भागसूचना
(भीष्मवधपर्व)
त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
गीताका माहात्म्य तथा युधिष्ठिरका भीष्म, द्रोण, कृप और शल्यसे अनुमति लेकर युद्धके लिये तैयार होना
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्रसंग्रहैः।
या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद् विनिःसृता ॥ १ ॥
मूलम्
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्रसंग्रहैः।
या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद् विनिःसृता ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! अन्य बहुत-से शास्त्रोंका संग्रह करनेकी क्या आवश्यकता है? गीताका ही अच्छी तरहसे गान (श्रवण, कीर्तन, पठन-पाठन, मनन और धारण) करना चाहिये; क्योंकि वह स्वयं पद्मनाभ भगवान्के साक्षात् मुखकमलसे निकली हुई है॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वशास्त्रमयी गीता सर्वदेवमयो हरिः।
सर्वतीर्थमयी गंगा सर्ववेदमयो मनुः ॥ २ ॥
मूलम्
सर्वशास्त्रमयी गीता सर्वदेवमयो हरिः।
सर्वतीर्थमयी गंगा सर्ववेदमयो मनुः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गीता सर्वशास्त्रमयी है (गीतामें सब शास्त्रोंके सार-तत्त्वका समावेश है)। भगवान् श्रीहरि सर्वदेवमय हैं। गंगा सर्वतीर्थमयी हैं और मनु (उनका धर्मशास्त्र) सर्ववेदमय हैं॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गीता गंगा च गायत्री गोविन्देति हृदि स्थिते।
चतुर्गकारसंयुक्ते पुनर्जन्म न विद्यते ॥ ३ ॥
मूलम्
गीता गंगा च गायत्री गोविन्देति हृदि स्थिते।
चतुर्गकारसंयुक्ते पुनर्जन्म न विद्यते ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गीता, गंगा, गायत्री और गोविन्द—इन ‘ग’ कारयुक्त चार नामोंको हृदयमें धारण कर लेनेपर मनुष्यका फिर इस संसारमें जन्म नहीं होता॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
षट्शतानि सविंशानि श्लोकानां प्राह केशवः।
अर्जुनः सप्तपञ्चाशत् सप्तषष्टिं तु संजयः ॥ ४ ॥
धृतराष्ट्रः श्लोकमेकं गीताया मानमुच्यते।
मूलम्
षट्शतानि सविंशानि श्लोकानां प्राह केशवः।
अर्जुनः सप्तपञ्चाशत् सप्तषष्टिं तु संजयः ॥ ४ ॥
धृतराष्ट्रः श्लोकमेकं गीताया मानमुच्यते।
अनुवाद (हिन्दी)
इस गीतामें छः सौ बीस श्लोक भगवान् श्रीकृष्णने कहे हैं, सत्तावन श्लोक अर्जुनके कहे हुए हैं, सड़सठ श्लोक संजयने कहे हैं और एक श्लोक धृतराष्ट्रका कहा हुआ है। यह गीताका मान बताया जाता है॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भारतामृतसर्वस्वगीताया मथितस्य च ।
सारमुद्धृत्य कृष्णेन अर्जुनस्य मुखे हुतम् ॥ ५ ॥
मूलम्
भारतामृतसर्वस्वगीताया मथितस्य च ।
सारमुद्धृत्य कृष्णेन अर्जुनस्य मुखे हुतम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारतरूपी अमृतराशिके सर्वस्व सारभूत गीताका मन्थन करके उसका सार निकालकर श्रीकृष्णने अर्जुनके मुखमें (कानोंद्वारा मन-बुद्धिमें) डाल दिया है॥५॥1
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो धनंजयं दृष्ट्वा बाणगाण्डीवधारिणम्।
पुनरेव महानादं व्यसृजन्त महारथाः ॥ ६ ॥
पाण्डवाः सोमकाश्चैव ये चैषामनुयायिनः।
दध्मुश्च मुदिताः शङ्खान् वीराः सागरसम्भवान् ॥ ७ ॥
मूलम्
ततो धनंजयं दृष्ट्वा बाणगाण्डीवधारिणम्।
पुनरेव महानादं व्यसृजन्त महारथाः ॥ ६ ॥
पाण्डवाः सोमकाश्चैव ये चैषामनुयायिनः।
दध्मुश्च मुदिताः शङ्खान् वीराः सागरसम्भवान् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— राजन्! तदनन्तर अर्जुनको गाण्डीव धनुष और बाण धारण किये देख पाण्डव महारथियों, सोमकों तथा उनके अनुगामी सैनिकोंने पुनः बड़े जोरसे सिंहनाद किया। साथ ही उन सभी वीरोंने प्रसन्नतापूर्वक समुद्रसे प्रकट होनेवाले शंखोंको बजाया॥६-७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो भेर्यश्च पेश्यश्च क्रकचा गोविषाणिकाः।
सहसैवाभ्यहन्यन्त ततः शब्दो महानभूत् ॥ ८ ॥
मूलम्
ततो भेर्यश्च पेश्यश्च क्रकचा गोविषाणिकाः।
सहसैवाभ्यहन्यन्त ततः शब्दो महानभूत् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर भेरी, पेशी, क्रकच और नरसिंहे आदि बाजे सहसा बज उठे। इससे वहाँ महान् शब्द गूँजने लगा॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा देवाः सगन्धर्वाः पितरश्च जनाधिप।
सिद्धचारणसंघाश्च समीयुस्ते दिदृक्षया ॥ ९ ॥
ऋषयश्च महाभागाः पुरस्कृत्य शतक्रतुम्।
समीयुस्तत्र सहिता द्रष्टुं तद् वैशसं महत् ॥ १० ॥
मूलम्
तथा देवाः सगन्धर्वाः पितरश्च जनाधिप।
सिद्धचारणसंघाश्च समीयुस्ते दिदृक्षया ॥ ९ ॥
ऋषयश्च महाभागाः पुरस्कृत्य शतक्रतुम्।
समीयुस्तत्र सहिता द्रष्टुं तद् वैशसं महत् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! उस समय देवता, गन्धर्व, पितर, सिद्ध, चारण तथा महाभाग महर्षिगण देवराज इन्द्रको आगे करके उस भीषण मार-काटको देखनेके लिये एक साथ वहाँ आये॥९-१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो युधिष्ठिरो दृष्ट्वा युद्धाय समवस्थिते।
ते सेने सागरप्रख्ये मुहुः प्रचलिते नृप ॥ ११ ॥
विमुच्य कवचं वीरो निक्षिप्य च वरायुधम्।
अवरुह्य रथात् क्षिप्रं पद्भ्यामेव कृतांजलिः ॥ १२ ॥
पितामहमभिप्रेक्ष्य धर्मराजो युधिष्ठिरः ।
वाग्यतः प्रययौ येन प्राङ्मुखो रिपुवाहिनीम् ॥ १३ ॥
मूलम्
ततो युधिष्ठिरो दृष्ट्वा युद्धाय समवस्थिते।
ते सेने सागरप्रख्ये मुहुः प्रचलिते नृप ॥ ११ ॥
विमुच्य कवचं वीरो निक्षिप्य च वरायुधम्।
अवरुह्य रथात् क्षिप्रं पद्भ्यामेव कृतांजलिः ॥ १२ ॥
पितामहमभिप्रेक्ष्य धर्मराजो युधिष्ठिरः ।
वाग्यतः प्रययौ येन प्राङ्मुखो रिपुवाहिनीम् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! तदनन्तर वीर राजा युधिष्ठिरने समुद्रके समान उन दोनों सेनाओंको युद्धके लिये उपस्थित और चंचल हुई देख कवच खोलकर अपने उत्तम आयुधोंको नीचे डाल दिया और रथसे शीघ्र उतरकर वे पैदल ही हाथ जोड़े पितामह भीष्मको लक्ष्य करके चल दिये। धर्मराज युधिष्ठिर मौन एवं पूर्वाभिमुख हो शत्रुसेनाकी ओर चले गये॥११—१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं प्रयान्तमभिप्रेक्ष्य कुन्तीपुत्रो धनंजयः।
अवतीर्य रथात् तूर्णं भ्रातृभिः सहितोऽन्वयात् ॥ १४ ॥
वासुदेवश्च भगवान् पृष्ठतोऽनुजगाम तम्।
तथा मुख्याश्च राजानस्तच्चित्ता जग्मुरुत्सुकाः ॥ १५ ॥
मूलम्
तं प्रयान्तमभिप्रेक्ष्य कुन्तीपुत्रो धनंजयः।
अवतीर्य रथात् तूर्णं भ्रातृभिः सहितोऽन्वयात् ॥ १४ ॥
वासुदेवश्च भगवान् पृष्ठतोऽनुजगाम तम्।
तथा मुख्याश्च राजानस्तच्चित्ता जग्मुरुत्सुकाः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीपुत्र धनंजय उन्हें शत्रु-सेनाकी ओर जाते देख तुरंत रथसे उतर पड़े और भाइयोंसहित उनके पीछे-पीछे जाने लगे। भगवान् श्रीकृष्ण भी उनके पीछे गये तथा उन्हींमें चित्त लगाये रहनेवाले प्रधान-प्रधान राजा भी उत्सुक होकर उनके साथ गये॥१४-१५॥
मूलम् (वचनम्)
अर्जुन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं ते व्यवसितं राजन् यदस्मानपहाय वै।
पद्भ्यामेव प्रयातोऽसि प्राङ्मुखो रिपुवाहिनीम् ॥ १६ ॥
मूलम्
किं ते व्यवसितं राजन् यदस्मानपहाय वै।
पद्भ्यामेव प्रयातोऽसि प्राङ्मुखो रिपुवाहिनीम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुनने पूछा— राजन्! आपने क्या निश्चय किया है कि हमलोगोंको छोड़कर आप पूर्वाभिमुख हो पैदल ही शत्रुसेनाकी ओर चल दिये हैं?॥१६॥
मूलम् (वचनम्)
भीमसेन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्व गमिष्यसि राजेन्द्र निक्षिप्तकवचायुधः।
दंशितेष्वरिसैन्येषु भ्रातॄनुत्सृज्य पार्थिव ॥ १७ ॥
मूलम्
क्व गमिष्यसि राजेन्द्र निक्षिप्तकवचायुधः।
दंशितेष्वरिसैन्येषु भ्रातॄनुत्सृज्य पार्थिव ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीमसेनने पूछा— महाराज! पृथ्वीनाथ! कवच और आयुध नीचे डालकर भाइयोंको भी छोड़कर कवच आदिसे सुसज्जित हुई शत्रु-सेनामें कहाँ जायँगे?॥१७॥
मूलम् (वचनम्)
नकुल उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं गते त्वयि ज्येष्ठे मम भ्रातरि भारत।
भीर्मे दुनोति हृदयं ब्रूहि गन्ता भवान् क्व नु॥१८॥
मूलम्
एवं गते त्वयि ज्येष्ठे मम भ्रातरि भारत।
भीर्मे दुनोति हृदयं ब्रूहि गन्ता भवान् क्व नु॥१८॥
अनुवाद (हिन्दी)
नकुलने पूछा— भारत! आप मेरे बड़े भाई हैं। आपके इस प्रकार शत्रुसेनाकी ओर चल देनेपर भारी भय मेरे हृदयको पीड़ित कर रहा है। बताइये, आप कहाँ जायँगे?॥१८॥
मूलम् (वचनम्)
सहदेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्मिन् रणसमूहे वै वर्तमाने महाभये।
उत्सृज्य क्व नु गन्तासि शत्रूनभिमुखो नृप ॥ १९ ॥
मूलम्
अस्मिन् रणसमूहे वै वर्तमाने महाभये।
उत्सृज्य क्व नु गन्तासि शत्रूनभिमुखो नृप ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सहदेवने पूछा— नरेश्वर! इस रणक्षेत्रमें जहाँ शत्रु-सेनाका समूह जुटा हुआ है और महान् भय उपस्थित है, आप हमें छोड़कर शत्रुओंकी ओर कहाँ जायँगे?॥१९॥
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमाभाष्यमाणोऽपि भ्रातृभिः कुरुनन्दनः ।
नोवाच वाग्यतः किंचिद् गच्छत्येव युधिष्ठिरः ॥ २० ॥
मूलम्
एवमाभाष्यमाणोऽपि भ्रातृभिः कुरुनन्दनः ।
नोवाच वाग्यतः किंचिद् गच्छत्येव युधिष्ठिरः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— राजन्! भाइयोंके इस प्रकार कहनेपर भी कुरुकुलको आनन्दित करनेवाले राजा युधिष्ठिर उनसे कुछ नहीं बोले। चुपचाप चलते ही गये॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तानुवाच महाप्राज्ञो वासुदेवो महामनाः।
अभिप्रायोऽस्य विज्ञातो मयेति प्रहसन्निव ॥ २१ ॥
मूलम्
तानुवाच महाप्राज्ञो वासुदेवो महामनाः।
अभिप्रायोऽस्य विज्ञातो मयेति प्रहसन्निव ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब परम बुद्धिमान् महामना भगवान् वासुदेवने उन चारों भाइयोंसे हँसते हुए-से कहा—‘इनका अभिप्राय मुझे ज्ञात हो गया है॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष भीष्मं तथा द्रोणं गौतमं शल्यमेव च।
अनुमान्य गुरून् सर्वान् योत्स्यते पार्थिवोऽरिभिः ॥ २२ ॥
मूलम्
एष भीष्मं तथा द्रोणं गौतमं शल्यमेव च।
अनुमान्य गुरून् सर्वान् योत्स्यते पार्थिवोऽरिभिः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ये राजा युधिष्ठिर भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य और शल्य—इन समस्त गुरुजनोंसे आज्ञा लेकर शत्रुओंके साथ युद्ध करेंगे॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रूयते हि पुराकल्पे गुरूनननुमान्य यः।
युध्यते स भवेद् व्यक्तमपध्यातो महत्तरैः ॥ २३ ॥
मूलम्
श्रूयते हि पुराकल्पे गुरूनननुमान्य यः।
युध्यते स भवेद् व्यक्तमपध्यातो महत्तरैः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सुना जाता है कि प्राचीन कालमें जो गुरुजनोंकी अनुमति लिये बिना ही युद्ध करता था, वह निश्चय ही उन माननीय पुरुषोंकी दृष्टिमें गिर जाता था॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनुमान्य यथाशास्त्रं यस्तु युध्येन्महत्तरैः।
ध्रुवस्तस्य जयो युद्धे भवेदिति मतिर्मम ॥ २४ ॥
मूलम्
अनुमान्य यथाशास्त्रं यस्तु युध्येन्महत्तरैः।
ध्रुवस्तस्य जयो युद्धे भवेदिति मतिर्मम ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो शास्त्रकी आज्ञाके अनुसार माननीय पुरुषोंसे आज्ञा लेकर युद्ध करता है, उसकी उस युद्धमें अवश्य विजय होती है, ऐसा मेरा विश्वास है’॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं ब्रुवति कृष्णेऽत्र धार्तराष्ट्रचमूं प्रति।
(नेत्रैरनिमिषैः सर्वैः प्रेक्षन्ते स्म युधिष्ठिरम्॥)
हाहाकारो महानासीन्निःशब्दास्त्वपरेऽभवन् ॥ २५ ॥
मूलम्
एवं ब्रुवति कृष्णेऽत्र धार्तराष्ट्रचमूं प्रति।
(नेत्रैरनिमिषैः सर्वैः प्रेक्षन्ते स्म युधिष्ठिरम्॥)
हाहाकारो महानासीन्निःशब्दास्त्वपरेऽभवन् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब भगवान् श्रीकृष्ण ये बातें कह रहे थे, उस समय दुर्योधनकी सेनाकी ओर आते हुए युधिष्ठिरको सब लोग अपलक नेत्रोंसे देख रहे थे। कहीं महान् हाहाकार हो रहा था और कहीं दूसरे लोग मुँहसे एक शब्द भी न बोलकर चुप हो गये थे॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्ट्वा युधिष्ठिरं दूराद् धार्तराष्ट्रस्य सैनिकाः।
मिथः संकथयाञ्चक्रुरेषो हि कुलपांसनः ॥ २६ ॥
मूलम्
दृष्ट्वा युधिष्ठिरं दूराद् धार्तराष्ट्रस्य सैनिकाः।
मिथः संकथयाञ्चक्रुरेषो हि कुलपांसनः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरको दूरसे ही देखकर दुर्योधनके सैनिक आपसमें इस प्रकार बातचीत करने लगे—‘यह युधिष्ठिर तो अपने कुलका जीता-जागता कलंक ही है॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्यक्तं भीत इवाभ्येति राजासौ भीष्ममन्तिकम्।
युधिष्ठिरः ससोदर्यः शरणार्थं प्रयाचकः ॥ २७ ॥
मूलम्
व्यक्तं भीत इवाभ्येति राजासौ भीष्ममन्तिकम्।
युधिष्ठिरः ससोदर्यः शरणार्थं प्रयाचकः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘देखो, स्पष्ट ही दिखायी दे रहा है कि वह राजा युधिष्ठिर भयभीतकी भाँति भाइयोंसहित भीष्मजीके निकट शरण माँगनेके लिये आ रहा है॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनंजये कथं नाथे पाण्डवे च वृकोदरे।
नकुले सहदेवे च भीतिरभ्येति पाण्डवम् ॥ २८ ॥
मूलम्
धनंजये कथं नाथे पाण्डवे च वृकोदरे।
नकुले सहदेवे च भीतिरभ्येति पाण्डवम् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पाण्डुनन्दन धनंजय, वृकोदर भीम तथा नकुल-सहदेव-जैसे सहायकोंके रहते हुए युधिष्ठिरके मनमें भय कैसे हो गया!॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न नूनं क्षत्रियकुले जातः सम्प्रथिते भुवि।
यथास्य हृदयं भीतमल्पसत्त्वस्य संयुगे ॥ २९ ॥
मूलम्
न नूनं क्षत्रियकुले जातः सम्प्रथिते भुवि।
यथास्य हृदयं भीतमल्पसत्त्वस्य संयुगे ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘निश्चय ही यह भूमण्डलमें विख्यात क्षत्रियोंके कुलमें उत्पन्न नहीं हुआ है। इसका मानसिक बल अत्यन्त अल्प है; इसीलिये युद्धके अवसरपर इसका हृदय इतना भयभीत है’॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्ते सैनिकाः सर्वे प्रशंसन्ति स्म कौरवान्।
हृष्टाः सुमनसो भूत्वा चैलानि दुधुवुश्च ह ॥ ३० ॥
मूलम्
ततस्ते सैनिकाः सर्वे प्रशंसन्ति स्म कौरवान्।
हृष्टाः सुमनसो भूत्वा चैलानि दुधुवुश्च ह ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर वे सब सैनिक कौरवोंकी प्रशंसा करने लगे और प्रसन्नचित्त हो हर्षमें भरकर अपने कपड़े हिलाने लगे॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्यनिन्दश्च तथा सर्वे योधास्तव विशाम्पते।
युधिष्ठिरं ससोदर्यं सहितं केशवेन हि ॥ ३१ ॥
मूलम्
व्यनिन्दश्च तथा सर्वे योधास्तव विशाम्पते।
युधिष्ठिरं ससोदर्यं सहितं केशवेन हि ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजानाथ! आपके वे सब योद्धा भाइयों तथा श्रीकृष्णसहित युधिष्ठिरकी विशेषरूपसे निन्दा करते थे॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तत् कौरवं सैन्यं धिक्कृत्वा तु युधिष्ठिरम्।
निःशब्दमभवत् तूर्णं पुनरेव विशाम्पते ॥ ३२ ॥
मूलम्
ततस्तत् कौरवं सैन्यं धिक्कृत्वा तु युधिष्ठिरम्।
निःशब्दमभवत् तूर्णं पुनरेव विशाम्पते ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! इस प्रकार युधिष्ठिरको धिक्कार देकर सारी कौरव-सेना पुनः शीघ्र ही चुप हो गयी॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं नु वक्ष्यति राजासौ किं भीष्मः प्रतिवक्ष्यति।
किं भीमः समरश्लाघी किं नु कृष्णार्जुनाविति ॥ ३३ ॥
मूलम्
किं नु वक्ष्यति राजासौ किं भीष्मः प्रतिवक्ष्यति।
किं भीमः समरश्लाघी किं नु कृष्णार्जुनाविति ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सब लोग मन-ही-मन सोचने लगे कि वह राजा क्या कहेगा और भीष्मजी क्या उत्तर देंगे? युद्धकी श्लाघा रखनेवाले भीमसेन तथा श्रीकृष्ण और अर्जुन भी क्या कहेंगे?॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विवक्षितं किमस्येति संशयः सुमहानभूत्।
उभयोः सेनयो राजन् युधिष्ठिरकृते तदा ॥ ३४ ॥
मूलम्
विवक्षितं किमस्येति संशयः सुमहानभूत्।
उभयोः सेनयो राजन् युधिष्ठिरकृते तदा ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! दोनों ही सेनाओंमें युधिष्ठिरके विषयमें महान् संशय उत्पन्न हो गया था। सब सोचते थे कि राजा युधिष्ठिर क्या कहना चाहते हैं॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽवगाह्य चमूं शत्रोः शरशक्तिसमाकुलाम्।
भीष्ममेवाभ्ययात् तूर्णं भ्रातृभिः परिवारितः ॥ ३५ ॥
मूलम्
सोऽवगाह्य चमूं शत्रोः शरशक्तिसमाकुलाम्।
भीष्ममेवाभ्ययात् तूर्णं भ्रातृभिः परिवारितः ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बाण और शक्तियोंसे भरी हुई शत्रुकी सेनामें घुसकर भाइयोंसे घिरे हुए युधिष्ठिर तुरंत ही भीष्मजीके पास जा पहुँचे॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमुवाच ततः पादौ कराभ्यां पीड्य पाण्डवः।
भीष्मं शान्तनवं राजा युद्धाय समुपस्थितम् ॥ ३६ ॥
मूलम्
तमुवाच ततः पादौ कराभ्यां पीड्य पाण्डवः।
भीष्मं शान्तनवं राजा युद्धाय समुपस्थितम् ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ जाकर उन पाण्डुनन्दन राजा युधिष्ठिरने अपने दोनों हाथोंसे पितामहके चरणोंको दबाया और युद्धके लिये उपस्थित हुए उन शान्तनुनन्दन भीष्मसे इस प्रकार कहा॥३६॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
आमन्त्रये त्वां दुर्धर्ष त्वया योत्स्यामहे सह।
अनुजानीहि मां तात आशिषश्च प्रयोजय ॥ ३७ ॥
मूलम्
आमन्त्रये त्वां दुर्धर्ष त्वया योत्स्यामहे सह।
अनुजानीहि मां तात आशिषश्च प्रयोजय ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर बोले— दुर्धर्ष वीर पितामह! मैं आपसे आज्ञा चाहता हूँ, मुझे आपके साथ युद्ध करना है। तात! इसके लिये आप मुझे आज्ञा और आशीर्वाद प्रदान करें॥३७॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यद्येवं नाभिगच्छेथा युधि मां पृथिवीपते।
शपेयं त्वां महाराज पराभावाय भारत ॥ ३८ ॥
मूलम्
यद्येवं नाभिगच्छेथा युधि मां पृथिवीपते।
शपेयं त्वां महाराज पराभावाय भारत ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी बोले— पृथ्वीपते! भरतकुलनन्दन! महाराज! यदि इस युद्धके समय तुम इस प्रकार मेरे पास नहीं आते तो मैं तुम्हें पराजित होनेके लिये शाप दे देता॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रीतोऽहं पुत्र युध्यस्व जयमाप्नुहि पाण्डव।
यत् तेऽभिलषितं चान्यत् तदवाप्नुहि संयुगे ॥ ३९ ॥
मूलम्
प्रीतोऽहं पुत्र युध्यस्व जयमाप्नुहि पाण्डव।
यत् तेऽभिलषितं चान्यत् तदवाप्नुहि संयुगे ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाण्डुनन्दन! पुत्र! अब मैं प्रसन्न हूँ और तुम्हें आज्ञा देता हूँ। तुम युद्ध करो और विजय पाओ। इसके सिवा और भी जो तुम्हारी अभिलाषा हो, वह इस युद्धभूमिमें प्राप्त करो॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्रियतां च वरः पार्थ किमस्मत्तोऽभिकङ्क्षसि।
एवंगते महाराज न तवास्ति पराजयः ॥ ४० ॥
मूलम्
व्रियतां च वरः पार्थ किमस्मत्तोऽभिकङ्क्षसि।
एवंगते महाराज न तवास्ति पराजयः ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पार्थ! वर माँगो। तुम मुझसे क्या चाहते हो? महाराज! ऐसी स्थितिमें तुम्हारी पराजय नहीं होगी॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्थस्य पुरुषो दासो दासस्त्वर्थो न कस्यचित्।
इति सत्यं महाराज बद्धोऽस्म्यर्थेन कौरवैः ॥ ४१ ॥
मूलम्
अर्थस्य पुरुषो दासो दासस्त्वर्थो न कस्यचित्।
इति सत्यं महाराज बद्धोऽस्म्यर्थेन कौरवैः ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! पुरुष अर्थका दास है, अर्थ किसीका दास नहीं है। यह सच्ची बात है। मैं कौरवोंके द्वारा अर्थसे बँधा हुआ हूँ॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतस्त्वां क्लीबवद् वाक्यं ब्रवीमि कुरुनन्दन।
भृतोऽस्म्यर्थेन कौरव्य युद्धादन्यत् किमिच्छसि ॥ ४२ ॥
मूलम्
अतस्त्वां क्लीबवद् वाक्यं ब्रवीमि कुरुनन्दन।
भृतोऽस्म्यर्थेन कौरव्य युद्धादन्यत् किमिच्छसि ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुनन्दन! इसीलिये आज मैं तुम्हारे सामने नपुंसकके समान वचन बोलता हूँ। कौरव! धृतराष्ट्रके पुत्रोंने धनके द्वारा मेरा भरण-पोषण किया है; इसलिये (तुम्हारे पक्षमें होकर) उनके साथ युद्ध करनेके अतिरिक्त तुम क्या चाहते हो, यह बताओ॥४२॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन्त्रयस्व महाबाहो हितैषी मम नित्यशः।
युध्यस्व कौरवस्यार्थे ममैष सततं वरः ॥ ४३ ॥
मूलम्
मन्त्रयस्व महाबाहो हितैषी मम नित्यशः।
युध्यस्व कौरवस्यार्थे ममैष सततं वरः ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर बोले— महाबाहो! आप सदा मेरा हित चाहते हुए मुझे अच्छी सलाह दें और दुर्योधनके लिये युद्ध करें। मैं सदाके लिये यही वर चाहता हूँ॥४३॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजन् किमत्र साह्यं ते करोमि कुरुनन्दन।
कामं योत्स्ये परस्यार्थे ब्रूहि यत् ते विवक्षितम् ॥ ४४ ॥
मूलम्
राजन् किमत्र साह्यं ते करोमि कुरुनन्दन।
कामं योत्स्ये परस्यार्थे ब्रूहि यत् ते विवक्षितम् ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्म बोले— राजन्! कुरुनन्दन! मैं यहाँ तुम्हारी क्या सहायता करूँ? युद्ध तो मैं इच्छानुसार तुम्हारे शत्रुकी ओरसे ही करूँगा; अतः बताओ, तुम क्या कहना चाहते हो?॥४४॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथं जयेयं संग्रामे भवन्तमपराजितम्।
एतन्मे मन्त्रय हितं यदि श्रेयः प्रपश्यसि ॥ ४५ ॥
मूलम्
कथं जयेयं संग्रामे भवन्तमपराजितम्।
एतन्मे मन्त्रय हितं यदि श्रेयः प्रपश्यसि ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर बोले— पितामह! आप तो किसीसे पराजित होनेवाले हैं नहीं, फिर मैं आपको युद्धमें कैसे जीत सकूँगा? यदि आप मेरा कल्याण देखते और सोचते हैं तो मेरे हितकी सलाह दीजिये॥४५॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैनं पश्यामि कौन्तेय यो मां युध्यन्तमाहवे।
विजयेत पुमान् कश्चित् साक्षादपि शतक्रतुः ॥ ४६ ॥
मूलम्
नैनं पश्यामि कौन्तेय यो मां युध्यन्तमाहवे।
विजयेत पुमान् कश्चित् साक्षादपि शतक्रतुः ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मने कहा— कुन्तीनन्दन! मैं ऐसे किसी वीरको नहीं देखता, जो संग्रामभूमिमें युद्ध करते समय मुझे पराजित कर सके। युद्धकालमें कोई पुरुष, साक्षात् इन्द्र ही क्यों न हो, मुझे परास्त नहीं कर सकता॥४६॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
हन्त पृच्छामि तस्मात् त्वां पितामह नमोऽस्तु ते।
वधोपायं ब्रवीहि त्वमात्मनः समरे परैः ॥ ४७ ॥
मूलम्
हन्त पृच्छामि तस्मात् त्वां पितामह नमोऽस्तु ते।
वधोपायं ब्रवीहि त्वमात्मनः समरे परैः ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर बोले— पितामह! आपको नमस्कार है। इसलिये अब मैं आपसे पूछता हूँ, आप युद्धमें शत्रुओंद्वारा अपने मारे जानेका उपाय बताइये॥४७॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
न स्म तं तात पश्यामि समरे यो जयेत माम्।
न तावन्मृत्युकालोऽपि पुनरागमनं कुरु ॥ ४८ ॥
मूलम्
न स्म तं तात पश्यामि समरे यो जयेत माम्।
न तावन्मृत्युकालोऽपि पुनरागमनं कुरु ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्म बोले— बेटा! जो समरभूमिमें मुझे जीत ले, ऐसे किसी वीरको मैं नहीं देखता हूँ। अभी मेरा मृत्युकाल भी नहीं आया है; अतः अपने इस प्रश्नका उत्तर लेनेके लिये फिर कभी आना॥४८॥
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो युधिष्ठिरो वाक्यं भीष्मस्य कुरुनन्दन।
शिरसा प्रतिजग्राह भूयस्तमभिवाद्य च ॥ ४९ ॥
प्रायात् पुनर्महाबाहुराचार्यस्य रथं प्रति।
पश्यतां सर्वसैन्यानां मध्येन भ्रातृभिः सह ॥ ५० ॥
स द्रोणमभिवाद्याथ कृत्वा चाभिप्रदक्षिणम्।
उवाच राजा दुर्धर्षमात्मनिःश्रेयसं वचः ॥ ५१ ॥
मूलम्
ततो युधिष्ठिरो वाक्यं भीष्मस्य कुरुनन्दन।
शिरसा प्रतिजग्राह भूयस्तमभिवाद्य च ॥ ४९ ॥
प्रायात् पुनर्महाबाहुराचार्यस्य रथं प्रति।
पश्यतां सर्वसैन्यानां मध्येन भ्रातृभिः सह ॥ ५० ॥
स द्रोणमभिवाद्याथ कृत्वा चाभिप्रदक्षिणम्।
उवाच राजा दुर्धर्षमात्मनिःश्रेयसं वचः ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय बोले— कुरुनन्दन! तदनन्तर महाबाहु युधिष्ठिरने भीष्मकी आज्ञाको शिरोधार्य किया और पुनः उन्हें प्रणाम करके वे द्रोणाचार्यके रथकी ओर गये। सारी सेना देख रही थी और वे उसके बीचसे होकर भाइयोंसहित द्रोणाचार्यके पास जा पहुँचे। वहाँ राजाने उन्हें प्रणाम करके उनकी परिक्रमा की और उन दुर्जय वीर-शिरोमणिसे अपने हितकी बात पूछी—॥४९—५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आमन्त्रये त्वां भगवन् योत्स्ये विगतकल्मषः।
कथं जये रिपून् सर्वाननुज्ञातस्त्वया द्विज ॥ ५२ ॥
मूलम्
आमन्त्रये त्वां भगवन् योत्स्ये विगतकल्मषः।
कथं जये रिपून् सर्वाननुज्ञातस्त्वया द्विज ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भगवन्! मैं सलाह पूछता हूँ, किस प्रकार आपके साथ निरपराध एवं पापरहित होकर युद्ध करूँगा? विप्रवर! आपकी आज्ञासे मैं समस्त शत्रुओंको किस प्रकार जीतूँ?’॥५२॥
मूलम् (वचनम्)
द्रोण उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि मां नाभिगच्छेथा युद्धाय कृतनिश्चयः।
शपेयं त्वां महाराज पराभावाय सर्वशः ॥ ५३ ॥
मूलम्
यदि मां नाभिगच्छेथा युद्धाय कृतनिश्चयः।
शपेयं त्वां महाराज पराभावाय सर्वशः ॥ ५३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्रोणाचार्य बोले— महाराज! यदि युद्धका निश्चय कर लेनेपर तुम मेरे पास नहीं आते तो मैं तुम्हारी सर्वथा पराजय होनेके लिये तुम्हें शाप दे देता॥५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत् युधिष्ठिर तुष्टोऽस्मि पूजितश्च त्वयानघ।
अनुजानामि युध्यस्व विजयं समवाप्नुहि ॥ ५४ ॥
मूलम्
तत् युधिष्ठिर तुष्टोऽस्मि पूजितश्च त्वयानघ।
अनुजानामि युध्यस्व विजयं समवाप्नुहि ॥ ५४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
निष्पाप युधिष्ठिर! मैं तुमपर प्रसन्न हूँ। तुमने मेरा बड़ा आदर किया। मैं तुम्हें आज्ञा देता हूँ, शत्रुओंसे लड़ो और विजय प्राप्त करो॥५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
करवाणि च ते कामं ब्रूहि त्वमभिकङ्क्षितम्।
एवंगते महाराज युद्धादन्यत् किमिच्छसि ॥ ५५ ॥
मूलम्
करवाणि च ते कामं ब्रूहि त्वमभिकङ्क्षितम्।
एवंगते महाराज युद्धादन्यत् किमिच्छसि ॥ ५५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! मैं तुम्हारी कामना पूर्ण करूँगा। तुम्हारा अभीष्ट मनोरथ क्या है? वर्तमान परिस्थितिमें मैं तुम्हारी ओरसे युद्ध तो कर नहीं सकता; उसे छोड़कर तुम बताओ, क्या चाहते हो?॥५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्थस्य पुरुषो दासो दासस्त्वर्थो न कस्यचित्।
इति सत्यं महाराज बद्धोऽस्म्यर्थेन कौरवैः ॥ ५६ ॥
मूलम्
अर्थस्य पुरुषो दासो दासस्त्वर्थो न कस्यचित्।
इति सत्यं महाराज बद्धोऽस्म्यर्थेन कौरवैः ॥ ५६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरुष अर्थका दास है, अर्थ किसीका दास नहीं है। महाराज! यह सच्ची बात है। मैं कौरवोंके द्वारा अर्थसे बँधा हुआ हूँ॥५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रवीम्येतत् क्लीबवत् त्वां युद्धादन्यत् किमिच्छसि।
योत्स्येऽहं कौरवस्यार्थे तवाशास्यो जयो मया ॥ ५७ ॥
मूलम्
ब्रवीम्येतत् क्लीबवत् त्वां युद्धादन्यत् किमिच्छसि।
योत्स्येऽहं कौरवस्यार्थे तवाशास्यो जयो मया ॥ ५७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसीलिये आज नपुंसककी तरह तुमसे पूछता हूँ कि तुम युद्धके सिवा और क्या चाहते हो? मैं दुर्योधनके लिये युद्ध करूँगा; परंतु जीत तुम्हारी ही चाहूँगा॥५७॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
जयमाशास्व मे ब्रह्मन् मन्त्रयस्व च मद्धितम्।
युद्ध्यस्व कौरवस्यार्थे वर एष वृतो मया ॥ ५८ ॥
मूलम्
जयमाशास्व मे ब्रह्मन् मन्त्रयस्व च मद्धितम्।
युद्ध्यस्व कौरवस्यार्थे वर एष वृतो मया ॥ ५८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर बोले— ब्रह्मन्! आप मेरी विजय चाहें और मेरे हितकी सलाह देते रहें; युद्ध दुर्योधनकी ओरसे ही करें। यही वर मैंने आपसे माँगा है॥५८॥
मूलम् (वचनम्)
द्रोण उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ध्रुवस्ते विजयो राजन् यस्य मन्त्री हरिस्तव।
अहं त्वामभिजानामि रणे शत्रून् विमोक्ष्यसे ॥ ५९ ॥
मूलम्
ध्रुवस्ते विजयो राजन् यस्य मन्त्री हरिस्तव।
अहं त्वामभिजानामि रणे शत्रून् विमोक्ष्यसे ॥ ५९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्रोणाचार्यने कहा— राजन्! तुम्हारी विजय तो निश्चित है; क्योंकि साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण तुम्हारे मन्त्री हैं। मैं तुम्हें आज्ञा देता हूँ, तुम युद्धमें शत्रुओंको उनके प्राणोंसे विमुक्त कर दोगे॥५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यतो धर्मस्ततः कृष्णो यतः कृष्णस्ततो जयः।
युद्ध्यस्व गच्छ कौन्तेय पृच्छ मां किं ब्रवीमि ते॥६०॥
मूलम्
यतो धर्मस्ततः कृष्णो यतः कृष्णस्ततो जयः।
युद्ध्यस्व गच्छ कौन्तेय पृच्छ मां किं ब्रवीमि ते॥६०॥
अनुवाद (हिन्दी)
जहाँ धर्म है, वहाँ श्रीकृष्ण हैं और जहाँ श्रीकृष्ण हैं, वहीं विजय है। कुन्तीकुमार! जाओ, युद्ध करो। और भी पूछो, तुम्हें क्या बताऊँ?॥६०॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
पृच्छामि त्वां द्विजश्रेष्ठ शृणु यन्मेऽभिकाङ्क्षितम्।
कथं जयेयं संग्रामे भवन्तमपराजितम् ॥ ६१ ॥
मूलम्
पृच्छामि त्वां द्विजश्रेष्ठ शृणु यन्मेऽभिकाङ्क्षितम्।
कथं जयेयं संग्रामे भवन्तमपराजितम् ॥ ६१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर बोले— द्विजश्रेष्ठ! मैं आपसे पूछता हूँ। आप मेरे मनोवांछित प्रश्नको सुनिये। आप किसीसे भी परास्त होनेवाले नहीं हैं; फिर आपको मैं युद्धमें कैसे जीत सकूँगा?॥६१॥
मूलम् (वचनम्)
द्रोण उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
न तेऽस्ति विजयस्तावद् यावत् युद्ध्याम्यहं रणे।
ममाशु निधने राजन् यतस्व सह सोदरैः ॥ ६२ ॥
मूलम्
न तेऽस्ति विजयस्तावद् यावत् युद्ध्याम्यहं रणे।
ममाशु निधने राजन् यतस्व सह सोदरैः ॥ ६२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्रोणाचार्य बोले— राजन्! मैं जबतक समरभूमिमें युद्ध करूँगा, तबतक तुम्हारी विजय नहीं हो सकती। तुम अपने भाइयोंसहित ऐसा प्रयत्न करो, जिससे शीघ्र मेरी मृत्यु हो जाय॥६२॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
हन्त तस्मान्महाबाहो वधोपायं वदात्मनः।
आचार्य प्रणिपत्यैष पृच्छामि त्वां नमोऽस्तु ते ॥ ६३ ॥
मूलम्
हन्त तस्मान्महाबाहो वधोपायं वदात्मनः।
आचार्य प्रणिपत्यैष पृच्छामि त्वां नमोऽस्तु ते ॥ ६३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर बोले— महाबाहु आचार्य! इसलिये अब आप अपने वधका उपाय मुझे बताइये। आपको नमस्कार है। मैं आपके चरणोंमें प्रणाम करके यह प्रश्न कर रहा हूँ॥६३॥
मूलम् (वचनम्)
द्रोण उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
न शत्रुं तात पश्यामि यो मां हन्याद् रथे स्थितम्।
युध्यमानं सुसंरब्धं शरवर्षौघवर्षिणम् ॥ ६४ ॥
मूलम्
न शत्रुं तात पश्यामि यो मां हन्याद् रथे स्थितम्।
युध्यमानं सुसंरब्धं शरवर्षौघवर्षिणम् ॥ ६४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्रोणाचार्य बोले— तात! जब मैं रथपर बैठकर कुपित हो बाणोंकी वर्षा करते हुए युद्धमें संलग्न रहूँ, उस समय जो मुझे मार सके, ऐसे किसी शत्रुको नहीं देख रहा हूँ॥६४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋते प्रायगतं राजन् न्यस्तशस्त्रमचेतनम्।
हन्यान्मां युधि योधानां सत्यमेतद् ब्रवीमि ते ॥ ६५ ॥
मूलम्
ऋते प्रायगतं राजन् न्यस्तशस्त्रमचेतनम्।
हन्यान्मां युधि योधानां सत्यमेतद् ब्रवीमि ते ॥ ६५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! जब मैं हथियार डालकर अचेत-सा होकर आमरण अनशनके लिये बैठ जाऊँ, उस अवस्थाको छोड़कर और किसी समय कोई मुझे नहीं मार सकता। उसी अवस्थामें कोई श्रेष्ठ योद्धा युद्धमें मुझे मार सकता है; यह मैं तुमसे सच्ची बात कह रहा हूँ॥६५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शस्त्रं चाहं रणे जह्यां श्रुत्वा तु महदप्रियम्।
श्रद्धेयवाक्यात् पुरुषादेतत् सत्यं ब्रवीमि ते ॥ ६६ ॥
मूलम्
शस्त्रं चाहं रणे जह्यां श्रुत्वा तु महदप्रियम्।
श्रद्धेयवाक्यात् पुरुषादेतत् सत्यं ब्रवीमि ते ॥ ६६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि मैं किसी विश्वसनीय पुरुषसे युद्ध-भूमिमें कोई अत्यन्त अप्रिय समाचार सुन लूँ तो हथियार नीचे डाल दूँगा। यह मैं तुमसे सच्ची बात कह रहा हूँ॥६६॥
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतच्छ्रुत्वा महाराज भारद्वाजस्य धीमतः।
अनुमान्य तमाचार्यं प्रायाच्छारद्वतं प्रति ॥ ६७ ॥
मूलम्
एतच्छ्रुत्वा महाराज भारद्वाजस्य धीमतः।
अनुमान्य तमाचार्यं प्रायाच्छारद्वतं प्रति ॥ ६७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— महाराज! परम बुद्धिमान् द्रोणाचार्यकी यह बात सुनकर उनका सम्मान करके राजा युधिष्ठिर कृपाचार्यके पास गये॥६७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽभिवाद्य कृपं राजा कृत्वा चापि प्रदक्षिणम्।
उवाच दुर्धर्षतमं वाक्यं वाक्यविदां वरः ॥ ६८ ॥
मूलम्
सोऽभिवाद्य कृपं राजा कृत्वा चापि प्रदक्षिणम्।
उवाच दुर्धर्षतमं वाक्यं वाक्यविदां वरः ॥ ६८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्हें नमस्कार करके उनकी परिक्रमा करनेके पश्चात् वक्ताओंमें श्रेष्ठ राजा युधिष्ठिरने दुर्धर्ष वीर कृपाचार्यसे कहा—॥६८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनुमानये त्वां योत्स्येऽहं गुरो विगतकल्मषः।
जयेयं च रिपून् सर्वाननुज्ञातस्त्वयानघ ॥ ६९ ॥
मूलम्
अनुमानये त्वां योत्स्येऽहं गुरो विगतकल्मषः।
जयेयं च रिपून् सर्वाननुज्ञातस्त्वयानघ ॥ ६९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘निष्पाप गुरुदेव! मैं पापरहित रहकर आपके साथ युद्ध कर सकूँ, इसके लिये आपकी अनुमति चाहता हूँ। आपका आदेश पाकर मैं समस्त शत्रुओंको संग्राममें जीत सकता हूँ’॥६९॥
मूलम् (वचनम्)
कृप उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि मां नाभिगच्छेथा युद्धाय कृतनिश्चयः।
शपेयं त्वां महाराज पराभावाय सर्वशः ॥ ७० ॥
मूलम्
यदि मां नाभिगच्छेथा युद्धाय कृतनिश्चयः।
शपेयं त्वां महाराज पराभावाय सर्वशः ॥ ७० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कृपाचार्य बोले— महाराज! यदि युद्धका निश्चय कर लेनेपर तुम मेरे पास नहीं आते तो मैं तुम्हारी सर्वथा पराजय होनेके लिये तुम्हें शाप दे देता॥७०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्थस्य पुरुषो दासो दासस्त्वर्थो न कस्यचित्।
इति सत्यं महाराज बद्धोऽस्म्यर्थेन कौरवैः ॥ ७१ ॥
मूलम्
अर्थस्य पुरुषो दासो दासस्त्वर्थो न कस्यचित्।
इति सत्यं महाराज बद्धोऽस्म्यर्थेन कौरवैः ॥ ७१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरुष अर्थका दास है, अर्थ किसीका दास नहीं है। महाराज! यह सच्ची बात है। मैं कौरवोंके द्वारा अर्थसे बँधा हुआ हूँ॥७१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषामर्थे महाराज योद्धव्यमिति मे मतिः।
अतस्त्वां क्लीबवद् ब्रूयां युद्धादन्यत् किमिच्छसि ॥ ७२ ॥
मूलम्
तेषामर्थे महाराज योद्धव्यमिति मे मतिः।
अतस्त्वां क्लीबवद् ब्रूयां युद्धादन्यत् किमिच्छसि ॥ ७२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! मैं निश्चय कर चुका हूँ कि मुझे उन्हींके लिये युद्ध करना है; अतः तुमसे नपुंसककी तरह पूछ रहा हूँ कि तुम युद्धसम्बन्धी सहयोगको छोड़कर मुझसे और क्या चाहते हो?॥७२॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
हन्त पृच्छामि ते तस्मादाचार्य शृणु मे वचः।
इत्युक्त्वा व्यथितो राजा नोवाच गतचेतनः ॥ ७३ ॥
मूलम्
हन्त पृच्छामि ते तस्मादाचार्य शृणु मे वचः।
इत्युक्त्वा व्यथितो राजा नोवाच गतचेतनः ॥ ७३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर बोले— आचार्य! इसलिये अब मैं आपसे पूछता हूँ। आप मेरी बात सुनिये। इतना कहकर राजा युधिष्ठिर व्यथित और अचेत-से होकर उनसे कुछ भी बोल न सके॥७३॥
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं गौतमः प्रत्युवाच विज्ञायास्य विवक्षितम्।
अवध्योऽहं महीपाल युद्ध्यस्व जयमाप्नुहि ॥ ७४ ॥
मूलम्
तं गौतमः प्रत्युवाच विज्ञायास्य विवक्षितम्।
अवध्योऽहं महीपाल युद्ध्यस्व जयमाप्नुहि ॥ ७४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— पृथ्वीपते! कृपाचार्य यह समझ गये कि युधिष्ठिर क्या कहना चाहते हैं; अतः उन्होंने उनसे इस प्रकार कहा—‘राजन्! मैं अवध्य हूँ। जाओ, युद्ध करो और विजय प्राप्त करो’॥७४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रीतस्तेऽभिगमेनाहं जयं तव नराधिप।
आशासिष्ये सदोत्थाय सत्यमेतद् ब्रवीमि ते ॥ ७५ ॥
मूलम्
प्रीतस्तेऽभिगमेनाहं जयं तव नराधिप।
आशासिष्ये सदोत्थाय सत्यमेतद् ब्रवीमि ते ॥ ७५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘नरेश्वर! तुम्हारे इस आगमनसे मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई है; अतः सदा उठकर मैं तुम्हारी विजयके लिये शुभकामना करूँगा। यह तुमसे सच्ची बात कहता हूँ’॥७५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतच्छ्रुत्वा महाराज गौतमस्य विशाम्पते।
अनुमान्य कृपं राजा प्रययौ येन मद्रराट् ॥ ७६ ॥
मूलम्
एतच्छ्रुत्वा महाराज गौतमस्य विशाम्पते।
अनुमान्य कृपं राजा प्रययौ येन मद्रराट् ॥ ७६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! प्रजानाथ! कृपाचार्यकी यह बात सुनकर राजा युधिष्ठिर उनकी अनुमति ले जहाँ मद्रराज शल्य थे, उस ओर चले गये॥७६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स शल्यमभिवाद्याथ कृत्वा चाभिप्रदक्षिणम्।
उवाच राजा दुर्धर्षमात्मनिःश्रेयसं वचः ॥ ७७ ॥
मूलम्
स शल्यमभिवाद्याथ कृत्वा चाभिप्रदक्षिणम्।
उवाच राजा दुर्धर्षमात्मनिःश्रेयसं वचः ॥ ७७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुर्जय वीर शल्यको प्रणाम करके उनकी परिक्रमा करनेके पश्चात् राजा युधिष्ठिरने उनसे अपने हितकी बात कही—॥७७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनुमानये त्वां दुर्धर्ष योत्स्ये विगतकल्मषः।
जयेयं नु परान् राजन्ननुज्ञातस्त्वया रिपून् ॥ ७८ ॥
मूलम्
अनुमानये त्वां दुर्धर्ष योत्स्ये विगतकल्मषः।
जयेयं नु परान् राजन्ननुज्ञातस्त्वया रिपून् ॥ ७८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘दुर्धर्ष वीर! मैं पापरहित एवं निरपराध रहकर आपके साथ युद्ध करूँगा; इसके लिये आपकी अनुमति चाहता हूँ। राजन्! आपकी आज्ञा पाकर मैं समस्त शत्रुओंको युद्धमें परास्त कर सकता हूँ’॥७८॥
मूलम् (वचनम्)
शल्य उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि मां नाभिगच्छेथा युद्धाय कृतनिश्चयः।
शपेयं त्वां महाराज पराभावाय वै रणे ॥ ७९ ॥
मूलम्
यदि मां नाभिगच्छेथा युद्धाय कृतनिश्चयः।
शपेयं त्वां महाराज पराभावाय वै रणे ॥ ७९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शल्य बोले— महाराज! यदि युद्धका निश्चय कर लेनेपर तुम मेरे पास नहीं आते तो मैं युद्धमें तुम्हारी पराजयके लिये तुम्हें शाप दे देता॥७९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुष्टोऽस्मि पूजितश्चास्मि यत् काङ्क्षसि तदस्तु ते।
अनुजानामि चैव त्वां युध्यस्व जयमाप्नुहि ॥ ८० ॥
मूलम्
तुष्टोऽस्मि पूजितश्चास्मि यत् काङ्क्षसि तदस्तु ते।
अनुजानामि चैव त्वां युध्यस्व जयमाप्नुहि ॥ ८० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब मैं बहुत संतुष्ट हूँ। तुमने मेरा बड़ा सम्मान किया। तुम जो चाहते हो, वह पूर्ण हो। मैं तुम्हें आज्ञा देता हूँ, तुम युद्ध करो और विजय प्राप्त करो॥८०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रूहि चैव परं वीर केनार्थः किं ददामि ते।
एवंगते महाराज युद्धादन्यत् किमिच्छसि ॥ ८१ ॥
मूलम्
ब्रूहि चैव परं वीर केनार्थः किं ददामि ते।
एवंगते महाराज युद्धादन्यत् किमिच्छसि ॥ ८१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वीर! तुम कुछ और बताओ, किस प्रकार तुम्हारा मनोरथ सिद्ध होगा? मैं तुम्हें क्या दूँ? महाराज! इस परिस्थितिमें युद्धविषयक सहयोगको छोड़कर तुम मुझसे और क्या चाहते हो?॥८१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्थस्य पुरुषो दासो दासस्त्वर्थो न कस्यचित्।
इति सत्यं महाराज बद्धोऽस्म्यर्थेन कौरवैः ॥ ८२ ॥
मूलम्
अर्थस्य पुरुषो दासो दासस्त्वर्थो न कस्यचित्।
इति सत्यं महाराज बद्धोऽस्म्यर्थेन कौरवैः ॥ ८२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरुष अर्थका दास है, अर्थ किसीका दास नहीं है। महाराज! यह सच्ची बात है। कौरवोंके द्वारा मैं अर्थसे बँधा हुआ हूँ॥८२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
करिष्यामि हि ते कामं भागिनेय यथेप्सितम्।
ब्रवीम्यतः क्लीबवत् त्वां युद्धादन्यत् किमिच्छसि ॥ ८३ ॥
मूलम्
करिष्यामि हि ते कामं भागिनेय यथेप्सितम्।
ब्रवीम्यतः क्लीबवत् त्वां युद्धादन्यत् किमिच्छसि ॥ ८३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये मैं तुमसे नपुंसककी भाँति कह रहा हूँ। बताओ, तुम युद्धविषयक सहयोगके सिवा और क्या चाहते हो? मेरे भानजे! मैं तुम्हारा अभीष्ट मनोरथ पूर्ण करूँगा॥८३॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन्त्रयस्व महाराज नित्यं मद्धितमुत्तमम्।
कामं युद्ध्य परस्यार्थे वरमेतं वृणोम्यहम् ॥ ८४ ॥
मूलम्
मन्त्रयस्व महाराज नित्यं मद्धितमुत्तमम्।
कामं युद्ध्य परस्यार्थे वरमेतं वृणोम्यहम् ॥ ८४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर बोले— महाराज! मैं आपसे यही वर माँगता हूँ कि आप प्रतिदिन उत्तम हितकी सलाह मुझे देते रहें। अपने इच्छानुसार युद्ध दूसरेके लिये करें॥८४॥
मूलम् (वचनम्)
शल्य उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
किमत्र ब्रूहि साह्यं ते करोमि नृपसत्तम।
कामं योत्स्ये परस्यार्थे बद्धोऽस्म्यर्थेन कौरवैः ॥ ८५ ॥
मूलम्
किमत्र ब्रूहि साह्यं ते करोमि नृपसत्तम।
कामं योत्स्ये परस्यार्थे बद्धोऽस्म्यर्थेन कौरवैः ॥ ८५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शल्य बोले— नृपश्रेष्ठ! बताओ, इस विषयमें मैं तुम्हारी क्या सहायता करूँ? कौरवोंके द्वारा मैं अर्थसे बँधा हुआ हूँ; अतः अपने इच्छानुसार युद्ध तो मैं तुम्हारे विपक्षीकी ओरसे ही करूँगा॥८५॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
स एव मे वरः शल्य उद्योगे यस्त्वया कृतः।
सूतपुत्रस्य संग्रामे कार्यस्तेजोवधस्त्वया ॥ ८६ ॥
(त्वां हि योक्ष्यति सूतत्वे सूतपुत्रस्य मातुल।
दुर्योधनो रणे शूरमिति मे नैष्ठिकी मतिः॥)
मूलम्
स एव मे वरः शल्य उद्योगे यस्त्वया कृतः।
सूतपुत्रस्य संग्रामे कार्यस्तेजोवधस्त्वया ॥ ८६ ॥
(त्वां हि योक्ष्यति सूतत्वे सूतपुत्रस्य मातुल।
दुर्योधनो रणे शूरमिति मे नैष्ठिकी मतिः॥)
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर बोले— मामाजी! जब युद्धके लिये उद्योग चल रहा था, उन दिनों आपने मुझे जो वर दिया था, वही वर आज भी मेरे लिये आवश्यक है। सूतपुत्रका अर्जुनके साथ युद्ध हो तो उस समय आपको उसका उत्साह नष्ट करना चाहिये। मामाजी! मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि उस युद्धमें दुर्योधन आप-जैसे शूरवीरको सूतपुत्रके सारथिका कार्य करनेके लिये अवश्य नियुक्त करेगा॥८६॥
मूलम् (वचनम्)
शल्य उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सम्पत्स्यत्येष ते कामः कुन्तीपुत्र यथेप्सितम्।
गच्छ युध्यस्व विश्रब्धः प्रतिजाने वचस्तव ॥ ८७ ॥
मूलम्
सम्पत्स्यत्येष ते कामः कुन्तीपुत्र यथेप्सितम्।
गच्छ युध्यस्व विश्रब्धः प्रतिजाने वचस्तव ॥ ८७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शल्य बोले— कुन्तीनन्दन! तुम्हारा यह अभीष्ट मनोरथ अवश्य पूर्ण होगा। जाओ, निश्चिन्त होकर युद्ध करो। मैं तुम्हारे वचनका पालन करनेकी प्रतिज्ञा करता हूँ॥८७॥
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनुमान्याथ कौन्तेयो मातुलं मद्रकेश्वरम्।
निर्जगाम महासैन्याद् भ्रातृभिः परिवारितः ॥ ८८ ॥
मूलम्
अनुमान्याथ कौन्तेयो मातुलं मद्रकेश्वरम्।
निर्जगाम महासैन्याद् भ्रातृभिः परिवारितः ॥ ८८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— राजन्! इस प्रकार अपने मामा मद्रराज शल्यकी अनुमति लेकर भाइयोंसे घिरे हुए कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर उस विशाल सेनासे बाहर निकल गये॥८८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वासुदेवस्तु राधेयमाहवेऽभिजगाम वै ।
तत एनमुवाचेदं पाण्डवार्थे गदाग्रजः ॥ ८९ ॥
मूलम्
वासुदेवस्तु राधेयमाहवेऽभिजगाम वै ।
तत एनमुवाचेदं पाण्डवार्थे गदाग्रजः ॥ ८९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी समय भगवान् श्रीकृष्ण उस युद्धमें राधानन्दन कर्णके पास गये। वहाँ जाकर उन गदाग्रजने पाण्डवोंके हितके लिये उससे इस प्रकार कहा—॥८९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुतं मे कर्ण भीष्मस्य द्वेषात् किल न योत्स्यसे।
अस्मान् वरय राधेय यावद् भीष्मो न हन्यते ॥ ९० ॥
मूलम्
श्रुतं मे कर्ण भीष्मस्य द्वेषात् किल न योत्स्यसे।
अस्मान् वरय राधेय यावद् भीष्मो न हन्यते ॥ ९० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कर्ण! मैंने सुना है, तुम भीष्मसे द्वेष होनेके कारण युद्ध नहीं करोगे। राधानन्दन! ऐसी दशामें जबतक भीष्म मारे नहीं जाते हैं, तबतक हमलोगोंका पक्ष ग्रहण कर लो॥९०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हते तु भीष्मे राधेय पुनरेष्यसि संयुगम्।
धार्तराष्ट्रस्य साहाय्यं यदि पश्यसि चेत् समम् ॥ ९१ ॥
मूलम्
हते तु भीष्मे राधेय पुनरेष्यसि संयुगम्।
धार्तराष्ट्रस्य साहाय्यं यदि पश्यसि चेत् समम् ॥ ९१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राधेय! जब भीष्म मारे जायँ, उसके बाद तुम यदि ठीक समझो तो युद्धमें पुनः दुर्योधनकी सहायताके लिये चले आना’॥९१॥
मूलम् (वचनम्)
कर्ण उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
न विप्रियं करिष्यामि धार्तराष्ट्रस्य केशव।
त्यक्तप्राणं हि मां विद्धि दुर्योधनहितैषिणम् ॥ ९२ ॥
मूलम्
न विप्रियं करिष्यामि धार्तराष्ट्रस्य केशव।
त्यक्तप्राणं हि मां विद्धि दुर्योधनहितैषिणम् ॥ ९२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कर्ण बोला— केशव! आपको मालूम होना चाहिये कि मैं दुर्योधनका हितैषी हूँ। उसके लिये अपने प्राणोंको निछावर किये बैठा हूँ; अतः मैं उसका अप्रिय कदापि नहीं करूँगा॥९२॥
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्छ्रुत्वा वचनं कृष्णः संन्यवर्तत भारत।
युधिष्ठिरपुरोगैश्च पाण्डवैः सह संगतः ॥ ९३ ॥
मूलम्
तच्छ्रुत्वा वचनं कृष्णः संन्यवर्तत भारत।
युधिष्ठिरपुरोगैश्च पाण्डवैः सह संगतः ॥ ९३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— भारत! कर्णकी यह बात सुनकर श्रीकृष्ण लौट आये और युधिष्ठिर आदि पाण्डवोंसे जा मिले॥९३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ सैन्यस्य मध्ये तु प्राक्रोशत् पाण्डवाग्रजः।
योऽस्मान् वृणोति तमहं वरये साह्यकारणात् ॥ ९४ ॥
मूलम्
अथ सैन्यस्य मध्ये तु प्राक्रोशत् पाण्डवाग्रजः।
योऽस्मान् वृणोति तमहं वरये साह्यकारणात् ॥ ९४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर ज्येष्ठ पाण्डव युधिष्ठिरने सेनाके बीचमें खड़े होकर पुकारा—‘जो कोई वीर सहायताके लिये हमारे पक्षमें आना स्वीकार करे, उसे मैं भी स्वीकार करूँगा’॥९४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ तान् समभिप्रेक्ष्य युयुत्सुरिदमब्रवीत्।
प्रीतात्मा धर्मराजानं कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम् ॥ ९५ ॥
मूलम्
अथ तान् समभिप्रेक्ष्य युयुत्सुरिदमब्रवीत्।
प्रीतात्मा धर्मराजानं कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम् ॥ ९५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय आपके पुत्र युयुत्सुने पाण्डवोंकी ओर देखकर प्रसन्नचित्त हो धर्मराज कुन्तीपुत्र युधिष्ठिरसे इस प्रकार कहा—॥९५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं योत्स्यामि भवतः संयुगे धृतराष्ट्रजान्।
युष्मदर्थं महाराज यदि मां वृणुषेऽनघ ॥ ९६ ॥
मूलम्
अहं योत्स्यामि भवतः संयुगे धृतराष्ट्रजान्।
युष्मदर्थं महाराज यदि मां वृणुषेऽनघ ॥ ९६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाराज! निष्पाप नरेश! यदि आप मुझे स्वीकार करें तो मैं आपलोगोंके लिये युद्धमें धृतराष्ट्रके पुत्रोंसे युद्ध करूँगा’॥९६॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एह्येहि सर्वे योत्स्यामस्तव भ्रातॄनपण्डितान्।
युयुत्सो वासुदेवश्च वयं च ब्रूम सर्वशः ॥ ९७ ॥
मूलम्
एह्येहि सर्वे योत्स्यामस्तव भ्रातॄनपण्डितान्।
युयुत्सो वासुदेवश्च वयं च ब्रूम सर्वशः ॥ ९७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर बोले— युयुत्सो! आओ, आओ। हम सब लोग मिलकर तुम्हारे इन मूर्ख भाइयोंसे युद्ध करेंगे। यह बात हम और भगवान् श्रीकृष्ण सभी कह रहे हैं॥९७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वृणोमि त्वां महाबाहो युद्ध्यस्व मम कारणात्।
त्वयि पिण्डश्च तन्तुश्च धृतराष्ट्रस्य दृश्यते ॥ ९८ ॥
मूलम्
वृणोमि त्वां महाबाहो युद्ध्यस्व मम कारणात्।
त्वयि पिण्डश्च तन्तुश्च धृतराष्ट्रस्य दृश्यते ॥ ९८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाबाहो! मैं तुम्हें स्वीकार करता हूँ। तुम मेरे लिये युद्ध करो। राजा धृतराष्ट्रकी वंशपरम्परा तथा पिण्डोदक-क्रिया तुमपर ही अवलम्बित दिखायी देती है॥९८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भजस्वास्मान् राजपुत्र भजमानान् महाद्युते।
न भविष्यति दुर्बुद्धिर्धार्तराष्ट्रोऽत्यमर्षणः ॥ ९९ ॥
मूलम्
भजस्वास्मान् राजपुत्र भजमानान् महाद्युते।
न भविष्यति दुर्बुद्धिर्धार्तराष्ट्रोऽत्यमर्षणः ॥ ९९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महातेजस्वी राजकुमार! हम तुम्हें अपनाते हैं। तुम भी हमें स्वीकार करो। अत्यन्त क्रोधी दुर्बुद्धि दुर्योधन अब इस संसारमें जीवित नहीं रहेगा॥९९॥
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो युयुत्सुः कौरव्यान् परित्यज्य सुतांस्तव।
(स सत्यमिति मन्वानो युधिष्ठिरवचस्तदा।)
जगाम पाण्डुपुत्राणां सेनां विश्राव्य दुन्दुभिम् ॥ १०० ॥
मूलम्
ततो युयुत्सुः कौरव्यान् परित्यज्य सुतांस्तव।
(स सत्यमिति मन्वानो युधिष्ठिरवचस्तदा।)
जगाम पाण्डुपुत्राणां सेनां विश्राव्य दुन्दुभिम् ॥ १०० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— राजन्! तदनन्तर युयुत्सु युधिष्ठिर-की बातको सच मानकर आपके सभी पुत्रोंको त्यागकर डंका पीटता हुआ पाण्डवोंकी सेनामें चला गया॥१००॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(अवसद् धार्तराष्ट्रस्य कुत्सयन् कर्म दुष्कृतम्।
सेनामध्ये हि तैः साकं युद्धाय कृतनिश्चयः॥)
मूलम्
(अवसद् धार्तराष्ट्रस्य कुत्सयन् कर्म दुष्कृतम्।
सेनामध्ये हि तैः साकं युद्धाय कृतनिश्चयः॥)
अनुवाद (हिन्दी)
वह दुर्योधनके पापकर्मकी निन्दा करता हुआ युद्धका निश्चय करके पाण्डवोंके साथ उन्हींकी सेनामें रहने लगा।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो युधिष्ठिरो राजा सम्प्रहृष्टः सहानुजः।
जग्राह कवचं भूयो दीप्तिमत् कनकोज्ज्वलम् ॥ १०१ ॥
मूलम्
ततो युधिष्ठिरो राजा सम्प्रहृष्टः सहानुजः।
जग्राह कवचं भूयो दीप्तिमत् कनकोज्ज्वलम् ॥ १०१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर राजा युधिष्ठिरने भाइयोंसहित अत्यन्त प्रसन्न हो सोनेका बना हुआ चमकीला कवच धारण किया॥१०१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रत्यपद्यन्त ते सर्वे स्वरथान् पुरुषर्षभाः।
ततो व्यूहं यथापूर्वं प्रत्यव्यूहन्त ते पुनः ॥ १०२ ॥
मूलम्
प्रत्यपद्यन्त ते सर्वे स्वरथान् पुरुषर्षभाः।
ततो व्यूहं यथापूर्वं प्रत्यव्यूहन्त ते पुनः ॥ १०२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर वे सभी श्रेष्ठ पुरुष अपने-अपने रथपर आरूढ़ हुए; इसके बाद उन्होंने पुनः शत्रुओंके मुकाबलेमें पहलेकी भाँति ही अपनी सेनाकी व्यूह-रचना की॥१०२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवादयन् दुन्दुभींश्च शतशश्चैव पुष्करान्।
सिंहनादांश्च विविधान् विनेदुः पुरुषर्षभाः ॥ १०३ ॥
मूलम्
अवादयन् दुन्दुभींश्च शतशश्चैव पुष्करान्।
सिंहनादांश्च विविधान् विनेदुः पुरुषर्षभाः ॥ १०३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन श्रेष्ठ पुरुषोंने सैकड़ों दुन्दुभियाँ और नगारे बजाये तथा अनेक प्रकारसे सिंह-गर्जनाएँ कीं॥१०३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रथस्थान् पुरुषव्याघ्रान् पाण्डवान् प्रेक्ष्य पार्थिवाः।
धृष्टद्युम्नादयः सर्वे पुनर्जहृषिरे तदा ॥ १०४ ॥
मूलम्
रथस्थान् पुरुषव्याघ्रान् पाण्डवान् प्रेक्ष्य पार्थिवाः।
धृष्टद्युम्नादयः सर्वे पुनर्जहृषिरे तदा ॥ १०४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरुषसिंह पाण्डवोंको पुनः रथपर बैठे देख धृष्टद्युम्न आदि राजा बड़े प्रसन्न हुए॥१०४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गौरवं पाण्डुपुत्राणां मान्यान् मानयतां च तान्।
दृष्ट्वा महीक्षितस्तत्र पूजयाञ्चक्रिरे भृशम् ॥ १०५ ॥
मूलम्
गौरवं पाण्डुपुत्राणां मान्यान् मानयतां च तान्।
दृष्ट्वा महीक्षितस्तत्र पूजयाञ्चक्रिरे भृशम् ॥ १०५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
माननीय पुरुषोंका सम्मान करनेवाले पाण्डवोंके उस गौरवको देखकर सब भूपाल उनकी बड़ी प्रशंसा करने लगे॥१०५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सौहृदं च कृपां चैव प्राप्तकालं महात्मनाम्।
दयां च ज्ञातिषु परां कथयाञ्चक्रिरे नृपाः ॥ १०६ ॥
मूलम्
सौहृदं च कृपां चैव प्राप्तकालं महात्मनाम्।
दयां च ज्ञातिषु परां कथयाञ्चक्रिरे नृपाः ॥ १०६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सब राजा महात्मा पाण्डवोंके सौहार्द, कृपाभाव, समयोचित कर्तव्यके पालन तथा कुटुम्बियोंके प्रति परम दयाभावकी चर्चा करने लगे॥१०६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
साधु साध्विति सर्वत्र निश्चेरुः स्तुतिसंहिताः।
वाचः पुण्याः कीर्तिमतां मनोहृदयहर्षणाः ॥ १०७ ॥
मूलम्
साधु साध्विति सर्वत्र निश्चेरुः स्तुतिसंहिताः।
वाचः पुण्याः कीर्तिमतां मनोहृदयहर्षणाः ॥ १०७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यशस्वी पाण्डवोंके लिये सब ओरसे उनकी स्तुतिप्रशंसासे भरी हुई ‘साधु-साधु’ की बातें निकलती थीं। उन्हें ऐसी पवित्र वाणी सुननेको मिलती थी, जो मन और हृदयके हर्षको बढ़ानेवाली थी॥१०७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
म्लेच्छाश्चार्याश्च ये तत्र ददृशुः शुश्रुवुस्तथा।
वृत्तं तत् पाण्डुपुत्राणां रुरुदुस्ते सगद्गदाः ॥ १०८ ॥
मूलम्
म्लेच्छाश्चार्याश्च ये तत्र ददृशुः शुश्रुवुस्तथा।
वृत्तं तत् पाण्डुपुत्राणां रुरुदुस्ते सगद्गदाः ॥ १०८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ जिन-जिन म्लेच्छों और आर्योंने पाण्डवोंका वह बर्ताव देखा तथा सुना, वे सब गद्गदकण्ठ होकर रोने लगे॥१०८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो जघ्नुर्महाभेरीः शतशश्च सहस्रशः।
शङ्खांश्च गोक्षीरनिभान् दध्मुर्हृष्टा मनस्विनः ॥ १०९ ॥
मूलम्
ततो जघ्नुर्महाभेरीः शतशश्च सहस्रशः।
शङ्खांश्च गोक्षीरनिभान् दध्मुर्हृष्टा मनस्विनः ॥ १०९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर हर्षमें भरे हुए सभी मनस्वी पुरुषोंने सैकड़ों और हजारों बड़ी-बड़ी भेरियों तथा गोदुग्धके समान श्वेत शंखोंको बजाया॥१०९॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते भीष्मपर्वणि भीष्मवधपर्वणि भीष्पादिसम्मानने त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४३ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्वके अन्तर्गत भीष्मवधपर्वमें भीष्म आदिका समादरविषयक तैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥४३॥
सूचना (हिन्दी)
[दाक्षिणात्य अधिक पाठके तीन श्लोक मिलाकर कुल ११२ श्लोक हैं।]
-
उपर्युक्त पाँच श्लोक कितनी ही प्रतियोंमें नहीं हैं और कितनी ही प्रतियोंमें हैं। ↩︎