०३८ गुणत्रयविभागयोगः

भागसूचना

अष्टात्रिंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

(श्रीमद्भगवद्‌गीतायां चतुर्दशोऽध्यायः)
ज्ञानकी महिमा और प्रकृति-पुरुषसे जगत्‌की उत्पत्तिका, सत्त्व, रज, तम—तीनों गुणोंका, भगवत्प्राप्तिके उपायका एवं गुणातीत पुरुषके लक्षणोंका वर्णन

अनुवाद (हिन्दी)

सम्बन्ध—गीताके तेरहवें अध्यायमें ‘क्षेत्र’ और ‘क्षेत्रज्ञ’ के लक्षणोंका निर्देश करके उन दोनोंके ज्ञानको ही ज्ञान बतलाया और उसके अनुसार क्षेत्रके स्वरूप, स्वभाव, विकार और उसके तत्त्वोंकी उत्पत्तिके क्रम आदि तथा क्षेत्रज्ञके स्वरूप और उसके प्रभावका वर्णन किया। वहाँ उन्नीसवें श्लोकसे प्रकृति-पुरुषके नामसे प्रकरण आरम्भ करके गुणोंको प्रकृतिजन्य बतलाया और इक्कीसवें श्लोकमें यह बात भी कही कि पुरुषके बार-बार अच्छी-बुरी योनियोंमें जन्म होनेमें गुणोंका संग ही हेतु है। इससे गुणोंके भिन्न-भिन्न स्वरूप क्या हैं, ये जीवात्माको कैसे शरीरमें बाँधते हैं, किस गुणके संगसे किस योनिमें जन्म होता है, गुणोंसे छूटनेके उपाय क्या हैं, गुणोंसे छूटे हुए पुरुषोंके लक्षण तथा आचरण कैसे होते हैं—ये सब बातें जाननेकी स्वाभाविक ही इच्छा होती है; अतएव इसी विषयका स्पष्टीकरण करनेके लिये इस चौदहवें अध्यायका आरम्भ किया गया है। तेरहवें अध्यायमें वर्णित ज्ञानको ही स्पष्ट करके चौदहवें अध्यायमें विस्तारपूर्वक समझाते हैं—

मूलम् (वचनम्)

श्रीभगवानुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम् १_।_
यज्ज्ञात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः ॥ १ ॥

मूलम्

परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम् १_।_
यज्ज्ञात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीभगवान् बोले— ज्ञानोंमें भी अति उत्तम उस परम ज्ञानको मैं फिर कहूँगा, जिसको जानकर सब मुनिजन इस संसारसे मुक्त होकर परम सिद्धिको प्राप्त हो गये हैं1॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः ३_।_
सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च ॥ २ ॥

मूलम्

इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः ३_।_
सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस ज्ञानको आश्रय करके2 अर्थात् धारण करके मेरे स्वरूपको प्राप्त हुए पुरुष सृष्टिके आदिमें पुनः उत्पन्न नहीं होते और प्रलयकालमें भी व्याकुल नहीं होते3

विश्वास-प्रस्तुतिः

मम योनिर्महद् ब्रह्म तस्मिन् गर्भं दधाम्यहम्।
सम्भवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत ॥ ३ ॥

मूलम्

मम योनिर्महद् ब्रह्म तस्मिन् गर्भं दधाम्यहम्।
सम्भवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे अर्जुन! मेरी महत्-ब्रह्मरूप मूल प्रकृति सम्पूर्ण भूतोंकी योनि है अर्थात् गर्भाधानका स्थान है4 और मैं उस योनिमें चेतनसमुदायरूप गर्भको स्थापन करता हूँ5। उस जड-चेतनके संयोगसे सब भूतोंकी उत्पत्ति होती है6

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता ॥ ४ ॥

मूलम्

सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे अर्जुन! नाना प्रकारकी सब योनियोंमें जितनी मूर्तियाँ अर्थात् शरीरधारी प्राणी उत्पन्न होते हैं,7 प्रकृति तो उन सबकी गर्भ धारण करनेवाली माता है और मैं बीजको स्थापन करनेवाला पिता हूँ1॥४॥
सम्बन्ध—जीवोंके नाना प्रकारकी योनियोंमें जन्म लेनेकी बात तो चौथे श्लोकतक कही गयी, किंतु वहाँ गुणोंकी कोई बात नहीं आयी। इसलिये अब वे गुण क्या हैं? उनका संग क्या है? किस गुणके संगसे अच्छी योनिमें और किस गुणके संगसे बुरी योनिमें जन्म होता है?—इन सब बातोंको स्पष्ट करनेके लिये इस प्रकरणका आरम्भ करते हुए भगवान् अब पहले उन तीनों गुणोंकी प्रकृतिसे उत्पत्ति और उनके विभिन्न नाम बतलाकर फिर उनके स्वरूप और उनके द्वारा जीवात्माके बन्धन-प्रकारका क्रमशः पृथक्-पृथक् वर्णन करते हैं—

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसम्भवाः।
निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम् ॥ ५ ॥

मूलम्

सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसम्भवाः।
निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे अर्जुन! सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण—ये प्रकृतिसे उत्पन्न तीनों गुण8 अविनाशी जीवात्माको शरीरमें बाँधते हैं2॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात् प्रकाशकमनामयम्।
सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ ॥ ६ ॥

मूलम्

तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात् प्रकाशकमनामयम्।
सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे निष्पाप! उन तीनों गुणोंमें सत्त्वगुण तो निर्मल होनेके कारण प्रकाश करनेवाला और विकाररहित है3, वह सुखके सम्बन्धसे और ज्ञानके सम्बन्धसे अर्थात् उसके अभिमानसे बाँधता है4॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासङ्गसमुद्भवम्।
तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्गेन देहिनम् ॥ ७ ॥

मूलम्

रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासङ्गसमुद्भवम्।
तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्गेन देहिनम् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे अर्जुन! रागरूप रजोगुणको कामना और आसक्तिसे उत्पन्न जान5। वह इस जीवात्माको कर्मोंके और उनके फलके सम्बन्धसे बाँधता है6॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम्।
प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत ॥ ८ ॥

मूलम्

तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम्।
प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे अर्जुन! सब देहाभिमानियोंको मोहित करनेवाले7 तमोगुणको तो अज्ञानसे उत्पन्न जान1। वह इस जीवात्माको प्रमाद, आलस्य और निद्राके द्वारा बाँधता है8॥८॥
सम्बन्ध—इस प्रकार सत्त्व, रज और तम—इन तीनों गुणोंका स्वरूप और उनके द्वारा जीवात्माके बाँधे जानेका प्रकार बतलाकर अब उन तीनों गुणोंका स्वाभाविक व्यापार बतलाते हैं—

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्त्वं सुखे संजयति रजः कर्मणि भारत।
ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे संजयत्युत ॥ ९ ॥

मूलम्

सत्त्वं सुखे संजयति रजः कर्मणि भारत।
ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे संजयत्युत ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे अर्जुन! सत्त्वगुण सुखमें लगाता है2 और रजोगुण कर्ममें3 तथा तमोगुण तो ज्ञानको ढककर प्रमादमें भी लगाता है4॥९॥
सम्बन्ध—सत्त्व आदि तीनों गुण जिस समय अपने-अपने कार्यमें जीवको नियुक्त करते हैं, उस समय वे ऐसा करनेमें किस प्रकार समर्थ होते हैं—यह बात अगले श्लोकमें बतलाते हैं—

विश्वास-प्रस्तुतिः

रजस्तमश्चाभिभूय सत्त्वं भवति भारत।
रजः सत्त्वं तमश्चैव तमः सत्त्वं रजस्तथा ॥ १० ॥

मूलम्

रजस्तमश्चाभिभूय सत्त्वं भवति भारत।
रजः सत्त्वं तमश्चैव तमः सत्त्वं रजस्तथा ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे अर्जुन! रजोगुण और तमोगुणको दबाकर सत्त्वगुण5, सत्त्वगुण और तमोगुणको दबाकर रजोगुण,6—वैसे ही सत्त्वगुण और रजोगुणको दबाकर तमोगुण9 होता है अर्थात् बढ़ता है7॥१०॥
सम्बन्ध—इस प्रकार अन्य दो गुणोंको दबाकर प्रत्येक गुणके बढ़नेकी बात कही गयी। अब प्रत्येक गुणकी वृद्धिके लक्षण जाननेकी इच्छा होनेपर क्रमशः सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुणकी वृद्धिके लक्षण बतलाये जाते हैं—

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन् प्रकाश उपजायते।
ज्ञानं यदा तदा विद्याद् विवृद्धं सत्त्वमित्युत ॥ ११ ॥

मूलम्

सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन् प्रकाश उपजायते।
ज्ञानं यदा तदा विद्याद् विवृद्धं सत्त्वमित्युत ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस समय इस देहमें1 तथा अन्तःकरण और इन्द्रियोंमें चेतनता और विवेकशक्ति उत्पन्न होती है, उस समय ऐसा जानना चाहिये कि सत्त्वगुण बढ़ा है8॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा।
रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ ॥ १२ ॥

मूलम्

लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा।
रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे अर्जुन! रजोगुणके बढ़नेपर लोभ प्रवृत्ति, स्वार्थबुद्धिसे कर्मोंका सकामभावसे आरम्भ, अशान्ति और विषयभोगोंकी लालसा—ये सब उत्पन्न होते हैं2॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च प्रमादो मोह एव च।
तमस्येतानि जायन्ते विवृद्धे कुरुनन्दन ॥ १३ ॥

मूलम्

अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च प्रमादो मोह एव च।
तमस्येतानि जायन्ते विवृद्धे कुरुनन्दन ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे अर्जुन! तमोगुणके बढ़नेपर अन्तःकरण और इन्द्रियोंमें अप्रकाश, कर्तव्यकर्मोंमें अप्रवृत्ति और प्रमाद अर्थात् व्यर्थ चेष्टा और निद्रादि अन्तःकरणकी मोहिनी वृत्तियाँ—ये सब ही उत्पन्न होते हैं3॥१३॥
सम्बन्ध—इस प्रकार तीनों गुणोंकी वृद्धिके भिन्न-भिन्न लक्षण बतलाकर अब दो श्लोकोंमें उन गुणोंमेंसे किस गुणकी वृद्धिके समय मरकर मनुष्य किस गतिको प्राप्त होता है, यह बतलाया जाता है—

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदा सत्त्वे प्रवृद्धे तु प्रलयं याति देहभृत् १_।_
तदोत्तमविदां लोकानमलान् प्रतिपद्यते ॥ १४ ॥

मूलम्

यदा सत्त्वे प्रवृद्धे तु प्रलयं याति देहभृत् १_।_
तदोत्तमविदां लोकानमलान् प्रतिपद्यते ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब यह मनुष्य सत्त्वगुणकी वृद्धिमें मृत्युको प्राप्त होता है1 तब तो उत्तम कर्म करनेवालोंके निर्मल दिव्य स्वर्गादि लोकोंको प्राप्त होता है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसङ्गिषु जायते।
तथा प्रलीनस्तमसि मूढयोनिषु जायते ॥ १५ ॥

मूलम्

रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसङ्गिषु जायते।
तथा प्रलीनस्तमसि मूढयोनिषु जायते ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रजोगुणके बढ़नेपर मृत्युको प्राप्त होकर8 कर्मोंकी आसक्तिवाले मनुष्योंमें उत्पन्न होता है तथा तमोगुणके बढ़नेपर मरा हुआ2 मनुष्य कीट, पशु आदि मूढ़योनियोंमें उत्पन्न होता है॥१५॥
सम्बन्ध—सत्त्व, रज और तम—इन तीनों गुणोंकी वृद्धिमें मरनेके भिन्न-भिन्न फल बतलाये गये; इससे यह जाननेकी इच्छा होती है कि इस प्रकार कभी किसी गुणकी और कभी किसी गुणकी वृद्धि क्यों होती है; इसपर कहते हैं—

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्मणः ५_ सुकृतस्याहुः सात्त्विकं निर्मलं फलम्।_
रजसस्तु फलं दुःखमज्ञानं तमसः फलम् ॥ १६ ॥

मूलम्

कर्मणः ५_ सुकृतस्याहुः सात्त्विकं निर्मलं फलम्।_
रजसस्तु फलं दुःखमज्ञानं तमसः फलम् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रेष्ठ कर्मका तो सात्त्विक अर्थात् सुख, ज्ञान और वैराग्यादि निर्मल फल कहा है।4 राजस कर्मका फल दुःख5 एवं तामस कर्मका फल अज्ञान6 कहा है॥१६॥
सम्बन्ध—ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें श्लोकोंमें सत्त्व, रज और तमोगुणकी वृद्धिके लक्षणोंका क्रमसे वर्णन किया गया; इसपर यह जाननेकी इच्छा होती है कि ‘ज्ञान’ आदिकी उत्पत्तिको सत्त्व आदि गुणोंकी वृद्धिके लक्षण क्यों माना गया। अतएव कार्यकी उत्पत्तिसे कारणकी सत्ताको जान लेनेके लिये ज्ञान आदिकी उत्पत्तिमें सत्त्व आदि गुणोंको कारण बतलाते हैं—

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्त्वात् संजायते ज्ञानं रजसो लोभ एव च।
प्रमादमोहौ तमसो भवतोऽज्ञानमेव च ॥ १७ ॥

मूलम्

सत्त्वात् संजायते ज्ञानं रजसो लोभ एव च।
प्रमादमोहौ तमसो भवतोऽज्ञानमेव च ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सत्त्वगुणसे ज्ञान7 उत्पन्न होता है और रजोगुणसे निस्संदेह लोभ1 तथा तमोगुणसे प्रमाद और मोह उत्पन्न होते हैं और अज्ञान भी होता है॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः।
जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः ॥ १८ ॥

मूलम्

ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः।
जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सत्त्वगुणमें स्थित पुरुष स्वर्गादि उच्च लोकोंको जाते हैं, रजोगुणमें स्थित राजस पुरुष मध्यमें अर्थात् मनुष्यलोकमें ही रहते हैं और तमोगुणके कार्यरूप निद्रा, प्रमाद और आलस्यादिमें स्थित तामस पुरुष अधोगतिको अर्थात् कीट, पशु आदि नीच योनियोंको तथा नरकोंको प्राप्त होते हैं2॥१८॥
सम्बन्ध—गीताके तेरहवें अध्यायके इक्कीसवें श्लोकमें जो यह बात कही थी कि गुणोंका संग ही इस मनुष्यके अच्छी-बुरी योनियोंकी प्राप्तिरूप पुनर्जन्मका कारण है; उसीके अनुसार इस अध्यायमें पाँचवेंसे अठारहवें श्लोकतक गुणोंके स्वरूप तथा गुणोंके कार्यद्वारा बँधे हुए मनुष्योंकी गति आदिका विस्तारपूर्वक प्रतिपादन किया गया। इस वर्णनसे यह बात समझायी गयी कि मनुष्यको पहले तम और रजोगुणका त्याग करके सत्त्वगुणमें अपनी स्थिति करनी चाहिये और उसके बाद सत्त्वगुणका भी त्याग करके गुणातीत हो जाना चाहिये। अतएव गुणातीत होनेके उपाय और गुणातीत अवस्थाका फल अगले दो श्लोकोंद्वारा बतलाया जाता है—

विश्वास-प्रस्तुतिः

नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति।
गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति ॥ १९ ॥

मूलम्

नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति।
गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस समय द्रष्टा3 तीनों गुणोंके अतिरिक्त अन्य किसीको कर्ता नहीं देखता4 और तीनों गुणोंसे अत्यन्त परे सच्चिदानन्दघनस्वरूप मुझ परमात्माको तत्त्वसे जानता है, उस समय वह मेरे स्वरूपको प्राप्त होता है5॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुणानेतानतीत्य त्रीन् देही देहसमुद्भवान्।
जन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते ॥ २० ॥

मूलम्

गुणानेतानतीत्य त्रीन् देही देहसमुद्भवान्।
जन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह पुरुष शरीरकी उत्पत्तिके कारणरूप इन तीनों गुणोंको उल्लंघन करके7 जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था और सब प्रकारके दुःखोंसे मुक्त हुआ परमानन्दको प्राप्त होता है1॥२०॥
सम्बन्ध—इस प्रकार जीवन-अवस्थामें ही तीनों गुणोंसे अतीत होकर मनुष्य अमृतको प्राप्त हो जाता है—इस रहस्ययुक्त बातको सुनकर गुणातीत पुरुषके लक्षण, आचरण और गुणातीत बननेके उपाय जाननेकी इच्छासे अर्जुन पूछते हैं—

मूलम् (वचनम्)

अर्जुन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कैर्लिङ्गैस्त्रीन् गुणानेतानतीतो भवति प्रभो।
किमाचारः कथं चैतांस्त्रीन् गुणानतिवर्तते ॥ २१ ॥

मूलम्

कैर्लिङ्गैस्त्रीन् गुणानेतानतीतो भवति प्रभो।
किमाचारः कथं चैतांस्त्रीन् गुणानतिवर्तते ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुन बोले— इन तीनों गुणोंसे अतीत पुरुष किन-किन लक्षणोंसे युक्त होता है और किस प्रकारके आचरणोंवाला होता है तथा हे प्रभो! मनुष्य किस उपायसे इन तीनों गुणोंसे अतीत होता है॥२१॥
सम्बन्ध—इस प्रकार अर्जुनके पूछनेपर भगवान् उनके प्रश्नोंमेंसे ‘लक्षण’ और ‘आचरण’ विषयक दो प्रश्नोंका उत्तर चार श्लोकोंद्वारा देते हैं—

मूलम् (वचनम्)

श्रीभगवानुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव।
न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्‌क्षति ॥ २२ ॥

मूलम्

प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव।
न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्‌क्षति ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीभगवान् बोले— हे अर्जुन! जो पुरुष सत्त्व-गुणके कार्यरूप प्रकाशको8 और रजोगुणके कार्यरूप प्रवृत्तिको2 तथा तमोगुणके कार्यरूप मोहको3 भी न तो प्रवृत्त होनेपर उनसे द्वेष करता है और न निवृत्त होनेपर उनकी आकांक्षा करता है॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उदासीनवदासीनो १_ गुणैर्यो न विचाल्यते।_
गुणा वर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति नेङ्गते ॥ २३ ॥

मूलम्

उदासीनवदासीनो १_ गुणैर्यो न विचाल्यते।_
गुणा वर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति नेङ्गते ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो साक्षीके सदृश स्थित हुआ गुणोंके द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता1 और गुण ही गुणोंमें बरतते हैं—ऐसा समझता हुआ जो सच्चिदानन्दघन परमात्मामें एकीभावसे स्थित रहता है8 एवं उस स्थितिसे कभी विचलित नहीं होता2॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः ।
तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दाऽऽत्मसंस्तुतिः ॥ २४ ॥

मूलम्

समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः ।
तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दाऽऽत्मसंस्तुतिः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो निरन्तर आत्मभावमें स्थित, दुःख-सुखको समान समझनेवाला,3 मिट्टी, पत्थर और स्वर्णमें समानभाववाला, ज्ञानी, प्रिय तथा अप्रियको एक-सा माननेवाला4 और अपनी निन्दा-स्तुतिमें भी समानभाववाला है5॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः ।
सर्वारम्भपरित्यागी ८_ गुणातीतः स उच्यते ॥ २५ ॥_

मूलम्

मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः ।
सर्वारम्भपरित्यागी ८_ गुणातीतः स उच्यते ॥ २५ ॥_

अनुवाद (हिन्दी)

जो मान और अपमानमें सम है,7 मित्र और वैरीके पक्षमें भी सम है1 एवं सम्पूर्ण आरम्भोंमें कर्तापनके अभिमानसे रहित है, वह पुरुष गुणातीत कहा जाता है8
सम्बन्ध—इस प्रकार अर्जुनके दो प्रश्नोंका उत्तर देकर अब गुणातीत बननेके उपायविषयक तीसरे प्रश्नका उत्तर दिया जाता है। यद्यपि इस अध्यायके उन्नीसवें श्लोकमें भगवान्‌ने गुणातीत बननेका उपाय अपनेको अकर्ता समझकर निर्गुण-निराकार सच्चिदानन्दघन ब्रह्ममें नित्य-निरन्तर स्थित रहना बतला दिया था एवं उपर्युक्त चार श्लोकोंमें गुणातीतके जिन लक्षण और आचरणोंका वर्णन किया गया है, उनको आदर्श मानकर धारण करनेका अभ्यास भी गुणातीत बननेका उपाय माना जाता है; किंतु अर्जुनने इन उपायोंसे भिन्न दूसरा कोई सरल उपाय जाननेकी इच्छासे प्रश्न किया था, इसलिये प्रश्नके अनुकूल भगवान् दूसरा सरल उपाय बतलाते हैं—

विश्वास-प्रस्तुतिः

मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते।
स गुणान् समतीत्यैतान् ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ २६ ॥

मूलम्

मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते।
स गुणान् समतीत्यैतान् ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो पुरुष अव्यभिचारी भक्तियोगके द्वारा मुझको निरन्तर भजता है,2 वह भी इन तीनों गुणोंको भलीभाँति लाँघकर सच्चिदानन्दघन ब्रह्मको प्राप्त होनेके लिये योग्य बन जाता है3॥२६॥
सम्बन्ध—उपर्युक्त श्लोकमें सगुण परमेश्वरकी उपासनाका फल निर्गुण-निराकार ब्रह्मकी प्राप्ति बतलाया गया तथा इस अध्यायके उन्नीसवें श्लोकमें गुणातीत-अवस्थाका फल भगवद्भावकी प्राप्ति एवं बीसवें श्लोकमें ‘अमृत’ की प्राप्ति बतलाया गया। अतएव फलमें विषमताकी शंकाका निराकरण करनेके लिये सबकी एकताका प्रतिपादन करते हुए इस अध्यायका उपसंहार करते हैं—

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मणो १_ हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य_ २_ च।_
शाश्वतस्य च धर्मस्य ३_ सुखस्यैकान्तिकस्य च ॥ २७ ॥_

मूलम्

ब्रह्मणो १_ हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य_ २_ च।_
शाश्वतस्य च धर्मस्य ३_ सुखस्यैकान्तिकस्य च ॥ २७ ॥_

अनुवाद (हिन्दी)

क्योंकि उस अविनाशी परब्रह्मका और अमृतका तथा नित्यधर्मका और अखण्ड एकरस आनन्दका आश्रय मैं हूँ2

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते भीष्मपर्वणि श्रीमद्‌भगवद्‌गीतापर्वणि श्रीमद्‌भगवद्‌गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे गुणत्रयविभागयोगो नाम चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥ भीष्मपर्वणि तु अष्टात्रिंशोऽध्यायः ॥ ३८ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्वके श्रीमद्‌भगवद्‌गीतापर्वके अन्तर्गत ब्रह्मविद्या और योगशास्त्ररूप श्रीमद्‌भगवद्‌गीतोपनिषद्‌में, श्रीकृष्णार्जुन-संवादमें गुणत्रयविभागयोग नामक चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१४॥ भीष्मपर्वमें अड़तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३८॥


  1. यहाँ ‘मुनिजन’ शब्दसे ज्ञानयोगके साधनद्वारा परम गतिको प्राप्त ज्ञानियोंको समझना चाहिये; तथा जिसको ‘परब्रह्मकी प्राप्ति’ कहते हैं, जिसका वर्णन ‘परम शान्ति’, ‘आत्यन्तिक सुख’ और ‘अपुनरावृत्ति’ आदि अनेक नामोंसे किया गया है, जहाँ जाकर फिर कोई वापस नहीं लौटता—यहाँ मुनिजनोंद्वारा प्राप्त की जानेवाली ‘परम सिद्धि’ भी वही है। ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎

  2. इस प्रकरणमें वर्णित ज्ञानके अनुसार प्रकृति और पुरुषके स्वरूपको समझकर गुणोंके सहित प्रकृतिसे सर्वथा अतीत हो जाना और निर्गुण-निराकार सच्चिदानन्दघन परमात्माके स्वरूपमें अभिन्नभावसे स्थित रहना ही इस ज्ञानका आश्रय लेना है। ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎

  3. इससे भगवान्‌ने यह दिखलाया है कि इन अध्यायोंमें बतलाये हुए ज्ञानका आश्रय लेकर तदनुसार साधन करके जो पुरुष परब्रह्म परमात्माके स्वरूपको अभेदभावसे प्राप्त हो चुके हैं, वे मुक्त पुरुष न तो महासर्गके आदिमें पुनः उत्पन्न होते हैं और न प्रलयकालमें पीड़ित ही होते हैं। वस्तुतः सृष्टिके सर्ग और प्रलयसे उनका कोई सम्बन्ध ही नहीं रह जाता। ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎

  4. समस्त जगत्‌की कारणरूपा जो मूल प्रकृति है, जिसे ‘अव्यक्त’ और ‘प्रधान’ भी कहते हैं; उस प्रकृतिका वाचक ‘महत्’ विशेषणके सहित ‘ब्रह्म’ शब्द है। यहाँ उसे ‘योनि’ नाम देकर भगवान्‌ने यह भाव दिखलाया है कि समस्त प्राणियोंके विभिन्न शरीरोंका यही उपादान-कारण है और यही गर्भाधानका आधार है। ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎

  5. महाप्रलयके समय अपने-अपने संस्कारोंके सहित परमेश्वरमें स्थित जीवसमुदायका जो महासर्गके आदिमें प्रकृतिके साथ विशेष सम्बन्ध कर देना है, वही उस चेतनसमुदायरूप गर्भको प्रकृतिरूप योनिमें स्थापन करना है। ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎

  6. उपर्युक्त जड-चेतनके संयोगसे जो भिन्न-भिन्न आकृतियोंमें सब प्राणियोंका सूक्ष्मरूपसे प्रकट होना है, वही उनकी उत्पत्ति है। ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎

  7. श्रुति-स्मृति-पुराणादिमें विभिन्न विषयोंको समझानेके लिये जो नाना प्रकारके बहुत-से उपदेश हैं, उन सभीका वाचक यहाँ ‘ज्ञानानाम्’ पद है। उनमेंसे प्रकृति और पुरुषके स्वरूपका विवेचन करके पुरुषके वास्तविक स्वरूपको प्रत्यक्ष करा देनेवाला जो तत्त्वज्ञान है, यहाँ भगवान् उसी ज्ञानका वर्णन करनेकी प्रतिज्ञा करते हैं। वह ज्ञान परमात्माके स्वरूपको प्रत्यक्ष करानेवाला और जीवात्माको प्रकृतिके बन्धनसे छुड़ाकर सदाके लिये मुक्त कर देनेवाला है, इसलिये उस ज्ञानको अन्यान्य ज्ञानोंकी अपेक्षा उतम और पर (अत्यन्त उत्कृष्ट) बतलाया गया है। ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎

  8. पिछले श्लोकमें ‘परां सिद्धिं गताः’ से जो बात कही गयी है, इस श्लोकमें ‘मम साधर्म्यमागताः’ से भी वही कही गयी है। अभिप्राय यह है कि भगवान्‌के निर्गुण रूपको अभेदभावसे प्राप्त हो जाना ही भगवान्‌के साधर्म्यको प्राप्त होना है। ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎

  9. जिस समय सत्त्वगुण और रजोगुणकी प्रवृत्तिको रोककर तमोगुण अपना कार्य आरम्भ करता है, उस समय शरीर, इन्द्रियाँ और अन्तःकरणमें मोह आदि बढ़ जाते हैं और प्रमादमें प्रवृत्ति हो जाती है, वृत्तियाँ विवेकशून्य हो जाती हैं—यही सत्त्वगुण और रजोगुणको दबाकर तमोगुणका बढ़ना है। ↩︎