०४१ श्रद्धात्रयविभागयोगः

भागसूचना

एकचत्वारिंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

(श्रीमद्भगवद्‌गीतायां सप्तदशोऽध्यायः)
श्रद्धाका और शास्त्रविपरीत घोर तप करनेवालोंका वर्णन, आहार, यज्ञ, तप और दानके पृथक्-पृथक् भेद तथा ॐ, तत्, सत्‌के प्रयोगकी व्याख्या

अनुवाद (हिन्दी)

सम्बन्ध—गीताके सोलहवें अध्यायके आरम्भमें श्रीभगवान्‌ने निष्कामभावसे सेवन किये जानेवाले शास्त्रविहित गुण और आचरणोंका दैवीसम्पदाके नामसे वर्णन करके फिर शास्त्रविपरीत आसुरी सम्पत्तिका कथन किया। साथ ही आसुरस्वभाववाले पुरुषोंको नरकोंमें गिरानेकी बात कही और यह बतलाया कि काम, क्रोध, लोभ ही आसुरीसम्पदाके प्रधान अवगुण हैं और ये तीनों ही नरकोंके द्वार हैं; इनका त्याग करके जो आत्मकल्याणके लिये साधन करता है, वह परम गतिको प्राप्त होता है। इसके अनन्तर यह कहा कि जो शास्त्रविधिका त्याग करके मनमाने ढंगसे अपनी समझसे जिसको अच्छा कर्म समझता है, वही करता है, उसे अपने उन कर्मोंका फल नहीं मिलता, यह तो ठीक ही है; परंतु ऐसे लोग भी तो हो सकते हैं, जो शास्त्रविधिका तो न जाननेके कारण अथवा अन्य किसी कारणसे त्याग कर बैठते हैं तथा यज्ञ-पूजादि शुभ कर्म श्रद्धापूर्वक करते हैं, उनकी क्या स्थिति होती है? इस जिज्ञासाको व्यक्त करते हुए अर्जुन भगवान्‌से पूछते हैं—

मूलम् (वचनम्)

अर्जुन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः।
तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः ॥ १ ॥

मूलम्

ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः।
तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुन बोले— हे कृष्ण! जो श्रद्धासे युक्त मनुष्य शास्त्रविधिको त्यागकर देवादिका पूजन करते हैं,1 उनकी स्थिति फिर कौन-सी है? सात्त्विकी है अथवा राजसी किंवा तामसी2॥१॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीभगवानुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा २_।_
सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां शृणु ॥ २ ॥

मूलम्

त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा २_।_
सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां शृणु ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीभगवान् बोले— मनुष्योंकी वह शास्त्रीय संस्कारोंसे रहित केवल स्वभावसे उत्पन्न श्रद्धा सात्त्विकी और राजसी तथा तामसी—ऐसे तीनों प्रकारकी ही होती है। उसको तू मुझसे सुन॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः ॥ ३ ॥

मूलम्

सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे भारत! सभी मनुष्योंकी श्रद्धा उनके अन्तःकरणके अनुरूप होती है। यह पुरुष श्रद्धामय है, इसलिये जो पुरुष जैसी श्रद्धावाला है, वह स्वयं भी वही है3॥३॥
सम्बन्ध—श्रद्धाके अनुसार मनुष्योंकी निष्ठाका स्वरूप बतलाया गया; इससे यह जाननेकी इच्छा हो सकती है कि ऐसे मनुष्योंकी पहचान कैसे हो कि कौन किस निष्ठावाला है। इसपर भगवान् कहते हैं—

विश्वास-प्रस्तुतिः

यजन्ते सात्त्विका देवान् यक्षरक्षांसि राजसाः।
प्रेतान् भूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जनाः ॥ ४ ॥

मूलम्

यजन्ते सात्त्विका देवान् यक्षरक्षांसि राजसाः।
प्रेतान् भूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जनाः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सात्त्विक पुरुष देवोंको पूजते हैं,2 राजस पुरुष यक्ष और राक्षसोंको1 तथा अन्य जो तामस मनुष्य हैं, वे प्रेत और भूतगणोंको3 पूजते हैं॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जनाः।
दम्भाहंकारसंयुक्ताः कामरागबलान्विताः ॥ ५ ॥

मूलम्

अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जनाः।
दम्भाहंकारसंयुक्ताः कामरागबलान्विताः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मनुष्य शास्त्रविधिसे रहित केवल मनःकल्पित घोर तपको तपते हैं तथा दम्भ और अहंकारसे युक्त4 एवं कामना, आसिक्त और बलके अभिमानसे भी युक्त हैं॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्षयन्तः शरीरस्थं भूतग्राममचेतसः ५_ ।_
मां चैवान्तःशरीरस्थं तान् विद्ध्यासुरनिश्चयान् ॥ ६ ॥

मूलम्

कर्षयन्तः शरीरस्थं भूतग्राममचेतसः ५_ ।_
मां चैवान्तःशरीरस्थं तान् विद्ध्यासुरनिश्चयान् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो शरीररूपसे स्थित भूतसमुदायको और अन्तःकरणमें स्थित मुझ परमात्माको भी कृश करनेवाले हैं,5 उन अज्ञानियोंको तू आसुरस्वभाववाले जान॥६॥
सम्बन्ध—त्रिविध स्वाभाविक श्रद्धावालोंके तथा घोर तप करनेवाले लोगोंके लक्षण बतलाकर अब भगवान् सात्त्विकका ग्रहण और राजस-तामसका त्याग करानेके उद्देश्यसे सात्त्विक-राजस-तामस आहार, यज्ञ, तप और दानके भेद सुननेके लिये अर्जुनको आज्ञा देते हैं—

विश्वास-प्रस्तुतिः

आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः।
यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं शृणु ॥ ७ ॥

मूलम्

आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः।
यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं शृणु ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भोजन भी सबको अपनी-अपनी प्रकृतिके अनुसार तीन प्रकारका प्रिय होता है। वैसे ही यज्ञ, तप और दान भी तीन-तीन प्रकारके होते हैं।6 उनके इस पृथक्-पृथक् भेदको तू मुझसे सुन॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आयुःसत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धनाः ।
रस्याः १_ स्निग्धाः_ २_ स्थिरा_ ३_ हृद्या_ ४_ आहाराः_ ५_ सात्त्विकप्रियाः ॥ ८ ॥_

मूलम्

आयुःसत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धनाः ।
रस्याः १_ स्निग्धाः_ २_ स्थिरा_ ३_ हृद्या_ ४_ आहाराः_ ५_ सात्त्विकप्रियाः ॥ ८ ॥_

अनुवाद (हिन्दी)

आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख और प्रीतिको बढ़ानेवाले5 रसयुक्त, चिकने और स्थिर रहनेवाले तथा स्वभावसे ही मनको प्रिय—ऐसे आहार अर्थात् भोजन करनेके पदार्थ सात्त्विक पुरुषको प्रिय होते हैं॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कट्‌वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिनः ।
आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः ॥ ९ ॥

मूलम्

कट्‌वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिनः ।
आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कड़वे, खट्टे, लवणयुक्त, बहुत गरम, तीखे, रूखे, दाह-कारक और दुःख, चिन्ता तथा रोगोंको उत्पन्न करनेवाले आहार अर्थात् भोजन करनेके पदार्थ6 राजस पुरुषको प्रिय होते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यातयामं ८_ गतरसं_ ९_ पूति_ १०_ पर्युषितं_ ११_ च यत्।_
उच्छिष्टमपि १२_ चामेध्यं_ १३_ भोजनं तामसप्रियम् ॥ १० ॥_

मूलम्

यातयामं ८_ गतरसं_ ९_ पूति_ १०_ पर्युषितं_ ११_ च यत्।_
उच्छिष्टमपि १२_ चामेध्यं_ १३_ भोजनं तामसप्रियम् ॥ १० ॥_

अनुवाद (हिन्दी)

जो भोजन अधपका, रसरहित, दुर्गन्धयुक्त, बासी और उच्छिष्ट है तथा जो अपवित्र भी है, वह भोजन तामस पुरुषको प्रिय होता है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अफलाकाङ्क्षिभिर्यज्ञो १ २_ विधिदृष्टो य इज्यते।_
यष्टव्यमेवेति मनः समाधाय स सात्त्विकः ३_ ॥ ११ ॥_

मूलम्

अफलाकाङ्क्षिभिर्यज्ञो १ २_ विधिदृष्टो य इज्यते।_
यष्टव्यमेवेति मनः समाधाय स सात्त्विकः ३_ ॥ ११ ॥_

अनुवाद (हिन्दी)

जो शास्त्रविधिसे नियत, यज्ञ करना ही कर्तव्य है—इस प्रकार मनको समाधान करके, फल न चाहनेवाले पुरुषोंद्वारा किया जाता है, वह सात्त्विक है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिसंधाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत्।
इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम् ॥ १२ ॥

मूलम्

अभिसंधाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत्।
इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु हे अर्जुन! केवल दम्भाचरणके लिये अथवा फलको भी दृष्टिमें रखकर जो यज्ञ किया जाता है, उस यज्ञको तू राजस जान4॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विधिहीनमसृष्टान्नं ५_ मन्त्रहीनमदक्षिणम्_ ६_ ।_
श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते ॥ १३ ॥

मूलम्

विधिहीनमसृष्टान्नं ५_ मन्त्रहीनमदक्षिणम्_ ६_ ।_
श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शास्त्रविधिसे हीन, अन्नदानसे रहित, बिना मन्त्रोंके, बिना दक्षिणाके और बिना श्रद्धाके किये जानेवाले यज्ञको तामस यज्ञ कहते हैं॥१३॥
सम्बन्ध—इस प्रकार तीन तरहके यज्ञोंके लक्षण बतलाकर, अब तपके लक्षणोंका प्रकरण आरम्भ करते हुए चार श्लोकोंद्वारा सात्त्विक तपके लक्षण बतलाते हैं—

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं ७_ शौचमार्जवम् ।_
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते ॥ १४ ॥

मूलम्

देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं ७_ शौचमार्जवम् ।_
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवता, ब्राह्मण, गुरु और ज्ञानीजनोंका पूजन, पवित्रता,7 सरलता,2 ब्रह्मचर्य1 और अहिंसा3—यह शरीरसम्बन्धी तप कहा जाता है4॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्।
स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्‌मयं तप उच्यते ॥ १५ ॥

मूलम्

अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्।
स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्‌मयं तप उच्यते ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो उद्वेग न करनेवाला, प्रिय और हितकारक एवं यथार्थ भाषण है तथा जो वेद-शास्त्रोंके पठनका एवं परमेश्वरके नाम-जपका अभ्यास है, वही वाणीसम्बन्धी तप कहा जाता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनःप्रसादः ६_ सौम्यत्वं_ ७_ मौनमात्मविनिग्रहः_ ८ ९_।_
भावसंशुद्धिरित्येतत् १०_ तपो मानसमुच्यते ॥ १६ ॥_

मूलम्

मनःप्रसादः ६_ सौम्यत्वं_ ७_ मौनमात्मविनिग्रहः_ ८ ९_।_
भावसंशुद्धिरित्येतत् १०_ तपो मानसमुच्यते ॥ १६ ॥_

अनुवाद (हिन्दी)

मनकी प्रसन्नता, शान्तभाव, भगवच्चिन्तन करनेका स्वभाव, मनका निग्रह और अन्तःकरणके भावोंकी भलीभाँति पवित्रता—इस प्रकार यह मनसम्बन्धी तप कहा जाता है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत् त्रिविधं नरैः।
अफलाकाङ्‌क्षिभिर्युक्तैः ११_ सात्त्विकं परिचक्षते ॥ १७ ॥_

मूलम्

श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत् त्रिविधं नरैः।
अफलाकाङ्‌क्षिभिर्युक्तैः ११_ सात्त्विकं परिचक्षते ॥ १७ ॥_

अनुवाद (हिन्दी)

फलको न चाहनेवाले योगी पुरुषोंद्वारा परमश्रद्धासे किये हुए8 उस पूर्वोक्त तीन प्रकारके तपको सात्त्विक कहते हैं9॥१७॥
सम्बन्ध—अब राजस तपके लक्षण बतलाये जाते हैं—

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्कारमानपूजार्थं तपो दम्भेन १_ चैव यत्।_
क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम् २_ ॥ १८ ॥_

मूलम्

सत्कारमानपूजार्थं तपो दम्भेन १_ चैव यत्।_
क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम् २_ ॥ १८ ॥_

अनुवाद (हिन्दी)

जो तप सत्कार, मान और पूजाके लिये तथा अन्य किसी स्वार्थके लिये भी3 स्वभावसे या पाखण्डसे किया जाता है, वह अनिश्चित एवं क्षणिक फलवाला तप यहाँ राजस कहा गया है॥१८॥
सम्बन्ध—अब तामस तपके लक्षण बतलाते हैं, जो कि सर्वथा त्याज्य हैं—

विश्वास-प्रस्तुतिः

मूढग्राहेणात्मनो ४_ यत् पीडया क्रियते तपः।_
परस्योत्सादनार्थं वा तत् तामसमुदाहृतम् ॥ १९ ॥

मूलम्

मूढग्राहेणात्मनो ४_ यत् पीडया क्रियते तपः।_
परस्योत्सादनार्थं वा तत् तामसमुदाहृतम् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो तप मूढतापूर्वक हठसे, मन, वाणी और शरीरकी पीड़ाके सहित अथवा दूसरेका अनिष्ट करनेके लिये किया जाता है, वह तप तामस कहा गया है10॥१९॥
सम्बन्ध—तीन प्रकारके तपोंका लक्षण करके अब दानके तीन प्रकारके लक्षण कहते हैं—

विश्वास-प्रस्तुतिः

दातव्यमिति यद् दानं दीयतेऽनुपकारिणे।
देशे काले च पात्रे च तद् दानं सात्त्विकं स्मृतम्॥२०॥

मूलम्

दातव्यमिति यद् दानं दीयतेऽनुपकारिणे।
देशे काले च पात्रे च तद् दानं सात्त्विकं स्मृतम्॥२०॥

अनुवाद (हिन्दी)

दान देना ही कर्तव्य है5—ऐसे भावसे जो दान देश तथा काल6 और पात्रके प्राप्त होनेपर7 उपकार न करनेवालेके प्रति दिया जाता है, वह दान सात्त्विक कहा गया है2॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुनः।
दीयते च परिक्लिष्टं तद् दानं राजसं स्मृतम् ॥ २१ ॥

मूलम्

यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुनः।
दीयते च परिक्लिष्टं तद् दानं राजसं स्मृतम् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

किंतु जो दान क्लेशपूर्वक1 तथा प्रत्युपकारके प्रयोजनसे3 अथवा फलको दृष्टिमें रखकर4 फिर दिया जाता है, वह दान राजस कहा गया है॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अदेशकाले यद् दानमपात्रेभ्यश्च दीयते।
असत्कृतमवज्ञातं तत् तामसमुदाहृतम् ॥ २२ ॥

मूलम्

अदेशकाले यद् दानमपात्रेभ्यश्च दीयते।
असत्कृतमवज्ञातं तत् तामसमुदाहृतम् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो दान बिना सत्कारके10 अथवा तिरस्कारपूर्वक5 अयोग्य देश-कालमें6 और कुपात्रके7 प्रति दिया जाता है, वह दान तामस कहा गया है॥२२॥
सम्बन्ध—अब सात्त्विक यज्ञ, दान और तप उपादेय क्यों हैं; भगवान्‌से उनका क्या सम्बन्ध है तथा उन सात्त्विक यज्ञ, तप और दानोंमें जो अंग-वैगुण्य हो जाय, उसकी पूर्ति किस प्रकार होती है—यह सब बतलानेके लिये अगला प्रकरण आरम्भ किया जाता है—

विश्वास-प्रस्तुतिः

ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः।
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा ॥ २३ ॥

मूलम्

ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः।
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ॐ, तत्, सत्—ऐसे यह तीन प्रकारका सच्चिदानन्दघन ब्रह्मका नाम कहा है;11 उसी ब्रह्मसे सृष्टिके आदिकालमें ब्राह्मण और वेद तथा यज्ञादि2 रचे गये॥२३॥
सम्बन्ध—परमेश्वरके उपर्युक्त ॐ, तत् और सत्—इन तीन नामोंका यज्ञ, दान, तप आदिके साथ क्या सम्बन्ध है? ऐसी जिज्ञासा होनेपर कहते हैं—

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपःक्रियाः ।
प्रवर्तन्ते विधानोक्ताः सततं ब्रह्मवादिनाम् ॥ २४ ॥

मूलम्

तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपःक्रियाः ।
प्रवर्तन्ते विधानोक्ताः सततं ब्रह्मवादिनाम् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये वेदमन्त्रोंका उच्चारण करनेवाले श्रेष्ठ पुरुषोंकी शास्त्रविधिसे नियत यज्ञ, दान और तपरूप क्रियाएँ सदा ‘ॐ’ इस परमात्माके नामको उच्चारण करके ही आरम्भ होती हैं1॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदित्यनभिसंधाय फलं यज्ञतपःक्रियाः ।
दानक्रियाश्च विविधाः क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षिभिः ॥ २५ ॥

मूलम्

तदित्यनभिसंधाय फलं यज्ञतपःक्रियाः ।
दानक्रियाश्च विविधाः क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षिभिः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत् अर्थात् ‘तत्’ नामसे कहे जानेवाले परमात्माका ही यह सब है—इस भावसे फलको न चाहकर नाना प्रकारकी यज्ञ, तपरूप क्रियाएँ तथा दानरूप क्रियाएँ कल्याणकी इच्छावाले पुरुषोंद्वारा की जाती हैं3॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सद्भावे साधुभावे च सदित्येतत् प्रयुज्यते।
प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते ॥ २६ ॥

मूलम्

सद्भावे साधुभावे च सदित्येतत् प्रयुज्यते।
प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सत्’—इस प्रकार यह परमात्माका नाम सत्यभावमें4 और श्रेष्ठभावमें10 प्रयोग किया जाता है तथा हे पार्थ! उत्तम कर्ममें भी5 ‘सत्’ शब्दका प्रयोग किया जाता है॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते।
कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते ॥ २७ ॥

मूलम्

यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते।
कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तथा यज्ञ, तप और दानमें जो स्थिति है, वह भी ‘सत्’ इस प्रकार कही जाती है6 और उस परमात्माके लिये किया हुआ कर्म निश्चयपूर्वक सत्—ऐसे कहा जाता है7॥२७॥
सम्बन्ध—इस प्रकार श्रद्धापूर्वक किये हुए शास्त्र-विहित यज्ञ, तप, दान आदि कर्मोंका महत्त्व बतलाया गया; उसे सुनकर यह जिज्ञासा होती है कि जो शास्त्रविहित यज्ञादि कर्म बिना श्रद्धाके किये जाते हैं, उनका क्या फल होता है; इसपर भगवान् इस अध्यायका उपसंहार करते हुए कहते हैं—

विश्वास-प्रस्तुतिः

अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत् १_।_
असदित्युच्यते पार्थ न च तत् प्रेत्य नो इह॥२८॥

मूलम्

अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत् १_।_
असदित्युच्यते पार्थ न च तत् प्रेत्य नो इह॥२८॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे अर्जुन! बिना श्रद्धाके किया हुआ हवन, दिया हुआ दान एवं तपा हुआ तप और जो कुछ भी किया हुआ शुभ कर्म है—वह समस्त ‘असत्’—इस प्रकार कहा जाता है; इसलिये वह न तो इस लोकमें लाभदायक है और न मरनेके बाद ही1॥२८॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते भीष्मपर्वणि श्रीमद्‌भगवद्‌गीतापर्वणि श्रीमद्‌भगवद्‌गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे श्रद्धात्रयविभागयोगो नाम सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७ ॥ भीष्मपर्वणि तु एकचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४१ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्वके श्रीमद्‌भगवद्‌गीतापर्वके अन्तर्गत ब्रह्मविद्या और योगशास्त्ररूप श्रीमद्‌भगवद्‌गीतोपनिषद्, श्रीकृष्णार्जुन-संवादमें श्रद्धात्रयविभागयोग नामक सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१७॥ भीष्मपर्वमें इकतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥४१॥

ऊपरके विवेचनसे यह पता लगता है कि संसारमें निम्नलिखित पाँच प्रकारके मनुष्य हो सकते हैं—

(१) जिनमें श्रद्धा भी है और जो शास्त्रविधिका पालन भी करते हैं, ऐसे पुरुष दो प्रकारके हैं—एक तो निष्कामभावसे कर्मोंका आचरण करनेवाले और दूसरे सकामभावसे कर्मोंका आचरण करनेवाले। निष्कामभावसे आचरण करनेवाले दैवीसम्पदायुक्त सात्त्विक पुरुष मोक्षको प्राप्त होते हैं; इनका वर्णन प्रधानतया गीताके सोलहवें अध्यायके पहले तीन श्लोकोंमें तथा इस अध्यायके ग्यारहवें, चौदहवेंसे सत्रहवें और बीसवें श्लोकोंमें है। सकामभावसे आचरण करनेवाले सत्त्वमिश्रित राजस पुरुष सिद्धि, सुख तथा स्वर्गादि लोकोंको प्राप्त होते हैं; इनका वर्णन गीताके दूसरे अध्यायके बयालीसवें, तैंतालीसवें और चौवालीसवेंमें, चौथे अध्यायके बारहवेंमें, सातवेंके बीसवें, इक्कीसवें और बाईसवेंमें और नवें अध्यायके बीसवें, इक्कीसवें और तेईसवें तथा इस अध्यायके बारहवें, अठारहवें और इक्कीसवें श्लोकोंमें है।

(२) जो लोग शास्त्रविधिका किसी अंशमें पालन करते हुए यज्ञ, दान, तप आदि कर्म तो करते हैं, परंतु जिनमें श्रद्धा नहीं होती, उन पुरुषोंके कर्म असत् (निष्फल) होते हैं; उन्हें इस लोक और परलोकमें उन कर्मोंसे कोई भी लाभ नहीं होता। इनका वर्णन गीताके इस अध्यायके अट्ठाईसवें श्लोकमें किया गया है।

(३) जो लोग अज्ञताके कारण शास्त्रविधिका तो त्याग करते हैं, परंतु जिनमें श्रद्धा है, ऐसे पुरुष श्रद्धाके भेदसे सात्त्विक भी होते हैं और राजस तथा तामस भी। इनकी गति भी इनके स्वरूपके अनुसार ही होती है। इनका वर्णन इस अध्यायके दूसरे, तीसरे तथा चौथे श्लोकोंमें किया गया है।

(४) जो लोग न तो शास्त्रको मानते हैं और न जिनमें श्रद्धा ही है; इससे जो काम, क्रोध और लोभके वश होकर अपना पापमय जीवन बिताते हैं, वे आसुरी-सम्पदावाले लोग नरकोंमें गिरते हैं तथा नीच योनियोंको प्राप्त होते हैं। उनका वर्णन गीताके सातवें अध्यायके पंद्रहवें श्लोकमें, नवेंके बारहवेंमें, सोलहवें अध्यायके सातवेंसे लेकर बीसवेंतकमें और इस अध्यायके पाँचवें, छठे एवं तेरहवें श्लोकोंमें है।

(५) जो लोग अवहेलनासे शास्त्रविधिका त्याग करते हैं और अपनी समझसे उन्हें जो अच्छा लगता है, वही करते हैं, उन यथेच्छाचारी पुरुषोंमें जिनके कर्म शास्त्रनिषिद्ध होते हैं, उन तामस पुरुषोंको तो नरकादि दुर्गतिकी प्राप्ति होती है और जिनके कर्म अच्छे होते हैं, उन पुरुषोंको शास्त्रविधिका त्याग कर देनेके कारण कोई भी फल नहीं मिलता। इसका वर्णन गीताके सोलहवें अध्यायके तेईसवें श्लोकमें किया गया है। ध्यान रहे कि इनके द्वारा जो पापकर्म किये जाते हैं, उनका फल—तिर्यक्-योनियोंकी प्राप्ति और नरकोंकी प्राप्ति—अवश्य होता है।

इन पाँच प्रकारके मनुष्योंके वर्णनमें प्रमाणस्वरूप जिन श्लोकोंका संकेत किया गया है, उनके अतिरिक्त अन्यान्य श्लोकोंमें भी इनका वर्णन है; परंतु यहाँ उन सबका उल्लेख करनेसे बहुत विस्तार हो जाता, इसलिये नहीं किया गया।


  1. यद्यपि शास्त्रविधिके त्यागकी बात गीताके सोलहवें अध्यायके तेईसवें श्लोकमें भी कही जा चुकी थी और यहाँ भी कहते हैं; पर इन दोनोंके भावमें बड़ा अन्तर है। वहाँ अवहेलनापूर्वक किये जानेवाले शास्त्रविधिके त्यागका वर्णन है और यहाँ न जाननेके कारण होनेवाले शास्त्रविधिके त्यागका है। उनको तो शास्त्रकी परवा ही नहीं है; अतः वे मनमाने ढंगसे जिस कर्मको अच्छा समझते हैं, उसे करते हैं। इसीलिये वहाँ ‘वर्तते कामकारतः’ कहा गया है; परंतु यहाँ ‘यजन्ते श्रद्धयान्विताः’ कहा है, अतः इन लोगोंमें श्रद्धा है, जहाँ श्रद्धा होती है, वहाँ अवहेलना नहीं हो सकती। इन लोगोंको परिस्थिति और वातावरणकी प्रतिकूलतासे, अवकाशके अभावसे अथवा परिश्रम तथा अध्ययन आदिकी कमीसे शास्त्रविधिका ज्ञान नहीं होता और इस अज्ञताके कारण ही इनके द्वारा उसका त्याग होता है। ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎

  2. जो शास्त्रको न जाननेके कारण शास्त्रविधिका त्याग करके श्रद्धाके साथ पूजन आदि करनेवाले हैं, वे कैसे स्वभाववाले हैं—दैव स्वभाववाले या आसुरस्वभाववाले? इसका स्पष्टीकरण पहले नहीं हुआ। अतः उसीको समझनेके लिये अर्जुनका यह प्रश्न है कि ऐसे लोगोंकी स्थिति सात्त्विकी है अथवा राजसी या तामसी? अर्थात् वे दैवीसम्पदावाले हैं या आसुरीसम्पदावाले? ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎

  3. पुरुषका वास्तविक स्वरूप तो गुणातीत ही है; परंतु यहाँ उस पुरुषकी बात है, जो प्रकृतिमें स्थित है और प्रकृतिसे उत्पन्न तीनों गुणोंसे सम्बद्ध है; क्योंकि गुणजन्य भेद ‘प्रकृतिस्थ पुरुष’ में ही सम्भव है। जो गुणोंसे परे है, उसमें तो गुणोंके भेदकी कल्पना ही नहीं हो सकती। यहाँ भगवान् यह बतलाते हैं कि जिसकी अन्तःकरणके अनुरूप जैसी सात्त्विकी, राजसी या तामसी श्रद्धा होती है—वैसी ही उस पुरुषकी निष्ठा या स्थिति होती है अर्थात् जिसकी जैसी श्रद्धा है, वही उसका स्वरूप है। इससे भगवान्‌ने श्रद्धा, निष्ठा और स्वरूपकी एकता करते हुए ‘उनकी कौन-सी निष्ठा है’ अर्जुनके इस प्रश्नका उत्तर दिया है। ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎

  4. जिसमें नाना प्रकारके आडम्बरोंसे शरीर और इन्द्रियोंको कष्ट पहुँचाया जाता है और जिसका स्वरूप बड़ा भयानक होता है, इस प्रकारके शास्त्रविरुद्ध भयानक तप करनेवाले मनुष्योंमें श्रद्धा नहीं होती। वे लोगोंको ठगनेके लिये और उनपर रोब जमानेके लिये पाखण्ड रचते हैं तथा सदा अहंकारसे फूले रहते हैं। इसीसे उन्हें दम्भ और अहंकारसे युक्त कहा गया है। ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎

  5. शरीरको क्षीण और दुर्बल करना तथा स्वयं अपने आत्माको या किसीके भी आत्माको दुःख पहुँचाना भूतसमुदायको और परमात्माको कृश करना है; क्योंकि सबके हृदयमें आत्मरूपसे परमात्मा ही स्थित हैं। ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎

  6. मनुष्य जैसा आहार करता है, वैसा ही उसका अन्तःकरण बनता है और अन्तःकरणके अनुरूप ही श्रद्धा भी होती है। आहार शुद्ध होगा तो उसके परिणामस्वरूप अन्तःकरण भी शुद्ध होगा—‘आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः’ (छान्दोग्य० ७।२६।२)। अन्तःकरणकी शुद्धिसे ही विचार, भाव, श्रद्धादि गुण और क्रियाएँ शुद्ध होंगी। अतएव इस प्रसंगमें आहारका विवेचन करके यह भाव दिखलाया गया है कि सात्त्विक, राजस और तामस आहारोंमें जो आहार जिसको प्रिय होता है, वह उसी गुणवाला होता है। इसी भावसे श्लोकमें ‘प्रिय’ शब्द देकर विशेष लक्ष्य कराया गया है। अतः आहारकी दृष्टिसे भी उसकी पहचान हो सकती है। यही बात यज्ञ, दान और तपके विषयमें भी समझ लेनी चाहिये। ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎

  7. ‘यातयाम’ अर्थात् अधपका उन फलों अथवा उन खाद्य पदार्थोंको समझना चाहिये, जो पूरी तरहसे पके न हों अथवा जिनके सिद्ध होनेमें (सीझनेमें) कमी रह गयी हो।‘‘‘इसी श्लोकमें ‘पर्युषितम्’ यानी बासी अन्नको तामस बतलाया गया है। ‘यातयामम्’ का अर्थ एक प्रहर पहलेका बना भोजन मान लेनेसे ‘बासी’ भोजनको तामस बतलानेकी कोई सार्थकता नहीं रह जाती; यह सोचकर यहाँ ‘यातयामम्’ का अर्थ ‘अधपका’ किया गया है।’’’ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎

  8. अपने या दूसरेके भोजन कर लेनेपर बची हुई जूठी चीजोंको ‘उच्छिष्ट’ कहते हैं। ↩︎

  9. मांस, अण्डे आदि हिंसामय और शराब-ताड़ी आदि निषिद्ध मादक वस्तुएँ, जो स्वभावसे ही अपवित्र हैं अथवा जिनमें किसी प्रकारके संगदोषसे, किसी अपवित्र वस्तु, स्थान, पात्र या व्यक्तिके संयोगसे या अन्याय और अधर्मसे उपार्जित असत् धनके द्वारा प्राप्त होनेके कारण अपवित्रता आ गयी हो, उन सब वस्तुओंको ‘अमेध्य’ कहते हैं। ऐसे पदार्थ देव-पूजनमें भी निषिद्ध माने गये हैं। इनके सिवा गाँजा, भाँग, अफीम, तम्बाकू, सिगरेट-बीड़ी, अर्क, आसव और अपवित्र दवाइयाँ आदि तमोगुण उत्पन्न करनेवाली जितनी भी खान-पानकी वस्तुएँ हैं—सभी अपवित्र हैं। ↩︎

  10. पाँच महाभूत, मन, बुद्धि, अहंकार, दस इन्द्रियाँ और पाँच इन्द्रियोंके विषय—इन तेईस तत्त्वोंके समूहका नाम ‘भूतग्राम’ है। ↩︎ ↩︎ ↩︎

  11. अग्नि आदिके संयोगसे, हवासे अथवा मौसिम बीत जाने आदिके कारणोंसे जिन रसयुक्त पदार्थोंका रस सूख गया हो (जैसे संतरे, ऊख आदिका रस सूख जाया करता है), उनको ‘गतरस’ कहते हैं। ↩︎