०६५ विश्वोपाख्याने

भागसूचना

पञ्चषष्टितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

धृतराष्ट्र-संजय-संवादके प्रसंगमें दुर्योधनके द्वारा पाण्डवोंकी विजयका कारण पूछनेपर भीष्मका ब्रह्माजीके द्वारा की हुई भगवत्-स्तुतिका कथन

मूलम् (वचनम्)

धृतराष्ट्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भयं मे सुमहज्जातं विस्मयश्चैव संजय।
श्रुत्वा पाण्डुकुमाराणां कर्म देवैः सुदुष्करम् ॥ १ ॥

मूलम्

भयं मे सुमहज्जातं विस्मयश्चैव संजय।
श्रुत्वा पाण्डुकुमाराणां कर्म देवैः सुदुष्करम् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्र बोले— संजय! पाण्डवोंका देवताओंके लिये भी दुष्कर पराक्रम सुनकर मुझे बड़ा भारी भय और विस्मय हो रहा है॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुत्राणां च पराभावं श्रुत्वा संजय सर्वशः।
चिन्ता मे महती सूत भविष्यति कथं त्विति ॥ २ ॥

मूलम्

पुत्राणां च पराभावं श्रुत्वा संजय सर्वशः।
चिन्ता मे महती सूत भविष्यति कथं त्विति ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूत संजय! अपने पुत्रोंकी सब प्रकारसे पराजयका हाल सुनकर मेरी चिन्ता बढ़ती ही जा रही है। सोचता हूँ कैसे उनकी विजय होगी॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ध्रुवं विदुरवाक्यानि धक्ष्यन्ति हृदयं मम।
यथा हि दृश्यते सर्वं दैवयोगेन संजय ॥ ३ ॥

मूलम्

ध्रुवं विदुरवाक्यानि धक्ष्यन्ति हृदयं मम।
यथा हि दृश्यते सर्वं दैवयोगेन संजय ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय! निश्चय ही विदुरके वाक्य मेरे हृदयको जलाकर भस्म कर डालेंगे, क्योंकि उन्होंने जैसा कहा था, दैवयोगसे वह सब वैसा ही होता दिखायी देता है॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्र भीष्ममुखान्‌ सर्वान् शस्त्रज्ञान्‌ योधसत्तमान्।
पाण्डवानामनीकेषु योधयन्ति प्रहारिणः ॥ ४ ॥

मूलम्

यत्र भीष्ममुखान्‌ सर्वान् शस्त्रज्ञान्‌ योधसत्तमान्।
पाण्डवानामनीकेषु योधयन्ति प्रहारिणः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डवोंकी सेनाओंमें ऐसे-ऐसे प्रहारकुशल योद्धा हैं, जो शस्त्रविद्याके ज्ञाता एवं योद्धाओंमें श्रेष्ठ भीष्म आदि समस्त महारथियोंके साथ भी युद्ध कर लेते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

केनावध्या महात्मानः पाण्डुपुत्रा महाबलाः।
केन दत्तवरास्तात किं वा ज्ञानं विदन्ति ते ॥ ५ ॥

मूलम्

केनावध्या महात्मानः पाण्डुपुत्रा महाबलाः।
केन दत्तवरास्तात किं वा ज्ञानं विदन्ति ते ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तात! महाबली महात्मा पाण्डव किस कारणसे अवध्य हैं? किसने उन्हें वर दिया है अथवा कौन-सा ज्ञान वे जानते हैं?॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

येन क्षयं न गच्छन्ति दिवि तारागणा इव।
पुनः पुनर्न मृष्यामि हतं सैन्यं तु पाण्डवैः ॥ ६ ॥

मूलम्

येन क्षयं न गच्छन्ति दिवि तारागणा इव।
पुनः पुनर्न मृष्यामि हतं सैन्यं तु पाण्डवैः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिससे आकाशके तारोंके समान वे नष्ट नहीं हो रहे हैं। मैं पाण्डवोंके द्वारा बारंबार अपनी सेनाके मारे जानेकी बात सुनकर सहन नहीं कर पाता हूँ॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मय्येव दण्डः पतति दैवात् परमदारुणः।
यथावध्याः पाण्डुसुता यथा वध्याश्च मे सुताः ॥ ७ ॥
एतन्मे सर्वमाचक्ष्व याथातथ्येन संजय।

मूलम्

मय्येव दण्डः पतति दैवात् परमदारुणः।
यथावध्याः पाण्डुसुता यथा वध्याश्च मे सुताः ॥ ७ ॥
एतन्मे सर्वमाचक्ष्व याथातथ्येन संजय।

अनुवाद (हिन्दी)

दैववश मेरे ही ऊपर अत्यन्त भयंकर दण्ड पड़ रहा है। संजय! क्यों पाण्डव अवध्य हैं और क्यों मेरे पुत्र मारे जा रहे हैं? यह सब यथार्थरूपसे मुझे बताओ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हि पारं प्रपश्यामि दुःखस्यास्य कथंचन ॥ ८ ॥
समुद्रस्येव महतो भुजाभ्यां प्रतरन् नरः।

मूलम्

न हि पारं प्रपश्यामि दुःखस्यास्य कथंचन ॥ ८ ॥
समुद्रस्येव महतो भुजाभ्यां प्रतरन् नरः।

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे अपनी भुजाओंसे तैरनेवाला मनुष्य महासागरका पार नहीं पा सकता, उसी प्रकार मैं इस दुःखका अन्त किसी प्रकार नहीं देखता हूँ॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुत्राणां व्यसनं मन्ये ध्रुवं प्राप्तं सुदारुणम् ॥ ९ ॥
घातयिष्यति मे सर्वान् पुत्रान् भीमो न संशयः।

मूलम्

पुत्राणां व्यसनं मन्ये ध्रुवं प्राप्तं सुदारुणम् ॥ ९ ॥
घातयिष्यति मे सर्वान् पुत्रान् भीमो न संशयः।

अनुवाद (हिन्दी)

निश्चय ही मेरे पुत्रोंपर अत्यन्त भयंकर संकट प्राप्त हो गया है। मेरा विश्वास है कि भीमसेन मेरे सभी पुत्रोंको मार डालेंगे, इसमें संशय नहीं है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हि पश्यामि तं वीरं यो मे रक्षेत् सुतान् रणे॥१०॥
ध्रुवं विनाशः सम्प्राप्तः पुत्राणां मम संजय।

मूलम्

न हि पश्यामि तं वीरं यो मे रक्षेत् सुतान् रणे॥१०॥
ध्रुवं विनाशः सम्प्राप्तः पुत्राणां मम संजय।

अनुवाद (हिन्दी)

मैं ऐसे किसी वीरको नहीं देखता, जो रणक्षेत्रमें मेरे पुत्रोंकी रक्षा कर सके। संजय! अवश्य ही मेरे पुत्रोंके विनाशकी घड़ी आ पहुँची है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मान्मे कारणं सूत शक्तिं चैव विशेषतः ॥ ११ ॥
पृच्छतो वै यथातत्त्वं सर्वमाख्यातुमर्हसि।

मूलम्

तस्मान्मे कारणं सूत शक्तिं चैव विशेषतः ॥ ११ ॥
पृच्छतो वै यथातत्त्वं सर्वमाख्यातुमर्हसि।

अनुवाद (हिन्दी)

अतः सूत! मैं तुमसे शक्ति1 और कारणके2 विषयमें जो विशेष प्रश्न कर रहा हूँ, वह सब यथार्थरूपसे बताओ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुर्योधनश्च यच्चक्रे दृष्ट्‌वा स्वान्‌ विमुखान् रणे ॥ १२ ॥
भीष्मद्रोणौ कृपश्चैव सौबलश्च जयद्रथः।
द्रौणिर्वापि महेष्वासो विकर्णो वा महाबलः ॥ १३ ॥
निश्चयो वापि कस्तेषां तदा ह्यासीन्महात्मनाम्।
विमुखेषु महाप्राज्ञ मम पुत्रेषु संजय ॥ १४ ॥

मूलम्

दुर्योधनश्च यच्चक्रे दृष्ट्‌वा स्वान्‌ विमुखान् रणे ॥ १२ ॥
भीष्मद्रोणौ कृपश्चैव सौबलश्च जयद्रथः।
द्रौणिर्वापि महेष्वासो विकर्णो वा महाबलः ॥ १३ ॥
निश्चयो वापि कस्तेषां तदा ह्यासीन्महात्मनाम्।
विमुखेषु महाप्राज्ञ मम पुत्रेषु संजय ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युद्धमें अपने सैनिकोंको विमुख हुआ देख दुर्योधनने क्या किया? भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य, शकुनि, जयद्रथ, महाधनुर्धर अश्वत्थामा और महाबली विकर्णने भी क्या किया? महाप्राज्ञ संजय! मेरे पुत्रोंके विमुख होनेपर उन महामना महारथियोंने उस समय क्या निश्चय किया?॥१२—१४॥

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

शृणु राजन्नवहितः श्रुत्वा चैवावधारय।
नैव मन्त्रकृतं किंचिन्नैव मायां तथाविधाम् ॥ १५ ॥

मूलम्

शृणु राजन्नवहितः श्रुत्वा चैवावधारय।
नैव मन्त्रकृतं किंचिन्नैव मायां तथाविधाम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजयने कहा— महाराज! सावधान होकर सुनिये और सुनकर स्वयं ही पाण्डवोंकी शक्ति और अपनी पराजयके कारणके विषयमें निश्चय कीजिये। पाण्डवोंमें न कोई मन्त्रका प्रभाव है और न कोई वैसी माया ही वे करते हैं॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न वै विभीषिकां कांचिद् राजन् कुर्वन्ति पाण्डवाः।
युध्यन्ति ते यथान्यायं शक्तिमन्तश्च संयुगे ॥ १६ ॥

मूलम्

न वै विभीषिकां कांचिद् राजन् कुर्वन्ति पाण्डवाः।
युध्यन्ति ते यथान्यायं शक्तिमन्तश्च संयुगे ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! पाण्डवलोग युद्धमें किसी विभीषिकाका प्रदर्शन नहीं करते। अर्थात् किसी भी प्रकारसे भयभीत नहीं होते। वे न्यायपूर्वक युद्ध करते हैं। शक्तिशाली तो वे हैं ही॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मेण सर्वकार्याणि जीवितादीनि भारत।
आरभन्ते सदा पार्थाः प्रार्थयाना महद् यशः ॥ १७ ॥

मूलम्

धर्मेण सर्वकार्याणि जीवितादीनि भारत।
आरभन्ते सदा पार्थाः प्रार्थयाना महद् यशः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! कुन्तीके पुत्र जीवन-निर्वाह आदिके सभी कार्य सदा धर्मपूर्वक ही आरम्भ करते हैं। कारण कि वे जगत्‌में अपना महान् यश फैलाना चाहते हैं॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न ते युद्धान्निवर्तन्ते धर्मोपेता महाबलाः।
श्रिया परमया युक्ता यतो धर्मस्ततो जयः ॥ १८ ॥

मूलम्

न ते युद्धान्निवर्तन्ते धर्मोपेता महाबलाः।
श्रिया परमया युक्ता यतो धर्मस्ततो जयः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे युद्धसे कभी पीछे नहीं हटते हैं। धर्मबलसे सम्पन्न होनेके कारण ही वे महाबली और उत्तम समृद्धिसे युक्त हैं। जहाँ धर्म होता है, उसी पक्षकी विजय होती है॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेनावध्या रणे पार्था जययुक्ताश्च पार्थिव।
तव पुत्रा दुरात्मानः पापेष्वभिरताः सदा ॥ १९ ॥
निष्ठुरा हीनकर्माणस्तेन हीयन्ति संयुगे।

मूलम्

तेनावध्या रणे पार्था जययुक्ताश्च पार्थिव।
तव पुत्रा दुरात्मानः पापेष्वभिरताः सदा ॥ १९ ॥
निष्ठुरा हीनकर्माणस्तेन हीयन्ति संयुगे।

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! धर्मके ही कारण कुन्तीके पुत्र युद्धमें अवध्य और विजयी हो रहे हैं। इधर आपके दुरात्मा पुत्र सदा पापोंमें ही तत्पर रहते हैं। निर्दय होनेके साथ ही निकृष्ट कर्ममें लगे रहते हैं। इसीलिये युद्धस्थलमें उन्हें हानि उठानी पड़ती है॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुबहूनि नृशंसानि पुत्रैस्तव जनेश्वर ॥ २० ॥
निकृतानीह पाण्डूनां नीचैरिव यथा नरैः।
सर्वं च तदनादृत्य पुत्राणां तव किल्बिषम् ॥ २१ ॥
सापह्नवाः सदैवासन् पाण्डवाः पाण्डुपूर्वज।
न चैतान् बहु मन्यन्ते पुत्रास्तव विशाम्पते ॥ २२ ॥

मूलम्

सुबहूनि नृशंसानि पुत्रैस्तव जनेश्वर ॥ २० ॥
निकृतानीह पाण्डूनां नीचैरिव यथा नरैः।
सर्वं च तदनादृत्य पुत्राणां तव किल्बिषम् ॥ २१ ॥
सापह्नवाः सदैवासन् पाण्डवाः पाण्डुपूर्वज।
न चैतान् बहु मन्यन्ते पुत्रास्तव विशाम्पते ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनेश्वर! आपके पुत्रोंने नीच मनुष्योंकी भाँति पाण्डवोंके प्रति बहुत-से क्रूरतापूर्ण बर्ताव तथा छल-कपट किये हैं, परंतु आपके पुत्रोंका वह सारा अपराध भुलाकर पाण्डव सदा उन दोषोंपर पर्दा ही डालते आये हैं। पाण्डुके बड़े भाई महाराज! इसपर भी आपके पुत्र इन पाण्डवोंको अधिक आदर नहीं देते हैं॥२०—२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य पापस्य सततं क्रियमाणस्य कर्मणः।
साम्प्रतं सुमहद् घोरं फलं प्राप्तं जनेश्वर ॥ २३ ॥

मूलम्

तस्य पापस्य सततं क्रियमाणस्य कर्मणः।
साम्प्रतं सुमहद् घोरं फलं प्राप्तं जनेश्वर ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनेश्वर! निरन्तर किये जानेवाले उसी पाप-कर्मका इस समय यह अत्यन्त भयंकर फल प्राप्त हुआ है॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स त्वं भुङ्‌क्ष्व महाराज सपुत्रः ससुहृज्जनः।
नावबुध्यसि यद् राजन् वार्यमाणः सुहृज्जनैः ॥ २४ ॥

मूलम्

स त्वं भुङ्‌क्ष्व महाराज सपुत्रः ससुहृज्जनः।
नावबुध्यसि यद् राजन् वार्यमाणः सुहृज्जनैः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! आप सुहृदोंके मना करनेपर भी जो ध्यान नहीं देते हैं, इससे अब स्वयं ही पुत्रों और सुहृदोंसहित अपनी अनीतिका फल भोगिये॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विदुरेणाथ भीष्मेण द्रोणेन च महात्मना।
तथा मया चाप्यसकृद् वार्यमाणो न बुध्यसे ॥ २५ ॥

मूलम्

विदुरेणाथ भीष्मेण द्रोणेन च महात्मना।
तथा मया चाप्यसकृद् वार्यमाणो न बुध्यसे ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विदुर, भीष्म तथा महात्मा द्रोणने और मैंने भी बारंबार आपको मना किया है; किंतु आप कभी समझ नहीं पाते थे॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वाक्यं हितं च पथ्यं च मर्त्याः पथ्यमिवौषधम्।
पुत्राणां मतमाज्ञाय जितान् मन्यसि पाण्डवान् ॥ २६ ॥

मूलम्

वाक्यं हितं च पथ्यं च मर्त्याः पथ्यमिवौषधम्।
पुत्राणां मतमाज्ञाय जितान् मन्यसि पाण्डवान् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे मरणासन्न मनुष्य हितकारी औषधको भी फेंक देते हैं, उसी प्रकार आपने हमलोगोंके कहे हुए लाभकारी और हितकर वचनोंको भी ठुकरा दिया एवं अब अपने पुत्रोंकी बातमें आकर यह मान रहे हैं कि हमने पाण्डवोंको जीत लिया॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शृणु भूयो यथातत्त्वं यन्मां त्वं परिपृच्छसि।
कारणं भरतश्रेष्ठ पाण्डवानां जयं प्रति ॥ २७ ॥
तत् तेऽहं कथयिष्यामि यथाश्रुतमरिंदम।

मूलम्

शृणु भूयो यथातत्त्वं यन्मां त्वं परिपृच्छसि।
कारणं भरतश्रेष्ठ पाण्डवानां जयं प्रति ॥ २७ ॥
तत् तेऽहं कथयिष्यामि यथाश्रुतमरिंदम।

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! आप पाण्डवोंकी विजय और अपनी पराजयका जो कारण पूछते हैं, उसके विषयमें यथार्थ बातें सुनिये। शत्रुदमन! मैंने जैसा सुन रखा है, वह आपको बताऊँगा॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुर्योधनेन सम्पृष्ट एतमर्थं पितामहः ॥ २८ ॥
दृष्ट्‌वा भ्रातॄन् रणे सर्वान्‌ निर्जितांस्तु महारथान्।
शोकसम्मूढहृदयो निशाकाले स्म कौरवः ॥ २९ ॥
पितामहं महाप्राज्ञं विनयेनोपगम्य ह।
यदब्रवीत् सुतस्तेऽसौ तन्मे शृणु जनेश्वर ॥ ३० ॥

मूलम्

दुर्योधनेन सम्पृष्ट एतमर्थं पितामहः ॥ २८ ॥
दृष्ट्‌वा भ्रातॄन् रणे सर्वान्‌ निर्जितांस्तु महारथान्।
शोकसम्मूढहृदयो निशाकाले स्म कौरवः ॥ २९ ॥
पितामहं महाप्राज्ञं विनयेनोपगम्य ह।
यदब्रवीत् सुतस्तेऽसौ तन्मे शृणु जनेश्वर ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्योधनने यही बात पितामह भीष्मसे पूछी थी। महाराज! युद्धमें अपने समस्त महारथी भाइयोंको पराजित हुआ देख आपके पुत्र कुरुराज दुर्योधनका हृदय शोकसे मोहित हो गया। उसने रातमें महाज्ञानी पितामह भीष्मके पास विनयपूर्वक जाकर जो कुछ पूछा था, वह बताता हूँ, मुझसे सुनिये॥२८—३०॥

मूलम् (वचनम्)

दुर्योधन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्रोणश्च त्वं च शल्यश्च कृपो द्रोणिस्तथैव च।
कृतवर्मा च हार्दिक्यः काम्बोजश्च सुदक्षिणः ॥ ३१ ॥
भूरिश्रवा विकर्णश्च भगदत्तश्च वीर्यवान्।
महारथाः समाख्याताः कुलपुत्रास्तनुत्यजः ॥ ३२ ॥

मूलम्

द्रोणश्च त्वं च शल्यश्च कृपो द्रोणिस्तथैव च।
कृतवर्मा च हार्दिक्यः काम्बोजश्च सुदक्षिणः ॥ ३१ ॥
भूरिश्रवा विकर्णश्च भगदत्तश्च वीर्यवान्।
महारथाः समाख्याताः कुलपुत्रास्तनुत्यजः ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्योधनने पूछा— पितामह! आप, द्रोणाचार्य, शल्य, कृपाचार्य, अश्वत्थामा, हृदिकपुत्र कृतवर्मा, कम्बोजराज सुदक्षिण, भूरिश्रवा, विकर्ण तथा पराक्रमी भगदत्त—ये सब महारथी कहे जाते हैं। सभी कुलीन और युद्धमें मेरे लिये अपना शरीर निछावर करनेको तैयार हैं॥३१-३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रयाणामपि लोकानां पर्याप्ता इति मे मतिः।
पाण्डवानां समस्ताश्च नातिष्ठन्त पराक्रमे ॥ ३३ ॥

मूलम्

त्रयाणामपि लोकानां पर्याप्ता इति मे मतिः।
पाण्डवानां समस्ताश्च नातिष्ठन्त पराक्रमे ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरा तो ऐसा विश्वास है कि आप सब लोग मिल जायँ तो तीनों लोकोंपर भी विजय पानेमें समर्थ हो सकते हैं, परंतु पाण्डवोंके पराक्रमके सामने आप सब लोग टिक नहीं पाते हैं। इसका क्या कारण है?॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र मे संशयो जातस्तन्ममाचक्ष्व पृच्छतः।
यं समाश्रित्य कौन्तेया जयन्त्यस्मान् क्षणे क्षणे ॥ ३४ ॥

मूलम्

तत्र मे संशयो जातस्तन्ममाचक्ष्व पृच्छतः।
यं समाश्रित्य कौन्तेया जयन्त्यस्मान् क्षणे क्षणे ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस विषयमें मुझे बड़ा भारी संदेह है; अतः मेरे प्रश्नके अनुसार आप उसका उत्तर दीजिये। किसका आश्रय लेकर ये कुन्तीके पुत्र क्षण-क्षणमें हमलोगोंपर विजय पा रहे हैं॥३४॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

शृणु राजन् वचो मह्यं यथा वक्ष्यामि कौरव।
बहुशश्च मयोक्तोऽसि न च मे तत् त्वया कृतम्॥३५॥

मूलम्

शृणु राजन् वचो मह्यं यथा वक्ष्यामि कौरव।
बहुशश्च मयोक्तोऽसि न च मे तत् त्वया कृतम्॥३५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— कुरुनन्दन! नरेश्वर! मेरी बात सुनो। इस विषयमें जो यथार्थ बात है, उसे बताता हूँ। मैंने अनेक बार पहले भी तुमसे ये बातें कही हैं, परंतु तुमने उन्हें माना नहीं है॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्रियतां पाण्डवैः सार्धं शमो भरतसत्तम।
एतत् क्षेममहं मन्ये पृथिव्यास्तव वा विभो ॥ ३६ ॥

मूलम्

क्रियतां पाण्डवैः सार्धं शमो भरतसत्तम।
एतत् क्षेममहं मन्ये पृथिव्यास्तव वा विभो ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! तुम पाण्डवोंके साथ संधि कर लो। प्रभो! इसीमें मैं तुम्हारा और भूमण्डलका कल्याण समझता हूँ॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भुङ्‌क्ष्वेमां पृथिवीं राजन् भ्रातृभिः सहितः सुखी।
दुर्हृदस्तापयन् सर्वान् नन्दयंश्चापि बान्धवान् ॥ ३७ ॥

मूलम्

भुङ्‌क्ष्वेमां पृथिवीं राजन् भ्रातृभिः सहितः सुखी।
दुर्हृदस्तापयन् सर्वान् नन्दयंश्चापि बान्धवान् ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! तुम अपने सभी शत्रुओंको संताप और बन्धु-बान्धवोंको आनन्द प्रदान करते हुए भाइयोंके साथ मिलकर सुखी रहो और इस पृथ्वीका राज्य भोगो॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न च मे क्रोशतस्तात श्रुतवानसि वै पुरा।
तदिदं समनुप्राप्तं यत् पाण्डूनवमन्यसे ॥ ३८ ॥

मूलम्

न च मे क्रोशतस्तात श्रुतवानसि वै पुरा।
तदिदं समनुप्राप्तं यत् पाण्डूनवमन्यसे ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तात! इस तरहकी बातें मैंने पहले पुकार-पुकारकर कही हैं, परंतु तुमने उन सबको अनसुनी कर दिया है। तुम जो पाण्डवोंका अपमान करते आये हो, आज उसीका यह फल प्राप्त हुआ है॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यश्च हेतुरवध्यत्वे तेषामक्लिष्टकर्मणाम् ।
तं शृणुष्व महाबाहो मम कीर्तयतः प्रभो ॥ ३९ ॥

मूलम्

यश्च हेतुरवध्यत्वे तेषामक्लिष्टकर्मणाम् ।
तं शृणुष्व महाबाहो मम कीर्तयतः प्रभो ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाबाहो! प्रभो! अनायास ही महान् कर्म करनेवाले पाण्डवोंके अवध्य होनेमें जो हेतु है, उसे बताता हूँ, सुनो॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नास्ति लोकेषु तद् भूतं भविता नो भविष्यति।
यो जयेत्‌ पाण्डवान्‌ सर्वान् पालिताञ्छार्ङ्गधन्वना ॥ ४० ॥
(ससुरासुरमर्त्येषु यो विद्यात् तत्त्वतो हरिम्।)

मूलम्

नास्ति लोकेषु तद् भूतं भविता नो भविष्यति।
यो जयेत्‌ पाण्डवान्‌ सर्वान् पालिताञ्छार्ङ्गधन्वना ॥ ४० ॥
(ससुरासुरमर्त्येषु यो विद्यात् तत्त्वतो हरिम्।)

अनुवाद (हिन्दी)

लोकमें ऐसा कोई प्राणी न हुआ है, न है और न होगा, जो शार्ङ्ग-धनुष धारण करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा सुरक्षित इन सब पाण्डवोंपर विजय पा सके तथा देवता, असुर और मनुष्योंमें ऐसा भी कोई नहीं है, जो उन भगवान् श्रीहरिको यथार्थरूपसे जान सके॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत् तु मे कथितं तात मुनिभिर्भावितात्मभिः।
पुराणगीतं धर्मज्ञ तच्छृणुष्व यथातथम् ॥ ४१ ॥

मूलम्

यत् तु मे कथितं तात मुनिभिर्भावितात्मभिः।
पुराणगीतं धर्मज्ञ तच्छृणुष्व यथातथम् ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तात धर्मज्ञ! पवित्र अन्तःकरणवाले मुनियोंने मुझसे जो पुराणप्रतिपादित यथार्थ बातें कही हैं, उन्हें बताता हूँ, सुनो॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुरा किल सुराः सर्वे ऋषयश्च समागताः।
पितामहमुपासेदुः पर्वते गन्धमादने ॥ ४२ ॥

मूलम्

पुरा किल सुराः सर्वे ऋषयश्च समागताः।
पितामहमुपासेदुः पर्वते गन्धमादने ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पहलेकी बात है, समस्त देवता और महर्षि गन्धमादन पर्वतपर आकर पितामह ब्रह्माजीके पास बैठे॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषां मध्ये समासीनः प्रजापतिरपश्यत।
विमानं प्रज्वलद् भासा स्थितं प्रवरमम्बरे ॥ ४३ ॥

मूलम्

तेषां मध्ये समासीनः प्रजापतिरपश्यत।
विमानं प्रज्वलद् भासा स्थितं प्रवरमम्बरे ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय उनके बीचमें बैठे हुए प्रजापति ब्रह्माने आकाशमें खड़ा हुआ एक श्रेष्ठ विमान देखा, जो अपने तेजसे प्रज्वलित हो रहा था॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ध्यानेनावेद्य तद् ब्रह्मा कृत्वा च नियतोऽञ्जलिम्।
नमश्चकार हृष्टात्मा पुरुषं परमेश्वरम् ॥ ४४ ॥

मूलम्

ध्यानेनावेद्य तद् ब्रह्मा कृत्वा च नियतोऽञ्जलिम्।
नमश्चकार हृष्टात्मा पुरुषं परमेश्वरम् ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपने मनको संयममें रखनेवाले ब्रह्माजीने ध्यानसे यथार्थ बात जानकर हाथ जोड़ लिये और प्रसन्नचित्त होकर उन परम पुरुष परमेश्वरको नमस्कार किया॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋषयस्त्वथ देवाश्च दृष्ट्‌वा ब्रह्माणमुत्थितम्।
स्थिताः प्राञ्जलयः सर्वे पश्यन्तो महदद्‌भुतम् ॥ ४५ ॥

मूलम्

ऋषयस्त्वथ देवाश्च दृष्ट्‌वा ब्रह्माणमुत्थितम्।
स्थिताः प्राञ्जलयः सर्वे पश्यन्तो महदद्‌भुतम् ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऋषि तथा देवता ब्रह्माजीको खड़े (और हाथ जोड़े) हुए देख स्वयं भी उस परम अद्‌भुत तेजका दर्शन करते हुए हाथ जोड़कर खड़े हो गये॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथावच्च तमभ्यर्च्य ब्रह्मा ब्रह्मविदां वरः।
जगाद जगतः स्रष्टा परं परमधर्मवित् ॥ ४६ ॥

मूलम्

यथावच्च तमभ्यर्च्य ब्रह्मा ब्रह्मविदां वरः।
जगाद जगतः स्रष्टा परं परमधर्मवित् ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ, परम धर्मज्ञ, जगत्‌स्रष्टा ब्रह्माजीने उन तेजोमय परम पुरुषका यथावत् पूजन करके उनकी स्तुति की॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विश्वावसुर्विश्वमूर्तिर्विश्वेशो
विष्वक्सेनो विश्वकर्मा वशी च।
विश्वेश्वरो वासुदेवोऽसि तस्माद्
योगात्मानं दैवतं त्वामुपैमि ॥ ४७ ॥

मूलम्

विश्वावसुर्विश्वमूर्तिर्विश्वेशो
विष्वक्सेनो विश्वकर्मा वशी च।
विश्वेश्वरो वासुदेवोऽसि तस्माद्
योगात्मानं दैवतं त्वामुपैमि ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! आप सम्पूर्ण विश्वको आच्छादित करनेवाले, विश्वस्वरूप और विश्वके स्वामी हैं। विश्वमें सब ओर आपकी सेना है। यह विश्व आपका कार्य है। आप सबको अपने वशमें रखनेवाले हैं। इसीलिये आपको विश्वेश्वर और वासुदेव कहते हैं। आप योगस्वरूप देवता हैं, मैं आपकी शरणमें आया हूँ॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जय विश्व महादेव जय लोकहिते रत।
जय योगीश्वर विभो जय योगपरावर ॥ ४८ ॥

मूलम्

जय विश्व महादेव जय लोकहिते रत।
जय योगीश्वर विभो जय योगपरावर ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विश्वरूप महादेव! आपकी जय हो, लोकहितमें लगे रहनेवाले परमेश्वर! आपकी जय हो। सर्वत्र व्याप्त रहनेवाले योगीश्वर! आपकी जय हो। योगके आदि और अन्त! आपकी जय हो॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पद्मगर्भ विशालाक्ष जय लोकेश्वरेश्वर।
भूतभव्यभवन्नाथ जय सौम्यात्मजात्मज ॥ ४९ ॥
असंख्येयगुणाधार जय सर्वपरायण ।
नारायण सुदुष्पार जय शार्ङ्गधनुर्धर ॥ ५० ॥

मूलम्

पद्मगर्भ विशालाक्ष जय लोकेश्वरेश्वर।
भूतभव्यभवन्नाथ जय सौम्यात्मजात्मज ॥ ४९ ॥
असंख्येयगुणाधार जय सर्वपरायण ।
नारायण सुदुष्पार जय शार्ङ्गधनुर्धर ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपकी नाभिसे आदि कमलकी उत्पत्ति हुई है, आपके नेत्र विशाल हैं, आप लोकेश्वरोंके भी ईश्वर हैं; आपकी जय हो। भूत, भविष्य और वर्तमानके स्वामी! आपकी जय हो। आपका स्वरूप सौम्य है, मैं स्वयम्भू ब्रह्मा आपका पुत्र हूँ। आप असंख्य गुणोंके आधार और सबको शरण देनेवाले हैं, आपकी जय हो। शार्ङ्गधनुष धारण करनेवाले नारायण! आपकी महिमाका पार पाना बहुत ही कठिन है, आपकी जय हो॥४९-५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जय सर्वगुणोपेत विश्वमूर्ते निरामय।
विश्वेश्वर महाबाहो जय लोकार्थतत्पर ॥ ५१ ॥

मूलम्

जय सर्वगुणोपेत विश्वमूर्ते निरामय।
विश्वेश्वर महाबाहो जय लोकार्थतत्पर ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप समस्त कल्याणमय गुणोंसे सम्पन्न, विश्वमूर्ति और निरामय हैं; आपकी जय हो। जगत्‌का अभीष्ट साधन करनेवाले महाबाहु विश्वेश्वर! आपकी जय हो॥५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महोरग वराहाद्य हरिकेश विभो जय।
हरिवास दिशामीश विश्ववासामिताव्यय ॥ ५२ ॥

मूलम्

महोरग वराहाद्य हरिकेश विभो जय।
हरिवास दिशामीश विश्ववासामिताव्यय ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप महान् शेषनाग और महावाराह-रूप धारण करनेवाले हैं, सबके आदि कारण हैं। हरिकेश! प्रभो! आपकी जय हो, आप पीताम्बरधारी, दिशाओंके स्वामी, विश्वके आधार, अप्रमेय और अविनाशी हैं॥५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्यक्ताव्यक्तामितस्थान नियतेन्द्रिय सत्क्रिय ।
असंख्येयात्मभावज्ञ जय गम्भीर कामद ॥ ५३ ॥

मूलम्

व्यक्ताव्यक्तामितस्थान नियतेन्द्रिय सत्क्रिय ।
असंख्येयात्मभावज्ञ जय गम्भीर कामद ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

व्यक्त और अव्यक्त—सब आपहीका स्वरूप है, आपके रहनेका स्थान असीम-अनन्त है, आप इन्द्रियोंके नियन्ता हैं। आपके सभी कर्म शुभ-ही-शुभ हैं। आपकी कोई इयत्ता नहीं है, आप आत्मस्वरूपके ज्ञाता, स्वभावतः गम्भीर और भक्तोंकी कामनाएँ पूर्ण करनेवाले हैं; आपकी जय हो॥५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनन्तविदित ब्रह्मन् नित्य भूतविभावन।
कृतकार्य कृतप्रज्ञ धर्मज्ञ विजयावह ॥ ५४ ॥

मूलम्

अनन्तविदित ब्रह्मन् नित्य भूतविभावन।
कृतकार्य कृतप्रज्ञ धर्मज्ञ विजयावह ॥ ५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्मन्! आप अनन्तबोधस्वरूप हैं, नित्य हैं और सम्पूर्ण भूतोंको उत्पन्न करनेवाले हैं। आपको कुछ करना बाकी नहीं है, आपकी बुद्धि पवित्र है, आप धर्मका तत्त्व जाननेवाले और विजयप्रदाता हैं॥५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुह्यात्मन् सर्वयोगात्मन् स्फुटं सम्भूतसम्भव।
भूताद्य लोकतत्त्वेश जय भूतविभावन ॥ ५५ ॥

मूलम्

गुह्यात्मन् सर्वयोगात्मन् स्फुटं सम्भूतसम्भव।
भूताद्य लोकतत्त्वेश जय भूतविभावन ॥ ५५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पूर्णयोगस्वरूप परमात्मन्! आपका स्वरूप गूढ होता हुआ भी स्पष्ट है। अबतक जो हो चुका है और जो हो रहा है, सब आपका ही रूप है। आप सम्पूर्ण भूतोंके आदि कारण और लोकतत्त्वके स्वामी हैं। भूतभावन! आपकी जय हो॥५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आत्मयोने महाभाग कल्पसंक्षेप तत्पर।
उद्‌भावनमनोभाव जय ब्रह्म जनप्रिय ॥ ५६ ॥

मूलम्

आत्मयोने महाभाग कल्पसंक्षेप तत्पर।
उद्‌भावनमनोभाव जय ब्रह्म जनप्रिय ॥ ५६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप स्वयम्भू हैं, आपका सौभाग्य महान् है। आप इस कल्पका संहार करनेवाले एवं विशुद्ध परब्रह्म हैं। ध्यान करनेसे अन्तःकरणमें आपका आविर्भाव होता है, आप जीवमात्रके प्रियतम परब्रह्म हैं, आपकी जय हो॥५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निसर्गसर्गनिरत कामेश परमेश्वर ।
अमृतोद्भव सद्भाव मुक्तात्मन् विजयप्रद ॥ ५७ ॥

मूलम्

निसर्गसर्गनिरत कामेश परमेश्वर ।
अमृतोद्भव सद्भाव मुक्तात्मन् विजयप्रद ॥ ५७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप स्वभावतः संसारकी सृष्टिमें प्रवृत्त रहते हैं, आप ही सम्पूर्ण कामनाओंके स्वामी परमेश्वर हैं। अमृतकी उत्पत्तिके स्थान, सत्यस्वरूप, मुक्तात्मा और विजय देनेवाले आप ही हैं॥५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रजापतिपते देव पद्मनाभ महाबल।
आत्मभूत महाभूत सत्त्वात्मन् जय सर्वदा ॥ ५८ ॥

मूलम्

प्रजापतिपते देव पद्मनाभ महाबल।
आत्मभूत महाभूत सत्त्वात्मन् जय सर्वदा ॥ ५८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देव! आप ही प्रजापतियोंके भी पति, पद्मनाभ और महाबली हैं। आत्मा और महाभूत भी आप ही हैं। सत्त्वस्वरूप परमेश्वर! सदा आपकी जय हो॥५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पादौ तव धरा देवी दिशो बाहू दिवं शिरः।
मूर्तिस्तेऽहं सुराः कायश्चन्द्रादित्यौ च चक्षुषी ॥ ५९ ॥

मूलम्

पादौ तव धरा देवी दिशो बाहू दिवं शिरः।
मूर्तिस्तेऽहं सुराः कायश्चन्द्रादित्यौ च चक्षुषी ॥ ५९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पृथ्वीदेवी आपके चरण हैं, दिशाएँ बाहु हैं और द्युलोक मस्तक है। मैं ब्रह्मा आपका शरीर, देवता अंग-प्रत्यंग और चन्द्रमा तथा सूर्य नेत्र हैं॥५९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बलं तपश्च सत्यं च कर्म धर्मात्मकं तव।
तेजोऽग्निः पवनः श्वास आपस्ते स्वेदसम्भवाः ॥ ६० ॥

मूलम्

बलं तपश्च सत्यं च कर्म धर्मात्मकं तव।
तेजोऽग्निः पवनः श्वास आपस्ते स्वेदसम्भवाः ॥ ६० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तप और सत्य आपका बल है तथा धर्म और कर्म आपका स्वरूप है। अग्नि आपका तेज, वायु साँस और जल पसीना है॥६०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अश्विनौ श्रवणौ नित्यं देवी जिह्वा सरस्वती।
वेदाः संस्कारनिष्ठा हि त्वयीदं जगदाश्रितम् ॥ ६१ ॥

मूलम्

अश्विनौ श्रवणौ नित्यं देवी जिह्वा सरस्वती।
वेदाः संस्कारनिष्ठा हि त्वयीदं जगदाश्रितम् ॥ ६१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अश्विनीकुमार आपके कान और सरस्वती देवी आपकी जिह्वा हैं। वेद आपकी संस्कारनिष्ठा हैं। यह जगत् सदा आपहीके आधारपर टिका हुआ है॥६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न संख्यानं परीमाणं न तेजो न पराक्रमम्।
न बलं योगयोगीश जानीमस्ते न सम्भवम् ॥ ६२ ॥

मूलम्

न संख्यानं परीमाणं न तेजो न पराक्रमम्।
न बलं योगयोगीश जानीमस्ते न सम्भवम् ॥ ६२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

योग-योगीश्वर! हम न तो आपकी संख्या जानते हैं, न परिमाण। आपके तेज, पराक्रम और बलका भी हमें पता नहीं है। हम यह भी नहीं जानते कि आपका आविर्भाव कैसे होता है॥६२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वद्भक्तिनिरता देव नियमैस्त्वां समाश्रिताः।
अर्चयामः सदा विष्णो परमेशं महेश्वरम् ॥ ६३ ॥
ऋषयो देवगन्धर्वा यक्षराक्षसपन्नगाः ।
पिशाचा मानुषाश्चैव मृगपक्षिसरीसृपाः ॥ ६४ ॥
एवमादि मया सृष्टं पृथिव्यां त्वत्प्रसादजम्।

मूलम्

त्वद्भक्तिनिरता देव नियमैस्त्वां समाश्रिताः।
अर्चयामः सदा विष्णो परमेशं महेश्वरम् ॥ ६३ ॥
ऋषयो देवगन्धर्वा यक्षराक्षसपन्नगाः ।
पिशाचा मानुषाश्चैव मृगपक्षिसरीसृपाः ॥ ६४ ॥
एवमादि मया सृष्टं पृथिव्यां त्वत्प्रसादजम्।

अनुवाद (हिन्दी)

देव! हम तो आपकी उपासनामें लगे रहते हैं। आपके नियमोंका पालन करते हुए आपके ही शरण हैं। विष्णो! हम सदा आप परमेश्वर एवं महेश्वरका पूजन ही करते हैं। आपकी ही कृपासे हमने पृथ्वीपर ऋषि, देवता, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, सर्प, पिशाच, मनुष्य, मृग, पक्षी तथा कीड़े-मकोड़े आदिकी सृष्टि की है॥६३-६४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पद्मनाभ विशालाक्ष कृष्ण दुःखप्रणाशन ॥ ६५ ॥
त्वं गतिः सर्वभूतानां त्वं नेता त्वं जगद्‌गुरुः।
त्वत्प्रसादेन देवेश सुखिनो विबुधाः सदा ॥ ६६ ॥

मूलम्

पद्मनाभ विशालाक्ष कृष्ण दुःखप्रणाशन ॥ ६५ ॥
त्वं गतिः सर्वभूतानां त्वं नेता त्वं जगद्‌गुरुः।
त्वत्प्रसादेन देवेश सुखिनो विबुधाः सदा ॥ ६६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पद्मनाभ! विशाललोचन! दुःखहारी श्रीकृष्ण! आप ही सम्पूर्ण प्राणियोंके आश्रय और नेता हैं, आप ही संसारके गुरु हैं। देवेश्वर! आपकी कृपादृष्टि होनेसे ही सब देवता सदा सुखी रहते हैं॥६५-६६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पृथिवी निर्भया देव त्वत्प्रसादात् सदाभवत्।
तस्माद् भव विशालाक्ष यदुवंशविवर्धनः ॥ ६७ ॥

मूलम्

पृथिवी निर्भया देव त्वत्प्रसादात् सदाभवत्।
तस्माद् भव विशालाक्ष यदुवंशविवर्धनः ॥ ६७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देव! आपके ही प्रसादसे पृथ्वी सदा निर्भय रही है, इसलिये विशाललोचन! आप पुनः पृथ्वीपर यदुवंशमें अवतार लेकर उसकी कीर्ति बढ़ाइये॥६७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मसंस्थापनार्थाय दैत्यानां च वधाय च।
जगतो धारणार्थाय विज्ञाप्यं कुरु मे विभो ॥ ६८ ॥

मूलम्

धर्मसंस्थापनार्थाय दैत्यानां च वधाय च।
जगतो धारणार्थाय विज्ञाप्यं कुरु मे विभो ॥ ६८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! धर्मकी स्थापना, दैत्योंके वध और जगत्‌की रक्षाके लिये हमारी प्रार्थना अवश्य स्वीकार कीजिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत् तत् परमकं गुह्यं त्वत्प्रसादादिदं विभो।
वासुदेव तदेतत् ते मयोद्‌गीतं यथातथम् ॥ ६९ ॥

मूलम्

यत् तत् परमकं गुह्यं त्वत्प्रसादादिदं विभो।
वासुदेव तदेतत् ते मयोद्‌गीतं यथातथम् ॥ ६९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वासुदेव! आप ही पूर्णतम परमेश्वर हैं। आपका जो परम गुह्य यथार्थस्वरूप है, उसीका यहाँ इस रूपमें आपकी कृपासे ही गान किया गया है॥६९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सृष्ट्वा संकर्षणं देवं स्वयमात्मानमात्मना।
कृष्ण त्वमात्मनास्राक्षीः प्रद्युम्नं चात्मसम्भवम् ॥ ७० ॥

मूलम्

सृष्ट्वा संकर्षणं देवं स्वयमात्मानमात्मना।
कृष्ण त्वमात्मनास्राक्षीः प्रद्युम्नं चात्मसम्भवम् ॥ ७० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीकृष्ण! आपने आत्माद्वारा स्वयं अपने-आपको ही संकर्षणदेवके रूपमें प्रकट करके अपने ही द्वारा आत्मजस्वरूप प्रद्युम्नकी सृष्टि की है॥७०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रद्युम्नादनिरुद्धं त्वं यं विदुर्विष्णुमव्ययम्।
अनिरुद्धोऽसृजन्मां वै ब्रह्माणं लोकधारिणम् ॥ ७१ ॥

मूलम्

प्रद्युम्नादनिरुद्धं त्वं यं विदुर्विष्णुमव्ययम्।
अनिरुद्धोऽसृजन्मां वै ब्रह्माणं लोकधारिणम् ॥ ७१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रद्युम्नसे आपने ही उन अनिरुद्धको प्रकट किया है जिन्हें ज्ञानीजन अविनाशी विष्णुरूपसे जानते हैं। उन विष्णुरूप अनिरुद्धने ही मुझ लोकधाता ब्रह्माकी सृष्टि की है॥७१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वासुदेवमयः सोऽहं त्वयैवास्मि विनिर्मितः।
(तस्माद् याचामि लोकेश चतुरात्मानमात्मना।)
विभज्य भागशोऽऽत्मानं व्रज मानुषतां विभो ॥ ७२ ॥

मूलम्

वासुदेवमयः सोऽहं त्वयैवास्मि विनिर्मितः।
(तस्माद् याचामि लोकेश चतुरात्मानमात्मना।)
विभज्य भागशोऽऽत्मानं व्रज मानुषतां विभो ॥ ७२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! इस प्रकार आपने ही मेरी सृष्टि की है। आपसे अभिन्न होनेके कारण मैं भी वासुदेवमय हूँ। लोकेश्वर! इसलिये याचना करता हूँ कि आप अपने-आपको स्वयं ही (वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध)—इन चार रूपोंमें विभक्त करके मानव-शरीर ग्रहण कीजिये॥७२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्रासुरवधं कृत्वा सर्वलोकसुखाय वै।
धर्मं प्राप्य यशः प्राप्य योगं प्राप्स्यसि तत्त्वतः ॥ ७३ ॥

मूलम्

तत्रासुरवधं कृत्वा सर्वलोकसुखाय वै।
धर्मं प्राप्य यशः प्राप्य योगं प्राप्स्यसि तत्त्वतः ॥ ७३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ सब लोगोंके सुखके लिये असुरोंका वध करके धर्म और यशका विस्तार कीजिये। अन्तमें अवतारका उद्देश्य पूर्ण करके आप पुनः अपने पारमार्थिक स्वरूपसे संयुक्त हो जायँगे॥७३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वां हि ब्रह्मर्षयो लोके देवाश्चामितविक्रम।
तैस्तैर्हि नामभिर्युक्ता गायन्ति परमात्मकम् ॥ ७४ ॥

मूलम्

त्वां हि ब्रह्मर्षयो लोके देवाश्चामितविक्रम।
तैस्तैर्हि नामभिर्युक्ता गायन्ति परमात्मकम् ॥ ७४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अमित पराक्रमी परमेश्वर! संसारमें महर्षि और देवगण एकाग्रचित्त हो उन-उन लीलानुसारी नामोंद्वारा आपके परमात्मस्वरूपका गान करते रहते हैं॥७४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्थिताश्च सर्वे त्वयि भूतसंघाः
कृत्वाऽऽश्रयं त्वां वरदं सुबाहो।
अनादिमध्यान्तमपारयोगं
लोकस्य सेतुं प्रवदन्ति विप्राः ॥ ७५ ॥

मूलम्

स्थिताश्च सर्वे त्वयि भूतसंघाः
कृत्वाऽऽश्रयं त्वां वरदं सुबाहो।
अनादिमध्यान्तमपारयोगं
लोकस्य सेतुं प्रवदन्ति विप्राः ॥ ७५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुबाहो! आप वरदायक प्रभुका ही आश्रय लेकर समस्त प्राणिसमुदाय आपमें ही स्थित हैं। ब्राह्मणलोग आपको आदि, मध्य और अन्तसे रहित, किसी सीमाके सम्बन्धसे शून्य (असीम) तथा लोकमर्यादाकी रक्षाके लिये सेतुस्वरूप बताते हैं॥७५॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते भीष्मपर्वणि भीष्मवधपर्वणि विश्वोपाख्याने पञ्चषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६५ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्वके अन्तर्गत भीष्मवधपर्वमें विश्वोपाख्यानविषयक पैंसठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥६५॥

सूचना (हिन्दी)

[दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल ७६ श्लोक हैं।]


  1. शक्तिसे तात्पर्य यहाँ पाण्डवोंकी शक्तिसे है। ↩︎

  2. मेरे पुत्रोंकी बार-बार पराजयका क्या कारण है, वही कारणविषयक प्रश्न है। ↩︎