याप्त है। तीनों लोक आपके उदरमें स्थित हैं। आप ही सनातन पुरुष हैं। तपस्यासे शुद्ध अन्तःकरण-वाले महात्मा पुरुष आपको ऐसा ही जानते हैं। आत्मसाक्षात्कारसे तृप्त हुए ज्ञानी महर्षियोंकी दृष्टिमें भी आप सबसे श्रेष्ठ हैं॥८-९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजर्षीणामुदाराणामाहवेष्वनिवर्तिनाम् ।
सर्वधर्मप्रधानानां त्वं गतिर्मधुसूदन ॥ १० ॥

मूलम्

राजर्षीणामुदाराणामाहवेष्वनिवर्तिनाम् ।
सर्वधर्मप्रधानानां त्वं गतिर्मधुसूदन ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मधुसूदन! जो सम्पूर्ण धर्मोंमें प्रधान और संग्रामसे कभी पीछे हटनेवाले नहीं हैं, उन उदार राजर्षियोंके परम आश्रय भी आप ही हैं॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति नित्यं योगविद्भिर्भगवान् पुरुषोत्तमः।
सनत्कुमारप्रमुखैः स्तूयतेऽभ्यर्च्यते हरिः ॥ ११ ॥

मूलम्

इति नित्यं योगविद्भिर्भगवान् पुरुषोत्तमः।
सनत्कुमारप्रमुखैः स्तूयतेऽभ्यर्च्यते हरिः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इस प्रकार सनत्कुमार आदि योगवेत्ता पापापहारी आप भगवान् पुरुषोत्तमकी सदा ही स्तुति और पूजा करते हैं’॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष ते विस्तरस्तात संक्षेपश्च प्रकीर्तितः।
केशवस्य यथातत्त्वं सुप्रीतो भज केशवम् ॥ १२ ॥

मूलम्

एष ते विस्तरस्तात संक्षेपश्च प्रकीर्तितः।
केशवस्य यथातत्त्वं सुप्रीतो भज केशवम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तात! दुर्योधन! इस तरह विस्तार और संक्षेपसे मैंने तुम्हें भगवान् केशवकी यथार्थ महिमा बतायी है। अब तुम अत्यन्त प्रसन्न होकर उनका भजन करो॥१२॥

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुण्यं श्रुत्वैतदाख्यानं महाराज सुतस्तव।
केशवं बहु मेने स पाण्डवांश्च महारथान् ॥ १३ ॥

मूलम्

पुण्यं श्रुत्वैतदाख्यानं महाराज सुतस्तव।
केशवं बहु मेने स पाण्डवांश्च महारथान् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— महाराज! भीष्मजीके मुखसे यह पवित्र आख्यान सुनकर तुम्हारे पुत्रने भगवान् श्रीकृष्ण तथा महारथी पाण्डवोंको बहुत महत्त्वशाली समझा॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमब्रवीन्महाराज भीष्मः शान्तनवः पुनः।
माहात्म्यं ते श्रुतं राजन् केशवस्य महात्मनः ॥ १४ ॥
नरस्य च यथातत्त्वं यन्मां त्वं पृच्छसे नृप।

मूलम्

तमब्रवीन्महाराज भीष्मः शान्तनवः पुनः।
माहात्म्यं ते श्रुतं राजन् केशवस्य महात्मनः ॥ १४ ॥
नरस्य च यथातत्त्वं यन्मां त्वं पृच्छसे नृप।

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! उस समय शान्तनुनन्दन भीष्मजीने पुनः दुर्योधनसे कहा—‘नरेश्वर! तुमने महात्मा केशव तथा नरस्वरूप अर्जुनका यथार्थ माहात्म्य, जिसके विषयमें तुम मुझसे पूछ रहे थे, मुझसे अच्छी तरह सुन लिया॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदर्थं नृषु सम्भूतौ नरनारायणावृषी ॥ १५ ॥
अवध्यौ च यथा वीरौ संयुगेष्वपराजितौ।
यथा च पाण्डवा राजन्नवध्या युधि कस्यचित् ॥ १६ ॥

मूलम्

यदर्थं नृषु सम्भूतौ नरनारायणावृषी ॥ १५ ॥
अवध्यौ च यथा वीरौ संयुगेष्वपराजितौ।
यथा च पाण्डवा राजन्नवध्या युधि कस्यचित् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ऋषि नर और नारायण जिस उद्देश्यसे मनुष्योंमें अवतीर्ण हुए हैं, वे दोनों अपराजित वीर जिस प्रकार युद्धमें अवध्य हैं तथा समस्त पाण्डव भी जिस प्रकार समरभूमिमें किसीके लिये भी वध्य नहीं हैं, वह सब विषय तुमने अच्छी तरह सुन लिया॥१५-१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रीतिमान् हि दृढ़ कृष्णः पाण्डवेषु यशस्विषु।
तस्माद् ब्रवीमि राजेन्द्र शमो भवतु पाण्डवैः ॥ १७ ॥

मूलम्

प्रीतिमान् हि दृढ़ कृष्णः पाण्डवेषु यशस्विषु।
तस्माद् ब्रवीमि राजेन्द्र शमो भवतु पाण्डवैः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजेन्द्र! भगवान् श्रीकृष्ण यशस्वी पाण्डवोंपर बहुत प्रसन्न हैं। इसीलिये मैं कहता हूँ कि पाण्डवोंके साथ तुम्हारी संधि हो जाय॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पृथिवीं भुङ्‌क्ष्व सहितो भ्रातृभिर्बलिभिर्वशी।
नरनारायणौ देवाववज्ञाय नशिष्यसि ॥ १८ ॥

मूलम्

पृथिवीं भुङ्‌क्ष्व सहितो भ्रातृभिर्बलिभिर्वशी।
नरनारायणौ देवाववज्ञाय नशिष्यसि ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वे तुम्हारे बलवान् भाई हैं। तुम अपने मनको वशमें रखते हुए उनके साथ मिलकर पृथ्वीका राज्य भोगो। भगवान् नर-नारायण (अर्जुन और श्रीकृष्ण)-की अवहेलना करके तुम नष्ट हो जाओगे॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्त्वा तव पिता तूष्णीमासीद् विशाम्पते।
व्यसर्जयच्च राजानं शयनं च विवेश ह ॥ १९ ॥

मूलम्

एवमुक्त्वा तव पिता तूष्णीमासीद् विशाम्पते।
व्यसर्जयच्च राजानं शयनं च विवेश ह ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रजानाथ! ऐसा कहकर आपके ताऊ भीष्मजी चुप हो गये। तत्पश्चात् उन्होंने राजा दुर्योधनको विदा किया और स्वयं शयन करने चले गये॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजा च शिबिरं प्रायात् प्रणिपत्य महात्मने।
शिश्ये च शयने शुभ्रे रात्रिं तां भरतर्षभ ॥ २० ॥

मूलम्

राजा च शिबिरं प्रायात् प्रणिपत्य महात्मने।
शिश्ये च शयने शुभ्रे रात्रिं तां भरतर्षभ ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! राजा दुर्योधन भी महात्मा भीष्मको प्रणाम करके अपने शिविरमें चला आया और अपनी शुभ्र शय्यापर सो गया॥२०॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते भीष्मपर्वणि भीष्मवधपर्वणि विश्वोपाख्याने अष्टषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६८ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्वके अन्तर्गत भीष्मवधपर्वमें विश्वोपाख्यानविषयक अड़सठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥६८॥