०३७ क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोगः

भागसूचना

सप्तत्रिंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

(श्रीमद्भगवद्‌गीतायां त्रयोदशोऽध्यायः)
ज्ञानसहित क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ और प्रकृति-पुरुषका वर्णन

अनुवाद (हिन्दी)

सम्बन्ध—गीताके बारहवें अध्यायके आरम्भमें अर्जुनने सगुण और निर्गुणके उपासकोंकी श्रेष्ठताके विषयमें प्रश्न किया था, उसका उत्तर देते हुए भगवान्‌ने दूसरे श्लोकमें संक्षेपमें सगुण उपासकोंकी श्रेष्ठताका प्रतिपादन करके तीसरेसे पाँचवें श्लोकतक निर्गुण उपासनाका स्वरूप, उसका फल और देहाभिमानियोंके लिये उसके अनुष्ठानमें कठिनताका निरूपण किया। तदनन्तर छठेसे बीसवें श्लोकतक सगुण उपासनाका महत्त्व, फल, प्रकार और भगवद्भक्तोंके लक्षणोंका वर्णन करते-करते ही अध्यायकी समाप्ति हो गयी; निर्गुणका तत्त्व, महिमा और उसकी प्राप्तिके साधनोंको विस्तारपूर्वक नहीं समझाया गया। अतएव निर्गुण-निराकारका तत्त्व अर्थात् ज्ञानयोगका विषय भलीभाँति समझानेके लिये तेरहवें अध्यायका आरम्भ किया जाता है। इसमें पहले भगवान् क्षेत्र (शरीर) तथा क्षेत्रज्ञ (आत्मा)-के लक्षण बतलाते हैं—

मूलम् (वचनम्)

श्रीभगवानुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते।
एतद् यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः॥१॥

मूलम्

इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते।
एतद् यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः॥१॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीभगवान् बोले— हे अर्जुन! यह शरीर ‘क्षेत्र’1 इस नामसे कहा जाता है और इसको जो जानता है, उसको ‘क्षेत्रज्ञ’2 इस नामसे उनके तत्त्वको जाननेवाले ज्ञानीजन कहते हैं॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत् तज्ज्ञानं मतं मम ॥ २ ॥

मूलम्

क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत् तज्ज्ञानं मतं मम ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे अर्जुन! तू सब क्षेत्रोंमें क्षेत्रज्ञ अर्थात् जीवात्मा भी भी मुझे ही जान3 और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञका अर्थात् विकार-सहित प्रकृतिका और पुरुषका जो तत्त्वसे जानना है, वह ज्ञान है—ऐसा मेरा मत है॥२॥
सम्बन्ध—क्षेत्र और क्षेत्रज्ञका पूर्ण ज्ञान हो जानेपर संसारभ्रमका नाश हो जाता है और परमात्माकी प्राप्ति होती है, अतएव ‘क्षेत्र’ और ‘क्षेत्रज्ञ’ के स्वरूप आदिको भलीभाँति विभागपूर्वक समझानेके लिये भगवान् कहते हैं—

Misc Detail

तत् क्षेत्रं यच्च ४_ यादृक्_ ५_ च यद्विकारि_ ६_ यतश्च यत्_ ७_।_
८_ च यो यत्प्रभावश्च_ ९_ तत् समासेन मे शृणु॥३॥_

अनुवाद (हिन्दी)

वह क्षेत्र जो और जैसा है तथा जिन विकारोंवाला है और जिस कारणसे जो हुआ है तथा वह क्षेत्रज्ञ भी जो और जिस प्रभाववाला है—वह सब संक्षेपमें मुझसे सुन॥३॥
सम्बन्ध—तीसरे श्लोकमें ‘क्षेत्र’ और ‘क्षेत्रज्ञ’ के जिस तत्त्वको संक्षेपमें सुननेके लिये भगवान्‌ने अर्जुनसे कहा है—अब उसके विषयमें ऋषि, वेद और ब्रह्म-सूत्रकी उक्तिका प्रमाण देकर भगवान् ऋषि, वेद और ब्रह्मसूत्रको आदर देते हैं—

Misc Detail

ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधैः १_ पृथक्।_
ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव २_ हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः ॥ ४ ॥_

अनुवाद (हिन्दी)

यह क्षेत्र और क्षेत्रज्ञका तत्त्व ऋषियोंद्वारा3 बहुत प्रकारसे कहा गया है और विविध वेदमन्त्रोंद्वारा भी विभागपूर्वक कहा गया है तथा भलीभाँति निश्चय किये हुए युक्तियुक्त ब्रह्मसूत्रके पदोंद्वारा भी कहा गया है॥

Misc Detail

महाभूतान्यहंकारो ४_ बुद्धिरव्यक्तमेव च ।_
इन्द्रियाणिद शैकं च पञ्च चेन्द्रियगोचराः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाँच महाभूत, अहंकार4, बुद्धि5 और मूल प्रकृति1 भी; तथा दस इन्द्रियाँ2, एक मन3 और पाँच इन्द्रियोंके विषय6 अर्थात् शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध—॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं संघातश्चेतना धृतिः।
एतत् क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम् ॥ ६ ॥

मूलम्

इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं संघातश्चेतना धृतिः।
एतत् क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तथा इच्छा,7 द्वेष,4 सुख,5 दुःख,8 स्थूल देहका पिण्ड, चेतना9 और धृति10—इस प्रकार विकारोंके सहित यह क्षेत्र संक्षेपमें कहा गया11॥६॥
सम्बन्ध—इस प्रकार क्षेत्रके स्वरूप और उसके विकारोंका वर्णन करनेके बाद अब जो दूसरे श्लोकमें यह बात कही थी कि क्षेत्र और क्षेत्रज्ञका जो ज्ञान है, वही मेरे मतसे ज्ञान है—उस ज्ञानको प्राप्त करनेके साधनोंका ‘ज्ञान’ के ही नामसे पाँच श्लोकोंद्वारा वर्णन करते हैं—

Misc Detail

अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा १२ १३_ क्षान्तिरार्जवम् ।_

विश्वास-प्रस्तुतिः

आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः ॥ ७ ॥

मूलम्

आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रेष्ठताके अभिमानका अभाव, दम्भाचरणका अभाव, किसी भी प्राणीको किसी प्रकार भी न सताना1, क्षमाभाव2, मन-वाणी आदिकी सरलता3, श्रद्धा-भक्तिसहित गुरुकी सेवा6, बाहर-भीतरकी शुद्धि7, अन्तःकरणकी स्थिरता4 और मन-इन्द्रियों-सहित शरीरका निग्रह5॥७॥

Misc Detail

इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहंकार ८ ९_ एव च।_

विश्वास-प्रस्तुतिः

जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम् ॥ ८ ॥

मूलम्

जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस लोक और परलोकके सम्पूर्ण भोगोंमें आसक्तिका अभाव और अहंकारका भी अभाव, जन्म, मृत्यु, जरा और रोग आदिमें दुःख और दोषोंका बार-बार विचार करना10

सूचना (हिन्दी)

चार अवस्था

Misc Detail

जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम् ॥ (गीता १३।८)
असक्तिरनभिष्वङ्गः १ २_ पुत्रदारगृहादिषु ।_
नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु ३_ ॥ ९ ॥_

अनुवाद (हिन्दी)

पुत्र, स्त्री, घर और धन आदिमें आसक्तिका अभाव, ममताका न होना तथा प्रिय और अप्रियकी प्राप्तिमें सदा ही चित्तका सम रहना॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी ।

मूलम्

मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी ।

Misc Detail

विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि ४ ५_ ॥ १० ॥_

अनुवाद (हिन्दी)

मुझ परमेश्वरमें अनन्य योगके द्वारा अव्यभिचारिणी भक्ति4 तथा एकान्त और शुद्ध देशमें रहनेका स्वभाव और विषयासक्त मनुष्योंके समुदायमें प्रेमका न होना॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् ।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ॥ ११ ॥

मूलम्

अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् ।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अध्यात्मज्ञानमें नित्य स्थिति5 और तत्त्वज्ञानके अर्थरूप परमात्माको ही देखना8—यह सब ज्ञान है1 और जो इससे विपरीत है, वह अज्ञान2 है—ऐसा कहा है॥११॥
सम्बन्ध—इस प्रकार ज्ञानके साधनोंका ‘ज्ञान’ के नामसे वर्णन सुननेपर यह जिज्ञासा हो सकती है कि इन साधनोंद्वारा प्राप्त ‘ज्ञान’ से जाननेयोग्य वस्तु क्या है और उसे जान लेनेसे क्या होता है। उसका उत्तर देनेके लिये भगवान् अब जाननेके योग्य वस्तुके स्वरूपका वर्णन करनेकी प्रतिज्ञा करते हुए उसके जाननेका फल ‘अमरत्वकी प्राप्ति’ बतलाकर छः श्लोकोंमें जाननेके योग्य परमात्माके स्वरूपका वर्णन करते हैं—

Misc Detail

ज्ञेयं ३_ यत् तत् प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते।_
अनादिमत् परं ब्रह्म ४_ न सत् तन्नासदुच्यते ॥ १२ ॥_

अनुवाद (हिन्दी)

जो जाननेयोग्य है तथा जिसको जानकर मनुष्य परमानन्दको प्राप्त होता है, उसको भलीभाँति कहूँगा। वह अनादिवाला परम ब्रह्म न सत् ही कहा जाता है, न असत् ही7॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वतःपाणिपादं तत् सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् ।

मूलम्

सर्वतःपाणिपादं तत् सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् ।

Misc Detail

सर्वतःश्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह सब ओर हाथ-पैरवाला, सब ओर नेत्र, सिर और मुखवाला तथा सब ओर कानवाला है;2 क्योंकि वह संसारमें सबको व्याप्त करके स्थित है3॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम् ।
असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च ॥ १४ ॥

मूलम्

सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम् ।
असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह सम्पूर्ण इन्द्रियोंके विषयोंको जाननेवाला है, परंतु वास्तवमें सब इन्द्रियोंसे रहित है6 तथा आसक्ति-रहित होनेपर भी सबका धारण-पोषण करनेवाला और निर्गुण होनेपर भी गुणोंको भोगनेवाला है7॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च।

मूलम्

बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च।

Misc Detail

सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह चराचर सब भूतोंके बाहर-भीतर परिपूर्ण है और चर-अचररूप भी वही है5 एवं वह सूक्ष्म होनेसे अविज्ञेय है8 तथा अति समीपमें और दूरमें भी स्थित वही है1॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम्।
भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च ॥ १६ ॥

मूलम्

अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम्।
भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह परमात्मा विभागरहित एक रूपसे आकाशके सदृश परिपूर्ण होनेपर भी चराचर सम्पूर्ण भूतोंमें विभक्त-सा स्थित प्रतीत होता है2 तथा वह जाननेयोग्य परमात्मा विष्णुरूपसे भूतोंको धारण-पोषण करनेवाला और रुद्ररूपसे संहार करनेवाला तथा ब्रह्मारूपसे सबको उत्पन्न करनेवाला है॥१६॥

Misc Detail

ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः ३_ परमुच्यते ।_
ज्ञानं ज्ञेयं ४_ ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम् ॥ १७ ॥_

अनुवाद (हिन्दी)

वह परब्रह्म ज्योतियोंका भी ज्योति7 एवं मायासे अत्यन्त परे कहा जाता है। वह परमात्मा बोधस्वरूप, जाननेके योग्य एवं तत्त्वज्ञानसे प्राप्त करनेयोग्य4 है और सबके हृदयमें विशेषरूपसे स्थित है5॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः।
मद्भक्त एतद् विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते ॥ १८ ॥

मूलम्

इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः।
मद्भक्त एतद् विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार क्षेत्र तथा ज्ञान और जाननेयोग्य परमात्मा-का स्वरूप संक्षेपसे कहा गया8। मेरा भक्त इसको तत्त्वसे जानकर मेरे स्वरूपको प्राप्त होता है9॥१८॥
सम्बन्ध—इस अध्यायके तीसरे श्लोकमें भगवान्‌ने क्षेत्रके विषयमें चार बातें और क्षेत्रज्ञके विषयमें दो बातें संक्षेपमें सुननेके लिये अर्जुनसे कहा था, फिर विषय आरम्भ करते ही क्षेत्रके स्वरूपका और उसके विकारोंका वर्णन करनेके अनन्तर क्षेत्र और क्षेत्रज्ञके तत्त्वको भलीभाँति जाननेके उपायभूत साधनोंका और जाननेके योग्य परमात्माके स्वरूपका वर्णन प्रसंगवश किया गया। इससे क्षेत्रके विषयमें उसके स्वभावका और किस कारणसे कौन कार्य उत्पन्न होता है, इस विषयका तथा प्रभावसहित क्षेत्रज्ञके स्वरूपका भी वर्णन नहीं हुआ। अतः अब उन सबका वर्णन करनेके लिये भगवान् पुनः प्रकृति और पुरुषके नामसे प्रकरण आरम्भ करते हैं—

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध‌यनादी उभावपि।

मूलम्

प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध‌यनादी उभावपि।

Misc Detail

विकारांश्च गुणांश्चैव १_ विद्धि प्रकृतिसम्भवान् ॥ १९ ॥_

अनुवाद (हिन्दी)

प्रकृति2 और पुरुष, इन दोनोंको ही तू अनादि जान3 और राग-द्वेषादि विकारोंको तथा त्रिगुणात्मक सम्पूर्ण पदार्थोंको भी प्रकृतिसे ही उत्पन्न जान॥१९॥
सम्बन्ध—इस अध्यायके तीसरे श्लोकमें, जिससे जो उत्पन्न हुआ है, यह बात सुननेके लिये कहा गया था, उसका वर्णन पूर्वश्लोकके उत्तरार्द्धमें कुछ किया गया। अब उसीकी कुछ बात इस श्लोकके पूर्वार्द्धमें कहते हुए इसके उत्तरार्द्धमें और इक्कीसवें श्लोकमें प्रकृतिमें स्थित पुरुषके स्वरूपका वर्णन किया जाता है—

विश्वास-प्रस्तुतिः

कार्यकरणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते ।
पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते ॥ २० ॥

मूलम्

कार्यकरणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते ।
पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कार्य और करणको उत्पन्न करनेमें हेतु प्रकृति कही जाती है6 और जीवात्मा सुख-दुःखोंके भोक्तापनमें अर्थात् भोगनेमें हेतु कहा जाता है7॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान् गुणान्।
कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु ॥ २१ ॥

मूलम्

पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान् गुणान्।
कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रकृतिमें स्थित ही पुरुष प्रकृतिसे उत्पन्न त्रिगुणात्मक पदार्थोंको भोगता है1 और इन गुणोंका संग ही इस जीवात्माके अच्छी-बुरी योनियोंमें जन्म लेनेका कारण है2॥२१॥
सम्बन्ध—इस प्रकार प्रकृतिस्थ पुरुषके स्वरूपका वर्णन करनेके बाद अब जीवात्मा और परमात्माकी एकता करते हुए आत्माके गुणातीत स्वरूपका वर्णन करते हैं—

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः।
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन् पुरुषः परः ॥ २२ ॥

मूलम्

उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः।
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन् पुरुषः परः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस देहमें स्थित यह आत्मा वास्तवमें परमात्मा ही है3। वही साक्षी होनेसे उपद्रष्टा और यथार्थ सम्मति देनेवाला होनेसे अनुमन्ता, सबका धारण-पोषण करनेवाला होनेसे भर्ता, जीवरूपसे भोक्ता, ब्रह्मा आदिका भी स्वामी होनेसे महेश्वर और शुद्ध सच्चिदा-नन्दघन होनेसे परमात्मा—ऐसा कहा गया है6॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणैः सह।
सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते ॥ २३ ॥

मूलम्

य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणैः सह।
सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार पुरुषको और गुणोंके सहित प्रकृतिको जो मनुष्य तत्त्वसे जानता है7, वह सब प्रकारसे कर्तव्य-कर्म करता हुआ भी4 फिर नहीं जन्मता5॥२३॥
सम्बन्ध—इस प्रकार गुणोंके सहित प्रकृति और पुरुषके ज्ञानका महत्त्व सुनकर यह इच्छा हो सकती है कि ऐसा ज्ञान कैसे होता है। इसलिये अब दो श्लोकोंद्वारा भिन्न-भिन्न अधिकारियोंके लिये तत्त्वज्ञानके भिन्न-भिन्न साधनोंका प्रतिपादन करते हैं—

विश्वास-प्रस्तुतिः

ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना ।
अन्ये सांख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे ॥ २४ ॥

मूलम्

ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना ।
अन्ये सांख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस परमात्माको कितने ही मनुष्य तो शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धिके ध्यानके द्वारा हृदयमें देखते हैं;1 अन्य कितने ही ज्ञानयोगके द्वारा2 और दूसरे कितने ही कर्मयोगके द्वारा3 देखते हैं अर्थात् प्राप्त करते हैं॥२४॥

Misc Detail

अन्ये त्वेवमजानन्तः श्रुत्वान्येभ्य उपासते।
तेऽपि चातितरन्त्येव ५_ मृत्युं श्रुतिपरायणाः ॥ २५ ॥_

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु इनसे दूसरे अर्थात् जो मन्दबुद्धिवाले पुरुष हैं, वे इस प्रकार न जानते हुए दूसरोंसे अर्थात् तत्त्वके जाननेवाले पुरुषोंसे सुनकर ही तदनुसार उपासना करते हैं और वे श्रवणपरायण पुरुष भी मृत्युरूप संसार-सागरको निःसंदेह तर जाते हैं॥२५॥
सम्बन्ध—इस प्रकार परमात्मसम्बन्धी तत्त्वज्ञानके भिन्न-भिन्न साधनोंका प्रतिपादन करके अब तीसरे श्लोकमें जो ‘यादृक्’ पदसे क्षेत्रके स्वभावको सुननेके लिये कहा था, उसके अनुसार भगवान् दो श्लोकोंद्वारा उस क्षेत्रको उत्पत्ति-विनाशशील बतलाकर उसके स्वभावका वर्णन करते हुए आत्माके यथार्थ तत्त्वको जाननेवालेकी प्रशंसा करते हैं—

विश्वास-प्रस्तुतिः

यावत् संजायते किंचित् सत्त्वं स्थावरजङ्गमम्।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात् तद् विद्धि भरतर्षभ ॥ २६ ॥

मूलम्

यावत् संजायते किंचित् सत्त्वं स्थावरजङ्गमम्।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात् तद् विद्धि भरतर्षभ ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे अर्जुन! जितने भी स्थावर-जंगम प्राणी उत्पन्न होते हैं, उन सबको तू क्षेत्र और क्षेत्रज्ञके संयोगसे ही उत्पन्न जान1॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्।
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति ॥ २७ ॥

मूलम्

समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्।
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो पुरुष नष्ट होते हुए सब चराचर भूतोंमें परमेश्वरको नाशरहित और समभावसे स्थित देखता है, वही यथार्थ देखता है2॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समं पश्यन् हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम्।
न हिनस्त्यात्मनाऽऽत्मानं ततो याति परां गतिम् ॥ २८ ॥

मूलम्

समं पश्यन् हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम्।
न हिनस्त्यात्मनाऽऽत्मानं ततो याति परां गतिम् ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्योंकि जो पुरुष सबमें समभावसे स्थित परमेश्वरको समान देखता हुआ अपनेद्वारा अपनेको नष्ट नहीं करता3, इससे वह परमगतिको प्राप्त होता है॥२८॥
सम्बन्ध—इस प्रकार नित्य विज्ञानानन्दघन आत्मतत्त्वको सर्वत्र समभावसे देखनेका महत्त्व और फल बतलाकर अब अगले श्लोकमें उसे अकर्ता देखनेवालेकी महिमा कहते हैं—

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः।
यः पश्यति तथाऽऽत्मानमकर्तारं स पश्यति ॥ २९ ॥

मूलम्

प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः।
यः पश्यति तथाऽऽत्मानमकर्तारं स पश्यति ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

और जो पुरुष सम्पूर्ण कर्मोंको सब प्रकारसे प्रकृतिके द्वारा ही किये जाते हुए देखता है और आत्माको अकर्ता देखता है, वही यथार्थ देखता है6॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति ।
तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥ ३० ॥

मूलम्

यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति ।
तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस क्षण यह पुरुष भूतोंके पृथक्-पृथक् भावको एक परमात्मामें ही स्थित तथा उस परमात्मासे ही सम्पूर्ण भूतोंका विस्तार देखता है,1 उसी क्षण वह सच्चिदानन्दघन ब्रह्मको प्राप्त हो जाता है॥३०॥
सम्बन्ध—इस प्रकार आत्माको सब प्राणियोंमें समभावसे स्थित, निर्विकार और अकर्ता बतलाया जानेपर यह शंका होती है कि समस्त शरीरोंमें रहता हुआ भी आत्मा उनके दोषोंसे निर्लिप्त और अकर्ता कैसे रह सकता है; इस शंकाका निवारण करनेके लिये अब भगवान्—इस अध्यायके तीसरे श्लोकमें जो ‘यत्प्रभावश्च’ पदसे क्षेत्रज्ञका प्रभाव सुननेका संकेत किया गया था, उसके अनुसार—तीन श्लोकोंद्वारा आत्माके प्रभावका वर्णन करते हैं—

Misc Detail

अनादित्वान्निर्गुणत्वात् परमात्मायमव्ययः २_ ।_

विश्वास-प्रस्तुतिः

शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते ॥ ३१ ॥

मूलम्

शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे अर्जुन! अनादि होनेसे और निर्गुण होनेसे यह अविनाशी परमात्मा3 शरीरमें स्थित होनेपर भी वास्तवमें न तो कुछ करता है और न लिप्त ही होता है6॥३१॥
सम्बन्ध—शरीरमें स्थित होनेपर भी आत्मा क्यों नहीं लिप्त होता? इसपर कहते हैं—

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते।
सर्वत्रावस्थितो देहे तथाऽऽत्मा नोपलिप्यते ॥ ३२ ॥

मूलम्

यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते।
सर्वत्रावस्थितो देहे तथाऽऽत्मा नोपलिप्यते ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस प्रकार सर्वत्र व्याप्त आकाश सूक्ष्म होनेके कारण लिप्त नहीं होता, वैसे ही देहमें सर्वत्र स्थित आत्मा निर्गुण होनेके कारण देहके गुणोंसे लिप्त नहीं होता7
सम्बन्ध—शरीरमें स्थित होनेपर भी आत्मा कर्ता क्यों नहीं है? इसपर कहते हैं—

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः।
क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत ॥ ३३ ॥

मूलम्

यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः।
क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे अर्जुन! जिस प्रकार एक ही सूर्य इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्डको प्रकाशित करता है, उसी प्रकार एक ही आत्मा सम्पूर्ण क्षेत्रको प्रकाशित करता है4॥३३॥
सम्बन्ध—तीसरे श्लोकमें जिन छः बातोंको कहनेका भगवान्‌ने संकेत किया था, उनका वर्णन करके अब इस अध्यायमें वर्णित समस्त उपदेशको भलीभाँति समझनेका फल परब्रह्म परमात्माकी प्राप्ति बतलाते हुए अध्यायका उपसंहार करते हैं—

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा ।
भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम् ॥ ३४ ॥

मूलम्

क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा ।
भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम् ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार क्षेत्र और क्षेत्रज्ञके भेदको तथा कार्यसहित प्रकृतिसे मुक्त होनेको जो पुरुष ज्ञाननेत्रोंद्वारा तत्त्वसे जानते हैं,1 वे महात्माजन परम ब्रह्म परमात्माको प्राप्त होते हैं॥३४॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते भीष्मपर्वणि श्रीमद्भगवद्‌गीतापर्वणि श्रीमद्भगवद्‌गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोगो नाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥ भीष्मपर्वणि तु सप्तत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३७ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्वके श्रीमद्भगवद्‌गीतापर्वके अन्तर्गत ब्रह्मविद्या एवं योगशास्त्ररूप श्रीमद्भगवद्‌गीतोपनिषद्, श्रीकृष्णार्जुनसंवादमें क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोग नामक तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१३॥ भीष्मपर्वमें सैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मूलप्रकृतिरविकृतिर्महदाद्याः प्रकृतिविकृतयः सप्त ।
षोडशकस्तु विकारो न प्रकृतिर्न विकृतिः पुरुषः॥

मूलम्

मूलप्रकृतिरविकृतिर्महदाद्याः प्रकृतिविकृतयः सप्त ।
षोडशकस्तु विकारो न प्रकृतिर्न विकृतिः पुरुषः॥

सूचना (हिन्दी)

(सांख्यकारिका ३)

अर्थात् एक मूल प्रकृति है, वह किसीकी विकृति (विकार) नहीं है। महत्तत्त्व, अहंकार और पंचतन्मात्राएँ (शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्धतन्मात्रा)—ये सात प्रकृति-विकृति हैं अर्थात् ये सातों पंचभूतादिके कारण होनेसे ‘प्रकृति’ भी हैं और मूल प्रकृतिके कार्य होनेसे ‘विकृति’ भी हैं। पंचज्ञानेन्द्रिय, पंचकर्मेन्द्रिय और मन—ये ग्यारह इन्द्रिय और पंचमहाभूत—ये सोलह केवल विकृति (विकार) हैं, वे किसीकी प्रकृति अर्थात् कारण नहीं हैं। इनमें ग्यारह इन्द्रिय तो अहंकारके तथा पाँच स्थूल महाभूत पंचतन्मात्राओंके कार्य हैं; किंतु पुरुष न किसीका कारण है और न किसीका कार्य है, वह सर्वथा असंग है।

योगदर्शनमें कहा है—‘विशेषाविशेषलिंगमात्रालिंगानि गुणपर्वाणि।’ (२।१९) विशेष यानी पंचज्ञानेन्द्रिय, पंचकर्मेन्द्रिय, एक मन और पंच स्थूल भूत; अविशेष यानी अहंकार और पंचतन्मात्राएँ; लिंगमात्र यानी महत्तत्त्व और अलिंग यानी मूल प्रकृति—ये चौबीस तत्त्व गुणोंकी अवस्थाविशेष हैं; इन्हींको ‘दृश्य’ कहते हैं।

योगदर्शनमें जिसको ‘दृश्य’ कहा है, उसीको गीतामें ‘क्षेत्र’ कहा गया है।

जीवोंको ये जन्म, मृत्यु, जरा व्याधि प्राप्त होते हैं—पापोंके परिणामस्वरूप; अतएव ये चारों ही दोषमय हैं। इसीका बार-बार विचार करना इनमें दोषोंको देखना है।

यद्यपि गीताके नवम अध्यायके उन्नीसवें श्लोकमें तो भगवान्‌ने कहा है कि ‘सत्’ भी मैं हूँ और ‘असत्’ भी मैं हूँ और यहाँ यह कहते हैं कि उस जाननेयोग्य परमात्माको न ‘सत्’ कहा जा सकता है और न ‘असत्’; किंतु वहाँ विधिमुखसे वर्णन है, इसलिये भगवान्‌का यह कहना कि ‘सत्’ भी मैं हूँ और ‘असत्’ भी मैं हूँ, उचित ही है। पर यहाँ निषेधमुखसे वर्णन है, किंतु वास्तवमें उस परब्रह्म परमात्माका स्वरूप वाणीके द्वारा न तो विधिमुखसे बतलाया जा सकता है और न निषेधमुखसे ही। उसके विषयमें जो कुछ भी कहा जाता है, सब केवल शाखाचन्द्रन्यायसे उसे लक्ष्य करानेके लिये ही है, उसके साक्षात् स्वरूपका वर्णन वाणीद्वारा हो ही नहीं सकता। श्रुति भी कहती है—‘यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह’ (तैत्तिरीय उप० २।९), अर्थात् ‘मनके सहित वाणी जिसे न पाकर वापस लौट आती है (वह ब्रह्म है)।’ इसी बातको स्पष्ट करनेके लिये यहाँ भगवान्‌ने निषेधमुखसे कहा है कि वह न ‘सत्’ कहा जाता है और न ‘असत्’ ही। अर्थात् मैं जिस ज्ञेयवस्तुका वर्णन करना चाहता हूँ, उसका वास्तविक स्वरूप तो मन-वाणीका अविषय है; अतः उसका जो कुछ भी वर्णन किया जायगा, उसे उसका तटस्थ लक्षण ही समझना चाहिये।

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अपाणिपादो जवनो ग्रहीता पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्णः। (श्वेताश्वतरोपनिषद् ३।१९)

‘वह परमात्मा बिना पैर-हाथके ही वेगसे चलता और ग्रहण करता है तथा बिना नेत्रोंके देखता और बिना कानोंके ही सुनता है।’ अतएव उसका स्वरूप अलौकिक है, इस वर्णनमें यही बात समझायी गयी है।

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प्रकृतेर्महांस्ततोऽहङ्कारस्तस्माद् गणश्च षोडशकः। तस्मादपि षोडशकात् पञ्चभ्यः पञ्च भूतानि॥

सूचना (हिन्दी)

(सांख्यकारिका २२)

‘प्रकृतिसे महत्तत्त्व (समष्टिबुद्धि)-की यानी बुद्धितत्त्वकी, उससे अहंकारकी और अहंकारसे पाँच तन्मात्राएँ, एक मन और दस इन्द्रियाँ—इन सोलहके समुदायकी उत्पत्ति हुई तथा उन सोलहमेंसे पाँच तन्मात्राओंसे पाँच स्थूल भूतोंकी उत्पत्ति हुई।’

गीताके वर्णनमें पाँच तन्मात्राओंकी जगह पाँच सूक्ष्म महाभूतोंका नाम आया है और पाँच स्थूल भूतोंके स्थानमें पाँच इन्द्रियोंके विषयोंका नाम आया है, इतना ही भेद है।

यहाँ ‘सर्वथा वर्तमानः’ का अर्थ निषिद्ध कर्म करता हुआ नहीं समझना चाहिये; क्योंकि आत्मतत्त्वको जाननेवाले ज्ञानीमें काम-क्रोधादि दोषोंका सर्वथा अभाव हो जानेके कारण (गीता ५।२६) उसके द्वारा निषिद्ध कर्मका बनना सम्भव नहीं है। इसीलिये उसके आचरण संसारमें प्रमाणरूप माने जाते हैं (गीता ३।२१)। पापोंमें मनुष्यकी प्रवृत्ति काम-क्रोधादि अवगुणोंके कारण ही होती है; अर्जुनके पूछनेपर भगवान्‌ने तीसरे अध्यायके सैंतीसवें श्लोकमें इस बातको स्पष्टरूपसे कह भी दिया है।

परंतु भेदभावसे सगुण-निराकारका और सगुण-साकारका ध्यान करनेवाले साधक भी यदि इस प्रकारका फल चाहते हों तो उनको भी अभेदभावसे निर्गुण-निराकार सच्चिदानन्दघन ब्रह्मकी प्राप्ति हो सकती है।

यह साधन साधनचतुष्टयसम्पन्न अधिकारीके द्वारा ही सुगमतासे किया जा सकता है। इसका विस्तार ‘गीतातत्त्व-विवेचनी’ में देखना चाहिये।

तत्त्वको जाननेवाले ज्ञानी पुरुषोंका आदेश प्राप्त करके अत्यन्त श्रद्धा और प्रेमके साथ जो जबालाके पुत्र सत्यकामकी भाँति उसके अनुसार आचरण करना है, वही दूसरोंसे सुनकर उपासना करना है।

आत्मा नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त और सब प्रकारके विकारोंसे रहित है; प्रकृतिसे उसका कुछ भी सम्बन्ध नहीं है। अतएव वह न किसी भी कर्मका कर्ता है और न कर्मोंके फलका भोक्ता ही है—इस बातका अपरोक्षभावसे अनुभव कर लेना ‘आत्माको अकर्ता समझना’ है तथा जो ऐसा देखता है, वही यथार्थ देखता है।

उस ज्ञानके द्वारा जो भलीभाँति तत्त्वसे यह समझ लेना है कि महाभूतादि चौबीस तत्त्वोंके समुदायरूप समष्टिशरीरका नाम ‘क्षेत्र’ है; वह जाननेमें आनेवाला, परिवर्तनशील, विनाशी, विकारी, जड, परिणामी और अनित्य है तथा ‘क्षेत्रज्ञ’ उसका ज्ञाता (जाननेवाला), चेतन, निर्विकार, अकर्ता, नित्य, अविनाशी, असंग, शुद्ध, ज्ञानस्वरूप और एक है। इस प्रकार दोनोंमें विलक्षणता होनेके कारण क्षेत्रज्ञ क्षेत्रसे सर्वथा भिन्न है। जो उसकी क्षेत्रके साथ एकता प्रतीत होती है, वह अज्ञानमूलक है। वास्तवमें क्षेत्रज्ञका उससे कुछ भी सम्बन्ध नहीं है। यही ज्ञानचक्षुके द्वारा ‘क्षेत्र’ और ‘क्षेत्रज्ञ’ के भेदको जानना है।

इस श्लोकमें ‘भूत’ शब्द प्रकृतिके कार्यरूप समस्त दृश्यवर्गका और ‘प्रकृति’ उसके कारणका वाचक है। अतः कार्यसहित प्रकृतिसे सर्वथा मुक्त हो जाना ही ‘भूतप्रकृतिमोक्ष’ है तथा उपर्युक्त प्रकारसे क्षेत्र और क्षेत्रज्ञके भेदको जाननेके साथ-साथ जो क्षेत्रज्ञका प्रकृतिसे अलग होकर अपने वास्तविक परमात्मस्वरूपमें अभिन्न-भावसे प्रतिष्ठित हो जाना है, यही कार्यसहित प्रकृतिसे मुक्त हो जानेको जानना है।

अभिप्राय यह है कि जैसे स्वप्नमें मनुष्यको किसी निमित्तसे अपनी जाग्रत्-अवस्थाकी स्मृति हो जानेसे यह मालूम हो जाता है कि यह स्वप्न है, अतः अपने असली शरीरमें जग जाना ही इसके दुःखोंसे छूटनेका उपाय है—इस भावका उदय होते ही वह जग उठता है; वैसे ही ज्ञानयोगीका क्षेत्र और क्षेत्रज्ञकी विलक्षणताको समझकर साथ-ही-साथ जो यह समझ लेना है कि अज्ञानवश क्षेत्रको सच्ची वस्तु समझनेके कारण ही इसके साथ मेरा सम्बन्ध-सा हो रहा था। अतः वास्तविक सच्चिदा-नन्दघन परमात्मस्वरूपमें स्थित हो जाना ही इससे मुक्त होना है; यही उसका कार्यसहित प्रकृतिसे मुक्त होनेको जानना है।


  1. जैसे खेतमें बोये हुए बीजोंका उनके अनुरूप फल समयपर प्रकट होता है, वैसे ही इस शरीरमें बोये हुए कर्म-संस्काररूप बीजोंका फल भी समयपर प्रकट होता रहता है। इसके अतिरिक्त इसका प्रतिक्षण क्षय होता रहता है, इसलिये भी इसे ‘क्षेत्र’ कहते हैं और इसीलिये गीताके पंद्रहवें अध्यायके सोलहवें श्लोकमें इसको ‘क्षर’ पुरुष कहा गया है। ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎

  2. इससे भगवान्‌ने अन्तरात्मा द्रष्टाका लक्ष्य करवाया है। मन, बुद्धि, इन्द्रिय, महाभूत और इन्द्रियोंके विषय आदि जितना भी ज्ञेय (जाननेमें आनेवाला) दृश्यवर्ग है—सब जड, विनाशी, परिवर्तनशील है। चेतन आत्मा उस जड दृश्यवर्गसे सर्वथा विलक्षण है। यह उसका ज्ञाता है, उसमें अनुस्यूत है और उसका अधिपति है। इसीलिये इसे ‘क्षेत्रज्ञ’ कहते हैं। इसी ज्ञाता चेतन आत्माको गीताके सातवें अध्यायमें ‘परा प्रकृति’ (७।५), आठवेंमें ‘अध्यात्म’ (८।३) और पंद्रहवें अध्यायमें ‘अक्षर पुरुष’ (१५।१६) कहा गया है। यह आत्मतत्त्व बड़ा ही गहन है, इसीसे भगवान्‌ने भिन्न-भिन्न प्रकरणोंके द्वारा कहीं स्त्रीवाचक, कहीं नपुंसकवाचक और कहीं पुरुषवाचक नामसे इसका वर्णन किया है। वास्तवमें आत्मा विकारोंसे सर्वथा रहित, अलिंग, नित्य, निर्विकार एवं चेतन—ज्ञानस्वरूप है। ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎

  3. इससे ‘आत्मा’ और ‘परमात्मा’ की एकताका प्रतिपादन किया गया है। आत्मा और परमात्मामें वस्तुतः कुछ भी भेद नहीं है, प्रकृतिके संगसे भेद-सा प्रतीत होता है; इसीलिये गीताके दूसरे अध्यायके चौबीसवें और पचीसवें श्लोकोंमें आत्माके स्वरूपका वर्णन करते हुए जिन शब्दोंका प्रयोग किया है, बारहवें अध्यायके तीसरे श्लोकमें निर्गुण-निराकार परमात्माके लक्षणोंका वर्णन करते समय भी प्रायः उन्हींके भावोंके द्योतक शब्दोंका प्रयोग किया गया है। ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎

  4. ‘यद्विकारि’ पदसे क्षेत्रके विकारोंका वर्णन करनेका संकेत किया है और उनका वर्णन छठे श्लोकमें किया है। ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎

  5. जिन पदार्थोंके समुदायका नाम ‘क्षेत्र’ है, उनमेंसे कौन पदार्थ किससे उत्पन्न हुआ—यह बतलानेका संकेत ‘यतः च यत्’ पदोंसे किया है और उसका वर्णन उन्नीसवें श्लोकके उत्तरार्द्धमें तथा बीसवेंके पूर्वार्द्धमें किया गया है। ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎

  6. ‘यत्’ पदसे भगवान्‌ने क्षेत्रका स्वरूप बतलानेका संकेत किया है और उसे पाँचवें श्लोकमें बतलाया है। ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎

  7. ‘यादृक्’ पदसे क्षेत्रका स्वभाव बतलानेका संकेत किया है और उसका वर्णन छब्बीसवें और सत्ताईसवें श्लोकोंमें समस्त भूतोंको उत्पत्ति-विनाशशील बतलाकर किया है। ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎

  8. ‘सः’ पद ‘क्षेत्रज्ञ’ का वाचक है तथा ‘यः’ पदसे उसका स्वरूप बतलानेका संकेत किया गया है और आगे चलकर उसके प्रकृतिस्थ एवं वास्तविक दोनों स्वरूपोंका वर्णन किया गया है—जैसे उन्नीसवें श्लोकमें उसे ‘अनादि’ बीसवेंमें ‘सुख-दुःखोंका भोक्ता’ एवं इक्कीसवेंमें ‘अच्छी-बुरी योनियोंमें जन्म ग्रहण करनेवाला’ बतलाकर तो प्रकृतिस्थ पुरुषका स्वरूप बतलाया गया है और बाईसवेंमें तथा सत्ताईसवेंसे तीसवेंतक परमात्माके साथ एकता करके उसके वास्तविक स्वरूपका निरूपण किया गया है। ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎

  9. ‘यत्प्रभावः’ से क्षेत्रज्ञका प्रभाव बतलानेके लिये संकेत किया गया है और उसे इकतीसवेंसे तैंतीसवें श्लोकतक बतलाया गया है। ↩︎ ↩︎

  10. गीताके अठारहवें अध्यायके तैंतीसवें, चौंतीसवें और पैंतीसवें श्लोकोंमें जिस धारणशक्तिके सात्त्विक, राजस और तामस—तीन भेद किये गये हैं, उसीका वाचक यहाँ ‘धृति’ है। अन्तःकरणका विकार होनेसे इसकी गणना भी क्षेत्रके विकारोंमें की गयी है। ↩︎ ↩︎

  11. यहाँतक विकारोंसहित क्षेत्रका संक्षेपसे वर्णन हो गया अर्थात् पाँचवें श्लोकमें क्षेत्रका स्वरूप संक्षेपमें बतला दिया गया और छठेमें उसके विकारोंका वर्णन संक्षेपमें कर दिया गया। ↩︎