०५७ संकुलयुद्धे

भागसूचना

सप्तपञ्चाशत्तमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

उभय पक्षकी सेनाओंका घमासान युद्ध

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो व्यूढेष्वनीकेषु तावकेषु परेषु च।
धनंजयो रथानीकमवधीत् तव भारत ॥ १ ॥

मूलम्

ततो व्यूढेष्वनीकेषु तावकेषु परेषु च।
धनंजयो रथानीकमवधीत् तव भारत ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— भारत! आपकी और पाण्डवोंकी पूर्वोक्तरूपसे व्यूह-रचना सम्पन्न हो जानेपर अर्जुनने आपके रथियोंकी सेनाका संहार आरम्भ किया॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शरैरतिरथो युद्धे दारयन् रथयूथपान्।
ते वध्यमानाः पार्थेन कालेनेव युगक्षये ॥ २ ॥
धार्तराष्ट्रा रणे यत्नात् पाण्डवान् प्रत्ययोधयन्।

मूलम्

शरैरतिरथो युद्धे दारयन् रथयूथपान्।
ते वध्यमानाः पार्थेन कालेनेव युगक्षये ॥ २ ॥
धार्तराष्ट्रा रणे यत्नात् पाण्डवान् प्रत्ययोधयन्।

अनुवाद (हिन्दी)

वे अतिरथी वीर थे। उन्होंने अपने बाणोंद्वारा युद्धस्थलमें रथयूथपतियोंको विदीर्ण करके यमलोक भेज दिया। युगान्तमें कालके समान उस युद्धमें कुन्ती-कुमार अर्जुनके द्वारा आपके सैनिकोंका भयंकर विनाश हो रहा था, तो भी वे यत्नपूर्वक पाण्डवोंके साथ युद्ध करते रहे॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रार्थयाना यशो दीप्तं मृत्युं कृत्वा निवर्तनम् ॥ ३ ॥
एकाग्रमनसो भूत्वा पाण्डवानां वरूथिनीम्।
बभञ्जुर्बहुशो राजंस्ते चासज्जन्त संयुगे ॥ ४ ॥

मूलम्

प्रार्थयाना यशो दीप्तं मृत्युं कृत्वा निवर्तनम् ॥ ३ ॥
एकाग्रमनसो भूत्वा पाण्डवानां वरूथिनीम्।
बभञ्जुर्बहुशो राजंस्ते चासज्जन्त संयुगे ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे उज्ज्वल यश प्राप्त करना चाहते थे। अतः यह निश्चय करके कि अब मृत्यु ही हमें युद्धसे निवृत्त कर सकती है, एकाग्रचित्त होकर युद्धमें डटे रहे। राजन्! उन्होंने युद्धमें ऐसी तत्परता दिखायी कि बार-बार पाण्डव-सेनाको तितर-बितर कर दिया॥३-४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्रवद्भिरथ भग्नैश्च परिवर्तद्भिरेव च।
पाण्डवैः कौरवेयैश्च न प्राज्ञायत किंचन ॥ ५ ॥

मूलम्

द्रवद्भिरथ भग्नैश्च परिवर्तद्भिरेव च।
पाण्डवैः कौरवेयैश्च न प्राज्ञायत किंचन ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर क्षत-विक्षत होकर भागते और पुनः लौटकर सामना करते हुए पाण्डवों तथा कौरवोंके सैनिकोंको कुछ भी सूझ नहीं पड़ता था॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उदतिष्ठद् रजो भौमं छादयानं दिवाकरम्।
न दिशः प्रदिशो वापि तत्र हन्युः कथं नराः॥६॥

मूलम्

उदतिष्ठद् रजो भौमं छादयानं दिवाकरम्।
न दिशः प्रदिशो वापि तत्र हन्युः कथं नराः॥६॥

अनुवाद (हिन्दी)

भूतलसे इतनी धूल उड़ी कि सूर्यदेव आच्छादित हो गये। दिशा और प्रदिशाका कुछ भी पता नहीं चलता था। वैसी दशामें वहाँ युद्ध करनेवाले लोग कैसे किसीपर प्रहार करें॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनुमानेन संज्ञाभिर्नामगोत्रैश्च संयुगे ।
वर्तते च तथा युद्धं तत्र तत्र विशाम्पते ॥ ७ ॥

मूलम्

अनुमानेन संज्ञाभिर्नामगोत्रैश्च संयुगे ।
वर्तते च तथा युद्धं तत्र तत्र विशाम्पते ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रजानाथ! उस रणक्षेत्रमें अनुमानसे, संकेतोंसे तथा नाम और गोत्रोंके उच्चारणसे अपने या पराये पक्षका निश्चय करके जहाँ-तहाँ युद्ध हो रहा था॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न व्यूहो भिद्यते तत्र कौरवाणां कथंचन।
रक्षितः सत्यसंधेन भारद्वाजेन संयुगे ॥ ८ ॥

मूलम्

न व्यूहो भिद्यते तत्र कौरवाणां कथंचन।
रक्षितः सत्यसंधेन भारद्वाजेन संयुगे ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सत्यप्रतिज्ञ भरद्वाजनन्दन द्रोणाचार्यके द्वारा सुरक्षित होनेके कारण कौरव-सेनाका व्यूह किसी प्रकार भंग न हो सका॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथैव पाण्डवानां च रक्षितः सव्यसाचिना।
नाभिद्यत महाव्यूहो भीमेन च सुरक्षितः ॥ ९ ॥

मूलम्

तथैव पाण्डवानां च रक्षितः सव्यसाचिना।
नाभिद्यत महाव्यूहो भीमेन च सुरक्षितः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी तरह सव्यसाची अर्जुन और भीमसे सुरक्षित पाण्डवोंके महाव्यूहका भी भेदन न हो सका॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सेनाग्रादपि निष्पत्य प्रायुध्यंस्तत्र मानवाः।
उभयोः सेनयो राजन् व्यतिषक्तरथद्विपाः ॥ १० ॥

मूलम्

सेनाग्रादपि निष्पत्य प्रायुध्यंस्तत्र मानवाः।
उभयोः सेनयो राजन् व्यतिषक्तरथद्विपाः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ सेनाके अग्रभागसे भी निकलकर (व्यूह छोड़कर) वीर सैनिक युद्ध करते थे। राजन्! दोनों सेनाओंके रथ और हाथी परस्पर भिड़ गये॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हयारोहैर्हयारोहाः पात्यन्ते स्म महाहवे।
ऋष्टिभिर्विमलाभिश्च प्रासैरपि च संयुगे ॥ ११ ॥

मूलम्

हयारोहैर्हयारोहाः पात्यन्ते स्म महाहवे।
ऋष्टिभिर्विमलाभिश्च प्रासैरपि च संयुगे ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस महासमरमें घुड़सवार घुड़सवारोंको चमकीली ऋष्टियों और प्रासोंद्वारा मार गिराते थे॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रथी रथिनमासाद्य शरैः कनकभूषणैः।
पातयामास समरे तस्मिन्नतिभयङ्करे ॥ १२ ॥

मूलम्

रथी रथिनमासाद्य शरैः कनकभूषणैः।
पातयामास समरे तस्मिन्नतिभयङ्करे ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह संग्राम अत्यन्त भयानक हो रहा था। उसमें रथी रथियोंके सामने जाकर उन्हें स्वर्णभूषित बाणोंसे मार गिराते थे॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गजारोहा गजारोहान् नाराचशरतोमरैः ।
संसक्तान् पातयामासुस्तव तेषां च सर्वशः ॥ १३ ॥

मूलम्

गजारोहा गजारोहान् नाराचशरतोमरैः ।
संसक्तान् पातयामासुस्तव तेषां च सर्वशः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपके और पाण्डव-पक्षके हाथीसवार अपनेसे भिड़े हुए विपक्षी हाथीसवारोंको सब ओरसे नाराच, बाण और तोमरोंकी मारसे धराशायी कर देते थे॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कश्चिदुत्पत्य समरे वरवारणमास्थितः ।
केशपक्षे परामृश्य जहार समरे शिरः ॥ १४ ॥

मूलम्

कश्चिदुत्पत्य समरे वरवारणमास्थितः ।
केशपक्षे परामृश्य जहार समरे शिरः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कोई योद्धा रणक्षेत्रमें उछलकर बड़े-बड़े हाथियोंपर चढ़ जाता और विपक्षी योद्धाके केशोंको पकड़कर उसका सिर काट लेता था॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्ये द्विरददन्ताग्रनिर्भिन्नहृदया रणे ।
वेमुश्च रुधिरं वीरा निःश्वसन्तः समन्ततः ॥ १५ ॥

मूलम्

अन्ये द्विरददन्ताग्रनिर्भिन्नहृदया रणे ।
वेमुश्च रुधिरं वीरा निःश्वसन्तः समन्ततः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बहुत-से वीर युद्धस्थलमें हाथियोंके दाँतोंके अग्रभागसे अपना हृदय विदीर्ण हो जानेके कारण सब ओर लंबी साँस खींचते हुए मुखसे रक्त वमन कर रहे थे॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कश्चित् करिविषाणस्थो वीरो रणविशारदः।
प्रावेपच्छक्तिनिर्भिन्नो गजशिक्षास्त्रवेदिना ॥ १६ ॥

मूलम्

कश्चित् करिविषाणस्थो वीरो रणविशारदः।
प्रावेपच्छक्तिनिर्भिन्नो गजशिक्षास्त्रवेदिना ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कोई रणविशारद वीर हाथीके दाँतोंपर खड़ा होकर युद्ध कर रहा था। इतनेहीमें गजशिक्षा और अस्त्रविद्याके ज्ञाता किसी विपक्षी योद्धाने उसके ऊपर शक्ति चला दी। उस शक्तिके आघातसे वक्षःस्थल विदीर्ण हो जानेके कारण वह मरणोन्मुख वीर वहीं काँपने लगा॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पत्तिसङ्घा रणे पत्तीन् भिन्दिपालपरश्वधैः।
न्यपातयन्त संहृष्टाः परस्परकृतागसः ॥ १७ ॥

मूलम्

पत्तिसङ्घा रणे पत्तीन् भिन्दिपालपरश्वधैः।
न्यपातयन्त संहृष्टाः परस्परकृतागसः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हर्ष और उल्लासमें भरकर एक-दूसरेका अपराध करनेवाले पैदलसमूह विपक्षके पैदल सैनिकोंको भिन्दिपाल और फरसोंसे मार-मारकर रणभूमिमें गिरा रहे थे॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रथी च समरे राजन्नासाद्य गजयूथपम्।
सगजं पातयामास गजी स रथिनां बरम् ॥ १८ ॥

मूलम्

रथी च समरे राजन्नासाद्य गजयूथपम्।
सगजं पातयामास गजी स रथिनां बरम् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! उस समरभूमिमें कोई रथी किसी गजयूथ-पतिसे भिड़ जाता और सवार तथा हाथी दोनोंको मार गिराता था। उसी प्रकार गजारोही भी रथियोंमें श्रेष्ठ वीरका वध कर देता था॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रथिनं च हयारोहः प्रासेन भरतर्षभ।
पातयामास समरे रथी च हयसादिनम् ॥ १९ ॥

मूलम्

रथिनं च हयारोहः प्रासेन भरतर्षभ।
पातयामास समरे रथी च हयसादिनम् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! उस संग्राममें घुड़सवार रथीको तथा रथी घुड़सवारको प्रासद्वारा मारकर धराशायी कर देता था॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पदाती रथिनं संख्ये रथी चापि पदातिनम्।
न्यपातयच्छितैः शस्त्रैः सेनयोरुभयोरपि ॥ २० ॥

मूलम्

पदाती रथिनं संख्ये रथी चापि पदातिनम्।
न्यपातयच्छितैः शस्त्रैः सेनयोरुभयोरपि ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दोनों ही सेनाओंमें पैदल वीर रथीको और रथी योद्धा पैदल सैनिकको अपने तीखे अस्त्र-शस्त्रोंद्वारा रणभूमिमें मार गिराता था॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गजारोहा हयारोहान् पातयाञ्चक्रिरे तदा।
हयारोहा गजस्थांश्च तदद्भुतमिवाभवत् ॥ २१ ॥

मूलम्

गजारोहा हयारोहान् पातयाञ्चक्रिरे तदा।
हयारोहा गजस्थांश्च तदद्भुतमिवाभवत् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हाथीसवार घुड़सवारोंको और घुड़सवार हाथी-सवारोंको युद्धस्थलमें गिरा देते थे। ये घटनाएँ आश्चर्यजनक-सी प्रतीत होती थीं॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गजारोहवरैश्चापि तत्र तत्र पदातयः।
पातिताः समदृश्यन्त तैश्चापि गजयोधिनः ॥ २२ ॥

मूलम्

गजारोहवरैश्चापि तत्र तत्र पदातयः।
पातिताः समदृश्यन्त तैश्चापि गजयोधिनः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस रणक्षेत्रमें जहाँ-तहाँ श्रेष्ठ गजारोहियोंद्वारा गिराये हुए पैदल और पैदलोंद्वारा गिराये हुए हाथीसवार दृष्टिगोचर हो रहे थे॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एत्तिसङ्घा हयारोहैः सादिसङ्घाश्च पत्तिभिः।
पात्यमाना व्यदृश्यन्त शतशोऽथ सहस्रशः ॥ २३ ॥

मूलम्

एत्तिसङ्घा हयारोहैः सादिसङ्घाश्च पत्तिभिः।
पात्यमाना व्यदृश्यन्त शतशोऽथ सहस्रशः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

घुड़सवारोंद्वारा पैदलोंके समूह और पैदलोंद्वारा घुड़सवारोंके समूह सैकड़ों और हजारोंकी संख्यामें गिराये जाते हुए दिखायी देते थे॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ध्वजैस्तत्रापविद्धैश्च कार्मुकैस्तोमरैस्तथा ।
प्रासैस्तथा गदाभिश्च परिघैः कम्पनैस्तथा ॥ २४ ॥
शक्तिभिः कवचैश्चित्रैः कणपैरङ्कुशैरपि ।
निस्त्रिंशैर्विमलैश्चापि स्वर्णपुङ्खैः शरैस्तथा ॥ २५ ॥
परिस्तोमैः कुथाभिश्च कम्बलैश्च महाधनैः।
भूर्भाति भरतश्रेष्ठ स्रग्दामैरिव चित्रिता ॥ २६ ॥

मूलम्

ध्वजैस्तत्रापविद्धैश्च कार्मुकैस्तोमरैस्तथा ।
प्रासैस्तथा गदाभिश्च परिघैः कम्पनैस्तथा ॥ २४ ॥
शक्तिभिः कवचैश्चित्रैः कणपैरङ्कुशैरपि ।
निस्त्रिंशैर्विमलैश्चापि स्वर्णपुङ्खैः शरैस्तथा ॥ २५ ॥
परिस्तोमैः कुथाभिश्च कम्बलैश्च महाधनैः।
भूर्भाति भरतश्रेष्ठ स्रग्दामैरिव चित्रिता ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! वहाँ इधर-उधर गिरे हुए ध्वज, धनुष, तोमर, प्रास, गदा, परिघ, कम्पन, शक्ति, विचित्र कवच, कणप, अंकुश, चमचमाते हुए खड्‌ग, सुवर्णमय पाँखवाले बाण, शूल, गद्दी और बहुमूल्य कम्बलोंद्वारा आच्छादित हुई वहाँकी भूमि भाँति-भाँतिके पुष्पहारोंसे चित्रित हुई-सी जान पड़ती थी॥२४—२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नराश्वकायैः पतितैर्दन्तिभिश्च महाहवे ।
अगम्यरूपा पृथिवी मांसशोणितकर्दमा ॥ २७ ॥

मूलम्

नराश्वकायैः पतितैर्दन्तिभिश्च महाहवे ।
अगम्यरूपा पृथिवी मांसशोणितकर्दमा ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस महासमरमें मनुष्यों, घोड़ों और हाथियोंकी लाशें पड़ी हुई थीं। मांस और रक्तकी कीचड़ जम गयी थी। वहाँकी भूमिमें जाना असम्भव हो गया था॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रशशाम रजो भौमं व्युक्षितं रणशोणितैः।
दिशश्च विमलाः सर्वाः सम्बभूवुर्जनेश्वर ॥ २८ ॥

मूलम्

प्रशशाम रजो भौमं व्युक्षितं रणशोणितैः।
दिशश्च विमलाः सर्वाः सम्बभूवुर्जनेश्वर ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनेश्वर! रणभूमिमें बहे हुए रक्तसे सिंचकर धरतीकी धूल बैठ गयी और सारी दिशाएँ साफ हो गयीं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्थितान्यगणेयानि कबन्धानि समन्ततः ।
चिह्नभूतानि जगतो विनाशार्थाय भारत ॥ २९ ॥

मूलम्

उत्थितान्यगणेयानि कबन्धानि समन्ततः ।
चिह्नभूतानि जगतो विनाशार्थाय भारत ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! उस समय जगत्‌के विनाशको सूचित करनेवाले असंख्य कबन्ध चारों ओर उठने लगे॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिन् युद्धे महारौद्रे वर्तमाने सुदारुणे।
प्रत्यदृश्यन्त रथिनो धावमानाः समन्ततः ॥ ३० ॥

मूलम्

तस्मिन् युद्धे महारौद्रे वर्तमाने सुदारुणे।
प्रत्यदृश्यन्त रथिनो धावमानाः समन्ततः ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस अत्यन्त दारुण और महाभयंकर युद्धमें रथी योद्धा चारों ओर दौड़ते दिखायी देते थे॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो भीष्मश्च द्रोणश्च सैन्धवश्च जयद्रथः।
पुरुमित्रो जयो भोजः शल्यश्चापि ससौबलः ॥ ३१ ॥
एते समरदुर्धर्षाः सिंहतुल्यपराक्रमाः ।
पाण्डवानामनीकानि बभञ्जुः स्म पुनः पुनः ॥ ३२ ॥

मूलम्

ततो भीष्मश्च द्रोणश्च सैन्धवश्च जयद्रथः।
पुरुमित्रो जयो भोजः शल्यश्चापि ससौबलः ॥ ३१ ॥
एते समरदुर्धर्षाः सिंहतुल्यपराक्रमाः ।
पाण्डवानामनीकानि बभञ्जुः स्म पुनः पुनः ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर भीष्म, द्रोण, सिन्धुराज जयद्रथ, पुरुमित्र, जय, भोज, शल्य और शकुनि—ये सिंहतुल्य पराक्रमी रणदुर्जय वीर पाण्डवोंकी सेनाको बार-बार भंग करने लगे॥३१-३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथैव भीमसेनोऽपि राक्षसश्च घटोत्कचः।
सात्यकिश्चेकितानश्च द्रौपदेयाश्च भारत ॥ ३३ ॥
तावकांस्तव पुत्रांश्च सहितान् सर्वराजभिः।
द्रावयामासुराजौ ते त्रिदशा दानवानिव ॥ ३४ ॥

मूलम्

तथैव भीमसेनोऽपि राक्षसश्च घटोत्कचः।
सात्यकिश्चेकितानश्च द्रौपदेयाश्च भारत ॥ ३३ ॥
तावकांस्तव पुत्रांश्च सहितान् सर्वराजभिः।
द्रावयामासुराजौ ते त्रिदशा दानवानिव ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! इसी प्रकार भीमसेन, राक्षस घटोत्कच, सात्यकि, चेकितान तथा द्रौपदीके पाँचों पुत्र—ये सब मिलकर जैसे देवता दानवोंको खदेड़ते हैं, उसी प्रकार समस्त राजाओंसहित आपके पुत्रों और सैनिकोंको रणभूमिमें भगाने लगे॥३३-३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा ते समरेऽन्योन्यं निघ्नन्तः क्षत्रियर्षभाः।
रक्तोक्षिता घोररूपा विरेजुर्दानवा इव ॥ ३५ ॥

मूलम्

तथा ते समरेऽन्योन्यं निघ्नन्तः क्षत्रियर्षभाः।
रक्तोक्षिता घोररूपा विरेजुर्दानवा इव ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संग्रामभूमिमें एक-दूसरेको मारते हुए श्रेष्ठ क्षत्रिय वीर रक्तरंजित हो भयानक रूपधारी दानवोंके समान सुशोभित होने लगे॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विनिर्जित्य रिपून् वीराः सेनयोरुभयोरपि।
व्यदृश्यन्त महामात्रा ग्रहा इव नभस्तले ॥ ३६ ॥

मूलम्

विनिर्जित्य रिपून् वीराः सेनयोरुभयोरपि।
व्यदृश्यन्त महामात्रा ग्रहा इव नभस्तले ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दोनों सेनाओंके वीर शत्रुओंको जीतकर आकाशमें फैले हुए विशाल ग्रहोंके समान दिखायी देते थे॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो रथसहस्रेण पुत्रो दुर्योधनस्तव।
अभ्ययात् पाण्डवं युद्धे राक्षसं च घटोत्कचम् ॥ ३७ ॥

मूलम्

ततो रथसहस्रेण पुत्रो दुर्योधनस्तव।
अभ्ययात् पाण्डवं युद्धे राक्षसं च घटोत्कचम् ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर आपका पुत्र दुर्योधन सहस्रों रथियोंके साथ पाण्डववंशी राक्षस घटोत्कचके साथ युद्ध करनेके लिये वहाँ आया॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथैव पाण्डवाः सर्वे महत्या सेनया सह।
द्रोणभीष्मौ रणे यत्तौ प्रत्युद्ययुररिंदमौ ॥ ३८ ॥

मूलम्

तथैव पाण्डवाः सर्वे महत्या सेनया सह।
द्रोणभीष्मौ रणे यत्तौ प्रत्युद्ययुररिंदमौ ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार विशाल सेनाके साथ समस्त पाण्डव भी युद्धके लिये तैयार खड़े हुए शत्रुदमन द्रोणाचार्य और भीष्मसे भिड़नेके लिये आगे बढ़े॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किरीटी च ययौ क्रुद्धः समन्तात्‌ पार्थिवोत्तमान्।
आर्जुनिः सात्यकिश्चैव ययतुः सौबलं बलम् ॥ ३९ ॥

मूलम्

किरीटी च ययौ क्रुद्धः समन्तात्‌ पार्थिवोत्तमान्।
आर्जुनिः सात्यकिश्चैव ययतुः सौबलं बलम् ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्रोधमें भरे हुए किरीटधारी अर्जुन सब ओर खड़े हुए श्रेष्ठ राजाओंका सामना करनेके लिये चले। अभिमन्यु और सात्यकिने शकुनिकी सेनापर आक्रमण किया॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्रववृते भूयः संग्रामो लोमहर्षणः।
तावकानां परेषां च समरे विजयैषिणाम् ॥ ४० ॥

मूलम्

ततः प्रववृते भूयः संग्रामो लोमहर्षणः।
तावकानां परेषां च समरे विजयैषिणाम् ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार युद्धमें विजय चाहनेवाले आपके और पाण्डवोंके सैनिकोंमें पुनः रोमांचकारी संग्राम छिड़ गया॥४०॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते भीष्मपर्वणि भीष्मवधपर्वणि तृतीये युद्धदिवसे संकुलयुद्धे सप्तपञ्चाशत्तमोऽध्यायः॥५७॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्वके अन्तर्गत भीष्मवधपर्वमें युद्धसम्बन्धी तीसरे दिनका घमासान युद्धविषयक सत्तावनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५७॥