०५३ धृष्टद्युम्नद्रोणयुद्धे

भागसूचना

त्रिपञ्चाशत्तमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

धृष्टद्युम्न तथा द्रोणाचार्यका युद्ध

मूलम् (वचनम्)

धृतराष्ट्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं द्रोणो महेष्वासः पाञ्चाल्यश्चापि पार्षतः।
उभौ समीयतुर्यत्तौ तन्ममाचक्ष्व संजय ॥ १ ॥

मूलम्

कथं द्रोणो महेष्वासः पाञ्चाल्यश्चापि पार्षतः।
उभौ समीयतुर्यत्तौ तन्ममाचक्ष्व संजय ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्रने पूछा— संजय! महाधनुर्धर द्रोणाचार्य तथा द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न—ये दोनों वीर किस प्रकार प्रयत्नपूर्वक आपसमें युद्ध कर रहे थे, वह सब वृत्तान्त मुझसे कहो॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिष्टमेव परं मन्ये पौरुषादिति मे मतिः।
यत्र शान्तनवो भीष्मो नातरद् युधि पाण्डवम् ॥ २ ॥

मूलम्

दिष्टमेव परं मन्ये पौरुषादिति मे मतिः।
यत्र शान्तनवो भीष्मो नातरद् युधि पाण्डवम् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं तो पुरुषार्थसे अधिक प्रबल भाग्यको ही मानता हूँ और इसीपर विश्वास करता हूँ, जिसके अनुसार शान्तनुनन्दन भीष्म युद्धमें पाण्डुपुत्र अर्जुनसे पार न पा सके॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीष्मो हि समरे क्रुद्धो हन्याल्लोकांश्चराचरान्।
स कथं पाण्डवं युद्धे नातरत् संजयौजसा ॥ ३ ॥

मूलम्

भीष्मो हि समरे क्रुद्धो हन्याल्लोकांश्चराचरान्।
स कथं पाण्डवं युद्धे नातरत् संजयौजसा ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय! भीष्म रणक्षेत्रमें कुपित हो जायँ तो वे चराचर प्राणियोंसहित सम्पूर्ण लोकोंको मार सकते हैं। फिर वे अपने पराक्रमद्वारा युद्धमें पाण्डुकुमार अर्जुनसे क्यों न पार पा सके?॥३॥

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

शृणु राजन् स्थिरो भूत्वा युद्धमेतत् सुदारुणम्।
न शक्याः पाण्डवा जेतुं देवैरपि सवासवैः ॥ ४ ॥

मूलम्

शृणु राजन् स्थिरो भूत्वा युद्धमेतत् सुदारुणम्।
न शक्याः पाण्डवा जेतुं देवैरपि सवासवैः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजयने कहा— राजन्! पाण्डवोंको तो इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवता भी नहीं जीत सकते। अब आप इस अत्यन्त भयंकर युद्धका वृत्तान्त स्थिर होकर सुनिये॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्रोणस्तु निशितैर्बाणैर्धृष्टद्युम्नमविध्यत ।
सारथिं चास्य भल्लेन रथनीडादपातयत् ॥ ५ ॥

मूलम्

द्रोणस्तु निशितैर्बाणैर्धृष्टद्युम्नमविध्यत ।
सारथिं चास्य भल्लेन रथनीडादपातयत् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्रोणाचार्यने अपने तीखे बाणोंसे धृष्टद्युम्नको घायल कर दिया और उनके सारथिको भल्लके द्वारा मारकर रथकी बैठकसे नीचे गिरा दिया॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथास्य चतुरो वाहांश्चतुर्भिः सायकोत्तमैः।
पीडयामास संक्रुद्धो धृष्टद्युम्नस्य मारिष ॥ ६ ॥

मूलम्

तथास्य चतुरो वाहांश्चतुर्भिः सायकोत्तमैः।
पीडयामास संक्रुद्धो धृष्टद्युम्नस्य मारिष ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आर्य! क्रोधमें भरे हुए द्रोणाचार्यने चार उत्तम सायकोंसे धृष्टद्युम्नके चारों घोड़ोंको भी बहुत पीड़ा दी॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धृष्टद्युम्नस्ततो द्रोणं नवत्या निशितैः शरैः।
विव्याध प्रहसन् वीरस्तिष्ठ तिष्ठेति चाब्रवीत् ॥ ७ ॥

मूलम्

धृष्टद्युम्नस्ततो द्रोणं नवत्या निशितैः शरैः।
विव्याध प्रहसन् वीरस्तिष्ठ तिष्ठेति चाब्रवीत् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब धृष्टद्युम्नने हँसकर नब्बे पैने बाणोंसे द्रोणाचार्यको घायल कर दिया और कहा—‘खड़े रहो, खड़े रहो’॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः पुनरमेयात्मा भारद्वाजः प्रतापवान्।
शरैः प्रच्छादयामास धृष्टद्युम्नममर्षणम् ॥ ८ ॥

मूलम्

ततः पुनरमेयात्मा भारद्वाजः प्रतापवान्।
शरैः प्रच्छादयामास धृष्टद्युम्नममर्षणम् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर अमेय आत्मबलसे सम्पन्न प्रतापी द्रोणाचार्यने पुनः अमर्षशील धृष्टद्युम्नको अपने बाणोंसे ढक दिया॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आददे च शरं घोरं पार्षतान्तचिकीर्षया।
शक्राशनिसमस्पर्शं कालदण्डमिवापरम् ॥ ९ ॥

मूलम्

आददे च शरं घोरं पार्षतान्तचिकीर्षया।
शक्राशनिसमस्पर्शं कालदण्डमिवापरम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् धृष्टद्युम्नका अन्त कर डालनेकी इच्छासे द्वितीय कालदण्डके समान एक भयंकर बाण हाथमें लिया, जिसका स्पर्श इन्द्रके वज्रके समान कठोर था॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हाहाकारो महानासीत् सर्वसैन्येषु भारत।
तमिषुं संधितं दृष्ट्‌वा भारद्वाजेन संयुगे ॥ १० ॥

मूलम्

हाहाकारो महानासीत् सर्वसैन्येषु भारत।
तमिषुं संधितं दृष्ट्‌वा भारद्वाजेन संयुगे ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! युद्धमें द्रोणाचार्यके द्वारा उस बाणका संधान होता देख सम्पूर्ण पाण्डव-सेनामें महान् हाहाकार मच गया॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्राद्भुतमपश्याम धृष्टद्युम्नस्य पौरुषम् ।
यदेकः समरे वीरस्तस्थौ गिरिरिवाचलः ॥ ११ ॥

मूलम्

तत्राद्भुतमपश्याम धृष्टद्युम्नस्य पौरुषम् ।
यदेकः समरे वीरस्तस्थौ गिरिरिवाचलः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय मैंने वहाँ धृष्टद्युम्नका अद्भुत पराक्रम देखा। वह वीर समरांगणमें अकेला ही पर्वतके समान अविचल भावसे खड़ा रहा॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं च दीप्तं शरं घोरमायान्तं मृत्युमात्मनः।
चिच्छेद शरवृष्टिं च भारद्वाजे मुमोच ह ॥ १२ ॥

मूलम्

तं च दीप्तं शरं घोरमायान्तं मृत्युमात्मनः।
चिच्छेद शरवृष्टिं च भारद्वाजे मुमोच ह ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपने लिये मृत्यु बनकर आते हुए उस भयंकर तेजस्वी बाणको देखकर धृष्टद्युम्नने तत्काल ही उसे काट गिराया और द्रोणाचार्यपर बाणोंकी वर्षा आरम्भ कर दी॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत उच्चुक्रुशुः सर्वे पञ्चालाः पाण्डवैः सह।
धृष्टद्युम्नेन तत् कर्म कृतं दृष्ट्‌वा सुदुष्करम् ॥ १३ ॥

मूलम्

तत उच्चुक्रुशुः सर्वे पञ्चालाः पाण्डवैः सह।
धृष्टद्युम्नेन तत् कर्म कृतं दृष्ट्‌वा सुदुष्करम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धृष्टद्युम्नके द्वारा किये हुए उस अत्यन्त दुष्कर कर्मको देखकर पाण्डवसहित समस्त पांचाल वीर हर्षसे कोलाहल कर उठे॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः शक्तिं महावेगां स्वर्णवैदूर्यभूषिताम्।
द्रोणस्य निधनाकाङ्क्षी चिक्षेप स पराक्रमी ॥ १४ ॥

मूलम्

ततः शक्तिं महावेगां स्वर्णवैदूर्यभूषिताम्।
द्रोणस्य निधनाकाङ्क्षी चिक्षेप स पराक्रमी ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर द्रोणाचार्यकी मृत्यु चाहनेवाले पराक्रमी वीर धृष्टद्युम्नने उनके ऊपर सुवर्ण और वैदूर्यमणिसे भूषित अत्यन्त वेगशालिनी शक्ति चलायी॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तामापतन्तीं सहसा शक्तिं कनकभूषिताम्।
त्रिधा चिच्छेद समरे भारद्वाजो हसन्निव ॥ १५ ॥

मूलम्

तामापतन्तीं सहसा शक्तिं कनकभूषिताम्।
त्रिधा चिच्छेद समरे भारद्वाजो हसन्निव ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस सुवर्णभूषित शक्तिको सहसा आती देख द्रोणाचार्यने समरभूमिमें हँसते-हँसते उसके तीन टुकड़े कर दिये॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शक्तिं विनिहतां दृष्ट्‌वा धृष्टद्युम्नः प्रतापवान्।
ववर्ष शरवर्षाणि द्रोणं प्रति जनेश्वर ॥ १६ ॥

मूलम्

शक्तिं विनिहतां दृष्ट्‌वा धृष्टद्युम्नः प्रतापवान्।
ववर्ष शरवर्षाणि द्रोणं प्रति जनेश्वर ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनेश्वर! अपनी शक्तिको नष्ट हुई देख प्रतापी धृष्टद्युम्नने द्रोणाचार्यपर पुनः बाणोंकी वर्षा आस्मभ कर दी॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शरवर्षं ततस्तत् तु संनिवार्य महायशाः।
दोणो द्रुपदपुत्रस्य मध्ये चिच्छेद कार्मुकम् ॥ १७ ॥

मूलम्

शरवर्षं ततस्तत् तु संनिवार्य महायशाः।
दोणो द्रुपदपुत्रस्य मध्ये चिच्छेद कार्मुकम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब महायशस्वी द्रोणने उस बाण-वर्षाका निवारण करके द्रुपदपुत्रके धनुषको बीचसे ही काट डाला॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सच्छिन्नधन्वा समरे गदां गुर्वीं महायशाः।
द्रोणाय प्रेषयामास गिरिसारमयीं बली ॥ १८ ॥

मूलम्

सच्छिन्नधन्वा समरे गदां गुर्वीं महायशाः।
द्रोणाय प्रेषयामास गिरिसारमयीं बली ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धनुष कट जानेपर महायशस्वी बलवान् वीर धृष्टद्युम्नने समरभूमिमें द्रोणाचार्यपर लोहेकी बनी हुई एक भारी गदा चलायी॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा गदा वेगवन्मुक्ता प्रायाद् द्रोणजिघांसया।
तत्राद्भुतमपश्याम भारद्वाजस्य विक्रमम् ॥ १९ ॥

मूलम्

सा गदा वेगवन्मुक्ता प्रायाद् द्रोणजिघांसया।
तत्राद्भुतमपश्याम भारद्वाजस्य विक्रमम् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्रोणाचार्यके वधकी इच्छासे वेगपूर्वक छोड़ी हुई वह गदा बड़े जोरसे चली; परंतु वहाँ हमलोगोंने उस समय द्रोणाचार्यका अद्भुत पराक्रम देखा॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लाघवाद् व्यंसयामास गदां हेमविभूषिताम्।
व्यंसयित्वा गदां तां च प्रेषयामास पार्षतम् ॥ २० ॥
भल्लान् सुनिशितान् पीतान् रुक्मपुंखान् सुदारुणान्।
ते तस्य कवचं भित्त्वा पपुः शोणितमाहवे ॥ २१ ॥

मूलम्

लाघवाद् व्यंसयामास गदां हेमविभूषिताम्।
व्यंसयित्वा गदां तां च प्रेषयामास पार्षतम् ॥ २० ॥
भल्लान् सुनिशितान् पीतान् रुक्मपुंखान् सुदारुणान्।
ते तस्य कवचं भित्त्वा पपुः शोणितमाहवे ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने बड़ी फुर्तीसे उस स्वर्णभूषित गदाको व्यर्थ कर दिया। इस प्रकार उस गदाको निष्फल करके द्रोणाचार्यने धृष्टद्युम्नपर सुवर्णमय पंखोंसे युक्त अत्यन्त तीक्ष्ण पानीदार और भयंकर ‘भल्ल’ नामक बाण चलाये। वे बाण धृष्टद्युम्नका कवच छेदकर रणक्षेत्रमें उनका रक्त पीने लगे॥२०-२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथान्यद् धनुरादाय धृष्टद्युम्नो महारथः।
द्रोणं युधि पराक्रम्य शरैर्विव्याध पञ्चभिः ॥ २२ ॥

मूलम्

अथान्यद् धनुरादाय धृष्टद्युम्नो महारथः।
द्रोणं युधि पराक्रम्य शरैर्विव्याध पञ्चभिः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब महारथी धृष्टद्युम्नने दूसरा धनुष लेकर युद्धमें पराक्रमपूर्वक पाँच बाण मारकर द्रोणाचार्यको क्षत-विक्षत कर दिया॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रुधिराक्तौ ततस्तौ तु शुशुभाते नरर्षभौ।
वसन्तसमये राजन् पुष्पिताविव किंशुकौ ॥ २३ ॥

मूलम्

रुधिराक्तौ ततस्तौ तु शुशुभाते नरर्षभौ।
वसन्तसमये राजन् पुष्पिताविव किंशुकौ ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! उस समय वे दोनों नरश्रेष्ठ लहूलुहान होकर वसंत-ऋतुमें खिले हुए दो पलाश वृक्षोंकी भाँति अत्यन्त शोभा पाने लगे॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अमर्षितस्ततो राजन् पराक्रम्य चमूमुखे।
द्रोणो द्रुपदपुत्रस्य पुनश्चिच्छेद कार्मुकम् ॥ २४ ॥

मूलम्

अमर्षितस्ततो राजन् पराक्रम्य चमूमुखे।
द्रोणो द्रुपदपुत्रस्य पुनश्चिच्छेद कार्मुकम् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! तब उस सेनाके अग्रभागमें खड़े हो अमर्षमें भरे हुए द्रोणाचार्यने पराक्रम प्रकट करते हुए पुनः धृष्टद्युम्नका धनुष काट दिया॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथैनं छिन्नधन्वानं शरैः संनतपर्वभिः।
अभ्यवर्षदमेयात्मा वृष्ट्या मेघ इवाचलम् ॥ २५ ॥

मूलम्

अथैनं छिन्नधन्वानं शरैः संनतपर्वभिः।
अभ्यवर्षदमेयात्मा वृष्ट्या मेघ इवाचलम् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब अमेय आत्मबलसे सम्पन्न द्रोणाचार्यने जिसका धनुष कट गया था, उन धृष्टद्युम्नपर झुकी हुई गाँठवाले बाणोंकी वर्षा आरम्भ कर दी, मानो मेघ किसी पर्वतपर जलकी बूँदें बरसा रहा हो॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सारथिं चास्य भल्लेन रथनीडादपातयत्।
अथास्य चतुरो वाहांश्चतुर्भिर्निशितैः शरैः ॥ २६ ॥
पातयामास समरे सिंहनादं ननाद च।
ततोऽपरेण भल्लेन हस्ताच्चापमथाच्छिनत् ॥ २७ ॥

मूलम्

सारथिं चास्य भल्लेन रथनीडादपातयत्।
अथास्य चतुरो वाहांश्चतुर्भिर्निशितैः शरैः ॥ २६ ॥
पातयामास समरे सिंहनादं ननाद च।
ततोऽपरेण भल्लेन हस्ताच्चापमथाच्छिनत् ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

साथ ही उन्होंने भल्ल मारकर धृष्टद्युम्नके सारथिको रथकी बैठकसे नीचे गिरा दिया और चार तीखे बाणोंसे उनके चारों घोड़ोंको भी मार गिराया। फिर वे समरांगणमें जोर-जोरसे सिंहनाद करने लगे। इतना ही नहीं, उन्होंने दूसरा बाण मारकर उनके हाथमें स्थित दूसरे धनुषको भी काट डाला॥२६-२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सच्छिन्नधन्वा विरथो हताश्वो हतसारथिः।
गदापाणिरवारोहत् ख्यापयन् पौरुषं महत् ॥ २८ ॥
तामस्य विशिखैस्तूर्णं पातयामास भारत।
रथादनवरूढस्य तदद्भुतमिवाभवत् ॥ २९ ॥

मूलम्

सच्छिन्नधन्वा विरथो हताश्वो हतसारथिः।
गदापाणिरवारोहत् ख्यापयन् पौरुषं महत् ॥ २८ ॥
तामस्य विशिखैस्तूर्णं पातयामास भारत।
रथादनवरूढस्य तदद्भुतमिवाभवत् ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार धनुष कट जाने और घोड़े तथा सारथिके मारे जानेपर रथहीन हुए धृष्टद्युम्न हाथमें गदा लेकर उतरने लगे। भारत! इतनेहीमें अपने महान् पौरुषका परिचय देते हुए द्रोणाचार्यने तुरंत ही बाण मारकर रथसे उतरते-उतरते ही उनकी गदाको भी गिरा दिया। वह एक अद्भुत-सी घटना हुई॥२८-२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः स विपुलं चर्म शतचन्द्रं च भानुमत्।
खड्‌गं च विपुलं दिव्यं प्रगृह्य सुभुजो बली ॥ ३० ॥
अभिदुद्राव वेगेन द्रोणस्य वधकाङ्क्षया।
आमिषार्थी यथा सिंहो वने मत्तमिव द्विपम् ॥ ३१ ॥

मूलम्

ततः स विपुलं चर्म शतचन्द्रं च भानुमत्।
खड्‌गं च विपुलं दिव्यं प्रगृह्य सुभुजो बली ॥ ३० ॥
अभिदुद्राव वेगेन द्रोणस्य वधकाङ्क्षया।
आमिषार्थी यथा सिंहो वने मत्तमिव द्विपम् ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब सुन्दर बाँहोंवाले बलवान् वीर धृष्टद्युम्नने चन्द्राकार सौ फुल्लियोंसे सुशोभित तेजस्वी और विस्तृत ढाल तथा दिव्य एवं विशाल खड्‌ग हाथमें लेकर द्रोणका वध करनेकी इच्छासे उनके ऊपर वेगपूर्वक आक्रमण किया। ठीक उसी तरह, जैसे मांस चाहनेवाला सिंह वनमें किसी मतवाले हाथीपर धावा करता है॥३०-३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्राद्भुतमपश्याम भारद्वाजस्य पौरुषम् ।
लाघवं चास्त्रयोगं च बलं बाह्वोश्च भारत ॥ ३२ ॥

मूलम्

तत्राद्भुतमपश्याम भारद्वाजस्य पौरुषम् ।
लाघवं चास्त्रयोगं च बलं बाह्वोश्च भारत ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! उस समय हमने वहाँ द्रोणाचार्यका अद्भुत हस्तलाघव, अस्त्र-प्रयोग, बाहुबल तथा पुरुषार्थ देखा॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदेनं शरवर्षेण वारयामास पार्षतम्।
न शशाक ततो गन्तुं बलवानपि संयुगे ॥ ३३ ॥

मूलम्

यदेनं शरवर्षेण वारयामास पार्षतम्।
न शशाक ततो गन्तुं बलवानपि संयुगे ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने अपने बाणोंकी वर्षासे द्रुपदकुमार धृष्टद्युम्नको सहसा आगे बढ़नेसे रोक दिया। अतः वे बलवान् होनेपर भी युद्धमें द्रोणाचार्यके पासतक न पहुँच सके॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निवारितस्तु द्रोणेन धृष्टद्युम्नो महारथः।
न्यवारयच्छरौघांस्तांश्चर्मणा कृतहस्तवत् ॥ ३४ ॥

मूलम्

निवारितस्तु द्रोणेन धृष्टद्युम्नो महारथः।
न्यवारयच्छरौघांस्तांश्चर्मणा कृतहस्तवत् ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्रोणाचार्यसे रोके गये महारथी धृष्टद्युम्न सिद्धहस्त वीर पुरुषकी भाँति अपनी ढालसे ही उनके बाण-समूहोंका निवारण करने लगे॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो भीमो महाबाहुः सहसाभ्यपतद् बली।
साहाय्यकारी समरे पार्षतस्य महात्मनः ॥ ३५ ॥

मूलम्

ततो भीमो महाबाहुः सहसाभ्यपतद् बली।
साहाय्यकारी समरे पार्षतस्य महात्मनः ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब बलवान् वीर महाबाहु भीम सहसा समरमें महामना धृष्टद्युम्नकी सहायता करनेके लिये आ पहुँचे॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स द्रोणं निशितैर्बाणै राजन् विव्याध सप्तभिः।
पार्षतं च रथं तूर्णं स्वकमारोहयत् तदा ॥ ३६ ॥

मूलम्

स द्रोणं निशितैर्बाणै राजन् विव्याध सप्तभिः।
पार्षतं च रथं तूर्णं स्वकमारोहयत् तदा ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! उन्होंने सात पैने बाणोंद्वारा द्रोणाचार्यको घायल कर दिया और द्रुपदकुमार धृष्टद्युम्नको तुरंत ही अपने रथपर चढ़ा लिया॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो दुर्योधनो राजन् भानुमन्तमचोदयत्।
सैन्येन महता युक्तं भारद्वाजस्य रक्षणे ॥ ३७ ॥

मूलम्

ततो दुर्योधनो राजन् भानुमन्तमचोदयत्।
सैन्येन महता युक्तं भारद्वाजस्य रक्षणे ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! तब दुर्योधनने विशाल सेनासे युक्त भानुमान्‌को द्रोणाचार्यकी रक्षाके कार्यमें नियुक्त किया॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः सा महती सेना कलिङ्गानां जनेश्वर।
भीममभ्युद्ययौ तूर्णं तव पुत्रस्य शासनात् ॥ ३८ ॥

मूलम्

ततः सा महती सेना कलिङ्गानां जनेश्वर।
भीममभ्युद्ययौ तूर्णं तव पुत्रस्य शासनात् ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनेश्वर! उस समय आपके पुत्रकी आज्ञासे कलिंगदेशीय वीरोंकी वह विशाल सेना तुरंत ही भीमसेनके सम्मुख आ पहुँची॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाञ्चाल्यमथ संत्यज्य द्रोणोऽपि रथिनां वरः।
विराटद्रुपदौ वृद्धौ वारयामास संयुगे ॥ ३९ ॥

मूलम्

पाञ्चाल्यमथ संत्यज्य द्रोणोऽपि रथिनां वरः।
विराटद्रुपदौ वृद्धौ वारयामास संयुगे ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब रथियोंमें श्रेष्ठ द्रोणाचार्य भी धृष्टद्युम्नको छोड़कर युद्धस्थलमें विराट और द्रुपद इन दोनों वृद्ध नरेशोंको आगे बढ़नेसे रोकने लगे॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धृष्टद्युम्नोऽपि समरे धर्मराजानमभ्ययात् ।
ततः प्रववृते युद्धं तुमुलं लोमहर्षणम् ॥ ४० ॥
कलिङ्गानां च समरे भीमस्य च महात्मनः।
जगतः प्रक्षयकरं घोररूपं भयावहम् ॥ ४१ ॥

मूलम्

धृष्टद्युम्नोऽपि समरे धर्मराजानमभ्ययात् ।
ततः प्रववृते युद्धं तुमुलं लोमहर्षणम् ॥ ४० ॥
कलिङ्गानां च समरे भीमस्य च महात्मनः।
जगतः प्रक्षयकरं घोररूपं भयावहम् ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इधर धृष्टद्युम्न भी उस समरांगणमें धर्मराज युधिष्ठिरके पास चले गये। तत्पश्चात् समरभूमिमें कलिंगदेशीय योद्धाओं और महामनस्वी भीमसेनका अत्यन्त भयंकर तथा रोमांचकारी युद्ध होने लगा। जो सम्पूर्ण जागत्‌का विनाश करनेवाला घोरस्वरूप एवं महान् भयदायक था॥४०-४१॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते भीष्मपर्वणि भीष्मवधपर्वणि धृष्टद्युम्नद्रोणयुद्धे त्रिपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५३ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्वके अन्तर्गत भीष्मवधपर्वमें धृष्टद्युम्न और द्रोणका युद्धविषयक तिरपनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५३॥