भागसूचना
चतुस्त्रिंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
(श्रीमद्भगवद्गीतायां दशमोऽध्यायः)
भगवान्की विभूति और योगशक्तिका तथा प्रभावसहित भक्तियोगका कथन, अर्जुनके पूछनेपर भगवान्द्वारा अपनी विभूतियोंका और योगशक्तिका पुनः वर्णन
अनुवाद (हिन्दी)
सम्बन्ध—गीताके सातवें अध्यायसे लेकर नवें अध्यायतक विज्ञानसहित ज्ञानका जो वर्णन किया गया, उसके बहुत गम्भीर हो जानेके कारण अब पुनः उसी विषयको दूसरे प्रकारसे भलीभाँति समझानेके लिये दसवें अध्यायका आरम्भ किया जाता है। यहाँ पहले श्लोकमें भगवान् पूर्वोक्त विषयका ही पुनः वर्णन करनेकी प्रतिज्ञा करते हैं—
मूलम् (वचनम्)
श्रीभगवानुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूय एव महाबाहो शृणु मे परमं वचः।
यत्तेऽहं प्रीयमाणाय ६_ वक्ष्यामि हितकाम्यया ॥ १ ॥_
मूलम्
भूय एव महाबाहो शृणु मे परमं वचः।
यत्तेऽहं प्रीयमाणाय ६_ वक्ष्यामि हितकाम्यया ॥ १ ॥_
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीभगवान् बोले— हे महाबाहो! फिर भी मेरे परम रहस्य और प्रभावयुक्त वचनको सुन,1 जिसे मैं तुझ अतिशय प्रेम रखनेवालेके लिये हितकी इच्छासे कहूँगा॥१॥
सम्बन्ध—पहले श्लोकमें भगवान्ने जिस विषयपर कहनेकी प्रतिज्ञा की है, उसका वर्णन आरम्भ करते हुए वे पहले पाँच श्लोकोंमें योगशब्दवाच्य प्रभावका और अपनी विभूतिका संक्षिप्त वर्णन करते हैं—
विश्वास-प्रस्तुतिः
न मे विदुः सुरगणाः २_ प्रभवं न महर्षयः_ ३_।_
अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः ॥ २ ॥
मूलम्
न मे विदुः सुरगणाः २_ प्रभवं न महर्षयः_ ३_।_
अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरी उत्पत्तिको अर्थात् लीलासे प्रकट होनेको न देवतालोग जानते हैं और न महर्षिजन ही जानते हैं,2 क्योंकि मैं सब प्रकारसे देवताओंका और महर्षियोंका भी आदिकारण हूँ3॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम्।
असम्मूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ ३ ॥
मूलम्
यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम्।
असम्मूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मुझको अजन्मा अर्थात् वास्तवमें जन्मरहित, अनादि और लोकोंका महान् ईश्वर तत्त्वसे जानता है,4 वह मनुष्योंमें ज्ञानवान् पुरुष सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त हो जाता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बुद्धिर्ज्ञानमसम्मोहः ७ ८ ९_ क्षमा सत्यं दमः शमः।_
सुखं दुःखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च ॥ ४ ॥
अहिंसा १_ समता_ २_ तुष्टिस्तपो_ ३_ दानं यशोऽयशः।_
भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः ॥ ५ ॥
मूलम्
बुद्धिर्ज्ञानमसम्मोहः ७ ८ ९_ क्षमा सत्यं दमः शमः।_
सुखं दुःखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च ॥ ४ ॥
अहिंसा १_ समता_ २_ तुष्टिस्तपो_ ३_ दानं यशोऽयशः।_
भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
निश्चय करनेकी शक्ति यथार्थ ज्ञान, असम्मूढता, क्षमा,2 सत्य,3 इन्द्रियोंका वशमें करना, मनका निग्रह तथा सुख-दुःख,4 उत्पत्ति-प्रलय और भय-अभय5 तथा अहिंसा, समता, संतोष तप,6 दान,7 कीर्ति और अपकीर्ति—ऐसे ये प्राणियोंके नाना प्रकारके भाव मुझसे ही होते हैं8॥४-५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो ११_ मनवस्तथा।_
मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमाः प्रजाः ॥ ६ ॥
मूलम्
महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो ११_ मनवस्तथा।_
मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमाः प्रजाः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सात महर्षिजन,1 चार उनसे भी पूर्वमें होनेवाले सनकादि तथा स्वायम्भुव आदि चौदह मनु9—ये मुझमें भाववाले सब-के-सब मेरे संकल्पसे उत्पन्न हुए हैं1, जिनकी संसारमें यह सम्पूर्ण प्रजा है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः।
सोऽविकम्पेन योगेन २_ युज्यते नात्र संशयः ॥ ७ ॥_
मूलम्
एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः।
सोऽविकम्पेन योगेन २_ युज्यते नात्र संशयः ॥ ७ ॥_
अनुवाद (हिन्दी)
जो पुरुष मेरी इस परमैश्वर्यरूप विभूतिको10 और योगशक्तिको2 तत्त्वसे जानता है,3 वह निश्चल भक्तियोगसे युक्त हो जाता है—इसमें कुछ भी संशय नहीं है॥७॥
सम्बन्ध—भगवान्के प्रभाव और विभूतियोंके ज्ञानका फल अविचल भक्तियोगकी प्राप्ति बतलायी गयी, अब दो श्लोकोंमें उस भक्तियोगकी प्राप्तिका क्रम बतलाते हैं—
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते।
इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः ॥ ८ ॥
मूलम्
अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते।
इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं वासुदेव ही सम्पूर्ण जगत्की उत्पत्तिका कारण हूँ और मुझसे ही सब जगत् चेष्टा करता है—इस प्रकार समझकर1 श्रद्धा और भक्तिसे युक्त बुद्धिमान् भक्तजन मुझ परमेश्वरको ही निरन्तर भजते हैं9॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मच्चित्ता 10 मद्गतप्राणा 2 बोधयन्तः परस्परम् 3।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥ ९ ॥
मूलम्
मच्चित्ता 10 मद्गतप्राणा 2 बोधयन्तः परस्परम् 3।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
निरन्तर मुझमें मन लगानेवाले और मुझमें ही प्राणोंको अर्पण करनेवाले भक्तजन मेरी भक्तिकी चर्चाके द्वारा आपसमें मेरे प्रभावको जनाते हुए तथा गुण और प्रभावसहित मेरा कथन करते हुए ही4 निरन्तर सतुष्ट होते हैं5 और मुझ वासुदेवमें ही निरन्तर रमण करते हैं6॥९॥
सम्बन्ध—उपर्युक्त प्रकारसे भजन करनेवाले भक्तोंके प्रति भगवान् क्या करते हैं, अगले दो श्लोकोंमें यह बतलाते हैं—
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ॥ १० ॥
मूलम्
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन निरन्तर मेरे ध्यान आदिमें लगे हुए और प्रेमपूर्वक भजनेवाले1 भक्तोंको मैं वह तत्त्वज्ञानरूप योग देता हूँ9 जिससे वे मुझको ही प्राप्त होते हैं॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः ।
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ३_ ॥ ११ ॥_
मूलम्
तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः ।
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ३_ ॥ ११ ॥_
अनुवाद (हिन्दी)
हे अर्जुन! उनके ऊपर अनुग्रह करनेके लिये उनके अन्तःकरणमें स्थित हुआ मैं स्वयं ही उनके अज्ञानजनित अन्धकारको प्रकाशमय तत्त्वज्ञानरूप दीपकके द्वारा नष्ट कर देता हूँ2॥११॥
सम्बन्ध—गीताके सातवें अध्यायके पहले श्लोकमें अपने समग्ररूपका ज्ञान करानेवाले जिस विषयको सुननेके लिये भगवान्ने अर्जुनको आज्ञा दी थी तथा दूसरे श्लोकमें जिस विज्ञानसहित ज्ञानको पूर्णतया कहनेकी प्रतिज्ञा की थी, उसका वर्णन भगवान्ने सातवें अध्यायमें किया। उसके बाद आठवें अध्यायमें अर्जुनके सात प्रश्नोंका उत्तर देते हुए भी भगवान्ने उसी विषयका स्पष्टीकरण किया; किंतु वहाँ कहनेकी शैली दूसरी रही, इसलिये नवम अध्यायके आरम्भमें पुनः विज्ञानसहित ज्ञानका वर्णन करनेकी प्रतिज्ञा करके उसी विषयको अंग-प्रत्यंगोंसहित भलीभाँति समझाया। तदनन्तर दूसरे शब्दोंमें पुनः उसका स्पष्टीकरण करनेके लिये दसवें अध्यायके पहले श्लोकमें उसी विषयको पुनः कहनेकी प्रतिज्ञा की और पाँच श्लोकोंद्वारा अपनी योगशक्ति और विभूतियोंका वर्णन करके सातवें श्लोकमें उनके जाननेका फल अविचल भक्तियोगकी प्राप्ति बतलायी। फिर आठवें और नवें श्लोकोंमें भक्तियोगके द्वारा भगवान्के भजनमें लगे हुए भक्तोंके भाव और आचरणका वर्णन किया और दसवें तथा ग्यारहवेंमें उसका फल अज्ञानजनित अन्धकारका नाश और भगवान्की प्राप्ति करा देनेवाले बुद्धियोगकी प्राप्ति बतलाकर उस विषयका उपसंहार कर दिया। इसपर भगवान्की विभूति और योगको तत्त्वसे जानना भगवत्प्राप्तिमें परम सहायक है, यह बात समझकर अब सात श्लोकोंमें अर्जुन पहले भगवान्की स्तुति करके भगवान्से उनकी योगशक्ति और विभूतियोंका विस्तारसहित वर्णन करनेके लिये प्रार्थना करते हैं—
मूलम् (वचनम्)
अर्जुन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान्।
पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम् ॥ १२ ॥
आहुस्त्वामृषयः ५_ सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा ।_
असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे ॥ १३ ॥
मूलम्
परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान्।
पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम् ॥ १२ ॥
आहुस्त्वामृषयः ५_ सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा ।_
असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुन बोले— आप परम ब्रह्म, परम धाम और परम पवित्र हैं;1 क्योंकि आपको सब ऋषिगण9 सनातन, दिव्य पुरुष एवं देवोंका भी आदिदेव, अजन्मा और सर्वव्यापी कहते हैं। वैसे ही देवर्षि10 नारद तथा असित और देवल ऋषि तथा महर्षि व्यास भी कहते हैं1 और स्वयं आप भी मेरे प्रति कहते हैं9॥१२-१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव।
न हि ते भगवन् व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः॥१४॥
मूलम्
सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव।
न हि ते भगवन् व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः॥१४॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे केशव!10 जो कुछ भी मेरे प्रति आप कहते हैं, इस सबको मैं सत्य मानता हूँ2। हे भगवन्!3 आपके लीलामय स्वरूपको न तो दानव जानते हैं न देवता ही4॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वयमेवात्मनाऽऽत्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम।
भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते ॥ १५ ॥
मूलम्
स्वयमेवात्मनाऽऽत्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम।
भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे भूतोंको उत्पन्न करनेवाले! हे भूतोंके ईश्वर! हे देवोंके देव! हे जगत्के स्वामी! हे पुरुषोत्तम!5 आप स्वयं ही अपनेसे अपनेको जानते हैं6॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतयः ।
याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि ॥ १६ ॥
मूलम्
वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतयः ।
याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये आप ही उन अपनी दिव्य विभूतियोंको सम्पूर्णतासे कहनेमें समर्थ हैं, जिन विभूतियोंके द्वारा आप इन सब लोकोंको व्याप्त करके स्थित हैं॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन्।
केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन् मया ॥ १७ ॥
मूलम्
कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन्।
केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन् मया ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे योगेश्वर! मैं किस प्रकार निरन्तर चिन्तन करता हुआ आपको जानूँ और हे भगवन्! आप किन-किन भावोंमें मेरे द्वारा चिन्तन करनेयोग्य हैं1॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन।
भूयः कथय तृप्तिर्हि शृण्वतो नास्ति मेऽमृतम् ॥ १८ ॥
मूलम्
विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन।
भूयः कथय तृप्तिर्हि शृण्वतो नास्ति मेऽमृतम् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे जनार्दन!9 अपनी योगशक्तिको और विभूतिको फिर भी विस्तारपूर्वक कहिये; क्योंकि आपके अमृतमय वचनोंको सुनते हुए मेरी तृप्ति नहीं होती10 अर्थात् सुननेकी उत्कण्ठा बनी ही रहती है॥१८॥
सम्बन्ध—अर्जुनके द्वारा योग और विभूतियोंका विस्तार-पूर्वक पूर्णरूपसे वर्णन करनेके लिये प्रार्थना की जानेपर भगवान् पहले अपने विस्तारकी अनन्तता बतलाकर प्रधानतासे अपनी विभूतियोंका वर्णन करनेकी प्रतिज्ञा करते हैं—
मूलम् (वचनम्)
श्रीभगवानुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः।
प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे ॥ १९ ॥
मूलम्
हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः।
प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीभगवान् बोले— हे कुरुश्रेष्ठ! अब मैं जो मेरी दिव्य विभूतियाँ हैं, उनको तेरे लिये प्रधानतासे कहूँगा; क्योंकि मेरे विस्तारका अन्त नहीं है2॥१९॥
सम्बन्ध—अब अपनी प्रतिज्ञाके अनुसार भगवान् बीसवेंसे उनतालीसवें श्लोकतक पहले अपनी विभूतियों-का वर्णन करते हैं—
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहमात्मा गुडाकेश ५_ सर्वभूताशयस्थितः ।_
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च ॥ २० ॥
मूलम्
अहमात्मा गुडाकेश ५_ सर्वभूताशयस्थितः ।_
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे अर्जुन! मैं सब भूतोंके हृदयमें स्थित सबका आत्मा हूँ1 तथा सम्पूर्ण भूतोंका आदि, मध्य और अन्त भी मैं ही हूँ9॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आदित्यानामहं विष्णुर्ज्योतिषां रविरंशुमान् ।
मरीचिर्मरुतामस्मि नक्षत्राणामहं शशी ॥ २१ ॥
मूलम्
आदित्यानामहं विष्णुर्ज्योतिषां रविरंशुमान् ।
मरीचिर्मरुतामस्मि नक्षत्राणामहं शशी ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं अदितिके बारह पुत्रोंमें विष्णु10 और ज्योतियोंमें किरणोंवाला सूर्य हूँ2 तथा मैं उनचास वायु-देवताओंका तेज3 और नक्षत्रोंका अधिपति चन्द्रमा हूँ4॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः।
इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना ॥ २२ ॥
मूलम्
वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः।
इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं वेदोंमें सामवेद हूँ,5 देवोंमें इन्द्र हूँ, इन्द्रियोंमें मन हूँ और भूतप्राणियोंकी चेतना अर्थात् जीवनी शक्ति हूँ6॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रुद्राणां शंकरश्चास्मि वित्तेशो यक्षरक्षसाम्।
वसूनां पावकश्चास्मि मेरुः शिखरिणामहम् ॥ २३ ॥
मूलम्
रुद्राणां शंकरश्चास्मि वित्तेशो यक्षरक्षसाम्।
वसूनां पावकश्चास्मि मेरुः शिखरिणामहम् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं एकादश रुद्रोंमें शंकर हूँ1 और यक्ष तथा राक्षसोंमें धनका स्वामी कुबेर हूँ। मैं आठ वसुओंमें अग्नि हूँ9 और शिखरवाले पर्वतोंमें सुमेरु पर्वत हूँ10॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम्।
सेनानीनामहं स्कन्दः सरसामस्मि सागरः ॥ २४ ॥
मूलम्
पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम्।
सेनानीनामहं स्कन्दः सरसामस्मि सागरः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरोहितोंमें मुखिया बृहस्पति मुझको जान2। हे पार्थ! मैं सेनापतियोंमें स्कन्द3 और जलाशयोंमें समुद्र हूँ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम् ।
यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः ॥ २५ ॥
मूलम्
महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम् ।
यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं महर्षियोंमें भृगु4 और शब्दोंमें एक अक्षर अर्थात् ओंकार हूँ1। सब प्रकारके यज्ञोंमें जपयज्ञ9 और स्थिर रहनेवालोंमें हिमालय पहाड़ हूँ10॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारदः।
गन्धर्वाणां चित्ररथः सिद्धानां कपिलो मुनिः ॥ २६ ॥
मूलम्
अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारदः।
गन्धर्वाणां चित्ररथः सिद्धानां कपिलो मुनिः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं सब वृक्षोंमें पीपलका वृक्ष,2 देवर्षियोंमें नारद मुनि3, गन्धर्वोंमें चित्ररथ4 और सिद्धोंमें कपिल मुनि हूँ5॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उच्चैःश्रवसमश्वानां विद्धि माममृतोद्भवम् ।
ऐरावतं गजेन्द्राणां नराणां च नराधिपम् ॥ २७ ॥
मूलम्
उच्चैःश्रवसमश्वानां विद्धि माममृतोद्भवम् ।
ऐरावतं गजेन्द्राणां नराणां च नराधिपम् ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
घोड़ोंमें अमृतके साथ उत्पन्न होनेवाला उच्चैःश्रवा नामक घोड़ा, श्रेष्ठ हाथियोंमें ऐरावत नामक हाथी6 और मनुष्योंमें राजा १_ मुझको जान॥२७॥_
विश्वास-प्रस्तुतिः
आयुधानामहं वज्रं धेनूनामस्मि कामधुक्।
प्रजनश्चास्मि कन्दर्पः सर्पाणामस्मि वासुकिः ॥ २८ ॥
मूलम्
आयुधानामहं वज्रं धेनूनामस्मि कामधुक्।
प्रजनश्चास्मि कन्दर्पः सर्पाणामस्मि वासुकिः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं शास्त्रोंमें वज्र9 और गौओंमें कामधेनु10 हूँ। शास्त्रोक्त रीतिसे संतानकी उत्पत्तिका हेतु कामदेव2 हूँ और सर्पोंमें सर्पराज वासुकि3 हूँ॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम्।
पितॄणामर्यमा चास्मि यमः संयमतामहम् ॥ २९ ॥
मूलम्
अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम्।
पितॄणामर्यमा चास्मि यमः संयमतामहम् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं नागोंमें शेषनाग4 और जलचरोंका अधिपति वरुणदेवता5 हूँ और पितरोंमें अर्यमा6 नामक पितर तथा शासन करनेवालोंमें यमराज7 मैं हूँ॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रह्लादश्चास्मि दैत्यानां कालः १०_ कलयतामहम्।_
मृगाणां च मृगेन्द्रोऽहं वैनतेयश्च पक्षिणाम् ॥ ३० ॥
मूलम्
प्रह्लादश्चास्मि दैत्यानां कालः १०_ कलयतामहम्।_
मृगाणां च मृगेन्द्रोऽहं वैनतेयश्च पक्षिणाम् ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं दैत्योंमें प्रह्लाद11 और गणना करनेवालोंका समय हूँ तथा पशुओंमें मृगराज12 सिंह और पक्षियोंमें मैं गरुड़13 हूँ॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पवनः पवतामस्मि रामः शस्त्रभृतामहम्।
झषाणां मकरश्चास्मि स्रोतसामस्मि जाह्नवी ॥ ३१ ॥
मूलम्
पवनः पवतामस्मि रामः शस्त्रभृतामहम्।
झषाणां मकरश्चास्मि स्रोतसामस्मि जाह्नवी ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं पवित्र करनेवालोंमें वायु और शस्त्रधारियोंमें श्रीराम1 हूँ तथा मछलियोंमें मगर9 हूँ और नदियोंमें श्रीभागीरथी गंगाजी हूँ10॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन ।
अध्यात्मविद्या विद्यानां वादः प्रवदतामहम् ॥ ३२ ॥
मूलम्
सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन ।
अध्यात्मविद्या विद्यानां वादः प्रवदतामहम् ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे अर्जुन! सृष्टियोंका आदि और अन्त तथा मध्य भी मैं ही हूँ। मैं विद्याओंमें अध्यात्मविद्या2 अर्थात् ब्रह्मविद्या और परस्पर विवाद करने-वालोंका तत्त्व-निर्णयके लिये किया जानेवाला वाद3 हूँ॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अक्षराणामकारोऽस्मि द्वन्द्वः सामासिकस्य च।
अहमेवाक्षयः कालो धाताहं विश्वतोमुखः ॥ ३३ ॥
मूलम्
अक्षराणामकारोऽस्मि द्वन्द्वः सामासिकस्य च।
अहमेवाक्षयः कालो धाताहं विश्वतोमुखः ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं अक्षरोंमें अकार4 हूँ और समासोंमें द्वन्द्व5 नामक समास हूँ। अक्षय काल6 अर्थात् कालका भी महाकाल तथा सब ओर मुखवाला विराट्स्वरूप, सबका धारण-पोषण करनेवाला भी मैं ही हूँ॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मृत्युः सर्वहरश्चाहमुद्भवश्च भविष्यताम् ।
कीर्तिः श्रीर्वाक् च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमा ॥ ३४ ॥
मूलम्
मृत्युः सर्वहरश्चाहमुद्भवश्च भविष्यताम् ।
कीर्तिः श्रीर्वाक् च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमा ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं सबका नाश करनेवाला मृत्यु और उत्पन्न होनेवालोंका उत्पत्तिहेतु1 हूँ तथा स्त्रियोंमें कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति, मेधा, धृति और क्षमा9 हूँ॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम्।
मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः ॥ ३५ ॥
मूलम्
बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम्।
मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तथा गायन करनेयोग्य श्रुतियोंमें मैं बृहत्साम10 और छन्दोंमें गायत्री2 छन्द हूँ तथा महीनोंमें मार्गशीर्ष3 और ऋतुओंमें वसन्त4 मैं हूँ॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्यूतं छलयतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम् ।
जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं सत्त्ववतामहम् ॥ ३६ ॥
मूलम्
द्यूतं छलयतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम् ।
जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं सत्त्ववतामहम् ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं छल करनेवालोंमें जूआ1 और प्रभावशाली पुरुषोंका प्रभाव हूँ। मैं जीतनेवालोंका विजय हूँ। निश्चय करनेवालोंका निश्चय और सात्त्विक पुरुषोंका सात्त्विकभाव9 हूँ॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनंजयः।
मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः ॥ ३७ ॥
मूलम्
वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनंजयः।
मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वृष्णिवंशियोंमें वासुदेव10 अर्थात् मैं स्वयं तेरा सखा, पाण्डवोंमें धनंजय2 अर्थात् तू, मुनियोंमें वेदव्यास3 और कवियोंमें शुक्राचार्य कवि4 भी मैं ही हूँ॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम्।
मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम् ७_ ॥ ३८ ॥_
मूलम्
दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम्।
मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम् ७_ ॥ ३८ ॥_
अनुवाद (हिन्दी)
मैं दमन करनेवालोंका दण्ड6 अर्थात् दमन करनेकी शक्ति हूँ, जीतनेकी इच्छावालोंकी नीति1 हूँ, गुप्त रखनेयोग्य भावोंका रक्षक मौन9 हूँ और ज्ञानवानोंका तत्त्वज्ञान मैं ही हूँ॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन।
न तदस्ति विना यत् स्यान्मया भूतं चराचरम् ॥ ३९ ॥
मूलम्
यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन।
न तदस्ति विना यत् स्यान्मया भूतं चराचरम् ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
और हे अर्जुन! जो सब भूतोंकी उत्पत्तिका कारण है, वह भी मैं ही हूँ;10 क्योंकि ऐसा चर और अचर कोई भी भूत नहीं है, जो मुझसे रहित हो2॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परंतप।
एष तूद्देशतः प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया ॥ ४० ॥
मूलम्
नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परंतप।
एष तूद्देशतः प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे परंतप! मेरी दिव्य विभूतियोंका अन्त नहीं है, मैंने अपनी विभूतियोंका यह विस्तार तो तेरे लिये एकदेशसे अर्थात् संक्षेपसे कहा है॥४०॥
सम्बन्ध—अठारहवें श्लोकमें अर्जुनने भगवान्से उनकी विभूति और योगशक्तिका वर्णन करनेकी प्रार्थना की थी, उसके अनुसार भगवान् अपनी दिव्य विभूतियोंका वर्णन समाप्त करके अब संक्षेपमें अपनी योगशक्तिका वर्णन करते हैं—
विश्वास-प्रस्तुतिः
यद् यद् विभूतिमत् सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा॥
तत् तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसम्भवम् ॥ ४१ ॥
मूलम्
यद् यद् विभूतिमत् सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा॥
तत् तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसम्भवम् ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो-जो भी विभूतियुक्त अर्थात् ऐश्वर्ययुक्त, कान्तियुक्त और शक्तियुक्त वस्तु है, उस-उसको तू मेरे तेजके अंशकी ही अभिव्यक्ति3 जान॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथवा बहुनैतेन किं ज्ञानेत तवार्जुन।
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नकांशेन स्थितो जगत् ॥ ४२ ॥
मूलम्
अथवा बहुनैतेन किं ज्ञानेत तवार्जुन।
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नकांशेन स्थितो जगत् ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अथवा हे अर्जुन! इस बहुत जाननेसे तेरा क्या प्रयोजन है?1 मैं इस सम्पूर्ण जगत्को अपनी योगशक्तिके9 एक अंशमात्रसे धारण करके स्थित हूँ॥४२॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते भीष्मपर्वणि श्रीमद्भगवद्गीतापर्वणि श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे विभूतियोगो नाम दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥ भीष्मपर्वणि तु चतुस्त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३४ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्वके श्रीमद्भगवद्गीतापर्वके अन्तर्गत ब्रह्मविद्या एवं योगशास्त्ररूप श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद्, श्रीकृष्णार्जुनसंवादमें विभूतियोग नामक दसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१०॥ भीष्मपर्वमें चौंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३४॥
मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट, पतंग आदि प्राणियोंके निमित्तसे प्राप्त होनेवाले कष्टोंको ‘आधिभौतिक’, अनावृष्टि, अतिवृष्टि, भूकम्प, वज्रपात और अकाल आदि दैवीप्रकोपसे होनेवाले कष्टोंको ‘आधिदैविक’ और शरीर, इन्द्रिय तथा अन्तःकरणमें किसी प्रकारके रोगसे होनेवाले कष्टोंको ‘आध्यात्मिक’ दुःख कहते हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तप्तं तपो विविधलोकसिसृक्षया मे आदौ सनात् स्वतपसः स चतुःसनोऽभूत्।
प्राक्कल्पसम्प्लवविनष्टमिहात्मतत्त्वं सम्यग् जगाद मुनयो यदचक्षतात्मन्॥
मूलम्
तप्तं तपो विविधलोकसिसृक्षया मे आदौ सनात् स्वतपसः स चतुःसनोऽभूत्।
प्राक्कल्पसम्प्लवविनष्टमिहात्मतत्त्वं सम्यग् जगाद मुनयो यदचक्षतात्मन्॥
मूलम् (समाप्तिः)
(श्रीमद्भागवत २।७।५)
‘मैंने विविध प्रकारके लोकोंको उत्पन्न करनेकी इच्छासे जो सबसे पहले तप किया, उस मेरी अखण्डित तपस्यासे ही भगवान् स्वयं सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार—इन चार ‘सन’ नामवाले रूपोंमें प्रकट हुए और पूर्वकल्पमें प्रलयकालके समय जो आत्मतत्त्वके ज्ञानका प्रचार इस संसारमें नष्ट हो गया था, उसका इन्होंने भलीभाँति उपदेश किया, जिससे उन मुनियोंने अपने हृदयमें आत्मतत्त्वका साक्षात्कार किया।’
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतान् भावानधीयाना ये चैत ऋषयो मताः। सप्तैते सप्तभिश्चैव गुणैः सप्तर्षयः स्मृताः॥
दीर्घायुषो मन्त्रकृत ईश्वरा दिव्यचक्षुषः। वृद्धाः प्रत्यक्षधर्माणो गोत्रप्रवर्तकाश्च ये॥
मूलम्
एतान् भावानधीयाना ये चैत ऋषयो मताः। सप्तैते सप्तभिश्चैव गुणैः सप्तर्षयः स्मृताः॥
दीर्घायुषो मन्त्रकृत ईश्वरा दिव्यचक्षुषः। वृद्धाः प्रत्यक्षधर्माणो गोत्रप्रवर्तकाश्च ये॥
मूलम् (समाप्तिः)
(वायुपुराण ६१।९३-९४)
‘तथा देवर्षियोंके इन (उपर्युक्त) भावोंका जो अध्ययन (स्मरण) करनेवाले हैं, वे ऋषि माने गये हैं; इन ऋषियोंमें जो दीर्घायु, मन्त्रकर्ता, ऐश्वर्यवान्, दिव्य-दृष्टियुक्त, गुण, विद्या और आयुमें वृद्ध, धर्मका प्रत्यक्ष (साक्षात्कार) करनेवाले और गोत्र चलानेवाले हैं—ऐसे सातों गुणोंसे युक्त सात ऋषियोंको ही सप्तर्षि कहते हैं।’ इन्हींसे प्रजाका विस्तार होता है और धर्मकी व्यवस्था चलती है।
यहाँ जिन सप्तर्षियोंका वर्णन है, उनको भगवान्ने ‘महर्षि’ कहा है और उन्हें संकल्पसे उत्पन्न बतलाया है। इसलिये यहाँ उन्हींका लक्ष्य है, जो ऋषियोंसे भी उच्चस्तरके हैं। ऐसे सप्तर्षियोंका उल्लेख महाभारत-शान्तिपर्वमें मिलता है; इनके लिये साक्षात् परम पुरुष परमेश्वरने देवताओंसहित ब्रह्माजीसे कहा है—
विश्वास-प्रस्तुतिः
मरीचिरङ्गिराश्चात्रिः पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः। वसिष्ठ इति सप्तैते मानसा निर्मिता हि ते॥
एते वेदविदो मुख्या वेदाचार्याश्च कल्पिताः। प्रवृत्तिधर्मिणश्चैव प्राजापत्ये च कल्पिताः॥
मूलम्
मरीचिरङ्गिराश्चात्रिः पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः। वसिष्ठ इति सप्तैते मानसा निर्मिता हि ते॥
एते वेदविदो मुख्या वेदाचार्याश्च कल्पिताः। प्रवृत्तिधर्मिणश्चैव प्राजापत्ये च कल्पिताः॥
मूलम् (समाप्तिः)
(महा०, शान्ति० ३४०।६९-७०)
‘मरीचि, अंगिरा, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु और वसिष्ठ—ये सातों महर्षि तुम्हारे (ब्रह्माजीके) द्वारा ही अपने मनसे रचे हुए हैं। ये सातों वेदके ज्ञाता हैं, इनको मैंने मुख्य वेदाचार्य बनाया है। ये प्रवृतिमार्गका संचालन करनेवाले हैं और (मेरे ही द्वारा) प्रजापतिके कर्ममें नियुक्त किये गये हैं।’
इस कल्पके सर्वप्रथम स्वायम्भुव मन्वन्तरके सप्तर्षि यही हैं (हरिवंश० ७।८, ९)। अतएव यहाँ सप्तर्षियोंसे इन्हींका ग्रहण करना चाहिये।
सूर्यसिद्धान्तमें मन्वन्तर आदिका जो वर्णन है, उसके अनुसार इस प्रकार समझना चाहिये—
सौरमानसे ४३,२०,००० वर्षकी अथवा देवमानसे १२,००० वर्षकी एक चतुर्युगी होती है। इसीको महायुग कहते हैं। ऐसे इकहतर युगोंका एक मन्वन्तर होता है। प्रत्येक मन्वन्तरके अन्तमें सत्ययुगके मानकी अर्थात् १७,२८,००० वर्षकी संध्या होती है। मन्वन्तर बीतनेपर जब संध्या होती है, तब सारी पृथ्वी जलमें डूब जाती है। प्रत्येक कल्पमें (ब्रह्माके एक दिनमें) चौदह मन्वन्तर अपनी-अपनी संध्याओंके मानके सहित होते हैं। इसके सिवा कल्पके आरम्भकालमें भी एक सत्ययुगके मानकालकी संध्या होती है। इस प्रकार एक कल्पके चौदह मनुओंमें ७१ चतुर्युगीके अतिरिक्त सत्ययुगके मानकी १५ संध्याएँ होती हैं। ७१ महायुगोंके मानसे १४ मनुओंमें ९९४ महायुग होते हैं और सत्ययुगके मानकी १५ संध्याओंका काल पूरा ६ महायुगोंके समान हो जाता है। दोनोंका योग मिलानेपर पूरे एक हजार महायुग या दिव्ययुग बीत जाते हैं।
इस हिसाबसे निम्नलिखित अंकोंके द्वारा इसको समझिये—
ब्रह्माजीका दिन ही कल्प है, इतनी ही बड़ी उनकी रात्रि है। इस अहोरात्रके मानसे ब्रह्माजीकी परमायु एक सौ वर्ष है। इसे ‘पर’ कहते हैं। इस समय ब्रह्माजी अपनी आयुका आधा भाग अर्थात् एक परार्द्ध बिताकर दूसरे परार्द्धमें चल रहे हैं। यह उनके ५१ वें वर्षका प्रथम दिन या कल्प है। वर्तमान कल्पके आरम्भसे अबतक स्वायम्भुव आदि छः मन्वन्तर अपनी-अपनी संध्याओंसहित बीत चुके हैं, कल्पकी संध्यासमेत सात संध्याएँ बीत चुकी हैं। वर्तमान सातवें वैवस्वत मन्वन्तरके २७चतुर्युग बीत चुके हैं। इस समय अट्ठाईसवें चतुर्युगके कलियुगका संध्याकाल चल रहा है (सूर्यसिद्धान्त, मध्यमाधिकार, श्लोक १५ से २४ देखिये)।
इस २०१३ वि० तक कलियुगके ५०५७ वर्ष बीते हैं। कलियुगके आरम्भमें ३६,००० वर्ष संध्याकालका मान होता है। इस हिसाबसे अभी कलियुगकी संध्याके ३०,९४३ सौर वर्ष बीतने बाकी हैं।
प्रत्येक मन्वन्तरमें धर्मकी व्यवस्था और लोकरक्षणके लिये भिन्न-भिन्न सप्तर्षि होते हैं। एक मन्वन्तरके बीत जानेपर जब मनु बदल जाते हैं, तब उन्हींके साथ सप्तर्षि, देवता, इन्द्र और मनुपुत्र भी बदल जाते हैं। वर्तमान कल्पके मनुओंके नाम ये हैं—स्वायम्भुव, स्वारोचिष, उत्तम, तामस, रैवत, चाक्षुष, वैवस्वत, सावर्णि, दक्षसावर्णि, ब्रह्मसावर्णि, धर्मसावर्णि, रुद्रसावर्णि, देवसावर्णि और इन्द्रसावर्णि।
श्रीमद्भातावतके आठवें स्कन्दके पहले, पाँचवें और तेरहवें अध्यायोंमें इनका विस्तारसे वर्णन पढ़ना चाहिये। विभिन्न पुराणोंमें इनके नामभेद मिलते हैं। यहाँ ये नाम श्रीमद्भागवतके अनुसार दिये गये हैं।
चौदह मनुओंका एक कल्प बीत जानेपर सब मनु भी बदल जाते हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मूलम्
मूलम् (समाप्तिः)
(वायुपुराण ५९।७९, ८१)
‘ऋष्’ धातु गमन (ज्ञान), श्रवण, सत्य और तप—इन अर्थोंमें प्रयुक्त होता है। ये सब बातें जिसके अंदर एक साथ निश्चित-रूपसे हों, उसीका नाम ब्रह्माने ‘ऋषि’ रखा है। गत्यर्थक ‘ऋष’ धातुसे ही ‘ऋषि’ शब्दकी निष्पत्ति हुई है और आदिकालमें चूँकि यह ऋषिवर्ग स्वयं उत्पन्न होता है, इसीलिये इसकी ‘ऋषि’ संज्ञा है।’
परम सत्यवादी धर्ममूर्ति पितामह भीष्मजीने भी दुर्योधनको भगवान् श्रीकृष्णका प्रभाव बतलाते हुए कहा है—‘भगवान् वासुदेव सब देवताओंके देवता और सबसे श्रेष्ठ हैं; ये ही धर्म हैं, धर्मज्ञ हैं, वरद हैं, सब कामनाओंको पूर्ण करनेवाले हैं और ये ही कर्ता, कर्म और स्वयंप्रभु हैं। भूत, भविष्यत्, वर्तमान, संध्या, दिशाएँ, आकाश और सब नियमोंको इन्हीं जनार्दनने रचा है। इन महात्मा अविनाशी प्रभुने ऋषि, तप और जगत्की सृष्टि करनेवाले प्रजापतिको रचा। सब प्राणियोंके अग्रज संकर्षणको भी इन्होंने ही रचा। लोक जिनको ‘अनन्त’ कहते हैं और जिन्होंने पहाड़ोसमेत सारी पृथ्वीको धारण कर रखा है, वे शेषनाग भी इन्हींसे उत्पन्न हैं; ये ही वाराह, नृसिंह और वामनका अवतार धारण करनेवाले हैं; ये ही सबके माता-पिता हैं, इनसे श्रेष्ठ और कोई भी नहीं है; ये ही केशव परम तेजरूप हैं और सब लोगोंके पितामह हैं, मुनिगण इन्हें हृषीकेश कहते हैं, ये ही आचार्य, पितर और गुरु हैं। ये श्रीकृष्ण जिसपर प्रसन्न होते हैं, उसे अक्षय लोककी प्राप्ति होती है। भय प्राप्त होनेपर जो इन भगवान् केशवके शरण जाता है और इनकी स्तुति करता है, वह मनुष्य परम सुखको प्राप्त होता है। जो लोग भगवान् श्रीकृष्णकी शरणमें चले जाते हैं, वे कभी मोहको नहीं प्राप्त होते। महान् भय (संकट)-में डूबे हुए लोगोंकी भी भगवान् जनार्दन नित्य रक्षा करते हैं।’
मूलम् (समाप्तिः)
(महा०, भीष्म० अ० ६७)।
विश्वास-प्रस्तुतिः
………………………………………………. । देवलोकप्रतिष्ठाश्च ज्ञेया देवर्षयः शुभाः ॥
देवर्षयस्तथान्ये च तेषां वक्ष्यामि लक्षणम्। भूतभव्यभवज्ज्ञानं सत्याभिव्याहृतं तथा॥
सम्बुद्धास्तु स्वयं ये तु सम्बद्धा ये च वै स्वयम्। तपसेह प्रसिद्धा ये गर्भे यैश्च प्रणोदितम्॥
मन्त्रव्याहारिणो ये च ऐश्वर्यात् सर्वगाश्च ये। इत्येते ऋषिभिर्युक्ता देवद्विजनृपास्तु ये॥
मूलम्
………………………………………………. । देवलोकप्रतिष्ठाश्च ज्ञेया देवर्षयः शुभाः ॥
देवर्षयस्तथान्ये च तेषां वक्ष्यामि लक्षणम्। भूतभव्यभवज्ज्ञानं सत्याभिव्याहृतं तथा॥
सम्बुद्धास्तु स्वयं ये तु सम्बद्धा ये च वै स्वयम्। तपसेह प्रसिद्धा ये गर्भे यैश्च प्रणोदितम्॥
मन्त्रव्याहारिणो ये च ऐश्वर्यात् सर्वगाश्च ये। इत्येते ऋषिभिर्युक्ता देवद्विजनृपास्तु ये॥
मूलम् (समाप्तिः)
(वायुपुराण ६१।८८, ९०, ९१, ९२)
‘जिनका देवलोकमें निवास है, उन्हें शुभ देवर्षि समझना चाहिये। इनके सिवा वैसे ही जो दूसरे और भी देवर्षि हैं, उनके लक्षण कहता हूँ। भूत, भविष्यत् और वर्तमानका ज्ञान होना तथा सब प्रकारसे सत्य बोलना—देवर्षिका लक्षण है।
जो स्वयं भलीभाँति ज्ञानको प्राप्त हैं तथा जो स्वयं अपनी इच्छासे ही संसारसे सम्बद्ध हैं, जो अपनी तपस्याके कारण इस संसारमें विख्यात हैं, जिन्होंने (प्रह्लादादिको) गर्भमें ही उपदेश दिया है, जो मन्त्रोंके वक्ता हैं और ऐश्वर्य (सिद्धियों)-के बलसे सर्वत्र सब लोकोंमें बिना किसी बाधाके जा-आ सकते हैं और जो सदा ऋषियोंसे घिरे रहते हैं, वे देवता, ब्राह्मण और राजा—ये सभी देवर्षि हैं।’
देवर्षि अनेकों हैं, जिनमेंसे कुछके नाम ये हैं—
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवर्षी धर्मपुत्रौ तु नरनारायणाचुभौ। बालखिल्याः क्रतोः पुत्राः कर्दमः पुलहस्य तु॥
पर्वतो नारदश्चैव कश्यपस्यात्मजावुभौ। ऋषन्ति देवान् यस्मात्ते तस्माद् देवर्षयः स्मृताः॥
मूलम्
देवर्षी धर्मपुत्रौ तु नरनारायणाचुभौ। बालखिल्याः क्रतोः पुत्राः कर्दमः पुलहस्य तु॥
पर्वतो नारदश्चैव कश्यपस्यात्मजावुभौ। ऋषन्ति देवान् यस्मात्ते तस्माद् देवर्षयः स्मृताः॥
मूलम् (समाप्तिः)
(वायुपुराण ६१।८३, ८४, ८५)
‘धर्मके दोनों पुत्र नर और नारायण, क्रतुके पुत्र बालखिल्य ऋषि, पुलहके कर्दम, पर्वत और नारद तथा कश्यपके दोनों ब्रह्मवादी पुत्र असित और वत्सल—ये चूँकि देवताओंको अधीन रख सकते हैं, इसलिये इन्हें ‘देवर्षि’ कहते हैं।’
Misc Detail
ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियः। ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णां भग इतीरणा॥
मूलम् (समाप्तिः)
(६।५।७४)
‘सम्पूर्ण ऐश्वर्य, सम्पूर्ण धर्म, सम्पूर्ण यश, सम्पूर्ण श्री, सम्पूर्ण ज्ञान और सम्पूर्ण वैरण्य—इन छहोंका नाम ‘भग’ है। ये सब जिसमें हों, उसे भगवान् कहते हैं।’ वहीं यह भी कहा है—
Misc Detail
उत्पत्तिं प्रलयं चैवं भूतानामागतिं गतिम्। वेत्ति विद्यामविद्यां च स वाच्यो भगवानिति॥
मूलम् (समाप्तिः)
(६।५।७८)
‘उत्पत्ति और प्रलयको, भूतोंके आने और जानेको तथा विद्या और अविद्याको जो जानता है, उसे ‘भगवान्’ कहना चाहिये।’ अतएव यहाँ अर्जुन श्रीकृष्णको ‘भगवन्’ सम्बोधन देकर यह भाव दिखलाते हैं कि आप सर्वैश्वर्यसम्पन्न और सर्वज्ञ, साक्षात् परमेश्वर हैं—इसमें कुछ भी संदेह नहीं है।
विश्वमें अनन्त पदार्थों, भावों और विभिन्नजातीय प्राणियोंका विस्तार है। इन सबका यथाविधि नियन्त्रण और संचालन करनेके लिये जगत्स्रष्टा भगवान्के अटल नियमके द्वारा विभिन्नजातीय पदार्थों, भावों और जीवोंके विभिन्न समष्टि-विभाग कर दिये गये हैं और उन सबका ठीक नियमानुसार सृजन, पालन तथा संहारका कार्य चलता रहे—इसके लिये प्रत्येक समष्टि-विभागके अधिकारी नियुक्त हैं। रुद्र, वसु आदित्य, इन्द्र, साध्य, विश्वेदेव, मरुत्, पितृदेव, मनु और सप्तर्षि आदि इन्हीं अधिकारियोंकी विभिन्न संज्ञाएँ हैं। इनके मूर्त और अमूर्त दोनों ही रूप माने गये हैं। ये सभी भगवान्की विभूतियाँ हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वे च देवा मनवः समस्ताः सप्तर्षयो ये मनुसूनवश्च।
इन्द्रश्च योऽयं त्रिदशेशभूतो विष्णोरशेषास्तु विभूतयस्ताः॥
मूलम्
सर्वे च देवा मनवः समस्ताः सप्तर्षयो ये मनुसूनवश्च।
इन्द्रश्च योऽयं त्रिदशेशभूतो विष्णोरशेषास्तु विभूतयस्ताः॥
मूलम् (समाप्तिः)
(श्रीविष्णुपुराण ३।१।४६)
‘सभी देवता, समस्त मनु, सप्तर्षि तथा जो मनुके पुत्र हैं और जो ये देवताओंके अधिपति इन्द्र हैं—ये सभी भगवान् विष्णुकी ही विभूतियाँ हैं।’
Misc Detail
धाता मित्रोऽर्यमा शक्रो वरुणस्त्वंश एव च। भगो विवस्वान् पूषा च सविता दशमस्तथा॥
एकादशस्तथा त्वष्टा द्वादशो विष्णुरुच्यते। जघन्यजस्तु सर्वेषामादित्यानां गुणाधिकः॥
मूलम् (समाप्तिः)
(महा०, आदि० ६५।१५-१६)
इनमें जो विष्णु हैं, वे इन सबके राजा हैं और अन्य सबसे श्रेष्ठ हैं। इसीलिये भगवान्ने विष्णुको अपना स्वरूप बतलाया है।
दक्षकन्या मरुत्वतीसे उत्पन्न पुत्रोंको भी मरुद्गण कहते हैं (हरिवंश)। भिन्न-भिन्न मन्वन्तरोंमें भिन्न-भिन्न नामोंसे तथा विभिन्न प्रकारसे इनकी उत्पत्तिके वर्णन पुराणोंमें मिलते हैं।
दितिपुत्र उनचास मरुद्गण दिति देवीके भगवद्ध्यानरूप व्रतके तेजसे उत्पन्न हैं। उस तेजके ही कारण इनका गर्भमें विनाश नहीं हो सका था। इसलिये उनके इस तेजको भगवान्ने अपना स्वरूप बतलाया है।
Misc Detail
हरश्च बहुरूपश्च त्र्यम्बकश्चापराजितः। वृषाकपिश्च शम्भुश्च कपर्दी रैवतस्तथा॥
मृगव्याधश्च शर्वश्च कपाली च विशाम्पते। एकादशैते कथिता रुद्रास्त्रिभुवनेश्वराः॥
मूलम् (समाप्तिः)
(हरिवंश० १।३।५१, ५२)
इनमें शम्भु अर्थात् शंकर सबके अधीश्वर (राजा) हैं तथा कल्याणप्रदाता और कल्याणस्वरूप हैं। इसलिये उन्हें भगवान्ने अपना स्वरूप कहा है।
Misc Detail
धरो ध्रुवश्च सोमश्च अहश्चैवानिलोऽनलः। प्रत्यूषश्च प्रभासश्च वसवोऽष्टौ प्रकीर्तिताः॥
मूलम् (समाप्तिः)
(महा०, आदि० ६६।१८)
इनमें अनल (अग्नि) वसुओंके राजा हैं और देवताओंको हवि पहुँचानेवाले हैं। इसके अतिरिक्त वे भगवान्के मुख भी माने जाते हैं। इसीलिये अग्नि (पावक)-को भगवान्ने अपना स्वरूप बतलाया है।
Misc Detail
ईश्वराः स्वयमुद्भूता मानसा ब्रह्मणः सुताः। यस्मान्न हन्यते मानैर्महान् परिगतः पुरः॥
यस्मादृषन्ति ये धीरा महान्तं सर्वतो गुणैः। तस्मान्महर्षयः प्रोक्ता बुद्धेः परमदर्शिनः॥
भृगुर्मरीचिरत्रिश्च अंगिराः पुलहः क्रतुः। मनुर्दक्षो वसिष्ठश्च पुलस्त्यश्चेति ते दश॥
ब्रह्मणो मानसा ह्येत उद्भूताः स्वयमीश्वराः। प्रवर्तत ऋषेर्यस्मान्महांस्तस्मान्महर्षयः॥
मूलम् (समाप्तिः)
(वायुपुराण ५९।८२-८३, ८९-९०)
‘ब्रह्माके ये मानस पुत्र ऐश्वर्यवान् (सिद्धियोंसे सम्पन्न) एवं स्वयं उत्पन्न हैं। परिमाणसे जिसका हनन न हो (अर्थात् जो अपरिमेय हो) और जो सर्वत्र व्याप्त होते हुए भी सामने (प्रत्यक्ष) हो, वही महान् है। जो बुद्धिके पार पहुँचे हुए (भगवत्प्राप्त) विज्ञजन गुणोंके द्वारा उस महान् (परमेश्वर)-का सब ओरसे अवलम्बन करते हैं, वे इसी कारण (‘महान्तम् ऋषन्ति इति महर्षयः’ इस व्युत्पत्तिके अनुसार) महर्षि कहलाते हैं। भृगु, मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलह, क्रतु, मनु, दक्ष, वसिष्ठ और पुलस्त्य—ये दस महर्षि हैं। ये सब ब्रह्माके मनसे स्वयं उत्पन्न हुए हैं और ऐश्वर्यवान् हैं। चूँकि ऋषि (ब्रह्माजी)-से इन ऋषियोंके रूपमें स्वयं महान् (परमेश्वर) ही प्रकट हुए, इसलिये ये महर्षि कहलाये।’
महर्षियोंमें भृगुजी मुख्य हैं। ये भगवान्के भक्त, ज्ञानी और बड़े तेजस्वी हैं; इसीलिये इनको भगवान्ने अपना स्वरूप बतलाया है।
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इस अध्यायमें भगवान्ने अपने गुण, प्रभाव और तत्त्वका रहस्य समझानेके लिये जो उपदेश दिया है, वही ‘परम वचन’ है और उसे फिरसे सुननेके लिये कहकर भगवान्ने यह भाव दिखलाया है कि मेरी भक्तिका तत्त्व अत्यन्त ही गहन है; अतः उसे बार-बार सुनना परम आवश्यक समझकर बड़ी सावधानीके साथ श्रद्धा और प्रेमपूर्वक सुनना चाहिये। ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎
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भगवान्का अपने अतुलनीय प्रभावसे जगत्का सृजन, पालन और संहार करनेके लिये ब्रह्मा, विष्णु और रुद्रके रूपमें; दुष्टोंके विनाश, धर्मके संस्थापन तथा नाना प्रकारकी लीलाओंके द्वारा जगत्के प्राणियोंके उद्धारके लिये श्रीराम, श्रीकृष्ण आदि दिव्य अवतारोंके रूपमें; भक्तोंको दर्शन देकर उन्हें कृतार्थ करनेके लिये उनके इच्छानुरूप नाना रूपोंमें तथा लीलावैचित्र्यकी अनन्त धारा प्रवाहित करनेके लिये समस्त विश्वके रूपमें जो प्रकट होना है—उसीका वाचक यहाँ ‘प्रभव’ शब्द है। उसे देवसमुदाय और महर्षिलोग नहीं जानते, इस कथनसे भगवान्ने यह भाव दिखलाया है कि मैं किस-किस समय किन-किन रूपोंमें किन-किन हेतुओंसे किस प्रकार प्रकट होता हूँ—इसके रहस्यको साधारण मनुष्योंकी तो बात ही क्या है, अतीन्द्रिय विषयोंको समझनेमें समर्थ देवता और महर्षिलोग भी यथार्थरूपसे नहीं जानते। ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎
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इस कथनसे भगवान्ने यह भाव दिखलाया है कि जिन देवता और महर्षियोंसे इस सारे जगत्की उत्पत्ति हुई है, वे सब मुझसे ही उत्पन्न हुए हैं; उनका निमित्त और उपादान कारण मैं ही हूँ और उनमें जो विद्या, बुद्धि, शक्ति, तेज आदि प्रभाव हैं—वे सब भी उन्हें मुझसे ही मिलते हैं। ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎
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‘प्रीयमाणाय’ विशेषणका प्रयोग करके भगवान्ने यह दिखलाया है कि हे अर्जुन! तुम्हारा मुझमें अतिशय प्रेम है, मेरे वचनोंको तुम अमृततुल्य समझकर अत्यन्त श्रद्धा और प्रेमके साथ सुनते हो; इसीलिये मैं किसी प्रकारका संकोच न करके बिना पूछे भी तुम्हारे सामने अपने परम गोपनीय गुण, प्रभाव और तत्त्वका रहस्य बार-बार खोल रहा हूँ। इसमें तुम्हारा प्रेम ही कारण है। ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎
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कर्तव्य-अकर्तव्य, ग्राह्य-अग्राह्य और भले-बुरे आदिका निर्णय करके निश्चय करनेवाली जो वृत्ति है, उसे ‘बुद्धि’ कहते हैं। ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎
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किसी भी पदार्थको यथार्थ जान लेना ‘ज्ञान’ है; यहाँ ‘ज्ञान’ शब्द साधारण ज्ञानसे लेकर भगवान्के स्वरूपज्ञानतक सभी प्रकारके ज्ञानका वाचक है। ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎
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भोगासक्त मनुष्योंको नित्य और सुखप्रद प्रतीत होनेवाले समस्त सांसारिक भोगोंको अनित्य, क्षणिक और दुःखमूलक समझकर उनमें मोहित न होना—यही ‘असम्मोह’ है। ↩︎ ↩︎
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इस कथनसे भगवान्ने यह भाव दिखलाया है कि विभिन्न प्राणियोंके उनकी प्रकृतिके अनुसार उपर्युक्त प्रकारके जितने भी विभिन्न भाव होते हैं, वे सब मुझसे ही होते हैं, अर्थात् वे सब मेरी ही सहायता, शक्ति और सत्तासे होते हैं। ↩︎
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‘सुरगणाः’ पद एकादश रुद्र, आठ वसु, बारह आदित्य, प्रजापति, उनचास मरुद्गण, अश्विनीकुमार और इन्द्र आदि जितने भी शास्त्रीय देवताओंके समुदाय हैं—उन सबका वाचक है। ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎
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‘महर्षयः’ पदसे यहाँ सप्त महर्षियोंको समझना चाहिये। ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎
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‘चत्वारः पूर्वे’ से सबसे पहले होनेवाले सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार—इन चारोंको लेना चाहिये। ये भी भगवान्के ही स्वरूप हैं और ब्रह्माजीके तप करनेपर स्वेच्छासे प्रकट हुए हैं। ब्रह्माजीने स्वयं कहा है— ↩︎
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सिंह सब पशुओंका राजा माना गया है। वह सबसे बलवान्, तेजस्वी, शूरवीर और साहसी होता है। इसलिये भगवान्ने सिंहको अपनी विभूतियोंमें गिना है। ↩︎
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विनताके पुत्र गरुडजी पक्षियोंके राजा और उन सबसे बड़े होनेके कारण पक्षियोंमें श्रेष्ठ माने गये हैं। साथ ही ये भगवान्के वाहन, उनके परम भक्त और अत्यन्त पराक्रमी हैं। इसलिये गरुड़को भगवान्ने अपना स्वरूप बतलाया है। ↩︎