भागसूचना
अष्टपञ्चाशत्तमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
पाण्डव-वीरोंका पराक्रम, कौरव-सेनामें भगदड़ तथा दुर्योधन और भीष्मका संवाद
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्ते पार्थिवाः क्रुद्धाः फाल्गुनं वीक्ष्य संयुगे।
रथैरनेकसाहस्रैः समन्तात् पर्यवारयन् ॥ १ ॥
मूलम्
ततस्ते पार्थिवाः क्रुद्धाः फाल्गुनं वीक्ष्य संयुगे।
रथैरनेकसाहस्रैः समन्तात् पर्यवारयन् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजयने कहा— राजन्! तदनन्तर वे समस्त भूपाल समरभूमिमें अर्जुनको देखते ही कुपित हो उठे और उन्होंने अनेक सहस्र रथियोंके साथ उन्हें सब ओरसे घेर लिया॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथैनं रथवृन्देन कोष्ठकीकृत्य भारत।
शरैः सुबहुसाहस्रैः समन्तादभ्यवारयन् ॥ २ ॥
मूलम्
अथैनं रथवृन्देन कोष्ठकीकृत्य भारत।
शरैः सुबहुसाहस्रैः समन्तादभ्यवारयन् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन! उन राजाओंने रथसमूहद्वारा अर्जुनको सब ओरसे वेष्टित करके उनके ऊपर अनेक सहस्र बाणोंकी वर्षा आस्मभ की॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शक्तीश्च विमलास्तीक्ष्णा गदाश्च परिघैः सह।
प्रासान् परश्वधांश्चैव मुद्गरान् मुसलानपि ॥ ३ ॥
चिक्षिपुः समरे क्रुद्धाः फाल्गुनस्य रथं प्रति।
मूलम्
शक्तीश्च विमलास्तीक्ष्णा गदाश्च परिघैः सह।
प्रासान् परश्वधांश्चैव मुद्गरान् मुसलानपि ॥ ३ ॥
चिक्षिपुः समरे क्रुद्धाः फाल्गुनस्य रथं प्रति।
अनुवाद (हिन्दी)
वे क्रोधमें भरकर युद्धमें अर्जुनके रथपर चमचमाती हुई शक्ति, दुःसह गदा, परिघ, प्रास, फरसे, मुद्गर और मूसल आदि अस्त्र-शस्त्रोंकी वर्षा करने लगे॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शस्त्राणामथ तां वृष्टिं शलभानामिवायतिम् ॥ ४ ॥
रुरोध सर्वतः पार्थः शरैः कनकभूषणैः।
मूलम्
शस्त्राणामथ तां वृष्टिं शलभानामिवायतिम् ॥ ४ ॥
रुरोध सर्वतः पार्थः शरैः कनकभूषणैः।
अनुवाद (हिन्दी)
शलभोंकी श्रेणीके समान अस्त्र-शस्त्रोंकी उस वर्षाको अर्जुनने स्वर्णभूषित बाणोंद्वारा सब ओरसे रोक दिया॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र तल्लाघवं दृष्ट्वा बीभत्सोरतिमानुषम् ॥ ५ ॥
देवदानवगन्धर्वाः पिशाचोरगराक्षसाः ।
साधु साध्विति राजेन्द्र फाल्गुनं प्रत्यपूजयन् ॥ ६ ॥
मूलम्
तत्र तल्लाघवं दृष्ट्वा बीभत्सोरतिमानुषम् ॥ ५ ॥
देवदानवगन्धर्वाः पिशाचोरगराक्षसाः ।
साधु साध्विति राजेन्द्र फाल्गुनं प्रत्यपूजयन् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! अर्जुनकी वह अलौकिक फुर्ती देख देवता, दानव, गन्धर्व, पिशाच, नाग तथा राक्षस साधु-साधु (वाह-वाह) कहकर उनकी प्रशंसा करने लगे॥५-६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सात्यकिश्चाभिमन्युश्च महत्या सेनया वृतौ।
गान्धारान् समरे शूराञ्जग्मतुः सहसौबलान् ॥ ७ ॥
मूलम्
सात्यकिश्चाभिमन्युश्च महत्या सेनया वृतौ।
गान्धारान् समरे शूराञ्जग्मतुः सहसौबलान् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उधर विशाल सेनासे घिरे हुए सात्यकि और अभिमन्युने समरभूमिमें सुबलके पुत्रोंसहित गान्धारदेशीय शूरवीरोंपर आक्रमण किया॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र सौबलकाः क्रुद्धा वार्ष्णेयस्य रथोत्तमम्।
तिलशश्चिच्छिदुः क्रोधाच्छस्त्रैर्नानाविधैर्युधि ॥ ८ ॥
मूलम्
तत्र सौबलकाः क्रुद्धा वार्ष्णेयस्य रथोत्तमम्।
तिलशश्चिच्छिदुः क्रोधाच्छस्त्रैर्नानाविधैर्युधि ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ जाते ही क्रोधमें भरे हुए सुबलपुत्रोंने युद्ध-स्थलमें नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंद्वारा सात्यकिके श्रेष्ठ रथको रोषपूर्वक तिल-तिल करके काट डाला॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सात्यकिस्तु रथं त्यक्त्वा वर्तमाने भयावहे।
अभिमन्यो रथं तूर्णमारुरोह परंतपः ॥ ९ ॥
मूलम्
सात्यकिस्तु रथं त्यक्त्वा वर्तमाने भयावहे।
अभिमन्यो रथं तूर्णमारुरोह परंतपः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब शत्रुओंको संताप देनेवाले सात्यकि उस समय छिड़े हुए भयंकर संग्राममें अपने टूटे हुए रथको त्यागकर तुरंत ही अभिमन्युके रथपर जा बैठे॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तावेकरथसंयुक्तौ सौबलेयस्य वाहिनीम् ।
व्यधमेतां शितैस्तूर्णं शरैः संनतपर्वभिः ॥ १० ॥
मूलम्
तावेकरथसंयुक्तौ सौबलेयस्य वाहिनीम् ।
व्यधमेतां शितैस्तूर्णं शरैः संनतपर्वभिः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर एक ही रथपर बैठे हुए वे दोनों वीर झुकी हुई गाँठवाले पैने बाणोंसे तुरंत ही सुबलपुत्र शकुनिकी सेनाका संहार करने लगे॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रोणभीष्मौ रणे यत्तौ धर्मराजस्य वाहिनीम्।
नाशयेतां शरैस्तीक्ष्णैः कङ्कपत्रपरिच्छदैः ॥ ११ ॥
मूलम्
द्रोणभीष्मौ रणे यत्तौ धर्मराजस्य वाहिनीम्।
नाशयेतां शरैस्तीक्ष्णैः कङ्कपत्रपरिच्छदैः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार एक ओरसे आकर युद्धके लिये सदा उद्यत रहनेवाले द्रोणाचार्य और भीष्मने कंकपक्षीके पंखोंसे युक्त तीखे बाणोंद्वारा धर्मराज युधिष्ठिरकी सेनाका विनाश आरम्भ कर दिया॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो धर्मसुतो राजा माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ।
मिषतां सर्वसैन्यानां द्रोणानीकमुपाद्रवन् ॥ १२ ॥
मूलम्
ततो धर्मसुतो राजा माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ।
मिषतां सर्वसैन्यानां द्रोणानीकमुपाद्रवन् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर तथा माद्रीकुमार पाण्डुनन्दन नकुल-सहदेवने समस्त सेनाओंके देखते-देखते द्रोणाचार्यकी सेनापर धावा किया॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्रासीत् सुमहद् युद्धं तुमुलं लोमहर्षणम्।
यथा देवासुरं युद्धं पूर्वमासीत् सुदारुणम् ॥ १३ ॥
मूलम्
तत्रासीत् सुमहद् युद्धं तुमुलं लोमहर्षणम्।
यथा देवासुरं युद्धं पूर्वमासीत् सुदारुणम् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे पूर्वकालमें अत्यन्त भयंकर देवासुर-संग्राम हुआ था, उसी प्रकार वहाँ अत्यन्त भयानक रोमांचकारी युद्ध होने लगा॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुर्वाणौ सुमहत् कर्म भीमसेनघटोत्कचौ।
(दुर्योधनस्य महतीं द्रावयामास वाहिनीम्।)
दुर्योधनस्ततोऽभ्येत्य तावुभावप्यवारयत् ॥ १४ ॥
मूलम्
कुर्वाणौ सुमहत् कर्म भीमसेनघटोत्कचौ।
(दुर्योधनस्य महतीं द्रावयामास वाहिनीम्।)
दुर्योधनस्ततोऽभ्येत्य तावुभावप्यवारयत् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दूसरी ओर भीमसेनने और घटोत्कचने महान् पराक्रमका परिचय देते हुए दुर्योधनकी विशाल वाहिनीको खदेड़ना आरम्भ किया। उस समय दुर्योधनने सामने आकर उन दोनोंको रोक दिया॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्राद्भुतमपश्याम हैडिम्बस्य पराक्रमम् ।
अतीत्य पितरं युद्धे यदयुध्यत भारत ॥ १५ ॥
मूलम्
तत्राद्भुतमपश्याम हैडिम्बस्य पराक्रमम् ।
अतीत्य पितरं युद्धे यदयुध्यत भारत ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! वहाँ हमने हिडिम्बापुत्र घटोत्कचका अद्भुत पराक्रम देखा। वह रणक्षेत्रमें पितासे भी बढ़कर पुरुषार्थ प्रकट करते हुए युद्ध कर रहा था॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भीमसेनस्तु संक्रुद्धो दुर्योधनममर्षणम् ।
हृद्यविध्यत् पृषत्केन प्रहसन्निव पाण्डवः ॥ १६ ॥
मूलम्
भीमसेनस्तु संक्रुद्धो दुर्योधनममर्षणम् ।
हृद्यविध्यत् पृषत्केन प्रहसन्निव पाण्डवः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्रोधमें भरे हुए पाण्डुनन्दन भीमसेनने हँसते हुए-से एक बाण मारकर अमर्षशील दुर्योधनकी छाती छेद डाली॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो दुर्योधनो राजा प्रहारवरपीडितः।
निषसाद रथोपस्थे कश्मलं च जगाम ह ॥ १७ ॥
मूलम्
ततो दुर्योधनो राजा प्रहारवरपीडितः।
निषसाद रथोपस्थे कश्मलं च जगाम ह ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब उस बाणके गहरे आघातसे पीड़ित हो राजा दुर्योधन रथकी बैठकमें बैठ गया और उसे मूर्च्छा आ गयी॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं विसंज्ञं विदित्वा तु त्वरमाणोऽस्य सारथिः।
अपोवाह रणाद् राजंस्ततः सैन्यमभज्यत ॥ १८ ॥
मूलम्
तं विसंज्ञं विदित्वा तु त्वरमाणोऽस्य सारथिः।
अपोवाह रणाद् राजंस्ततः सैन्यमभज्यत ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! उसे संज्ञाशून्य जानकर उसका सारथि बड़ी उतावलीके साथ उसे रणभूमिसे बाहर ले गया। फिर तो उसकी सेनामें भगदड़ मच गयी॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तां कौरवीं सेनां द्रवमाणां समन्ततः।
निघ्नन् भीमः शरैस्तीक्ष्णैरनुवव्राज पृष्ठतः ॥ १९ ॥
मूलम्
ततस्तां कौरवीं सेनां द्रवमाणां समन्ततः।
निघ्नन् भीमः शरैस्तीक्ष्णैरनुवव्राज पृष्ठतः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब चारों ओर भागती हुई उस कौरव-सेनापर तीखे बाणोंका प्रहार करते हुए भीमसेन उसे पीछे-से खदेड़ने लगे॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पार्षतश्च रथश्रेष्ठो धर्मपुत्रश्च पाण्डवः।
द्रोणस्य पश्यतः सैन्यं गाङ्गेयस्य च पश्यतः ॥ २० ॥
जघ्नतुर्विशिखैस्तीक्ष्णैः परानीकविनाशनैः ।
मूलम्
पार्षतश्च रथश्रेष्ठो धर्मपुत्रश्च पाण्डवः।
द्रोणस्य पश्यतः सैन्यं गाङ्गेयस्य च पश्यतः ॥ २० ॥
जघ्नतुर्विशिखैस्तीक्ष्णैः परानीकविनाशनैः ।
अनुवाद (हिन्दी)
दूसरी ओरसे रथियोंमें श्रेष्ठ द्रुपदकुमार धृष्टद्युम्न तथा धर्मपुत्र युधिष्ठिर शत्रु-सेनाका विनाश करनेवाले तीखे बाणोंद्वारा द्रोणाचार्य और भीष्मके देखते-देखते कौरव-सेनाको पीड़ित करते हुए उसका पीछा करने लगे॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रवमाणं तु तत् सैन्यं तव पुत्रस्य संयुगे ॥ २१ ॥
नाशक्नुतां वारयितुं भीष्मद्रोणौ महारथौ।
मूलम्
द्रवमाणं तु तत् सैन्यं तव पुत्रस्य संयुगे ॥ २१ ॥
नाशक्नुतां वारयितुं भीष्मद्रोणौ महारथौ।
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! उस युद्धस्थलमें आपके पुत्रकी भागती हुई सेनाको महारथी द्रोण और भीष्म भी रोक न सके॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वार्यमाणं च भीष्मेण द्रोणेन च महात्मना ॥ २२ ॥
विद्रवत्येव तत् सैन्यं पश्यतोर्द्रोणभीष्मयोः।
मूलम्
वार्यमाणं च भीष्मेण द्रोणेन च महात्मना ॥ २२ ॥
विद्रवत्येव तत् सैन्यं पश्यतोर्द्रोणभीष्मयोः।
अनुवाद (हिन्दी)
महामना भीष्म और द्रोणके रोकनेपर भी उनके सामने ही वह सेना भागती ही चली जा रही थी॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो रथसहस्रेषु विद्रवत्सु ततस्ततः ॥ २३ ॥
तावास्थितावेकरथं सौभद्रशिनिपुङ्गवौ ।
सौबलीं समरे सेनां शातयेतां समन्ततः ॥ २४ ॥
मूलम्
ततो रथसहस्रेषु विद्रवत्सु ततस्ततः ॥ २३ ॥
तावास्थितावेकरथं सौभद्रशिनिपुङ्गवौ ।
सौबलीं समरे सेनां शातयेतां समन्ततः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उधर सहस्रों रथी जब इधर-उधर भाग रहे थे, उसी समय एक रथपर बैठे हुए अभिमन्यु और सात्यकि सुबलपुत्रकी सेनाका संग्रामभूमिमें सब ओरसे संहार करने लगे॥२३-२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शुशुभाते तदा तौ तु शैनेयकुरुपुङ्गवौ।
अमावास्यां गतौ यद्वत् सोमसूर्यौ नभस्तले ॥ २५ ॥
मूलम्
शुशुभाते तदा तौ तु शैनेयकुरुपुङ्गवौ।
अमावास्यां गतौ यद्वत् सोमसूर्यौ नभस्तले ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस अवसरपर (एक रथमें बैठे हुए) सात्यकि और अभिमन्यु उसी प्रकार शोभा पा रहे थे, जैसे अमावास्या तिथिको आकाशमें सूर्य और चन्द्रमा एक ही स्थानमें सुशोभित होते हैं॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्जुनस्तु ततः क्रुद्धस्तव सैन्यं विशाम्पते।
ववर्ष शरवर्षेण धाराभिरिव तोयदः ॥ २६ ॥
मूलम्
अर्जुनस्तु ततः क्रुद्धस्तव सैन्यं विशाम्पते।
ववर्ष शरवर्षेण धाराभिरिव तोयदः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजानाथ! तदनन्तर क्रोधमें भरे हुए अर्जुन आपकी सेनापर उसी प्रकार बाणोंकी वर्षा करने लगे, जैसे बादल पानीकी धारा बरसाता है॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वध्यमानं ततस्तत्र शरैः पार्थस्य संयुगे।
दुद्राव कौरवं सैन्यं विषादभयकम्पितम् ॥ २७ ॥
मूलम्
वध्यमानं ततस्तत्र शरैः पार्थस्य संयुगे।
दुद्राव कौरवं सैन्यं विषादभयकम्पितम् ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब पार्थके बाणोंसे संग्रामभूमिमें पीड़ित हुई कौरव-सेना विषाद और भयसे काँपती हुई इधर-उधर भाग चली॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रवतस्तान् समालक्ष्य भीष्मद्रोणौ महारथौ।
न्यवारयेतां संरब्धौ दुर्योधनहितैषिणौ ॥ २८ ॥
मूलम्
द्रवतस्तान् समालक्ष्य भीष्मद्रोणौ महारथौ।
न्यवारयेतां संरब्धौ दुर्योधनहितैषिणौ ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन योद्धाओंको भागते देख दुर्योधनका हित चाहनेवाले महारथी भीष्म और द्रोण क्रोधपूर्वक उन्हें रोकने लगे॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो दुर्योधनो राजा समाश्वस्य विशाम्पते।
न्यवर्तयत तत् सैन्यं द्रवमाणं समन्ततः ॥ २९ ॥
मूलम्
ततो दुर्योधनो राजा समाश्वस्य विशाम्पते।
न्यवर्तयत तत् सैन्यं द्रवमाणं समन्ततः ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजानाथ! इसी बीचमें राजा दुर्योधनकी मूर्च्छा दूर हो गयी और उसने आश्वस्त होकर चारों ओर भागती हुई सेनाको पुनः लौटाया॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्र यत्र सुतस्तुभ्यं यं यं पश्यति भारत।
तत्र तत्र न्यवर्तन्त क्षत्रियाणां महारथाः ॥ ३० ॥
मूलम्
यत्र यत्र सुतस्तुभ्यं यं यं पश्यति भारत।
तत्र तत्र न्यवर्तन्त क्षत्रियाणां महारथाः ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! आपका पुत्र दुर्योधन जहाँ-जहाँ जिस-जिसकी ओर दृष्टिपात करता, वहीं-वहींसे ऐसे योद्धा भी लौट आते थे जो क्षत्रियोंमें महारथी थे॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तान् निवृत्तान् समीक्ष्यैव ततोऽन्येऽपीतरे जनाः।
अन्योन्यस्पर्धया राजल्लँज्जया चावतस्थिरे ॥ ३१ ॥
मूलम्
तान् निवृत्तान् समीक्ष्यैव ततोऽन्येऽपीतरे जनाः।
अन्योन्यस्पर्धया राजल्लँज्जया चावतस्थिरे ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! उन सबको लौटते देख दूसरे लोग भी एक-दूसरेकी स्पर्धा तथा लज्जाके कारण ठहर गये॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुनरावर्ततां तेषां वेग आसीद् विशाम्पते।
पूर्वतः सागरस्येव चन्द्रस्योदयनं प्रति ॥ ३२ ॥
मूलम्
पुनरावर्ततां तेषां वेग आसीद् विशाम्पते।
पूर्वतः सागरस्येव चन्द्रस्योदयनं प्रति ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! पुनः लौटते हुए उन योद्धाओंका महान् वेग चन्द्रोदयके समय बढ़ते हुए महासागरके समान जान पड़ता था॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संनिवृत्तांस्ततस्तांस्तु दृष्ट्वा राजा सुयोधनः।
अब्रवीत् त्वरितो गत्वा भीष्मं शान्तनवं वचः ॥ ३३ ॥
मूलम्
संनिवृत्तांस्ततस्तांस्तु दृष्ट्वा राजा सुयोधनः।
अब्रवीत् त्वरितो गत्वा भीष्मं शान्तनवं वचः ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब उन सबको लौटा हुआ देख राजा दुर्योधन तुरंत ही शान्तनुनन्दन भीष्मके पास जाकर बोला—॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पितामह निबोधेदं यत् त्वां वक्ष्यामि भारत।
नानुरूपमहं मन्ये त्वयि जीवति कौरव ॥ ३४ ॥
द्रोणे चास्त्रविदां श्रेष्ठे सपुत्रे ससुहृज्जने।
कृपे चैव महेष्वासे द्रवते यद् वरूथिनी ॥ ३५ ॥
मूलम्
पितामह निबोधेदं यत् त्वां वक्ष्यामि भारत।
नानुरूपमहं मन्ये त्वयि जीवति कौरव ॥ ३४ ॥
द्रोणे चास्त्रविदां श्रेष्ठे सपुत्रे ससुहृज्जने।
कृपे चैव महेष्वासे द्रवते यद् वरूथिनी ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पितामह भरतनन्दन! मैं आपसे जो कुछ कहता हूँ, उसे सुनिये। कुरुनन्दन! आपके, अस्त्रवेत्ताओंमें श्रेष्ठ द्रोणाचार्यके और महाधनुर्धर कृपाचार्यके पुत्रों और सुहृदोंसहित जीते-जी जो मेरी सेना भाग रही है, इसे मैं आपलोगोंके योग्य नहीं मानता हूँ॥३४-३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न पाण्डवान् प्रतिबलांस्तव मन्ये कथंचन।
तथा द्रोणस्य संग्रामे द्रौणेश्चैव कृपस्य च ॥ ३६ ॥
मूलम्
न पाण्डवान् प्रतिबलांस्तव मन्ये कथंचन।
तथा द्रोणस्य संग्रामे द्रौणेश्चैव कृपस्य च ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं किसी तरह यह नहीं मान सकता कि पाण्डव संग्राममें आपके, द्रोणाचार्यके, कृपाचार्यके और अश्वत्थामाके समान बलवान् हैं॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनुग्राह्याः पाण्डुसुतास्तव नूनं पितामह।
यथेमां क्षमसे वीर वध्यमानां वरूथिनीम् ॥ ३७ ॥
मूलम्
अनुग्राह्याः पाण्डुसुतास्तव नूनं पितामह।
यथेमां क्षमसे वीर वध्यमानां वरूथिनीम् ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वीर पितामह! निश्चय ही पाण्डव आपके कृपापात्र हैं, तभी तो मेरी सेनाका वध हो रहा है और आप चुपचाप इसकी दुर्दशाको सहते चले जा रहे हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽस्मि वाच्यस्त्वया राजन् पूर्वमेव समागमे।
न योत्स्ये पाण्डवान् संख्ये नापि पार्षतसात्यकी ॥ ३८ ॥
मूलम्
सोऽस्मि वाच्यस्त्वया राजन् पूर्वमेव समागमे।
न योत्स्ये पाण्डवान् संख्ये नापि पार्षतसात्यकी ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाराज! यदि पाण्डवोंपर दया ही करनी थी तो आप युद्ध आरम्भ होनेके पहले ही मुझे यह बता देते कि मैं संग्रामभूमिमें पाण्डुपुत्रोंसे, धृष्टद्युम्नसे और सात्यकिसे भी युद्ध नहीं करूँगा॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुत्वा तु वचनं तुभ्यमाचार्यस्य कृपस्य च।
कर्णेन सहितः कृत्यं चिन्तयानस्तदैव हि ॥ ३९ ॥
मूलम्
श्रुत्वा तु वचनं तुभ्यमाचार्यस्य कृपस्य च।
कर्णेन सहितः कृत्यं चिन्तयानस्तदैव हि ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उस अवस्थामें आपका, आचार्यका तथा कृपका वचन सुनकर मैं कर्णके साथ उसी समय अपने कर्तव्यका निश्चय कर लेता॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि नाहं परित्याज्यो युवाभ्यामिह संयुगे।
विक्रमेणानुरूपेण युध्येतां पुरुषर्षभौ ॥ ४० ॥
मूलम्
यदि नाहं परित्याज्यो युवाभ्यामिह संयुगे।
विक्रमेणानुरूपेण युध्येतां पुरुषर्षभौ ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदि युद्धमें आप दोनोंको मेरा परित्याग करना उचित नहीं जान पड़ता हो तो द्रोणाचार्य और आप दोनों श्रेष्ठ पुरुष अपने योग्य पराक्रम प्रकट करते हुए युद्ध कीजिये’॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतच्छ्रुत्वा वचो भीष्मः प्रहसन् वै मुहुर्मुहुः।
अब्रवीत् तनयं तुभ्यं क्रोधादुद्वृत्य चक्षुषी ॥ ४१ ॥
मूलम्
एतच्छ्रुत्वा वचो भीष्मः प्रहसन् वै मुहुर्मुहुः।
अब्रवीत् तनयं तुभ्यं क्रोधादुद्वृत्य चक्षुषी ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह सुनकर भीष्म बारंबार हँसकर क्रोधसे आँखें तरेरते हुए आपके पुत्रसे बोले—॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बहुशोऽसि मया राजंस्तथ्यमुक्तो हितं वचः।
अजेयाः पाण्डवा युद्धे देवैरपि सवासवैः ॥ ४२ ॥
मूलम्
बहुशोऽसि मया राजंस्तथ्यमुक्तो हितं वचः।
अजेयाः पाण्डवा युद्धे देवैरपि सवासवैः ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! मैंने तुमसे अनेक बार यह सत्य और हितकी बात बतायी है कि युद्धमें पाण्डवोंको इन्द्र आदि देवता भी जीत नहीं सकते॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत् तु शक्यं मया कर्तुं वृद्धेनाद्य नृपोत्तम।
करिष्यामि यथाशक्ति प्रेक्षेदानीं सबान्धवः ॥ ४३ ॥
मूलम्
यत् तु शक्यं मया कर्तुं वृद्धेनाद्य नृपोत्तम।
करिष्यामि यथाशक्ति प्रेक्षेदानीं सबान्धवः ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘नृपश्रेष्ठ! तो भी मुझ वृद्धके द्वारा जो कुछ किया जा सकता है, उसे आज यथाशक्ति करूँगा। तुम इस समय अपने भाइयोंसहित देखो॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अद्य पाण्डुसुतानेकः ससैन्यान् सह बन्धुभिः।
सोऽहं निवारयिष्यामि सर्वलोकस्य पश्यतः ॥ ४४ ॥
मूलम्
अद्य पाण्डुसुतानेकः ससैन्यान् सह बन्धुभिः।
सोऽहं निवारयिष्यामि सर्वलोकस्य पश्यतः ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आज मैं अकेला ही सबके देखते-देखते सेना और बन्धुओंसहित समस्त पाण्डवोंको आगे बढ़नेसे रोक दूँगा’॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्ते तु भीष्मेण पुत्रास्तव जनेश्वर।
दध्मुः शङ्खान् मुदा युक्ता भेरीः संजघ्निरे भृशम् ॥ ४५ ॥
मूलम्
एवमुक्ते तु भीष्मेण पुत्रास्तव जनेश्वर।
दध्मुः शङ्खान् मुदा युक्ता भेरीः संजघ्निरे भृशम् ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनेश्वर! भीष्मके ऐसा कहनेपर आपके पुत्र आनन्दमग्न होकर जोर-जोरसे शंख बजाने और डंका पीटने लगे॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाण्डवा हि ततो राजन् श्रुत्वा तं निनदं महत्।
दध्मुः शङ्खांश्च भेरीश्च मुरजांश्चाप्यनादयन् ॥ ४६ ॥
मूलम्
पाण्डवा हि ततो राजन् श्रुत्वा तं निनदं महत्।
दध्मुः शङ्खांश्च भेरीश्च मुरजांश्चाप्यनादयन् ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! उनका वह महान् शंखनाद सुनकर पाण्डववीर शंख बजाने तथा नगारे और ढोल पीटने लगे॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते भीष्मपर्वणि भीष्मवधपर्वणि तृतीये युद्धदिवसे भीष्मदुर्योधनसंवादे अष्टपञ्चाशत्तमोऽध्यायः॥५८॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्वके अन्तर्गत भीष्मवधपर्वमें तृतीय युद्धदिवसमें भीष्म और दुर्योधनका संवादविषयक अट्ठावनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५८॥
सूचना (हिन्दी)
[दाक्षिणात्य अधिक पाठका श्लोक मिलाकर कुछ ४६ श्लोक हैं]