०३३ राजविद्याराजगुह्ययोगः

भागसूचना

त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

(श्रीमद्भगवद्‌गीतायां नवमोऽध्यायः)
ज्ञान-विज्ञान और जगत्‌की उत्पत्तिका, आसुरी और दैवी सम्पदावालोंका, प्रभावसहित भगवान्‌के स्वरूपका, सकाम-निष्काम उपासनाका एवं भगवद्भक्तिकी महिमाका वर्णन

अनुवाद (हिन्दी)

सम्बन्ध—गीताके सातवें अध्यायके आरम्भमें भगवान्‌ने विज्ञानसहित ज्ञानका वर्णन करनेकी प्रतिज्ञा की थी। उसके अनुसार उस विषयका वर्णन करते हुए, अन्तमें ब्रह्म, अध्यात्म, कर्म, अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञके सहित भगवान्‌को जाननेकी एवं अन्तकालके भगवच्चिन्तनकी बात कही। इसपर आठवें अध्यायमें अर्जुनने उन तत्त्वोंको और अन्तकालकी उपासनाके विषयको समझनेके लिये सात प्रश्न कर दिये। उनमेंसे छः प्रश्नोंका उत्तर तो भगवान्‌ने संक्षेपमें तीसरे और चौथे श्लोकमें दे दिया, किंतु सातवें प्रश्नके उत्तरमें उन्होंने जिस उपदेशका आरम्भ किया, उसमें सारा-का-सारा आठवाँ अध्याय पूरा हो गया। इस प्रकार सातवें अध्यायमें आरम्भ किये हुए विज्ञानसहित ज्ञानका सांगोपांग वर्णन न होनेके कारण उसी विषयको भलीभाँति समझानेके उद्देश्यसे भगवान् इस नवम अध्यायका आरम्भ करते हैं तथा सातवें अध्यायमें वर्णित उपदेशके साथस इसका घनिष्ठ सम्बन्ध दिखलानेके लिये पहले श्लोकमे पुनः उसी विज्ञानसहित ज्ञानका वर्णन करनेकी प्रतिज्ञा करते हैं—

मूलम् (वचनम्)

श्रीभगवानुवाच

Misc Detail

इदं तु ते गृह्यतमं 3_ प्रवक्ष्याम्यनसूयवे_ ४_।_

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ॥ १ ॥

मूलम्

ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीभगवान् बोले— तुझ दोषदृष्टिरहित भक्तके लिये इस परम गोपनीय विज्ञानसहित ज्ञानको पुनः भलीभाँति कहूँगा, जिसको जानकर तू दुःखरूप संसारसे1 मुक्त हो जायगा॥१॥

Misc Detail

राजविद्या २_ राजगुह्यं_ ३_ पवित्रमिदमुत्तमम्_ ४_ ।_
प्रत्यक्षावगमं ५_ धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम्_ ६_ ॥ २ ॥_

अनुवाद (हिन्दी)

यह विज्ञानसहित ज्ञान सब विद्याओंका राजा, सब गोपनीयोंका राजा, अति पवित्र, अति उत्तम, प्रत्यक्ष फलवाला, धर्मयुक्त, साधन करनेमें बड़ा सुगम2 और अविनाशी है॥२॥
सम्बन्ध—जब विज्ञानसहित ज्ञानकी इतनी महिमा है और इसका साधन भी इतना सुगम है तो फिर सभी मनुष्य इसे धारण क्यों नहीं करते? इस जिज्ञासापर अश्रद्धाको ही इसमें प्रधान कारण दिखलानेके लिये भगवान् अब इसपर श्रद्धा न करनेवाले मनुष्योंकी निन्दा करते हैं—

विश्वास-प्रस्तुतिः

अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परंतप।
अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि ॥ ३ ॥

मूलम्

अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परंतप।
अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे परंतप! इस उपर्युक्त धर्ममें श्रद्धारहित पुरुष3 मुझको न प्राप्त होकर मृत्युरूप संसारचक्रमें भ्रमण करते रहते हैं॥३॥
सम्बन्ध—पूर्वश्लोकमें भगवान्‌ने जिस विज्ञानसहित ज्ञानका उपदेश करनेकी प्रतिज्ञा की थी तथा जिसका माहात्म्य वर्णन किया था, अब उसका आरम्भ करते हुए वे सबसे पहले प्रभावके साथ अपने निराकारस्वरूपके तत्त्वका वर्णन करते हैं—

Misc Detail

मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना १_।_

विश्वास-प्रस्तुतिः

मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः ॥ ४ ॥

मूलम्

मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुझ निराकार परमात्मासे यह सब जगत्4 जलसे बरफके सदृश परिपूर्ण है5 और सब भूत मेरे अन्तर्गत संकल्पके आधार स्थित हैं6 किंतु वास्तवमें मैं उनमें स्थित नहीं हूँ7॥४॥

Misc Detail

न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम् ६_।_

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः ॥ ५ ॥

मूलम्

भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे सब भूत मुझमें स्थित नहीं हैं; किंतु मेरी ईश्वरीय योगशक्तिको देख2 कि भूतोंका धारण-पोषण करनेवाला और भूतोंको उत्पन्न करनेवाला भी मेरा आत्मा वास्तवमें भूतोंमें स्थित नहीं है3॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथाऽऽकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान्।
तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय ॥ ६ ॥

मूलम्

यथाऽऽकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान्।
तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे आकाशसे उत्पन्न सर्वत्र विचरनेवाला महान् वायु सदा आकाशमें ही स्थित है, वैसे ही मेरे संकल्पद्वारा उत्पन्न होनेसे सम्पूर्ण भूत मुझमें स्थित हैं, ऐसा जान1॥६॥
सम्बन्ध—विज्ञानसहित ज्ञानका वर्णन करते हुए भगवान्‌ने यहाँतक प्रभावसहित अपने निराकारस्वरूपका तत्त्व समझानेके लिये अपनेको सबमें व्यापक, सबका आधार, सबका उत्पादक, असंग और निर्विकार बतलाया। अब अपने भूतभावन स्वरूपका स्पष्टीकरण करते हुए सृष्टिरचनादि कर्मोंका तत्त्व समझाते हैं—

Misc Detail

सर्वभूतानि २_ कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम्।_
कल्पक्षये ३_ पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम् ॥ ७ ॥_

अनुवाद (हिन्दी)

हे अर्जुन! कल्पोंके अन्तमें सब भूत मेरी प्रकृतिको प्राप्त होते हैं6 अर्थात् प्रकृतिमें लीन होते हैं और कल्पोंके आदिमें उनको मैं फिर रचता हूँ7॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः।
भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात् ॥ ८ ॥

मूलम्

प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः।
भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपनी प्रकृतिको अंगीकार8 करके स्वभावके बलसे परतन्त्र हुए इस सम्पूर्ण भूतसमुदायको बार-बार उनके कर्मोंके अनुसार रचता हूँ2॥८॥
सम्बन्ध—इस प्रकार जगत्-रचनादि समस्त कर्म, करते हुए भी भगवान् उन कर्मोंके बन्धनमें क्यों नहीं पड़ते, अब यही तत्त्व समझानेके लिये भगवान् कहते हैं—

विश्वास-प्रस्तुतिः

न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनंजय।
उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु ॥ ९ ॥

मूलम्

न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनंजय।
उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे अर्जुन! उन कर्मोंमें आसक्तिरहित और उदासीनके सदृश स्थित मुझ परमात्माको वे कर्म नहीं बाँधते1॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्।
हेतुनानेन कौन्तेय जगत् विपरिवर्तते ॥ १० ॥

मूलम्

मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्।
हेतुनानेन कौन्तेय जगत् विपरिवर्तते ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे अर्जुन! मुझ अधिष्ठाताके सकाशसे प्रकृति चराचरसहित सर्वजगत्‌को रचती है4 और इस हेतुसे ही यह संसार-चक्र घूम रहा है॥१०॥
सम्बन्ध—अपनी प्रतिज्ञाके अनुसार विज्ञानसहित ज्ञानका वर्णन करते हुए भगवान्‌ने चौथेसे छठे श्लोकतक प्रभावसहित सगुण-निराकार स्वरूपका तत्त्व समझाया। फिर सातवेंसे दसवें श्लोकतक सृष्टि-रचनादि समस्त कर्मोंमें अपनी असंगता और निर्विकारता दिखलाकर उन कर्मोंकी दिव्यताका तत्त्व बतलाया। अब अपने सगुण-साकार रूपका महत्त्व, उसकी भक्तिका प्रकार और उसके गुण और प्रभावका तत्त्व समझानेके लिये पहले दो श्लोकोंमें उसके प्रभावको न जाननेवाले, असुर-प्रकृतिके मनुष्योंकी निन्दा करते हैं—

Misc Detail

अवजानन्ति मां मूढा ३_ मानुषीं तनुमाश्रितम्।_

विश्वास-प्रस्तुतिः

परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम् ॥ ११ ॥

मूलम्

परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे परम भावको न जाननेवाले6 मूढलोग मनुष्यका शरीर धारण करनेवाले मुझ सम्पूर्ण भूतोंके महान् ईश्वरको तुच्छ समझते हैं अर्थात् अपनी योगमायासे संसारके उद्धारके लिये मनुष्यरूपमें विचरते हुए मुझ परमेश्वरको साधारण मनुष्य मानते हैं1॥११॥

Misc Detail

मोघाशा २_ मोघकर्माणो_ ३_ मोघज्ञाना_ ४_ विचेतसः।_

विश्वास-प्रस्तुतिः

राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः ॥ १२ ॥

मूलम्

राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे व्यर्थ आशा, व्यर्थ कर्म और व्यर्थ ज्ञानवाले विक्षिप्तचित्त अज्ञानीजन राक्षसी, आसुरी और मोहिनी प्रकृतिको ही धारण किये रहते हैं7॥१२॥
सम्बन्ध—भगवान्‌का प्रभाव न जाननेवाले आसुरी प्रकृतिके मनुष्योंकी निन्दा करके अब सगुणरूपकी भक्तिका तत्त्व समझानेके लिये भगवान्‌के प्रभावको जाननेवाले, दैवी प्रकृतिके आश्रित, उच्च श्रेणीके अनन्य भक्तोंके लक्षण बतलाते हैं—

Misc Detail

महात्मानस्तु ६_ मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः।_

विश्वास-प्रस्तुतिः

भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम् ॥ १३ ॥

मूलम्

भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु हे कुन्तीपुत्र! दैवी प्रकृतिके आश्रित2 महात्माजन मुझको सब भूतोंका सनातन कारण और नाशरहित अक्षरस्वरूप जानकर3 अनन्यमनसे युक्त होकर निरन्तर भजते हैं9

Misc Detail

सततं १_ कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च_ २_ दृढव्रताः_ ३_।_
नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता ४_ उपासते ॥ १४ ॥_

अनुवाद (हिन्दी)

वे दृढ़ निश्चयवाले भक्तजन निरन्तर मेरे नाम और गुणोंका कीर्तन7 करते हुए तथा मेरी प्राप्तिके लिये यत्न करते हुए और मुझको बार-बार प्रणाम8 करते हुए सदा मेरे ध्यानमें युक्त होकर अनन्यप्रेमसे मेरी उपासना करते हैं2॥१४॥
सम्बन्ध—भगवान्‌के गुण, प्रभाव आदिको जाननेवाले अनन्यप्रेमी भक्तोंके भजनका प्रकार बतलाकर अब भगवान् उनसे भिन्न श्रेणीके उपासकोंकी उपासनाका प्रकार बतलाते हैं—

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते।
एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम् ॥ १५ ॥

मूलम्

ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते।
एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दूसरे ज्ञानयोगी मुझ निर्गुण-निराकार ब्रह्मका ज्ञान-यज्ञके द्वारा अभिन्नभावसे पूजन करते हुए भी मेरी उपासना करते हैं,3 और दूसरे मनुष्य बहुत प्रकारसे स्थित मुझ विराट्स्वरूप परमेश्वरकी पृथक् भावसे उपासना करते हैं9॥१५॥
सम्बन्ध—समस्त विश्वकी उपासना भगवान्‌की ही उपासना कैसे है—यह स्पष्ट समझानेके लिये अब चार श्लोकोंद्वारा भगवान् इस बातका प्रतिपादन करते हैं कि समस्त जगत् मेरा ही स्वरूप है—

Misc Detail

अहं क्रतुरहं १_ यज्ञः_ २_ स्वधाहमहमौषधम्_ ३_।_
मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं ४_ हुतम् ॥ १६ ॥_

अनुवाद (हिन्दी)

क्रतु मैं हूँ, यज्ञ मैं हूँ, स्वधा मैं हूँ, ओषधि मैं हूँ, मन्त्र मैं हूँ, घृत मैं हूँ, अग्नि मैं हूँ और हवनरूप क्रिया भी मैं ही हूँ7॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः।
वेद्यं पवित्रमोंकार ऋक् साम यजुरेव च ॥ १७ ॥

मूलम्

पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः।
वेद्यं पवित्रमोंकार ऋक् साम यजुरेव च ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस सम्पूर्ण जगत्‌का धाता अर्थात् धारण करनेवाला एवं कर्मोंके फलको देनेवाला, पिता, माता,8 पितामह,2 जाननेयोग्य, पवित्र,3 ओंकार9 तथा ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद भी मैं ही हूँ10॥१७॥

Misc Detail

गतिर्भर्ता ११_ प्रभुः साक्षी निवासः शरणं_ १२_ सुहृत्_ १३_।_
प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम् १४_ ॥ १८ ॥_

अनुवाद (हिन्दी)

प्राप्त होनेयोग्य परम धाम, भरण-पोषण करनेवाला, सबका स्वामी,1 शुभाशुभक्त देखनेवाला, सबका वासस्थान, शरण लेनेयोग्य, प्रत्युपकार न चाहकर हित करनेवाला, सबकी उत्पत्ति-प्रलयका हेतु, स्थितिका आधार, निधान4 और अविनाशी कारण भी मैं ही हूँ5॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णाम्युत्सृजामि च।
अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन ॥ १९ ॥

मूलम्

तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णाम्युत्सृजामि च।
अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं ही सूर्यरूपसे तपता हूँ, वर्षाका आकर्षण करता हूँ और उसे बरसाता हूँ6। हे अर्जुन! मैं ही अमृत7 और मृत्यु8 हूँ और सत्-असत् भी मैं ही हूँ2॥१९॥
सम्बन्ध—तेरहवेंसे पंद्रहवें श्लोकतक अपने सगुण-निर्गुण और विराट् रूपकी उपासनाओंका वर्णन करके भगवान्‌ने उन्नीसवें श्लोकतक समस्त विश्वको अपना स्वरूप बतलाया। ‘समस्त विश्व मेरा ही स्वरूप होनेके कारण इन्द्रादि अन्य देवोंकी उपासना भी प्रकारान्तरसे मेरी ही उपासना है, परंतु ऐसा न जानकर फलासक्तिपूर्वक पृथक्-पृथक् भावसे उपासना करनेवालोंको मेरी प्राप्ति न होकर विनाशी फल ही मिलता है।’ इसी बातको दिखलानेके लिये अब दो श्लोकोंमें भगवान् उस उपासनाका फलसहित वर्णन करते हैं—

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापा
यज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते ।
ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोक-
मश्नन्ति दिव्यान् दिवि देवभोगान् ॥ २० ॥

मूलम्

त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापा
यज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते ।
ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोक-
मश्नन्ति दिव्यान् दिवि देवभोगान् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तीनों वेदोंमें विधान किये हुए सकामकर्मोंको करनेवाले, सोमरसको पीनेवाले, पापरहित पुरुष3 मुझको यज्ञोंके द्वारा पूजकर स्वर्गकी प्राप्ति चाहते हैं; ये पुरुष अपने पुण्योंके फलरूप स्वर्गलोकको9 प्राप्त होकर स्वर्गमें दिव्य देवताओंके भोगोंको भोगते हैं॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं
क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति।
एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना
गतागतं कामकामा लभन्ते ॥ २१ ॥

मूलम्

ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं
क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति।
एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना
गतागतं कामकामा लभन्ते ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे उस विशाल1 स्वर्गलोकको भोगकर पुण्य क्षीण होनेपर मृत्युलोकको प्राप्त होते हैं। इस प्रकार स्वर्गके साधनरूप तीनों वेदोंमें कहे हुए सकामकर्मका आश्रय लेनेवाले और भोगोंकी कामनावाले पुरुष बार-बार आवागमनको प्राप्त होते हैं, अर्थात् पुण्यके प्रभावसे स्वर्गमें जाते हैं और पुण्य क्षीण होनेपर मृत्युलोकमें आते हैं4॥२१॥

Misc Detail

अनन्याश्चिन्तयन्तो ३_ मां ये जनाः पर्युपासते।_

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥ २२ ॥

मूलम्

तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

किंतु जो अनन्यप्रेमी भक्तजन मुझ परमेश्वरको निरन्तर चिन्तन करते हुए निष्कामभावसे भजते हैं,6 उन नित्य-निरन्तर मेरा चिन्तन करनेवाले पुरुषोंका योगक्षेम मैं स्वयं प्राप्त कर देता हूँ7॥२२॥

Misc Detail

येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः ६_।_

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम् ॥ २३ ॥

मूलम्

तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम् ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे अर्जुन! यद्यपि श्रद्धासे युक्त जो सकाम भक्त दूसरे देवताओंको पूजते हैं, वे भी मुझको ही पूजते हैं, किंतु उनका वह पूजन अविधिपूर्वक अर्थात्र अज्ञानपूर्वक है2

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च।
न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते ॥ २४ ॥

मूलम्

अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च।
न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्योंकि सम्पूर्ण यज्ञोंका भोक्ता और स्वामी भी मैं ही हूँ;1 परंतु वे मुझ परमेश्वरको तत्त्वसे नहीं जानते, इसीसे गिरते हैं अर्थात् पुनर्जन्मको प्राप्त होते हैं॥२४॥
सम्बन्ध—भगवान्‌के भक्त आवागमनको प्राप्त नहीं होते और अन्य देवताओंके उपासक आवागमनको प्राप्त होते हैं, इसका क्या कारण है? इस जिज्ञासापर उपास्यके स्वरूप और उपासकके भावसे उपासनाके फलमें भेद होनेका नियम बतलाते हैं—

विश्वास-प्रस्तुतिः

यान्ति देवव्रता देवान् पितॄन् यान्ति पितृव्रताः।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम् ॥ २५ ॥

मूलम्

यान्ति देवव्रता देवान् पितॄन् यान्ति पितृव्रताः।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवताओंको पूजनेवाले देवताओंको प्राप्त होते हैं, पितरोंको पूजनेवाले पितरोंको प्राप्त होते हैं,4 भूतोंको पूजनेवाले भूतोंको प्राप्त होते हैं5 और मेरा पूजन करनेवाले भक्त मुझको ही प्राप्त होते हैं6। इसीलिये मेरे भक्तोंका पुनर्जन्म नहीं होता॥२५॥
सम्बन्ध—भगवान्‌की भक्तिका भगवत्प्राप्तिरूप महान् फल होनेपर भी उसके साधनमें कोई कठिनता नहीं है, बल्कि उसका साधन बहुत ही सुगम है—यही बात दिखलानेके लिये भगवान् कहते हैं—

विश्वास-प्रस्तुतिः

पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।

मूलम्

पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।

Misc Detail

तदहं भक्त्युहृतमश्नामि १ २_ प्रयतात्मनः ॥ २६ ॥_

अनुवाद (हिन्दी)

जो कोई भक्त5 मेरे लिये प्रेमसे पत्र, पुष्प, फल, जल आदि अर्पण करता है,6 उस शुद्धबुद्धि निष्काम प्रेमी भक्तका प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्र-पुष्पादि मैं सगुणरूपसे प्रकट होकर प्रीतिसहित खाता हूँ7॥२६॥
सम्बन्ध—यदि ऐसी ही बात है तो मुझे क्या करना चाहिये, इस जिज्ञासापर भगवान् अर्जुनको उसका कर्तव्य बतलाते हैं—

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्‌ करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत् कुरुष्व मदर्पणम् ॥ २७ ॥

मूलम्

यत्‌ करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत् कुरुष्व मदर्पणम् ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे अर्जुन! तू जो कर्म करता है, जो खाता है, जो हवन करता है, जो दान देता है और जो तप करता है,8 वह सब मेरे अर्पण कर2॥२७॥
सम्बन्ध—इस प्रकार समस्त कर्मोंको आपके अर्पण करनेसे क्या होगा, इस जिज्ञासापर कहते हैं—

विश्वास-प्रस्तुतिः

शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः ।

मूलम्

शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः ।

Misc Detail

संन्यासयोगयुक्तात्मा १_ विमुक्तो मामुपैष्यसि ॥ २८ ॥_

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार, जिसमें समस्त कर्म मुझ भगवान्‌के अर्पण होते हैं—ऐसे संन्यासयोगसे युक्त चित्तवाला तू शुभाशुभ फलरूप कर्मान्धनसे मुक्त हो जायगा और उनसे मुक्त होकर मुझको ही प्राप्त होगा4॥२८॥
सम्बन्ध—उपर्युक्त प्रकारसे भगवान्‌की भक्ति करनेवालेको भगवान्‌की प्राप्ति होती है, दूसरोंको नहीं होती—इस कथनसे भगवान्‌में विषमताके दोषकी आशंका हो सकती है। अतएव उसका निवारण करते हुए भगवान् कहते हैं—

विश्वास-प्रस्तुतिः

समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्॥२९॥

मूलम्

समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्॥२९॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं सब भूतोंमें समभावसे व्यापक हूँ, न कोई मेरा अप्रिय है और न प्रिय है;5 परंतु जो भक्त मुझको प्रेमसे भजते हैं, वे मुझमें हैं और मैं भी उनमें प्रत्यक्ष प्रकट हूँ6॥२९॥

Misc Detail

अपि १_ चेत् सुदुराचारो_ २_ भजते मामनन्यभाक्।_

विश्वास-प्रस्तुतिः

साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥ ३० ॥

मूलम्

साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्यभावसे मेरा भक्त होकर मुझको भजता है5 तो वह साधु ही माननेयोग्य है; क्योंकि वह यथार्थ निश्चयवाला है। अर्थात् उसने भलीभाँति निश्चय कर लिया है कि परमेश्वरके भजनके समान अन्य कुछ भी नहीं है6

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रति जानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति ॥ ३१ ॥

मूलम्

क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रति जानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और सदा रहनेवाली परम शान्तिको प्राप्त होता है7। हे अर्जुन! तू निश्चयपूर्वक सत्य जान8 कि मेरा भक्त नष्ट नहीं होता2॥३१॥
सम्बन्ध—अब दो श्लोकोंमें भगवान् अच्छी-बुरी जातिके कारण होनेवाली विषमताका अपनेमें अभाव दिखलाते हुए शरणागतिरूप भक्तिका महत्त्व प्रतिपादन करके अर्जुनको भजन करनेकी आज्ञा देते हैं—

Misc Detail

मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि १_ स्युः पापयोनयः।_
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि १_ यान्ति परां गतिम् ॥ ३२ ॥_

अनुवाद (हिन्दी)

हे अर्जुन! स्त्री, वैश्य, शूद्र तथा पापयोनि4—चाण्डालादि जो कोई भी हों, वे भी मेरे शरण होकर5 परमगतिको ही प्राप्त होते हैं॥३२॥

Misc Detail

किं पुनर्ब्राह्मणाः १_ पुण्या भक्ता_ २_ राजर्षयस्तथा।_

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम् ॥ ३३ ॥

मूलम्

अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम् ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर इसमें कहना ही क्या है, जो पुण्यशील ब्राह्मण तथा राजर्षि भक्तजन मेरी शरण होकर परम गतिको प्राप्त होते हैं। इसलिये तू सुखरहित और क्षणभंगुर इस मनुष्यशरीरको प्राप्त होकर निरन्तर मेरा ही भजन कर5
सम्बन्ध—पिछले श्लोकमें भगवान्‌ने अपने भजनका महत्त्व दिखलाया और अन्तमें अर्जुनको भजन करनेके लिये कहा। अतएव अब भगवान् अपने भजनका अर्थात् शरणागतिका प्रकार बतलाते हुए अध्यायकी समाप्ति करते हैं—

Misc Detail

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां 6 नमस्कुरु।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः ॥ ३४ ॥

मूलम्

मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुझमें मनवाला हो,7 मेरा भक्त बन,8 मेरा पूजन करनेवाला हो,1 मुझको प्रणाम कर4। इस प्रकार आत्माको मुझमें नियुक्त करके5 मेरे परायण6 होकर तू मुझको ही प्राप्त होगा7॥३४॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते भीष्मपर्वणि श्रीमद्भगवद्‌गीतापर्वणि श्रीमद्भगवद्‌गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे राजविद्याराजगुह्ययोगो नाम नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥ भीष्मपर्वणि तु त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३३ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्वके श्रीमद्भगवद्‌गीतापर्वके अन्तर्गत ब्रह्मविद्या एवं योगशास्त्ररूप श्रीमद्भगवद्‌गीतोपनिषद्‌में, श्रीकृष्णार्जुनसंवादमें राजविद्याराजगुह्ययोग नामक नवाँ अध्याय पूरा हुआ॥९॥ भीष्मपर्वमें तैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३३॥

ईशावास्यमिद्ँ सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।  (ईशोपनिषद् १)

‘इस संसारमें जो कुछ जड-चेतन पदार्थसमुदाय है, वह सब ईश्वरसे व्याप्त है।’

जहाँ भगवान्‌ने अपनेको जगत्‌का रचयिता बतलाया है, वहाँ यह बात भी समझ लेनी चाहिये कि वस्तुतः भगवान् स्वयं कुछ नहीं करते, वे अपनी शक्ति प्रकृतिको स्वीकार करके उसीके द्वारा जगत्‌की रचना करते हैं और जहाँ प्रकृतिको सृष्टि-रचनादि कार्य करनेवाली कहा गया है, वहाँ उसीके साथ यह बात भी समझ लेनी चाहिये कि भगवान्‌की अध्यक्षतामें उनसे सत्ता-स्फूर्ति पाकर ही प्रकृति सब कुछ करती है। जबतक उसे भगवान्‌का सहारा नहीं मिलता, तबतक वह जड-प्रकृति कुछ भी नहीं कर सकती। इसीलिये भगवान्‌ने आठवें श्लोकमें यह कहा है कि ‘मैं अपनी प्रकृतिको स्वीकार करके जगत्‌की रचना करता हूँ’ और इस श्लोकमें यह कहते हैं कि ‘मेरी अध्यक्षतामें प्रकृति जगत्‌की रचना करती है।’ वस्तुतः दो तरहकी युक्तियोंसे एक ही तत्त्व समझाया गया है।

‘सब लोकोंके महान् ईश्वर भगवान् वासुदेव सबके पूजनीय हैं। उन महान् वीर्यवान् शंख-चक्र-गदाधारी वासुदेवको मनुष्य समझकर कभी उनकी अवज्ञा नहीं करनी चाहिये। वे ही परम गुह्य, परम पद, परम ब्रह्म और परम यशःस्वरूप हैं। वे ही अक्षर हैं, अव्यक्त हैं, सनातन हैं, परम तेज हैं, परम सुख हैं और परम सत्य हैं। देवता, इन्द्र और मनुष्य, किसीको भी उन अमित-पराक्रमी प्रभु वासुदेवको मनुष्य मानकर उनका अनादर नहीं करना चाहिये। जो मूढमति लोग उन हृषीकेशको मनुष्य बतलाते हैं, वे नराधम हैं। जो मनुष्य इन महात्मा योगेश्वरको मनुष्यदेहधारी मानकर इनका अनादर करते हैं और जो इन चराचरके आत्मा श्रीवत्सके चिह्नवाले महान् तेजस्वी पद्मनाथ भगवान्‌को नहीं पहचानते वे तामसी प्रकृतिसे युक्त हैं। जो इन कौस्तुभ-किरीटधारी और मित्रोंको अभय करनेवाले भगवान्‌का अपमान करता है, वह अत्यन्त भयानक नरकमें पड़ता है।’

सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते। अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद् व्रत मम॥ (६।१८।३३)

अर्थात् ‘एक बार भी ‘मैं तेरा हूँ’ यों कहकर मेरी शरणमें आये हुए और मुझसे अभय चाहनेवालेको मैं सभी भूतोंसे अभय कर देता हूँ, यह मेरा व्रत है।’ इसीलिये भगवान्‌ने अपनेको ‘शरण’ कहा है।

जो पुरुष भगवान्‌के ही परायण होकर अनन्यचित्तसे उनका प्रेमपूर्वक निरन्तर चिन्तन करते हुए ही सब कार्य करते हैं, अन्य किसी भी विषयकी कामना, अपेक्षा और चिन्ता नहीं करते, उनके जीवननिर्वाहका सारा भार भी भगवान्‌पर रहता है। अतः वे सर्वशक्तिमान्, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, परमसुहृद् भगवान् ही अपने भक्तका लौकिक और पारमार्थिक सब प्रकारका योगक्षेम चलाते हैं।

पितरोंके लिये यथाविधि श्राद्ध-तर्पण करना, उनके निमित्त ब्राह्मणोंको भोजन कराना, हवन करना, जप करना, पाठ-पूजा करना तथा उनके लिये शास्त्रमें बतलाये हुए व्रत और नियमोंका भलीभाँति पालन करना आदि ‘पितरोंके व्रत’ हैं और जो मनुष्य सकामभावसे इन व्रतोंका पालन करते हैं, वे मरनेके बाद पितृलोकमें जाते हैं और वहाँ जाकर उन पितरोंके-जैसे स्वरूपको प्राप्त करके उनके-जैसे भोग भोगते हैं। यही पितरोंको प्राप्त होना है। ये भी अधिक-से-अधिक देवताओं या दिव्य पितरोंकी आयुपर्यन्त ही वहाँ रह सकते हैं। अन्तमें इनका भी पुनरागमन होता है।

यहाँ देव और पितरोंकी पूजाका निषेध नहीं समझना चाहिये। देव-पितृ-पूजा तो यथाविधि अपने-अपने वर्णाश्रमके अधिकारानुसार सबको अवश्य ही करनी चाहिये; परंतु वह पूजा यदि सकामभावसे होती है तो अपना अधिक-से-अधिक फल देकर नष्ट हो जाती है और यदि कर्तव्यबुद्धिसे भगवत् आज्ञा मानकर या भगवत्-पूजा समझकर की जाती है तो वह भगवत्प्राप्तिरूप महान् फलमें कारण होती है। इसलिये यहाँ समझना चाहिये कि देव-पितृकर्म तो अवश्य ही करें; परंतु उनमें निष्कामभाव लानेका प्रयत्न करें।

पहले किसी दूसरे उद्देश्यसे किये हुए कर्मोंको पीछेसे भगवान्‌को अर्पण करना, कर्म करते-करते बीचमें ही भगवान्‌के अर्पण कर देना, कर्म समाप्त होनेके साथ-साथ भगवान्‌के अर्पण कर देना अथवा कर्मोंका फल ही भगवान्‌के अर्पण करना—इस प्रकारका अर्पण करना भी भगवान्‌के ही अर्पण करना है। पहले इसी प्रकार होता है। ऐसा करते-करते ही उपर्युक्त प्रकारसे पूर्णतया भगवदर्पण होता है।

जो पुरुष इस प्रकार भगवान्‌को भजते हैं, भगवान् भी उनको वैसे ही भजते हैं। वे जैसे भगवान्‌को नहीं भूलते, वैसे ही भगवान् भी उनको नहीं भूल सकते—यही भाव दिखलानेके लिये भगवान्‌ने उनको अपनेमें बतलाया है और उन भक्तोंका विशुद्ध अन्तःकरण भगवत्प्रेमसे परिपूर्ण हो जाता है, इससे उनके हृदयमें भगवान् सदा-सर्वदा प्रत्यक्ष दीखने लगते हैं—यही भाव दिखलानेके लिये भगवान्‌ने अपनेको उनमें बतलाया है।

जैसे समभावसे सब जगह प्रकाश देनेवाला सूर्य दर्पण आदि स्वच्छ पदार्थोंमें प्रतिबिम्बित होता है, काष्ठादिमें नहीं होता, तथापि उसमें विषमता नहीं है, वैसे ही भगवान् भी भक्तोंको मिलते हैं, दूसरोंको नहीं मिलते—इसमें उनकी विषमता नहीं है, यह तो भक्तिकी ही महिमा है।

भक्त्याहमेकया ग्राह्यः श्रद्धयाऽऽत्मा प्रियः सताम्। भक्तिः पुनाति मन्निष्ठा श्वपाकानपि सम्भवात्॥ (११।१४।२१)

‘हे उद्धव! संतोंका परमप्रिय ‘आत्मा’ रूप मैं एकमात्र श्रद्धा-भक्तिसे ही वशीभूत होता हूँ। मेरी भक्ति जन्मतः चाण्डालोंको भी पवित्र कर देती है।’

यहाँ ‘पापयोनयः’ पदको स्त्री, वैश्य और शूद्रोंका विशेषण नहीं मानना चाहिये; क्योंकि वैश्योंकी गणना द्विजोंमें की गयी है। उनको वेद पढ़नेका और यज्ञादि वैदिक कर्मोंके करनेका शास्त्रमें पूर्ण अधिकार दिया गया है। अतः द्विज होनेके कारण वैश्योंको ‘पापयोनि’ कहना नहीं बन सकता। इसके अतिरिक्त छान्दोग्योपनिषद्‌में जहाँ जीवोंकी कर्मानुरूप गतिका वर्णन है, यह स्पष्ट कहा गया है कि—

तद्य इह रमणीयचरणा अभ्याशो ह यत्ते रमणीयां योनिमापद्येरन् ब्राह्मणयोनिं वा क्षत्रिययोनिं वा वैश्ययोनिं वाथ य इह कपूयचरणा अभ्याशो ह यत्ते कपूयां योनिमापद्येरञ्श्वयोनिं वा सूकरयोनिं वा चाण्डालयोनिं वा॥ (अध्याय ५ खण्ड १० मं० ७)

‘उन जीवोंमें जो इस लोकमें रमणीय आचरणवाले अर्थात् पुण्यात्मा होते हैं, वे शीघ्र ही उत्तम योनि—ब्राह्मणयोनि, क्षत्रिययोनि अथवा वैश्ययोनिको प्राप्त करते हैं और जो इस संसारमें कपूय (अधम) आचरणवाले अर्थात् पापकर्मा होते हैं, वे अधमयोनि अर्थात् कुत्तेकी, सूकरकी या चाण्डालकी योनिको प्राप्त करते हैं।’

इससे यह सिद्ध है कि वैश्योंकी गणना ‘पापयोनि’ में नहीं की जा सकती। अब रही स्त्रियोंकी बात—सों ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्योंकी स्त्रियोंका अपने पतियोंके साथ यज्ञादि वैदिक कर्मोंमें अधिकार माना गया है। इस कारणसे उनको भी पापयोनि कहना नहीं बन सकता। सबसे बड़ी अड़चन तो यह पड़ेगी कि भगवान्‌की भक्तिसे चाण्डाल आदिको भी परमगति मिलनेकी बात, जो कि सर्वशास्त्रसम्मत है और जो भक्तिके महत्त्वको प्रकट करती है, कैसे रहेगी? अतएव ‘पापयोनयः’ पदको स्त्री, वैश्य और शूद्रोंका विशेषण न मानकर शूद्रोंकी अपेक्षा भी हीनजातिके मनुष्योंका वाचक मानना ही ठीक प्रतीत होता है। क्योंकि भागवतमें बतलाया है—

विश्वास-प्रस्तुतिः

किरातहूणान्ध्रपुलिन्दपुल्कसा आभीरकङ्का यवनाः खसादयः।
येऽन्ये च पापा यदुपाश्रयाश्रयाः शुद्ध्यन्ति तस्मै प्रभविष्णवे नमः॥ (२।४।१८)

मूलम्

किरातहूणान्ध्रपुलिन्दपुल्कसा आभीरकङ्का यवनाः खसादयः।
येऽन्ये च पापा यदुपाश्रयाश्रयाः शुद्ध्यन्ति तस्मै प्रभविष्णवे नमः॥ (२।४।१८)

‘जिनके आश्रित भक्तोंका आश्रय लेकर किरात, हूण, आन्ध्र, पुलिन्द, पुल्कस, आभीर, कंक, यवन और खस आदि अधम जातिके लोग तथा इनके सिवा और भी बड़े-से-बड़े पापी मनुष्य शुद्ध हो जाते हैं, उन जगत्प्रभु भगवान् विष्णुको नमस्कार है।’

इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति न चेदिहावेदीन्महती विनष्टिः। (केनोपनिषद् २।५)

‘यदि इस मनुष्यजन्ममें परमात्माको जान लिया तब तो ठीक है और यदि उसे इस जन्ममें नहीं जाना तब तो बड़ी भारी हानि है।’

इसीलिये भगवान् कहते हैं कि ऐसे शरीरको पाकर नित्य-निरन्तर मेरा भजन ही करो। क्षणभर भी मुझे मत भूलो।


  1. इस श्लोकमें ‘अशुभ’ शब्द समस्त दुःखोंका, उनके हेतुभूत कर्मोंका, दुर्गुणोंका, जन्म-मरणरूप संसार-बन्धनका और इन सबके कारणरूप अज्ञानका वाचक है। इन सबसे सदाके लिये सम्पूर्णतया छूट जाना और परमानन्दस्वरूप परमेश्वरको प्राप्त हो जाना ही ‘अशुभसे मुक्त’ होना है। ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎

  2. इसमें न तो किसी प्रकारके बाहरी आयोजनकी आवश्यकता है और न कोई आयास ही करना पड़ता है। सिद्ध होनेके बादकी बात तो दूर रही, साधनके आरम्भसे ही इसमें साधकोंको शान्ति और सुखका अनुभव होने लगता है। इसलिये इसे साधन करनेमें बड़ा सुगम बतलाया है। ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎

  3. पिछले श्लोकमें जिस विज्ञानसहित ज्ञानका माहात्म्य बतलाया गया है और इसके आगे पूरे अध्यायमें जिसका वर्णन है, उसीका वाचक यहाँ ‘अस्य’ विशेषणके सहित ‘धर्मस्य’ पद है। इस प्रसंगमें वर्णन किये हुए भगवान्‌के स्वरूप, प्रभाव, गुण और महत्त्वको, उनकी प्राप्तिके उपायको और उसके फलको सत्य न मानकर उसमें असम्भावना और विपरीत भावना करना और उसे केवल रोचक उक्ति समझना आदि जो विश्वासविरोधिनी भावनाएँ हैं—ये जिनमें हों, वे ही श्रद्धारहित पुरुष हैं। ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎

  4. संसारमें जितनी भी ज्ञात और अज्ञात विद्याएँ हैं, यह उन सबमें बढ़कर है; जिसने इस विद्याका यथार्थ अनुभव कर लिया है उसके लिये फिर कुछ भी जानना बाकी नहीं रहता। इसलिये इसे ‘राजविद्या’ कहा गया है। ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎

  5. संसारमें और शास्त्रोंमें जितने भी गुप्त रखनेयोग्य रहस्यके विषय माने गये हैं, उन सबमें समग्ररूप भगवान् पुरुषोत्तमके तत्त्व, प्रेम, गुण, प्रभाव, विभूति और महत्त्व आदिके साथ उनकी शरणागतिका स्वरूप सबसे बढ़कर गुप्त रखनेयोग्य है, यही भाव दिखलानेके लिये इसे ‘गुह्यतम’ कहा गया है। ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎

  6. गुणवानोंके गुणोंको न मानना, गुणोंमें दोष देखना, उनकी निन्दा करना एवं उनपर मिथ्या दोषोंका आरोपण करना ‘असूया’ है। जिसमें स्वभावसे ही यह ‘असूया’ दोष बिलकुल ही नहीं होता, उसे ‘अनसूयु’ कहते हैं। ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎

  7. विज्ञानसहित इस ज्ञानका फल श्राद्धादि कर्मोंकी भाँति अदृष्ट नहीं है। साधक ज्यों-ज्यों इसकी ओर आगे बढ़ता है, त्यों-ही-त्यों उसके दुर्गुणों, दुराचारों और दुःखोंका नाश होकर, उसे परम शान्ति और परम सुखका प्रत्यक्ष अनुभव होने लगता है; जिसको इसकी पूर्णरूपसे उपलब्धि हो जाती है, वह तो तुरंत ही परम सुख और परम शान्तिके समुद्र, परम प्रेमी, परम दयालु और सबके सुहृद्, साक्षात् भगवान्‌को ही प्राप्त हो जाता है। इसीलिये यह ‘प्रत्यक्षावगम’ है। ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎

  8. जैसे सकामकर्म अपना फल देकर समाप्त हो जाता है और जैसे सांसारिक विद्या एक बार पढ़ लेनेके बाद, यदि उसका बार-बार अभ्यास न किया जाय तो नष्ट हो जाती है—भगवान्‌का यह ज्ञान-विज्ञान वैसे नष्ट नहीं हो सकता। इसके अतिरिक्त इसका फल भी अविनाशी है; इसलिये इसे ‘अव्यय’ कहा गया है। ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎

  9. जिनका मन भगवान्‌के सिवा अन्य किसी भी वस्तुमें नहीं रमता और क्षणमात्रका भी भगवान्‌का वियोग जिनको असह्य प्रतीत होता है, ऐसे भगवान्‌के अनन्यप्रेमी भक्त निरन्तर भगवान्‌को भजते रहते हैं। ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎

  10. ‘ऋक्’, ‘साम’ और ‘यजुः’—ये तीनों पद तीनों वेदोंके वाचक हैं। वेदोंका प्राकट्य भगवान्‌से हुआ है तथा सारे वेदोंसे भगवान्‌का ज्ञान होता है, इसलिये सब वेदोंको भगवान्‌ने अपना स्वरूप बतलाया है। ↩︎